Bcom 3rd Year Audit Process Notes
अंकेक्षण कार्यक्रम (Audit Programme)
ध्यान ‘अंकेक्षण कार्यक्रम’ से आशय उस विस्तृत तथा लिखित योजना से है जिसके आधार पर अंकेक्षक तथा उसका स्टाफ अंकेक्षण का कार्य करता है। यह कार्यक्रम तीन बातों को में रखकर बनाया जाता है—(i) कितना कार्य करना है ? (ii) किसके द्वारा किया जाना है ? तथा (iii) कितने समय में पूरा करना है. ? कार्यक्रम में प्रत्येक लिखित कार्य के सम्मुख कुछ स्थान छोड़ दिया जाता है, जिसमें प्रत्येक ऑडिट-लिपिक अपना नियत कार्य पूरा करने की तिथि लिखकर हस्ताक्षर कर देता है।
अत: अंकेक्षण कार्यक्रम एक ऐसी लिखित योजना है जिसके अनुसार अंकेक्षक, अंकेक्षण का कार्य करता है। अंकेक्षण कार्यक्रम से अंकेक्षक के स्टाफ के प्रत्येक व्यक्ति को यह जानकारी हो जाती है, कि उसे क्या कार्य, कितने समय में निपटाना है। जिस प्रकार एक मकान बनाने वाला इंजीनियर मकान बनाने से पहले एक नक्शा बनाता है और तदुपरान्त उस नक्शे के अनुसार मकान बनाया जाता है, ठीक उसी प्रकार एक अंकेक्षक अपने कार्य करने का नक्शा बनाता है, अर्थात् अपने कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करता है और इसी रूपरेखा के अनुसार वह अंकेक्षण का कार्य करता है ।
विभिन्न विद्वानों ने अंकेक्षण कार्यक्रम को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
1. आर्थर डब्ल्यू होम्स (Arthur W. Homes) के अनुसार, “एक लोचदार योजनाबद्ध जाँच की प्रक्रिया को अंकेक्षण कार्यक्रम कहते हैं।”
2. होवार्ड स्टेटलर (Howard Stcttler) के अनुसार, “नियोक्ता के वित्तीय विवरणों के विषय में राय बनाने के लिए पालन की जाने वाली समस्त क्रियाओं की रूपरेखा को अंकेक्षण कार्यक्रम कहते हैं।”
3. वाल्टर डब्ल्यू० बिग (\Walter W. Bigg) के अनुसार, “एकरूपता लाने और यह निर्णय करने के लिए कि लेखाकर्म के सम्पूर्ण कार्य का अंकेक्षण हो जाये, एक कार्यक्रम बनाया जाता है, जिसे अंकेक्षण कार्यक्रम कहा जाता है। इसमें प्रत्येक कर्मचारी अपने हस्ताक्षर अपने भाग के कार्य पर करता है।”
अंकेक्षण कार्यक्रम का उद्देश्य
(Objects of Audit Programme)
अंकेक्षण कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य अंकेक्षण कार्य को सुचारू रूप से करना, अंकेक्षण कार्य में एकरूपता लाना त्या यह देखना है कि कोई कार्य छूट तो नहीं गया है । वस्तुतः अंकेक्षण कार्यक्रम का उद्देश्य अंकेक्षक स्टाफ के प्रत्येक व्यक्ति को जानकारी देना है कि उसे क्या कार्य, कितने समय में निपटाना है।
एक अच्छे अंकेक्षण कार्यक्रम की विशेषताएँ (Essentials of a Good Audit Programme)/अंकेक्षण कार्यक्रम बनाते समय ध्यान देने योग्य बातें (Precautions While Preparing Audit Programme)
1. लिखित-अंकेक्षण कार्यक्रम सदैव लिखित होना चाहिये। ऐसा होने से अंकेक्षक का स्टाफ अपने द्वारा किये जाने वाले कार्य के बारे में बार-बार अंकेक्षक से नहीं पूछेगा। इसके अतिरिक्त अंकेक्षक तथा उसके स्टाफ के मध्य भविष्य में मतभेद होने की गुंजाइश नहीं रहती। यदि कर्मचारी ने अपने अंकेक्षण-कार्यक्रम में लिखा हुआ सारा कार्य पूरा कर दिया है तो अंकेक्षक अपने ऐसे कर्मचारी को दोषी नहीं ठहरा सकता।
2. स्पष्टता-अंकेक्षण कार्य में उल्लिखित सारी बातें स्पष्ट होनी चाहियें। अंकेक्षक के स्टाफ को किसी भी मद के बारे में अंकेक्षक अथवा नियोक्ता से पूछने की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए। यदि अंकेक्षण कार्यक्रम स्पष्ट नहीं होगा, तो श्रम तथा समय दोनों ही नष्ट होंगे।
3. विभागानुसार कार्य का विभाजन-संस्था के प्रत्येक विभाग अथवा उपविभाग के लिए अलग अंकेक्षण-कार्यक्रम बनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त कार्य का विभाजन करते समय प्रत्येक विभाग के लेखों का भी ध्यान रखना चाहिए ताकि लेखों से सम्बन्धित सूचना व स्पष्टीकरण आसानी से प्राप्त किये जा सकें।
4. लेखांकन प्रणाली के अनुसार ही अंकेक्षण कार्यक्रम तैयार करना-अंकेक्षण कार्यक्रम संस्था में प्रयुक्त लेखाकर्म प्रणाली के अनुरूप होना चाहिए ताकि अंकेक्षण कार्य बिना किसी बाधा के तेजी से चलता रहे एवं किसी लेन-देन के छूटने का भी भय न हो।
5. उत्तरदायित्व का निर्धारण-अंकेक्षक को अपने कर्मचारियों के बीच कार्य का बँटवारा करते समय उत्तरदायित्व का भी निर्धारण कर देना चाहिए जिससे प्रत्येक कर्मचारी कार्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझे । ऐसा करने से अंकेक्षक किसी लापरवाही के बारे में दोषी व्यक्ति को उत्तरदायी ठहरा सकेगा।
6. प्रारम्भ से अन्त तक की जाँच-अंकेक्षण कार्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिए कि जिससे प्रत्येक लेखा-पुस्तक का प्रारम्भ से अन्त तक अंकेक्षण हो सके । उदाहरणार्थ, क्रय का अंकेक्षण करने के बारे में अंकेक्षण कार्यक्रम में क्रय माँगपत्र से लेकर भुगतान तक के बीच की सभी क्रियाओं का समावेश होना चाहिए। उसमें परिवर्तन करने में किसी भी प्रकार की कठिनाई न हो। वास्तव में कार्यक्रम का लोचदार होना ही उसे उपयोगी बना सकता ।
8. पुन: जाँच-अंकेक्षण कार्यक्रम की समय-समय पर जांच करते रहना चाहिए जिससे उसमें समय-समय पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके ।
अंकेक्षण कार्यक्रम के लाभ
(Advantages of Audit Programme)
1. योग्यतानुसार कार्य विभाजन-अंकेक्षण कार्यक्रम तैयार करते समय अंकेक्षक सम्पूर्ण अंकेक्षण कार्य को अपने कर्मचारियों में उनकी योग्यता, अनुभव एवं रुचि के अनुसार बाँट देता है। परिणामस्वरूप वे अपना कार्य सुचारू रूप से एवं लगन के साथ करते हैं।
2. कार्य छूटने का भय नहीं-अंकेक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत अंकेक्षण कार्य को एक निर्धारित योजना के अनुसार सम्पन्न किया जाता है, अत: अंकेक्षण कार्य के किसी भाग के छूटने का भय नहीं रहता है।
3. नियन्त्रण में सुविधा-अंकेक्षण कार्यक्रम के होने से अंकेक्षक एक साथ अनेक संस्थाओं के अंकेक्षणों पर कुशलतापूर्वक नियन्त्रण रख सकता है ।
4. अंकेक्षण कार्य में एकरूपता-एक बार अंकेक्षण कार्यक्रम तैयार हो जाने से न केवल सम्पूर्ण अंकेक्षण कार्य में एकरूपता आ जाती है बल्कि वर्तमान अंकेक्षण कार्यक्रम भविष्य में किये जाने वाले अंकेक्षणों के लिए भी मार्गदर्शक का कार्य करता है।
5. निर्धारित समय में कार्य की समाप्ति-अंकेक्षण कार्यक्रम के अनुसार कार्य करने पर अंकेक्षण कार्य निश्चित अवधि में समाप्त हो जाता है।
6. सुनिश्चित उत्तरदायित्व-अंकेक्षण कार्यक्रम के द्वारा प्रत्येक कर्मचारी को उसके द्वास किये जाने वाले कार्य के प्रति उत्तरदायी बना दिया जाता है अर्थात् प्रत्येक कर्मचारी का उत्तरदायित्व निश्चित कर दिया जाता है। अत: यदि कोई कर्मचारी अंकेक्षण कार्य में लापरवाही करता है तो उसे उत्तरदायी ठहराया जा सकता है ।
7. कार्य परिवर्तन की सुविधा-यदि किसी कारणवश अंकेक्षक को अपने कर्मचारियों में हेर-फेर करना पड़े तो अंकेक्षण कार्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि अंकेक्षण कार्यक्रम देखकर यह मालूम हो जायेगा कि कितना काम हो चुका है और कहाँ से काम शुरू होना है अर्थात् नया व्यक्ति पुराने व्यक्ति के कार्य को आसानी से ग्रहण कर सकता
8. कार्य की प्रगति का ज्ञान-अंकेक्षक जब चाहे अंकेक्षण कार्य की प्रगति का ज्ञान प्राप्त कर सकता है अर्थात् कितना कार्य पूरा हो चुका है तथा कितना शेष रह गया है।
9. न्यायालय में प्रमाण-यदि नियोक्ता व अंकेक्षक में भविष्य में किसी बात पर मतभेद हो जाता है और नियोक्ता अंकेक्षक पर लापरवाही का दोष लगाता है तो वह अपने बचाव के लिए अंकेक्षण-कार्यक्रम साक्ष्य के रूप प्रस्तुत कर यह सिद्ध कर सकता है कि उसने अमुक कार्य को पूर्ण उत्तरदायित्व एवं सावधानी पूर्ण किया है।
अत: नियोक्ता द्वारा थोपे गये आरोपों के विरुद्ध प्रमाण के रूप में इसे प्रस्तुत किया जा सकता है और अंकेक्षक अपनी ईमानदारी का प्रमाण दे सकता है।
अंकेक्षण कार्यक्रम की हानियाँ
(Disadvantages of Audit Programme)
- कार्य का यन्त्रवत् होना-अंकेक्षण कार्यक्रम अंकेक्षण के कार्य को यंत्रवत् (Mechanical) बना देता है जिस कारण स्टाफ को नीरसता अनुभव होने लगती है। इसके अतिरिक्त आवश्यक परिवर्तन करना भी अत्यन्त असुविधाजनक होता है ।
2. स्वतंत्र निर्णय का अभाव-अंकेक्षक के कर्मचारी बने बनाए कार्यक्रम के कार्य करते हैं। ये परिस्थितिनुसार अपनी सूझ-बूझ का प्रयोग करते हुए अंकेक्षण कार्य को और अधिक सुचारू रूप से करने का स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पाते ।
3. नैतिक प्रभाव की कमी-नियोक्ता के कर्मचारियों को अंकेक्षण कार्यक्रम की जानकारी मिल जाने के कारण अंकेक्षकों का उन पर नैतिक प्रभाव कम हो जाता है ।
4. छल-कपट की खोज कठिन-अंकेक्षण कार्य यंत्रवत् होने के कारण केवल सामान्य छल-कपट का ही पता लग सकता है। वस्तुतः छल-कपटों का पता लगाने के लिए कल्पनाशील एवं महत्वपूर्ण छानबीन आवश्यक होती है ।
5. लोच का अभाव-प्रारम्भ में ही समस्त तथ्यों का समावेश कर लेने के कारण, समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप अंकेक्षण कार्यक्रम को परिवर्तित करना आसान नहीं होता और इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से अंकेक्षण कार्यक्रम में लोच का अभाव रहता है।
6. न्यायालय में प्रमाण-यदि अंकेक्षक कोई लापरवाही करता है तो उसके द्वारा तैयार किया गया अंकेक्षण-कार्यक्रम न्यायालय में उसके ही विरुद्ध प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार अंकेक्षक की दृष्टि से यह हानिकारक है।
7. व्यय-पूर्ण-पहले अंकेक्षण-कार्यक्रम तैयार करने में तथा बाद में उस पर अमल करने में काफी समय लगता है तथा व्यय भार भी बढ़ता है। छोटी संस्थाओं में अंकेक्षण-कार्यक्रम बनाकर अंकेक्षण कार्य करना व्यय-पूर्ण है।
8. अयोग्यताएँ प्रकट न होना-यदि अंकेक्षक अयोग्य है तो वह अंकेक्षण-कार्यक्रम का सहारा लेकर आसानी से अपनी अयोग्यता को छिपा सकता है।
“अंकेक्षण कार्यक्रम के उपयोगी होने के लिए उसे लचीला होना चाहिए”
(“An Audit Programme to be Serviceable Must Be Elastic”)
उपर्युक्त दोषों के निवारण और अंकेक्षण कार्यक्रम से पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि इसे लोचदार रखा जाये अंकेक्षण कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें लचीलापन कितना है अर्थात् अवसर और परिस्थिति के अनुरूप फेर-बदल करने की उसमें कितनी गुंजाइश है । यदि यह गुंजाइश नहीं रखी गयी तो, उपर्युक्त वर्णित समस्त दोष अंकेक्षण की कार्य प्रणाली को दूषित कर देंगे, और अंकेक्षण कार्यक्रम की उपयोगिता नष्ट हो जायेगी। लोचदार होने का यह आशय कभी भी नहीं है कि इसमें जब चाहे जितने परिवर्तन किये जायें।
लोचदार अंकेक्षण कार्यक्रम से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
(1) अंकेक्षक के स्टाफ सदस्यों को स्वतन्त्र निर्णय लेने में सुविधा रहेगी।
(2) अंकेक्षण कार्य यन्त्रवत् एवं नीरस नहीं रहेगा।
(3) अंकेक्षक के कर्मचारी अपनी अकुशलता नहीं छिपा पायेंगे।
(4) अंकेक्षक की कमियों को रचनात्मक चिन्तन मिलेगा।
(5) अंकेक्षक के कर्मचारियों के सुझावों को शामिल किया जा सकेगा जिससे उनके मनोबल में वृद्धि होगी।
नैत्यक जाँच (Routine Checking)
नैत्यक जाँच का शाब्दिक आशय नित्य-प्रति की अथवा दैनिक जाँच से है। नैत्यक जाँच अंकेक्षण की प्रथम किया है। नैत्यक जाँच में प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों एवं खाताबहियों की गणित सम्बन्धी शुद्धता की जाँच की जाती है। नैत्यक जाँच से लिपिकों द्वारा की गई त्रुटियों एवं कपटों का पता लगाया जा सकता है। लेखों में अंकों एवं तत्सम्बन्धी गणना की शुद्धता का पता नैत्यक जाँच द्वारा ही लग सकता है। नैत्यक जांच में सामान्यतया निम्नलिखित क्रियाएं सम्मिलित की जाती हैं
(1) प्रारम्भिक लेखा पुस्तकों में जोड़ लगाना, उन जोड़ों को अगले पृष्ठ पर ले जाना तथा प्रारम्भिक लेखों की पुस्तकों में गुणा-भाग की गणनाओं की जांच करना ।
(2) प्रारम्भिक लेखा पुस्तकों से खाता बही में जो पोस्टिंग की गई हो, उसकी जाँच करना तथा यह देखना कि वह ठीक हुई है अथवा नहीं।
(3) विभिन्न खातों के डेबिट और क्रेडिट पक्ष को जोड़ना एवं उनके शेषों की जाँच करना।
(4) यह देखना कि खाताबही से जोड़ों या बाकियों को या दोनों को तलपट (Trial Balance) में ठीक प्रकार से ले जाया गया है या नहीं।
नैत्यक जाँच के उद्देश्य
(Objects of Routine Checking)
नैत्यक जाँच के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-
(1) प्रारम्भिक पुस्तकों तथा खाता-बहियों के लेखों की गणित-सम्बन्धी शुद्धता की जाँच करना।
(2) लेखे नियमानुसार बनाये गये हैं या नहीं, यह जाँच करना ।
(3) जाँच के पश्चात् परिवर्तित किये गये अंकों का पता लगाना ।
नैत्यक जाँच की विधि
(Methods of Routine Checking)
नैत्यक जाँच में गुप्त चिन्हों का प्रयोग होता है जिन्हें टिक मार्क (Tick Mark) कहते हैं। इनका आशय गुप्त रखना चाहिये और विभिन्न क्रियाओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के टिक लगाने चाहिये। उदाहरणार्थ, X,D, I, p, V आदि। इनकी स्याही का रंग लेखों की स्याही के रंग से भिन्न होना चाहिये। इनके रंग में प्रतिवर्ष परिवर्तन करते रहना चाहिये।
नैत्यक जाँच के लाभ
(Advantages of Routine Checking)
नैत्यक जाँच से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
1. गणित सम्बन्धी त्रुटियों का ज्ञान (Knowledge of errors)-नैत्यक जाँच से प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों को गणित सम्बन्धी त्रुटि का ज्ञान शीघ्र ो जाता है ।
2. अंक परिवर्तन का पता चलना (Knowledge of Alteration in Figure) – – नैत्यक जाँच में अंकेक्षक अनेक प्रकार के चिन्हों का प्रयोग करता है जिससे यदि अंकेक्षण के उपरान्त किसी अंक में कोई परिवर्तन किया जाता है तो वह सहज ही पकड़ में आ जाता है।
3. सरल विधि (Simple Method)– नैत्यक जाँच करना अत्यन्त सरल है जिसका सामान्य योग्यता वाला कोई भी व्यक्ति सरलतापूर्वक कर सकता है। इसीलिए यह जान अंकेक्षक का जूनियर स्टाफ करता है ।
4. खतौनी की शुद्धता की जाँच (Checking of Posting Accuracy)-प्रारम्भिक लेखा पुस्तकों से खाताबही में जो खतौनी की गई है वह सही है अथवा नहीं, जानकारी नैत्यक जाँच से हो जाती है।
5. तलपट एवं अन्तिम खातों की जाँच में सहायक (Helpful in Checking of Trial Balance and Final Accounts)- नैत्यक जाँच से तलपट व अन्तिम खातों को जाँच में सहायता मिलती है और छोटे-छोटे छल-कपट पकड़ में आते हैं।
नैत्यक जाँच की हानियाँ/सीमायें
(Disadvantages/Limitations of Routine Checking)
नैत्यक जाँच की कुछ हानियाँ (सीमायें) भी हैं, जिनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित प्रकार है-
1. यन्त्रवत् कार्य (Machanised Work)- नैत्यक जाँच का कार्य यन्त्रवत् होने के कारण इसमें नीरसता आ जाती है, जिससे अंकेक्षक का स्टाफ खानापूर्ति समझकर लापरवाही करता है और नैत्यक जाँच पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता है। अतः त्रुटियाँ रह जाने की सम्भावना रहती है।
2. योजनाबद्ध छल-कपट का प्रकाश में न आना (No detection of Planned Fraud)- नैत्यक जाँच में छोटे-छोटे छल-कपटों को ही पकड़ा जा सकता है परन्तु ऐसे छल-कपट जो योजनाबद्ध तरीके से किये गये हैं, उन्हें नैत्यक जाँच से पकड़ा नहीं जा सकता है।
3. सैद्धान्तिक एवं क्षतिपूरक अशुद्धियों का पता न लगना (Fail to Detect the Errors of Principle and Compensatory Errors)-नैत्यक जाँच सामान्य योग्यता वाले ऐसे कर्मचारियों द्वारा की जाती है जिन्हें लेखांकन सिद्धान्तों का ज्ञान नहीं होता है, अतः सैद्धान्तिक एवं क्षतिपूरक अशुद्धियों की जानकारी नैत्यक जाँच से सम्भव नहीं हो पाती है। 4. कार्य में लापरवाही (Negligence of Work)-नैत्यक जाँच का कार्य लापरवाही एवं शीघ्रता से किया जाता है, अतः इसमें त्रुटियाँ रह जाने की सम्भावना रहती है।
परीक्षण जाँच (Test Checking)
बड़े-बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों में जाँच किये जाने वाले लेन-देनों की संख्या बहुत अधिक होती है तथा अंकेक्षक को कम समय में अपना कार्य समाप्त करना होता है। ऐसी दशा में अंकेक्षक लेखा-पुस्तकों में लिखे गये समस्त व्यवहारों की जाँच न करके, कुछ पाये जाते हैं, तो अंकेक्षक समस्त व्यवहारों को सही मान लेता है। ऐसी जाँच को ही ‘परीक्षण जाँच’ कहते हैं। परीक्षण जाँच की यह विधि उन संस्थाओं में ही अपनाई जाती है, जहाँ आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली प्रभावशाली एवं संतोषप्रद हो। ।
जाँच का आधार-डिक्सी के अनुसार-“परीक्षण जाँच के लिए जिन मदों को चुना वे ऐसी होनी चाहिएँ जो उस सारे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हों जिसका अंकेक्षण किया जाना है अर्थात् चुने हुए मद (i) विभिन्न प्रकार के लेनदेनों में से हों, (ii) विभिन्न कर्मचारियों के लेनदेनों में से, (iii) वर्ष भर के सौदों में से हों।” उद्देश्य-परीक्षण जाँच का मुख्य उद्देश्य अंकेक्षक के समय व श्रम में बचत करना है जिससे व्यवसाय को अन्य महत्वपूर्ण बातों की ओर वह अपना ध्यान लगा सके ।
परीक्षण जाँच के लाभ
(Advantages of Test Checking)
एक संस्था में अंकेक्षण के दौरान परीक्षण जाँच करने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते है-
1. समय एवं श्रम की बचत-परीक्षण जाँच का सहारा लेकर अंकेक्षक अपना कार्य शीघ्र समाप्त कर सकता है, जिससे समय और श्रम दोनों की बचत होती है ।
2. विश्वसनीय परिणाम-परीक्षण जाँच के परिणाम विश्वसनीय होते हैं क्योंकि पुस्तपालक एवं लेखापालक यह नहीं जानते कि किन विशिष्ट लेखों व पुस्तकों की जाँच की जायेगी, अतः वे प्रत्येक लेखे को ठीक ढंग से रखते हैं।
3. अनेक व्यवसायों का अंकेक्षण सम्भव होना-अंकेक्षक अनेक व्यवसायों का अंकेक्षण एक साथ कर सकता है क्योंकि इस जाँच के द्वारा कम समय में अधिक कार्य किया जा सकता है।
4. कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव-स्टाफ के ऊपर नैतिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह अनिश्चितता बनी रहती है कि कौन-सा कार्य तथा किस समय का कार्य परीक्षण जाँच के अन्तर्गत आयेगा।
5. अंकेक्षण कार्य की शीघ्र समाप्ति परीक्षण जाँच से अंकेक्षण का कार्य शीघ्र समाप्त हो जाता है क्योंकि केवल कुछ चुने हुए लेन-देनों की जाँच करने के कारण जाँच में कम समय लगता है।
6. अंकेक्षण प्रतिवेदन शीघ्र मिलना-अंकेक्षण कार्य शीघ्र हो जाने के कारण अंकेक्षक प्रतिवेदन भी शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।
परीक्षण जाँच की हानियाँ
(Disadvantages of Test Checking)
परीक्षण जाँच कराने से एक संस्था को निम्नलिखित हानियाँ होने की सम्भावना बनी रहती है-
1. त्रुटियों एवं छल-कपटों का पता न लगना-परीक्षण जाँच में सम्पूर्ण लेखों की जाँच न होकर केवल कुछ लेखों की ही जाँच होती है जिससे चतुराई से की गई त्रुटियों व कपटों का पता नहीं चलता।
2. रिपोर्ट का असन्तोषजनक होना-परीक्षण जाँच के अन्तर्गत कुछ लेन-देनों की ही जाँच की जाती है, अत: परीक्षण जाँच के आधार पर बनाई गई अंकेक्षण रिपोर्ट को संतोषजनक नहीं माना जा सकता।
3. कार्य असावधानी से किया जाना-नियोक्ता के कर्मचारी अपना कार्य असावधानी से करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनके द्वारा लिखे गए सभी लेखे अंकेक्षक द्वारा नहीं देखे जाएँगे।
4. अंकेक्षक के उत्तरदायित्व में वृद्धि-परीक्षण जाँच के अन्तर्गत अंकेक्षक न्यादर्श (Sample) जाँच के आधार पर समग्र (Universe) का सत्यापन करता है। वास्तविकता यह है कि परीक्षण जाँच के अन्तर्गत अंकेक्षक का कार्य तो कम हो जाता है परन्तु उसके उत्तरदायित्व में वृद्धि हो जाती है। उसे उन व्यवहारों के लिए भी उत्तरदायी माना जाता है जिन व्यवहारों की जाँच उसने नहीं की है।
परीक्षण जाँच करते समय रखी जाने वाली सावधानियाँ
(Precautions to be taken while applying Test Checking)
मरीक्षण जाँच करते समय अंकेक्षक को निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिये, तभी परीक्षण जाँच संतोषजनक एवं प्रभावशाली हो सकती है-
1. सही प्रतिनिधि लेखों का चुनाव-परीक्षण जाँच हेतु जिन भी लेखों या मदों को चुना जाये वह सम्पूर्ण लेखों का प्रतिनिधित्व करती हों, तभी परीक्षण जाँच से सही परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। प्रतिनिधि लेखों का चुनाव निष्पक्ष रूप से और अनायास होना चाहिए।
2. वर्ष के प्रारम्भिक एवं अन्तिम लेखों की गहन जाँच-जिस अवधि के लेखों का अंकेक्षण कार्य किया जा रहा है, उस अवधि के प्रारम्भ एवं अन्त के लेखों को अच्छी तरह जाँचना चाहिए क्योंकि अधिकतर गड़बड़ी सामान्यतया इसी अवधि में की जाती है । वस्तुतः प्रारम्भ एवं अन्त के लेखों की जाँच त्रुटियों व कपटों को पकड़ने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है
3. विभिन्न अवधि के लेखों को चुनना-अंकेक्षक को प्रत्येक पुस्तक के विभिन्न अवधि वाले लेखों को चुनना चाहिए। ऐसा करने से यह संभावना नहीं रहती कि किसी विशेष महीने में नियोक्ता के बाहर रहने या अन्य कारण से गड़बड़ियाँ कर दी गयी हों, और वे जाँचने से छूट जायें ।
4. प्रत्येक कर्मचारी के कार्य की जाँच-मदों के चुनाव में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक कर्मचारी द्वारा किए गए कार्य में से कुछ-न-कुछ मदें अवश्य चुननी चाहिएँ जिससे प्रत्येक कर्मचारी के कार्य की जाँच हो जाए। यदि कुछ कर्मचारियों के कार्य की बिल्कुल भी जाँच नहीं हो पाती, तो परीक्षण जाँच से प्राप्त परिणाम सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता।
5. संदिग्ध (शंका जनित) व्यवहारों की गहन जाँच-यदि कुछ व्यवहार ऐसे नजर आते हैं जिनके सम्बन्ध में छल-कपट या त्रुटियों का सन्देह हो, तो ऐसे व्यवहारों की विस्तृत जाँच की जानी चाहिए।
6. रोकड़ पुस्तक एवं जर्नल के क्रेडिट लेखों की पूर्ण जाँच-सामान्यतया सबसे अधिक छल-कपट रोकड़ पुस्तक में ही होते हैं। अतः रोकड़ पुस्तक के प्रमाणन एवं जर्नल के क्रेडिट लेखों के प्रमाणन में परीक्षण जाँच की प्रथा का प्रयोग नहीं करना चाहिए वरन् उनकी पूर्ण जाँच की जानी चाहिए।
7. न्यादर्श की गोपनीयता न्यादर्श के चुनाव में गोपनीयता रखी जानी चाहिए, ताकि कर्मचारियों को इसकी जानकारी नहीं हो पाये और वे अपने छल-कपट को नहीं छुपा सकें।
परीक्षण जाँच एवं अंकेक्षक का उत्तरदायित्व
(Test Checking and Auditor’s Responsibility)
परीक्षण जाँच की सहायता से एक अंकेक्षक अंकेक्षण का कार्य कर सकता है क्योंकि भारत में इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड् एकाउण्टेण्ट्स ने इस जाँच प्रणाली को उचित मानते हुए
उसे स्वीकृति भी प्रदान कर दी है किन्तु अंकेक्षक परीक्षण जाँच से अपना कार्य-भार तो कम कर सकता है किन्तु इससे उसका दायित्व कम नहीं होता। अत: यह बात पूर्णतया अंकेक्षक को इच्छा पर निर्भर है कि अंकेक्षण कार्य को सम्पन्न करने में वह परीक्षण जाँच-प्रणाली का सहारा ले अथवा नहीं। परन्तु परीक्षण प्रणाली अपनाने के कारण हिसाब-किताब में अशुद्धियाँ अथवा छल-कपट छूट जाने पर अंकेक्षक को दोषमुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं है। यदि परीक्षण जाँच अपनाने के कारण नियोक्ता को हानि होती है तथा अंकेक्षक के विरुद्ध न्यायालय में लापरवाही का मुकदमा चलाया जाता है, तो अंकेक्षक अपने बचाव में यह तर्क नहीं दे सकता कि उसने चूँकि परीक्षण जाँच की थी अतः वह दोषमुक्त है।
अत: अंकेक्षक को इस जाँच प्रणाली का प्रयोग करते समय यह देख लेना चाहिए कि व्यवसाय में आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली सन्तोषप्रद है या नहीं तथा किस सीमा तक वह आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर विश्वास कर सकता है। उसे न्यादर्श का चुनाव करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए।
संक्षेप में, अंकेक्षक को संस्था की आन्तरिक निरीक्षण-प्रणाली की यथार्थता से सन्तुष्ट होकर ही परीक्षण जाँच प्रणाली अपनानी चाहिए। परीक्षण जाँच अंकेक्षक के कार्यभार को कम कर सकती है, दायित्व को नहीं।
अंकेक्षण कार्य-प्रपत्र
अंकेक्षक द्वारा अंकेक्षण कार्य के दौरान जिन विभिन्न प्रपत्रों का प्रयोग किया जाता है तथा जिन सूचनाओं को वह अंकेक्षण के दौरान प्राप्त करके अपने पास सुरक्षित रखता है, उन्हें अंकेक्षण सम्बन्धी कार्य-प्रपत्र कहते हैं।
“अंकेक्षण कार्य अंकेक्षण कार्य-पत्र अंकेक्षक द्वारा अपने कार्य को सुचारू रूप से करने, सभी सम्बन्धित तथ्यों को स्मरण शक्ति पर न छोड़कर लिखने एवं भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर इनके आधार पर अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए बनाये जाते हैं। नियोक्त के कार्य में इन पत्रों के अंकेक्षक के पास रहने से कोई रुकावट नहीं होती। अतः अंकेक्षण कार्य-पत्रों पर अंकेक्षक का स्वामित्व होता है। अमेरिका में Ipswich Mills Vc. Dillon and Sons, 1927 मुकदमें में निर्णय दिया गया था कि अंकेक्षण कार्य-पत्रों का स्वामी अंकेक्षक होता है। परन्तु वह इन पत्रों में लिखी हुई नियोक्ता की गुप्त बातों को तीसरे पक्ष के सम्मुख प्रकट नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो उसे व्यावसायिक दुराचरण का दोषी समझा जायेगा। नियोक्ता की प्रार्थना पर अथवा न्यायालय द्वारा आदेश देने पर इन कार्य-पत्रों की रचनाओं को प्रकट करना अपराध नहीं समझा जायेगा।
प्रपत्र अंकेक्षक की निजी सम्पत्ति होते हैं” –
अंकेक्षण नोट बुक/ अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तक
(Audit Note Book)
प्रत्येक व्यक्ति की स्मरण शक्ति की एक सीमा होती है। अत: कोई भी अंकेक्षक अंकेक्षण से सम्बन्धित सभी महत्वपूर्ण बातों को जबानी याद नहीं रख सकता। यही कारण है कि अंकेक्षण का कार्य करते समय अंकेक्षक अपने पास एक पुस्तक (डायरी) रखता है जिसमें सभी महत्वपूर्ण बातों को नोट करता जाता है। इसी पुस्तक को अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तिका कहते हैं।
अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तक से आशय एक ऐसी पुस्तक से है, जिसमें महत्वपूर्ण सूचनाएँ, माँगे गये स्पष्टीकरण, त्रुटियाँ तथा व्यवसायी से प्राप्त निर्देशों का लेखा रखा जाता है । इस पुस्तक में मुख्यतः उन समस्त बातों को लिखा जाता है, जो कि भविष्य में उपयोगी हों और जो याद नहीं रखी जा सकती हों। संक्षेप में, अंकेक्षण टिप्पणी पुस्तक एक ऐसी हस्तलिखित पुस्तिका है, जिसमें सभी महत्वपूर्ण तथ्य और सूचनाएँ लिखी जाती हैं, जो अंकेक्षण कार्य के नियोजन एवं संचालन में सहायता करती हैं। अतः प्रत्येक संस्था के अंकेक्षण के लिए अलग-अलग नोट बुक प्रयोग में लाई जाती है ।