Goverment of India act – 1858, 1892, 1919 and 1935

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Goverment of India act – 1858, 1892, 1919 and 1935

भारत शासन अधिनियम, 1858

30 मार्च, 1858 को स्टैनली द्वारा प्रस्तुत चौदह प्रस्तावों को कॉमन सभा ने पारित किया। इन प्रस्तावों के आधार पर 1858 ई० में भारत सरकार अधिनियम का प्रारूप तैयार हुआ और अन्त में ब्रिटिश संसद के द्वारा इसे विधेयक के रूप में पारित किया गया। 2 अगस्त, 1858 ई० को अधिनियम को सम्राज्ञी की स्वीकृति प्राप्त हो गई। इस प्रकार 1858 ई० के अधिनियम के परिणामस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त हुआ तथा साथ ही शासन के उन दोषों का भी, जिन्होंने कम्पनी की छवि को धूमिल कर दिया था। 1858 ई० के अधिनियम के अनुसार भारत का शासन कम्पनी के हाथों से ले लिया गया तथा इसको ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया गया। गवर्नर जनरल का नाम वायसराय रख दिया गया। कम्पनी की सम्पूर्ण सेनाएँ ब्रिटिश ताज के अधीन कर दी गईं। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लॉर्ड पामर्टन ने स्पष्ट किया कि दोहरे शासन के कारण इंग्लैण्ड में बहुत कठिनाई आती है। अत: शासन कार्य का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया गया, जो डायरेक्टर्स बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा भारत के गवर्नर जनरल के माध्यम से शासन-सूत्र का संचालन करने लगी।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892 ई०

1892 ई० का अधिनियम ब्रिटिश ताज के अधीन भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के विकास का दूसरा चरण था। 1861 ई० के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सेवाओं आदि में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का अभ्युदय हुआ तथा उनमें राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। 1885 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया गया। इसके द्वारा संवैधानिक सुधारों की माँग की गई। इन माँगों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश संसद ने 1892 ई० का भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया। 1892 ई० का अधिनियम केवल एक संशोधन विधेयक था; अत: भारत सरकार की संरचना प्रमुख रूप से 1861 ई० के अनुसार ही रही।

इस अधिनियम द्वारा तीन दिशाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए—(1) परिषदों के अधिकार में वृद्धि, (2) पार्षदों के संसदीय अधिकार में वृद्धि तथा (3) परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि।

भारतीय शासन अधिनियम, 1919 ई०

इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं-

(1) भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग बना रहेगा।

(2) ब्रिटिश सरकार का लक्ष्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है।

(3) उत्तरदायी शासन की स्थापना केवल विवेकपूर्ण विकास द्वारा होगी।

(4) उत्तरदायी शासन की स्थापना हेतु दो शर्ते अनिवार्य होंगी-प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों का विवेकपूर्ण सहयोग तथा स्वशासन की संस्थाओं का क्रमिक विकास। यह 1947 ई० तक भारतीय संवैधानिक कानून का आधार बना रहा। इसके द्वारा निर्धारित उद्देश्य अन्त तक भारत में ब्रिटिश नीति का लक्ष्य बने रहे।

द्वैध शासन

द्वैध (दोहरा) शासन 1919 ई० के अधिनियम की प्रमुख विशेषता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को पूर्ण सहयोग तथा सहायता इस आश्वासन के उपरान्त दी थी कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करेगी। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की इच्छाओं के विपरीत 1919 ई० में पारित किए गए अधिनियम में पूर्ण उत्तरदायी शासन के स्थान पर द्वैध शासन की व्यवस्था की। द्वैध शासन को मुक्त निरंकुश तन्त्र व उत्तरदायी शासन का मध्य मार्ग की संज्ञा जाती है। इस प्रकार उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए द्वैध शासन पहला कदम था। संयुक्त रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया कि प्रान्त ही वह क्षेत्र है, जहाँ उत्तरदायी सरकार की प्राप्ति के लिए प्राथमिक प्रयोग किए जाएंगे। 1919 ई० का अधिनियम भारतीय जनता की उत्तरदायी शासन की माँग तथा ब्रिटिश सरकार की कम-से-कम सत्ता हस्तान्तरण की इच्छा के बीच समन्वय था।

भारत शासन अधिनियम, 1935 ई०

कांग्रेस ने 1929 ई० में अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की माँग की थी। साइमन कमीशन की रिपोर्ट का सभी दलों ने विरोध किया। भारत के भावी संविधान की रचना हेतु गोलमेज सम्मेलनों को आयोजित किया गया, परन्तु यह प्रयास असफल रहा। अन्त में ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1933 ई० में एक श्वेतपत्र जारी किया। इस पर ब्रिटिश संसद की एक समिति ने विचार कर 1934 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसी रिपोर्ट के आधार पर संसद ने 1935 ई० का भारत शासन अधिनियम पारित किया।

1935 ई० के अधिनियम के सम्बन्ध में कोई नई घोषणा नहीं की गई। इसका वही लक्ष्य रखा गया जो 1919 ई० के अधिनियम का था। 1919 ई० के अधिनियम की प्रस्तावना को रद्द करने के स्थान पर 1935 ई० के अधिनियम के साथ सम्बद्ध कर दिया गया जिससे भारतीयों को यह ज्ञात रहे कि ब्रिटिश सरकार का अन्तिम लक्ष्य भारत में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना करना था।

संगठित राष्ट्रवाद का उद्भव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की रचना एवं इसके कार्यक्रम राजनीतिक चेतना का अर्थ राष्ट्रीयता की भावना के जागरण से है। जब किसी देश के नागरिकों में अपने राष्ट्र के प्रति चेतना अथवा प्रेम उत्पन्न हो जाता है तथा जब वे राष्ट्र की राजनीतिक एकता और स्वतन्त्रता के विषय में चैतन्य हो जाते हैं, तब हम उन्हें राष्ट्रीय जागरण की स्थिति में पाते हैं। राष्ट्रीय जागरण का केन्द्रीय शब्द ‘राष्ट्र’ है। राष्ट्र का तात्पर्य भावनात्मक एकता (Emotional Unity) से आबद्ध एक समूह है। इस भावनात्मक एकता का आधार धर्म, जाति, भौगोलिक परिस्थितियाँ, भाषा तथा सामान्य आपदाएँ हो सकती हैं। भारतीयों में जब राष्ट्र के नाम पर एकता का संचार हुआ तो राष्ट्रीय जागृति (चेतना) उत्पन्न हुई।

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का संचालन करने वाली संस्था कांग्रेस थी। इसका जन्म 1885 ई० में हुआ था। इसके जन्म के लिए अनेक तत्त्व तथा परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-

1. भारत में राष्ट्रीय चेतना का विकास-भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में राष्ट्रीय चेतना के विकास का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जब भारतीयों को अंग्रेजों की दमनकारी, शोषक तथा प्रजातीय भेदभाव की नीति से अनेक कष्ट हुए और उन्हें अपनी दुर्दशा का समुचित ज्ञान हुआ, तब उनके मस्तिष्क में यह विचार आया कि किसी ऐसी देशव्यापी संस्था का गठन होना चाहिए जो भारतीयों के कष्ट को दूर करा सके। राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने वाले विभिन्न तत्त्व अग्रलिखित थे-

(1) राजनीतिक एकता की स्थापना।

(2) धार्मिक तथा सामाजिक पुनर्जागरण।

(3) पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार।

(4) भारतीय समाचार-पत्र व देशी साहित्य का प्रभाव।

(5) अंग्रेजों की आर्थिक व जाति-विभेद नीति।

(6) लॉर्ड लिटन की दमनकारी नीति।

(7) इल्बर्ट विधेयक सम्बन्धी वाद-विवाद।

2. सर ए० ओ० ह्यूम का कांग्रेस की स्थापना में योगदान-इस दिशा में ठोस कदम उठाने में एक अवकाश-प्राप्त सरकारी अधिकारी ए० ओ० ह्यूम ने नेतृत्व प्रदान किया। उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जनक’ कहा जाता है। ह्यूम ने 1 मार्च, 1885 ई० को ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय’ में स्नातकों के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने देश के शिक्षित नवयुवकों से मातृभूमि के उत्थान के लिए प्रयत्न करने का आह्वान किया ताकि भारतीय राष्ट्र का बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक पुनर्जागरण हो सके और उसके लिए एक अनुशासित सुसज्जित सेना तैयार हो सके। उन्होंने पत्र में पचास ऐसे नवयुवकों की माँग की, जो सच्चे, नि:स्वार्थ, आत्मसंयमी और नैतिक साहस रखने वाले हों। पत्र का अन्त अत्यधिक प्रभावशाली और मर्मस्पर्शी था, जिसमें उन्होंने लिखा था-“आपके कन्धों पर रखा हुआ जुआ तब तक विद्यमान रहेगा, जब तक आप इस ध्रुव सत्य को समझकर उसके अनुसार कार्य करने को उद्यत न होंगे कि आत्मबलिदान तथा नि:स्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख तथा स्वतन्त्रता के अचूक पथ-प्रदर्शक हैं।”

इस पत्र का युवकों पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। ह्यूम ने अपनी योजना के बारे में वायसराय लॉर्ड डफरिन से बातचीत की। डफरिन ने उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनकर इसके कार्यक्षेत्र में वृद्धि का सुझाव दिया। ह्यूम अपनी योजनाओं को लेकर ब्रिटेन गए। वहाँ पर लॉर्ड रिपन, लॉर्ड डलहौजी आदि बड़े नेताओं से विचार-विमर्श कर वे दिल्ली लौटे और इसके पश्चात् 1885 ई० में बड़े दिन के अवकाश में कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन का निश्चय किया गया। वस्तुत: यह समस्त कार्य सरकारी आशीर्वाद से किया गया था। इस सम्बन्ध में कूपलैण्ड ने लिखा है, “भारतीय राष्ट्रीयता ब्रिटिशराज की शिशु थी और ब्रिटिश अधिकारियों ने उसके पालन को आशीर्वाद दिया।’

3. प्रान्तीय संस्थाओं की स्थापना-भारत के विभिन्न प्रान्तों में राष्ट्रीय चेतना के विकास के परिणामस्वरूप राजनीतिक संगठनों की स्थापना प्रारम्भ हो गई थी, जिन्हें कांग्रेस का पूर्ववर्ती संगठन कहा जा सकता है। इनमें प्रमुख संगठन निम्नलिखित हैं-

(i) ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन-इसकी स्थापना अक्टूबर 1851 ई० में की गई थी। यह एसोसिएशन वस्तुत: दो संस्थाओं ‘लैण्ड होल्डर्स सोसायटी’ और ‘ब्रिटिश इण्डियन सोसायटी’ के विलय से बनी थी।

(ii) इण्डियन लीग-इसकी स्थापना 1875 ई० में बंगाल के प्रगतिशील व्यक्तियों द्वारा की गई थी।

(iii) इण्डियन एसोसिएशन-इसकी स्थापना 26 जुलाई, 1876 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) के इल्बर्ट हॉल में हुई थी। इसकी स्थापना में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का सर्वाधिक योगदान था।

(iv) बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन-इसकी स्थापना बम्बई (मुम्बई) में की गई थी।

(v) पूना सार्वजनिक सभा-1867 ई० में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा इसकी स्थापना की गई थी।

उपर्युक्त संस्थाओं ने एक विस्तृत राष्ट्रीय संस्था के गठन का मार्ग तैयार कर दिया।

4. मद्रास में दीवानबहादुर रघुनाथराव के निवास स्थान पर 17 प्रमुख व्यक्तियों का सम्मेलन-मद्रास में 1884 ई० में थियोसोफिकल सोसायटी’ के ‘अड्यार अधिवेशन’ के पश्चात् देश के विभिन्न भागों के 17 प्रमुख व्यक्ति दीवानबहादुर रघुनाथराव के निवास स्थान पर एकत्र हुए और उन्होंने देशव्यापी संस्था के गठन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। कांग्रेस की स्थापना में इन 17 व्यक्तियों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। श्रीमती ऐनी बेसेण्ट के अनुसार, “राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म मातृभूमि की रक्षा के हित में 17 प्रमुख भारतीयों तथा ह्यूम साहब के द्वारा हुआ था।”

5. इल्बर्ट विधेयक पर प्रतिक्रिया-इल्बर्ट विधेयक सम्बन्धी विवाद से भारतीयों को यह ज्ञान हुआ कि संगठन में शक्ति होती है तथा अपनी माँग मनवाने के लिए हमें भी उसी प्रकार संगठित होना चाहिए, जिस प्रकार अंग्रेज इल्बर्ट विधेयक का विरोध करने के लिए संगठित हुए थे। सर हेनरी कॉटन के शब्दों में, “इस विधेयक के विरोध में किए गए यूरोपीय आन्दोलन ने भारत की राष्ट्रीय विचारधारा को जितनी एकता प्रदान की, उतनी तो विधेयक पारित होकर भी नहीं कर सकता था।’ जन-जागृति उत्पन्न करने और राष्ट्रीय आन्दोलन को दिशा प्रदान करने में इल्बर्ट बिल की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रही। इस प्रकार इस विधेयक का प्रभाव भारतीयों पर यह हुआ कि वे बहुत शीघ्र ही संगठित हुए और 1885 ई० में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना हुई।

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