Home Bcom 2nd Year notes Bcom 2nd Year Meaning Definitions Principle Importance of Decision Making

Bcom 2nd Year Meaning Definitions Principle Importance of Decision Making

1

Meaning Definitions Principle Importance of Decision Making

निर्णयन का अर्थ 

(Meaning of Decision-making)

साल शब्दों में, किसी कार्य को करने के लिए अनेक उपलब्ध विकल्पों में से एक उपयुक्त के चनने के कार्य को निर्णय लेना कहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भी कार्य को करने के लिए अनेक विकल्प या मार्ग या रास्ते या विधियाँ हो सकती हैं। अत: इस बात की आवश्यकता है कि हम ज्ञात करें कि किसी भी कार्य को करने के लिए भने सम्भव विकल्प हो सकते हैं और फिर उन विकल्पों में से अपने संगठन के लिए एक लोत्तम विकल्प को चुनें । कौन-सा विकल्प सर्वोत्तम होगा, इसका निर्णय करना संगठन की परिस्थिति, क्षमता तथा आवश्यकता पर निर्भर है। 

निर्णयन की महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

डी०ई मैकफरलैंड (D.E. Macfarland) के अनुसार, “निर्णय एक चयन क्रिया है, जिसके अन्तर्गत एक अधिशासी, दी हुई परिस्थिति में क्या किया जाना चाहिए, के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है । निर्णय किसी व्यवहार का प्रतिनिधित्व करता है जिसका चयन अनेक सम्भावित विकल्पों में से किया जाता है।” 

जॉर्ज आर० टेरी (George R. Terry) के अनुसार, “निर्णयन किसी मापदण्ड पर आधारित दो या अधिक सम्भावित विकल्पों में से किसे एक का चयन है।” 

कण्टज तथा ओ डोनेल के शब्दों में, “निर्णय लेना किसी भी कार्य करने के लिए उपलब्ध तरीकों के विकल्पों में से एक का वास्तविक चुनाव करना है, और यह नियोजन का केन्द्र स्थल है। विवेकपूर्ण निर्णय का एक निश्चित लक्ष्य होता है, जैसे कुछ सीमा तक लागत कम करना. समयानसार उत्पादन करना, माल भेजने में शीघ्रता करना, अधिक माल के स्टॉक को कम करना किन्हीं कार्यों के खतरों या कष्टों को दूर करना इत्यादि ।”

निर्णयन की विशेषताएँ 

(Characteristics of Decision-making)

निर्णयन की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ या लक्षण हैं- 

(1) निर्णयन प्रक्रिया मूल रूप से एक मानवीय प्रक्रिया है जिसके लिए पर्याप्त बुद्धि, ज्ञान, विवेक एवं अनुभव की आवश्यकता होती है।। 

(2) निर्णयन अनेक विकल्पों में सर्वोत्तम विकल्प के चयन की प्रक्रिया है।

(3) निर्णय कुछ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये जाते है।

(4) निर्णयन में चुनाव की स्वतन्त्रता होती है ।

(5) निर्णयन नियोजन का अंग है। 

(6)निर्णय लेने से पूर्व आवश्यक हो तो योग्य एवं अनुभवी व्यक्ति किया जा सकता है। 

(7) निर्णय प्रक्रिया में निर्णय से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों का रवी व्यक्तियों से विचार-विम शक्तियों का सहयोग प्राप्त किया जाता है। 

(8) निर्णय-नकारात्मक भी होते हैं, अर्थात् निर्णय न करने की की इच्छा भी निर्णय हो सकती है। 

(9) निर्णय न प्रक्रिया में दृढ़ता अति आवश्यक है।

(10) निर्णयों में समय-तत्व महत्वपूर्ण होता है।

(11) निर्णय न वास्तविक स्थिति के अनुरूप होते हैं। 

निर्णयों के प्रकार 

(Types of Decisions)

एफ० डकर के अनुसार, “ प्रबन्ध निर्णय लेने की प्रक्रिया है।” जिसका अली प्रबन्ध द्वारा अनेक प्रकार के निर्णय लिये जाते हैं। इन निर्णयों व उनके महत्व एवं प्रभाव पर एच० आई० इन्साफ ने अपनी पुस्तक ‘Corporate Strategy’ में निम्न तीन वर्षों में विभाजित किया है 

(अ) व्यूह रचना सम्बन्धी निर्णय (Strategic Decisions)-

ऐसे निर्णय जो संगठन के उद्देश्यों को विस्तारपूर्वक स्पष्ट करते हैं व्यूह रचना सम्बन्धी निर्णय कहलाते हैं। ऐसे निर्णयों के माध्यम से व्यावसायिक उपक्रम अपना लक्ष्य स्पष्ट करता है, उपलब्ध अवसरों और बाहरी वातावरण के कारण उत्पन्न वर्तमान सीमाओं एवं रूकावटों के अनुरूप अपने साधनों को समायोजित करने का प्रयास करता है तथा अपने उत्पाद के विपणन के क्षेत्र को सीमाबद्ध करता है। संयंत्र की स्थिति एवं उसका अभिन्यास, उत्पादश्रेणी, उसमें विविधता एवं उसका विकास, वितरण के माध्यम, पूँजीगत व्यय आदि के सम्बन्ध में लिये गये निर्णय व्यूह रचना सम्बन्धी निर्णय ही होते हैं।

(ब) प्रशासकीय निर्णय (Administrative Decisions)-

ऐसे निर्णय जो संस्था के साधनों तथा अनुकूलतम कार्य निष्पत्ति की सुविधाओं से सम्बन्धित होते हैं, प्रशासकीय निर्णय कहलाते हैं। संगठन के ढाँचे में सुधार करने, अधिकार सत्ता एवं उत्तरदायित्व के सम्बन्धों का निर्धारण करने, सूचना प्रणाली की स्थापना करने, वित्त, उपकरण, सामग्री, कर्मचारी आदि प्राप्त करने से सम्बन्धित निर्णय प्रशासकीय निर्णय हैं। ऐसे निर्णयों का उद्देश्य व्यूह रचना सम्बन्धी निर्णयों को कार्य-रूप में परिणत करने हेतु एक प्रशासनिक वातावरण तैयार करना होता है। 

(स) कार्य संचालन सम्बन्धी निर्णय (Operating Decisions)-

ऐसे निर्णय जो कार्य करने वाले व्यक्तियों द्वारा कार्य करते समय दिन-प्रतिदिन लिये जाते हैं उन्हें कार्य संचालन या कार्यकारी निर्णय कहते हैं । इनका उद्देश्य व्यूह रचना सम्बन्धी एवं प्रशासकीय निर्णयों को कार्य रूप में परिणत करना तथा उन्हे गति प्रदान करना होता है । बजट, उत्पादन लक्ष्य इन्वेन्टी स्तर विक्रय लक्ष्य, कर्मचारी प्रशिक्षण एवं विकास आदि के सम्बन्ध में लिये गये निर्णय दोगी में आते हैं। 

उपरोक्त तीनों वर्गों तथा अन्य व्यावसायिक निर्णयों को एक निश्चित एवं सो रखा जाये तो यह ज्ञात होता है कि इन निर्णों को निम्न वर्गों में भी रखा जा सकता हैं।

(1)कार्यात्मक तथा अकायोत्मक निर्णय (Programmad (programmed and Non-Programmed Decisions)-

कार्यात्मक निर्णयों से आशय ऐसे निर्णयों से कसाने वाली प्रकृति के होते हैं तथा जिन्हें लेने के लिये एक निश्चित एवं मुव्यवस्थित Vाली निर्धारित की जाती है। ये नैत्यक एवं पनरावत्ति प्रकति के होते हैं। इसके विपरीत कार्यात्मक निर्णय वे निर्णय होते हैं. जो अनपम अनोखे एवं बेजोड प्रकृति के होते है तथा किसी विशेष परिस्थिति के उत्पन्न होने के लिये जाते हैं। इस प्रकार के निर्णयों की प्रवृत्ति तथा को तय नहीं किया जा सकता है।

(2) दैनिक तथा आधारभूत निर्णय

(Routine and Basic Decisions)-

ऐसे निर्णय जो व्यवसाय को सामान्य प्रकृति में बार-बार लिये जाते हैं तथा जिनके सम्बन्ध में कम सोच-विचार करने की आवश्यकता होती है उन्हे दैनिक तथा सामान्य निर्णय कहते हैं। इसके विपरीत काफी सोच-विचार कर लिये जाने वाले निर्णय आधारभूत निर्णय होते हैं । यह महत्वपूर्ण निर्णय प्रायः उच्च प्रबन्धक द्वारा लिये जाते हैं जबकि दैनिक निर्णय क्रियाशील प्रबन्धकों द्वारा लिये जाते हैं। 

(3) संगठनात्मक तथा व्यक्तिगत निर्णय (Organisation and Personal Decisions)-

किसी व्यावसायिक संस्था के पदाधिकारी के रूप में कोई औपचारिक निर्णय लिया जाता है,तो संगठनात्मक निर्णय कहलाते हैं । इसके विपरीत किसी संस्था के पदाधिकारियों द्वारा अपने विषय लिए गए निर्णयों को व्यक्तिगत निर्णय कहते हैं। 

(4) नियोजित तथा अनियोजित निर्णय (Planned and Unplanned Decisions)-

नियोजित निर्णय पूर्व निर्धारित योजना पर आधारित होते हैं और इनके लिए प्रायः वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसके विपरीत ऐसे निर्णय जो विशेष परिस्थिति में या अमुक अवसर पर लिए गए हों एवं जिनका आधार कोई पूर्व निर्धारित योजना न हो अनियोजित निर्णय कहलाते हैं। 

(5) एकाकी एवं सामूहिक निर्णय (Individual and Group Decisions)

जब व्यवसाय का आकार छोटा होता है तथा उस पर एक ही व्यक्ति का नियन्त्रण होता है तो उस व्यक्ति (स्वामी) के द्वारा लिए गए निर्णय एकाकी कहलाते हैं। इसके विपरीत सामूहिक निर्णय ऐसे निर्णय होते हैं जो किसी समूह द्वारा लिए जाते हैं। मैक्फरलैण्ड के अनुसार, “समूह द्वारा लिया गया निर्णय एकाकी व्यक्ति द्वारा लिए निर्णय से अधिक अच्छा होता है।”

(6) नीति एवं संचालन सम्बन्धी निर्णय (Policy and Operating Decisions)-

ऐसे निर्णय जो शीर्ष प्रबन्ध द्वारा उपक्रम की नीतियों के सम्बन्ध में लिए जाते हैं और जो सम्पूर्ण उपक्रम को प्रभावित करते हैं उन्हें नीति विषयक निर्णय या प्रशासकीय निर्णय कहते हैं। संस्था की वित्तीय संरचना, विपणन ढाँचा, सूचना प्रणाली आदि प्रशासकीय निर्णयों द्वारा निर्मित की जाती है। इसके विपरीत संचालन के सामान्य मामलों से सम्बन्धित जो निर्णय निम्न प्रबन्ध द्वारा लिए जाते हैं उन्हें संचालन सम्बन्धी या चाल निर्णय कहते हैं। उदाहरण के लिए बोनस अंश जारी करने का निर्णय नीति सम्बन्धी है जबकि ऐसे अंशों को जारी करने का हिसाब लगाना संचालन सम्बन्धी निर्णय है। 

(7) प्रमुख व गौण निर्णय (Major and Minor Decisions)-

जो निर्णय किसी महत्वपूर्ण मामले के सम्बन्ध में लिए जाते हैं, उन्हें प्रमुख निर्णय कहते हैं, जैसे-संयन्त्र का क्रय, वस्तुओं के विक्रय मूल्य में वृद्धि, नवीन उत्पादन का प्रारम्भ। इसके विपरीत जब सामान्य मामला के विषय में निर्णय लिए जाते हैं एवं जिनके विषय में अपेक्षाकृत कम सोचने-समझने को आवश्यकता पड़ती है उन्हें नैत्यिक या सामान्य निर्णय कहते है। 

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध

प्रत्येक मानवीय क्रिया को कोई-न-कोई उद्देश्य होता है। व्यवसायी है. अतः इसकी स्थापना भी निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती है। भारत के प्रारम्भिक चरण में व्यवसाय का क्षेत्र सीमित था, जिसका संचालन करने के लि सामान्य तकनीकें ही पर्याप्त थीं, किन्तु जैसे-जैसे व्यवसाय का क्षेत्र विस्तत होता की जटिलताएँ भी बढ़ती गयीं। इन समस्याओं पर नियन्त्रण करने एवं उत्तम परिणा के लिए प्रबन्ध विशेषज्ञों ने समय-समय पर विभिन्न विधियाँ एवं तकनीकों का कि प्रयोग किया है। प्रबन्ध के क्षेत्र में प्रयोग होने वाली तकनीकों में ‘उद्देश्यों द्वारा आधुनिकतम तकनीक है। 

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध का अर्थ 

(Meaning of Management of Objective)

जिस प्रकार यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व यह जानना आवश्यक होता है कि गन्तव्य स्थान कौन-सा है, ठीक उसी प्रकार व्यावसायिक क्रिया को प्रारम्भ करने से पूर्व यह ज्ञात करना अनि आवश्यक होता है कि व्यवसाय के उद्देश्य या लक्ष्य क्या हैं? ऐलन ने इसे अन्तिम परिणाम और कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल ने ‘प्रबन्ध का अन्तिम बिन्दु’ कहा है। 

यह आधुनिक प्रबन्ध की आधुनिकतम (नवीनतम) तकनीक है। इसके अन्तर्गत व्यवसाय के उद्देश्यों के आधार पर व्यूह रचना आयोजित की जाती है। व्यूह रचना के अनुसार संस्था के सर्वोच्च अधिकारी उसके उद्देश्य निर्धारित करते हैं और फिर उन्हीं उद्देश्यों के आधार पर प्रत्येक प्रबन्धक के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। प्रत्येक प्रबन्धक के कार्यों का मूल्यांकन भी इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं पीटर एफ० डकर के अनुसार, “उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध एक प्रणाली है जिसमें प्रबन्धक एवं सम्पूर्ण प्रतिष्ठान, दोनों ही काय-कुशलता में सुधार के लिए विभाग तथा प्रत्येक व्यक्तिगत जॉर्ज एस० ऑडियो के अनुसार, “उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध एक प्रक्रिया है जिसमें एक संगठन के वरिष्ठ एवं अधीनस्थ प्रबन्धक सम्मिलित रूप से सामान्य उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं प्रत्येक व्यक्ति के प्रमुख क्षेत्रों की व्याख्या उसमें वांछित परिणामों के सन्दर्भ में करने और इन्हीं मापदण्डों का इकाई के संचालन एवं प्रत्येक सदस्य के योगदान का मल्यांकन लिए मार्गदर्शक के रूप में उपयोग किया जाता है।

हेण्डरसन एवं सुओजानिन के अनुसार, “उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध वह प्रबन्धकीय जो विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति पर बल देता है।” उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध एक ऐसी प्रबन्ध प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी संस्था में कार्यरत. प्रबन्धक एवं अधीनस्थ दोनों मिलकर सामान्य उद्देश्यों के अनुरूप विभिन्न क्रियाओं के उद्देश्यों का निर्धारण करते हैं और तत्पश्चात् उनकी प्राप्ति हेतु प्रबन्ध क्रियाओं का संचालन करते हैं, ताकि समस्त उपलब्ध संसाधनों का प्रभावकारी उपयोग किया जा सके। 

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध के लाभ (महत्व) 

(Advantages of Management by Objectives)

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध के प्रमुख लाभ निम्न प्रकार हैं 

(1) उच्च मनोबल-

इस विधि के अन्तर्गत प्रबन्धकों व कर्मचारियों का मनोबल सदैव ऊँचा रहता है। ऐसी स्थिति में वे उद्देश्यों को भली प्रकार समझ जाते हैं, तथा उन्हीं के के अनुरूप कार्य करते हैं। 

(2) श्रेष्ठ प्रत्यायोजन-

इस पद्धति के द्वारा श्रेष्ठ भारीपण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, क्योंकि प्रत्येक कर्मचारी व अधिकार के लक्ष्य स्पष्ट होते हैं तथा उनका आसानी से भारार्पण किया जा सकता है। 

(3) स्व अभिप्रेरणा-

इस प्रणाली में कर्मचारी एवं अधिकारी की भागीदारी, निर्णयन को स्वतन्त्रता तथा प्राप्त परिणामों के आधार पर मूल्यांकन के कारण सभी कर्मचारी स्व अभिप्रेरित एवं प्रोत्साहित होकर काम करते हैं, परिणामस्वरूप संस्था की उत्पादकता बढ़ती है। . 

(4) कुशल निष्पादन-

इस विधि के प्रयोग द्वारा प्रबन्धकीय निष्पादन में सधार होता है। उनकी समस्त क्रियाएँ उद्देश्यों पर आधारित होती हैं तथा उनकी दिशाएँ एक जैसी होती है। 

(5) टीम व भागीदारी की भावना-

इस विधि में टीम के सभी सदस्य अपने उद्देश्य का निर्धारण अपने अधिकारियों के साथ मिलकर करते हैं। अत: एक साथ कार्य करने से टीम भावना विकसित होती है । प्रबन्ध एवं संगठन में भागीदारी की भावना पनपती है जिससे कशल निष्पादन सम्भव होता है। 

(6) नियन्त्रण-

इसविधि के अन्तर्गत वास्तविक निष्पादन की तुलना पूर्व निर्धारित उद्देश्यों से की जाती है जिसके परिणामस्वरूप नियन्त्रण का कार्य सरल हो जाता है। 

(7) संगठन में स्पष्टता-

इस विधि के द्वारा उद्देश्यों का पहले से ही निर्धारण होने से प्रबन्धक एवं अधीनस्थ अपने अधिकारों, कर्तव्यों एवं दायित्वों का स्पष्ट ज्ञान कर लेता है, जिसके कारण संगठन में पर्याप्त संभ्रान्ति व टकराव से छुटकारा मिल जाता है। 

(8) निष्ठापूर्वक काम करना-

इस रीति के अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी व प्रबन्धक . अपने-अपने लक्ष्यों से परिचित होता है। लक्ष्यों व उद्देश्यों की स्पष्टता के कारण वे आर्थिक निष्ठा एवं परिश्रम से कार्य करते हैं। चूंकि कार्य निष्पादन ही मूल्यांकन का आधार होता है, अतः वे मन लगाकर कार्य करते हैं। 

(9) समन्वय-

समन्वय प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण तत्व है । इस रीति के द्वारा समन्वय का कार्य स्वेच्छा से सम्पन्न हो जाता है।

(10) वेतन, पदोन्नति आदि समीक्षानुसार-

वार्षिक समीक्षा व मूल्यांकन के आधार पर ही वेतन निर्धारण, पदोन्नति आदि की जाती है। इसी संस्था में सर्वत्र सन्तोष का वातावरण निर्मित होता है। कियों को अभिप्रेरित करने 

प्रबन्ध तकनीक एक महान करने में असफल रहती है।

उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध की सीमाएँ (दोष)

(Disadvantages of Management by Objectives)

इम विधि की प्रमुख सीमाएँ (दोष) निम्न प्रकार हैं 

(1) व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने में असमर्थ-

यह प्रणाली व्यकि में असफल रहती है। हैरी लेविन्सन के शब्दों में, “उद्देश्यों द्वारा प्रब प्रबन्धकीय इन्द्रजाल है,

(2) प्रशिक्षण की आवश्यकता-

यह प्रणाली तभी सफल हो सकती है जल, को इस तकनीक का पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाये। यह योजना कर्मचारियों आधारित है. परन्तु व्यवहार में यह देखा जाता है कि कर्मचारियों में सहा टकराव अधिक होता है। 

(3) उद्देश्य निर्धारण में कठिनाई-

इस विधि के द्वारा उद्देश्य निर्धारण व्यावहारिक रूप अत्यन्त कठिन हैं,क्योंकि पूर्वानुमानों की कठिनाई व भावी अनिश्चितता भी उद्देश्यों के नि की प्रक्रिया को जटिल बना देती हैं। 

(4) सन्तलन की समस्या-

सफलता प्राप्त करने के लिए अल्पकालीन एवं दीर्घकाली उद्देश्यों में समन्वय होना आवश्यक है। इस विधि में समन्वय स्थापित करना एक जना समस्या है। 

(5) समय की बर्बादी-

इस पद्धति के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों पर उद्देश्यों का निर्धारण करना पड़ता है जिसमें बहुत समय बर्बाद होता है । इसी प्रकार सभाएँ करने तथा मल्यांकन करने में भी बहुत समय लगता है। 

(6) M.B.O. ही मान्यता को चुनौती-

डॉ. एन. के. सेठी द्वारा इस विधि की मान्यता को चुनौती दी गई है। उनके अनुसार सम्पूर्ण विश्व में संगठनात्मक वातावरण बड़ी तेजी एवं तीव्रता से बदल रहा है। ऐसी दशा में M.B.O. तकनीक के स्थान पर ‘क्रिया द्वारा प्रबन्ध’ तकनीक को लागू करना उचित होगा। 

BCOM 1ST 2ND 3RD YEAR NOTES

Bcom 1st Year Business regulatory Framework pdf notes

Bcom 2nd year Principles of Business Management

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Exit mobile version