रैयतवाड़ी प्रणाली (Ryotwari System)
रैयतवाड़ी प्रणाली सर्वप्रथम 1792 ई० में कैप्टन रीड तथा थॉमस मुनरो (Capt. Read and Thomas Munro) द्वारा मद्रास में लागू की गई। धीरे-धीरे यह अन्य प्रान्तों में भी लागू कर दी गई। स्वतन्त्रता के समय यह अवस्था कृषि क्षेत्र के 48 प्रतिशत भाग में प्रचलित थी, जिसके मुख्य क्षेत्र मद्रास, बम्बई, असम व सिन्ध के प्रान्त थे।
रैयतवाड़ी प्रणाली के अन्तर्गत सम्पूर्ण भूमि पर राज्य का एकाधिकार होता है, किन्तु व्यवहार में उस भूमि इकाई का स्वामी प्रत्येक रजिस्टर्डधारी (रैयत) होता है। उस व्यक्ति का स्वामित्व उस भूमि पर तब तक बना रहता है, जब तक वह सरकार को नियमित रूप से लगान देता रहता है। उस व्यक्ति को भूमि हस्तान्तरण, भूमि का प्रयोग करने, बेचने एवं बन्धक रखने या अन्य किसी प्रकार से अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है। भूमि पर मालगुजारी का निर्धारण भूमि की उर्वरा शक्ति द्वारा प्रति 20-40 वर्ष पश्चात् किया जाता है। . .
प्रणाली की विशेषताएँ
इस प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं-
(1) सम्पूर्ण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होता है।
(2) राज्य तथा काश्तकार के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है, क्योंकि इनके मध्य कोई मध्यस्थ नहीं होता।
(3) जब तक काश्तकार भूमि का लगान देता रहेगा, भूमि का मालिकाना हक काश्तकार के पास बना रहेगा।
(4) भूमि का प्रत्येक अधिकारी स्वयं ही मालगुजारी देने के लिए उत्तरदायी होता है।
(5) जब तक काश्तकार भूमि का लगान देता है, तब तक उसे भूमि का हस्तान्तरण करने, भूमि का प्रयोग करने, बेचने या बन्धक रखने या अन्य किसी प्रकार अलग करने का पूर्ण अधिकार होता है।
प्रणाली के गुण
1. काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध-इस प्रणाली के अन्तर्गत राज्य एवं कृषक के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध बना रहता है, अत: सरकार आसानी से कृषकों की कठिनाइयाँ समझ सकती है।
2. भूमि सुधार का लाभ सरकार को भी प्राप्त होना-चूँकि लगान का निर्धारण एक निश्चित समय-अवधि के पश्चात् निर्धारित होता है, अत: भूमि सुधारों का लाभ राज्य को भी प्राप्त होता रहता है।
3. भू-धारण की सुरक्षा—इस व्यवस्था में भू-धारण की भी सुरक्षा बनी रहती है, जिससे किसान को परिश्रम एवं पूँजी का प्रतिफल प्राप्त हो जाता है।
4. भूमि सम्बन्धी पूरे रिकॉर्ड एवं प्रलेख-इस प्रणाली में भूमि सम्बन्धी रिकॉर्ड एवं प्रलेख पूर्ण होते हैं, अत: भूमि सुधार आसानी से किया जा सकता है।
5. मध्यस्थता का अभाव-इस प्रणाली में मध्यस्थता के अभाव में कृषक का शोषण नहीं होता, क्योंकि काश्तकार का राज्य से प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है।
6. आपत्तिकाल में सुविधा-इस प्रणाली में आपत्तिकाल में सुविधा रहती है, क्योंकि सरकार इस दौरान भूमि लगान माफ कर सकती है।
प्रणाली के दोष
1. मनमाने लगान का निर्धारण—इस प्रणाली में सरकारी अधिकारी लगान निर्धारण में मनमानी कर सकते हैं।
2. भूमि सुधार में संकोच-लगान बढ़ने के भय से कृषक भूमि सुधार करने में संकोच करते हैं।
3. भूमि हस्तान्तरण का भय-हस्तान्तरण की स्वतन्त्रता के कारण किसानों की भूमि बड़े किसानों की ओर हस्तान्तरित होने का भय सदैव रहता है।
4. सरकार के लिए अमितव्ययी व्यवस्था—लगान वसूल करने में सरकार को काफी व्यय करना पड़ता है, क्योंकि इस कार्य के लिए ही कई कर्मचारी नियुक्त करने पड़ते हैं।
5. जमींदारी प्रथा के दोषों से मुक्त नहीं-इस प्रणाली में जमींदारी प्रथा के दोष आ जाते हैं।
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