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DIFFERENT METHODS OF COST ACCOUNTING

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DIFFERENT METHODS OF COST ACCOUNTING

प्रश्न 2. लागत लेखांकन की विभिन्न पद्धतियों का संक्षेप में वर्णन कीजिये और उन उद्योगों का उल्लेख कीजिये जिनमें उनका प्रयोग किया जाता है।

Describe in brief the different methods of Cost Accounting and State the industries of which they are applied. (DIFFERENT METHODS COST ACCOUNTING)

उत्तर- व्यवसायों में लागत लेखों के उद्देश्यों एवं सिद्धान्त एक ही होते हैं । परन्तु व्यवसाय की प्रकृति के अनुसार लागत लेखों की पद्धतियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । लागत लेखांकन की प्रमुख पद्धतियाँ इस प्रकार हैं-

(1) विधि अथवा प्रक्रिया लागत पद्धति

(2) बहुसंख्यक या मिश्रित लागत पद्धति

(3) समान लागत पद्धति

(4) लागत जोड़ पद्धति

(5) उपकार्य या ठेका लागत पद्धति

(6) लक्ष्य लागत विधि

(7) परिचालन लागत पद्धति

(8) समूह लागत पद्धति

(9) एकांकी अथवा उत्पादन लागत पद्धति

(10) विभागीय लागत पद्धति

(11) प्रमाप लागत पद्धति

(12) सीमान्त लागत पद्धति

DIFFERENT METHODS OF COST ACCOUNTING

(1) विधि अथवा प्रक्रिया लागत पद्धति (Process Costing Method)

-जब कोई वस्तु निर्मित अवस्था तक पहुँचने में अनेक विधियों या प्रक्रियाओं (Processes) या उत्पादन की विभिन्न स्थितियों (different stages of production) से होकर गुजरती है, और प्रत्येक विधि का कार्य दूसरी विधि से सरलता से पृथक किया जा सकता है, और उत्पादक प्रत्येक स्थिति या विधि की पृथक-पृथक कुल लागत और प्रति इकाई लागत जानना चाहता है,तो विधि लागत पद्धति को अपनाया जाता है । इस पद्धति में प्रत्येक प्रक्रिया’ (Process) का अलग खाता खोल दिया जाता है और उससे सम्बन्धित व्यय उसमें लिखे जाते हैं। प्रत्येक विधि का ‘क्षय’ (Wastage or Scrap) तथा भार में कमी’ (Loss in weight) इससे ज्ञात हो जाता है। इससे प्रत्येक विधि की उत्पादन-लागत ज्ञात हो जाती है । एक विधि का माल दूसरी विधि में और दूसरी का तीसरी विधि में कच्ची सामग्री की तरह हस्तान्तरित कर दिया जाता है । यह पद्धति तेल,रसायन पदार्थ, चीनी,साबुन,रंग व वार्निश, वनस्पति घी आदि बनाने वाले उद्योगों में काम में लाई जाती

(2) बहुसंख्यक या मिश्रित लागत पद्धति (Multiple Costing Method)-

जिन उद्योगों में अलग-अलग प्रकार की छोटी-छोटी वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है तथा बाद में उन सबको मिलाकर अन्तिम उत्पाद निर्मित किया जाता है,वहाँ इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है; जैसे-साइकिल,टाइपराइटर, टेलीविजन,मोटरकार,रेडियो,घड़ी, सिलाई मशीन आदि । क्योंकि इस प्रकार की वस्तुओं में प्रयुक्त सभी पुर्जे एवं वस्तुएं एक-दूसरे से भिन्न होती है। अतः यह आवश्यक होता है कि हर पुर्जे की लागत मालूम की जाये और इनकी पृथक्-पृथक् लागत ज्ञात करने हेतु आवश्यकतानुसार एक से अधिक लागत निर्धारण विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिये इसे बहुसंख्यक लागत लेखांकन रीति कहते हैं। स्पष्ट है कि अलग-अलग वस्तुओं के लिए अलग-अलग लागत निर्धारण विधि का प्रयोग किया जाने के कारण ही इसे बहुसंख्यक लागत लेखांकन पद्धति कहते हैं।

(3) समान लागत पद्धति (Uniform costing)

जब एक ही प्रकार का व्यवसाय करने वाली संस्थाओं द्वारा एक-सी लागत पद्धति अपनाई जाती है तो उसे ‘समान लागत पद्धति’ कहते हैं। अनेक वाणिज्य मंडल अपने सदस्यों को एक सी लागत पद्धति अपनाने की सलाह देते हैं। जिससे तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके। समान-लागत पद्धति में मजदूरी व बोनस योजनायें, व्ययों का विभागीकरण व अप्रत्यक्ष व्ययों के बंटवारे की भी समान पद्धति अपनाने का प्रयास किया जाता है।

(4) लागत जोड़ पद्धति (Cost Plus Method)-

जब आपत्तिकाल में कुछ कार्य शीघ्र पूर्ण कराने होते हैं,ठेकेदारों को ठेका-मूल्य (Contract Price) तय किये बिना इस शर्त पर ठेका दे दिया जाता है कि ठेके की जो लागत आयेगी उसी पर निश्चित प्रतिशत लाभ जोड़कर उसे ठेका-मूल्य दिया जायेगा। इस आधार पर जो ठेके दिये जाते हैं, उन्हें लागत जोड़ पद्धति (cost plus contracts) कहते हैं।

(5) उपकार्य या ठेका लागत पद्धति (Job or Contract Costing)-

जिन व्यवसायों में आदेशानुसार उत्पादन या कोई उपकार्य पूरा किया जाता है वहाँ प्रत्येक उपकार्य की लागत की समीक्षा तथा लाभ-हानि की जानकारी प्राप्त करने हेतु उपकार्य लागत पद्धति (Job Costing) को अपनाया जाता है। प्रत्येक कार्य की लागत एकत्रित करने हेतु पृथक रूप से (Job Card) बनाया जाता है। यह पद्धति मुद्रकों (Printers), मशीनी पुर्जे निर्माताओं, फाउण्ड्रियों तथा सामान्य इन्जीनियरियंग कार्यशालाओं द्वारा अपनाई जाती है।

जब कार्य का स्वरूप बड़ा हो तथा वह लम्बी अवधि तक चलाने वाला हो तो ठेका लागत पद्धति अपनाई जाती है। प्रत्येक ठेके के लिए पृथक-पृथक खाता रखा जाता है। इस पद्धति का प्रयोग मुख्यतः भवन,सड़क तथा बाँध व अन्य निर्माण आदि में होता है।

(6) लक्ष्य लागत विधि (Target Costing Method)

इस विधि में निर्माण अथवा उत्पादन आरम्भ करने से पूर्व ही निर्माण व्ययों के लक्ष्य निर्धारित कर दिये जाते हैं । उत्पादन व्यय के लक्ष्य अनुमान के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं और निर्माण काल में इन लक्ष्यों को पूर्ण ध्यान में रखा जाता है। लक्ष्य निर्धारित करने में विशेष सावधानी रखी जाती है। यह विधि बड़े-बड़े बाँध,पुल या सड़कों के निर्माण में प्रयुक्त होती है। अनुमानित लागत को ही लक्ष्य लागत कहते हैं और इसी आधार पर ठेकेदारों से टेण्डर माँगे जाते हैं तथा स्वीकार किये जाते हैं।

(7) परिचालन लागत पद्धति (Operating Cost System)

जो संस्थायें उत्पादन नहीं करतीं बल्कि सेवायें प्रदान करती हैं,वे इस पद्धति को उपयोग में लाती हैं। इस पद्धति को सेवा लागत विधि’ (Service Cost method) भी कहते हैं । रेलवे, बस,ट्रांसपोर्ट,ट्राम्बे कम्पनियाँ तथा पानी,बिजली,गैस अदि सप्लाई करने वाले उपक्रम,यदि सेवा संपादन की प्रति इकाई लागत ज्ञात करना चाहती हैं तो इस विधि का उपयोग करती हैं, जैसे यात्री ले जाने के प्रति किलोमीटर लागत या माल ढोने की प्रति क्विटल-किलोमीटर लागत ।

(8) समूह लागत पद्धति (Batch Costing)-

जहाँ पर उत्पादन कार्य को सुविधा हेतु पृथक्-पृथक् समूहों में पूरा किया जाता है और प्रत्येक समूह की अलग-अलग लागत ज्ञात करनी होती है वहाँ यह विधि अपनायी जाती है । इस रीति के अन्तर्गत प्रत्येक समूह को उत्पादन की एक इकाई माना जाता है। समूह लागत में बैच में उत्पादित कुल वस्तु इकाइयों को संख्या से भाग देकर प्रति इकाई लागत ज्ञात कर ली जाती है । इस पद्धति का प्रयोग मुख्यतः खाद्य वस्तुओं का निर्माण करने,बेकरीज व कारखानों में होता है । वस्तुतः यह पद्धति उपकार्य लागत पद्धति का विस्तार मात्र

(9) एकांकी अथवा उत्पादन लागत पद्धति (Single or Output or Unit or Uniform Costing Method)

इस विधि का उपयोग उन संस्थाओं में होता है जहाँ निर्मित माल की सभी इकाइयाँ एक-सी होती हैं तथा प्रमापित वस्तुओं का उत्पादन होता है। यह विधि कोयले की खानों (Collieries), ईंटों के भट्टों (Brick klins),सीमेंट के कारखानों,कागज की मिलों,शराब के कारखाने (Breweriews), दुग्ध उत्पादन संस्थाओं (Dairies) व पत्थर की खानों (Quarries) आदि में प्रयोग की जाती है। इस विधि में प्रति इकाई लागत तथा उत्पादन की कुल लागत मालम की जाती है।

(10) विभागीय लागत पद्धति (Departmental Costing System)-

जब फैक्ट्री का कार्य पृथक-पृथक विभागों में बँटा हो और प्रत्येक विभाग की अलग-अलग लागत ज्ञात करनी हो तो यह पद्धति काम में लाई जाती है। इस पद्धति में व्ययों को सभी विभागों में विभाजित किया जाता है और प्रत्येक विभाग का लाभ-हानि ज्ञात किया जाता है।

(11) प्रमाप लागत पद्धति (Standard Costing System)

उत्पादन को कुशलता व मितव्ययता से करने के लिये यह पद्धति काम में लाई जाती है। पुराने अनुभव व सम्भाव्य परिस्थितियों का अनुमान करते हुए विभिन्न कार्यों की प्रमाप-लागत ज्ञात की जाती है

(12) सीमान्त लागन पद्धति (Marginal Cost System)-

फैक्ट्री के कुछ व्यय स्थिर (Fixed) तथा कुछ व्यय परिवर्तनशील (variable) होते हैं । स्थिर लागतों पर उत्पादन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता,लेकिन परिवर्तनशील व्ययों में उसी अनुपात में परिवर्तन होता है । यदि उत्पादक यह जानना चाहता है कि कम से कम कितना उत्पादन करे कि उसके स्थिर व्यय वसूल हो जाये अर्थात् उसे लाभ न हो तो हानि भी न हो तो यह सीमान्त लागत पद्धति के आधार पर सम विच्छेद बिन्दु’ (Break even point) ज्ञात कर सकता है


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