Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes in Hindi

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Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes in hindi

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Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes

Chapter wise

  1. Marketing : An Introduction
  2. Marketing Mix
  3. Marketing Environment
  4. Consumer Behavior
  5. Market Segmentation
  6. Product: Consumer and Industrial Goods
  7. Product Planning
  8. Role and Functions
  9. Brand Name and Trade Mark
  10. After – Sale Service
  11. Product Life Cycle
  12. Pricing
  13. Distribution Channels
  14. Physical Distribution
  15. Promotion
  16. Sales Promotion
  17. Advertising Media
  18. Personal Selling
  19. International Marketing
  20. International marketing Environment
  21. Identifying and Selecting International Market
  22. Foreign Market Entry Mode Decisions

Bcom 3rd Year Meaning of Marketing Notes

विपणन का अर्थ

वर्तमान वाणिज्यिक तथा औद्योगिक युग में विपणन कोई नया शब्द नहीं है। विभिन्न व्यक्ति विपणन शब्द को विभिन्न अर्थों में प्रयोग करते हैं। कुछ व्यक्तियों के लिये विपणन का अर्थ केवल वस्तुओं के क्रय एवं विक्रय से है जबकि कुछ अन्य व्यक्ति इसमें और भी अनेक क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं, जैसे—विक्रय उपरान्त सेवा, वितरण तथा विज्ञापन आदि। वास्तव में विपणन क्रय, विक्रय, उत्पाद नियोजन, विज्ञापन आदि तक सीमितं न रहकर एक विस्तृत अर्थीय शब्द है जिसमें वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से पूर्व की जाने वाली क्रियाओं से लेकर इनके वितरण एवं आवश्यक विक्रयोपरान्त सेवाओं तक को शामिल किया जाता है। इस प्रकार विपणन का कोई सर्वमान्य अर्थ या परिभाषा नहीं है। अध्ययन की सुविधा के लिए विपणन के अर्थ की व्याख्या करने वाली विचारधाराओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-

I. पुरानी या संकीर्ण विचारधारा,

II. नयी या आधुनिक विचारधारा।

I. पुरानी, संकीर्ण या उत्पाद अभिमुखी विचारधारा

Old, Narrow or Product-oriented Concept

यह विपणन की अत्यन्त प्राचीन अथवा संकीर्ण विचारधारा है, जिसमें विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये क्रय एवं इन वस्तुओं को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिये विक्रय आदि क्रियाओं को विपणन में सम्मिलित किया जाता है। इसके अनुसार किसी भी व्यवसाय का मूलभूत उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है। विपणन का मूलभूत कार्य वस्तुओं का उत्पादक अथवा निर्माता से उपभोक्ताओं तक पहुँचाना है। बीसवीं शताब्दी के पाँचवे दशक के आसपास तक व्यावसायियों/ प्रबन्धकों/अर्थशास्त्रियों ने विपणन की इसी प्रकार की परिभाषाएँ दी हैं। विपणन की सूक्ष्म अथवा संकीर्ण अर्थ वाली प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

(1) प्रो० पाइले के अनुसार, “विपणन में क्रय और विक्रय दोनों ही क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।”

(2) क्लार्क एवं क्लार्क के अनुसार, “विपणन में वे सभी प्रयत्न सम्मिलित हैं जो वस्तुओ एवं सेवाओं के स्वामित्व हस्तान्तरण एवं उनके (वस्तुओं एवं सेवाओं के) भौतिक वितरण में सहायता प्रदान करते हैं।’

(3) कन्वर्स, ह्यूजी एवं मिचेल के अनुसार, “विपणन में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से उपभोग तक के प्रवाह की क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।”

(4) अमेरिकन मार्केटिंग एसोसियेशन के अनुसार, “विपणन से तात्पर्य उन व्यावसायिक क्रियाओं के निष्पादन से है जो उत्पादक ये उपभोक्ता या प्रयोगकर्ता तक वस्तुओं और सेवाओं के प्रवाह को नियन्त्रित करत है,

विपणन की परम्परागत विचारधारा की प्रमुख विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. परम्परागत विचारधारा के अनुसार संस्था का समस्त ध्यान उत्पादन पर होता है।

2. परम्परागत विचारधारा का लक्ष्य अधिकतम विक्रय द्वारा अधिकतम लाम कमाना है।

3. इस विचारधारा में उपभोक्ता की संतुष्टि एवं कल्याण पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

4. इसमें वस्तु के उत्पादन के पूर्व एवं वस्तु के विक्रय के बाद की क्रियाओं को शामिल नहीं किया जाता है।

5. यह विचारधारा इस दर्शन पर आधारित है कि उत्पादक या विक्रेता यह भली-भाँति जानता है कि उपभोक्ता के लिये क्या अच्छा है और उसे किस वस्तु की आवश्यकता है।

6. परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत कम्पनी के विभिन्न विभागों में पारस्परिक सम्बन्ध नहीं होते हैं।

II. नयी, विस्तृत, आधुनिक या ग्राहक-अभिमुखी विचारधारा

(New, Modern or Customer-oriented Concept)

आधुनिक विचारधारा वस्तु के स्थान पर ग्राहकों को अधिक महत्व देती है, इसलिये इसे ग्राहक-अभिमुखी विचारधारा कहते हैं। इस विचारधारा के अनुसार ऐसी वस्तुओं का ही निर्माण किया जाता है जो कि अधिकांश ग्राहकों की विभिन्न आवश्यकताओं, अभिरुचियों आदि के अनुरूप हों। इसके पश्चात वस्तुओं का विक्रय भी ग्राहक की सुविधा को ध्यान में रखकर किया जाता है और यदि आवश्यकता हो तो विक्रयोपरान्त सेवा (After Sales Service) की व्यवस्था भी की जाती है।

इस विचारधारा के अनुसार विपणन को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-

(1) पॉल मजूर के अनुसार-“विपणन का अर्थ समाज को जीवन स्तरMप्रदान करना है।”

(2) विलियम जे० स्टेण्टन के अनुसार, “विपणन का अर्थ उन पारस्परिक व्यावसायिक क्रियाओं की सम्पूर्ण प्रणाली से है जो कि वर्तन व सम्भावित ग्राहकों को उनकी आवश्यकता संतुष्टि की वस्तुओं और सेवाओं के बारे में योजना बनाने, मूल्य निर्धारित करने, संवर्धन करने और वितरण के लिये की जाती हैं।”

(3) प्रो० एच० एल० हेन्सन के अनुसार, “विपणन उपभोक्ताओं की इच्छा को ज्ञात करने, उन्हें विशिष्ट वस्तुओं एवं उत्पादों में परिवर्तित करने और तदुपरान्त उन वस्तुओं एवं सेवाओं के जरिए अधिकाधिक उपभोक्ताओं के उपयोग को सम्भव बनाने की प्रक्रिया है।”

विपणन की आधुनिक विचारधारा की विशेषताओं को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

1. इस विचारधारा में उपभोक्ता की सन्तुष्टि पर विशेष ध्यान दिया जाता है अर्थात् उपभोक्ता को सर्वेसर्वा माना जाता है।

2. इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धकों को यह आभास होता है कि ग्राहक की आवश्यकताएँ महत्वपूर्ण है न कि उत्पादन।

3. आधुनिक विचारधारा के अनुसार समाज के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने का दायित्व विपणन का है।

4. इस विचारधारा के अन्तर्गत विपणन के द्वारा नये-नये उत्पादन आरम्भ करने का अवसर प्राप्त होता है।

5. इस विचारधारा के अनुसार उत्पत्ति के सभी साधनों का प्रभावी उपयोग सम्भव होता है।

विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में विपणन का महत्व

(Importance of Marketing in the Emerging Economy of India)

(1) प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम उपयोग-आधुनिक सुदृढ़ विपणन व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों का देश के हित में विदोहन तथा अधिकतम उपयोग करने में सक्रिय सहयोग प्रदान करती है जिसकी कि विकासशील देशों में अत्यन्त आवश्यकता होती है।

(2) अर्थव्यवस्था को मन्दी से बचाना-आधुनिक विपणन अवधारणा विकासशील देश की अर्थव्यवस्था को मन्दी से बचाने में सक्रिय योगदान प्रदान करती है। यदि विपणन न हो तो विक्रय कम मात्रा में होगा जिसके कारण सारा देश मन्दी के चंगुल में फंस जायेगा।

(3) रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाना-आधुनिक विपणन अवधारणा जन-साधारण को उपभोग के लिए बड़े पैमाने पर नई-नई वस्तुओं की जानकारी देकर एवं उपलब्ध कराकर रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने में सक्रिय सहयोग प्रदान करती है।

(4) राष्ट्रीय आय में वृद्धि-जब आधुनिक विपणन सुविधाओं के कारण विभिन्न प्रकार के ग्राहकों की आवश्यकतानुसार वस्तुओं का उत्पादन एवं निर्माण किया जाता है तो देश की कुल वस्तुओं और सेवाओं में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप देश की कुल राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय दोनों में वृद्धि होती है।

(5) रोजगार की सुविधा-आधुनिक विपणन अवधारणा रोजगार के अवसरों में वृद्धि करके बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी के उन्मूलन में सक्रिय सहयोग प्रदान करती है। आज विपणन क्षेत्र भारत में रोजगार प्रदान करने का प्रमुख स्रोत माना जाता है।

(6) औद्योगीकरण को प्रोत्साहन-आज जिन देशों में आधुनिक विपणन व्यवस्था है, वे देश औद्योगिक क्षेत्र में शिखर पर हैं। इस प्रकार विपणन व्यवस्था अच्छी होने से औद्योगीकरण को प्रोत्साहन मिलता है जिसकी भारत जैसे विकासशील देशों को अत्यन्त आवश्यकता है।

(7) नियति में वृद्धि-आधुनिक सुदृढ़ विपणन, व्यवस्था के कारण जो देश औद्योगीकरण के शिखर पर हैं, वे निर्यात अधिक करते हैं और आयात क भारत जैसे विकासशील देश को आज निर्यात में वृद्धि की सबसे अधिक आवश्यकता है और इसी कारण विकासशील देशों (भारत सहित) में आधुनिक विपणन का महत्व है।

(8) बाजार के विकास में सहायक-विपणन का स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय तीन स्तरों पर महत्व है। आधुनिक सुदृढ़ विपणन व्यवस्था स्थानीय बाजार को राष्ट्रीय बाजार तथा राष्ट्रीय बाजार को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का रूप प्रदान करती है।

(9) वस्तुओं के मूल्यों में कमी-एक सुव्यवस्थित एवं प्रभावी आधुनिक विपणन व्यवस्था के होने से जहाँ एक ओर अधिक माँग होने पर उत्पादन की मात्रा बढ़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन लागत कम हो जाती है और दूसरी ओर वितरण लागतों में और वस्तुओं के मूल्यों में पर्याप्त कमी आती है। फलतः उपभोक्ता अधिक मात्रा में वस्तुओं का उपभोग करना प्रारम्भ कर देते हैं।

कण्डिफ एवं स्टिल के अनुसार विपणन के अन्तर्गत निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित की जाती है-

विपणन कार्य

 (1) वाणिज्ययन कार्य-(II) भौतिक वितरण कार्य-(III) सहायक कार्य-
1: उत्पाद नियोजन एवं विकास1. भण्डारण1. विपणन वित्त व्यवस्था
2. प्रमापीकरण एवं श्रेणीयन2. परिवहन2. जोखिम वहन करना
3. क्रय3. बाजार सूचना
4. विक्रयण

विपणन की भूमिका अथवा महत्त्व

(Role or Importance of Marketing)

आधुनिक अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता व्यावसायिक जगत का केन्द्र-बिन्दु बन गया है। सभी व्यावसायिक क्रियाएँ उपभोक्ता के चारों ओर चक्कर लगाती हैं। उपभोक्ता अवधारणा को अधिकाधिक मान्यता दिये जाने के कारण आर्थिक अवधारणा में परिवर्तन आ रहे हैं। फलस्वरूप विपणन का महत्व भी दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।

पीटर एफ ड्रकर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “एक व्यावसायिक उपक्रम के दो आधारभूत कार्य हैं-प्रथम, विपणन (Marketing) एवं द्वितीय, नवाचार (Innovation)।”

विपणन के महत्व का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है :

निर्माता के लिये विपणन का महत्त्व

(Importance of Marketing for Manufacturer)

(1) उत्पादन सम्बन्धी निर्णयों में सहायक (Helpful in Production decision)-वर्तमान समय में व्यवसाय की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उपभोक्ताओं की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुओं का उत्पादन किया जाये। अत: वस्तुओं की मात्रा, कीमत निर्धारण की व्यवस्था, विज्ञापन के साधन आदि के सम्बन्ध में सही निर्णय लेने के लिये विपणन बहुत उपयोगी होता है।

(2) आय वृद्धि में सहायक (Helpful in Increasing Income)—प्रत्येक फर्म का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना होता है। विपणन एक ओर तो विभिन्न विपणन लागतों में कमी करके वस्तुओं व सेवाओं की कीमतों में कमी करता है और दूसरी ओर विपणन के आधुनिक तरीकों जैसे-विज्ञापन, विक्रय सम्वर्द्धन आदि के द्वारा वस्तुओं व सेवाओं की माँग में वृद्धि करता है परिणामतः वस्तुओं की लागतों में कमी और माँग में वृद्धि होने के कारण कुल बिक्री में वृद्धि होती है जिससे फर्म के लाभों में वृद्धि होती है।

(3) सूचनाओं के आदान-प्रदान में सहायक (Helpful in exchanging information)—विपणन की सहायता से व्यवसाय और समाज के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। विपणन की सहायता से समय-समय पर समाज में होने वाले परिवर्तनों, जैसे—आवश्यकताओं व रुचियों में परिवर्तन, फैशन में परिवर्तन आदि के सम्बन्ध में उच्च प्रबन्ध को जानकारी रहती है। आज की बढ़ती हुई पारस्परिक प्रतिस्पर्धा में इन सूचनाओं का और भी अधिक महत्व बढ़ गया है।

(4) वितरण में सहायक (Helpful in distribution)—विपणन का अध्ययन एक निर्माता को यह बताता है कि उसको वस्तु कम-से-कम लागत पर अधिक-से-अधिक सुविधाजनक केन्द्रों पर उपभोक्ता को किस प्रकार प्रदान करनी चाहिए। आज इस प्रतियोगी युग में वही निर्माता सफल हो सकता है जिसकी विपणन लागत न्यूनतम होती है।

समाज के लिये विपणन का महत्त्व

(Importance of Marketing to Society)

(1) रोजगार के अवसरों में वृद्धि–विपणन ने रोजगार के अवसरों की वृद्धि में पर्याप्त सहयोग दिया है। वास्तव में, उत्पादन की तुलना में विपणन में रोजगार अवसरों में थोड़ी ही अवधि में चार गुनी वृद्धि हुई है।

(2) रहन-सहन का स्तर प्रदान करना-समाज में विभिन्न वस्तुओं की माँग उत्पन्न करने, माँग में वृद्धि करने का श्रेय विपणन को ही है।

पॉल मजूर के अनुसार, “विपणन समाज को जीवन स्तर प्रदान करता है।”

(3) व्यापारिक मन्दी से सुरक्षा-बाजार में वस्तुओं की माँग घटने पर विपणन उत्पादित वस्तु के लिये नये-नये बाजारों की खोज करके, वस्तु की किस्म में सुधार करके, वस्तु के विभिन्न वैकल्पिक प्रयोग उत्पन्न करके, वितरण लागत को कम करके, विक्रय की मात्रा में कमी आने से रोकता है। इस प्रकार विपणन व्यापारिक मन्दी से सुरक्षा प्रदान करता है।

(4) राष्ट्रीय आय में वृद्धि-जब विभिन्न प्रकार के ग्राहकों की आवश्यकताओं के अनुसार वस्तुओं का निर्माण किया जाता है तो देश की कुल वस्तुओं और सेवाओं में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

(5) ग्राहकों के ज्ञान में वृद्धि-विपणन ग्राहकों को उनकी छिपी हुई आवश्यकताओं का ज्ञान कराता है और उन आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन व सेवाओं का निर्माण करके ग्राहकों की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करता है।

(6) वितरण लागतों में कमी-एक अच्छी वितरण व्यवस्था वस्तु की वितरण लागतों में कमी करती है जिसके परिणामस्वरूप वस्तु के मूल्यों में कमी कर दी जाती है जिससे समाज लाभान्वित होता है।

आर्थिक विकास के दृष्टिकोण से विपणन का महत्त्व

(Importance of Marketing in View of Economic Development)

राष्ट्र के आर्थिक विकास एंव विपणन में प्रत्यक्ष एवं सीधा सम्बन्ध होता है। पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, “विपणन किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को चाहे वह विकासशील हो अथवा अर्द्धविकसित या विकसित, सुदृढ़ता प्रदान करता है और उसे गतिशील बनाने में अनुपम योगदान देता है।” इस विचारधारा ने इस भ्रामक विचारधारा को दूर करने में सहयोग दिया है कि विपणन एवं उसकी गतिविधियाँ केवल विकसित राष्ट्रों के लिये ही उपयोगी प्रमाणित हो सकती हैं, अविकसित एवं विकासशील राष्टों के लिये नहीं।

विक्रेता बाजार में विपणन का महत्त्व

(Importance of Marketing in a Seller’s Market)

विक्रेता बाजार से आशय ऐसे बाजार से है, जिसमें वस्तुओं और सेवाओं की माँग तो अधिक होती है किन्तु पूर्ति कम होती है। ऐसी स्थिति में उत्पादन क्षेत्र में एकाधिकारी की प्रवृत्ति पायी जाती है। अत: ऐसे बाजार में उत्पादक अपनी वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री आसानी से कर सकते हैं अत: प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में विपणन की क्या आवश्यकता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि विक्रेता बाजार में भी विपणन की आवश्यकता होती है क्योंकि बाजार परिवर्तनशील होता है। आज जिन वस्तुओं का विक्रेता बाजार है कल उन्हीं वस्तुओं का क्रेता बाजार हो सकता है।

क्रेता बाजार में विपणन का महत्त्व

(Importance of Marketing in a Purchaser’s Market)

क्रेता बाजार से आशय ऐसे बाजार से है जिसमें वस्तुओं की माँग की अपेक्षा पूर्ति अधिक होती है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक संस्था अपना अधिक-से-अधिक माल बेचना चाहती है। इसके लिए प्रत्येक संस्था को आधुनिक तरीके अपनाने चाहिये। क्रेता बाजार में वे संस्थायें ही अधिक सफल हो पाती हैं जो अपनी वस्तुओं के प्रति ग्राहकों की इच्छाओं, आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों के अनुसार आवश्यक परिवर्तन करती रहती हैं तथा विक्रय संवर्द्धन के विभिन्न तरीके प्रयोग करती हैं। अतः चाहे विक्रेता बाजार हो या क्रेता बाजार विपणन दोनों ही स्थिति में महत्त्वपूर्ण है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वर्तमान भारतीय दशाओं में विपणन न केवल उत्पादन क्षमता के वितरण में सहायक है अपितु भारत में विपणन की आवश्यकता नयी-नयी वस्तुओं का आविष्कार और उनका विकास करके उपभोक्ताओं को प्रदान करने, रोजगार के विभिन्न अवसर उपलब्ध कराने, निर्यातों को प्रोत्साहित और राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने के लिये भी है।

Meaning and Definition of Marketing Mix

विपणन-मिश्रण से आशय एवं परिभाषा

“विपणन मिश्रण’ को ‘विपणन अन्तर्लय’ भी कहते हैं। विपणन मिश्रण शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिका के हारवार्ड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर नील बोर्डन (Prof. Neil Borden) ने किया था। प्रो० मैकार्थी ने विपणन मिश्रण के चार प्रमुख घटक बताए हैं-उत्पाद (Product), मूल्य (Price), संवर्द्धन (Promotion) एवं भौतिक वितरण (Physical Distribution)। इन्हीं घटकों के समुचित अनुपात में मिश्रण से ग्राहकों की इच्छाओं को सन्तुष्ट करके संस्था के विपणन उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार विपणन मिश्रण शब्द का प्रयोग सामान्यतः उन विपणन निर्णयों के श्रेष्ठ सम्मिश्रण के लिए किया जाता है जो विक्रय को लाभप्रद रूप में प्रोत्साहित करते हैं और उपभोक्ताओं के लिए अधिकतम सन्तुष्टि का साधन बनते हैं। इन तत्वों पर फर्म का पूर्ण नियन्त्रण रहता है। bcom 3rd year meaning and defination of marketing mix notes

आर० एस० डावर के अनुसार “निर्माताओं द्वारा बाजार में सफलता प्राप्त करने के लिये प्रयोग की जाने वाली नीतियाँ विपणन मिश्रण का निर्माण करती है।

विलियम जे० स्टेण्टन के अनुसार, “विपणन मिश्रण शब्द का उपयोग चार आदानों (Inputs) के संयोग का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो एक कम्पनी के विपणन तन्त्र को बनाता है-वस्तु, मूल्य, सम्वर्द्धन क्रियायें एवं वितरण तत्व।”

फिलिप कोटलर के अनुसार, “एक फर्म का लक्ष्य अपने विपणन क्षेत्रों के लिये सर्वोत्तम विन्यास को ढूँढना है। यह विन्यास विपणन मिश्रण कहलाता है। bcom 3rd year meaning and defination of marketing mix notes

” विपणन मिश्रण को प्रभावित करने वाले तत्व/शक्तियाँ

(Factors/Forces Affecting Marketing Mix)

विपणन मिश्रण को अनेक तत्व या शक्तियाँ प्रभावित करती हैं। विपणन शक्तियों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. अनियन्त्रणीय तत्त्व,

2. नियन्त्रण योग्य तत्त्व।

I. अनियन्त्रणीय तत्त्व (Uncontrollable Factors)

जिन शक्तियों पर संस्था का नियन्त्रण नहीं होता है. उन्हें अनियन्त्रण योग्य तत्वों की श्रेणी में रखा जाता है-

1. उपभोक्ता व्यवहार (Consumer behaviour)-उपभोक्ता का व्यवहार अर्थात् उपभोक्ता की पसन्द-नापसन्द, इच्छा, वरीयता किसी संस्था के उत्पाद की माँग को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। परन्तु, उपभोक्ता का व्यवहार सदैव एकसमान नहीं रहता है। अत: विपणन प्रबन्धक को अपने उपभोक्ता की इच्छाओं, पसन्द-नापसन्द, वरीयताओं का निरन्तर अध्ययन करते रहना चाहिए। तत्पश्चात् उन परिवर्तनों से अपने उत्पाद की माँग पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन करना चाहिए। ऐसा करने से ही विपणन प्रबन्धक अपनी संस्था के लिए सही विपणन मिश्रण निर्धारित कर सकता है।

2. प्रतिस्पर्धा (Competition)—विपणन प्रबन्धक को विपणन मिश्रण को निर्धारित करते समय प्रतिस्पर्धा के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए, क्योंकि प्रतिस्पर्धा पर संस्था का कोई नियन्त्रण नहीं होता। अतः प्रतिस्पर्धा करने वाली संस्थाओं की विपणन नीतियों एवं व्यूह रचनाओं, उनके उत्पादों के गुणों, लक्षणों, किस्म, मूल्य-स्तर आदि का भली प्रकार अध्ययन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए। ऐसा करने के उपरान्त ही विपणन प्रबन्धक को अपने विपणन मिश्रण को निर्धारित करना चाहिए।

3. वितरण व्यवस्था का स्वरूप (The Pattern of Distribution System)विपणन प्रबन्धक को विपणन मिशण निश्चित करने के पहले वितरण व्यवस्था के स्वरूप, वितरकों के स्वभाव तथा उनके व्यवहार का भली-भाँति अध्ययन कर लेना । चाहिए क्योंकि वितरक और उपभोक्ता के मध्य प्रत्यक्ष सम्पर्क होता है। इसलिये वितरण प्रबन्धक को अपनी संस्था के वितरण मिश्रण पर भलीभाँति विचार करना चाहिए।

4. सरकारी नीतियाँ एवं नियम (Government Policies and Rules)–विपणन मिश्रण पर देश की सरकारी नीतियों एवं नियमों का गम्भीर प्रभाव होता है। सरकारी औद्योगिक नीति, मूल्य नीति, कर नीति, व्यापार एवं विपणन नीति, पैकिंग नीति, उदारीकरण एवं भूमण्डलीकरण की नीति, आर्थिक एवं व्यापारिक सन्नियम आदि सभी विपणन मिश्रण को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। bcom 3rd year meaning and defination of marketing mix notes

अत: प्रत्येक विपणन प्रबन्धक को अपनी संस्था के विपणन मिश्रण को निर्धारित करते समय इन सभी को ध्यान में रखना चाहिए।

ii. नियन्त्रणीय तत्त्व (Controllable Factors)

कुछ तत्व ऐसे हैं जो न्यूनाधिक रूप से प्रत्येक संस्था एवं विपणन प्रबन्धक के नियन्त्रण के अधीन होते हैं, नियन्त्रणीय तत्व कहलाते हैं। ऐसे प्रमुख तत्व निम्न प्रकार हैं-

1. वस्तु नियोजन एवं विकास (Prod Planning and Development)विपणन-मिश्रण के तत्त्वों में वस्तु नियोजन एवं विकास बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है। एक अच्छी संस्था वस्तु नियोजन की व्यवस्था करती है। इसमें वस्तु का डिजाइन, वस्तु का नाम, वस्तु का रंग, वस्तु का ब्राण्ड, पैंकिंग, लेबिल, वस्तु का प्रयोग, वस्तु की गारन्टी व सेवा आदि का ध्यान रखा जाता है यह सभी विपणन मिश्रण के तत्व हैं।

2. संवेष्ठन नीति (Packaging Policy)-उत्पाद की बिक्री पर उसके संवेष्ठन का प्रभाव पड़ता है। कभी-कभी ग्राहक उत्पाद के पैंकिंग से प्रभावित होकर उत्पाद को खरीद लेते हैं। अत: विपणन प्रबन्धक को उत्पाद के संवेष्ठन या पैकेजिंग के लिए सोच विचार करके निर्णय लेना चाहिए।

3. बाण्ड नीति (Brand Policy) आधुनिक युग में प्रतिष्ठित संस्थायें अपने उत्पादों के लिए एक विशेष ब्राण्ड या चिह्न निर्धारित करती है। उत्पाद विक्रय पर ब्राण्ड का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। विपणन प्रबन्धक ब्राण्ड के सम्बन्ध में वैकल्पिक नीति अपना सकते हैं या अनेक उत्पादों के लिए एक ही ब्राण्ड का विपणन के सिद्धान्त निर्धारण कर सकते हैं या एक ही उत्पाद की विभिन्न किस्मों के लिए अलग-अलग ब्राण्ड निश्चित कर सकते हैं।

4. विपणि अनुसंधान (Market Research) विपणि अनुसंधान विपणन का प्राण है। विपणन प्रबन्धक को विपणि अनुसंधान के अध्ययन से विपणन मिश्रण के निर्धारण में सहायता मिलती है।

5. विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन (Advertising and Sales Promotion)आज के युग में विज्ञापन व विक्रय सम्वर्द्धन का बहुत ही अधिक महत्त्व है। एक अच्छा विपणनकर्ता अपना विज्ञापन कार्यक्रम बनाता है और प्रदर्शन के महत्व को अपने विक्रेताओं को बताता है तथा ग्राहकों को क्रय करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से विक्रय सम्वर्द्धन का सहारा लेता है।

6. भौतिक वितरण (Physical Distribution)—संस्था द्वारा किये जाने वाले विभिन्न प्रयासों के फलस्वरूप वस्तु की माँग बढ़ जाती है, किन्तु इस बढ़ी हुई माँग की पूर्ति कैसे की जाये, इस बात का निर्धारण भौतिक वितरण नीति में किया जाता है। इस नीति के अन्तर्गत परिवहन, भण्डारण, वित्त प्रबन्ध आदि कार्य किये जाते हैं।

7. मूल्य निर्धारण (Pricing)—मूल्य निर्धारण विपणन मिश्रण का दूसरा तत्व है। मूल्यों का निर्धारण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि मूल्य उपभोक्ता को अधिक प्रतीत न हो, संस्था प्रतियोगिता में टिककर उचित लाभ प्राप्त कर सके तथा सरकारी नियन्त्रण से भी अपने आपको बचा सके।

8. व्यक्तिगत विक्रय (Personal Selling)—विपणन प्रबन्धक, संस्था के लिए व्यक्तिगत विक्रय पद्धति को भी लागू कर सकता है। इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम कुशल एवं योग्य विक्रेताओं की भर्ती करके उनके लिए आवश्यक प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है फिर इन विक्रेताओं की सहायता से ग्राहकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किये जाते हैं ताकि सम्भावित ग्राहकों की संख्या में वृद्धि की जा सके

Meaning of Marketing Environment Notes

विपणन पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा

विपणन पर्यावरण से आशय उन घटकों व शक्तियों से है जो फर्म की विपणन रीति-नीतियों को प्रभावित करती हैं। यद्यपि प्रत्येक विपणन फर्म का आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण होता है जो उसे प्रभावित करता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि बाह्य वातावरण ही विपणन वातावरण कहलाता है। अत: विपणन वातावरण में वह समस्त घटक अथवा शक्तियाँ सम्मिलित होती हैं जो किसी फर्म के विपणन प्रयासों को प्रभावित करते हैं। Meaning of Marketing Environment Notes

फिलिप कोटलर के अनुसार, “विपणन पर्यावरण में फर्म के विपणन प्रबन्धन कार्य के बाहरी घटक व शक्तियाँ सम्मिलित हैं जो लक्षित ग्राहकों के साथ सफल व्यवहारों का विकास करने और उन्हें बनाये रखने की विपणन प्रबन्ध की योग्यता को आगे बढ़ाती हैं।” इस प्रकार स्पष्ट है कि विपणन पर्यावरण में बाहरी अनियन्त्रणीय शक्तियों को सम्मिलित किया जाता है और इस पर्यावरण के उचित अध्ययन पर ही विपणन प्रबन्ध की सफलता निर्भर करती है।

विपणन वातावरण का वर्गीकरण

(Classification of Marketing Environment)

विपणन वातावरण को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता-

1. आन्तरिक या नियन्त्रण योग्य विपणन वातावरण,

2. बाह्य या अनियन्त्रण योग्य विपणन वातावरण।

Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes

आन्तरिक या नियन्त्रण योग्य विपणन वातावरण

(Internal or Controllable Marketing Environment)

आन्तरिक वातावरण में किसी संस्था के भीतर विद्यमान उन सभी शक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो उस संस्था के विपणन प्रबन्ध की सफलता को प्रभावित करती है। विपणन विभाग संस्था का एक महत्वपूर्ण विभाग है। अत: इसका आन्तरिक वातावरण इस विभाग की आन्तरिक संरचना एवं प्रबन्ध व्यवस्था से तो प्रभावित होता ही है, साथ ही सम्पूर्ण संस्था की संगठन संरचना, नीतियों, व्यूहरचनाओं आदि से भी प्रभावित होता है।

प्रत्येक संस्था के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों का संचालन इसी आन्तरिक वातावरण में किया जाता है। इसमें भी परिवर्तन होते हैं किन्तु इसमें होने वाले परिवर्तनों पर विपणन प्रबन्धक का सामान्यत: नियन्त्रण होता है।

बाह्य या अनियन्त्रणीय विपणन वातावरण स्पष्ट किया

(External or Uncontrollable Marketing Environment)

बाह्य वातावरण ही विपणन का वास्तविक वातावरण होता है जिसमें रहकर विपणन प्रबन्धकों को अपना कार्य-संचालन करना होता है। इस वातावरण पर फर्म अथवा संस्था का अपना कोई नियन्त्रण नहीं होता। इनको निम्न प्रकार जा सकता है।

1. बाजार या बाजार माँग (Market or Market demand)—विपणन प्रबन्ध एवं विपणन क्रियाओं पर बाजार के स्वरूप या बाजार की माँग की स्थिति का भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। अत: विपणन प्रबन्धक बाजार के निम्नांकित पहलुओं का अध्ययन एवं विश्लेषण करते हैं, जैसे-उत्पादों/सेवाओं के लिए माँग की प्रकृति, माँग का आकार, माँग में हो रहे परिवर्तन, उत्पादों की आपूर्ति आदि।

2. ग्राहक/उपभोक्ता (Customers/Consumers)—उपभोक्ता माँग निरन्तर बदलती रहती है और इसका सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। ग्राहक-अभिमुखी विपणन विचारधारा के अन्तर्गत विपणन क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु ग्राहकों की आवश्यकताएँ व इच्छाएँ होती हैं। विपणन नीतियाँ व कार्यक्रम ग्राहक सन्तुष्टि के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही संगठित व क्रियान्वित किये जाते हैं।

3. प्रतिस्पर्द्धा (Competition)—कम्पनी की विपणन रीति-नीतियों पर भी प्रतिस्पर्धा का प्रभाव पड़ता है। लक्षित बाजार, पूर्तिकर्ता, विपणन वाहिका, उत्पाद अन्तर्लय, संवर्द्धन अन्तर्लय आदि का चुनाव करते समय प्रतिस्पर्धा की स्थिति का अध्ययन करना आवश्यक है।

4. सरकारी नीतियाँ एवं नियम (Government Policies Rules)—सरकारी नीतियाँ एवं नियम विपणन के व्यष्टि एवं समष्टि दोनों ही वातावरणों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं, जैसे—क्रय नीति एवं नियम, विपणन सहायता. सरकारी उपक्रम द्वारा उत्पादन एवं वितरण की नीति, विपणन के नियमन की नीति, प्रतिस्पर्धा संरक्षण नीति एवं नियम आदि।

5. जनांकिकी या जनसांख्यिकी वातावरण एवं उसके घटक (Demographic Environment and its Components)—इसके अन्तर्गत जनसंख्या का आकार, निवास स्थान, आयु, लिंग, जाति एवं धर्म, शैक्षिक स्तर, नौकरी या पेशा, आय, घरेलू इकाई आदि को सम्मिलित किया जाता है। जनसंख्या सम्बन्धी इन घटकों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। विपणन प्रबन्धक को इन सभी का निरन्तर अध्ययन करना पड़ता है। सर्वप्रथम तो यह ग्राहकों की संतुष्टि द्वारा विपणन लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहते हैं। अतः उनके बारे में सम्पूर्ण जानकारी होनी ही चाहिए। ऐसी जानकारी विपणन प्रबन्धकों को अपने सभी कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में महत्वपूर्ण रूप से योगदान देती है।

6. सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण एवं इसके घटक (Socio-cultural Enviornment and its Components)-सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण से तात्पर्य उस वातावरण से है जो समाज के सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों, आस्थाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों, जीवन शैली, जीवनस्तर, दृष्टिकोण, आपसी व्यवहार एवं सहयोग, वर्ग भेद, लिंग भेद आदि घटकों से बनता है। अत: विपणन प्रबन्धक के लिये आवश्यक है कि वह बदलती हुई माँग के अनुरूप विपणन योजनाएँ तैयार करके नवीन सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि करें।

7. आर्थिक वातावरण एवं इसके घटक (Economic Environment and its Components)-आर्थिक वातावरण से तात्पर्य उन समस्त बाह्य शक्तियों से है, जो किसी व्यावसायिक संस्था की कार्य-प्रणाली एवं सफलता को आर्थिक रूप से प्रभावित करती हैं। इसके अन्तर्गत आर्थिक प्रणाली, विकास की दशा, अर्थ चक्र, मुद्रा प्रसार एवं मूल्य स्तर, अर्थव्यवस्था की संरचना, विकास की गति, कर ढाँचा, ऊर्जा के स्रोत, मानव संसाधन विकास एवं उपलब्धता, आर्थिक एवं श्रम नीतियाँ, आय एवं खर्च हेतु उपलब्ध राशि आदि घटकों को सम्मिलित किया जाता है। विपणन प्रबन्धकों को इन घटकों की स्थिति एवं इनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करते रहना चाहिए।

8. प्राकृतिक वातावरण एवं इसके घटक (Natural Environment and its Components)—प्राकृतिक वातावरण से तात्पर्य उन प्राकृतिक घटकों एवं शक्तियों से है जो किसी संस्था के लिये आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों के क्रियाकलापों/आपूर्ति को प्रभावित करती हैं। प्राकृतिक वातावरण के प्रमुख घटक निम्न प्रकार हैं

(i) प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता एवं स्थिति,

(ii) जलवायु,

(iii) प्राकृतिक परिस्थितियाँ,

(iv) प्रकृतिवाद,

(v) राजकीय नीतियाँ, कानून एवं नियम।

9. वैज्ञानिक व तकनीकी पर्यावरण घटक (Scientific and Technological Environment)-तकनीकी वातावरण से तात्पर्य उन शक्तियों एवं घटकों से है, जो किसी संस्था के लिये तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता को प्रभावित करते हैं। तकनीकी घटकों का प्रभाव बहुत व्यापक होता है। ये संस्था की आर्थिक स्थिति पर तो प्रभाव डालते ही हैं साथ ही ग्राहकों, कर्मचारियों समाज आदि पर भी गम्भीर प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अतः तकनीकी घटकों के प्रभावों का बड़ी सूझ-बूझ से आंकलन करना चाहिए। विपणन प्रबन्धकों को उन प्रभावों को ध्यान में रखकर ही अपनी विपणन व्यूह-रचना तैयार करनी चाहिए

उपभोक्ता व्यवहार का अर्थ एवं परिभाषाएँ

(Meaning and Definitions of Consumer Behaviour)

क्रेता/उपभोक्ता अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए क्या, कब, कितनी, कैसी, कहाँ तथा किससे वस्तुएँ एवं सेवाएँ खरीदते हैं और ऐसी खरीद जिस व्यवहार का परिणाम होती है, उसे क्रेता व्यवहार/उपभोक्ता व्यवहार कहा जाता है।

वाल्टर एवं पाल के अनुसार, “उपभोक्ता व्यवहार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति यह निर्णय लेता है कि वस्तुओं और सेवाओं को खरीदना है तो क्या, कब, कहाँ और किससे खरीदना है।’

‘उपभोक्ता व्यवहार का क्षेत्र

(Scope of Consumer Behaviour)

जैसा कि स्पष्ट ही है कि उपभोक्ता व्यवहार से आशय उपभोक्ताओं के क्रय निर्णय सम्बन्धी व्यवहार के अध्ययन से है। उपभोक्ता व्यवहार का अध्ययन एवं विश्लेषण करके सामान्यत: निम्नांकित समस्याओं/प्रश्नों का उत्तर प्राप्त किया जा सकता है-

1. वह किन (Which) उत्पादों/सेवाओं का क्रय करना चाहता है?

2. वह उन उत्पादों/सेवाओं को क्यों (Why) क्रय करना चाहता है ?

3. वह उनका क्रय किस प्रकार (How) करना चाहता है ?

4. वह उनका क्रय कहाँ से (Where) करना चाहता है ?

5. वह उनका क्रय कब (When) करना चाहता है अर्थात् उत्पाद (वस्तु) की खरीद का वास्तविक समय क्या है ?

6. वह उनका क्रय किन से (From whom) करना चाहता है ?

उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्त्व अथवा घटक

(Factors Affecting Consumer Behaviour)

उपभोक्ता के क्रय सम्बन्धी व्यवहार को अनेक घटक प्रभावित करते हैं। उपभोक्ता के व्यवहार में सदैव परिवर्तन होते रहते हैं। उपभोक्ता व्यवहार में परिवर्तन के कारण इसे प्रभावित करने वाले घटकों में परिवर्तन होता रहता है। उपभोक्ता व्यवहार को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

I. मनोवैज्ञानिक घटक (Psychological Factors),

II. आर्थिक घटक (Economic Factors)

I. मनोवैज्ञानिक घटक (Psychological factors)-

इसमें निम्नलिखित तत्वों को सम्मिलित किया जाता है-

1. आधारभूत आवश्यकतायें (Basic Needs)—क्रेता की कुछ आधारभूत आवश्यकतायें होती हैं जिनकी पूर्ति वह सर्वप्रथम करना चाहता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ए० एच० मैस्लो (A. H. Maslow) ने आवश्यकताओं में निम्नलिखित प्राथमिकतायें निश्चित की हैं

(i) शारीरिक आवश्यकताएँ (Physiological Needs)-मैस्लो के अनुसार व्यक्ति सबसे पहले अपनी दैहिक आवश्यकताओं को पूरा करता है जो मानव जीवन को बनाये रखने के लिये जरूरी हैं, जैसे-भोजन, वस्त्र, मकान आदि।

(ii) सुरक्षा आवश्यकताएँ (Safety Needs)—इसमें शारीरिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक सुरक्षाओं को सम्मिलित किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति सुरक्षा, स्थायित्व एवं निश्चितता चाहता है।

(iii) सामाजिक आवश्यकताएँ (Social Needs)—प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मान चाहता है। वह समाज के सदस्यों से प्रेम, स्नेह और मित्रतापूर्ण व्यवहार चाहता है।

(iv) सम्मान और स्वाभिमान (Esteem and Self Respect)—इन आवश्यकताओं में मान्यता प्राप्त करने की इच्छा, प्रतिष्ठा पाने की इच्छा, प्राप्त करने की इच्छा, प्रमुख बनने की इच्छा आदि को सम्मिलित किया जाता है।

(v) स्वः यथार्थवादिता (Self- actualisation)—प्रत्येक व्यक्ति में अपने को पूर्ण रूप से विकसित करने तथा अपनी योग्यता एवं कार्यक्षमता द्वारा महानतम उपलब्धियाँ प्राप्त करने की इच्छा विद्यमान होती है।

उपर्युक्त सभी आवश्यकताएँ उपभोक्ता के व्यवहार को प्रभावित करती हैं। ऐसी वस्तुओं और सेवाओं का विपणन आसान होता है जो उपर्युक्त आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में सहायक होती हैं।

(2) छवि (Image)—किसी वस्तु या विषय के सम्बन्ध में ज्ञान या अज्ञानतावश किसी वस्तु की मस्तिष्क में जो छाप होती है उसे छवि कहा जाता है। उपभोक्ता व्यवहार पर इसका भी बहुत प्रभाव पड़ता है। छवि कई प्रकार की हो सकती है, जैसे-आत्म छवि, वस्तु छवि, ब्राण्ड छवि इत्यादि।

(i) आत्म छवि (Self Image)—प्रत्येक व्यक्ति की आत्म छवि भिन्न होती है। आत्मछवि से आशय उस तस्वीर से है जो कि एक व्यक्ति अपने सम्बन्ध में रखता है।

(ii) वस्तु छवि (Product Image)-वस्तु के सम्बन्ध में क्रेताओं की धारणा वस्तु छवि कहलाती है।

(iii) ब्राण्ड छवि (Brand Image) ब्राण्ड छवि का निर्माण वस्तु के प्रयोग से, निर्माता की ख्याति से तथा विज्ञापन से होता है। ब्राण्ड छवि ही व्यक्ति को विशिष्ट ब्राण्ड की वस्तु क्रय करने या न करने के लिये प्रेरित करती है।

(3) ज्ञान सिद्धान्त (Learning Theory)—ज्ञान सिद्धान्त के अनुसार उपभोक्ता व्यवहार को निम्न तत्व प्रभावित करते हैं

(i) अभिप्रेरणा (Motivation)—क्रय प्रेरणाओं से उपभोक्ता व्यवहार बहुत अधिक प्रभावित होता है। इन प्रेरणाओं के अन्तर्गत भावात्मक, विवेकपूर्ण, स्वाभाविक एवं सीखे हुए प्रयोजन आदि शामिल होते हैं।

(ii) नित्यता (Repetition)—किसी वस्तु को उपभोक्ता के निरन्तर सम्पर्क में लाने से उसके वस्तु ज्ञान में वृद्धि हो जाती है, उदाहरण के लिये किसी वस्तु के निरन्तर विज्ञापन से उपभोक्ता को उस वस्तु के बारे में अधिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह वस्तु का क्रय करने के लिये प्रोत्साहित होता है।

(iii) वस्तु स्थिति (Conditioning)-वस्तु स्थिति के ज्ञान से भी उपभोक्ता व्यवहार बहुत अधिक प्रभावित होते हैं, जैसे—यदि किसी वस्तु की पैकिंग को सुन्दर और आकर्षक बना दिया जाये तो बहुत से क्रेता उसके पैकिंग से प्रभावित होकर वस्तु का क्रय कर लेते हैं।

(iv) समूह प्रभाव (Group Influence)—समूह प्रभाव भी उपभोक्ता व्यवहार पर प्रभाव डालता है। यदि समाज में कोई धनी या प्रतिष्ठित व्यक्ति किसी वस्तु का उपभोग आरम्भ कर देता है तो समाज के अन्य व्यक्ति भी उसका अनुसरण करने लगते हैं।

(4) आधारभूत आवश्यकतायें एवं उपभोक्ता व्यवहार (Basic Needs and Consumer Behaviour)-उपभोक्ता व्यवहार आधारभूत आवश्यकताओं से भी प्रेरित होता है सबसे पहले वह ऐसी आवश्यकताओं को पूरा करता है।

II. आर्थिक तत्त्व (Economic Factors)

उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करने वाले प्रमुख आर्थिक घटक निम्न प्रकार है।

(1) व्यक्तिगत आय (Personal Income)-उपभोक्ता की निजी आय उनकी क्रय शक्ति को बहुत प्रभावित करती है। उपभोक्ता की निजी आय में वृद्धि प्रायः उपभोग में वृद्धि करती है और निजी आय में कमी उपभोग में कमी करती है।

(2) पारिवारिक आय (Family Income)-ग्राहकों की पारिवारिक आय भी उनकी क्रय शक्ति को प्रभावित करती है। यदि परिवार की आय कम होती है तो उनका क्रय व्यवहार उन व्यक्तियों के क्रय व्यवहार से भिन्न होता है जिनकी आय निर्धारित पंक्ति से ऊपर है। कम आय वाले व्यक्ति निम्न किस्म की वस्तुओं का क्रय करते हैं, जबकि अधिक आय वाले व्यक्ति उच्च किस्म की वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करते हैं।

(3) भावी आय की आशायें (Expectation of Income)—यदि किसी व्यक्ति को निकट भविष्य में कुछ आय प्राप्त होने की आशा हो तो उसके द्वारा प्रायः अधिक मात्रा में क्रय किया जाता है। इसके विपरीत, भविष्य में आय प्राप्ति की आशा न होने पर कम क्रय किया जाता है।

(4) उपभोक्ता की साख (Consumer’s Credit)—यदि उपभोक्ता को वस्तुएँ एवं सेवाएँ उधार मिल जाती हैं तो वह अधिक मात्रा में क्रय करने के लिये प्रेरित होते हैं। विपणन के क्षेत्र में उपभोक्ता की साख का बहुत अधिक महत्व है, जिसकी सहायता से बाजार को विस्तृत या संकुचित किया जा सकता है।

(5) स्वाधीन आय (Discretionary Income)—स्वाधीन आय से आशय है, जो आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बच जाती है। इस प्रकार की आय को उपभोक्ता अपनी स्व-इच्छा से खर्च करता है। स्वाधीन आय उपभोक्ता को विशिष्ट वस्तुओं या सेवाओं को क्रय करने के लिये प्रेरित करती है, जैसे-फर्नीचर, स्कूटर, पंखें एवं अन्य विलासिता की वस्तुएँ।

(6) सरकारी नीति (Government Policy)—सरकार द्वारा लगाये जाने वाले अधिक कर क्रय शक्ति को कम कर देते हैं। इसी प्रकार मुद्रा प्रसार की अवस्था में बढ़ती हुई कीमते भी क्रय-शक्ति को कम कर देती हैं। अत: उपभोक्ता को सरकारी नीतियों के अनुसार क्रय व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ता है

Meaning and Definition of Buying Motive

क्रय प्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा

क्रय प्रेरणा वह शक्ति है जो क्रेता को अपनी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु किसी वस्तु अथवा सेवा को खरीदने की प्रेरणा देती है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को भूख लगी है एवं भूख को मिटाने के लिए उसके द्वारा कुछ वस्तुओं को क्रय किया जाता है। अतः उसके द्वारा खरीदी गई वस्तुओं की क्रय-प्रेरणा, भूख मिटाना है।

विलियम जे० स्टेन्टन के अनुसार, “एक प्रेरणा उस समय क्रय प्रेरणा बन जाती है जबकि एक व्यक्ति किसी वस्तु के द्वारा सन्तुष्टि प्राप्त करना चाहता है।” डी० जे० ड्यूरियन के अनुसार, “क्रय प्रेरणाएँ वे प्रभाव या विचार हैं जो क्रय करने, कार्य करने अथवा वस्तुओं या सेवाओं के क्रय में पसन्दगी को निर्धारित करने हेतु प्रेरणा प्रदान करते हैं।

क्रय प्रेरणाओं का वर्गीकरण

(Classification of Buying Motives)

प्रत्येक सामान्य व्यक्ति, स्व-हित में रूचि रखने वाला होता है और स्वयं की इच्छाओं, भावनाओं, लालसाओं, साधनों और बुद्धि के अनुरूप व्यवहार करता है। यही कारण है कि विपणन क्षेत्र में, विभिन्न प्रकार की क्रय-प्रेरणाएँ और क्रय व्यवहार दिखाई देते हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से क्रय प्रेरणाओं को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

(I) स्वाभाविक या अन्तर्निहित बनाम सीखी हुई क्रय प्रेरणायें

(Inherent Vs. Learned Buying Motives)

स्वाभाविक क्रय प्रेरणाओं से आशय उपभोक्ता के ऐसे व्यवहार से है जो कि उसकी अन्तर्निहित आवश्यकताओं से प्रेरित होता है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणायें भूख, प्यास, सैक्स, विश्राम तथा अपनी सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं के रूप में प्रकट होती हैं। इसके विपरीत सीखी हुई प्रेरणाओं या वातावरण सम्बन्धी प्रयोजन से आशय ऐसी प्रेरणाओं से है जिनको मनुष्य अपने अनुभव और सामाजिक वातावरण में सीखता है, जैसे- नवजात शिशु भूख लगने पर रोने लगता है। यह इसकी सीखी हुई क्रिया का रूप है क्योंकि शिशु यह सीख जाता है कि रोना उसका भोजन प्राप्ति का साधन है। इसी प्रकार समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करना सीखा हुआ प्रयोजन है। स्पष्ट है कि स्वाभाविक या अन्तर्निहित क्रय-प्रेरणायें सहज एवं मूल मानवीय प्रवृत्तियों (Basic Human Needs) से सम्बन्ध रखती हैं, जबकि सीखी हुई क्रय-प्रेरणाओं को मनुष्य अपने अनुभव एवं सामाजिक वातावरण में सीखता है। अन्तर्निहित क्रय-प्रेरणायें प्राथमिक प्रेरणायें हैं और अत्याधिक स्पष्ट हैं, सुनिश्चित हैं, जबकि सीखी हुई (अर्जित) क्रय-प्रेरणायें गौण-प्रेरणायें हैं और अपेक्षाकृत कम स्पष्ट हैं।

वास्तव में, क्रेता सम्बन्धी व्यवहार मूल प्रवृत्ति पर आधारित न होकर सीखने (Learning) पर अधिक निर्भर करते हैं। मानव किस प्रकार अपनी भूख की सन्तुष्टि करता है यह उसके सामाजिक स्तर और सीखने आदि से अधिक प्रभावित होता है, जैसे कुछ व्यक्ति भूख की सन्तुष्टि करने के लिये रोटी खाते हैं तो कुछ फलों का उपयोग करते हैं। स्पष्ट है कि विपणनकर्ता को स्वाभाविक प्रेरणाओं के स्थान पर सीखी हुई प्रेरणाओं पर अधिक ध्यान देना चाहिए और उन्हीं के अनुरूप विपणन कार्यक्रम बनाना चाहिए।

(II) भावात्मक बनाम विवेकपूर्ण क्रय प्रेरणायें

(Emotional Vs. Rational Buying Motives)

भावात्मक क्रय प्रेरणाओं से आशय ऐसी क्रय प्रेरणाओं से है जिनमें मस्तिष्क अथवा विवेक के स्थान पर हृदय या भावना की प्रधानता रहती है। व्यवहार में अनेक भावात्मक प्रेरणायें क्रेता को वस्तु क्रय करने के लिये अभिप्रेरित करती हैं, जैसे- भूख, प्यास, साथी की इच्छा, प्रतिष्ठा, अहंकार, गौरव-भाव, ईर्ष्या, प्रेम, सैक्स, सुरक्षा, शत्रुता, सुन्दरता आदि। विपणनकर्ता भावनात्मक क्रय प्रेरणाओं का पता लगाकर उनके प्रचार द्वारा उपभोक्ता की भावना को प्रेरित करता है, जैसे-जीवन बीमा निगम द्वारा परिवार की सुरक्षा और अच्छे भविष्य की अपील द्वारा ग्राहकों को आकर्षित किया जाता है। वास्तव में भावात्मक क्रय प्रेरणाओं से प्रेरित होकर व्यक्ति तुरन्त वस्तु को खरीद लेता है वह उसके गुण-दोषों पर विचार नहीं करता है।

विवेकपूर्ण क्रय प्रेरणाओं के अन्तर्गत क्रय की जाने वाली वस्तु की कीमत, मितव्ययिता, प्रयोग, टिकाऊपन, उपयोगिता, सेवा, सेवा, . विश्वसनीयता, सुविधा, कार्यकुशलता आदि अनेक तत्वों पर विचार करके वस्तु को क्रय करने के निर्णय लिये जाते हैं। विवेकपूर्ण प्रेरणाओं से प्रेरित क्रेता वस्तु के क्रय करने में अधिक समय लगाता है। वस्तु के गुण-दोष पर पर्याप्त विचार करता है। विपणनकर्ता विवेकपूर्ण प्रेरणाओं का पता लगाकर अपने विज्ञापन में इन प्रेरक तत्वों का प्रचार करते हैं, जैसे-कुकर के निर्माता अपने विज्ञापन में समय तथा ईंधन की बचत की बात कहते हैं। पंखों के निर्माता अपने विज्ञापन में अपने पंखों की हवा और टिकाऊपन पर अधिक महत्व देते हैं।

अधिकांश क्रय, विवेकशील एवं भावानात्मक प्रेरणाओं से प्रेरित होते हैं और इनमें भी भावात्मक प्रेरणायें अग्रणी होती हैं। एक ही वस्तु के क्रय के भिन्न-भिन्न क्रेताओं के प्रयोजनों में भी भिन्नता हो सकती है। यही नहीं, दो व्यक्ति समान प्रयोजन रखते हुए भी भिन्न आचरण रखते हैं। अत: विपणनकर्ता को अपनी नीतियों के सही नियोजन के लिये क्रेताओं की भावनात्मक प्रेरणाओं को जानने का प्रयास करना चाहिये।

(III) प्राथमिक एवं चयनात्मक क्रय-प्रेरणायें

(Primary and Selective Buying Motives)

वे प्रेरणाएँ जो वस्तुओं के सामान्य क्रय हेतु प्रेरणा देती हैं, प्राथमिक क्रय-प्रेरणायें कहलाती हैं। उदाहरण के लिए टेलीविजन, कार, मोटर साइकिल अथवा स्कूटर आदि के क्रय को प्रोत्साहित करने वाली प्रेरणायें प्राथमिक क्रय-प्रेरणायें कहलायेंगी। ये प्रेरणायें वस्तुओं की सामान्य माँग को बढ़ाने वाली मानी गईं हैं और किसी ब्राण्ड विशेष की खरीद हेतु प्रेरणा नहीं देती हैं, लेकिन जब कोई क्रय-प्रेरणा किसी विशेष ब्राण्ड की वस्तु क्रय करने के लिए प्रेरणा देती है तो यह प्रेरणा चयनात्मक प्रेरणा कहलाती है। उदाहरण के लिए, बजाज स्कूटर या फिलिप्स टेलीविजन क्रय करने की प्रेरणा। कुछ विद्वानों का कहना है कि केवल ब्राण्ड का चयन ही इसमें शामिल नहीं होता है बल्कि दुकानदार का चयन भी इसमें शामिल होता है।

(IV) जागरूक एवं सुप्त क्रय-प्रेरणायें

(Conscious and Dormant Buying Motives)

‘जागरूक क्रय-प्रेरणायें’ वे प्रेरणायें हैं जिन्हें क्रेता विपणन क्रियाओं की सहायता के बिना ही स्पष्टतापूर्वक पहचान लेते हैं और अभिव्यक्ति करते हैं। अन्य शब्दों में, सचेतन धरातल पर विद्यमान आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु क्रेताओं की खरीद को प्रोत्साहित करने वाली क्रय-प्ररणायें ‘जागरूक प्रेरणायें’ कहीं जाती हैं। ये प्रेरणायें स्वतः ही क्रेताओं के मस्तिष्क में उत्पन्न होती रहती हैं। बाहरी वातावरण की आवश्यकता इन प्रेरणाओं की उत्पत्ति के लिये अपेक्षाकृत कम होती है। किन्तु बाहरी वातावरण एवं विपणन कार्यक्रम इन क्रय-प्रेरणाओं में तीव्रता पैदा कर सकते हैं।

‘सुप्त क्रय-प्रेरणायें’ वे प्रेरणायें हैं जिन्हें क्रेता उस समय तक नहीं पहचान पाते हैं जब तक कि विपणन क्रियाओं द्वारा उनका ध्यान क्रय-प्रेरणाओं की ओर आकृष्ट न किया जाये। ये प्रेरणायें उन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु क्रेताओं का ध्यान आकृष्ट करती हैं जिनके बारे में क्रेताओं को स्वयं ही ध्यान नहीं होता है और जो अचेतन धरातल पर विद्यमान होती हैं।

(V) भौतिक, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक क्रय-प्रेरणायें

(Physical,Psychological and Sociological Buying Motives),

भौतिक क्रय-प्रेरणायें वे हैं जो मनुष्य में विद्यमान होती हैं, जैसे-भूख, प्यास, नींद, आराम आदि। मनोवैज्ञानिक क्रय-प्रेरणायें वे हैं जो मानव के मनोविज्ञान पर आधारित हैं, जैसे-गर्व व भय आदि। सामाजिक क्रय-प्रेरणायें वर्तमान एवं अपेक्षित सामाजिक स्थिति से सम्बद्ध प्रेरणाओं का समूह होती हैं।

(VI) उत्पाद एवं संरक्षण क्रय-प्रेरणायें

(Product and Patronage Buying Motives)

संरक्षण क्रय-प्रेरणायें, वे प्रेरणायें हैं जो क्रेताओं को किसी विशिष्ट विक्रेता से ही वस्तुयें क्रय करने को प्रोत्साहित करती हैं। विक्रेताओं में निर्माता, थोक व्यापारी और फुटकर व्यापारी सभी सम्मिलित होते हैं। कोगलैण्ड के विचारानुसार विक्रेता की विश्वसनीयता, सुपुर्दगी में समय की पाबन्दी, सुपुर्दगी में शीघ्रता, वस्तुओं से पूर्ण सन्तुष्टि, विभिन्न किस्में और विश्वसनीय मरम्मत सेवाओं की इन्जीनियरिंग एवं डिजायनिंग वे घटक हैं जो संरक्षण क्रय-प्रेरणाओं के आधार हैं।

उपभोक्ता व्यवहार मॉडल

सामाजिक एवं मनोवौनिक विचारकों ने उपभोक्ता व्यवहार को प्रभावित करने वाले घटकों एवं अभिप्रेरणाओं के आधार पर विभिन्न मॉउल विकसित किये हैं। कुछ प्रमुख मॉडल निम्न प्रकार हैं-

(1) आर्थिक मॉडल-इसका प्रतिपादन अल्फ्रेड मार्शल ने किया था। इसके अनुसार मनुष्य उचित मूल्यों पर ऐसी वस्तु चाहता है जो गुणों और उपयोगिता से परिपूर्ण है एवं अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करे।

(2) सीखने वाला मॉडल-इसका प्रतिपादन रूसी मनोवैज्ञानिक पावलोवियन ने किया था। इसके अनुसार मनुष्य का अधिकांश व्यवहार सीखने से प्रभावित होता है।

(3) मनोविश्लेषणात्मक मॉडल-इसका प्रतिपादन सिगमण्ड फ्रायड ने किया था। इसके अनुसार प्रत्येक उपभोक्ता में कुछ छिपी हुई प्रेरणाएँ होती हैं जो उसे क्रय निर्णय के लिये प्रेरित करती हैं।

(4) सामाजिक-सांस्कृतिक मॉडल-इसका प्रतिपादन बेबलेन ने किया था। इसके अनुसार मनुष्य का क्रय व्यवहार समाज से प्रभावित होता है।

(5) संगठनात्मक मॉडल-इसका प्रतिपादन थॉमस हाब्स ने किया था। यह मॉडल संस्थागत एवं विभागीय क्रेताओं के व्यवहार को स्पष्ट करता है।

(6) निकोसिया मॉडल-इसका प्रतिपादन श्री फ्रांसिस्को निकोसिया ने सन् 1966 में किया था।

(7) हावर्ड सेठ मॉडल-इसे जॉन हावर्ड तथा जगदीश सेठ ने सन् 1969 में प्रस्तुत किया

Meaning and Definitions of Market Segmentation notes

बाजार विभक्तीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

बाजार विभक्तीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें किसी बाजार के विभिन्न ग्राहकों को उनकी विशेषताओं, आवश्यकताओं, व्यवहार आदि के अनुसार समजातीय समूहों में विभाजित किया जाता है ताकि प्रत्येक समूह के लिए सही विपणन कार्यक्रम एवं व्यूहरचना का निर्माण किया जा सके। आर० एस० डावर के अनुसार, “ग्राहकों का समूहीकरण अथवा बाजार को टुकड़ों में बाँटना ही बाजार विभक्तीकरण कहलाता है।”

बाजार विभक्तीकरण के उद्देश्य

(Objectives of Market Segmentation)

फिलिप कोटलर के अनुसार, “बाजार विभक्तीकरण का उद्देश्य उपभोक्ताओं के बीच ऐसे अन्तर को ज्ञात करना है जो उन्हें चयन करने अथवा उन्हें विपणन करने में निर्णायक हो सकता है।” संक्षेप में, बाजार विभक्तीकरण के प्रमुख उद्देश्य निम्नांकित हैं-

1. बाजार के सही स्वरूप को समझना।

2. बाजार में विद्यमान एवं भावी उपभोक्ताओं में से एकसमान आवश्यकताओं, विशेषताओं, व्यवहार वाले उपभोक्ताओं के समूह बनाना।

3. प्रत्येक समूह के उपभोक्ताओं की रुचियों, आवश्यकताओं, पसन्द-नापसन्द की जानकारी करना।

4. उन नये बाजार क्षेत्रों को ज्ञात करना जिनमें संस्था की विपणन क्रियाओं का विस्तार किया जा सके।

5. समुचित एवं सर्वोत्तम बाजार क्षेत्रों का चयन एवं विकास करना।

6. बाजार के प्रत्येक वर्ग के ग्राहकों के लिये विपणन मिश्रण एवं विपणन व्यूहरचना तैयार करना।

7. विपणन क्रियाओं को ग्राहक-अभिमुखी बनाना।

8. सम्भावित ग्राहकों को वास्तविक ग्राहक बनाना।

बाजार विभक्तीकरण के आधार

(Bases for Market Segmentation)

बाजार विभक्तीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता है। फिलिप कोटलर के अनुसार बाजार विभक्तीकरण के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं-

1. भौगोलिक आधार,

2. जनांकिकी आधार,

3. मनोवैज्ञानिक आधार,

4. केता-व्यवहार सम्बन्धी आधार

(1) भौगोलिक आधार (Geographic Basis)—बाजार विभक्तीकरण भौगोलिक तत्वों, जैसे-क्षेत्र, जलवायु, घनत्व, राष्ट्र, राज्य, प्रदेश, नगरों एवं गाँवों आदि के आधार पर भी किया जा सकता है। क्षेत्र के आधार पर ग्रामीण क्षेत्र, अर्द्धशहरी क्षेत्र, शहरी क्षेत्र, जलवायु के आधार पर गर्म क्षेत्र तथा ठण्डे क्षेत्र आदि। भौगोलिक तत्वों के आधार पर बाजार विभक्तीकरण तब ही करना चाहिए जबकि उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाना हो तथा उसका वितरण दूर-दूर विखरे हुए उपभोक्ताओं को करना हो। इस प्रकार के बाजार विभक्तीकरण को सहायता से विपणनकर्ता प्रत्येक क्षेत्र की विशेषताओं के अनुरूप अपना विपणन कार्यक्रम समायोजित कर सकता है।

(2) जनांकिकी आधार (Demographic Basis)—वर्तमान समय में जनांकिकी तत्वों के आधार पर बाजार विभक्तीकरण करना काफी लोकप्रिय है। इसके अन्तर्गत एक निर्माता विभिन्न समूहों में जनांकिकी तत्वों के आधार पर अन्तर करने का प्रयास करता है, जैसे-आयु, लिंग, परिवार का आकार, आय, शैक्षिक स्तर, जाति या धर्म, व्यवसाय आदि।

Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes

(3) मनोवैज्ञानिक आधार (Psychographic Basis)-जब बाजार को उपभोक्ताओं की जीवन शैली या उनके व्यक्तित्व, जीवन मूल्य आदि के आधार पर विभाजित किया जाता है तो उसे बाजार का मनोवैज्ञानिक आधार पर विभक्तीकरण कहते हैं

(4) क्रेता व्यवहार सम्बन्धी (Buyer Segmentation)-क्रेताओं के उत्पाद क्रय सम्बन्धी निर्णयों के आधार पर बाजार का विभाजन क्रेता-व्यवहार विभक्तीकरण कहलाता है। निम्नलिखित घटकों के आधार पर क्रेता-व्यवहार विभक्तीकरण किया जा सकता है-

(i) क्रय अवसर (Buying Occasions)-क्रेताओं को किसी उत्पाद या सेवा को क्रय करने या उपयोग करने के अवसरों के आधार पर विभाजित किया जा सकता है, जैसे-शादी विवाह, जन्मदिन, वेलेन्टाइन्स डे आदि के अवसरों पर उत्पादों/सेवाओं को खरीदने का निर्णय करते हैं।

(ii) लाभ अभिलाषा (Benefits Sought)—‘ग्राहक उत्पाद या सेवा को खरीदते समय उससे कई लाभों की प्राप्ति की अभिलाषा भी रखते हैं, जैसेबिस्कुट से पेट भरने के साथ शक्ति की अभिलाषा, दाँत साफ करने के साथ दाँतों की तकलीफ से राहत पाने की अभिलाषा के साथ उत्पाद क्रय किया जाता हैं।

(iii) प्रयोग दर (Usage Rate)—कुछ ग्राहक उत्पादों का बहुत अधिक उपयोग करते हैं कुछ कम। अत: बाजार के लोगों को उनके द्वारा उत्पाद के उपयोग करने की दर के आधार पर विभाजित किया जा सकता है। (iv) ब्राण्ड निष्ठा (Brand Loyalty)—ग्राहकों को ब्राण्ड की लोकप्रियता के आधार पर विभक्त किया जाता है।

(v) क्रेता अभिप्रेरक (Buyer Motivation)—इसके अन्तर्गत उन तत्वों को सम्मिलित करते हैं जिनसे प्रभावित होकर खरीदता है, जैसे-मितव्ययिता, वस्तु के गुण, विश्वसनीयता, प्रतिष्ठा प्राप्ति आदि।

(vi) प्रवृत्ति (Attitude)—बाजार में उत्पाद के प्रति भिन्न-भिन्न प्रवृत्ति के लोग पाये जाते हैं। इनमें से कुछ उत्पाद के प्रति अति उत्साही, कुछ सकारात्मक, कुछ तटस्थ, कुछ नकारात्मक प्रवृत्ति के हो सकते हैं। अत: उपभोक्ता की इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर बाजार का विभक्तीकरण किया जा सकता है।

बाजार विभक्तीकरण के सम्बन्ध में विपणन रीति-नीतियाँ

(Market Strategies towards Market Segmentation)

किसी वस्तु बाजार के क्रेताओं में समानता नहीं पायी जाती है। इस कारण बाजार विभक्तीकरण किया जाता है। अतः क्रेताओं की भिन्नता के अनुसार एक व्यवसायी अपनी विपणन रीति-नीति में भी अन्तर कर सकता है। बाजार विभक्तिकरण के सम्बन्ध में विपणन प्रबन्धक प्राय: अग्र विपणन रीति-नीतियों का प्रयोग करते हैं

1. अभेदित विपणन रीति-नीति (Undifferentiated Marketing Strategy),

2. भेदित विपणन रीति-नीति (Differentiated Marketing Strategy

3. संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति (Concentrated Marketing Strategy)

(1) अभेदित विपणन रीति-नीति (Undifferentiated Marketing Strategy)—

इस विपणन रीति-नीति के अन्तर्गत फर्म एक उत्पाद के लिये एक ही विपणन कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। इसके अन्तर्गत ग्राहकों के मध्य अन्तर नहीं किया जाता और सभी के लिये एक ही विपणन कार्यक्रम, एक ही विज्ञापन माध्यम और एक ही ब्राण्ड व पैकिंग आदि का प्रयोग किया जाता है। भारत में अधिकांश फर्मे अभेदित विपणन रीति-नीति का ही प्रयोग करती हैं। उदाहरण के लिए, कोका कोला कई वर्षों तक एक ही स्वाद वाला और एक ही बोतल आकार में उपलब्ध रहा। इसी तरह सिगरेटों के सम्बन्ध में ब्राण्ड की भिन्नता के बाद भी सभी प्रकार की सिगरटें समान रूप से लम्बी, सफेद कागज में लपेटी हुई और हल्के पैकेटों में रखकर बेची जाती हैं।

अभेदित विपणन रणनीति में एक प्रकार की वस्तु बनायी जाती है। इसमें व्यक्तियों की समान (common) आवश्यकताओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है और उत्पाद का ऐसा आकार और कार्यक्रम तैयार किया जाता है जो अधिकांश ग्राहकों को प्रभावित करें।

(2) भेदित विपणन रीति-नीति (Differentiated marketing strategy)—

इस रणनीति के अन्तर्गत विक्रेता विभिन्न ग्राहक वर्गों की विशेषताओं के अनुसार विभिन्न प्रकार और किस्म की वस्तुएँ उत्पादित करता है और बेचता है। पृथक-पृथक उत्पादों के लिये विभिन्न विपणन कार्यक्रम बनाये जाते हैं। इस रोति-नीति का प्रयोग विक्रय को बढ़ाने और प्रत्येक बाजार खण्ड की गहराई तक पहुँचने के लिये किया जाता है।

उदाहरण के लिये अब सिगरेटें भिन्न-भिन्न लम्बाई की बनने लगी हैं। एक ही ब्राण्ड की सिगरेट फिल्टर्ड या अनफिल्टर्ड (filtered or unfiltered) बनायी जाने लगी हैं। गोल्डन टोबेको कम्पनी लिमिटेड दस नामों के सिगरेट बनाती व बेचती है। इसी तरह हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड अनेक प्रकार के नहाने के साबुन बनाती है, जैसे-लाइफबॉय, लक्स, रेक्सोना, लिरिल, पीयर्स, सुप्रीम आदि।

अभेदित विपणन रीति-नीति की तुलना में भेदित विपणन रीति-नीति द्वारा कुल बिक्री में वृद्धि की जा सकती है परन्तु इसके साथ ही इसके प्रयोग से उत्पाद परिवर्तन लागत, उत्पादन लागत, प्रशासनिक लागत, संग्रहण लागत व संवर्द्धन लागत भी बढ़ जाती है। यह रीति विक्रय-अभिमुखी तो है, परन्तु इसका ‘लाभ-अभिमुखी’ होना इस बात पर निर्भर करता है कि बढ़ी हुई लागतों की तुलना में विक्रय में किस अनुपात में वृद्धि होती है।

(3) संकेन्द्रित विपणन रीति-नीति (Concentrated Marketing Strategy)

इस नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण बाजार के स्थान पर किसी एक बाजार भाग या कुछ भागों पर ही सम्पूर्ण विपणन शक्ति केन्द्रित की जाती है। यह रीति-नीति उस समय अधिक उपयुक्त रहती है जब फर्म का आकार छोटा एवं वित्तीय साधन सीमित हों। फिलिप कोटलर के अनुसार, “इस रीति के अन्तर्गत फर्म एक बड़े आकार के छोटे भाग की बजाय एक या कुछ उप-बाजारों के बड़े भाग के लिये प्रयास करती है। अन्य शब्दों में, बाजार के अनेक भागों में अपनी शक्ति बिखरने की बजाय फर्म कुछ ही क्षेत्रों में अपनी शक्ति को केन्द्रित करती है जिससे एक अच्छी बाजार स्थिति को प्राप्त किया जा सके।” भारत में अनेक संस्थाओं द्वारा इस नीति का पालन किया जा रहा है, जैसे-कई पुस्तक प्रकाशक सभी विषयों की पुस्तकें प्रकाशित न कर केवल कुछ ही विषयों की पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य करते हैं। इनमें भी कुछ प्रकाशक महाविद्यालय स्तर की पुस्तकें कुछ स्कूल स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य करते हैं। उदाहरण के लिये, स्वाति प्रकाशन ने महाविद्यालयीन स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन के क्षेत्र में विशेषता प्राप्त कर ली है

Meaning of the Product notes

वस्तु या उत्पाद का अर्थ

उत्पाद अवधारणा (Product Concept)

उत्पाद का अर्थ उन दृष्टिगोचर भौतिक और रासायनिक लक्षणों से है जो कि आसानी से पहचान में आने वाली आकृति, आकार, परिमाण आदि में संग्रहीत हों। वास्तव में यह उत्पाद का संकीर्ण अर्थ ही है।

उत्पाद की परिभाषाएँ

(1) डब्ल्यू० एल्डरसन (W. Alderson) के अनुसार, “उत्पाद उपयोगिताओं का एक पुलिन्दा है जिसमें उत्पाद के विभिन्न लक्षण और उसके साथ दी जाने वाली सेवाएँ सम्मिलित हैं।”

(2) आर० एस० डावर के अनुसार, “विपणन की दृष्टि से वस्तु को सुविधाओं का पुलिन्दा माना जा सकता है जो उपभोक्ता को प्रस्तुत की जा रही हैं।

(3) जॉर्ज फिस्क के अनुसार, “वस्तु मनोवैज्ञानिक सन्तुष्टियों का एक पुलिन्दा हैं।

उत्पाद अवधारणा

‘उत्पाद अवधारणा’ शब्द सबसे पहले थियोडोर लेविट द्वारा प्रयुक्त किया गया था। उनके अनुसार उत्पाद अवधारणा से आशय उपयोगिताओं के योग से है जिसमें विभिन्न उत्पाद विशेषताएँ तथा सेवाएँ सम्मिलित होती हैं। उत्पाद अवधारणा के निम्न तीन आयाम होते हैं-

(1) प्रबन्धकीय आयाम-इसमें कुल उत्पाद सम्मिलित होता है जो विपणनकर्ता द्वारा बाजार में विक्रय हेतु प्रस्तुत किया जाता है। एक उत्पाद प्याज जैसा होता है जिसमें कई परतें होती हैं जो सभी उत्पाद की सम्पूर्ण धारणा बनाने में योगदान करती हैं। इसकी महत्त्वपूर्ण परतें निम्नलिखित है-

(अ) मुख्य उत्पाद (Core product) अथवा सेवा जिसके कुछ विशेष लक्षण होते हैं जिसके आधार पर उसकी पहचान होती है;

(ब) सम्बन्धित उत्पाद जैसे ब्राण्ड नाम, विशेष पैकिंग, ट्रेडमार्क आदि,

(स) प्रतीकात्मक उत्पाद जैसे सुपुर्दगी, स्थापना, मरम्मत, गारण्टी आदि।

(2) उपभोक्ता आयाम-यदि उत्पाद खरीदने से उपभोक्ता की आवश्यकता एवं आशाओं की सन्तुष्टि हाती है तो वह उसे पुनः खरीदने का निर्णय लेता है।

(3) सामाजिक आयाम-इसके अन्तर्गत यह माना जाता है कि उत्पाद के क्रय से न केवल तुरन्त सन्तुष्टि प्राप्त होगी, अपितु इससे उपभोक्ता का दीर्घकालीन कल्याण होगा।

उत्पाद वर्गीकरण

डॉ आर०एस०डाबर ने उत्पादों का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया हैं-

उपभोक्ता उत्पाद-ये वे उत्पाद हैं जो अन्तिम उपभोक्ताओं द्वारा प्रयोग जाते हैं। इनका उपवर्गीकरण निम्न प्रकार है-

Bcom 3rd Year Principles of Marketing Notes

(1) सुविधाजनक उत्पाद (Convenient Products) सुविधा उत्पाद वे हैं जिन्हें उपभोक्ता बार-बार तुरन्त एवं न्यूनतम तुलना करके एवं अपेक्षाकृत बहुत कम क्रय प्रयासों से खरीदता है, जैसे-सिगरेट, साबुन, समाचार-पत्र, दियासलाई, दवाइयाँ आदि। यह उल्लेखनीय है कि ऐसे उत्पाद टिकाऊ नहीं होते और उपभोक्ताओं द्वारा उनका प्रयोग शीघ्रता से किया जाता है।

(2) बिक्रीगत उत्पाद (Shopping Products)-बिक्रीगत या सौदे के उत्पाद वे हाते हैं जिनका चुनाव और क्रय करने से पूर्व उपभोक्ता उपयुक्तता, किस्म, कीमत और शैली आदि आधारों पर विभिन्न निर्माताओं के उत्पादों से तुलनाएँ करता है। इन उत्पादों में फर्नीचर, महिला परिधान एवं जूते, बढ़िया चीनी के बर्तनों के सेट, कीमती साड़ियाँ आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।

(3) विशिष्ट उत्पाद (Speciality Products) विशिष्ट उत्पाद से आशय ऐसे उत्पादों से है जिनमें कुछ ऐसी अद्वितीय विशेषताएँ होती हैं जिनके कारण एक विशिष्ट क्रेता समूह अपनी आदतवश ऐसे उत्पादों के क्रय हेतु विशेष प्रयत्न करने को भी तत्पर रहता है। रेफ्रीजरेटर, कारें, मूल्यवान विद्युत उपकरण, खाने का कीमती सामान, एकत्र किये जाने वाले स्टाम्प एवं सिक्के आदि विशिष्ट उत्पादों के कुछ उदाहरण हैं।

(II) औद्योगिक उत्पाद (Industrial Products)

अमेरिकन मार्केटिंग एसोसिएशन की परिभाषा समिति के अनुसार, “औद्योगिक उत्पाद वे हैं जो मुख्यतः अन्य माल (उत्पाद) के उत्पादन में अथवा सेवाएँ प्रदान करने में प्रयोग हेतु बनाये जाते हैं। इनमें साज-सामान, संघटक हिस्से, अनुरक्षण, मरम्मत, परिचालन, आपूर्तियाँ कच्चा माल अर्द्ध-निर्मित माल और गढ़ी हुई सामग्रियाँ सम्मिलित हैं।” इस प्रकार ये उत्पाद उपभोक्ताओं के उपभोग हेतु नहीं होते बल्कि कारखानों में उपभोक्ता माल बनाने के काम आते हैं। दूसरे शब्दों में, औद्योगिक उत्पाद अन्तिम उपभोक्ताओं द्वारा प्रयोग नहीं किये जाते। अन्तिम उपभोक्ताओं की तुलना में औद्योगिक प्रयोगकर्ताओं के क्रय व्यवहार में काफी एकरूपता देखने को मिलती है। ऐसे उत्पादों के क्रेताओं की संख्या काफी कम होती है। प्रत्येक क्रय बड़ी मात्रा में और अधिक मूल्य का होता है।

उत्पाद का महत्त्व (Importance of Product)  

उत्पाद के महत्व को निम्नांकित दो वर्गों में विभक्त करके अध्ययन किया  जा सकता है-

I. विपणनकर्ताओं के लिए महत्व-

विपणनकर्ता के लिए उत्पाद के महत्व को निम्नांकित शीर्षकों से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. विपणन का आधार-उत्पाद विपणन का आधार है। बिना उत्पाद के विपणन कार्य सम्भव ही नहीं है। उत्पाद ही विपणन का आदि एवं अन्त है।

2. विपणन नीतियों एवं क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु-उत्पाद ही सभी विपणन नीतियों एवं क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु है। उत्पाद ही वह प्रारम्भिक बिन्दु है जहाँ से विपणन नीतियों एवं क्रियाओं को आगे बढ़ाया जाता है। उत्पाद रेखा एवं उत्पाद मिश्रण को ध्यान में रखकर ही मूल्य निर्धारित किया जाता है, मध्यस्थों की नियुक्ति की जाती है तथा संवर्द्धनात्मक मिश्रण का निर्धारण किया जाता है।

3. विपणन प्रयासों की सफलता का आधार-यदि विपणनकर्ता उत्पाद करता है तो उसकी विपणन की समस्याओं का स्वतः सम्बन्धी निर्णय बुद्धिमत्ता से समाधान हो जाता है। यदि वह उत्पाद सम्बन्धी निर्णय करने में नासमझी करता है तो वह अपनी विपणन समस्याओं को तत्काल कई गुणा बढ़ा लेता है।

4. संस्था के लाभों का निर्धारक-उत्पाद ही संस्था के लाभों का निर्धारक होता है। अच्छा उत्पाद ग्राहकों को संतुष्ट करता है। परिणामस्वरूप, संस्था का विक्रय बढ़ता है और उससे संस्था के लाभ बढ़ते हैं। विपरीत स्थिति में संस्था के लाभ सीमित ही नहीं रहते बल्कि कभी-कभी तो संस्था को हानि भी उठानी पड़ जाती है।

5. संस्था की सफलता का निर्धारक-एक विद्वान के अनुसार, “उत्पाद सर्वाधिक प्रभावी घटक है जो संस्था की सफलता को निर्धारित करता है।” वास्तव में संस्था की दीर्घकालीन सफलता अच्छे उत्पादों पर ही निर्भर करती है।

6. संस्था की ख्याति में वृद्धि-अच्छे उत्पाद संस्था की ख्याति में वृद्धि करने में सहायक होते हैं, क्योंकि संतुष्ट ग्राहक संस्था एवं उसके उत्पादों की दूसरों के समक्ष प्रशंसा करते हैं जिससे उनकी ख्याति में वृद्धि होती है।

II. क्रेता की दृष्टि से महत्त्व

वस्तु सभी आर्थिक क्रियाओं की केन्द्र-बिन्दु है। यह क्रेता की क्रयशक्ति, उसका जीवन स्तर, मानसिक सन्तुष्टि व आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करती है। उत्तम वस्तुओं का चयन एक क्रेता के जीवन को सफल बनाता है तथा वस्तुओं का अभाव उसमें अशान्ति उत्पन्न करता है। जब निर्माता वस्तुओं की पूर्ति में अवरोध पैदा करते हैं तो सरकार उसकी पूर्ति बनाये रखने के लिए प्रशासनिक नियन्त्रण लागू करती है। अतः विपणन प्रबन्धकों का सामाजिक उत्तरदायित्व हो जाता है कि वे वस्तुओं की उचित पूर्ति ही न बनाये रखें बल्कि मूल्य भी उचित रखे तथा वस्तु की क्वालिटी में गिरावट न होने दें।

उत्पाद नियोजन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

उत्पाद नियोजन (Product Planning)

भविष्य में क्या करना है ? इसको वर्तमान में तय करना नियोजन कहलाता है। इस आधार पर उत्पाद नियोजन से आशय उत्पादित की जाने वाली वस्तु या उत्पाद के सम्बन्ध में एक विस्तृत योजना बनाने से है। सरल शब्दों में उत्पाद नियोजन से आशय उन प्रयासों से है जिनके द्वारा बाजार या उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं के अनुरूप उपाद (Product) या उत्पाद श्रृंखला (Product Line) को निर्धारित किया जाता है।

उत्पाद नियोजन, विपणन प्रबन्ध का वह भाग है जो उत्पाद की भावी सम्भावनाओं का निर्धारण करता है और किन वस्तुओं का विपणन एवं परित्याग करना है, इसे तय करता है तथा बाजार में प्रस्तुत किये जाने वाले उत्पादों की विशेषताओं को निश्चित करके उन्हें अन्तिम उत्पादों में शामिल करता है। इस प्रकार उत्पाद नियोजन के अन्तर्गत वस्तु के सम्बन्ध में खोजबीन करना, उनकी व्यावहारिकता का पता लगाना, वर्तमान वस्तु में परिवर्तन करना एवं वस्तु का परित्याग करना आदि बातों को शामिल किया जाता है।

उत्पाद नियोजन को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता हैस्टेन्टन के अनुसार, “उत्पाद नियोजन में वे सब क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो उत्पादकों तथा मध्यस्थों को यह निर्धारित करने में सक्षम बनाती हैं कि संस्था की उत्पाद श्रृंखला में कौन-कौन से उत्पाद होने चाहिए।” जॉनसन के मतानुसार, “वस्तु नियोजन वस्तु की उन विशेषताओं को तय करता है, जिससे कि उपभोक्ताओं की असंख्य इच्छाओं को सर्वोत्तम ढंग से पूरा किया जा सके, वस्तुओं में विक्रय योग्यता को जोड़ा जा सके और उन विशेषताओं को तैयार वस्तुओं में शामिल किया जा सके।”

नवीन उत्पाद के विकास की प्रक्रिया

(Process of New Product Development)

बूज, एलन एवं हेमिल्टन (Brooze, Allen and Hamilton) ने एक नये उत्पाद के विकास की प्रक्रिया को निम्न प्रकार स्पष्ट किया है-

(1) नये विचारों का अन्वेषण (Exploration of New Ideas)- अन्वेषण के अन्तर्गत कम्पनी के उत्पाद क्षेत्रों का निर्धारण एवं उपलब्ध विचारों तथा तथ्यों का एकत्रीकरण सम्मिलित होता है क्योंकि जितने अधिक विचारों का एकत्रीकरण होगा उतने ही अच्छे विचार के चुने जाने की सम्भावना अधिक होगी। इन विचारों को एकत्रित करने के लिये कम्पनी ग्राहक, प्रबन्ध, विक्रेता, प्रतियोगिताएँ, प्रयोगशाला आदि पर निर्भर करती है।

(2) विचारों की छानबीन (Screening of Ideas)-विचारों के एकत्रीकरण के पश्चात् प्रत्येक विचार का विस्तृत रूप से विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाता है तथा जो विचार कम्पनी के लिये लाभकारी होते हैं, उन्हें अलग कर लिया जाता है ताकि उपयुक्त समय आने पर उनका लाभ उठाया जा सके। विभिन्न विचारों का मूल्यांकन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है तथा उन्हें उनके महत्व के क्रम में रखा जाता है। यह प्रक्रिया विचारों की छानबीन कहलाती है।

(3) व्यावसायिक विश्लेषण (Business Analysis)—व्यावसायिक विश्लेषण के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि नई वस्तु की बिक्री कैसी होगी ? लाभों की स्थिति क्या रहेगी ? तथा लगाई गई पूँजी पर प्रतिफल का प्रतिशत क्या होगा ? यदि ये सभी बातें विश्लेषण के अन्तर्गत कम्पनी के हित में आती हैं तो कम्पनी नया उत्पाद विकसित करने के बारे में विचार करती है, अन्यथा नहीं।

(4) वस्तु विकास (Product Development)—अब वह विचार जो प्रत्येक दृष्टि से उचित एवं लोस जान पड़ता है उसको कार्य रूप में परिणत करने के लिए कदम उङ्गाये जाते हैं। वस्तु विकास के अन्तर्गत वस्तु के विभिन्न मॉडल तैयार करके यह विचार किया जाता है कि किस प्रकार का मॉडल अच्छा तथा मितव्ययी होगा। उपभोक्ताओं की रुचियों का परीक्षण किया जाता है तथा ब्राण्ड तथा पैकेजिंग के विषय में निर्णय लिया जाता है।

(5) परीक्षात्मक विपणन (Test Marketing)-नवीन वस्तु को विस्तृत रूप से बाजार में लाने से पूर्व परीक्षात्मक विपणन आवश्यक है अर्थात् पहले बाजार के किसी चुने हुए भाग में वस्तु को लाकर यह परीक्षा की जानी चाहिये कि विक्रेताओं तथा ग्राहकों की ओर से क्या प्रतिक्रिया होती है यदि परीक्षण में कुछ कमियाँ सामने आती हैं तो उन्हें दूर करने के पश्चात ही नवीन वस्तु को विस्तृत रूप से बाजार में लाना चाहिये। वास्तव में, परीक्षात्मक विपणन उत्पादक की जोखिम को कम करता है तथा उसे ग्राहकों की प्रतिक्रियाओं से अवगत कराता है।

(6) वस्तु का वाणिज्यीकरण (Commercialisation of the Product)-एक नवीन उत्पाद के विकास की सभी प्रारम्भिक अवस्थायें पूरी करने के बाद वस्तु के वाणिज्यीकरण की समस्या आती है अर्थात् जब वस्तु परीक्षात्मक विपणन में खरी उतरती है तो उसे व्यावसायिक रूप से बाजार में लाने की तैयारी की जाती है। वस्तु को बाजार में लाने से पूर्व वस्तु के मॉडल, ब्राण्ड तथा पैकेजिंग आदि के बारे में फिर से एक बार विचार करना होता है क्योंकि उत्पादक की पूँजी का एक बड़ा भाग वस्तु के उत्पादन में लग जाता है। अत: वस्तु के वाणिज्यीकरण की अवस्था अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है।

उत्पाद अन्तर्लय या मिश्रण

(Product Mix)

कम्पनी द्वारा उत्पादित एक उत्पाद, उत्पाद मद कहलाता है। कम्पनी द्वारा उत्पादित एक ही प्रयोग में आने वाले सभी उत्पाद, उत्पाद पंक्ति का निर्माण करते हैं। दूसरे शब्दों में एक उत्पाद को उत्पाद मद कहा जाता है। एक ही प्रयोग में काम आने वाले उत्पादों को उत्पाद पंक्ति कहा जाता है, जबकि कम्पनी द्वारा उत्पादित सभी उत्पादों को उत्पाद अन्तर्लय कहा जाता है। अमेरिकन मार्केटिंग एसोसिएशन ने भी स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है कि टूथ पेस्ट एक उत्पाद है। टूथ पेस्ट की ट्यूब एक उत्पाद मद है। टूथ पेस्ट, टूथ पाउडर, मुँह धोने की सामग्री और अन्य सम्बन्धित सामग्री आदि उत्पाद पंक्ति का निर्माण करते हैं- साबुन, प्रसाधन सामग्री, दवाएँ आदि उत्पाद अन्तर्लय का निर्माण कर सकते हैं,

यदि ये वस्तुएँ भी उसी कम्पनी द्वारा बनायी जा रही हों। एलेक्जेण्डर, क्रॉस एवं हिल के शब्दों में,“एक फर्म का सम्पूर्ण उत्पाद-समूह उत्पाद अन्तर्लय मिश्र कहलाता है।” लिपसन एवं डारलिंग के शब्दों में, “एक व्यवसाय प्रणाली द्वारा विक्रय के लिए प्रस्तुत की गयी समस्त वस्तुओं की पूर्ण सूची उत्पाद अन्तर्लय या मिश्र कहलाती है।” विलियम जे० स्टेन्टन के शब्दों में, “उत्पाद अन्तर्लय या मिश्र से आशय एक कम्पनी द्वारा विक्रय हेतु प्रस्तुत किये जाने वाले समस्त उत्पादों की एक पूर्ण सूची से है।” अमेरिकन मार्केटिंग एसोसिएशन की परिभाषा समिति के शब्दों में, “किसी फर्न या व्यावसायिक इकाई द्वारा विक्रय के लिए प्रस्तुत किये गये उत्पाद-समूह को उत्पाद अन्तर्लय या मिश्र कहा गया है।”

इस प्रकार किसी भी व्यावसायिक संस्था की विपणन हेतु प्रस्तुत समस्त उत्पाद-सूची अथवा उत्पाद-रेखा का कुल जोड़ ‘उत्पाद अन्तर्लय या मिश्र’ के नाम से जाना जा सकता है और जिसकी संरचना के तीन पहलू होते हैं-विस्तार पहलू (Width Side); गहराई पहलू (Depth Side) तथा पहलू (Depth Side) तथा अनुरूपता पहलू (Consistency Side)|

उत्पाद अन्तर्लय का विस्तार पहलू

(Width Side of Product Mix)

उत्पाद अन्तर्लय के विस्तार पहलू से आशय एक कम्पनी में कितनी उत्पाद पंक्तियाँ हैं अर्थात् उत्पाद पंक्तियों की कुल संख्या ही उत्पाद अन्तर्लय का. विस्तार कहलाती है। इसे उत्पाद अन्तर्लय की चौड़ाई भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, भारत में ऊषा कम्पनी द्वारा बिजली के पंखे एवं सिलाई मशीनें बनाई जाती हैं। ऐसी स्थिति में ऊषा कम्पनी के उत्पाद अन्तर्लय के विस्तार में दोनों उत्पाद पंक्तियाँ अर्थात् विद्युत पंखें और सिलाई मशीनें सम्मिलित की जायेंगी।

उत्पाद अन्तर्लय का गहराई पहलू (Depth Side of Product Mix)-उत्पाद अन्तर्लय के गहराई पहलू से आशय एक कम्पनी द्वारा प्रत्येक उत्पाद पंक्ति में प्रस्तुत किये जा रहे उत्पादों की औसत संख्या से है।

उत्पाद अन्तर्लय का अनुरूपता पहलू (Consistency Side of Product Mix) उत्पाद अन्तर्लय , की अनुरूपता से आशय यह है कि विभिन्न उत्पाद पंक्तियाँ, अन्तिम उपयोग, उत्पादन आवश्यकताएँ, वितरण वाहिकाएँ या अन्य किसी दृष्टि से आपस में कितने घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। भारत में फिलिप्स इण्डिया लिमिटेड द्वारा अनेक उत्पादों का निर्माण किया जाता है, जैसे—रेडियो, बिजली के बल्ब, ट्यूबलाइट आदि। यद्यपि ये उत्पाद भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं परन्तु इनमें एक समानता है कि ये किसी न किसी रूप में बिजली से सम्बन्धित हैं। इसे ही उत्पाद अन्तर्लय कहा जाता है।

नवीन उत्पाद अपनाने वालों की श्रेणियाँ

ई० रोगरज द्वारा 1971 में नवीन उत्पादों के उपभोक्ताओं को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया गया हैं-

(1) नवप्रवर्तक (Innovators)—जब बाजार में कोई नया उत्पाद प्रस्तुत किया जाता है तो बहुत कम सम्भावित उपभोक्ता उसे अपनाते हैं। ये ग्राहक नवप्रवर्तक कहलाते हैं। रोजर के अनुसार लगभग 2.5% उपभोक्ता इस श्रेणी में आते हैं।

(2) शीघ्र अपनाने वाले (Early Adopters)—कुल सम्भावित ग्राहकों का 13.5% ये लोग होते हैं। ये धनाढ्य, शिक्षित और सफल लोग हैं। ये जनमत निर्माता होते हैं।

(3) शीघ्र बहुमत में आन वाले (Early Majority)-ये कुल सम्भावित का 34% होते हैं। ये प्रारम्भिक उत्पाद प्रयोगकर्ताओं के पीछे चलकर उत्पाद को अपनाते हैं।

(4) उत्तरकालीन बहुमत के साथ (Late Majority)—इनकी संख्या लगभग 34% तक होती है। ये केवल जनमत स्पष्ट होने पर तथा आवश्यकता के समय ही नया उत्पाद खरीदते हैं।

(5) पिछड़े हुए (Laggards)-इनकी संख्या सम्भावित ग्राहकों के 16% तक होती है। ये नए पदार्थ को अपनाने वाले सबसे पिछड़े ग्राहक हैं जो प्राय: आयु में बड़े, निर्धन, परम्परावादी तथा कम पढ़े लिखे होते हैं। नये

नये उत्पादों की असफलता के कारण

(Reson for Failure of New Products)

सामान्यतः अधिकतर नये उत्पाद बाजार में संफल नहीं हो पाते। ऐसा देखा गया है कि नये उत्पादों का 80-90 प्रतिशत भाग असफल ही रहता है। ऐसे उत्पाद भी जो उचित नियोजन के पश्चात बाजार में लाये जाते हैं असफल हो जाते हैं। इन असफलताओं के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

1. वस्तु के दोष (Defects of Product)-उत्पाद के कार्य, डिजाइन, आकार, किस्म, पैकिंग आदि में पाये जाने वाले दोषों के कारण वस्तु बाजार में असफल हो जाती है।

2. उत्पाद का मूल्य (Price of the Product)-यदि उत्पाद का मूल्य अधिक रखा जाता है तब भी उत्पाद के असफल हो जाने की सम्भावना रहती है। यदि उत्पाद की लागत अधिक आती है तो मूल्य भी अधिक रखा जाता है और कभी-कभी तो लागत का वीक प्रकार से अनुमान न लग पाने के कारण भी वस्तु का मूल्य आवश्यकता से अधिक निर्धारित हो जाता है।

3. अपर्याप्त बाजार विश्लेषण (Inadequate Market Analysis)-यदि नवीन उत्पाद के विकास से पूर्व बाजार विश्लेषण अर्थात् माँग का अनुमान, ग्राहकों की रुचि तथा प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुरूप लीक प्रकार से नहीं लगाया जाता है तो भी नवीन उत्पाद को असफलता का मुँह देखना पड़ता है।

4. प्रतिस्पर्धा (Competition) यदि प्रतिस्पर्धी अपनी वस्तु की कीमत कम कर दें या विक्रय संवर्द्धन तकनीक में सुधार कर लें अथवा अपनी वस्तु की किस्म में सुधार करके उसे बाजार में लायें तो भी नवीन उत्पाद को असफलता का सामना करना पड़ सकता है।

5. वितरण की कमियाँ (Distribution Weaknesses)-कभी-कभी वितरण सम्बन्धी कमियाँ, जैसे-समय पर उत्पाद का बाजार में न पहुँचना, मध्यस्थों की शिथिलता आदि के कारण भी नवीन उत्पाद असफलता के कगार पर पहुँच जाती है।

6. विपणन प्रयासों की अपर्याप्तता (Insufficiency of Marketing Efforts)- विपणन सम्बन्धी प्रयासों की कमी भी नवीन उत्पाद को असफल बना देती है। अपर्याप्त विज्ञापन, विक्रय कला का अभाव आदि इसके उदाहरण हैं।

7. विक्रेता की अयोग्यता (Incapability of Salesman)—यदि विक्रेता अनुभवहीन तथा अशिक्षित है और उसमें प्रेरणा का अभाव है तो नवीन उत्पाद बाजार में असफल हो जाता है।

उत्पाद नियोजन का महत्व या आवश्यकता

(Importance or Need of Product Planning)

1. का आधार of विपणन कार्यक्रम (Basis Marketing Programme)-उत्पाद नियोजन सम्पूर्ण विपणन कार्यक्रम का आधारभूत एवं प्रारम्भिक कार्य है। स्टेण्टन के अनुसार, “उत्पाद नियोजन संस्था के सम्पूर्ण विपणन कार्यक्रम का प्रारम्भिक बिन्दु है।” उत्पाद नियोजन के माध्यम से उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करने का प्रयास किया जाता है जो आसानी से एवं यथाशीघ्र बिक सके।

2. उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति (Meet out the Consumer Needs)-उत्पाद नियोजन का कार्य उपभोक्ता की आवश्यकताओं, इच्छाओं, पसन्दगी, नापसन्दगी, वरीयताओं आदि को जानने से ही प्रारम्भ होता है। अत: इस कार्य के परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को भली प्रकार पूरा किया जा सकता है।

3. सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह (Discharge of Social Responsibilities) आधुनिक युग में प्रत्येक संस्था का सामाजिक दायित्व होता है। अच्छे उत्पाद नियोजन से वह उपभोक्ताओं, स्थानीय समुदाय एवं देश के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकती है। इनसे उपभोक्ता एवं समाज के जीवन-स्तर में सुधार होता है। उत्पाद नियोजन से देश के संसाधनों का सदुपयोग होता है। इससे देश के प्रति दायित्वों का निर्वाह भी सम्भव है।

4. उपक्रम की लाभ क्षमता में वृद्धि (Increase in Profit Capacity of the Enterprise)-विपणनकर्ता का प्रमुख उद्देश्य दीर्घकाल में अपने लाभों को अधिकतम करना होता है। इसके लिये केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन किया जाना चाहिए जिनको लाभों के साथ आसानी से बेचा जा सके। उत्पाद नियोजन में ये सभी बातें सम्भव हैं।

5. संसाधनों का सदुपयोग (Proper Utilisation of Resources)-उत्पाद नियोजन संस्था के संसाधनों के सदुपयोग में सहायक है। उत्पाद नियोजन के अन्तर्गत उचित उत्पादों को खोजा जाता है तथा उनका विपणन परीक्षण किया जाता है। विद्यमान उत्पादों में आवश्यक सुधार एवं परिवर्तन किया जाता है और अलाभकारी उत्पादों को संस्था की उत्पाद श्रृंखला से हटाया जाता है। इन सबके परिणामस्वरूप संस्था उन उत्पादों का निर्माण कर पाती है जिनकी बाजार में माँग होती है। फलत: संस्था के संसाधनों का सदुपयोग सम्भव है।

6. प्रतिस्पर्धी क्षमता में वृद्धि (Increased competitive capacity)-अच्छा उत्पाद नियोजन संस्था के उत्पादों को अच्छा एवं मितव्ययी बना सकता है। इससे संस्था की बाजार में प्रतिस्पर्धी क्षमता में अभिवृद्धि होती है।

7. लागतों में कमी (Reduced Cost)-अच्छे उत्पाद नियोजन से संस्था के संसाधनों का अपव्यय नहीं होता है। इसके अतिरिक्त अच्छे उत्पाद नियोजन से होता है, अधिक संवर्द्धनात्मक एवं वितरण व्यय नहीं करने पड़ते हैं। फलतः संस्था की लागतों में भी कमी आती है।

8. कानूनी दायित्वों का निर्वाह (Discharge of Legal Obligations) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम उपभोक्ताओं को अनेक अधिकार प्रदान करता है। यदि कोई उत्पाद उचित किस्म, प्रमाण एवं निष्पादन क्षमता का नहीं होता है तो उत्पादक/व्यवसायी उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी होता है। अच्छा उत्पाद नियोजन करके निर्मित उत्पादों को बेचना भी आसान उत्पादक/व्यवसायी स्वत: ही अपने वैधानिक दायित्वों से सुरक्षित हो जाता है।

9. सुविधाजनक उत्पाद (Convenient Product)-उत्पाद नियोजन से उपभोक्ताओं को अधिक सुविधाजनक उत्पाद उपलब्ध हो सकते हैं। उत्पाद नियोजन के द्वारा उत्पाद का आकार, रंग, रूप, डिजाइन आदि उपभोक्ता की सुविधा को ध्यान में रखकर ही बनाये जाते हैं। फलतः उपभोक्ताओं को अधिक सुविधाजनक उत्पाद मिलने लगे हैं।

10. दोष-रहित उत्पाद (Products Free-From Defects or Zero Defect Products)-उत्पाद नियोजन का एक लाभ यह है कि उपभोक्ताओं को दोष-रहित उत्पाद उपलब्ध होने लगे हैं। उत्पाद का रंग, रूप, आकार, किस्म आदि का निर्धारण करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि उसमें दोष न हो। टीवी, फ्रीज, स्कूटर, दैनिक उपयोग की छोटी से छोटी वस्तु को दोष रहित उपलब्ध बनाने पर जोर दिया जा रहा है। यह कुशल उत्पाद नियोजन से ही सम्भव है।

11. व्यापक क्षेत्र (Wide Scope)-उत्पाद नियोजन का .. क्षेत्र व्यापक है। इसमें वस्तु का विकास, नवाचार, नाम, रंग, रूप, आकार, मूल्य, किस्म, ब्राण्ड, पैकेजिंग आदि का समावेश है।


Principle of marketing

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