Bcom 1st Year Distinctions between Perfect and Imperfect Competition
पूर्ण तथा अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर
व्यावहारिक जीवन में अपूर्ण प्रतियोगिता ही पायी जाती है, पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार की स्थिति नहीं। यदि हम पूर्ण तथा अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थितियों पर दृष्टि डालें, तो हम दोनों में निम्नलिखित अन्तर पाते हैं –
(1) पूर्ण प्रतियोगिता एक काल्पनिक स्थिति है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता एक व्यावहारिक तथा वास्तविक स्थिति है।
(2) पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि क्रेता तथा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से मूल्य को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होते। इसके विपरीत, अपूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता तथा विक्रेता अधिक संख्या में नहीं होते, अत: वे मूल्य को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखते हैं।
(3) पूर्ण प्रतियोगिता एक प्रतिनिधि स्थिति है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में प्रतिनिधि स्थिति नहीं है वरन् उसमें कई स्थितियाँ पायी जाती हैं जैसे जब अर्थव्यवस्था में काफी उत्पादक होते हैं तथा प्रत्येक उत्पादक एक सीमा तक एकाधिकारी तत्त्व प्राप्त कर लेता है और साथ-ही ऐसी वस्तु का उत्पादन करता है जिससे बाजार में प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता हो (साथ-ही बाजार में वस्तु-विभेद की स्थिति भी पायी जाती हो) तो उस दशा को एकाधिकृत प्रतियोगिता कहा जाता है। जब अर्थव्यवस्था में केवल कुछ ही उत्पादक अथवा विक्रेता होते हैं तो उसे अल्पाधिकार की संज्ञा दी जाती है। इसके अलावा जब बाजार में वस्तु के केवल दो ही विक्रेता हों तो उसे द्वयाधिकार कहा जाता है। यह तो विक्रेताओं की दृष्टि से अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थितियाँ हुईं। क्रेताओं की दृष्टि से भी इसी प्रकार की स्थितियाँ हो सकती हैं। |
(4) पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु एकरूप (Homogeneous Product) होती है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु विभेद (Product differentiation) की स्थिति पायी जाती है।
पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ एवं परिभाषाएँ | (Meaning and Definitions of Perfect Competition)
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति है जिसमें कोई भी क्रेता अथवा विक्रेता वस्तु-विशेष की कीमत अपने क्रय-विक्रय द्वारा प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता। तकनीकी रूप में, पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में, प्रत्येक क्रेता पूर्णतया लोचदार पूर्ति की स्थिति का और प्रत्येक विक्रेता पूर्णतया लोचदार माँग की स्थिति का सामना करता है। | श्रीमती जोन रोबिन्सन के शब्दों में, “पूर्ण प्रतियोगिता वह स्थिति होती है जबकि प्रत्येक उत्पादक के उत्पादन की माँग पूर्णतया लोचदार होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रथम तो विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है, जिससे किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के । कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है तथा दूसरे सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं के बीच चयन की दष्टि से समान होते हैं. जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।” जो इस विचारधारा किया। उन्होंने बताया ना है और न केवल पति) संयुक्त रूप से (Marginal Utility) को मूल्य निर्धारण का प्रमुख आधार मानते थे। इस दिन प्रतिपादकों में प्रो० जेवन्स, वालरस, मेन्जर, वीजर आदि प्रमुख अर्थशास्त्री थे।
प्रो० मार्शल ने दोनों विचारधाराओं को परखा और उनमें समन्वय किया। कि वस्तु का मूल्य न तो केवल उत्पादन लागत (पूर्ति पक्ष) द्वारा निर्धारित होता है और सीमान्त उपयोगिता (माँग पक्ष) द्वारा ही, अपितु दोनों शक्तियाँ (माँग व पूर्ति) संयक्त मूल्य का निर्धारण करती हैं। स्वयं प्रो० मार्शल के शब्दों में- “जिस प्रकार कागज के सम्बन्ध में हम यह विवाद कर सकते हैं कि कैंची का ऊपर या नीचे का फलक की काटता है, उसी प्रकार मूल्य निर्धारण में कहा जा सकता है कि मूल्य उपयोगिता से उत्पादन लागत से निर्धारित होता है।” जबकि वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार का काटने के लिए कैंची के दोनों फलक आवश्यक हैं, ठीक उसी प्रकार वस्तु के मूल्य निर्धारण माँग (उपयोगिता) तथा पूर्ति (उत्पादन लागत) का सहयोग आवश्यक है।
बाजार में किसी भी वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ वस्त की (Demand) और पूर्ति (Supply) एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। यह बिन्दु साम्य बिन (Equilibrium Point) तथा यह मूल्य साम्य मूल्य (Equilibrium Price) कहलाता है
अतः साम्य मूल्य का निर्धारण माँग व पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है जो क्रमश: उपयोगिता (Utility) तथा उत्पादन लागत (Cost of Production) का प्रतिनिधित्व करती हैं।
माँग शक्ति (Demand Force)-
वस्तु की माँग क्रेता वर्ग के द्वारा की जाती है क्योंकि वस्तु में उपयोगिता (Utility) होती है। प्रत्येक क्रेता के लिए मूल्य की एक अधिकतम सीमा होती है, जो वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है। अन्य शब्दों में, कोई भी क्रेता वस्तु के लिए जो मूल्य देने के लिए तैयार होता है वह वस्तु का माँग मूल्य (Demand Price) कहलाता है।
वस्तु की माँग ‘माँग के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है अर्थात् ऊँची कीमत पर वस्तु की माँग कम तथा नीची कीमत पर वस्तु की माँग अधिक होती है। जिस कीमत पर वस्तु-विशेष की एक विशेष मात्रा क्रेता क्रय करने के लिए तत्पर होता है उसे माँग मूल्य कहा जाता है। प्रत्येक क्रेता की अपनी एक माँग सूची होती है, जो यह प्रदर्शित करती है कि विभिन्न मूल्यों पर क्रेता वस्तु की कितनी-कितनी मात्रा खरीदेगा। व्यक्तिगत माँग सूचियों के आधार पर बाजार माँग सूची का निर्माण किया जा सकता है।
पूर्ति शक्ति (Supply Force)-
वस्तु की पूर्ति के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं प्रथम, उत्पादक अथवा विक्रेता वस्तु का मूल्य क्यों लेता है। द्वितीय, उत्पादक अथवा विक्रेता वस्तु का कम-से-कम कितना मूल्य लेना चाहेगा। प्रथम कथन के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि चूंकि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में कुछ-न-कुछ लागत अवश्य आती है, अत: उत्पादक वस्तु का मूल्य लेता है। द्वितीय कथन के अनुसार उत्पादक वस्तु का मूल्य वस्तु की सीमान्त लागत के बराबर अवश्य लेगा। इस प्रकार मूल्य की निम्नतम सीमा वस्तु की सीमान्त लागत द्वारा निर्धारित होती है।
जहाँ तक पूर्ति का प्रश्न है, पूर्ति ‘पूर्ति के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है। अन्य शब्दों में, ऊंची कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा तथा नीची कीमत पर वस्तु की कम मात्रा बेचने के लिए प्रस्तुत की जाएगी। जिस कीमत पर विक्रेता वस्तु की एक निश्चित मात्रा बेचने को तैयार होता है उसे पूर्ति मूल्य कहकर पुकारा जाता है। प्रत्येक उत्पादक या विक्रेता की एक पूर्ति अनुसूची होती है जो यह स्पष्ट करती है कि एक विक्रेता विभिन्न मूल्यों पर वस्तु की कितनी मात्रा बेचने के लिए तैयार है। व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूचियों की सहायता से बाजार पूर्ति अनुसूची का निर्माण किया जा सकता है।
मूल्य निर्धारण (Price Determination)-
मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, “वस्तु का मूल्य सीमान्त उपयोगिता तथा सीमान्त उत्पादन व्यय के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।” इस कथन का अभिप्राय यह है कि क्रेता की दृष्टि से मूल्य की अन्तिम सीमा वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है, जबकि विक्रेताओं की दृष्टि से सीमान्त लागत मूल्य की निम्नतम सीमा का निर्धारण करती है। प्रत्येक क्रेता वस्तु का कम-से-कम मूल्य देना चाहता है तथा विक्रेता वन्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है, अत: दोनों पक्ष (क्रेता व विक्रेता) सौदेबाजी करते हैं और अन्त में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु (जिसे साम्य अथवा सन्तुलन बिन्दु कहते हैं) पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की माँग वस्तु की पूर्ति के ठीक बराबर होती है। इसी बिन्दु को सन्तुलन मूल्य (Equilibrium Price) कहा जाता है।
उदाहरण तथा रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण (Explanation by example and through Diagram)
बाजार में माँग व पूर्ति की स्थिति एवं साम्य मूल्य का निर्धारण-माना विभिन्न मूल्यों पर किसी बाजार में किसी समयावधि में माँग तथा पूर्ति की स्थिति निम्नांकित तालिकानुसार है
मांग तथा पूर्ति वक्र रेखाओं को खींचने पर हम यह देखते हैं कि माँग व पूर्ति की रेखाएँ एक-दूसरे को साम्य बिन्दु पर काटती हैं और यह साम्य बिन्दु ₹ 2 प्रति किलोग्राम मूल्य निर्धारित करता है। यही वस्तु का सन्तुलन मूल्य है।