Problems of Medieval Historiography

मध्यकालीन इतिहास लेखन-विधा  की समस्याएँ (Problems of Medieval Historiography)

अरब आक्रमण के समय से ही इतिहास लेखन में अनेक समस्याओं की शुरुआत दिखाई पड़ती है। अलबरूनी से लेकर मिनहाज-उस-सिराज, अमीर खुसरो, बरनी, इब्नबतूता, शम्से-सिराज अफीफ, याहिया-बिन-अहमद सरहिन्दी, अहमद यादगार और फरिश्ता के काल में जहाँ भारतीय इतिहास तमाम उतार-चढ़ाव के साथ एक नए रूप में स्पष्ट होता है, वहीं मध्यकालीन इतिहास में इस्लामी विचारधाराओं का प्रभाव, अतिशयोक्ति, राजभक्ति, प्रजा के प्रति उदासीनता और सांस्कृतिक इतिहास का अभाव परिलक्षित होता है।

(1) अमीर खुसरो ने अनेक साहित्यिक व ऐतिहासिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। मूलत: वे कवि थे। अलाउद्दीन खिलजी के समय में रचित उनके 92 ग्रन्थों में से अधिकांश अब उपलब्ध नहीं हैं। खुसरो को भारतीय होने के कारण स्वयं पर गर्व था। उन्होंने हिन्दी में भी लिखा है। वे हिन्दी भाषा में लिखने वाले प्रथम कवि थे। उनकी अलंकृत शैली है, जो ऐतिहासिक तथ्यों को संदिग्ध बना देती है। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रकाश डाला था।

(2) सत्य का महत्त्व-बरनी ने ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ की भूमिका में इतिहास, इसकी उपयोगिता व इतिहास लेखन और उसमें सत्य के महत्त्व को विस्तार से लिखा। अन्य समकालीन इतिहासकारों की तुलना में वह अधिक उदार है। जहाँ उसका पूर्वगामी मिनहाज-उस-सिराज (तबकाते-नासिरी) साधारण, आकर्षणहीन व शुष्क है, निजामी मात्र राजाओं का कथाकार है, बरनी नि:सन्देह उनसे श्रेष्ठ है। बाद के इतिहासकारों में केवल अबुल फजल अपने शाश्वत दृष्टिकोण के कारण ही उससे कहीं श्रेष्ठ साबित होता है।

बरनी ने लिखा है कि इतिहास पुराने समय के सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, उचित और अनुचित का लेखा-जोखा है, लेकिन इतिहासकार को मात्र सत्य का लेखक होना चाहिए। तारीख-ए-फिरोजशाही’ को लिखने में उसने बड़ा कष्ट उठाया था। उसने बलबन की मोहम्मद को नसीहत, जलालुद्दीन की अहमद चप से तथा काजी मुगीस बयाना की अलाउद्दीन से वार्ता को विस्तार से लिखकर राज्य के प्रति अपने दृष्टिकोण का संकेत दिया है।

अपनी कठिनाइयों के बाद भी वह फिरोज की प्रशंसा करता है। ‘फतवा-ए-जहाँदारी’ के आधार पर उसे राजनीतिक दार्शनिक नहीं माना जा सकता। उसके पात्र यथार्थवादी हैं, उसके द्वारा की गई आलोचना न्यायसंगत व निष्पक्ष है। उसके ग्रन्थों में विवरण छानबीनकर नहीं रखे गए हैं और कभी-कभी वह परस्पर विरोधी विवरण भी देता है। बरनी दरबारी इतिहासकार नहीं

(3) इब्नबतूता ने बरनी की तुलना में तथ्यों के प्रति नई व सही सूचना प्राप्त की और . तत्कालीन सामाजिक दशा व दैनिक जीवन का चित्रण किया। वह मुखर वक्ता और अपनी त्रुटियों को स्वीकार करने वाला था। उसने अफवाहों पर शीघ्र विश्वास किया, जिससे इ कहीं-कहीं वह सन्देहास्पद हो जाता है।

उसने शृंखलाबद्ध इतिहास नहीं लिखा है फिर भी उसमें वास्तविकता अपेक्षाकृत अधिक है। उसकी निष्पक्षता के कई उदाहरण मिलते हैं। उसने अपना यात्रा-विवरण बड़ी ईमानदारी से लिखा है। अन्य इतिहासकारों ने भी उसके द्वारा वर्णित तथ्यों का समर्थन किया है। इसी से ‘रेहला’ को तो इतिहास की एक खान कहा गया है।

(4) मुस्लिम काल की स्थापना के बाद नई परम्पराओं का उदय हुआ, जिनमें ऐतिहासिक ग्रन्थों में वृद्धि के साथ-साथ उनके आकार-प्रकार में भी वृद्धि हुई। मुस्लिमों को सदा से इतिहास का व्यापक ज्ञान रहा है। हजरत साहब के समय से ही इस्लाम पर लेखन शुरू हो गया था। प्रारम्भ में यह सब अरबी में लिखा जाता था। इस्लाम जब अरब से बाहर निकला तो उसके साथ ही इतिहास लेखन की परम्पराएँ भी नए क्षेत्रों में स्थापित हुईं, और वहाँ इस्लाम ने अपना राजनीतिक व धार्मिक प्रभाव स्थापित किया।

(5) इस्लामी मान्यताओं में हनफी व हम्बली विचारधाराओं में इतिहास लेखन अधिक रुचिकर रहा है। अरबी, फारसी के बाद इतिहास लेखन का माध्यम तुर्की था। फारसी भी साथ-साथ चलती रही। इतिहास लेखन के माध्यम के रूप में फारसी 10वीं शती से अरबी की बगल में आ गई और जब मुसलमान भारत आए तो फारसी में इतिहास लेखन की परम्पराएँ भी साथ लाए। फलस्वरूप अगली कई शताब्दियों में क्षेत्रीय वंशों का इतिहास साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया, जिसमें जीवनी व संस्मरण भी थे।

(6) इस काल में इतिहासकारों की कुछ विशेष समस्याएँ भी थीं। प्रोफेसर मोहिबुल हसन के अनुसार—“मध्यकाल में इतिहास लिखने वालों ने बड़ी मेहनत और ईमानदारी से यह काम शुरू किया था और इतिहास के विषय में उनके विचार बड़े ऊँचे थे। जैसे कि बरनी इतिहास व ‘इल्म-उल-हदीस’ को समकक्ष मानता है। वह विश्वास करता है कि इतिहासकार को सत्य के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। उसे अतिशयोक्ति, द्वेष व असत्य से ऊपर उठना चाहिए। अनायास प्रशंसा या तत्त्वों को अनावश्यक रूप से दबाने, घटाने या बढ़ाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।” लेकिन इसके बावजूद भी मध्यकालीन इतिहासकारों ने यह मापदण्ड पूर्णत: नहीं अपनाया।

(7) अधिकांश इतिहासकार किसी-न-किसी दरबार से सम्बद्ध थे और उनके आश्रय में उन्होंने लिखा; अत: स्वाभाविक है कि जो वे वास्तविक रूप से सत्य समझते थे या वे जिस सत्य का अनुभव करते थे, उससे पृथक् होकर उन्होंने वह लिखा जो उनके शासकों व संरक्षकों को रुचिकर था।

अत: मध्यकालीन इतिहास लेखन की मुख्य समस्याएँ वे रुझानात हैं जिनसे प्रभावित होकर इतिहासकारों को लिखना पडा। जैसा कि अधिकांश दतिताराकानों ने का गुणगान किया है, जिनके संरक्षण में उन्होंने उनके काल का इतिहास लिखा; अत: वास्तविकता को जानने में कुछ कठिनाई होती है।

(8) इतिहासकार सामान्यतः उच्च वर्ग से सम्बद्ध थे और उनको राजदरबारों का आश्रय प्राप्त था; अत: इन लोगों ने शासकों का इतिहास तो लिखा लेकिन सामान्य लोगों के जीवन और उनकी दशा के बारे में लगभग नहीं के बराबर लिखा है। मुख्यत: इनके इतिहास का स्वरूप राजनीतिक घटनाओं से सम्बद्ध है, पर उन घटनाओं के पीछे जो सामाजिक व आर्थिक तत्त्व विद्यमान थे उनका कोई विवेचन इन इतिहासकारों ने नहीं किया है। सभी इतिहासकार इस्लाम की उच्चता में विश्वास रखते थे; अत: शासकों के जीवन-वृत्त के विवेचन में भी एक अन्तर मिलता है।

(9) इतिहासकारों पर उनके निजी द्वेष-भाव एवं व्यक्तिगत मान्यताओं का प्रभाव भी दृष्टिगत होता है। जैसे—समकालीन इतिहासकारों में से किसी ने भी रजिया के व्यक्तित्व व शासनकाल की समुचित जानकारी नहीं प्रस्तुत की। इसके विपरीत, याकूत के सम्बन्ध को अत्यन्त आलोचनात्मक दृष्टिकोण से लिखा है। इस पहलू को उजागर न करने का कारण धार्मिक और जातीय भावना भी है।

(10) इतिहासकारों की भाषा व घटनाओं के विवरण में उनकी व्यक्तिगत मान्यताएँ झलकती हैं। ये व्यक्तिगत मान्यताएँ या तो अत्यन्त प्रशंसा से भरी हैं या कठोर रूप से आलोचनात्मक तथापि दोनों ही स्थितियों में उनका विवरण वास्तविक परिस्थिति के अनुकूल नहीं है। मध्यकालीन इतिहासकारों की कुछ सीमा है। अमीर खुसरो को छोड़कर किसी ने भी भारतीयता के अध्ययन व भारतीयता को प्रदर्शित नहीं किया जबकि भारतीय संस्कृति व सभ्यता का अधिकतर इतिहासकारों ने अध्ययन किया है। यद्यपि मुस्लिम शासन की स्थापना से पूर्व 11वीं शती में अलबरूनी ऐसा ज्वलन्त उदाहरण है जिसने भारत, भारतीय संस्कृति व भारतीय साहित्य का गहन अध्ययन करने के पश्चात् भारत का इतिहास लिखा। अत: इन इतिहासकारों ने जब लिखा तो अमीर खुसरो को छोड़कर किसी ने न तो अपने को भारतीय माना और न भारतीयता के गौरव का ही आभास किया। इस कारण से भारत का व्यापक रूप में दिग्दर्शन करा पाने में ये इतिहासकार असमर्थ रहे तथा एकाकी रूप से इनकी समस्त रचनाएँ मात्र इस्लाम का गुणगान करने के लिए ही रची गईं और इसी क्षेत्र तक सीमित रह गईं।

(11) इस्लाम धर्मानुयायी-सल्तनतकाल के सभी फारसी इतिहासकार इस्लाम धर्मानुयायी थे एवं समकालीन इस्लामी परम्पराओं में पूरी निष्ठा रखते थे। इनमें अधिकतर उलेमा थे। ये प्रत्येक घटना का इस्लामी धर्मशास्त्र के नियमों के आधार पर आकलन करते थे। वे सल्तनत को धर्मतन्त्र का आधार भी मानते थे। इस कारण, यदि कोई शासक इसके विपरीत कार्य करता था और मुसलमानों के साथ इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुरूप व्यवहार नहीं करता था तो वे उसकी आलोचना करते थे। हिन्दुओं के प्रति वे साधारणतया कटु थे। उदाहरणार्थ अलाउद्दीन खिलजी के साथ काजी मुगीसुद्दीन के कार्यों का वर्णन बरनी अपने विचारों के आधार पर करता है।

(12) तेरहवीं शताब्दी के भारत में आक्रमणकारी मुसलमान एवं शासक तुर्क थे। अधिकतर उमरा-अमीर भी उसी प्रजाति के थे। भारतीय मूल के मुसलमानों पर कट्टर शासकों का विश्वास कम था, किन्तु अपनी योग्यता के बल पर ये उच्च पदों पर नियुक्त होने में सफल रहे। इससे तुर्क प्रजातीय वंशज नाराज हुए। बलबन के काल में रेहान का उत्कर्ष इन्हीं भारतीय मुसलमानों के दल की विजय थी, जिसका विरोध तुर्की उमराओं ने किया।

इस तरह प्रजाति के आधार पर उमराओं का विभाजन प्रारम्भ हुआ। दिल्ली सल्तनत के इतिहासकार तुर्क प्रजाति के होने के कारण, इन गैर-तुर्की वंशज मुसलमानों के उत्कर्ष का वर्णन इसी प्रजाति के पूर्वाग्रह के आधार पर करते हैं, जिसको ध्यान में रखकर ही उस काल का घटनाओं को समझा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप मिनहाज-उस-सिराज मानता था कि शासन के समस्त अधिकार केवल तुर्कों को ही प्राप्त होने चाहिए। इसीलिए उसने इमादुद्दीन रेहान नव तुर्क के चरित्र-चित्रण में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया। निजामी के मिनहाज-उस-सिराज ने तुकी शासक वर्ग की प्रत्येक बात को उचित सिद्ध करने का प्रयास किया। बरनी तो इन निम्न वर्ग के लोगों के लिए गन्दे शब्दों का प्रयोग करता है और आश्चर्य करता है कि मुहम्मद-बिन-तुगलक जैसे विद्वान् शासक ने कैसे इन निम्नवर्गीय लोगों को राजसी पदों पर नियुक्त किया।

(13) जनजीवन की उपेक्षा–साधारण जनता, हिन्दू राजाओं व कृषकों की दशा का अल्प वर्णन है। केवल अमीर खुसरो ने ही इनका विस्तृत वर्णन किया है। हिन्दुओं के प्रति का सहिष्णु होने के कारण उनकी सामाजिक-आर्थिक जीवन शैली, रीति-रिवाज, उत्सव एवं त्योहार, धार्मिक कर्मकाण्ड आदि का वर्णन नगण्य है; अत: इन विषयों की जानकारी के लिए इन ग्रन्थों का सूक्ष्मता से अध्ययन करना चाहिए एवं हिन्दुओं की जीवन-शैली के परोक्ष विवरणों के तुलनात्मक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन द्वारा अपना निष्कर्ष निकालना चाहिए।

(14) राजवंशों की प्रधानता–सभी इतिहासकारों ने मुख्य रूप से राजनीति सम्बन्धी घटनाओं का ही वर्णन किया है। अधिकतर लेखक राज-दरबार से सम्बन्धित थे। उनके लेखन का मुख्य केन्द्र राजदरबार, उमरा, उनके क्रियाकलाप, जीवन, मजलिसों, भोग-विलास, पारस्परिक संघर्ष तथा राजदरबार के षड्यन्त्र हैं। इस तरह ये लेखक मूलत: शासक वर्ग के इतिहास का वर्णन करते हैं। राज्याभिषेकों, विजयों, आन्तरिक एवं बाह्य विद्रोहों के वर्णन पर विशेष ध्यान दिया गया।

(15) स्रोत–मध्यकालीन इतिहास लेखन में इतिहास के स्रोत भी समस्या का कारण रहे हैं, क्योंकि स्रोतों के प्रति इतिहासकारों के दृष्टिकोण एक-दूसरे से पृथक् रहे हैं। मिनहाज-उस-सिराज ने केवल इतना लिखा कि विश्वसनीय इतिहासकारों के ऐतिहासिक ग्रन्थों, समकालीन घटनाओं और अपनी स्मृति के आधार पर मैंने इस इतिहास को लिखा। इसी प्रकार याहिया-बिन-अहमद भी अपने इतिहास के स्रोतों की पूर्ण सूचना नहीं देता। बरनी की धारणा थी, “इतिहास एक विज्ञान है, जिसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं।’ अबुल फजल भी इसी मान्यता को स्वीकार करता है। अत: मध्यकालीन ग्रन्थों के मूल्यांकन सम्बन्धी स्रोतों का मूलत: अभाव है।

(16) कालक्रम की समस्या-मध्यकालीन इतिहास लेखन में कालक्रम निर्धारण की अपनी अलग समस्या है। मिनहाज-उस-सिराज ने ‘तबकात-ए-नासिरी’ की रचना वंशक्रम में की है, जबकि बरनी ने प्रत्येक शासक का पृथक् विवरण प्रस्तुत किया। प्रत्येक घटना से वह किसी उपदेश (Moral) की अपेक्षा रखता है। तिथियों के प्रति वह प्राय: उदासीन दिखाई पड़ता है। याहिया-बिन-अहमद ने अपनी रचना को शासन के वर्षों में विभक्त किया और प्रत्येक वर्ष का शासन एक पूर्ण इकाई के रूप में प्रस्तुत किया। मिनहाज-उस-सिराज ने कई बार घटनाओं की क्रमबद्धता को तोड़ा है तो कई बार एक ही घटना की कई राजवंशों में पुनरावृत्ति भी हो गई है, जिससे कालक्रम निर्धारण में बाधा उत्पन्न हुई है। बरनी, जिसे सल्तनत काल का श्रेष्ठ इतिहासकार माना जाता है, भी घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत नहीं करता; कुछ घटनाएँ विस्तृत हैं तो कुछ का खण्डित विवरण हैं। इसी प्रकार अमीर खुसरो प्राचीन घटनाओं की तिथियाँ नहीं देता, परन्तु उसकी ‘खजाइन’ को डॉ० ईश्वरी प्रसाद; अलाउद्दीन के शासनकाल के तिथि-निर्धारण में एक सहायक ग्रन्थ मानते हैं।

(17) कारणवाद-इतिहास में कारण का भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। मध्यकालीन इतिहासकार प्राय: अल्लाह पर विश्वास करते थे इसलिए उन्होंने प्राय: कारण को ईश्वरेच्छा स्वीकार कर लिया। उदाहरणस्वरूप मिनहाज-उस-सिराज कहता है, “ईश्वरेच्छा ही घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्ध को नियन्त्रित करती है।” परन्तु बरनी ने अलाउद्दीन के बाजार नियन्त्रण का कारण यह दिया कि वह कम खर्च में एक विशाल सेना रखना चाहता था, जबकि याहिया-बिन-अहमद ने कार्य-कारण की समस्या को स्पर्श ही नहीं किया। अमीर खुसरो के लिए तो इतिहास निरीक्षण एवं परीक्षण का विषय ही नहीं था। उसने इसे सुल्तान की प्रशंसा के लिए लिखा था। कट्टर सुन्नी होने के कारण घटनाओं का कार्य-कारण सम्बन्ध बदायूँनी की धार्मिक निष्ठा से प्रभावित था इसलिए मध्यकालीन इतिहास में कारणवाद की समस्या बनी रही।

(18) चाटुकारिता एवं अतिशयोक्ति-इस युग के अधिकांश ग्रन्थ राजाज्ञा से लिखे गए या वे सुल्तानों को समर्पित थे इसलिए सम्राटों या सुल्तानों की प्रशंसा इनके प्रधान विषय थे। प्रशंसात्मक कृतियाँ होने के कारण इनमें अतिशयोक्ति की प्रचुरता है; अतः इनके मूल्यांकन एवं परीक्षण के लिए अन्य सहयोगी, पूरक एवं आनुषांगिक साक्ष्यों की सर्वदा अपेक्षा रहती है। इन साक्ष्यों के प्रकाश में ही इनकी सही व्याख्या की जा सकती है।

दूसरी ओर, इन ग्रन्थों में किसी सामान्य एवं महत्त्वहीन घटना का विशद वर्णन है तो किसी महत्त्वपूर्ण घटना का अति संक्षिप्त उल्लेख है। कभी-कभी अति महत्त्वपूर्ण घटना को एकदम छोड़ दिया गया है। इस प्रकार इन ग्रन्थों में सन्तुलित विवरण का अभाव है।

(19) भाषा एवं शब्दावली-मध्यकालीन फारसी लेखकों की भाषा पूर्णत: आलंकारिक तथा व्यंजनात्मक है। विशेषकर हसन निजामी ने साधारण बात कहने के लिए भी क्लिष्ट एवं आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया। अमीर खुसरो, जिसे हिन्दुस्तान से प्रेम था, ने भी इतिहास की घटनाओं को साहित्यिक आवरण एवं छन्द-अलंकारों से ऐसा रँग दिया है कि अनेक स्थलों पर ऐतिहासिक घटना का निरूपण कर पाना भी कठिन हो जाता है।

इन ग्रन्थों में मध्य युग में प्रयुक्त होने वाली फारसी भाषा की शब्दावली का बाहुल्य है। उन शब्दों को आधुनिक सन्दर्भ में लिया ही नहीं जा सकता, क्योंकि उनकी मान्यता एवं मूल्य इस्लामी हैं; अत: इनका अर्थ एवं इनसे इतिहास गढ़ते समय उस युग एवं इस्लाम की मान्यताओं को समझना आवश्यक है।

उपर्युक्त सीमाओं एवं समस्याओं के होते हुए भी इन ग्रन्थों का अपना महत्त्व है। इनकी सहायता के बिना मध्यकालीन इतिहास का निर्धारण असम्भव है।

Imporant short questions

प्रश्न 1-बरनी के इतिहास लेखन  की उपयोगिता लिखिए।

उत्तर—’तारीख-ए-फिरोजशाही’ में बरनी लिखता है कि उसने हर एक विषय के बहुत-से ग्रन्थों को पढ़ा है, किन्तु कुरान, हदीस तथा सूफी-सन्तों के अतिरिक्त इतिहास से बढ़कर किसी भी ज्ञान में इतना लाभ और उपलब्धि नहीं पाई।

अपने जीवन में उसका दिल्ली के सभी प्रमुख विद्वानों से सम्पर्क हुआ -‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में वह अरब तथा ईरान के प्रमुख इतिहासकारों एवं उनके थालेखन की विवेचना करता है। दिल्ली सल्तनत के अपने पूर्व के इतिहासकारों का भी वह उल्लेख करता है। इससे उसका इतिहास-प्रेम स्पष्ट हो जाता है।

वह इतिहास के अध्ययन के सात गुणों का उल्लेख करता है—इसमें भगवान्, नबियों, सर्वोत्तम प्राणियों, बादशाहों का हाल होता है जिससे हमें शिक्षा प्राप्त करने की सामग्री प्राप्त होती है। हदीस और इतिहास जुड़वाँ भाई हैं। यह सर्वोत्तम ज्ञान है। प्राचीन घटनाओं के ज्ञान से पढ़ने वाले अपना कार्य सावधानी से करते हैं।

इतिहास के ज्ञान से बहुत-सी घटनाओं का पता उनके घटने के पूर्व ही चल जाता है। मुहम्मद साहब किस तरह से कष्टों से ग्रस्त रहे इसे पढ़कर इस्लाम धर्मानुयायी विपत्तियों तथा आकस्मिक घटनाओं से नहीं घबराते। इसे पढ़ने वाले मनुष्य दुराचार के परिणाम जानकर नम्र हो जाते हैं।

‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ में वह लिखता है, “मैंने जो कुछ इतिहास में लिखा है, वह सच-सच लिखा है और उस पर विश्वास किया जा सकता है।” बरनी के अनुसार, इतिहास के अध्ययन से पाठकों को शिक्षा मिलती है। राज-व्यवस्था से लाभ-हानि, शासन-प्रबन्ध की भलाई-बुराई का ज्ञान हो जाता है। लोग हृदय से सदाचारी बनने का प्रयत्न करते हैं और दुराचार से बचते हैं।

प्रश्न 2-टिप्पणी लिखिए-आईन-ए-अकबरी। .

उत्तर- आईन-ए-अकबरी

आईन-ए-अकबरी’ अबुल फजल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। ‘अकबरनामा’ के तीसरे खण्ड के रूप में इसे उसका पूरक ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। इसमें अकबरकालीन मुगल साम्राज्य का सांख्यिकीय सर्वेक्षण किया गया है। अकबर की संस्थाओं का विवरण और उसके भारतीय साम्राज्य की ऐतिहासिक एवं भौगोलिक स्थितियों का विस्तृत विवरण इस पुस्तक में मिलता है। वास्तव में यह पुस्तक सूचनाओं (जानकारियों) का स्रोत है। इसमें नियम, . उपनियम, अधिनियम, भौगोलिक स्थिति, राजस्व व्यवस्था, लोगों की सामाजिक स्थिति, उनके रीति-रिवाज आदि की जानकारी मिलती है। ‘आईन-ए-अकबरी’ की विषय-वस्तु वही है जो आजकल प्रशासकीय रिपोर्टों, सांख्यिकीय सार एवं गजट आदि की होती है।

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