Ghiyasuddin Tughlaq : 1320-1325

ग्यासुद्दीन तुगलक (Ghiyasuddin Tughlaq : 1320-1325)

1.ग्यासुद्दीन तुगलक का जीवन-ग्यासुद्दीन तुगलक का वास्तविक नाम गाजी मलिक था। वह एक निम्न कुल में उत्पन्न हुआ था। उसका पिता बलबन का एक तुर्की दास और उसकी माता पंजाब की एक जाटनी थी। इस मत का समर्थन फरिश्ता और खुलासत-उल-तवारीख का लेखक करता है। अमीर खुसरो लिखता है कि रणथम्भौर के घेरे में गाजी मलिक ने बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया था। इस मत से फरिश्ता के इस कथन की पुष्टि होती है कि उसका पिता बलबन के तुर्की गुलामों में से एक था।

मार्कोपोलो का विचार है कि गाजी मलिक का जन्म सम्भवत: भारत में ही हुआ था। इब्नबतूता गाजी मलिक को करौना तुर्क बताता है। डॉ० ईश्वरी प्रसाद भी इब्नबतूता के मत को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि गाजी मलिक के वंशज करौना तुर्क थे। यदि करौना तुर्कों में कुछ मंगोल रक्त रहा भी हो तो भी उनमें तुर्की रक्त की प्रधानता थी और गाजी मलिक व उसके वंशजों में भारतीय जाटों का भी रक्त मिश्रित हो गया था। तुगलक उनकी जाति अथवा कबीले का नाम नहीं था, वह नाम तो करौना है। यह शब्द तुगलक ग्यासुद्दीन के नाम का केवल एक अंश ही है। साधारण सैनिक के

समकालीन प्रमाणों से पता चलता है कि ग्यासुद्दीन तुगलक ने एक रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया था और उसे कुतुबुद्दीन तथा अलाउद्दीन का संरक्षण प्राप्त हुआ था। जलालुद्दीन खिलजी के समय में उसे कोई महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त नहीं था। अपनी योग्यता तथा सैनिक प्रतिभा के कारण उसने बड़ी उन्नति की और 1305 ई० में वह पंजाब का सूबेदार बन गया, जिसकी राजधानी दिपालपुर थी। कहा जाता है कि इस पद पर रहकर उसने 29 बार मंगोलों से लोहा लिया और उन्हें पराजित भी किया। मुबारक शाह के समय में वह अपने पद पर बना रहा और खुसरोशाह ने भी उसका पद स्थायी कर दिया। परन्तु ग्यासुद्दीन और उसका पुत्र जूना खाँ, जो दिल्ली में घोड़ों का संरक्षक था, बड़ा महत्त्वाकांक्षी था। उन्होंने शक षड्यन्त्र रचकर खुसरोशाह का वध कर दिया और राज्य पर अधिकार कर लिया।
 

 2. ग्यासुद्दीन तुगलक का राज्यारोहण (8 सितम्बर, 1320 ई०)-बरनी लिखता है कि खुसरो के अन्त के बाद गाजी मलिक (ग्यासुद्दीन तुगलक) ने अमीरों की एक सभा की और उसमें भाषण देते हुए कहा था- “मैंने शक्ति अथवा साम्राज्य प्राप्त करने के लिए नहीं, अपने स्वामियों की मृत्यु का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। मैंने अपनी सम्पत्ति तथा अपने परिवार और जीवन को सिंहासन प्राप्त करने के लिए संकट में नहीं डाला है। मैंने जो कुछ भी किया है, वह केवल अपने आश्रयदाताओं के हत्यारों से बदला लेने के लिए किया हैलोग साम्राज्य के विशिष्ट अमीर हैं। यदि मेरे स्वामी के परिवार का कोई व्यक्ति हो तो आप उसे तुरन्त प्रस्तुत करें ताकि मैं उसे गद्दी पर बिठाकर उसके प्रति अपनी भक्ति और अधीनता व्यक करूँ। परन्तु यदि शत्रु ने अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन के वंश का नाश कर दिया हो, तो आप लोग जिसे राज पद के लिए योग्य समझें, उसे गद्दी पर बिठा दें। मैं उसके प्रति अपनी भक्तिपूर्ण अधीनता प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तुत हूँ।”

इस भाषण से सभी प्रमुख अमीर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने एक मत से उसे ही अपना सुल्तान स्वीकार कर लिया। इस प्रकार वह प्रथम सुल्तान था, जो कि सभी की सहमति से राजगद्दी पर आसीन हुआ। गाजी मलिक 8 सितम्बर, 1320 ई० को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और ग्यासुद्दीन तुगलक शाह ‘गाजी’ (काफिरों का बधिक) की उपाधि धारण की।

ग्यासुद्दीन तुगलक की समस्याएँ (Problems of Ghiyasuddin Tughlaq)

गद्दी पर बैठने के समय ग्यासुद्दीन तुगलक के समक्ष निम्नलिखित समस्याएँ उपस्थित थीं-

(1) रिक्त राजकोष-उस समय मुबारक और खुसरो की अतिशय दानशीलता के कारण राजकोष धन से सर्वथा रिक्त हो चुका था। बरनी के अनुसार, “अलाउद्दीन का अपरिमित कोष खाली हो चुका था और उसमें एक भी टंका अथवा दिरहम नहीं था।”

(2) अशान्ति एवं अराजकता-कुतुबुद्दीन की विलासिता और खुसरो की दुर्बलता के कारण साम्राज्य में सर्वत्र अशान्ति एवं अराजकता का बोलबाला था। अनेक प्रान्तीय सूबेदारों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। पश्चिमी पंजाब में मंगोलों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था। गुजरात में अलप खाँ और जफर खाँ के मारे जाने के कारण विद्रोह फैला हुआ था। राजपूत सरदार और मालवा तथा बुन्देलखण्ड के शासक अपनी मनमानी करने लगे थे। दक्षिण में वारंगल के राजा रुद्रदेव ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इस प्रकार सम्पूर्ण साम्राज्य में अशान्ति और अराजकता व्याप्त थी।

ग्यासुद्दीन तुगलक की गृह-नीति (Domestic Policy of Ghiyasuddin Tughlaq

ग्यासुद्दीन तुगलक की गृह-नीति अग्रलिखित रही-

1.अमीरों तथा सरदारों के समर्थन की प्राप्ति-सर्वप्रथम ग्यासुद्दीन ने अपने समर्थकों और असन्तुष्ट अमीरों को उच्च पद तथा उपाधियाँ देकर अपनी स्थिति को मजबूत बनाया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र जूना खाँ को उलुग खाँ की उपाधि प्रदान की और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। बहराम ऐबा को किशलू खाँ की उपाधि देकर सीमान्त प्रदेश का सूबेदार बना दिया। मलिक शादी को वजीर, बाहउद्दीन को आरिज-ए-मुमालिक (प्रधान सेनापति) तथा असदउद्दीन को बारबक के पदों पर नियुक्त किया और अपने दत्तक पुत्र तातार खाँ को जफर खाँ की पदवी से विभूषित किया। इसी प्रकार सुल्तान ने एक कुशल राजनीतिज्ञ के समान खुसरो शाह के समर्थकों के विरुद्ध कोई कार्यवाही न करके उन्हें उनके पदों पर स्थायी कर दिया और खिलजी-वंश की कन्याओं का विवाह करके जनता की सहानुभूति भी प्राप्त कर ली।

(2) राजकोष की पूर्ति-सुल्तान ने रिक्त राजकोष की पूर्ति के लिए उन सभी व्यक्तियों को वह धन लौटाने का आदेश दिया था जिसे खुसरो शाह ने उनमें उदारतापूर्वक बाँट दिया था। परन्तु शेख निजामुद्दीन औलिया, जिसे 5 लाख टंका प्राप्त हुए थे, ने यह कहकर कि धन को दान कर दिया है, धन लौटने से इनकार कर दिया। इस पर सुल्तान बहुत क्रोधित हुआ, किन्तु निजामुद्दीन एक धार्मिक व्यक्ति और जनता में बहुत लोकप्रिय था, इसलिए वह उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही न कर सका। लेकिन अन्य लोगों से बहुत-सा धन लौटाकर उसने अपने राजकोष को भर लिया।

(3) भूमि-प्रबन्ध अथवा राजस्व नीति–ग्यासुद्दीन तुगलक ने किसानों को सुविधाएँ देने और कृषि के विकास के लिए एक नई नीति (Agrarian System) अपनाई। उसने अपनी राजस्व नीति को निर्धारित करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा कि किसानों से इतना अधिक कर भी न लिया जाए कि वे खेती करना ही छोड़ दें और न ही कर इतना कम ही लिया जाए कि वे विद्रोही बन जाएँ। अत: दीवान-ए-विजारत को उसने आदेश दिया कि एक वर्ष में किसी इक्ता के राजस्व में 1/10 या 1/11 से अधिक वृद्धि न की जाए और इसकी वृद्धि धीरे-धीरे कई वर्षों में की जाए। ऐसा कहा जाता है कि सुल्तान ने 1/3 से अधिक और 1/2 से कम कर लेना निश्चित किया था और अन्य सभी कर रद्द कर दिए थे। बरनी का मत है कि सुल्तान ने भूमि-कर उपज का 1/10 से 1/11 भाग निश्चित किया था। लेकिन यह मत सत्य प्रतीत नहीं होता है।

सुल्तान ने भूमि की पैमाइश के स्थान पर बँटाई प्रथा अधिकारियों को कमीशन न देकर भूमि देने का आदेश दिया, जो कर-मुक्त होती थी। सुल्तान ने किसानों से नाममात्र का शुल्क वसूल करने की आज्ञा दी और अकाल आदि के समय किसानों को भूमि-कर से मुक्ति भी प्रदान की। सुल्तान ने कृषि के विकास और प्रोत्साहन के लिए बंजर भूमि में सुधार करवाया, बाग लगवाए और सिंचाई के लिए नहरें भी खुदवाईं। उसने किसानों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने का भी आदेश दिया। उसकी यह नीति राज्य और किसानों के लिए बड़ी लाभदायक सिद्ध हुई।

(4) सेना-प्रबन्ध-अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत की सेना छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। घोड़ों को दागने, सैनिकों का हुलिया लिखने आदि बातें समाप्त हो गई थीं। सैनिकों के वेतन तथा सैनिकों के निरीक्षण में भी अनियमितता आ गई थी। अत: सुल्तान ने इन समस्त प्रथाओं को पुनः प्रचलित किया और सैनिकों में अनुशासन की भावना का संचार किया। उसने सैनिकों के वेतन बढ़ाकर उनकी सहानुभूति प्राप्त की। बरनी के अनुसार, सुल्तान ने अपने सैनिकों के साथ पुत्रवत् व्यवहार किया।

(5) न्याय-व्यवस्था-मुबारकशाह और खुसरो की दुर्बलता के कारण साम्राज्य की न्याय व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। सुल्तान ने न्याय-विभाग में अनेक सुधार किए। उसने राजकीय ऋण वसूल करने वालों को कठोर दण्ड देना बन्द कर दिया, किन्तु चोरों, राजस्व न देने वालों तथा सरकारी धन का गबन करने वालों को कठोर दण्डों से मुक्ति न दी गई। सुल्तान ने शराब की बिक्री और निर्माण पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया।

(6) यातायात के साधनों का विकास तथा डाक-व्यवस्था सुल्तान ने यातायात के साधनों का विकास करने का भी प्रयत्न किया। उसने सड़कों की मरम्मत करवाई, दुर्ग, पुल तथा नहरें भी बनवाईं।”

सुल्तान ने डाक-व्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण सुधार किए। बरनी के अनुसार, उस समय में सरकारी डाक ले जाने के लिए घुड़सवार (इलुग) तथा पैदल (धावक) पत्रवाहक नियुक्त थे। लगभग दो या तीन मील की दूरी पर डाक चौकियाँ बनी हुई थीं, जिनमें पत्रवाहक उपस्थित रहते थे। पत्रवाहक एक हाथ में पत्रों का झोला और दूसरे हाथ में एक डण्डा लिए होता था और सिर पर घंटियाँ बँधी होती थीं। वह पूर्ण वेग से दोड़ता था, जिससे घंटियों की आवाज को सुनकर अगली डाक चौकी का पत्रवाहक डाक लेने के लिए तैयार हो जाता था। सरकारी डाक एक दिन में 200 मील तक पहुँच जाया करती थी। कभी-कभी पत्रवाहक (धावक) फल-फूल तथा गंगा जल लेने के लिए हजारों मील की यात्रा कर डालते थे।

(7) साहित्य एवं कला को संरक्षण-सुल्तान ने साहित्य और कला को भी संरक्षण प्रदान किया था। उसने अनेक दुर्गों तथा भवनों का निर्माण करवाया था, जिनमें सुल्तान का मकबरा विशेष प्रसिद्ध है। उसके दरबार में अमीर खुसरो और अमीर हसन देहलवी नामक दो विख्यात विद्वान रहते थे। असीर खुसरो दरबारी कवि था, जिसे 1000 टंका प्रतिमाह की पेंशन मिलती थी। उसने अनेक ग्रन्थों, विशेषकर ‘तुगलकनामा’ की रचना की थी। अमीर हसन भी विख्यात कवि था।

(8) धार्मिक नीति-सुल्तान की धार्मिक नीति फिरोज तुगलक के समान कठोर तो नहीं थी, तथापि उसने एक कट्टर मुसलमान की भाँति आचरण अवश्य किया। उसने कुरान के नियमों के अनुसार शासन किया और शराब, संगीत तथा नृत्य आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उसने उलेमाओं के परामर्श के अनुसार कार्य किया। लेकिन धर्म के नाम पर उसने अन्य धर्म के लोगों और हिन्दुओं पर किसी प्रकार के अत्याचार किए थे, इसका विवरण हमें उपलब्ध नहीं होता है। इतना अवश्य है कि उसने अपनी सैनिक यात्राओं में हिन्दू मन्दिरों तथा मूर्तियों को नष्ट किया। हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति भी अधिक उदार नहीं रही। डॉ० ईश्वरी प्रसाद अनुसार– “हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की नीति का मुख्य सिद्धान्त यह था कि न तो हिन्दुओं के पास इतना धन हो कि वे विद्रोह की सोचें और न ही उन्हें इतना अधिक निर्धन कर दिया जाए कि वे निराश होकर खेती-बाड़ी करना ही छोड़ दें।” के

इसी प्रकार डॉ० पी० सरन ने भी लिखा है— “यदि तुगलक शाह अपनी समकालीन संकीर्णता से ऊँचा उठकर एक नवीन राजनीतिक सिद्धान्त तथा शासन-नीति का संचालन कर सकता तो उसकी गणना सर्वोत्कृष्ट कुशाग्र बुद्धि तथा नवीन पथ के आविष्कर्ताओं में होती।”

इस प्रकार ग्यासुद्दीन तुगलक की धार्मिक कट्टरता राजनीतिक कारणों से प्रेरित थी।


ग्यासुद्दीन तुगलक की विदेश-नीति Foreign Policy of Ghiyasuddin Tughlaq

 (1) वारंगल पर आक्रमण (1321 ई०)-सन् 1321 ई० में सुल्तान तुगलकशाह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र जूना खाँ को वारंगल (तेलंगाना) विजय करने के लिए भेजा, क्योंकि वहाँ के राजा प्रताप रुद्रदेव ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित करके दिल्ली को वार्षिक कर भेजना बन्द कर दिया था। शाही सेनाएँ शीघ्र ही देवगिरि होती हुई वारंगल पहुँच गईं और दुर्ग पर घेरा डाल दिया गया। मलावा और बदायूँ की सेनाएँ भी जूना खाँ की सहायता के लिए पहुँच गईं। राजा प्रताप रुद्रदेव ने बड़ी वीरतापूर्वक शाही सेनाओं का सामना किया और दुर्ग का घेरा कई माह तक चलता रहा। अन्त में राजा रुद्रदेव ने सन्धि की वार्ता चलाई और प्रतिवर्ष कर भेजते रहने की बात कही, परन्तु उलुग खाँ (जूना खाँ) ने सन्धि करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह समझता था कि उसके वापस जाते ही राजा कर भेजना बन्द कर देगा। उसने यह योजना बनाई कि राजा को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाया जाए और उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति पर अधिकार कर लिया जाए। परन्तु इसी समय जूना खाँ को दिल्ली की सूचना मिलनी बन्द हो गई। सम्भवतः वारंगल के लोगों ने डाक-व्यवस्था को भंग कर दिया था, क्योंकि मलिक काफूर के समय भी उन्होंने ऐसी ही कार्यवाही की थी। अतः राजधानी का समाचार न मिलने से जूना खाँ ने यह अनुमान लगाया कि वहाँ पर अवश्य ही कोई गड़बड़ी हो गई है। इब्नबतूता तथा इसामी का मत है कि जूना खाँ राजधानी से दूर जाकर स्वयं सुल्तान बनाने का स्वप्न देखने लगा और उसने अपने मित्र उबैद तथा शेखजादा दिमिश्क के द्वारा यह अफवाह फैला दी कि सुल्तान हो गई है। जूना खाँ को विश्वास था कि युवराज होने के कारण सभी सरदार उसे सुल्तान मान लेंगे, परन्तु कुछ सरदारों ने उलुग खाँ का विरोध किया और उसे बन्दी बनाने का प्रयत्न किया। इस प्रकार आपसी फूट के कारण सेना दुर्बल हो गई और उसकी पराजय हो गई। जूना खाँ का विद्रोह करने का कोई विचार नहीं था। उसके लेकिन बरनी का मत है कि कुछ साथियों ने इस प्रकार की अफवाह उड़ा दी थी, जिससे कुछ अमीरों ने जूना खाँ का साथ छोड़ दिया था।

डॉ० आगा मेहदी हुसैन का मत है-“कवि उबैद तथा कुछ अन्य अमीर, जो इससे पहले भी दक्षिण जा चुके थे, यह विश्वास रखते थे कि दुर्ग का घेरा कुछ दिनों के अन्दर ही समाप्त हो जाएगा और सन्धि हो जाएगी। वे वारंगल पर अधिकार करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने शहजादे को सन्धि करने का परामर्श दिया होगा और जब जूना खाँ ने उनके परामर्श को स्वीकार न किया होगा तब उन लोगों ने प्रताप रुद्रदेव से रिश्वत खाकर यह अफवाह उड़ा दी होगी, जिससे सेना में गड़बड़ी और अव्यवस्था फैल जाए।”

डॉ० ईश्वरी प्रसाद भी जूना खाँ को इस षड्यन्त्र से मुक्त करते हैं, किन्तु उन्होंने इस बात की स्पष्ट व्याख्या नहीं की है कि सेना में गड़बड़ी फैलाने के लिए उसके मित्रों ने ऐसी अफवाह क्यों उड़ाई थी?

लेकिन वूल्जले हेग जूना खाँ को ही इस षड्यन्त्र का नेता बताते हैं। उनका मत है कि युवराज ने ही अपने मित्र शेखजादा द्वारा सुल्तान की मृत्यु की खबर फैलाई और अमीरों से आग्रह किया कि वे उसे अपना सुल्तान स्वीकार कर लें। जब कुछ अमीरों ने उसका विरोध युवराज ने उन्हें बन्दी बनाने की धमकी दी। परिणामस्वरूप सेना में फूट और गड़बड़ी किया तो फैल गई।

सेना में गड़बड़ी फैलने का कोई भी कारण रहा हो, यह बात निर्विवाद है कि युवराज को वारंगल का घेरा उठा लेने पर विवश होना पड़ा और मार्ग में उसे राजा रुद्रदेव ने बड़े कष्ट भी पहुँचाए। इस प्रकार उसका वारंगल पर यह आक्रमण विफल रहा।

(2) वारंगल पर द्वितीय आक्रमण ( 1323 ई०)-जूना खाँ ने अपने पिता के क्रोध से बचने के लिए दिल्ली पहुँचकर सारा दोष अमीरों के सिर पर मढ़ दिया और सुल्तान से अपनी भूल की क्षमायाचना भी की। उसने सुल्तान से कहा कि अधिक दिनों तक घेरा चलते रहने के कारण इनमें असन्तोष उत्पन्न हो गया और इन्होंने झूठी अफवाह उड़ा दी, जिससे सेना में गड़बड़ी फैल गई। सुल्तान ने अपने पुत्र पर विश्वास करके उसे तो क्षमा कर दिया, परन्तु उसके सहयोगियों को बड़े कठोर दण्ड दिए। कवि उबैद तथा शेखजादा दिमिश्क, जिन्होंने सुल्तान का पुतला दफन किया था, को जिन्दा गड़वा दिया गया।

तत्पश्चात् सुल्तान के आदेश पर 1323 ई० में जूना खाँ ने एक विशाल सेना के साथ वारंगल पर पुनः आक्रमण किया। शाही सेना ने बीदर जीतकर वारंगल को चारों ओर से घेर लिया। इस बार राजा प्रताप रुद्रदेव बुरी तरह पराजित हुआ और परिवार सहित बन्दी बना लिया गया। तेलंगाना को अनेक जिलों में विभक्त करके वहाँ मुस्लिम अधिकारी नियुक्त कर दिए गए। वारंगल का नाम सुल्तानपुर रख दिया गया और उसे दिल्ली साम्राज्य का अंग बना लिया गया।

(3) उड़ीसा पर आक्रमण-वारंगल विजय के बाद जूना खाँ ने उड़ीसा की राजधानी उत्कल (जाजनगर) पर आक्रमण किया, क्योंकि यहाँ के राजा भानुदेव द्वितीय ने प्रताप रुद्रदेव को सहायता दी थी। इस आक्रमण में युवराज को 50 हाथी और लूट का अपार माल प्राप्त हुआ। इस प्रकार एक विपुल राशि लेकर जूना खाँ दिल्ली लौट आया।

(4) मंगोल आक्रमण-इसी समय मंगोलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान ने समाना के सूबेदार बहाउद्दीन गुर्शास्प की सहायता के लिए एक सेना भेजी। इस सेना की सहायता से बहाउद्दीन ने मंगोलों को बुरी तरह पराजित किया और बहुत-से मंगोलों को पकड़कर मार डाला।

(5) बंगाल में विद्रोह ( 1323 ई०)-बंगाल प्राय: दिल्ली साम्राज्य से स्वतन्त्र रहा था। उस समय बंगाल में गृह-युद्ध चल रहा था। बुगरा खाँ के पोते ग्यासुद्दीन बहादुर ने अपने दोनों भाइयों, शहाबुद्दीन और नासिरुद्दीन, को बंगाल से मार भगाया था। नासिरुद्दीन ने सुल्तान से सहायता माँगी। यह अवसर पाकर तुगलकशाह ने स्वयं एक विशाल सेना के साथ बंगाल की ओर प्रस्थान किया। तिरहुत के निकट नासिरुद्दीन सुल्तान से आकर मिला। वहीं से सुल्तान ने उसके साथ जफर खाँ को लखनौती पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। जफर खाँ ने ग्यासुद्दीन बहादुर को पराजित करके बन्दी बना लिया और नासिरुद्दीन को दिल्ली की अधीनता में बंगाल की गद्दी पर बिठा दिया। लखनौती का शासन उसके हाथ में दे दिया गया और सोनारगाँव में तातार खाँ को नियुक्त किया गया। इस प्रकार बंगाल पर सुल्तान का प्रभुत्व स्थापित हो गया।

(6) तिरहुत विजय-बंगाल विजय करके सुल्तान ने दिल्ली लौटते समय तिरहुत (मिथिला) के राजा हरीसिंह को भी पराजित किया और तिरहुत पर उसका अधिकार स्थापित हो गया।

(7) सुल्तान की मृत्यु ( 1325 ई०) तिरहुत विजय के बाद सुल्तान बड़ी तेजी के साथ दिल्ली लौटा, क्योंकि जब वह बंगाल में था, तभी उसे राजधानी से जूना खाँ की संदिग्ध गतिविधियों का समाचार मिल चुका था। जूना खाँ ने सुल्तान के स्वागत के लिए दिल्ली से पाँच-छह मील दूर अफगानपुर में एक लकड़ी का महल बनवाया, जिसमें सुल्तान ठहरा और जब वह भोजन करके उठ रहा था, तभी महल की छत उस पर गिर पड़ी और वह अपने छोटे पुत्र मुहम्मद के साथ दबकर मर गया। इस प्रकार तुगलकशाह की मृत्यु बड़ी रहस्यमय स्थिति में हुई।

ग्यासुद्दीन तुगलक का मूल्यांकन (Estimate of Ghiyasuddin Tughlaq)

आधुनिक और समकालीन इतिहासकारों ने सुल्तान तुगलकशाह के कार्यों की प्रशंसा की है। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव लिखते हैं—“सिंहासन पर बैठने के समय ग्यासुद्दीन तुगलक एक अनुभवी सैनिक तथा सुलझा हुआ सेनानायक था। वह स्वामिभक्त पदाधिकारी तथा सफल सीमारक्षक की हैसियत से भी ख्याति प्राप्ति कर चुका था। उसमें वे सभी गुण विद्यमान थे, जो अच्छे शासक में होने चाहिए।”

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