प्रमाणन तथा नैत्यक जाँच में अन्तर

सामान्य व्यक्ति नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन को एक-दूसरे का पर्यायवाची ही समझते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन एक-दूसरे से भिन्न हैं । नैत्यक जाँच के अन्तर्गत बहियों का जोड़ निकालना, अगले पृष्ठ पर ले जाना, खतौनी करना, खातों का शेष निकालना तथा इन शेषों को तलपट में ले जाना इत्यादि आते हैं। इसके लिए अंकेक्षकों द्वारा विशेष चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। नैत्यक जाँच से लेखों की शुद्धता की जानकारी हो सकती है; जैसे-प्रविष्टियाँ ठीक-ठीक की गयी हैं,खतौनी ठीक-ठीक किये गये हैं तथा जाँच के बाद खाता पुस्तकों में कोई परिवर्तन नहीं किये गये हैं आदि । दूसरी ओर, प्रमाणन के अन्तर्गत प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की प्रमाणकों से जाँच की जाती है। इस जाँच के अन्तर्गत वे सब क्रियायें भी सम्मिलित हैं जो नैत्यक जाँच के अन्तर्गत सम्मिलित हैं अर्थात् प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों के जोड़, अगले पृष्ठ पर ले जाए गए (प्रमाणन तथा नैत्यक जाँच में अन्तर) (Difference between Vouching and Routine Checking)

जोड् (Carry forwards), गणनाएँ (Calculations), बाकी निकालना (Balances), खातों में खतौनी, खातों के शेष निकालना तथा इन्हें तलपट में लिखने से सम्बन्धित समस्त गणितीय जाँच करना। इस प्रकार प्रमाणन एक विस्तृत शब्द है, जिसमें नैत्यक जाँच भी सम्मिलित है। नैत्यक जाँच प्रमाणन का अंग है।

सामान्य तौर पर नैत्यक जाँच का कार्य कनिष्ठ लिपिकों के द्वारा किया जाता है, जबकि प्रमाणुन का कार्य वरिष्ठ लिपिकों द्वारा किया जाता है। हालांकि यह कोई वैधानिक नियम नहीं है। यह कर्मचारियों की उपलब्धता पर निर्भर करता है कि कार्य का निष्पादन किसके द्वारा कराया जाये। कर्मचारियों की कमी होने पर दोनों कार्य वरिष्ठ कर्मचारियों द्वारा ही सम्पादित किये जाते हैं। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन एक-दूसरे से भिन्न हैं। किन्तु नैत्यक जाँच प्रमाणन के लिए पूरक का कार्य करती हैं।


प्रमाणन के उद्देश्य

(Objects of Vouching)

प्रमाणन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. लेखों की सत्यता का ज्ञान-प्रमाणन का मुख्य उद्देश्य प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में किए गए लेखों की सत्यता एवं शुद्धता को प्रमाणित करना होता है । अंकेक्षक प्रमाणक की जाँच करके देखता है कि वह ठीक है। फिर उस प्रमाणक के आधार पर किए हुए लेखों का प्रमाणक के विवरण से मिलान करता है और यह जाँचता है कि लेखे प्रमाणकों के आधार पर सत्य एवं शुद्ध हैं।

2. लेखों का पूर्ण होना-प्रमाणन का उद्देश्य इस बात की सन्तुष्टि करना है कि प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में किये गये लेखे पूर्ण हैं। प्रमाणन के द्वारा अंकेक्षक यह देखता है कि संस्था की लेखा पुस्तकों में कोई भी ऐसी प्रविष्टि (entry) न हो जिसके लिए प्रमाणक (voucher) न हो और ऐसा कोई प्रमाणक (voucher) न हो जिसकी प्रविष्टि (entry) न की गई हो। (There should be no entry without a voucher and ng voucher without its entry.) अतः प्रमाणन से अंकेक्षक को यह विश्वास हो जाता कि सभी व्यवहारों का लेखा हो गया है एवं कोई भी व्यवहार लिखने से नहीं छूटा है।

3. लेखों का व्यापार से सम्बन्धित होना-प्रमाणन का उद्देश्य यह जानकारी प्राप्त करना भी है कि जिन व्यवहारों के लेखे लेखा पुस्तकों में किये गये हैं, वे समस्त व्यवहार संस्था/व्यापार से ही सम्बन्धित हैं। कहीं ऐसे लेन-देन तो लेखा-पुस्तकों में नहीं लिख दिये गये हैं जिनका संस्था/व्यापार से कोई सम्बन्ध ही न हो। कोई प्रमाणक ऐसा तो नहीं है जो व्यापारी/कर्मचारी के व्यक्तिगत खर्चे से सम्बन्धित हो, परन्तु उसका लेखा व्यापार/संस्था की लेखा पुस्तकों में कर लिया गया हो। अत: अंकेक्षक प्रमाणन करते समय यह बात ध्यान से देखता है कि उक्त प्रमाणक संस्था/व्यापारिक उपक्रम के नाम में ही बना हुआ है।

इस सम्बन्ध में स्पाइसर एवं पेगलर का यह कथन उल्लेखनीय है, “प्रमाणन का एक मुख्य उद्देश्य केवल यह जानना ही नहीं कि व्यापार से द्रव्य का भुगतान वास्तव में कर दिया गया है, वरन इसका एक मुख्य उद्देश्य यह जानना भी है कि ऐसा भुगतान व्यापार से सम्बन्धित सौदे के सम्बन्ध में ही हुआ है, असम्बन्धित सौदे के सम्बन्ध में नहीं।”

4. लेखों का अधिकृत होना प्रमाणन के अन्तर्गत अंकेक्षक यह भी जानना चाहता है कि जो लेन-देन पुस्तकों में लिखे गए हैं वे ठीक होने के साथ-साथ अधिकृत भी हैं या नहीं । अर्थात् जो भी लेन-देन पुस्तकों में लिखा जाए वह उत्तरदायी अधिकारी द्वारा अधिकत होना चाहिए। जैसे-किसी कर्मचारी को यात्रा-व्यय (T.A.) बिल की राशि के भुगतान का प्रमाणक अधिकृत अधिकारी द्वारा पास किया हुआ होना चाहिए ।

प्रमाणन का महत्त्व (Importance of Vouching) अथवा “प्रमाणन अंकेक्षण का सार है” (Vouching is the essence of Auditing) अथवा “प्रमाणन अंकेक्षण की रीढ़ की हड्डी है” (Vouching is Backbone of Auditing)

प्रमाणन सम्पूर्ण अंकेक्षण क्रियाओं का आधार माना जाता है। लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की जाँच केवल प्रमाणकों के आधार पर ही की जा सकती है अर्थात् कोई भी अंकेक्षक हिसाब-किताब के लेखों की सत्यता का प्रमाण-पत्र उनसे सम्बन्धित प्रमाणक को देखकर ही दे सकता है। यदि अंकेक्षक प्रमाणन का कार्य कुशलता से करता है तो प्रमाणन करते समय ही अशुद्धियों एवं अनियमितताओं का पता चल जाता है। प्रमाणन करने से खों की सत्यता, शुद्धता, अधिकृतता तथा पूर्णता का पता चल जाता है। इसके अतिरिक्त लेखों का व्यापार से सम्बन्धित होना भी निश्चित हो जाता है। वास्तविकता यह है कि प्रमाणन के पश्चात् ही अंकेक्षण कार्य आगे बढ़ता है।

प्रमाणन के महत्त्व को स्वीकार करते हुए डी० पॉला (De Paula) ने लिखा है, “प्रमाणन अंकेक्षण का सार है, और अंकेक्षक की पूर्ण सफलता इस बात पर निर्भर है कि प्रमाणन का कार्य कितनी चतुराई तथा पूर्णता के साथ किया गया है।”

प्रमाणन को अंकेक्षण कार्य की आत्मा कहा जाता है। मानव शरीर में आत्मा का जो महत्व है, वही महत्व और उपयोगिता अंकेक्षण में ‘प्रमाणन’ की है। आत्मा के अभाव में शरीर निष्प्राण है, उसी प्रकार प्रमाणन के अभाव में अंकेक्षण निष्प्राण एवं अर्थहीन होता है। अतः प्रमाणन को अंकेक्षण का सार कहना उपयुक्त ही होगा।

प्रो० आर० बी० बोस (Prof. R. B. Bose) के मतानुसार, “यह कहना सत्य है कि प्रमाणन अंकेक्षण का सार है, क्योंकि प्रमाणन के माध्यम से ही अंकेक्षक अपने को व्यवहारों के लेखों की पूर्णता एवं प्रमाणिकता के सम्बन्ध में आश्वस्त कर सकता है।”

प्रमाणन के महत्व के उपर्युक्त विवेचन के अलावा आर्मिटेज बनाम ब्रेवर एण्ड नॉट (Armitage Vs. Brewar and Knott, 1932) के मामले में न्यायाधीश श्री टेलबॉट द्वारा दिए गए निर्णय से भी यह स्पष्ट होता है कि अंकेक्षण की सम्पूर्ण क्रिया में प्रमाणन बहुत महत्वपूर्ण है।

लंकास्टर के अनुसार, “यह अनुभव करना चाहिए कि प्रमाणन की प्रकृति ही व्यवहार में इसे अंकेक्षण का एक अविच्छिन्न अंग बना देती है तथा इस बारे में जब कभी अंकेक्षक के कर्तव्यों को कम करने के लिए सोचा जाए, तो आने वाली जोखिम को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए।”

  1. Auditing: Meaning, Objectives and Importance
  2. Classification of Audit
  3. Audit Process
  4. Internal Check
  5. Audit Procedure: Vouching
  6. Verification & Valuation of Assets & Liabilities
  7. Depreciation and reserve
  8. Company Audit
  9. Appointment, Remuneration, Rights and Duties of an Auditor
  10. Liabilities of an Auditor
  11. Divisible Profits and Dividends
  12. Audit report
  13. Special Audit
  14. Investigation
  15. Cost Audit
  16. Management Audit

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