Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
अधिकार का अर्थ
(Meaning of Authority)
अधिकार प्रबन्ध कार्य की कुन्जी है। बिना अधिकार प्राप्त हुए कोई भी प्रकार सफलतापूर्वक अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा सकता है। अधिकार प्राप्त प्रबन्धक कार्य को सम्पन्न करने के लिये कर्मचारियों को आदेश देता है, जिससे संस्था के उद्देश्यों की पति की जा सके । अधिकार का तात्पर्य किसी व्यक्ति को प्राप्त उस वैधानिक शक्ति से है जिसके आधार पर वह दूसरों को आदेश दे सकता है। अन्य शब्दों में, संगठन के उद्देश्यों और लक्ष्यों को प्राप्ति के लिये संगठन के अन्तर्गत कार्य करने वालों की गति विधियों का मार्गदर्शन करने तथा उनसे कार्य लेने के लिये आदेश देने के लिये प्राप्त शक्ति को अधिकार कहा जा सकता है।
अधिकार की विभिन्न विद्वानों ने निम्न प्रकार परिभाषाएँ दी हैं -कूण्टज ओ’ डोनेल के अनुसार, “वैज्ञानिक या स्वत्वाधिकार शक्ति, आदेश देने या कार्य करने का स्वत्व।
एफ० जी० मूर के अनुसार, “अधिकार निर्णय करने का स्वत्व (Right) है और शक्ति निर्णयों को पालन करने के लिये बाध्य करती है।”
अधिकार के स्रोत या अधिकार के सिद्धान्त
(Sources of Authority or Theories of Authority)
अधिकार स्रोत के सम्बन्ध में मुख्यतः दो प्रकार के विचार पाये जाते हैं। इन विचारों को ही अधिकार के सिद्धान्त भी कहा जाता है, जो निम्नलिखित हैं
(1) औपचारिक अधिकार सिद्धान्त (Formal Authority Theory)-
इस सिद्धान्त के अनुसार प्रबन्धक को अपने अधिकार अपने से ऊँचे अधिकारी द्वारा या देश के संविधान (Constitution) द्वारा प्रदान किये जाते हैं । उदाहरण के लिये,लोकपाल सहायक कोषाध्यक्ष से अधिकार प्राप्त करता है । सहायक कोषाध्यक्ष से अधिकार प्राप्त करता है। कोषाध्यक्ष को अधिकार प्रबन्ध प्रदान करता है और उसे (प्रबन्ध को) अधिकार संचालक मण्डल से प्राप्त होते हैं। संचालक मण्डल को अधिकार अंशधारी प्रदान करते हैं। एक पूँजीवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था में अंशधारियों को अधिकार की प्राप्ति निजी सम्पत्ति के अधिकार के कारण प्राप्त होती है और निजी सम्पत्ति का अधिकार देश के संविधान द्वारा प्रदान किया जाता है। उच्च अधिकारियों द्वारा आधीन अधिकारियों को दिये अधिकार लिखित हो सकते हैं या मौखिक या दोनों रूप में ही हो सकते हैं। कई बार तो अधिकार स्पष्ट होते हैं पान अनेक बार ये ध्वनित (Implied) होते हैं, परन्तु किसी भी दशा में प्रबन्धकों को अपनी अधिकार सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । एक उच्चाधिकारी केवल वही अधिकार अपने अधीनस्थों को देसकता है, जो उसे स्वयं प्राप्त होते हैं।
(2) स्वीकार अधिकार सिद्धान्त (The Acceptance Theory of Authority)
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बर्नाड और साइमन हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार किसी प्रबन्ध के अधिकार का अस्तित्व तभी तक होता है, जब तक कि उनके आधीन कर्मचारी उस अधिकार को स्वीकार करें। आधीन कर्मचारियों की स्वीकृति के अभाव में प्रबन्ध के अधिकारों का महत्व नहीं है तथा वे न होने के बराबर हैं । इस सिद्धान्त का तत्व यह है कि यदि किसी को अधिकार मिल जाये, परन्तु उस अधिकार को स्वीकार करने वाला कोई न हो तो ऐसे अधिकार का कोई महत्व नहीं है । इस प्रकार अधिकार का जन्म उसी समय होता है, जब अधिकारों को स्वीकृति प्रदान करने वाला हो। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अधिकारों का उद्गम स्वीकृति आधीन-कर्मचारी अपने से उच्च अधिकारी का अधिकार इसलिये स्वीकार करते हैं,क्योंकि वे जानते हैं कि वे शक्तिशाली हैं और उनका अधिकार स्वीकार करने से उन्हें अनेक लाभ होते हैं, जो निम्न हैं-
(i) वेतन वृद्धि, सम्मान और पारितोषिक की प्राप्ति।
(ii) उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधीनस्थ का योगदान ।
(iii) साथ के कर्मचारियों से प्रशंसा की प्राप्ति ।
(iv) उत्तरदायित्व में अनावश्यक भार से मुक्ति ।
(v) अधीनस्थों के स्वयं के नैतिक आदर्शों के अनुसार कार्यवाही।
(vi) अपने उच्च अधिकारियों के नेतृत्व गुणों के प्रति प्रतिपादन (Response)।
उच्च अधिकारों का अधिकार स्वीकार न करने से आधीन कर्मचारियों को निम्न हानियाँ होती हैं-
(i)अधिकार स्वीकार करने से जो लाभ होते हैं, उनसे वंचित रहना।
(ii). वेतन व सम्मान की प्राप्ति में कठिनाई तथा सामाजिक अप्रतिष्ठा ।
(iii) अनुशासन की कार्यवाही जैसे- आर्थिक दण्ड कारावास, नौकरी का छूटना आदि।
(3) अन्य सिद्धान्त (Other Theories)-
प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता-अधिकारों के स्रोत के सम्बन्ध में कुछ लोगों का यह भी मत है कि कभी-कभी प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता भी अधिकारों के स्रोत का काम करती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें यद्यपि औपचारिक रूप से कुछ भी अधिकार प्राप्त नहीं होते, परन्तु प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं विशेष तकनीकी योग्यता के कारण उन्हें विशेष मान्यता दी जाती है, उनकी राय इतनी उत्सुकता एवं आग्रह से ली जाती है तथा उसका पालन इस तत्परता से किया जाता है कि उन्हें अधिकारी का दर्जा सा प्राप्त हो जाता है। भारतीय शासन में महात्मा गाँधी की तथा आज भी कुछ सीमा तक आचार्य विनोबा भावे की यही स्थिति है। इन व्यक्तियों को अपनी प्रभावी व्यक्तित्व के कारण ही ऐसा अधिकार प्राप्त हो सकता है। मेधावी इन्जीनियर व अर्थशास्त्री आदि भी इस श्रेणी में सम्मिलित किये जाते हैं। विशेष योग्यता के कारण ही लोग उनके परामर्श देने के अधिकार को स्वीकार करते हैं। एक समाज शिकार सिद्धान्त
सलाह को जनता निष्फल होते हैं, जबकि
मधारक को सरकार की ओर से कोई अधिकार नहीं दिया जाता, परन्तु उनकी सला मानती है। कई बार तो देखने में आता है कि अधिकारियों के प्रयत्न निष्फल होते. समाज सुधारक और सन्त पुरुषों के प्रयत्न सफल हो जाते हैं।
निष्कर्ष-अधिकारों के स्त्रोत से सम्बन्ध रखने वाले उपरोक्त तीनों सिद्धान्त अपने ढंग से सत्य हैं। फिर भी एक प्रबन्धक के अधिकार प्रायः औपचारिक अधिकार मि (Formal Authority Theory) के द्वारा ही निश्चित होते हैं, परन्तु प्रभावशाली व्या या व्यक्तिगत प्रभाव भी कार्य कराने के लिये बहुत महत्व रखता है। किसी भी प्रबन्धक कुशलता केवल अधिकारों की प्राप्ति पर निर्भर नहीं रहती वरन उसकी कार्य करने की जर व उसके व्यक्तित्व पर भी निर्भर करती है। किसी भी अधिकार का उपयोग या दरुपयोग अधिकारी पर निर्भर करता है। एक कुशल प्रबन्धक के हाथों वे ही अधिकार उपक्रम की में सहायक होते हैं, जबकि एक अकुशल प्रबन्धक के हाथों वे ही अधिकार उपक्रम को अवनी की ओर ले जाते हैं। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
अधिकार की सीमाएँ
(Limitations of Authority)
कोई भी अधिकार प्राप्त अधिकारी अपने अधिकारों को चाहे जैसा उपयोग नहीं कर सकता है, क्योंकि उसकी कुछ सीमाएँ होती हैं, जो कि निम्नलिखित हैं –
(1) आर्थिक सीमाएँ-
क्रेताओं एवं विक्रेताओं की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा,बाजार की दशाओं के अनुसार वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य निर्धारण आदि आर्थिक सीमाएँ हैं, जिनके विपरीत एक प्रबन्धक अपने आदेश नहीं दे सकता, जैसे-माँग और पूर्ति (Demand and Supply) की शक्तियों के कारण यदि बाजार में किसी वस्तु का मूल्य 5 रु. है तो कोई भी प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को उस वस्तु को 3 रु. में लाने का आदेश नहीं दे सकता ।
(2) प्राकृतिक सीमाएँ-
भौगोलिक स्थिति, जलवायु तथा प्राकृतिक नियमों से सम्बन्धित सीमाएँ प्राकृतिक सीमा के अन्तर्गत आती हैं, जैसे-एक प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को एल्युमीनियम से चाँदी बनाने का आदेश नहींदे सकता या कोयले की हीरे में परिवर्तित करने का आदेश नहीं दे सकता।
(3) जीव-विज्ञान सम्बन्धी सीमाएँ-
किसी भी अधिकारी को अपने अधीन व्यक्ति को ऐसा आदेश नहीं देना चाहिए जिसे पूरा करना उसके लिए जीव-विज्ञान की दृष्टि से असम्भव हो. क्योंकि जीव विज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता सीमित होती है और यदि उसकी क्षमता से अधिक कार्य उसे सौंप दिया जाये तो वह उसे नहीं कर पायेगा, जैसे एक प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारी को खड़ी दीवार पर ऊपर की ओर चलने का आदेश नहीं देसकता।
(4) तकनीकी सीमाएँ-
ये सीमाएँ तकनीकी ज्ञान एवं कला के विकास से सम्बन्ध रखती हैं और कोई भी प्रबन्धक जितनी तकनीकी उन्नति हुई है उससे आगे की स्थिति के लिये आदेश नहीं दे सकता है, जैसे-कोई भी प्रबन्धक अपने अधीन कर्मचारियों को चन्द्रमा पर शक्कर फैक्टरी स्थापित करने का आदेश उस समय तक नहीं दे सकता जब तक कि तकनीकी जान एवं काल के विकास के फलस्वरूप चन्द्रमा पर शक्कर फेक्ट्री स्थापित करना संभव नहीं हो जाये।
(5) व्यक्ति समूह की प्रतिक्रियाएँ-
किसी भी अधिकार का प्रयोग करने पर उस विभिन्न व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों पर पड़ता है। एक प्रबन्धक का सम्बन्ध कर्मचारियों, अंशधारियों (Share-holders), संचालक मण्डल (Board of Directors), उपभोक्ताओं आदि से होता है। अतः अधिकार प्रयोग से पूर्व उन सभी की प्रतिक्रियाओं का ध्यान रखना पड़ता है और यदि सभी वर्गों के लिये कोई अधिकार प्रयोग कल्याणकारी होता है तब तो उसका प्रयोग किया जा सकता है।
(6) अन्य सीमाएँ-
उपरोक्त सीमाओं के अतिरिक्त, प्रबन्धकों को एक फर्म की दशा में साझेदारी अनुभव एवं कम्पनी की दशा में पार्षद सीमा नियम तथा अन्तर्नियम, कम्पनी अधिनियम तथा व्यापारिक एवं औद्योगिक सन्नियमों में वर्णित सीमाओं का भी ध्यान रखना पड़ता है। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
उत्तरदायित्व का अर्थ
(Meaning of Responsibility)
सामान्यतः उत्तरदायित्व को कर्त्तव्य अथवा क्रिया के रूप में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तरदायित्व एवं जबावदेही इसके पर्यायवाची माने जाते हैं। उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उच्च अधिकारी के आदेशानुसार कार्य करने का भार ही उत्तरदायित्व है। इसके सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार निम्नलिखित रूप से व्यक्त किये हैं-
जार्ज आर० टेरी के शब्दों में, “उत्तरदायित्व किसी व्यक्ति का ऐसा आबन्धन है, जिससे वह सौंपी गई क्रियाओं को अपनी श्रेष्ठतम योग्यता से पूरा करे।”
कुण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के शब्दों में, “उत्तरदायित्व को, किसी कर्मचारी के आबन्धन के रूप में जिसे कोई कार्य निष्पादन के लिये सौपा गया है, परिभाषित किया जा सकता है।
उत्तरदायित्व के प्रकार
(Types of Responsibility)
(1) विशिष्ट उत्तरदायित्व-
जब किसी अधिकारी की नियुक्ति किसी कार्य विशेष को सम्पादित करने के लिये ही की गई हो, तो उस कार्य को करने का भार उस अधिकारी का विशिष्ट उत्तरदायित्व कहलायेगा और उस कार्य के समाप्त हो जाने के पश्चात् विशिष्ट उत्तरदायित्व भी स्वतः भी समाप्त हो जायेगा । उदाहरण के लिये विज्ञापन विशेषज्ञ एवं वित्त विशेषज्ञ के उत्तरदायित्व इसी श्रेणी में आते हैं।
(2) चाल उत्तरदायित्व-
जब किसी सतत कार्य का भार एक प्रबन्धक द्वारा किसी अन्य प्रबन्धक को सौंपा जाता है, तो इसे चालू उत्तरदायित्व कहते हैं । चालू उत्तरदायित्व कभी समाप्त नहीं होता वरन् इसका हस्तान्तरण एक अधिकारी से दूसरे अधिकारी को होता रहता है । उदाहरण के लिये, निर्बाध गति से चलने वाली मशीनों की देख-भाल का उत्तरदायित्व इसी श्रेणी में आता है।
अधिकार एवं उत्तरदायित्व में सम्बन्ध
(Relations between Authority and Responsibility)
अधिकार एवं उत्तरदायित्व एक सिक्के के दो पहलू के समान हैं, जिन्हें आपस में अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि उत्तरदायित्वों के प्रभावी निष्पादन के लिये पर्याप्त अधिकारों का होना अत्यन्त आवश्यक है और अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के लिये उत्तरदायित्वों का निर्धारण भी अत्यन्त आवश्यक होता है। अधिकार एवं उत्तरदायित्वों के बीच उचित समन्वय के अभाव में संस्था के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्रभावशाली रूप में प्राप्त करना केवल कठिन नादायित्व अधिक मात्रा की अपेक्षा अधिकार जाती हैं । इस प्रकार @ रूप से जुड़े हुये है। यदि अधिकारों की अपेक्षा उत्तरदायित्व अ होते हैं, तो उनका निष्पादन कठिन हो जाता है तो यदि उत्तरदायित्वों की अपेक्षा अधिक मात्रा में सौंप दिये जाते हैं, तो उनके दुरुपयोग की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं । इ. स्पष्ट होता है कि अधिकार एवं उत्तरदायित्व एक दूसरे के साभ घनिष्ठ रूप से जो परन्तु इन दोनों के बीच उचित समन्वय स्थापित किया जाना संगठन के लिये लाभ नहीं, अपितु अनिवार्यता है और यदि ऐसा नहीं किया जाता, तो इसके दुष्परिणाम संस्था असफलता की दिशा में मोड़ सकते हैं। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
केन्द्रीयकरण का अर्थ
(Meaning of Centralisation) –
सामान्य भाषा में केन्द्रीयकरण का आशय मूल (केन्द्र) बिन्दु के पास सीमित होने से अर्थात् जब किसी संस्था में अधिकारों का आरक्षण केन्द्रीय बिन्दु पर रखा जाता है तो इसे केन्द्रीयकरण कहते हैं। इस स्थिति में कार्य सम्बन्धी अधिकांश निर्णय उन लोगों द्वारा नहीं लिए जाते जो कि कार्य कर रहे हैं बल्कि उन उच्चाधिकारियों द्वारा लिये जाते हैं, जो उन कार्यों से अलग हैं। केन्द्रीयकरण की विभिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं जिनमें से मुख्य निम्न हैं-
लुईस ए० ऐलन के अनुसार, “किसी संगठन के केन्द्रीय बिन्दुओं पर व्यवस्थित एवं स्थायी ढंग से अधिकार के आरक्षण को ही केन्द्रीयकरण कहते हैं।”
हेनरी फेयोल के अनुसार, “वह प्रत्येक कार्य जिससे अधीनस्थों की भूमिकाओं के महत्व में कमी आती है, केन्द्रीयकरण कहलाता है।” .
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि केन्द्रीयकरण वह प्रवृत्ति है,जिसमें संस्था के कार्य-संचालन सम्बन्धी सभी अधिकार केवल उत्तराधिकारी के पास होते हैं। यह प्रवृत्ति केवल ऐसे संस्थानों में अपनाई जाती है जहाँ अधिक गोपनीयता की आवश्यकता होती है।
केन्द्रीयकरण की विशेषताएँ
(Characteristics of Centralisation)
केन्द्रीयकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. इसमें निर्णय लेने का अधिकार उच्च अधिकारियों के पास होता है।
2. अधिकारों का प्रत्योजन नहीं किया जाता है।
3. संगठन में निर्णयन में अधीनस्थों की भूमिका लगभग समाप्त हो जाती है।
4. अधीनस्थ केवल उच्च प्रबन्धों द्वारा लिए गए निर्णयों को ही क्रियान्वित करते रहते है।
5. कार्यस्थल तथा निर्णयस्थल में पर्याप्त दूरी होती है।
केन्द्रीयकरण के लाभ
(Advantages of Centralisation)
केन्द्रीयकरण के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-
(1) व्यक्तिगत नेतृत्व का विकास-
केन्द्रीयकरण का सबसे बड़ा लाभ यह है-व्यक्तिगत नेतृत्व को सुविधाजनक बनाता है। व्यवहार में यदि उपक्रम का आकार छोटा हो, सो केन्द्रीयकरण व्यक्तिगत नेतृत्व का विकास करता है, जिससे उपक्रम को नेतृत्व की कुशलता, अनुभव और प्रतिभा का पूरा लाभ मिलता है।
(2) क्रियाओं में एकरूपता-
केन्द्रीयकरण में सभी व्यावसायिक क्रियाएँ एक ही व्यक्ति द्वारा सम्पन्न किये जाने के कारण क्रियाओं में पूर्ण एकरूपता रहती है तथा निर्णयों में विभिन्नता के स्थान पर एकरूपता पायी जाती है।
(3) निणयों में शीघ्रता-
केन्द्रीयकरण में निर्णय लेने का अधिकार केवल एक ही व्यक्ति होता है। अत: यह व्यवसाय की आवश्यकता के अनुसार तुरन्त निर्णय ले सकता है।
(4) एकीकरण को बढ़ावा-
कार्य संचालन की सफलता के लिए व्यावसायिक क्रियाओं का एकीकरण होना परम आवश्यक है और केन्द्रीयकरण में यह कार्य सरलता से हो जाता है ।
(5) दोहरी मेहनत से बचत-
विक्रन्द्रीयकरण में एक से ही कार्य हेतु अलग-अलग विभागों में अलग-अलग उपकरण क्रय करने होते हैं। इस प्रकार लिपिकों व मशीनों की दोहरी लागत बैठती है। केन्द्रीयकरण होने पर ऐसा नहीं होता है।
(6) कुशल पर्यवेक्षण-
केन्द्रीयकरण में यद्यपि केन्द्रीय अधिकारी एक ही होता है, परन्तु उसकी स्थिति महत्वपूर्ण होती है। उसका पुनर्निरीक्षण प्रभावी होता है तथा उसके आदेशों का पालन तुरन्त होता है। इस प्रकार पर्यवेक्षकों पर अनावश्यक भार नहीं पड़ पाता है।
(7) संगठन पर सम्पूर्ण नियन्त्रण
कार्यालय का प्रायः समस्त कार्य एक ही छत के नीचे होता है तथा क्लों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध सर्वोच्च अधिकारी से होता है। अतः प्रभावी नियन्त्रण होता है तथा सभी कार्य अच्छी प्रकार से जिम्मेदारी के साथ किये जाते हैं।
(8) लचीलापन-
केन्द्रीयकरण से कार्यालय में अधिक लोच रहती है । आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त जरूरी कार्य पर शीघ्र ध्यान दिया जाता है, जबकि अन्य कम जरूरी कार्यों को कुछ समय के लिए रोका जा सकता है। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
केन्द्रीयकरण की सीमाएँ
(Limitations of Centralisation)
केन्द्रीयकरण की निम्नलिखित सीमाएँ हैं
(1) उच्च प्रबन्धकों के भार में वृद्धि-
केन्द्रीयकरण में सभी निर्णय व नीतियाँ उच्च प्रबन्ध के द्वारा लिए जाने के कारण उनके कार्यभार में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है और वह संस्था के विकास के लिए अधिक समय नहीं दे पाते।
(2) अधीनस्थों के उत्साह में कमी-
केन्द्रीयकरण में निर्णय की असफलता के लिए अधीनस्थ जिम्मेदार नहीं होते । यही कारण है कि उनमें कार्य के प्रति उत्साह भी कम हो जाता है । वास्तव में अधीनस्थ केवल उच्च प्रबन्धकों के निर्णयों को क्रियान्वित करने का एक साधन रह जाते हैं, उनमें स्वयं निर्णय लेने की योग्यता व क्षमता नहीं होती है।
(3) विशिष्टीकरण का अभाव-
केन्द्रीयकरण में निर्णय केवल कुछ उच्च स्तरीय प्रबन्धकों द्वारा लिए जाते हैं अतः सभी निर्णय सही हों यह सम्भव नहीं है क्योंकि एक तो वह सभी विषयों के विशेषज्ञ नहीं होते और दसरे उनके पास समय का अभाव होता है अत: वह समस्या के सभी पहलुओं की बारीकी से जाँच नहीं कर पाते।
(4) कार्यवाही में देरी
केन्द्रीयकृत संगठन में कार्यवाही देर से की जाती है क्योंकि हर समस्या पहले उच्च स्तर के प्रबन्धक को समझायी जाती है। फिर उसके फैसले का इन्तजार करना पड़ता है। कार्यवाही के स्तर तक फैसला पहुँचने में भी काफी समय लग सकता है।
(5) व्यवसाय के विस्तार तथा प्रकार में रुकावट-
केन्द्रीयकरण में उच्च प्रबन्धक पर कार्य का अधिक भार और अधीनस्थ कर्मचारियों की कार्य के प्रति उदासीनता, व्यवसाय के विस्तार तथा प्रचार के रास्ते में बड़ी रुकावट बन जाते हैं।
(6) टकराव की स्थिति-
केन्द्रीयकरण में शीर्ष प्रबन्ध एवं विभागीय प्रबन्ध के बीच सदैव टकराव की स्थिति बनी रहती है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि केन्द्रीयकरण तभी उपयुक्त रहता है, जब उपक्रम का आकार छोटा हो । क्योंकि इसमें व्यक्तिगत निपुणता व नेतृत्व की अधिक आवश्यकता पड़ती
विभागीयकरण
प्रबन्ध की दृष्टि से एक तरह की क्रियाओं को छोटी-छोटी इकाइयों में समूहीकरण करना ही विभागीयकरण कहलाता है । दूसरे शब्दों में,विभागीयकरण का अर्थ है-किसी उपक्रम के संगठन को विभिन्न विभागों तथा उप-विभागों में विभक्त करना; जैसे- एक उपक्रम के संगठन को हम कर्मचारी विभाग, उत्पादन विभाग, विक्रय विभाग, वित्त विभाग, क्रय विभाग आदि विभागों में विभक्त कर सकते हैं। विभागीयकरण व्यवसाय की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए किया जाता है । समान प्रकार की क्रियाओं को एक ही विभाग के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है । व्यवसाय की प्रकृति तथा आकार को ध्यान में रखते हुए विभागीय प्रबन्ध चाहे तो अपने विभाग को कई उप-विभागों में विभक्त कर सकता है। उदाहरण के लिए-विक्रय विभाग का प्रबन्धक विक्रय क्रियाओं को कई उप-विभागों में विभाजित कर सकता है। जैसे-पैंकिग विभाग, विक्रय-पश्चात् सेवा विभाग, विज्ञापन विभाग आदि। विलियम एफ० ग्लूक के अनुसार, “सम्पूर्ण संस्था के कार्यों को विभाजित करने तथा कार्य के समूह स्थापित करने की विधि को ही विभागीयकरण कहते हैं । विभागीयकरण का परिणाम उक्त इकाइयों का निर्माण करना है, जिन्हें सामान्यतः विभाग कहा जाता है।” Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
कण्टज तथा ओ’ डोनेल के अनुसार, “विभागीयकरण एक विशाल एकात्मक कार्यात्मक संगठन को छोटे आकार एवं लोचपूर्ण प्रशासकीय इकाइयों में बाँटने की एक प्रक्रिया है।”
संक्षेप में, किसी वृहत् उपक्रम की क्रियाओं की छोटी-छोटी स्वतन्त्र एवं लोचदार इकाइयों में बाँटने की प्रक्रिया ही विभागीयकरण कहलाती है।
विभागीयकरण के आधार
(Base of Departmentation)
एक व्यावसायिक संस्था की विभिन्न क्रियाओं को निम्नलिखित आधारों पर विभागों में विभाजित किया जा सकता है
(1) वस्तु या सेवा का आधार-
जब संस्था कई प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर रही है तो प्रत्येक वस्तु के लिए एक अलग विभाग बनाया जा सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रकार की सेवा के लिए अलग-अलग विभाग बनाये जा सकते हैं।
(2) क्षेत्रीय आधार-
जब संस्था का आकार बड़ा है तथा उसका कार्य देशव्यापी है ।
(3)समय के आधार
समायिक क्रियाओं को क्षेत्रीय आधार पर बाँटा जा सकता है। ही समय का आधार-जब कार्य दिन-रात चलता रहता है तो समय के आधार पर यावसायिक क्रियाओं को बाँटते हैं ।
(4) ग्राहकों का आधार-
जब संस्था के ग्राहक कई प्रकार के होते हैं तो संस्था के कार्यों को ग्राहकों के अनुसार बाँटते हैं।
(5) कार्यों के अनुसार-
इसके अन्तर्गत व्यावसायिक क्रियाओं को कार्यों के अनुसार बाँटा जाता है। यह विभागीयकरण का सबसे अधिक प्रचलित आधार है ।
(6) विपणन का आधार-
कई बार विभागीयकरण विपणन शृंखलाओं के आधार पर किया जाता है।
(7) विधियों का आधार-
अनेक उद्योगों में वस्तु का निर्माण कई प्रक्रिया से होकर होता है। वहाँ पर प्रक्रिया के अनुसार विभागीयकरण किया जाता है। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
विभागीयकरण करते समय निम्नांकित तत्वों को ध्यान में रखना चाहिए
(1) मितव्ययिता- विभागीयकरण से संस्था के व्यय-भार में वृद्धि के स्थान पर कमी की जाये।
(2) नियन्त्रण विभागीयकरण तभी सफल हो सकता है, जब सभी विभागों की क्रियाओं पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण हो।
(3) समन्वय- विभागीयकरण की सफलता के लिए विभिन्न विभागों में समन्वय आवश्यक है। साधारणतया एक विभाग को दूसरे विभाग के समान कार्य न सौंपे जायें।
(4) विशिष्टीकरण- विभागीयकरण से हर हालात में विशिष्टीकरण होना चाहिए, तभी वह लाभदायक हो सकता है।
(5) स्थानीय परिस्थितियाँ– विशिष्टीकरण करते समय संगठन चलाने वालों की योग्यता एवं महत्व तथा औपचारिक सम्बन्धों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(6) विशेष ध्यान- उन कार्यों पर, जो व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति में विशेष महत्व रखते हैं तथा जिन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए; उनके लिये अलग विभाग बनाना आवश्यक होता है। Bcom 2nd Year Authority & Resposibility and Centrialization
विभागीयकरण के प्रमुख लाभ
(Advantages of Departmentation)
विभागीयकरण से अनेक लाभ होते हैं, उनमें से प्रमुख निम्न हैं –
(1) विभागीयकरण से कर्मचारियों के अधिकार व दायित्व के स्पष्ट विभाजन से उनकी दक्षता एवं कार्यकुशलता में वृद्धि होती है । इससे वह स्वतन्त्र रूप से सोच सकते हैं और कार्य करने में समर्थ होते हैं।
(2) प्रत्येक विभाग एवं सम्बन्धित व्यक्तियों पर निश्चित उत्तरदायित्व डाला जा सकता हैं।
(3) विभागीय प्रबन्धकों द्वारा स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने से योग्य कर्मचारियों का निर्माण सरल होता है।
(4) प्रत्येक कार्य की कुशलता मापी जा सकती है। इससे प्रबन्धकीय मूल्यांकन का कार्य सरल हो जाता है।
(5) विभागीय बजट सही एवं प्रभावपूर्ण तरीकों से बनाये जा सकते हैं।
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