Bcom 2nd Year Organization meaning in hindi

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Bcom 2nd Year Organization meaning in hindi

संगठन 

(Organization)

जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी उपक्रम में साथ-साथ कार्य करते हैं तो इन व्यक्तियों के मध्य कार्य का विभाजन कर उनमें समन्वय स्थापित करने की आवश्यकता होती है । इसा का नाम संगठन है और यहीं से संगठन की क्रिया का शभारम्भ होता है। शरीर में अनेक छोटे-छोटे भाग होते हैं तथा प्रत्येक भाग का एक नियत कार्य होता है और का कार्य-कार्य करना; मुख का खाना; पेट का पचाना; टांगों का चलनाः आँखों का कान एवं नाक का सुनना तथा सूचना इत्यादि, Bcom 2nd Year Organization meaning in hindi किन्तु इन विभिन्न भागों के अतिरिक शरीर के मस्तिष्क में एक केन्दीय विभाग भी होता है, जो समस्त क्रियाओं का नियोजन है-

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विभिन्न भागों का निर्देशन एवं संचालन करता है तथा उस पर पर्याप्त नियन्त्रण रखता मानव शरीर की भांति ही व्यावसायिक संस्था भी विभिन्न विभागों में विभक्त होती है और विभाग. वित्त विभाग. कर्मचारी विभाग, विक्रय विभाग इत्यादि । अतः विभिन्न विभागों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित करने की कला को ही संगठन कहते हैं।

संगठन के कार्य को कई विद्वानों ने अपने-अपने हिसाब से परिभाषित किया जिनमें निम्न प्रमुख हैं –

प्रो० आर० सी० डेविस के अनुसार, “संगठन व्यक्तियों का एक ऐसा समह है जो सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु नेतृत्व के निर्देशन के अन्तर्गत सहयोग करते हैं।” 

मैक फरलैण्ड के अनुसार, “लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रयासरत एक निश्चित व्यक्ति समह ही संगठन कहलाता है। 

संगठन की प्रकृति अथवा विशेषताएँ 

(Characteristics of Organization)

संगठन की निम्न विशेषताओं से इसकी प्रकृति स्पष्ट हो जाती है- 

(1) मानवीय व भौतिक साधनों में समन्वय-

मानव तथा भौतिक संसाधन मिलकर ही उत्पादन या सेवा कार्य करते हैं। श्रमिक एवं कर्मचारी कच्चे माल, मशीन व वित्त की सहायता से माल का उत्पादन व विक्रय करते हैं। अच्छा संगठन वही कहलायेगा, जिसमें मानवीय भौतिक संसाधनों में ऐसा सामंजस्य हो कि उनका सर्वोत्तम उपयोग सम्भव हो सके। 

(2) व्यक्ति समूह का होना-

संगठन की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें दो या दास अधिक व्यक्तियों के समूह होते हैं, जिसमें उपक्रम की कार्यों को बाँटा जाता है तथा उन आपसी सम्बन्धों को परिभाषित किया जाता है। मात्र एक व्यक्ति का होना संगठन नहा कर जाता। 

(3) लक्ष्य का होना-

लक्ष्य और संगठन एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, क्योंकि लक्ष्य के अनसार ही संगठन-संरचना की जाती है। यदि लक्ष्य स्पष्ट नहीं है, तो संगठन भी प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं होगा। 

(4) संगठन एक प्रविधि के रूप में

संगठन कार्य एक प्रविधि या प्रक्रिया है, क्योंकि संगठन-संरचना के क्रमानुसार निम्नलिखित कदम उठाने होते हैं 

(अ) प्रकृति के अनुसार कार्यों का विभाजन जैसे क्रय कार्य, विक्रय कार्य;

(ब) प्रत्येक कार्य को छोटी-छोटी क्रियाओं से समूहबद्ध करना;

(स) क्रियाओं के प्रत्येक समूह को उपयुक्त व्यक्ति को सौंपना । 

(5) नेतृत्व एवं निर्देशन का होना-

प्रत्येक संगठन में नेतृत्व व निर्देशन का होना अनिवार्य है। नेतृत्व के निर्देशन में ही लोग कार्य करते हैं। 

(6) औपचारिक सम्बन्धों की स्थापना-

एक अच्छी संगठन–संरचना से यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक अधिकारी के अधिकार एवं दायित्व स्पष्ट हों । उनके अपने बॉस, अधीनस्थों एवं अन्य अधिकारियों से क्या सम्बन्ध होंगे, कौन किसके आदेश का पालन गिरेगा, कौन किसको आदेश दे सकता है; कौन किसके प्रति उत्तरदायी होगा आदि की स्पष्ट व्याख्या दी गयी हो । 

संगठन का महत्व या उद्देश्य  

(Importance or Objectives of Organization)  

संगठन व्यावसायिक सफलता का आधार तथा समस्याओं का समाधान है लुईस ए० ऐलन के अनुसार, “एक स्वस्थ संगठन प्रतिष्ठान की सफलता एवं निरन्तरता में महान् योगदान दे सकता है ।” संगठन से मिलने वाले अनेकानेक लाभों के कारण ही वर्तमान युगमें इसका महत्व बढ़ता जा रहा है। इसके महत्वपूर्ण लाभों को प्राप्त करने के उद्देश्य से व्यावसायिक संस्थाओं में इसे व्यापक पैमाने पर अपनाया जा रहा है। सभी प्रकार के व्यावसायिक उपक्रमों में संगठन के सामान्यतः निम्नलिखित उद्देश्य होते हैं 

(1) समय तथा प्रयत्नों में मितव्ययिता-

उत्पांदन में मितव्ययिता के साथ-साथ संगठनकर्ता समय तथा प्रयत्नों में भी मितव्ययिता करने का प्रयास करता है: यह तभी सम्भव है, जबकि श्रेष्ठतम संगठन प्रणाली हो एवं आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग हो ।

(2) मितव्ययिताओं की प्राप्ति-

न्यूनतम व्यय पर अधिकतम उत्पादन प्राप्त करना ही संगठन का प्राथमिक उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रभावशाली संगठन प्रणाली की संरचना की जाती है।

(3) श्रम तथा पूँजी में मधुर सम्बन्ध-

श्रमिकों तथा प्रबन्ध वर्गों के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाये रखना संगठन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। इस हेतु विभिन्न प्रकार की प्रेरणाएँ दीजाती हैं, ताकि श्रमिकों में संतोष तथा सहयोग की भावना बनी रहे। 

(4) लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायोग करना-

संगठन प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है। जिसका उद्देश्य संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहयोग करना है। इसलिए यह कहा भी जाता है कि “संगठन उपक्रम के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक उपकरण है।

(5) सेवा की भावना जागृत करना-प्रत्येक व्यावसायिक संस्था का उद्देश्य लाभ कमाना ना होता है, किन्तु लाभ के साथ-साथ सेवा की भावना भी जागृत करना संगठन का उद्देश्य है।

(6) मानवीय साधनों की प्राप्ति, अनुरक्षण एवं विकास करना-

संगठन कार्य का एक Jख उद्दश्य योग्य एवं अनभवी कर्मचारियों की भर्ती एवं चयन करना प्रशिक्षित करना कार्य पर लगाना एवं उन्हें संस्था में बनाए रखना है । 

(7) समन्वय की स्थापना-

संगठन केवल कार्य का उचित वितरण ही नहीं करता, बल्कि विभिन्न क्रियाओं, विभागों, व्यक्तियों तथा वर्गों के मध्य प्रभावपूर्ण समन्वय तथा सहयोग की स्थापना के उद्देश्य से भी कार्य करता है। 

(8) उत्पादकता में वृद्धि-

श्रेष्ठ संगठन से उत्पादकता में वृद्धि होती है। इससे ही प्रत्येक साधन का कुशलतम उपयोग तथा अपव्ययों का नियन्त्रण सम्भव है। 

(9) विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन-

संगठन के अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी को उसकी रुचि एवं योग्यता के अनुसार कार्य सौंपा जाता है। अत: एक श्रमिक बार-बार उसी कार्य को करता है, अतः विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिलता है।

(10) प्रबन्धकीय क्षमता में वृद्धि-

संगठन कर्मचारियों के अधिकार एवं दायित्वों का निधारण भी करता है. ताकि सभी के कार्यों में उचित समन्वय बना रहे और कार्य के संचालन में रुकावट न आये । इसके परिणामस्वरूप प्रबन्धकीय क्षमता में वृद्धि होती है। 

(11) स्थिरता का विकास-

अच्छी संगठन व्यवस्था से उपक्रम में ऐसे तत्वों का विकास होता है, जो उसके जीवन को स्थिर एवं दीर्घ बनाते हैं तथा उसकी वृद्धि में योगदान देते हैं।

(12) प्रशिक्षण में सहायक-

एक आदर्श संगठन अपने कर्मचारियों की योग्यता में वृद्धि करने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था करता है। प्रशिक्षित कर्मचारियों को उनकी योग्यता के अनुसार प्रबन्धकीय पदों पर नियुक्त किया जाता है। 

संगठन के महत्वपूर्ण सिद्धान्त 

(Important Principles of Organization)

किसी भी संगठन की सफलता तथा असफलता इसके द्वारा परिणामों से ही ज्ञात की जा सकती है। यदि निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य प्राप्त होते हैं, तो संगठन मजबूत एवं सक्षम है और यदि वे प्राप्त नहीं होते, तो इसका अर्थ है कि संगठन में कही त्रुटि एवं कमी है। संगठन पर ही प्रबन्ध की प्रभावशीलता निर्भर करती है। संगठन की सफलता के लिए आवश्यक है कि उसकी रचना कुछ सिद्धान्तों के आधार पर की जाए। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से संगठन के सिद्धान्त को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है 

संगठन के परम्परागत सिद्धान्त 

(Traditional Principles of Organization)

संगठन के परम्परागत सिद्धान्तों से आशय उन सार्वभौमिक या आधारभूत सिद्धान्तों से है, जो लगभग प्रत्येक संगठन में सामान्य रूप से लागू होते हैं। इन सिद्धान्तों का प्रतिपादन टेलर, कर्नल लिण्डॉल उर्विक आदि ने किया है 

(1) व्याख्या का सिद्धान्त-

प्रत्येक कर्मचारी के अधिकार, कर्तव्य तथा दायित्व की स्पष्ट रुप से व्याख्या होनी चाहिए ताकि वह कर्मचारी अधिक सुचारू रूप से कार्य कर सके। 

(2) नियन्त्रण के क्षेत्र का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार किसी वरिष्ठ अधिकारी के आधीन, अधीनस्थों की संख्या केवल उतनी ही होनी चाहिए, जिनके कार्यों पर वह उचित नियन्त्रण स्थापित कर सके। 

(3) उद्देश्य का सिद्धान्त-

संगठन के उद्देश्य का सगष्ट निर्माण होना बहुत आवश्यक है तथा संगठन की समस्त क्रियाओं द्वारा निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति में योगदान दिया जाना चाहिए। कार्यों को करने में निश्चितता होनी चाहिए, न कि संदेह । प्रत्येक संगठन के वहीं उद्देश्य होना चाहिए, जो संस्था के हों। 

(4) विशिष्टीकरण कासिद्धान-

इस सिद्धान्त के अनुसार, “संगठन में प्रत्येक व्यक्ति का कार्य किसी एकाकी प्रमुख कार्य के नियादन तक ही सीमित रहना चाहिए।”जो व्यक्ति जिस कार्य के लिए योग्य हो, उसे वही कार्य दिया जाना चाहिए ताकि वह उसका विशेषज्ञ बन जाए। 

(5) निरन्तरता का सिद्धान्त-संगठन एवं पुर्नसंगठन की विधि निरन्तर चालू रहती है। अतः इसके लिए प्रत्येक इकाई में विशिष्ट व्यवस्थाओं का निर्माण होना चाहिए। 

(6) अधिकार का सिद्धान्त-

सम्बन्धित व्यक्ति को अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए आवश्यक अधिकार भी प्राप्त होने चाहिएँ, तभी वह अपना कार्य सम्पन्न करने में समर्थ होगा। 

(7) समन्वय का सिद्धान्त-

संगठन का उद्देश्य किसी औद्योगिक एवं व्यावसायिक इकाई के विभिन्न कायों, साधनों तथा व्यक्तियों की क्रियाओं में समन्वय स्थापित करना है। 

(8) लोच का सिद्धाना-

संगठन का लोचपूर्ण होना आवश्यक है, ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक समायोजन करना सम्भव थे। 

संगठन के आधुनिक सिद्धान्त 

(Modern Principles of Organization)

आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञों ने कुछ आयनिक संगठन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जो कि निम्नलिखित हैं- 

(1) कुशलता का सिद्धान्त-

कए ज एवं ओ डोनेल के अनुसार, “एक संगठन उस समय कुशल माना जाएगा, जबकि वह निर्धारित उद्देश्यों को न्यूनतम लागत पर प्राप्त करने में समर्थ हो।”

एक कर्मचारी की दृष्टि से कुशल संगठन वह है, जो कि

(i) कार्य के प्रति संतोष प्रदान करता है;

(ii) स्पष्ट अधिकार रेखा निर्धारित करता हो;

(iii) सुरक्षा की व्यवस्था करता हो तथा

(iv) समस्याओं के समाधान में भाग लेता हो। 

(2) औपचारिकता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार उपक्रम के संगठन के कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि

(i) उसका क्या कार्य है;

(ii) वह किसके प्रति उत्तरदायी है;

(iii) अन्य कर्मचारियों के साथ उसके क्या सम्बन्ध है? 

(3) उद्देश्यों की एकता का सिद्धान्त-

कन्ट्रज एवं ओ ‘डोनेल के अनुसार, “संगउन कैसा है, इसका पता उसके द्वारा उपक्रम के प्रति किए गए योगदान से लगता है। इसके लिए आवश्यक है कि उद्देश्यों में एकता हो। 

(4) सत्ता के हस्तान्तरण का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मव्य एवं उत्तरदायित्न के वितरण के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि सम्बन्धित व्यक्ति को आवश्यक अधिकार प्रदान किए जाएँ, ताकि वह अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व का निष्पादन कर सके। 

(5) अपवाद का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार उच्च प्रबन्धक को चाहिए कि वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा दिन-प्रतिदिन किए जाने वाले कायों में न्यूनतम हस्तक्षेप करे। 

(6) निश्चितता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त की प्रत्येक आवश्यक क्रिया संस्था के मुख्य लक्ष्य की पूर्ति में कम से कम प्रयास तथा अधिक से अधिक परिणाम दिखाने वाली होनी चाहिए। 

(7) सह-भागिता के सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्धकों को आमने-सामने बैठकर संगठन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने हेतु विचार-विमर्श करना चाहिए। 

(8) अनुरूपता का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार एक समान कार्य करने वाले कर्मचारियों के अधिकारों तथा उत्तरदायित्व में एकरूपता होनी चाहिए । ऐसा होने पर न तो टकराहट होगी और न अनावश्यक मतभेद पनपेगा। 

(9) जाँच एवं सन्तुलन का सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के अनुसार किसी एक व्यक्ति, समूह, शाखा या विभाग द्वारा निष्पादित कार्यों को किसी दूसरे व्यक्ति, शाखा या विभाग द्वारा जाँच एवं सन्तुलित रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। . . अतः निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि संगठन को उपक्रम की सफलता के लिए उक्त सिद्धान्तों का परिपालन करके चलाया जाना चाहिए, ताकि सम्बन्धित सभी पक्षों को वांछित सन्तोष मिले तथा उपक्रम की लार्भाजन क्षमता में अभिवृद्धि की जा सके। 

औपचारिक संगठन 

(Formal Organization)

औपचारिक संगठन से आशय उस संगठन से है जिसमें प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर अधिकारियों के अधिकार कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की स्पष्ट रूप से व्याख्या की जाती है। इस प्रकार के संगठनों में अधिकार उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर प्रत्यायोजित होते हैं और पूरी संगठन संरचना संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयल करती है। यह एक ऐच्छिक संगठन है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के कार्य सीमा निर्धारित होती है ओर उसे निश्चित नियमों व आदेशों का कठोरता से पालन करना होता है।

औपचारिक संगठन की प्रमुख परिभाषायें निम्नलिखित हैं –

जार्ज आर० टैरी के अनुसार, “पूर्व निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु शासकीय अनुमति के द्वारा बनाया या संगठन औपचारिक संगठन है।” 

चेस्टर आई० बर्नाडे के अनुसार, “जब किसी संगठन के दो या दो से अधिक व्यक्तियों की क्रियाओं को किसी निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चेतनापूर्वक समन्वित किया जाता है। तो ऐसा संगठन औपचारिक संगठन कहलाता है।” 

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पद्धतियों, नियमों, नीतियों तथा कम्पनी के नियन्त्रणों पर परिभाषित मानवीय पारस्परिक सम्बन्ध का स्वरूप ही औपचारिक संगठन का निर्माण करता. है। 

औपचारिक संगठन की विशेषताएँ 

(Characteristics of Formal Organization)

औपचारिक संगठन की अग्रलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं-

(i) इस प्रकार का संगठन पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बनाया जाना

(ii) यह संगठन पूर्णरूपेण अव्यक्तिगत होता है । 

(iii) इसका मुख्य आधार अधिकार सौंपना होता है। 

(iv) इस संगठन में प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर अधिकार, दायित्व और कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या की जातीहै। 

(v) इस संगठन में श्रम-विभाजन का प्रयोग सम्भव है। 

(vi) अधिकार एवं दायित्वों के स्पष्टीकरण के लिए संगठन चार्ट और मैनुअल का प्रयोग किया जाता है। 

(vii) कार्य का विशिष्टीकरण और निर्देश की एकता इसके मुख्य सिद्धान्त हैं।

(viii) इस संगठन में पद (position) को आधार बिन्दु मानकर कार्य किया जाता है।

(ix) इस संगठन में सत्ता की क्रमबद्धता का कठोरता के साथ पालन किया जाताहै। 

(x) इस प्रकार के संगठन में नियमों, नीतियों, पद्धतियों और प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। 

औपचारिक संगठन के लाभ 

(Advantages of Formal Organization)

इस संगठन के निम्नलिखित प्रमुख लाभ हैं- 

(i) इस संगठन में किसी व्यक्ति विशेष की आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं दिया जाता। 

(ii) कार्य का दोहरीकरण संभव नहीं है।

(iii) अधिकार दायित्व एवं कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या (clear-cut, certain and far from confusion) होने के कारण आपसी मतभेदों की सम्भावना नहीं रहती। 

(iv) कोई व्यक्ति अपने कार्य में टाल-मटोल नहीं कर सकता क्योंकि उसका कार्य निश्चित होता है।

(v) इस संगठन में कार्यों के सही प्रमाप होने के कारण उद्देश्यों को प्राप्त करना सरल 

(vi) इस विधि में सभी कार्य पूर्व-निर्धारित नियमों के असा’ होते हैं। अतः किसी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाता। 

(vii) इस विधि में व्यक्ति को उतना महत्व नहीं दिया जाता जितना कि प्रणाली को दिया जाता है। अतः प्रणाली अधिक महत्वपूर्ण होती है। 

(viii) इस विधि में अधिकार एवं दायित्वों की स्पष्ट व्याख्या एवं विभाजन के कारण सभी अधिकारी एवं कर्मचारियों में मधुर सम्बन्ध बने रहते हैं। 

(ix) इस विधि में क्रिया और कर्मचारी के बीच आसानी से समन्वय किया जा सकता है।

(x) औपचारिक संगठन तर्क-संगत, व्यवस्थित तथा आदेशात्मक होता है। इसमें टाल-मटोल की भावना समाप्त हो जाती है, कोई कर्मचारी अपनी असफलता का दोष दूसरों पर नहीं डाल सकता, जिससे मालफीताशाही को समाप्त हो जाती है। 

औपचारिक संगठन के दोष

(Disadvantages of Formal Organisation)

औपचारिक संगठन के प्रमुख दोष अग्रलिखित हैं –

(i)इसमें कार्य करने वाले व्यक्तियों की पहलशक्ति समाप्त हो जाती है।

(ii) इसमें अधिकार सत्ता के दुरुपयोग की सम्भावनाएं उत्पन्न हो जाती है। 

(iii)इस प्रकार के संगठन में कार्यरत व्यक्ति सामाजिक संगठनों की मांग भावनाओं पर किसी भी प्रकार का ध्यान नहीं देते हैं। 

(iv)इस संगठन में मनुष्य की अपेक्षा नियमों व नीतियों को अधिक महत्व दिठनों की मान्यताओं व मक महत्व दिया जाता 

(v) यह संगठन अनौपचारिक सम्प्रेषण में बाधाएँ उत्पन्न करता है।

(vi) इसमें समन्वय की समस्या सदा बनी रहती है। 

अनौपचारिक संगठन 

(Informal Organisation)

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसे किसी एक निश्चित ढाँचे में नहीं बाँधा जा सकता .! जहाँ सभी लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं वहीं उनमें निरन्तर सम्पर्क उत्पन्न हो जाते हैं। इन्हीं सम्बन्धों एवं समूहों की अनौपचारिक संगठन कहा जाता है। इसमें निरीक्षक-अधीनस्थ सम्बन्ध नहीं होते और किसी भी व्यक्ति के अधिकार व कर्त्तव्य स्पष्ट रूप से निर्धारित नहीं होते । इसमें कोई नियम या सीमायें निर्धारित नहीं की जाती । प्रत्येक सदस्य स्वेच्छा से सम्बन्ध रखता है । इसकी प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं

हिक्स एवं गुलैट के अनुसार, अनौपचारिक संगठन अशासकीय एवं अनाधिकृत सम्बन्धों से निर्मित होता है जो कि औपचारिक संगठन में व्यक्तियों एवं समूहों के मध्य अनिवार्य रूप से घटित होते हैं।” 

मैसी के अनुसार, “अनौपचारिक संगठन मानवीय अन्तक्रियाओं का वह समूह है,जो स्वतः स्वाभाविक तौर से लम्बे समय तक साथ रहने से उत्पन्न हो जाता है।” .. उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन के स्पष्ट है कि अनौपचारिक संगठन व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्धों का एक ऐसा जाल है जो बिना किसी योजना के स्वत: विकसित होता है। 

अनौपचारिक संगठन की विशेषताएँ

(Chracteristics of Informal Organisation)

अनौपचारिक संगठन की परिभाषाओं के आधार पर इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है।

(i)इसका निर्माण स्वतः होता है।

(ii) यह व्यक्तिगत आवश्यकताओं के लिए बनाया गया सामाजिक ढाँचा है। (iii) इन संगठनों का औपचारिक संगठन चार्डों में कोई भी स्थान नहीं होता।

(iv) यह सामाजिक नियन्त्रण के माध्यम के रूप में कार्य करता है।

(v) प्रबन्धकीय क्रम-बद्धता के सभी स्तरों पर इसे पाया जा सकता है ! 

(vi) इसके स्वयं के कुछ नियम व परम्पराएँ हैं जो कि लिखे नहीं जाते अपितु जिनका, सामान्यतः पालन किया जाता है ।

(vii) यह रीति-रिवाजों, पारस्परिक सम्बन्धों तथा सामाजिक समूहों की आदतों से विकसित होता है। 

(viii) यह सम्पूर्ण संगठन के अभिन्न अंग के रूप में निर्मित होता है। 

अनौपचारिक संगठन के लाभ 

(Advantages of Informal Groups)

अनौपचारिक संगठनों से एक संगठन तथा समाज को तथा सदस्यों को बहुत से लाभ होते हैं। यही कारण है कि इनका अस्तित्व बना रहता है और सभी संगठनों में हमें अनौपचारिक समूह देखने को मिलते हैं। अनौपचारिक समूह के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं –

(i)ये समूह एक सुखद तथासन्तुष्टिपूर्ण वातावरण स्थापित करते हैं।

(ii) अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताओं तथा इच्छाओं को आसानी से स्पष्ट करते हैं

(iii) अनौपचारिक समूह आपसी सहयोग को बढ़ाते हैं जिससे उनकी कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है। 

(iv) अनौपचारिक समूह के माध्यम से सन्देशवाहन की सुविधा बढ़ती है । अनौपचारिक समूह अनुसंधान तथा नव-प्रवर्तन को प्रोत्साहन देते हैं । अनौपचारिक समूह औपचारिक संगठनों की कमियों को दूर करके उन्हें प्रभावशील बनाने में सहयोग देते हैं। 

(v) अनौपचारिक समूहों के माध्यम से समन्वय तथा समायोजन के कार्य में भी सहायता मिलती है। ये समूह अपने सदस्यों को बाहरी दबाव से भी मुक्त रखते हैं। 

औपचारिक संगठन के दोष 

(Disadvantages of Formal Organisation)

औपचारिक संगठन के निम्नलिखित प्रमुख दोष हैं, जिन्हे भुलाया नहीं जा सकता है।

(i)अनौपचारिक सन्देशवाहन आवश्यक होते हुए भी कठिन हो जाता है।

(ii) विभिन्न व्यक्तियों एवं विभागों के कार्यों में समन्वय करने में कठिनाई आती है। 

(iii) इस संगठन में मानवीय भावनाओं की अनदेखी की जाती है क्योंकि इसमें कर्मचारियों और अधिकारियों की अपेक्षा नियम अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। 

(iv) सामाजिक संगठनों की भावनाओं एवं मान्यताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता  हैं।

(v) संगठन की इस प्रणाली में अधिकारों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग किया जाता हैं।

(vi) इस संगठन में अधिकारी और अधीनस्थ के बीच किसी भी समय तनाव बढ़ने की सम्भावना रहती है। 

(vii) श्रम के विशिष्टीकरण के कारण दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है और विशिष्टीकरण के सभी दोष उत्पन्न हो जाते हैं। 

अनौपचारिक तथा औपचारिक समूह में अन्तर

(Difference between Formal and Informal Groups)

(1) उद्गम (Origin)-

औपचारिक तथा अनौपचारिक समूह का उद्गम अलग-अलग कारणों तथा परिस्थितयों में होता है। औपचारिक समूह एक नियोजित ढंग से स्थापित किए जाते हैं जबकि अनौपचारिक समूह नियोजित ढंग से नहीं स्थापित किए जाते बल्कि इनका उद्गम ऐच्छिक तथा आकस्मिक होता है। 

(2) उद्देश्य (Objectives)-

औपचारिक समूहों की स्थापना निश्चित कारणों से की कि संगठन के उद्देश्य जाती हैं। अत: इसके कुछ निश्चित उद्देश्य होते हैं लेकिन अनौपचारिक संग सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टि से होते हैं।

(3) आकार (Size)-

औपचारिक संगठन आकार में पर्याप्त बड़े भी हो सकते है। अनौपचारिक संगठन प्रायः आकार में बहुत छोटे होते हैं ताकि उनका आसानी से प्रब ” जा सके। 

(4) समूह की प्रकृति (Nature of Group)-

औपचारिक समूह स्थायी होते हैं लम्बे समय तक चलने की सम्भावना होती है, लेकिन अनौपचारिक समूह इस दृष्टि से अ” एवं अल्पकालीन होते हैं । इनका जन्म भी तेजी से होता है और इनकी समाप्ति भी शोधत होती है। 

(5) समूहों की संख्या (Number of Groups)-

एक औपचारिक संगठन कई छोटे-छोटे संगठनों तथा समूहों एव उप-समूहों में विभाजित होता है इसलिए इसमें सदस्यों को संख्या काफी अधिक हो सकती है लेकिन अनौपचारिक समूह में सदस्यों की संख्या प्राय: होती है। एक संगठन में औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार के समूह होते हैं। लेकिन अनौपचारिक समूहों की संख्या अधिक होती है और इनमें सदस्यता का दोहरापन भी पाया जाता है।

(6) अधिकार (Authority)-

औपचारिक समूह में अधिकार, औपचारिक स्रोतों से प्राप्त होत है अर्थात् मारार्पण के द्वारा अधिकार सत्ता ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होती है। लेकिन अनौपचारिक समूह में सभी के अधिकार बराबर होते हैं और किसी भी व्यक्ति की भूमिका उसके व्यक्तिगत गुणों के कारण से अधिक अधिकारपूर्ण हो सकती है। 

(7) सदस्यों का व्यवहार (Behaviour of Members)-

औपचारिक समूहों में सदस्यों का व्यवहार औपचारिक नियमों, नीतियों एवं कार्य विधियों से प्रभावित होता है लेकिन अनौपचारिक समूह में सदस्यों का व्यवहार समूह के विशेष मूल्यों तथा परम्पराओं से प्रभावित होता है। 

(8) संदेशवाहन (Communication)-

औपचारिक समूह में संदेशवाहन निश्चित श्रृंखलाओं से होकर जाता है जबकि अनौपचारिक समूह में संदेश अनौपचारिक श्रृंखलाओं से होकर जाते हैं। 

(9) समाप्ति (Abolition)-

औपचारिक समूह को कभी-कभी समाप्त किया जाता है क्योंकि इनका निर्माण संगठनात्मक प्रकार से होता है और उसी से इनका समापन भी हो सकता है, लेकिन अनौपचारिक समूहों को समाप्त करना बड़ा कठिन है और कभी-कभी इन्हें समाप्त करने में प्रबन्धकीय प्रयास के विपरीत परिणाम भी हो सकते हैं अर्थात् अनौपचारिक समूह बन सकते हैं। 

(10) नेतृत्व (Leadership)-

औपचारिक समूहों में नेतृत्व संगठन के द्वारा प्रदान किया जाता है, लेकिन अनौपचारिक समूहों मे नेतृत्व समूह के सदस्य स्वयं निर्धारित करते हैं । 

(11) संरचना (Structure)-

औपचारिक संगठन की संरचना वातावरण, तकनीकी एवं अन्य आवश्यकताओं के अनुसार हो सकती हैं, लेकिन अनौपचारिक संगठन की संरचना के लिए कोई निश्चित डिजाइन नहीं है। उपर्युक्त तकनीक के अतिरिक्त एक प्रबन्धक विभिन्न सूचनाएँ, एक-दूसरे को लेकर मचारियों के अनौपचारिक समूहों को अभिप्रेरित कर सकते हैं। संस्था में ऐसा वातावरण जनाना चाहिए जिससे कि अफवाह न फैले । इस दृष्टि से सभी आवश्यक सूचनाएँ कर्मचारियों को पहले ही दे देनी चाहिए। 

आदर्श संगठन से आशय 

(Meaning of an Ideal Organisation)

संगठन साधन है साध्य नहीं । वास्तव में कोई संगठन अच्छा है या बुरा इस बात पर निर्भर करता है वह कितनी कुशलता से उपक्रम के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल है। एक आदर्श व स्वस्थ संगठन से आशय ऐसे संगठन से है जिसमे संगठन के समस्त आवश्यक सिद्धान्तों का पालन किया जाता है तथा जो उपक्रम के अन्तिम उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है। 

पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, आदर्श संगठन वह है जो सामान्य व्यक्तियों को असमान्य कार्य करने में सहायता करता है।” 

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आदर्श संगठन से आशय किसी सर्वगुणसम्पन्न संगठन से नहीं अपितु ऐसे संगठन से है जिससे सदैव आशा की जाती है कि वह अपने निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हो। 

आदर्श संगठन की विशेषताएँ 

(Characteristics of an Ideal Organisation)

आदर्श संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 

(1) उद्देश्यों की प्राप्ति-

संगठन प्रत्येक उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति का एक साधन है। इसी दृष्टिकोण से संगठन को कई विभागों,शाखाओं व उपविभागों में बाँटा जाता है।

(2) स्पष्टता-

संगठन में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए अर्थात् उसे अपने कार्यों, अधिकारों, दायित्वों व सम्बन्धों का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए। इससे मतभेद, अनुउत्तरदायित्व तथा शिथिलता आदि दोष दूर हो जाते हैं।

(3) समन्वय-

आदर्श संगठन में उपक्रम के विभिन्न विभागों, कर्मचारियों व अधिकारियों में पयाप्त समन्वय होना चाहिए। लियोनार्ड के शब्दों में, “संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक समूह के प्रयासों की क्रमबद्ध व्याख्या करने कार्यों में एकरूपता लाने के लिए समन्वय आवश्यक है।” 

(4) प्रभावी निर्णय–

आदर्श संगठन में सहभागिता के आधार पर सही समस्याओं पर निर्णय लिये जाते हैं तथा निर्णयन की प्रक्रिया कार्यवाहीप्रधान होती है। 

(5) उच्च मनोबल-

आदर्श संगठन में कार्यरत कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा होता है। दह पूर्ण उत्साह व लगन निःस्वार्थ भाव स्वेच्छा से अधिकाधिक कार्य करने के लिए प्रेरित होते है। 

(6) स्थायित्व-

आदर्श संगठन वह है जो दीर्घकाल तक फर्म के उद्देश्यों को प्राप्त करने का क्षमता रखता है। साथ ही जिसमें विभिन्न उपद्रवों व परिवर्तित दशाओं के साथ समायोजित होने की क्षमता होती है। 

(7) मानव शक्ति का अधिकतम उपयोग-

एक आदर्श संगठन का यह भा गुण है।

(8) सरलता-

संगठन संरचना इतनी सरल होनी चाहिए ताकि प्रत्यक कर्मचारी आसानी से समझ सके । जटिल संरचना संगठन में संघर्ष, शिथिलता, जड़ता व दबाव और करती है तथा कर्मचारियों को लक्ष्य से विचलित करती है। 

(9) सन्तुलन-

एक आदर्श संगठन की न केवल प्रत्येक इकाई सन्तुलित होती बल्कि साधनों व लक्ष्यों की दृष्टि से भी पूर्ण सन्तुलित होता है। 

(10) कार्यान्वयन में सुविधा-

आदर्श संगठन से कार्य अत्यधिक सुविधा एवं मितव्य के साथ सम्पन्न किये जाएँ । डकर के अनुसार, “सर्वोत्तम साधन वह है जो सामान्य व्यति को असामान्य कार्य करने में सहायता करता है।”

(11) प्रभावी संचार-

बिना प्रभावी संचार व्यवस्था के आदर्श संगठन की कमी 

की जा सकती। प्रभावी संचार व्यवस्था से संगठन के कर्मचारियों को संस्था की उद्देश्यों, कर्तव्यों, निर्देशों, पारस्परिक सम्बन्धों व प्रगति का पूर्ण ज्ञान रहता है। 

(12) नेतृत्व सर्जन-

आदर्श संगठन एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता प्रबन्धक कुशलतापूर्वक नेतृत्व कर सकते हैं। कूण्ट्ज एवं ओ० डोनेल के अनसार ” नेतृत्व को विकसित करने की तकनीक है।” .. 

(13) नवप्रवर्तन की क्षमता-

एक अच्छा संगठन वही है जो सजनात्मक विचार नवप्रवर्तन को प्रोत्साहित करे। संगठन में भावी विस्तार व स्व नवीकरण की क्षमता भी नहीं चाहिए। 

(14) सानो का अधिकतम उपयोग-

एक आदर्श संगठन वह होता है जो न केवल र भौतिक एवं मानवीय साधनों का सर्वोत्तम उपयोग करता है बल्कि उनके विकास हेत भी पर अवसर उपलब्ध कराता है। एक आदर्श संगठन वास्तव में वह है जिसमें कार्य बड़ी सहजता से कुशलतापूर्वक बिना किसी समस्या के क्रियान्वित होता है । पीटर एफ० डुकर के शब्दों में, एक स्वस्थ संगठन पर्ण स्वास्थ्य की भाँति है। इसकी कसौटी यह है कि इसमें कोई दोष नहीं होते और इसीलिए उपचार की कोई आवश्यकता नहीं होती है।” 

संगठन संरचना 

(Organization Structure)

संगठन संरचना किसी संस्था का वह रूप है जिसमें उस संस्था की संगठन व्यवस्था का निश्चित किया जाता है। जिस प्रकार किसी संस्था की नीतियाँ उन सीमाओं को निश्चित करता हैं जिनके अन्तर्गत कार्यक्रमों एवं कार्यविधियों को निश्चित किया जाता है,

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