ba 2nd year Reign of Humayun notes

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ba 2nd year Reign of Humayun notes

हुमायूँ का शासन काल

बाबर की मृत्यु के बाद 1530 ई० में उसका सबसे बड़ा पुत्र हुमायूँ सम्राट बना। सिहासन पर बैठते ही उसे अपने सम्बन्धियों के षड्यन्त्रों तथा अफगान सरदारों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा था। 1630 ई० से 1540 ई० तक वह इन समस्याओं में उलझा रहा तथा 1640 ई० में परिस्थितिवश उसे पराजित होकर 15 वर्षों के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा। 1555 ई० में उसने भारत पर पुन: विजय प्राप्त की तथा 1556 ई० तक राज्य किया। अतः उसके शासन काल को दो भागों में बाँटा जाता है। प्रथम शासन काल 1530 ई० से 1540 ई० तक व द्वितीय शासन काल 1665 ई० से 1556 ई0 तक। 

हुमायूँ के प्रथम शासन काल (1530 ई० से 1540 ई०) की मुख्य घटनाएँ 

(Main incidents during the first reign of Humayun)

जिस समय हुमायूँ सिंहासन पर बैठा, वह चारों ओर से समस्याओं और कठिनाइयों से घिरा हुआ था। इसीलिए डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है..-“हुमायूँ ने जो सिंहासन प्राप्त किया वह पलों की शैय्या न होकर काँटों की सेज था।” 

(1) सम्बन्धियों की समस्याएँ-सिंहासन पर बैठते ही हुमायूँ को अनेक ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिसमें उसके सम्बन्धियों द्वारा उत्पन्न अनेक समस्याएँ थीं। हुन सम्बन्धियों में उसकी सौतेली बहन मासूम बेगम का पति महम्मद जमान मिजा, जाहिरात के सल्तान हसैन बैकरा का पोता था तथा बाबर की बहन खानजादा बेगम का पात अपने प्रधानमन्त्री मुहम्मद खलीफा को कैद करके बयाना के दुर्ग में के शासक बहादुरशाह से मिल गया ख्वाजा आदि मुख्य थे।

(2) कालिंजर विजय-1531 ई० में हुमायूँ ने कालिंजर । के चन्देल राजपूतो को परास्त किया। राजा प्रताप रुद्रदेव से करके वापस आ गया। बैट करके उसे अन्धा कर दिया। इस प्रकार दया। इस प्रकार उसने लिंजर पर आक्रमण किया तथा वहीं से वह धन लेकर और एक सन्धि हमायू और अफगान सरदारा म युद्ध (1530-1540 ई. (The Wars between Humayun and the Afghan Nobia सिकन्दर लोदी के पुत्र महमूद के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। टोरिया नामक स्थान पर महमूद लोदी साथ नहीं दिया। महमूद लोदी बंगाल ला नहीं किया, वास्तव में यह गोमती या दोहरिया का युद्ध-हुमायूँ के शासन काल में सिकन्दा लोदी ने हुमायूँ के विरुद्ध विद्रोह करके जौनपुर के आसपास के प्रदेशोग हुमायूँ ने एक विशाल सेना लेकर गोमती नदी के किनारे दोहरिया नामक को परास्त किया। इस समय शेरखाँ ने महमूद लोदी का साथ नहीं दिया। के शासक के पास भाग गया, किन्तु महमूद लोदी का हुमायूँ ने पीछा नहीं कि हुमायूँ की एक बड़ी भूल थी। 

हुमायूँ तथा बहादुरशाह के मध्य युद्ध

(The Wars between Humayun and Bahadur Shah)

संघर्ष के कारण

(1) गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मुगलो के शत्र इब्राहीम ली के चाचा आलम खाँ तथा हुमायूँ के विद्रोही मुहम्मद जमान मिर्जा व बाबर के बहनोई मेटली ख्वाजा को सहायता दी थी। 

(2) बहादुरशाह एक महत्त्वाकांक्षी शासक था, जिसने आस-पड़ोस के क्षेत्रों पर अधिकार करके अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि कर ली थी। अब वह दिल्ली पर अधिकार करने के स्वप्न देख रहा था। 

(3) बहादुरशाह ने चित्तौड़ की रानी कर्णवती पर आक्रमण कर दिया था। रानी कर्णवती ने हुमायूं को राखी भेजकर उससे सहायता की प्रार्थना की थी। 

संघर्ष की घटना-

जिस समय हुमायूँ ने बहादुरशाह पर आक्रमण किया, उस समय बहादरशाह चित्तौड़ विजय में व्यस्त था. फिर भी उसने पर्तगालियों की सहायता से मुगला का सेना का मन्दसौर नामक स्थान पर सामना किया। मगल सेनाओं ने गुजरात का सना करता मार्ग को बन्द कर दिया तथा सेना का घेरा डाल दिया। भोजन के अभाव में बहादुरशाह का और भाग गया तथा उसकी सेना अस्त-व्यस्त हो गई। हमाय ने उसका पाछा करत – और चणानेर दर्ग पर भी अधिकार कर लिया। बहादरशाह फिर काम्बे तथा ब्यू लेकिन उसे जिन्दा छोड़कर हुमायूँ ने भारी भल की। 

संघर्ष का परिणाम-इस युद्ध के बाद मालवा अहमदाबाद गजरात आदि पर नगर का अधिकार हो गया तथा हुमायू ने इन प्रदेशों को अपने सरदारों तथा अपने भाई अस्व रदारा तथा अपने भाई अस्करी के हुमायूँ मध्य बाँट दिया तथा स्वयं दिल्ली वापस आ गया। निजामुद्दीन अहमद ने लिखा है कि इसके बाद साल भर तक हुमायूँ आगरा में मौज-मस्ती में लीन रहा। वास्तव में हुमायूं का यह कार्य उसकी एक महानतम भूल थी, क्योंकि इस धनवान प्रदेश को उसे अपने सरदारों में नहीं बॉटना चाहिए था। इसीलिए हुमायूँ के आगरा वापस आते ही बहादुरशाह ने पुर्तगालियों की सहायता से गुजरात पर पुनः अधिकार स्थापित कर लिया। अत: हुमायूँ का यह युद्ध व्यर्थ रहा। यद्यपि कुछ समय बाद ही बहादुरशाह की मृत्यु हो गई थी, किन्तु शेरखाँ के साथ युद्धों में रत रहने के कारण हुमायूँ इन प्रदेशों पर पुनः विजय प्राप्त करने का अवसर प्राप्त न कर सका। 

हुमायूँ एवं शेरखाँ के मध्य संघर्ष

(The Struggle between Humayun and Sher Khan)

शेरखाँ बाबर के समय में ही अफगानों का सरदार बन चुका था। वह हुमायूँ की विलासप्रियता से भी परिचित था; अत: उसने अपनी शक्ति बढ़ाकर हुमायूँ पर आक्रमण कर दिया। बहुत समय तक अपनी चालाकी से शेखाँ हुमायूँ को धोखा देता रहा। शेरखाँ ने जब चुनार के दुर्ग पर अधिकार कर लिया, तब हुमायूँ ने शेरखाँ के विरुद्ध एक सेना भेजी। सेना ने दुर्ग का घेरा डाल दिया। इस प्रकार शेरखाँ ने हुमायूँ से आग्रह करके चुनार दुर्ग पर अपने अधिकार की मान्यता प्राप्त कर ली और अपनी शक्ति बढ़ाने लगा। उधर हुमायूँ गुजरात के शासक बहादुरशाह के साथ संघर्षरत था। गुजरात विजय के उपरान्त हुमायूँ ने जौनपुर के शासक हिन्दू बेग से शेरखाँ के कार्य की रिपोर्ट मांगी। शेरखाँ ने हिन्दूबेग को रिश्वत देकर प्रसन्न कर लिया। हिन्दूबेग ने हुमायूँ को लिख दिया कि शेरखाँ स्वामीभक्त है। अत: शेरखाँ की ओर से हुमायूँ निश्चिन्त हो गया। कुछ समय उपरान्त शेरखाँ ने बंगाल के राजा को हराकर गौड़ प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस सूचना को पाकर शेरखाँ के विरुद्ध हुमायूँ ने सेना लेकर बिहार की ओर कूच कर दिया और चुनार पर अधिकार कर लिया। ऐसी दशा में शेरखाँ ने हुमायूँ से पुन: सन्धि की तथा बिहार प्रान्त हुमायूँ को सौंप दिया तथा बंगाल पर अपना अधिकार प्राप्त करके एक भारी रकम कर के रूप में हुमायूँ को वार्षिक देना स्वीकार कर लिया। यह शेरखाँ की कूटनीति थी, क्योकि अभी वह स्वयं को हुमायूँ से संघर्ष करने योग्य नही समझता था और अपनी शक्ति को संगठित करने के लिए अवसर की तलाश में था। हुमायूँ और शेरखाँ के मध्य अन्य संघर्षों को निम्न सन्दर्भो में जाना जा सकता है 

(1) चौसा का युद्ध (1539)-हुमायूँ की वापसी के बाद शेरखाँ ने अपनी शक्ति बढ़ाकर जौनपुर व रोहतासगढ़ के महत्त्वपूर्ण दुर्गों को जीत लिया। ऐसी स्थिति देखकर हुमायूँ मार्ग से ही वापस लौट पड़ा तथा चौसा नामक स्थान पर उसने शरखाँ की सेना का मुकाबला किया। इस घनघोर युद्ध में हुमायूँ घायल हो गया तथा उसने नदी में कूदकर अपनी जान बचाई। 

(2) कन्नौज का युद्ध (1540)-जिस समय हुमायूँ आगरा पहुँचा वहाँ उसे शेरखाँ के आने का समाचार मिला। हुमायूँ ने अपनी सेना को शेरखाँ के विरुद्ध भेजा। इस युद्ध में शेरखाँ का पुत्र मारा गया। इस पर शेरखाँ ने कन्नौज नामक स्थान पर हुमायूँ की सेना पर घातक प्रहार किए। युद्ध इतनी तीव्रता से हुआ कि मुगल सेनाओं को अपने तोपखाने के प्रयोग का भी अवसर नहीं मिला। इस युद्ध में हुमायूँ ने एक हाथी पर चढ़कर अपनी जान बचाई। यह युद्ध अफगानो एवं मुगलों का अन्तिम युद्ध था, जिसने हुमायूँ के भाग्य का निर्णय कर दिया। 

युद्धों का परिणाम-

कन्नौज युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद शेरखाँ ने आगरा पर अधिकार कर लिया और शेरशाह सूरी के नाम से भारत का सम्राट बन गया। हुमायूँ ने भारत में हुमायूँ अथवा चौसा और कन्नौज के युद्धों के बाद किन-किन परिस्थितियों ने हुमायूँ की दशा को निर्बल बना दिया? क्या उन परिस्थितियों पर काबू पाना सम्भव था? 

चौसा के युद्ध के बाद हुमायूँ की कठिनाइयाँ 

(The Difficulties of Humayun afier the Battle of Chausa) 

चौसा के युद्ध में पराजित होने पर हुमायूँ ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ कर 17 मई, 1540 को पुनः शेरखाँ से संघर्ष किया। कन्नौज या बिलग्राम के इस युद्ध में हुमाय बुरी तरह से पराजित होकर मैदान छोड़कर भाग निकला। कन्नौज के युद्ध के उपरान्त हुमायने लाहौर की ओर प्रस्थान किया। उधर आगरा पहुँचने पर शेरशाह ने अपने दो विश्वासपात्र व्यकितया खवास खाँ तथा ब्रह्मजीत गौड़ को हुमायूँ का पीछा करने के लिए लाहौर भेजा। इस मना के भय से हुमायूँ तथा उसके भाई कामरान ने लाहौर छोड़ दिया और लाहौर पर भी शेरशाह का अधिकार हो गया। अब शेरशाह को ज्ञात हुआ कि कामरान काबुल की ओर तथा हुमायूमिन्ध के किनारे-किनारे मुल्तान तथा भक्खर की ओर जा रहा है। इस पर शरखान हुमायूं का पीछा करने के लिए मुल्तान की ओर सेना भेजी तथा सेना को आदेश दिया कि वह सिर्फ हुमायूको राज्य की सीमा के बाहर खदेड़ दे, उससे युद्ध न करे। इस प्रकार हुमायूँ अपने विशाल साम्राज्य से वंचित हो गया तथा विदेशों में अपने भाग्य की खोज हेतु चल दिया। हुमायूँ की कठिनाइयों को निम्न सन्दी में जाना जा सकता है 

(1) शत्रु से बचने के प्रयास-शेरशाह सूरी की सेनाएं हुमायूँ को चैन से बैठने नहीं दे रही थीं। ये सेनाएँ उसका पीछा तब तक करती रहीं, जब तक वह शेरशाह के राज्य को सीमा से बाहर नहीं चला गया। अतः शत्रु से स्वयं की रक्षा करने की एक विकट समस्या हुमायूं के सामने थी। 

(2) भाइयों द्वारा असहयोग-इस कठिनाई के समय हुमायूँ ने अपने भाइयों से सहायता के लिए प्रार्थना की, किन्तु उसे भाइयों की आर से निराशा मिली। फरिश्ता ने लिखा है, हुमायू ने शेरखाँ के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए अपने भाइयों के सामने हर प्रकार के तुर्क रखे और कहा कि हमारी आन्तरिक कलह से विशाल साम्राज्य हाथ से निकल जाएगा। हमारे आचरणों से तैगर के वंश का सर्वनाश हो जाएगा। हम मिलकर शव से लड़े और बाद में साम्राज्य को विभाजित कर ले।’ किन्तु उसके भाइयों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बह शरणागी के रूप में ‘बहरा’ पहुँचा जहाँ से कामरान तथा अस्करी ने उसका साथ छोड़ दिया। उसके भाई उसकी हत्या तक का षड्यन्त्र रचते रहते थे। 

(३) सहायता प्राप्ति में निराशा इस समय तक हिन्दाल तथा मिर्जा यादगार नासिर हुमायू के साथ थे, किन्तु हिन्दाल भी कन्धार जाने का विचार कर रहा था। जोधपुर के शासक मालदेव ने सहायता का आश्वासन देकर भी हुमायूँ की शेरखाँ के विरुद्ध सहायता नहीं की। इस समय हुमायूँ ने सिन्ध के शाह हुसैन अरगून से गुजरात पर पुन: आक्रमण करने के लिए सहायता माँगी, किन्तु उसे निराश होना पड़ा। 

(4) अकबर का जन्म-हिन्दाल के शिविर में हुमायूँ का हिन्दाल के गुरु मुल्ल बाबा दोस्त की पुत्री हमीदा बानू बेगम से 1541 ई० की ग्रीष्म ऋतु में विवाह हो गया तथा अमरकोट में 1543 ई० में हमोदा बानू बेगम के गर्भ से अकबर का जन्म हुआ। ऐसे सपा अकबर का जन्म हुमायूँ के लिए तात्कालिक रूप से प्रसन्नता का विषय नहीं था, क्योंकि स्वयं ही अपनी रक्षा हेतु इधर-उधर भटक रहा था। 

(5) सहयोगियों द्वारा विश्वासघात-भाइयों से निराश होकर हुमायूँ ने सेहबान किले पर अधिकार करने का असफल प्रयास किया। इसी समय उसे अपने साथी मिर्जा याद नासिर के विश्वासघात का सामना करना पड़ा। अब हुमायूँ ने अपने स्वामिभक्त जोधपुर के राज मालदेव के यहाँ जाने की योजना बनाई तथा जैसलमेर के मार्ग से मालदेव के पास पहुँचा, किन अब तक मालदेव शेरशाह का विश्वासपात्र बन चुका था। यहाँ पर उसके किसी शुभचिन्तक उसे शीघ्र ही मालदेव के पास से चले जाने को कहा। अत: हुमायूँ ने अमरकोट की ओर प्रस्थान कर दिया। अमरकोट के राजा वीर लाल ने उसे संरक्षण दिया। 

(6) भाइयों का विरोध-अब तक हुमायूं भटकते-भटकते निराश होकर थक चुका था। इसी समय उसका पुराना स्वामिभक्त सैनिक बैरम खाँ उससे आकर मिल गया था। अब हुमायें ने कन्धार जाने की योजना बनाई, किन्तु उसके भाइयों ने उसका विरोध किया। इस पर वह अपने नवजात शिशु अकबर को एक छोटी-सी सैनिक-टुकड़ी की देख-रेख में छोड़कर स्वयं बैरम खाँ के साथ भाग्य की खोज में निकल पड़ा। 

(7) सहयोग प्राप्ति की आशा-हुमायूँ भटकता हुआ सीस्तान पहुँचा। यहाँ, पर उसका स्वागत हुआ। यहाँ से हुमायूँ हिरात आया तथा अन्त में वह पुलक सुर्लिक पहुँचा। यहाँ उसकी भेंट शाह ईरान तहमास्प से हुई। शाह ने उसका स्वागत किया तथा उसको चौदह हजार सैनिकों की एक सेना दी। अब हुमायूँ ने इस सेना के साथ कन्धार की ओर प्रस्थान किया तथा शाह तहमास्प के समक्ष प्रतिज्ञा की—“हिन्दुस्तान विजय के उपरान्त वह वहाँ पर शिया धर्म की स्थापना करेगा और कन्धार ईरान के शाह को वापस लौटा देगा।” । 

क्या हुमायूँ की परिस्थितियाँ काबू से बाहर थीं?

इस विषय पर इतिहासकारों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि हुमायूँ की विकट परिस्थितियों के लिए हुमायूँ के पिता एवं स्वयं हुमायूँ का चरित्र उत्तरदायी थे। बाबर ने अपनी मृत्यु के समय हुमायूँ को आदेश दिया था कि वह अपने भाइयों को प्रसन्न रखे हुमायूँ ने अपने पिता के आदेशों का पूर्ण पालन किया, किन्तु हुमायूँ के भाइयों ने हुमायूँ की सहदयता का अनुचित लाभ उठाया तथा हमार्य के लिए विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न कर दीं। क्या इन परिस्थितियों पर काबू पाया जा सकता था? इस प्रश्न के उत्तर के लिए निम्नांकित तर्क प्रस्तुत 

(1) युद्ध नीति में परिवर्तन-इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि हुमायूँ अपनी युद्ध संचालन नीति में परिवर्तन कर लेता तो शायद परिस्थितियों पर काबू पाया जा सकता था। किन्तु इसके विपरीत हृमायें एक आक्रमण को बीच में छोड़कर दसरे यद्ध की तैयारी करने लगता था। हुमायें अपनी इस दुल-मुल युद्ध नीति के कारण पूर्ण रूप से असफल रहा। 

(2) प्रान्तीय शासकों पर नियन्त्रण हुमायूँ ने जो शासक अपने साम्राज्य के प्रदशा, शासन व्यवस्था बनाए रखने हेतु नियुक्त किए थे, उन पर नियन्त्रण बनाए रखने का उसन कार प्रबन्ध नहीं किया था, जिसके कारण उसे शेरखाँ के सम्मुख हार माननी पड़ी। 

(3) भाइयों पर नियन्त्रण-हुमायूँ ने अपने पिता के आदेशों का पालन करते हुए अपने भाइयों को भिन्न-भिन्न प्रान्तों का शासक नियुक्त कर दिया था, किन्तु इन पर नियन्त्रण का अभाव रहा, साथ ही उसे अपने भाइयों का कभी महयोग न मिला। यदि अपने पिता हुमायूं के आदेश का नीतिपूर्वक पालन करता तथा भाइयों के कार्यों पर कठोर नियन्त्रण रखता, तो शायट हमायूँ को ऐसी कठिनाइयों का सामना न करना पड़ता। 

(4) दोनों शत्रुओं पर नियन्त्रण-गुजरात का शासक बहादुरशाह तथा बिहार में शेरखाँ हुमायूं के कट्टर शत्रु थे। इन दोनों शत्रुओं से प्राय: हुमायूँ के संघर्ष होते रहते थे। यदि हुमायू कूटनीति में कुशल होता तथा एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं में अलग-अलग ठमके शत्रु न होते, तो वह अपनी परिस्थितियों पर काबू पा सकता था। हुमायूँ का दुर्भाग्य यह रहा कि उसके दोनों ही शत्रु अत्यधिक योग्य थे और उनमें उन दुर्गुणों का अभाव था जिनकी हुमायूं में अधिकता थी। 

(5) क्षणिक प्रसन्नता–हुमायूँ का यह भी एक चारित्रिक दोष था कि वह क्षणमात्र की सफलता पर ही प्रसन्न होकर भोग-विलास में लिप्त हो जाता था, जिसके कारण उसके शत्रुओं को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल जाता था। यदि हुमायूँ अपनी इस कमी पर काबू पा लेता तो शायद वह अपनी परिस्थितियों पर नियन्त्रण कर सकता था। 

निष्कर्ष-

उक्त वर्णन से विदित होता है कि हुमायूँ का चरित्र ही उसकी विकट परिस्थितियों का कारण था। यदि वह अपने चारित्रिक दोषों को दूर कर लेता तो उसकी विजय अवश्य होती। 

हुमायूँ द्वारा भारत की पुनर्विजय शाह का काम 

(Reconquest of India by Humayun):

जिस समय हुमायूँ ने पुन: भारत पर विजय प्राप्त की, उस समय कामरान काबुल, हिन्दाल गजनी एवं अस्करी कन्धार का शासक था। इस समय शेरशाह और उसके उत्तराधिकारी इस्लाम शाह की भी मृत्यु हो चुकी थी तथा अफगानों में परस्पर संघर्ष चल रहे थे। अत: हुमायूँ ने ऐसी स्थिति में फारस के शाह की सहायता से अपने खोए हुए प्रदेशों को प्राप्त करने की कोशिश की। उसकी विजयों का विवरण इस प्रकार है 

(1) कन्धार विजय-सर्वप्रथम हुमायूँ ने कन्धार पर आक्रमण किया तथा अपने भाई अस्करी को परास्त करके कन्धार पर अधिकार कर लिया। उसने कन्धार को फारस के शाह को दे दिया, किन्तु कुछ कारणवश उसने कन्धार पर पुन: अधिकार कर लिया तथा बैरम खाँ को वहाँ का शासक नियुक्त किया। इसी समय अस्करी को कैद कर लिया गया और बाद में उसे मक्का जाने की आज्ञा दे दी गई। लेकिन ‘रूम’ नामक स्थान पर 1558 ई० में अस्करी की मृत्यु हो गई। 

(2) काबुल विजय-कन्धार के उपरान्त हुमायूँ ने कबुल पर आक्रमण किया। काबुल का शासक कामरान परास्त होकर गजनी भाग गया तथा काबुल पर हुमायूँ का अधिकार हो गया। 

(3) बदख्शाँ पर विजय-काबुल विजय के बाद हुमायूँ बदख्शा की ओर बढ़ा तथा वहाँ के शासक मिर्जा सुलेमान को परास्त करके उसने बदख्शाँ पर अधिकार कर लिया। किन्तु, इधर कामरान ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करके काबुल व गजनी पर पुनः अधिकार कर लिया। अब बदख्शां को मिर्जा सुलेमान को सौंपकर हुमायूँ पुनः काबुल की ओर चल दिया। 

हुमायूँ का चरित्र वास्तव में अनेक दुर्बलताओं का सम्मिश्रण था। कुछ विद्वानों का मत है कि हुमायूँ के चरित्र में अनेक दोष थे, जिनके कारण वह असफल रहा। किन्तु यह भी सत्य है कि “हुमायूँ को अनेक कठिनाइयाँ विरासत में भी मिली थीं।” संक्षेप में हुमायूँ की कठिनाइयों का विवरण निम्नांकित शीर्षको में व्यक्त किया जा सकता है 

(1) आर्थिक संकट-बाबर का जीवन युद्धों में व्यतीत हुआ था। यद्यपि पानीपत के युद्ध में उसे एक विशाल धनराशि प्राप्त हुई थी, किन्तु उसने वह धनराशि विजय की खुशी में अपने सरदारों, सम्बन्धियों आदि के मध्य वितरित कर दी थी। इस प्रकार धन वितरण तथा युद्धा में धन के अपव्यय के कारण उसका राजकोष खाली हो गया था। अत: जिस समय हुमायूं सिंहासन पर बैठा, उस समय रिक्त राजकोष उसे विरासत में मिला था। 

(2) सम्बन्धियों की समस्या-सम्बन्धियों की समस्या भी हुमायूँ के सम्मुख एक प्रमुख कठिनाई थी। इन सम्बन्धियों में उसकी सौतेली बहन मासूम बेगम का पति मुहम्मद जमान मिर्जा, बाबर का बहनोई मीर मुहम्मद मेंहदी ख्वाजा तथा हुमायूं के भाई कामरान, अस्करी एवं हिन्दाल मुख्य थे। लेनपूल ने लिखा है, “अस्करी और हिन्दाल दुर्बल व अस्थिर बुद्धि के थे और वे इसलिए खतरनाक थे कि महत्त्वाकांक्षी लोग इन्हें अपने हाथों की कठपुतली बना सकते थे।” 

(3) असंगठित साम्राज्य-बाबर ने यद्यपि अपने सैनिक बल पर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, किन्तु न तो उसने उसे संगठित किया तथा न ही शासन व्यवस्था में कोई सुधार ही किया था। अत: हुमायूँ को एक असंगठित साम्राज्य प्राप्त हुआ था जो अराजकता से पूर्ण था और ऐसी स्थिति में हुमायूँ के लिए कार्य करना असम्भव था। 

(4) उत्तराधिकार के नियमों का अभाव-मुगल वंश में भी उत्तराधिकार के नियमो का अभाव था। अत: बाबर की मृत्यु के बाद उसके अन्य तीन लड़के-कामरान, हिन्दाल व अस्करी तथा बाबर के अन्य सम्बन्धी भी अपने को सम्राट घोषित करने का प्रयास कर रहे थे। इसके साथ-साथ बाबर का यह उपदेश था कि- “मेरी अन्तिम इच्छा का सार यही है कि अपने भाइयों के विरुद्ध कभी कोई कार्य न करना, चाहे वे उसके योग्य ही क्यों न हो।” इस उपदेश के कारण हुमायूँ ने अपने भाइयों के साथ सदा उदारता का व्यवहार करके अपनी कठिनाइयों को और भी अधिक बढ़ा लिया। 

(5) दोषपूर्ण सैनिक संगठन-बाबर की सेना मुगल, पठान, चुगताई अदि अनेक भिन्न भिन्न जातियों के सैनिकों का सम्मिश्रण थी, जिनमें एकता का अभाव था। अतएव सेना को संगठित रखना भी हुमायूँ के लिए एक गम्भीर समस्या थी। 

(6) हिन्दुओं व मुसलमानों का विरोध-बाबर ने पानीपत के युद्ध में मुसलमानों को अपना श बना लिया था, साथ ही खानवा के युद्ध में हिन्दुओं को क्रूरता से हत्या करके उसने हिन्दुओं को भी अपना विरोधी बना लिया था। अत: हुमायूँ सिंहासन पर बैठा उसे हिन्दुओं व मुसलमानों दोनों का सहयोग प्राप्त न हो सका। 

(7) अफगानों की समस्या-यद्यपि बाबर ने पानीपत के युद्ध में अफगानों को परास्त करके एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी, किन्तु अब तक अफगानों की समस्या का अन्त नहीं हुआ था। अत: जिस समय हुमायूँ गद्दी पर बैठा, उसे शेरखाँ और महमूद लोदी जैसे था। 

(8) काबुल पर पुनर्विजय-हुमायूँ ने काबुल पर पुनः चढ़ाई कर दी। इस बार काम ने हुमा के पुत्र अकबर को अपने अधिकार में लेकर दुर्ग की दीवार पर बैठा दिया. जिम हुमायूँ पुत्र-मोह के कारण दुर्ग पर गोलाबरो न कर सके। किन्तु ईश्वर की कृपा से अकबर को कोई क्षति नहीं हुई और काबुल के दुर्ग पर हुमायूँ का पुन: अधिकार हो गया। उसने कामरान को कैद करके अन्धा करवा दिया। बाद में कामरान को भी मक्का जाने की आज्ञा दे दी गई। 1517 ई० में उसको भी मृत्यु हो गई। 

(9) दिल्ली पर विजय-अब हुमायूँ पंजाब, लाहौर आदि प्रदेशों को अपने अधिकार में लेता हुआ दिल्ली को ओर बढ़ा। इस समय दिल्ली पर अयोग्य शासक सिकन्दर सूर का शासन था। 22 जून 1555 ई० को सरहिन्द नामक स्थान पर सिकन्दर सूर की सेना ने हुमायूँ के साथ युद्ध किया. किन्तु सिकन्दर सूर को पराजय का मुँह देखना पड़ा तथा वह शिवालिक की पहाड़ियों की ओर भाग गया। इस प्रकार हुमायूँ को पुनः जुलाई 1565 ई० में दिल्ली का सिंहासन प्राप्त हो गया। 

हुमायूँ अपनी इस विजय का आनन्द अधिक दिनों तक न ले सका। 27 जनवरी, 1556 ई० को अजान की आवाज सुनकर वह शीघ्रता से अपने पुस्तकालय के जीने से उतरने लगा और पैर फिसल जाने से लुढ़कता हुआ नीचे गिरा जिससे खोपड़ी की हड्डी टूट जाने से उसकी मृत्यु हो गई लेनपूल ने उसकी मृत्यु पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “इस प्रकार हुमायूँ ने सम्पूर्ण जीवन लुढ़कते हुए ही व्यतीत किया व अन्त में लुढ़क कर ही उसकी जीवन लीला समाप्त हो 

हुमायूँ की कठिनाइयाँ 

(The Difficulties of Humayun)

जिस समय हुमायूं गद्दी पर बैठा वह चारों ओर से कठिनाइयों और समस्याओं स हुआ था। “एसी परिस्थितियों में आवश्यकता थी एक सैनिक प्रतिमा, कटनीतिक चातुय’ राजनीतिक सूझवृष्य से सम्पन्न शासक की। परन्तु हमार्य में इन सबका अभाव था। वस्तुतः स्वयं अपना सबसे बड़ा शत्रु सिद्ध हुआ।” 

महत्त्वाकांक्षी व शक्तिशाली अफगानों से लोहा लेना पड़ा। उधर गुजरात का शासक बहादा भी हुमायूँ के लिए एक विकट समस्या थी। अत: अफगान सरदारों की समस्या भी हमा बाबर से विरासत के रूप में प्राप्त हुई थी। 

क्या हुमायूँ ने अपनी गलतियों से कठिनाइयों को अधिक बढ़ा लिया था। (Did Humayun make rich his difficulties by his own mistakes?) 

वास्तव में हुमायूँ के चरित्र में अनेक दोष भी थे, जिनके कारण उसने अपनी कठिनाइर को और भी बढ़ा लिया था। उसके चारित्रिक दोषों का विवरण निम्नलिखित है 

(1) उदारता-हुमायूँ स्वभाव से उदार था, किन्तु यह उदारता उसके लिए घातक सिर हुई। इस उदारता के कारण उसने अपने राज्य को अपने भाइयों के मध्य बाँट दिया। 

(2) अदूरदर्शिता-हुमायूँ के चरित्र में दूरदर्शिता का अभाव था। वह किसी भी कार्य के बिना सोचे-समझे ही किया करता था। उसने अपने साम्राज्य का बँटवारा अपने भाइयों में किया किन्तु उसके भयंकर परिणामों को ध्यान में नहीं रखा; शेरखाँ तथा बहादुरशाह के प्रति उसने जिस नीति का अनुसरण किया, उसके परिणामों पर उसने विचार नहीं किया। शेरखाँ और बहादुरशाह को पूरी तरह से न कुचलकर क्षमा कर देने की नीति के कारण ही, अन्तत: हुमायें को शासन से बेदखल होकर 15 वर्ष निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ा। अत: अदूरदर्शी होने के कारण उसे अनेक बार असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। 

(3) विलासप्रियता-हुमायूँ का चरित्र विलासिता से परिपूर्ण था। मिर्जा हैदर ने लिखा है, “हुमायूँ बादशाह बाबर के पुत्रों में सबसे बड़ा, सबसे महान, सबसे अधिक विश्रुत था। परन्तु विलासी एवं दुराचारी व्यक्तियों की संगति के कारण उसमें कुछ दोष आ गए थे। इन दोषों में अफीम का प्रयोग भी था। सम्राट में जितने दोष बतलाए जाते हैं, वे सब इसी कारण से आ गए थे।” हुमायूँ ने चुनार तथा गौड़ के दुर्गों पर अधिकार करने के बाद आमोद-प्रमोद में अपना समय व्यतीत किया, जिससे शेरखाँ को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिला व चौसा और कन्नौज के युद्धों में हुमायूँ को पराजय उठानी पड़ी। एक छोटी-सी सफलता मिलते ही वह अफीम के नशे में डूब जाता था और भविष्य से पूरी तरह बेखबर हो जाता था। इस प्रकार विलासप्रियता हुमायूँ का प्रमुख चारित्रिक-दोष था, जिससे कि उसे अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। 

(4) विचारों में अस्थिरता-हुमायूँ अस्थिर विचारों का व्यक्ति था। इसी कारण वह शेरखाँ व बहादुरशाह जैसे शत्रुओं का सामना करने में असफल रहा। मैलिसन ने लिखा है, “वह चंचल, विचारहीन तथा अस्थिर था। उसमें कर्त्तव्य की ओर झुकने की कोई भी बलवती भावना न थी। उसकी उदारता अपव्ययिता में तथा अनुराग दुर्बलता में परिवर्तित हो जाता था। वह किसी भी एक दिशा में अपने विचारों को कुछ समय के लिए पूर्ण रूप से स्थिर नहीं रख सकता था।” वह फ्रांस के शासक लुई सोलहवें के ही समान अस्थिर विचारों का था और उसमें दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव था। 

(5) सिद्धान्तहीनता-हुमायूँ कुछ अर्थों में सिद्धान्तहीन भी था तथा बुद्धिबल का उसम अभाव था, जैसा कि मैलिसन महोदय ने लिखा है, “हुमायू वीर, प्रसन्नचित्त, बुद्धिमान, एक अच्छा साथी, उच्च शिक्षित, उदार व दयालु होने के कारण स्थायी सिद्धान्तों पर एक राजवश की स्थापना करने के लिए अपने पिता बाबर से भी कम योग्य था।” अपने इसी अवगुण के कारण वह राज्य का संगठन करने में असफल रहा।  

(6) चाटुकारिता–हुमायूँ अपने शत्रुओं की चापलूसी का शिकार हो जाता था। इसी अवगुण के कारण वह शेरखाँ, बहादुरशाह, हिन्दूबेग आदि अनेक शत्रुओं का शिकार हुआ। इस चाटुकारिता के अवगुण के कारण ही हुमायूँ कभी सफल न हो सका। 

(7) सैनिक गुणों का अभाव-हुमायूँ के चरित्र में एक योग्य सैनिक के गुणों का पूर्ण अभाव था, जिसके कारण उसे विदेशों में भागना पड़ा। बहादुरशाह को युद्ध में परास्त कर हुमायूँ ने उसका पीछा नहीं किया, वह उसकी एक बड़ी भूल थी। उसे बहादुरशाह की समस्या को सदैव के लिए समाप्त कर देना चाहिए था। भविष्य में आगे चलकर उसके शत्रुओं ने उसे भारत से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया।

(8) शासन के प्रति उदासीन-हुमायूँ में कर्त्तव्यपरायणता का अभाव था तथा उसका चरित्र दुर्गुणों से परिपूर्ण था। शासन कार्यों में उसकी रुचि अधिक नहीं थी, क्योकि प्रत्येक शासन सम्बन्धी कार्य में वह ज्योतिषियों और दरबारियों की सलाह लिया करता था। हैवेल ने लिखा है-“हुमायूँ ललित कला का एक निर्बल प्रेमी था, क्योकि वह सदैव राज्य सम्बन्धी कार्यों में दरबार के ज्योतिषियों की सम्मति लेता था, किन्तु इन सबसे सोच-विचार के बाद भी ग्रह एवं नक्षत्र सदैव ही उसके विरोधी रहे।” 

उपर्युक्त कारणों से वह अपने पिता द्वारा सौंपे गए राज्य पर अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। 15 वर्षों के कठोर संघर्ष के पश्चात् जुलाई 1565 ई० में वह पुन: गद्दी पर बैठा लेकिन 24 जनवरी, 1556 ई० को हुमायूँ सीढ़ियों से फिसलकर गिर गया और गम्भीर चोट लगने के कारण 27 जनवरी, 1556 ई० को उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार, जीवनभर कठिनाइयों में लुढ़कते रहने वाले सम्राट का लुढ़ककर ही अन्त हो गया। अतः लेनपूल का यह कथन सही ही है, “हुमायूँ जीवन-पर्यन्त लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाकर ही उसकी मृत्यु हो गई।” हुमायूँ के सम्बन्ध में यह कथन भी पूर्णतः सार्थक प्रतीत होता है, “हुमायूँ स्वयं अपना ही शत्रु था।” अथवा “हुमायूँ का जीवन असफलताओं की कहानी है।” 

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