झूम खेती क्या है? – झूम खेती, जिसे घुमंतू खेती भी कहा जाता है, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और अन्य हिस्सों में पारंपरिक कृषि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह कृषि प्रणाली मुख्यतः उन क्षेत्रों में प्रचलित है, जहां स्थायी खेती के लिए जलवायु और भूमि उपयुक्त नहीं होती। इस लेख में, हम विस्तार से जानेंगे कि झूम खेती किसे कहते हैं, इसकी विशेषताएँ क्या हैं, और इसका कृषि और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है।
झूम खेती किसे कहते हैं?
झूम खेती एक ऐसी कृषि पद्धति है जिसमें किसान जंगल के एक हिस्से को साफ करते हैं, उस पर कुछ समय तक खेती करते हैं, और फिर उसे छोड़कर नए इलाके में जाकर खेती शुरू कर देते हैं। इसे स्लैश एंड बर्न खेती भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें जंगल की वनस्पति को काटकर जलाया जाता है और फिर उस भूमि पर खेती की जाती है।
इस पद्धति का दूसरा नाम ‘शिफ्टिंग एग्रीकल्चर’ है, जो इसका मुख्य सिद्धांत बताता है – एक जगह से दूसरी जगह पर खेती करना। झूम खेती का महत्व इस बात में है कि यह उन आदिवासी समुदायों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है जो स्थायी कृषि के लिए उपयुक्त भूमि नहीं रखते हैं।
झूम खेती का इतिहास और पारंपरिक महत्व
झूम खेती का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है और यह पारंपरिक रूप से आदिवासी समुदायों के बीच प्रचलित रही है। यह खेती का एक तरीका है जो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करता है, और भूमि को पुनः उर्वरता प्राप्त करने का समय देता है। इस कृषि पद्धति में किसान एक निश्चित अवधि के बाद भूमि को छोड़ देते हैं ताकि भूमि खुद को पुनः उपजाऊ बना सके।
भारत के अलावा, यह पद्धति दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका, और दक्षिण अमेरिका के कई क्षेत्रों में भी पाई जाती है। यह आदिवासी समुदायों के लिए भोजन और जीवन-निर्वाह का मुख्य स्रोत है।
झूम खेती की प्रक्रिया कैसे की जाती है?
- जंगल साफ करना: झूम खेती की पहली प्रक्रिया में किसानों द्वारा एक जंगल के हिस्से को काटा जाता है। इसमें पेड़, पौधे और घास को काटकर जलाया जाता है। इस प्रक्रिया को स्लैश एंड बर्न भी कहा जाता है।
- बीज बोना: इसके बाद, किसान साफ की गई भूमि पर बीज बोते हैं। यह एक सरल और प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें कोई आधुनिक मशीनों का उपयोग नहीं होता।
- फसल उगाना: साफ की गई भूमि में उगने वाली फसलों में मुख्यतः धान, मक्का, और बाजरा जैसी अनाज की फसलें शामिल होती हैं।
- भूमि छोड़ना: जब भूमि की उर्वरता कम हो जाती है, तब किसान उस क्षेत्र को छोड़कर नए क्षेत्र में चले जाते हैं और वहां फिर से खेती शुरू करते हैं।
इस प्रक्रिया को चक्रीय कृषि प्रणाली कहा जाता है, जहां भूमि को विश्राम दिया जाता है ताकि प्राकृतिक रूप से उसकी उर्वरता वापस आ सके।
झूम खेती की विशेषताएँ
- स्थायी स्थलों का अभाव: झूम खेती में किसानों के पास स्थायी खेत नहीं होते। वे लगातार एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित होते रहते हैं।
- प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग: झूम खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग नहीं किया जाता। पूरी प्रक्रिया प्राकृतिक ढंग से की जाती है।
- स्लैश एंड बर्न पद्धति: इस पद्धति का मुख्य आधार जंगलों की वनस्पति को जलाकर उसे खेती के लिए तैयार करना है।
- भूमि का पुनर्नवीनीकरण: एक बार जब भूमि की उपजाऊ क्षमता खत्म हो जाती है, तब किसान उसे छोड़ देते हैं, जिससे भूमि अपने प्राकृतिक रूप में लौट आती है और फिर से उपजाऊ हो जाती है।
- मल्टी-क्रॉप सिस्टम: झूम खेती में एक साथ कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं, जिससे फसल विविधता और खाद्य सुरक्षा में वृद्धि होती है।
झूम खेती कहां की जाती है?
भारत में झूम खेती मुख्यतः पूर्वोत्तर राज्यों में की जाती है, जिनमें अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, और असम शामिल हैं। इसके अलावा, झूम खेती बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भी प्रचलित है।
इन क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति और वर्षा आधारित कृषि पद्धतियों के कारण झूम खेती आदिवासी समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण कृषि प्रणाली बन गई है।
झूम खेती का महत्व
- आदिवासी जीवनशैली का हिस्सा: झूम खेती उन आदिवासी समुदायों का हिस्सा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इसे अपनाते आए हैं। यह उनके लिए आजीविका का एक महत्वपूर्ण साधन है।
- पर्यावरणीय संतुलन: झूम खेती में भूमि को प्राकृतिक रूप से उर्वर होने के लिए समय दिया जाता है, जिससे भूमि की उर्वरता बनी रहती है। इससे पर्यावरणीय संतुलन भी बनाए रखने में मदद मिलती है।
- फसल विविधता: इस पद्धति में एक ही स्थान पर कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं, जिससे जैव विविधता बनी रहती है।
- स्थानीय खाद्य सुरक्षा: झूम खेती स्थानीय समुदायों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करती है, क्योंकि इसमें उगाई जाने वाली फसलें उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करती हैं।
- साधारण संसाधन मांग: झूम खेती में महंगे उपकरणों या उन्नत कृषि प्रौद्योगिकी की आवश्यकता नहीं होती, जिससे यह आदिवासी और ग्रामीण किसानों के लिए एक सस्ती कृषि पद्धति है।
झूम खेती के फायदे और नुकसान
फायदे:
- प्राकृतिक उर्वरता: जमीन को कुछ सालों तक छोड़ने के बाद उसकी उर्वरता लौट आती है।
- फसल विविधता: एक समय में कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं।
- कम लागत: महंगी मशीनरी या रसायनों की जरूरत नहीं होती।
- साधारण संसाधनों का उपयोग: झूम खेती में केवल प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग होता है।
नुकसान:
- वनों की कटाई: इस पद्धति के कारण जंगलों की कटाई होती है, जिससे पर्यावरणीय नुकसान हो सकता है।
- जलवायु परिवर्तन: स्लैश एंड बर्न के कारण कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
- स्थायी कृषि का अभाव: झूम खेती में स्थायी कृषि प्रणाली का अभाव होता है, जिससे भूमि पर दीर्घकालिक खेती संभव नहीं होती।
निष्कर्ष
झूम खेती एक महत्वपूर्ण पारंपरिक कृषि प्रणाली है, जो भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों और अन्य देशों के आदिवासी समुदायों के लिए आजीविका का प्रमुख स्रोत है। हालांकि, यह पद्धति पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रही है, फिर भी इसका महत्व आज भी बना हुआ है। स्थायी कृषि पद्धतियों को अपनाकर झूम खेती को और अधिक लाभकारी और पर्यावरण-संवेदनशील बनाया जा सकता है।