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प्रबन्ध से आशय
(Meaning of Management)
साधारण बोलचाल की भाषा में प्रबन्ध से आशय किसी कार्य को व्यवस्थित ढंग से करने की पद्धति से हैं। आधुनिक व्यवसाय के कुशल संचालन के सन्दर्भ में प्रबन्ध शब्द का प्रयोग दो शब्दों में किया जाता है।
इस प्रकार व्यवसाय में निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न व्यक्तियों की क्रियाओं को नियन्त्रित एवं समन्वित करना ही प्रबन्ध कहलाता है।
परिभाषाएँ-प्रबन्ध की प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं: हेनरी फेयोल के अनुसार, प्रबन्ध का अर्थ पूर्वानुमान, नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय और नियन्त्रण करना है।”
अमेरिकी प्रबन्ध समिति के अनुसार, “प्रबन्ध मानवीय तथा भौतिक साधनों को क्रियाशील संगठनों की इकाइयों में लगाता है, जिसका उद्देश्य व्यक्तियों द्वारा कार्य को सम्पादित कराना होता है।”
कूण्ट्स एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “ प्रबन्ध से अधिक महत्वपूर्ण मानवीय क्रिया का अन्य कोई क्षेत्र नहीं है, क्योंकि इसका कार्य अन्य व्यक्तियों द्वारा कार्य को सम्पादित कराना होता है।”
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि प्रबन्ध एक सुनियोजित एवं सतत प्रक्रिया है, जिसमें पूर्व निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन, संगठन निर्देशन और नियन्त्रण के द्वारा संगठन के मानवीय और भौतिक संसाधनों के मध्य प्रभावशाली समन्वय स्थापित करके, उत्पादकता में वृद्धि किस्म में सुधार, उत्पादन लागत में कमी तथा कर्मचारियों के साथ मधुर सम्बन्ध एवं संस्था के सामान्य उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं।
प्रबन्ध के कार्य
(Functions of Management)
(1) प्रमुख कार्य, (II) सहायक कार्य,
(I) प्रमुख कार्य–प्रबन्ध के मुख्य कार्यों में निम्न शामिल हैं
(1) नियोजन–
नियोजन प्रबन्ध का प्रथम कार्य माना जाता है, जो किसी भी उपक्रम म संतोषप्रद परिणाम प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। नियोजन एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्रबन्धक भविष्य के बारे में सोचता है तथा उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अनुकूलतम मार्ग का चुनाव करता है । वास्तव में योजना बनाते समय जब प्रबन्धक भावी कार्यक्रम क बार में गहराई से सोचता है, तो उसे भविष्य में उत्पन्न हो सकने वाले विभिन्न खतरों का आभास हाता है, या योजना के अभाव में शायद ही होता और इस प्रकार प्रबन्धक उन खतरों व कठिनाइयों से बचने के लिए आवश्यक कदम उठाने में समर्थ होता है।
(2) संगठन-
प्रबन्ध प्रक्रिया में नियोजन के पश्चात् संगठन का स्थान है,क्योंकि नियोजन के अन्तर्गत निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए श्रम, पूँजी, मशीन, कच्चा माल आदि जुटाने होते हैं। इनका प्रभावपूर्ण उपयोग एक अच्छे संगठन या तन्त्र द्वारा ही सम्भव है। किसी भी उपक्रम में सफलता बहुत कुछ इसी तथ्य पर निर्भर करेगी कि उस उपक्रम की संगठन संरचना योजना लक्ष्यों के अनुरुप की गयी है या नहीं।
(3) नियुक्तियाँ-
एक उपक्रम में संगठन संरचना का निर्धारण हो जाने के बाद आवश्यकता होती है, उस संगठन में सृजित विभिन्न पदों (प्रबन्ध संचालक से लेकर सुपरवाइजरों तक) पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्तियाँ हों । नियुक्तियों का यह कार्य भी प्रबन्धकीय कार्य है और इसी प्रक्रिया का एक भाग है।
(4) निर्देशन-
एक उपक्रम में लक्ष्यों के अनुरूप संगठन, संरचना व आवश्यक नियुक्तियाँ कर लेने के बाद आवश्यकता होती है, कर्मचारियों को दिशा-निर्देश प्रदान करने की, ताकि वे लक्ष्य की ओर बढ़ सके। इस प्रकार निर्देशन प्रबन्धकीय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण चरण के रूप में प्रवन्ध का एक प्रमुख कार्य है।
निर्देशन में नेतृत्व भी शामिल है। उच्च प्रबन्ध के अन्तर्गत नेतृत्व क्षमता भी होनी चाहिए, जिसके द्वारा वह अन्य कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। अच्छा नेतृत्व अपने अधीनस्थों में वफादारी तथा हितों की भावना भर देता है और इस प्रकार उनसे कार्य में पूर्ण सहयोग प्राप्त करता है तथा उद्देश्य प्राप्त करने में सफल होता है !
(5) अभिप्रेरणा-
अभिप्रेरणा प्रबन्ध का एक प्रमुख कार्य है। यद्यपि आभप्रेरणा का कार्य निर्देशन या नेतृत्व का ही एक भाग है, परन्तु अधिकांश प्रबन्धशास्त्री आधुनिक समय में
अभिप्रेरणा के महत्व को स्वीकारते हुए इसको प्रबन्ध पृथक् कार्य के रूप में ही प्रदर्शित करते
प्रत्येक उपक्रम में उत्पादन प्रक्रिया में भौतिक (कच्चा माल, मशीन आदि) तथा मानवीय संसाधनों (श्रम) का उपयोग किया जाता है, परन्तु इन दोनों में भी मानवीय संसाधन ही अधिक हित्वपूर्ण है, जो वास्तव में भौतिक संसाधनों का प्रयोग सम्भव बनाते हैं। इसलिए श्रमिकों प्रबन्ध का परिचय तथा प्रबन्धकीय भूमिकाएँ एवं कर्मचारियों को कार्य के लिए अभिप्रेरित करना प्रबन्धकों की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य बन जाता है। कुशल निर्देशन या नेतृत्व वही माना जाता है, जो अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के मनोबल को ऊँचा रखकर उन्हें उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अभिप्रेरित कर सक।
(6)सम्प्रेषण या संदेशवाहन–
प्रबन्धकीय प्रक्रिया में अभिप्रेरणा के बाद साप्रेषण का स्थान है और यह प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य है । साधारण बोलचाल की भाषा में सम्प्रेषण का आशय है विचारों व सूचनाओं का संवहन । वास्तव में अभिप्रेरणा और सम्प्रेषण एक-दूसरे से जुड़े हुए है । उचित सम्प्रेषण के अभाव में कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने की प्रत्येक योजना निरर्थक ही सिद्ध होगी। यदि अभिप्रेरणा द्वारा योजनाओं को सफल बनाना है, तो यह आवश्यक है कि उच्च प्रबन्ध द्वारा बनायी गयी योजनाएँ व उनके विचार सही रूप में और शीघ्रता के साथ कर्मचारियों तक सम्प्रेषित हों और उनके सम्बन्ध में कर्मचारियों की प्रक्रिया तथा सुझाव उच्च प्रबन्धक तक पहुँचते रहें।
(7) नियन्त्रण-
नियन्त्रण प्रबन्धकीय प्रक्रिया का अन्तिम चरण है। नियन्त्रण से आशय ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि कार्य योजनानुसार हो रहा है या नहीं। यदि परिणाम (Results) योजना लक्ष्यों से दूर हैं अर्थात् असन्तोषजनक हैं, तो सुधारात्मक कदम उठाना भी नियन्त्रण का भाग है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कम्पनी में उत्पादन की लागत पूर्व निर्धारित लागत से अधिक आ रही है, तो प्रबन्धक का यह दायित्व है कि वह लागत अधिक आने के कारणों का पता लगाये और सुधारात्मक कदम उठाकर लागत को नियन्त्रित करें।
(8) समन्वय-
कुछ प्रबन्धशास्त्री समन्वय को प्रबन्ध का कार्य मानते हैं, तो कुछ अन्य इसे प्रबन्ध का सार (Essence) मानते हैं, परन्तु इसे जो कुछ भी माना जाय, यह अवश्य है कि एक उपक्रम के कुशल संचालन के लिए उपक्रम के विभिन्न विभागों व उप-विभागों के मध्य समन्वय (Co-ordination) किया जाना आवश्यक है । अन्यथा परिणाम असन्तोषजनक होंगे और लक्ष्य प्राप्त कर पाना असम्भव होगा।
(I)समन्वय से आशय सामूहिक प्रयासों की ऐसी अचूक व्यवस्था से है, जिसमें कार्य की एकजुटता रहती है तथा कार्य निर्बाध रूप से संचालित होता रहता है। इसीलिए समन्वय की समस्या अधिकांशतः वृहद् आकार के उपक्रमों में उत्पन्न होती है, जहाँ उपक्रम के विभाग, उपविभाग व शाखाएँ, बड़ी संख्या में पायी जाती हैं और उन सभी के कार्यों में समन्वय स्थापित करना एक जटिल कार्य होता है।
(II) सहायक कार्य-प्रबन्ध के द्वारा प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त भी कुछ कार्य करने होते हैं, जिन्हें निम्न प्रकार से सहायक कार्य कहा जा सकता है-
(1) निर्णयन-
प्रबन्धक जो भी कार्य करता है, वह निर्णयन पर आधारित होता है। किसी भी कार्य को करने के लिए अनेक वैकल्पिक साधन हो सकते है, किन्तु उनमें से सर्वोत्तम साधन के चुनाव के लिए ही निर्णय लेना पड़ता है। निर्णय जितना अधिक सही होगा व्यवसाय उतनी ही अधिक प्रगति करेगा। अनुभव, विवेक और अन्तर्ज्ञान आदि निर्णय करने की परम्परागत विधियाँ हैं तथा क्रियात्मक अनुसन्धान, सांख्यिकीय प्रणालियाँ एवं मॉडल निर्माण निर्णय की आधुनिक विधियाँ हैं।
(2) नवाचार या नव-प्रवर्तन-
इसका अर्थ उत्पादन के एक नये डिवीजन, एक नई उत्पादन पद्धति, नई विपणन तकनीक तथा नवीन कार्य से लगाया जाता है। व्यवसाय के विकास के लिये यह आवश्यक है कि परम्परागत तरीकों के बजाय सभी क्षेत्रों में नवीन पद्धतियों का प्रयोग किया जाये। आधुनिक प्रबन्ध ‘लकीर के फकीरों’ का न होकर ‘नयी पद्धति’ के लोगों का है। इस प्रकार नवाचार या नव-प्रवर्तन प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य है।
(3) प्रतिनिधित्व-
वर्तमान में प्रबन्ध के इस कार्य को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। इससे हमारा आशय व्यावसायिक संस्था का प्रतिनिधित्व करने से है । निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध के उपरोक्त कार्यों को अन्तिम नहीं कहा जा सकता है। प्रबन्ध एक गतिशील धारणा है, अतः प्रबन्ध के नित नये कार्यों का उदय हाना प्वाभाविक है। इस प्रकार प्रबन्ध की नये परिप्रेक्ष्य में नई कार्यप्रणाली का निर्धारण हो जाता
अवधारणा से तात्पर्य किसी वस्तु, या व्यक्ति के सम्बन्ध में विचारधारा या आकृति से है, जो उस वस्तु, कार्य या व्यक्ति की विशेषताओं के आधार पर किसी व्यक्ति के अस्तिष्क में बनती है-
मानव सभ्यता के उदय के साथ ही प्रबन्ध शब्द का जन्म हुआ। उस समय प्रबन्ध का कार्य मानव संगठन के कुशल संचालन एवं राज्यों के प्रशासनिक कार्यों के लिए प्रशासन पम्बन्धी सिद्धान्तों का निर्माण करना था। सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रबन्ध की बधारणाएँ बदलती गयीं। प्रबन्ध को जिस व्यक्ति ने जिस रुप में देखा तथा उसकी जिन शेषताओं को महत्वपूर्ण माना, उसी के अनुरुप उसने प्रबन्ध की धारणा बना ली है। प्रबन्ध से अवधारणाओं को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न दो वर्गों में विभक्त कर सकते है-
(I) सामान्य अवधारणाएँ,
(II) नवीन अवधारणाएँ।
(I) प्रवन्ध की सामान्य अवधारणायें (General Concepts of Management) –
प्रबन्ध का परिचय तथा प्रबन्धकीय भूमिकाएँ (मिण्टबर्ग)5 प्रबन्ध की सामान्य अवधारणायें निम्नलिखित हैं –
(1) प्रबन्ध अधिकार सत्ता की एक प्रणाली के रूप में प्रशासनिक विशेषज्ञ प्रबन्ध को अधिकार सत्ता की एक प्रणाली मानते हैं। प्रबन्धकों की यह सत्ता उनके पद स्तर अधिकारी, संविधान एवं ज्ञान पर आधारित होती है। एक संस्था में प्रत्येक स्तर पर प्रबन्धक होते हैं जो अपने-अपने स्तरों पर नीतियाँ योजनाएँ कार्य प्रणालियां एवं आपसी सम्बन्ध निर्धारित करते
(2) प्रबन्ध एक आर्थिक संसाधन के रुप में अर्थशास्त्री प्रबन्ध को भी उत्पादन का एक महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। क्योंकि योग्य प्रबन्धकों पर ही फर्म की उत्पादकता एवं लाभदेयता निर्भर करती है। जिन उद्योगों में नवप्रवर्तनों का तेजी से प्रयोग किया जा रहा है उनमें पूँजी एवं श्रम के स्थान पर प्रबन्ध का महत्व बढ़ जाता है। गतिशील उद्योगों में प्रबन्धकीय विकास के द्वारा उत्पादन एवं लाभों में वृद्धि की जा रही है।
(3) प्रबन्ध एक वर्ग एवं स्थिति के रूप में प्रबन्ध व्यक्तियों का समूह है, जो अपने प्रबन्धकीय ज्ञान एवं शिक्षा के आधार पर व्यवसाय का संचालन करना है। विशेषज्ञों का यह समूह अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने के लिये विभिन्न प्रबन्धकीय कार्य जैसे नियोजन, संगठन, निर्देशन तथा नियन्त्रण करता है । इस प्रकार प्रबन्ध अपने अधीनस्थों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं।
(4) प्रबन्ध एक विषय या ज्ञान की शाखा के रूप में कानून, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, भौतिकी तथा अन्य विज्ञानों की भाँति प्रबन्ध भी वर्तमान में एक स्वतन्त्र ज्ञान एवं व्यवहार की शाखा के रुप में स्वीकार किया जाने लगा है। वर्तमान में प्रबन्ध एक विषय एवं संगठित ज्ञान समूह के रुप में विकसित हो चुका है, जिसका औपचारिक प्रशिक्षण किया जा सकता है। किन्तु मानव व्यवहार से सम्बन्धित होने के कारण प्रबन्ध एक जड़ विज्ञान नहीं बल्कि गत्यात्मक विधा
(5) प्रबन्ध एक कौशल तथा कला-कुछ विद्वानों ने प्रबन्ध को दूसरों से कार्य करवाने की एक कला तथा मानवीय व्यवहार एवं प्रयासों को निर्देशित करने की नेतृत्व योग्यता एवं शैली माना है।
(6) प्रबन्ध एक प्रक्रिया के रुप में-प्रबन्ध निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संगठन के साधनों को समन्वित करने की प्रक्रिया है। प्रबन्ध मानवीय प्रयासों, कार्यों, तकनीक व अन्य संसाधनों को संयोजित करने एवं समन्वित करने की प्रक्रिया है ताकि संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।
(7) प्रबन्ध एक निर्वाह की शैली-प्रबन्ध को जीवन निर्वाह की शैली एवं ढंग के रुप में देखा जाता है। इस अर्थ में प्रबन्ध वह कार्य है, जिसमें दूसरों से कार्य करवाने की जिम्मेदारी उठायी जाती है। प्रबन्ध व्यवसायिक संगठन एवं प्रशासन सम्बन्धी परामर्श देने का एक पेशा
(II) प्रबन्ध की नवीन अवधारणाएँ (New Concepts of Management)-
वर्तमान कम्प्यूटर के युग में प्रबन्ध की कुछ नवीन अवधारणाओं का जन्म हुआ है, जो निम्नलिखित हैं –
(1) वैज्ञानिक प्रबन्ध की अवधारणा-
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रबन्ध ने एक नया रूप ग्रहण किया जिसे वैज्ञानिक प्रबन्ध कहा जाता है । टेलेर, थियो हैमन, एवं अन्य कुछ विद्वानों के अनुसार वैज्ञानिक अवधारणा आधुनिक प्रबन्ध की आधारशिला है। प्रबन्ध की वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार एक ऐसा विज्ञान है,जो नियोजन,संगठन, समन्वय,संचालन, अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। प्रबन्ध के अन्तर्गत की जाने वाली प्रत्येक क्रिया का कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार होता है । इसीलिए प्रबन्ध को एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विज्ञान कहते है ।
(2) सामूहिक प्रयास अवधारणा–
प्रबन्ध के आधुनिक दृष्टिकोण से एक व्यक्ति चाहे वह स्वयम कितना ही निपुण क्यों न हो,वह अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अतः निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये सामहिक प्रयासों अर्थात् नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण की आवश्यकता होती है और इसी का नाम प्रबन्ध है।
(3) मानव प्रधान अवधारणा-
इस अवधारणा की मुख्य मान्यता यह है कि, प्रबन्ध का विषय मानव है तथा प्रबन्ध मलत: मनुष्यों का विकास है। संस्था अपने उद्देश्यों को तभा प्राप्त कर सकती है जबकि प्रबन्धक कर्मचारियों के व्यक्तित्व,कार्य,गुणों तथा कार्यकौशल का ठीक विकास करे। तभी न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन सम्भव है।
(4) नेतृत्वरूपी अवधारणा-
किसी भी उपक्रम की सफलता उनकी संगठन शक्ति द्वारा सम्भव है जो कुशल नेतृत्व से पायी जाती है। यही कारण है कि वर्तमान में यह अनुभव किया जाने लगा है कि कुशल नेतृत्व से ही संगठन में कुशलता व निरन्तरता बनायी जा सकती है और उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है।
(5) पेशेवर अवधारणा-
आधुनिक प्रबन्धक प्रबन्ध को एक पेशा मानते हैं और उसी रुप में आज इसका तेजी से विकास हो रहा है।
(6) अन्य लोगों के साथ मिलकर कार्य करने की अवधारणा-प्रारम्भ में माना जाता था कि अन्य लोगों से कार्य लेना ही प्रबन्ध है चाहे यह कार्य किसी भी प्रकार से लिया जाये। यह प्रबन्ध का बड़ा संकीर्ण अर्थ था व उसमें तानाशाही प्रकृति की दुर्गन्ध आती है।
(7) सार्वभौमिकता की अवधारणा-
यह अवधारणा हेनरी फेयोल की देन है। उनके अनुसार, “प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है जो प्रत्येक संस्था में चाहे वह धार्मिक हो, राजनैतिक हो, सामाजिक हो अथवा व्यावसायिक एवं औद्योगिक हो समान रुप से सम्पन्न की जाती है।”
(8) कार्यात्मक अवधारणा
कार्यात्मक अवधारणा प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रुप में मानती है। यदि देखा जाये तो आधुनिक प्रबन्ध अवधारणा का व्यावहारिक रुप प्रबन्ध की प्रक्रिया है। यही कारण है कि आधुनिक प्रबन्धशास्त्री प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में ही परिभाषित करते हैं। – प्रबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न अवधारणाएँ इस बात की प्रतीक है कि प्रबन्ध का अध्ययन ‘अर्थ विज्ञान के जंगल में एक लम्बी यात्रा है, प्रबन्ध के स्वरुप व क्षेत्र में अनेक परिवर्तनों के कारण इसका अर्थ गतिशील रहा है।’ बेच के शब्दों में, “वास्तव में प्रबन्ध शब्द अर्थ सदैव स्पष्ट नहीं हो पाता और सदैव उस अर्थ को स्वीकार भी नहीं किया जा सकता है।” फिर भी अधिकांश विद्वानों ने प्रबन्ध का अर्थ एक प्रक्रिया एवं कार्य के रुप में ही लगाया है।
प्रबन्ध की प्रकृति (Nature of Management)
एक दर्शन के रूप में प्रबन्ध एक निरन्तर परिवर्तनशील धारणा है । सामूहिक क्रियाओं में बदलते हुए स्वरूप के साथ-साथ इस शब्द ने नया परिवेश पाया है। यही कारण है कि प्रबन्ध की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न प्रबन्ध विद्वानों ने समय-समय पर विभिन्न विचार प्रकट किए हैं जिनको अध्ययन की सुविधा की दष्टि से हम निम्न वर्गों में रख सकते है
प्रबन्ध कला अथवा विज्ञान के रूप में (Management an Art or a Science)-
प्रबन्ध कला है या विज्ञान अथवा दोनों ही हैं. इस तथ्य की सत्यता का पता लगाने के लिये यह आवश्यक है कि पहले हम कला व विज्ञान दोनों का अलग-अलग अध्ययन करें।
प्रबन्ध कला के रूप में (Management as an Art)-
किसी भी कार्य को सर्वोत्तम विष स सम्पन्न करना ही कला है। प्रबन्ध भी एक ऐसी क्रिया है। इसमें संस्था में लगे व्यक्तियों से प्रभावशाली ढंग से कार्य करना होता है इसके लिये प्रबन्धक समय-समय पर महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं अर्थात् नियोजन.संगठन, नियन्त्रण नियक्तियाँ निर्देशन एवं अभिप्रेरणा आदि अनेक क्रियाएँ करते हैं। संस्था के कर्मचारियों को पूर्ण सन्तष्ट रखते हये अधिक कार्य कुशलता से कार्य करवाना कुशल प्रबन्धक का ही कार्य है और वह वास्तव में एक कला है जो कि दाधकालीन अनुभव एवं अभ्यास से आती है। आधुनिक तीव्र प्रतिस्पर्धा एवं भौतिकवादी युग में प्रबन्ध के लिये यह आवश्यक हो गया है कि नवीन वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करे अन्यथा अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो सकतीं। प्रबन्ध सिद्धान्तों, नियमों, तकनीकी विश्लेषणों एवं विधियों को प्रयोग में लाना ही प्रबन्ध को कला के रूप में मान्यता प्रदान करता
प्रबन्ध विज्ञान के रूप में (Management as a Science)–
किसी विषय का व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध अध्ययन विज्ञान है । यह कारण एवं परिणाम के सम्बन्धों पर आधारित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है, जो सर्वव्यापी होते हैं। इसी प्रकार प्रबन्ध एक क्रमबद्ध ज्ञान है, जो अध्ययन एवं प्रयोगों पर आधारित है, निरन्तर अनुसंधान के फलस्वरुप प्रबन्ध विज्ञान के सिद्धान्त भी निरन्तर बढ़ते जा रहे है, जिनके ज्ञान के अभाव में कोई भी प्रबन्धक अपने प्रबन्ध कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर सकता। परन्तु इसके फलस्वरुप भी प्रबन्ध को भौतिक विज्ञान एवं रसायन विज्ञान के सिद्धान्तों की तरह सार्वभौमिकता प्राप्त नहीं है। इसीलिए प्रबन्धकीय विज्ञान को सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है।
(1)प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों के रूप में (Management as both as Art and Science)-
प्रबन्ध विज्ञान ही नहीं वरन् कला भी है । प्रबन्ध जहाँ विज्ञान के रूप में सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन करता है वहाँ कला के रूप में इन सिद्धान्तों एवं नियमों को व्यवहारिक रूप में प्रयोग करता है। एक कुशल प्रबन्धक के लिए विज्ञान एवं कला दोनों पक्ष उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार एक चिकित्सक के लिए औषधिशास्त्र का ज्ञान एवं उसका उपयोग दोनों आवश्यक है। रॉबट एन० हिलकर्ट के अनुसार, “ प्रबन्ध क्षेत्र में कला एवं विज्ञान दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं।” इस प्रकार यह कहा जा सकता है प्रबन्ध एक ऐसी क्रिया है जिससे पूर्वनिर्धारित उद्देश्यों को कला एवं विज्ञान के सहयोग से प्राप्त किया जा सकता है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रबन्धकीय कौशल के लिए प्रबन्ध, कला एवं विज्ञान का एक महत्वपूर्ण सम्मिश्रण है।
(2) प्रबन्ध जन्मजात प्रतिमा के रूप में (Management as an inborn Ability)-
प्रबन्धकीय कौशल एवं ज्ञान जन्मजात होता है जो व्यक्ति को अपने पूर्वजों से विरासत में मिलता है। प्रबन्ध की यह पद्धति 18 वीं शताब्दी में तो सही हो सकती है किन्तु आधुनिक युग में जहाँ प्रबन्धकीय प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति उद्योगों का सफल संचालन कर रहे है। यह कहना बिल्कुल तर्कपूर्ण तथा न्यायसंगत नहीं होगा कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है। वास्तविकता तो यह है कि प्रबन्ध एक अर्जित प्रतिभा है. यद्यपि व्यक्तिगत रूचि तथा संस्कार कुशल प्रबन्धक बनाने में सहायक अवश्य होते हैं।
(3) प्रबन्ध एक प्रक्रिया के रूप में (Management as a Process)–
कुरु प्रबन्ध विद्दानी ने प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रूप में माना है। इन विद्वानों के अनुसार प्रबन्ध एक ऐसी भकिया है जिसमें नियोजन. संगठन. समन्वय. अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण सम्मिलित है। तथा इनका निष्पादन व्यक्तियों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित एवं प्राप्त करने के लिये किया जाता है।
(4) प्रबन्य एक पेशे के रूप (Management as a Profession)-
ओधोगिक क्रान्ति न प्रबन्धकीय विचारधारा में परिवर्तन किया है जहाँ पहले प्रबन्ध को जन्मजात प्रतिभा समझा जाता था वहाँ आज प्रबन्ध को पेशे के रूप में समझा जाता है। वर्तमान समय में प्रबन्ध एक एसा कला के रूप में विकसित हुआ है जिसके लिए विशिष्ट ज्ञान और चातुर्य की आवश्यकता है और वह ज्ञान और चातुर्य को एक निश्चित विधि से प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिये प्रबन्ध को पेशे के रूप में माना जाता है।
(5) प्रबन्ध एक प्रणाली के रूप में (Management as a System)-
वर्तमान भीमकाय उत्पादन के युग में व्यावसायिक जटिलताओं पर विजय पाने के लिए संस्थाओं का प्रबन्ध पद्धति विचारधारा के आधार पर करना चाहिये। इस विचारधारा के अनुसार प्रत्येक संस्था के संगठन के व्यक्तियों का एक समूह होता है जिनमें परस्पर अनौपचारिक सम्बन्ध होता है। इन व्यक्तियों में से प्रत्येक व्यक्ति अपना अलग-अलग उद्देश्य लेकर नहीं चलता अपितु संगठन के उद्देश्यों के अनुसार ही अपना कार्य करता है।
(6) प्रजन्य एक सार्वभौमिक क्रिया के रूप में (Management as a Universal Activity)-
कुछ प्रबन्धक विचारकों का मत है कि प्रबन्ध सार्वभौमिक क्रिया है अर्थात् प्रत्येक कार्य में प्रबन्ध तत्व आवश्यक है। इन विद्वानों के अनुसार, प्रत्येक व्यावसायिक तथा गैर व्यावसायिक संस्था को अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये तथा व्यवसाय के कुशल व सफल संचालन के लिये नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्णयन तथा निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है । प्रबन्ध तत्व स्कूल, कॉलेज, कृषि फार्म, सरकारी कार्यालय, व्यावसायिक संस्था,क्लब, गिरजाघर, मन्दिर, मस्जिद, खेल का मैदान आदि का अलग-अलग हो सकता है किन्तु उनमें अधिकांश बातें समान होती हैं इसीलिये विद्वानों ने प्रबन्ध को सार्वभौमिक क्रिया के रूप में माना है।
(7) प्रबन्ध
एक निर्देशन के रूप में-प्रबन्ध एक निर्देशन ही है क्योंकि प्रबन्ध अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को कार्य सौंपने एवं उनका उत्तरदायित्व निर्धारित करने के पश्चात् समय-समय पर उनकी क्रियाओं का निर्देशन करता रहता है । आधुनिक प्रबन्ध अपना अधिकांश समय अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को निर्देशन देने में ही व्यय करता है। इसी कारण प्रबन्ध को भूलतः निर्देशन कहा जाता है।
(8)एक सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में (Management as a Social Responsibility)-
आज औद्योगिक क्षेत्र के बढ़ते हुए स्वरूप के साथ-साथ प्रबन्ध न केवल अपने मारी के प्रति उत्तरदायी है अपितु समूचे समाज के प्रति भी उत्तरदायी है। अन्य शब्दों में प्रबन्ध का मूल उद्देश्य केवल लाभ कमाना ही नहीं है बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की रूचि को ध्यान में रखते हुए उन्हें न्यूनतम लागत पर श्रेष्ठ वस्तुएँ उपलब्ध कराना है ।
प्रबन्ध प्रक्रिया (Process of Management)
प्रत्येक उपक्रम के कुछ निर्धारित लक्ष्य होते हैं और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये प्रबन्ध द्वारा जो क्रियाविधि अपनायी जाती है, उसे ‘प्रबन्ध प्रक्रिया’ कहते हैं । जिस प्रकार खेल के मैदान में एक फुटबाल, हॉकी या क्रिकेट टीम के सदस्य कितने ही प्रशिक्षित, अनुभवी एवं कुशल खिलाड़ी क्यों न हों वह अपनी प्रतिद्वन्द्वी टीम को तब तक नहीं हरा सकते, जब तक कि वे एक कुशल कप्तान के नेतृत्व में मिलकर नियोजित, समन्वित प्रयास न करें। ठीक इसी प्रकार एक व्यावसायिक संस्था तब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती जब तक उसके समस्त कर्मचारी, नियोजित समन्वित रूप से किसी कुशल निर्देशक के नियन्त्रण में कार्यरत न हो । इसी कुशल निर्देशन को प्रबन्ध की संज्ञा दी जाती है और उसके नियन्त्रण में जिस प्रक्रिया को अपनाते हुए संस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है उस प्रक्रिया को प्रबन्ध प्रक्रिया कहा जाता है । प्रबन्ध प्रक्रिया को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है
“प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जो, अपनी उपक्रियाओं अथवा आधारभूत कार्यों से पूरी होती है। पूर्ति की यह व्यवस्था एक अद्वितीय प्रक्रिया है और इसी को प्रबन्ध प्रक्रिया कहा जाता है।”
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धक जो कार्य करते हैं, उसे ही प्रबन्ध प्रक्रिया कहते हैं । संक्षेप में प्रबन्ध प्रक्रिया में नियोजन, संगठन, अभिप्रेरणा, नियन्त्रण एवं समन्वय आदि प्रबन्धकीय क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।
प्रबन्धकीय प्रक्रिया के तत्व (Elements of the Management Process) फेयोल ने अपनी पुस्तक में प्रबन्धकीय कार्यों को प्रबन्धकीय तत्वों का नाम दिया है। उसके अनुसार प्रबन्ध की प्रक्रिया में पाँच तत्व (clements) शामिल हैं-
(1)पूर्वानुमान और योजना बनाना,
(2) संगठन बनाना,
(3) आदेश देना,
(4) समन्वय करना, तथा
(5) नियन्त्रण करना।
फेयोल के अनुसार नियोजन प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह प्रबन्ध का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व भी है, क्योंकि योजना का असफल होना संगठन के अस्तित्व पर एकदम विपरीत प्रभाव डालता है । उन्होंने संगठन के मानवीय पहलू की ओर भी विशेष ध्यान दिया है। संगठन संरचना के निर्माण तथा आदेश देने के कार्य को योजना कार्यान्वित करने का महत्वपूर्ण आधार माना है। उनके अनुसार समन्वय का कार्य भी इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति साथ-साथ कार्य करे और नियन्त्रण के अन्तर्गत यह देखा जाता है कि बनाई गई योजनाएँ ठीक प्रकार से कार्य करती हैं अथवा नहीं और यदि नहीं तो उनमें क्या-क्या कमियाँ हैं । नीचे इन तत्वों का विस्तृत वर्णन किया गया है –
(1) पूर्वानुमान और योजना बनाना (Forecasting and Planning)
प्रमाणीय प्रक्रिया भविष्य के बारे में अनुमान लगाकर व्यावसायिक अवसरों से लाभ उठाने के लिए योजना बनाने से आरम्भ होती है। अत: योजना व्यवसाय का आधार है । इसमें एक-साथ चार बातें स्पष्ट दिखलाई देती हैं—
(क) अपेक्षित परिणाम : जिन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयल किए जाएंगे
(ख) कार्यवाही की रूपरेखा : जिसके द्वारा परिणाम अधिक कुशलता के साथ प्राप्त किए जा सकें,
(ग) कार्यवाही की क्रमिक अवस्थाएँ : अर्थात क्या-क्या काम कब-कब किया जाय, (घ) कार्य करने की विधियाँ : अर्थात क्या-क्या कार्यवाही कैसे की जाएगी और उसके नियम, कायावाध तथा सिद्धान्त क्या होंगे? फेयोल के अनसार कार्यवाही की योजना तीन बातों पर निर्भर करती हैं—
(i) फर्म के पास उपलब्ध साधन (Resources),
(ii) चालू काय (curren operations) की प्रकृति तथा उनका महत्व तथा
(iii) भावी प्रवृत्तियों (Future Trends) जिन पर तकनीकी वााणिज्यिक, वित्तीय तथा अन्य परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
(2) सगठन बनाना (Organisation)-
फेयोल के अनुसार “संगठन बनाने का अर्थ है संस्था के भौतिक तथा मानवीय साधनों का दोहरा ढाँचा बनाना । दूसरे शब्दों में, संगठन केवल कार्यों एवं कर्मचारियों के संगठन तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें आवश्यक साधनों; जैसे कच्चे माल, यन्त्र एवं अन्य आवश्यक साजो-सामान, पूँजी और कर्मचारियों की प्राप्ति तथा इन्हें सही स्थान पर सही अनुपात से सुलभ कराना भी शामिल है। व्यावसायिक योजना तभी सफल हो सकती है जब संस्था के मानवीय तथा भौतिक साधन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त और सही हों, तथा इनका संगठन सही ढंग से किया जाए।
(3) आदेश देना (Commanding)-
आदेश देने का अर्थ है—कर्मचारियों के बीच कार्यवाहियों को कायम रखना। योजना और संगठन बन जाने पर प्रबन्धक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को बतलाता है कि उन्हें क्या करना और यह देखना है कि वे इस कार्य को अधिकतम योग्यता के साथ पूरा करें।
(4) समन्वय करना (Co-ordination)-
समन्वय का कार्य संस्था की सभी कार्यवाहियों में इस प्रकार ताल-मेल बैठाना है कि ये सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक हों इसके लिए भिन्न-भिन्न कार्यों के बीच संतुलन तथा समन्वय आवश्यक है। समन्वय के फलस्वरूप प्रत्येक कार्य दूसरे कार्यों से मेल खाता है । अत: स्पष्ट है कि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सामूहिक प्रयासों में सामन्जस्य नितान्त आवश्यक है।
(5) नियन्त्रण करना (Controlling)-
नियन्त्रण का उद्देश्य यह देखना है कि व्यवसाय में सभी काम, जहाँ तक हो सकें योजनाओं, निर्देशों तथा नियमों के अनुसार किए जाएं। यदि वास्तविक कार्यवाही में कोई दोष, त्रुटि या कमियाँ दिखाई दें तो उन्हें दूर किया जा सके तथा भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति को रोका जा सके।
मिन्ट्जबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्ध की भूमिकाएँ –
मैकगिल विश्वविद्यालय के प्रो० हेनरी मिन्ट्जबर्ग ने विभिन्न प्रबन्धकों की क्रियाओं पर किये गये शोध में यह पाया कि वह न केवल संस्थान के लिए नियोजन, संगठन, नियन्त्रण समन्वय का कार्य करते हैं बल्कि वह अन्य कई कार्य भी करते है जिन्हें उन्होंने प्रबन्ध की भूमिकाएं के रूप में व्यक्त किया। . . प्रो० मिन्ट्जबर्ग ने अपने अध्ययन में कार्यकारी प्रबन्धकों द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले कार्यों को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न तीन वर्गों में विभक्त किया हैं
अन्तरव्यक्तिगत भूमिकाएँ (Interpersonal Roles)-
प्रबन्धक संस्था का सर्वोच्च अधिकारी होता है । अतः वह संस्था के लिए निम्नलिखित भूमिकाओं का निर्वाह करता है
(1) संस्था का अध्यक्ष (Head)-
संस्था का अध्यक्ष व मुखिया होने के कारण प्रबन्धक वैधानिक प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करते हैं, सामाजिक गतिविधियों में भाग लेते हैं तथा समारोह आदि की अध्यक्षता करता है।
(2) नेतृत्व (Leader)-
नेता की भूमिका में प्रबन्ध अपने अधीन कार्यरत कर्मचारियों को संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रेरित करता रहता है । वे अपनी सत्ता, समन्वय, तकनीकों तथा अभिप्रेरणा उपायों के द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं तथा संगठन के लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करते हैं ।
(3) सम्पर्क अधिकारी (Liaison)-
प्रबन्धक संस्थान के बाहरी व्यक्तियों से सम्बन्ध एवं विभिन्न विभागों व संगठनात्मक इकाइयों के बीच सम्पर्क सूत्र की भूमिका निभाते हैं। यह भूमिका सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा समन्वय की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है ।
सूचना सम्बन्धी भूमिकाएँ (Informational Roles)- इन भूमिकाओं में प्रबन्धक विभिन्न सूचनाओं, तथ्यों व ज्ञान का संकलन एवं वितरण करते हैं। यह भूमिकाएँ निम्नलिखित है ।
(1) निर्देशक (Monitor)-
प्रबन्धक को उपकरण के संचालन के लिए विभिन्न सूचनाओं की आवश्यकता होती है। जिन्हें वह विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करता है ! वह अपने अधिकारियों, अधीनस्थों, सह-प्रबन्यकों तथा अन्य सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करता है।
(2) प्रसारक (Disseminator)-
प्रबन्धक इस भूमिका में एकत्रित सूचनाओं को अपने अधीनस्थों व सम्बन्धित इकाइयों को अवगत तथा वितरित एवं प्रसारित करता है।
(3) प्रवक्ता (Spokesperson)-
प्रवक्ता की भूमिका में प्रबन्धक अपने संगठन की योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रमों के विषय में बाहरी समूहों जैसे- ग्राहकों, सरकार, समुदाय, संस्थाओं आदि को विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ प्रेषित करता है। .
निर्णयात्मक (Decisional Roles)-
इसमें प्रबन्धकों की व्यूह रचना तथा निर्माण सम्बन्धी भूमिकाओं को शामिल किया जाता है। जो निम्नलिखित हैं—
(1) उद्यमी (Enterpreneur)-
इस भूमिका में प्रबन्धक अपने संस्थान की सम्भावनाओं, अवसरों व खतरों का पता लगाता है तथा उसी के अनुरूप परिवर्तन व सुधार को लाग करता है। वह वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से लाभ उठाने के लिए संगठन में नवप्रवर्तनों को लागू करता है।
(2) उपद्रव निवारक (Disturbance Handler)-
इस भूमिका में प्रबन्धक संस्थान में रोज होने वाले झगड़ों, उपद्रव, उत्पाद, मनमुटावों, संघर्षों, अशान्ति आदि को दूर करता है। वह हड़ताल, अनुबन्ध खण्डन, कच्चे माल की कमी, संस्था में कार्यरत कर्मचारियों की शिकायतों पर विचार-विमर्श कर उन्हें दूर करने का प्रयास करता है।
(3) संसाधन वितरक (Resource Allocator)-
इस भूमिका में प्रबन्धक अधीनस्थों के समय, तकनीकों संसाधनों, कार्यों, आदि के सम्बन्ध में कार्यक्रम बनाता है। वित्त, यन्त्र, कच्चा माल आपूर्ति आदि के सम्बन्ध में निर्णय लेता है। विभिन्न विभागों की प्राथमिकताओं का निर्धारण करता है. बजट तैयार करता है। इस प्रकार प्रबन्धक संगठन के संसाधनों का क्या, कब, कैसे, किसके लिए खर्च करने सम्बन्धी निर्णय लेता है।
(4) वार्ताकार (Negotiator)-
प्रबन्धक श्रम संघ, पूतिकर्ता, ग्राहक, सरकार व अन्य एजेन्सियों के साथ समझौता सम्बन्धी वार्ताएँ करके संगठन को लाभान्वित करता है । वह संस्था में होने वाले विभिन्न विवादों के हल के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रबन्ध संस्था में मूलभूत कार्यों का सम्पादन करता है उनमें नये आयामों को और जोड़कर प्रबन्धक की भूमिकाओं का जो नया दृष्टिकोण विकसित किया गया है। बदलते परिवेश में वह अधिक कारागर है।
आलोचनाएँ (Criticism)-
यद्यपि प्रो० मिन्जबर्ग द्वारा प्रबन्धकों की जो भूमिकाएँ दी गयी है, वह एक नवीन दृष्टिकोण है जो बदलती व्यावसायिक स्थितियों में सही भी है किन्त निम्न आधारों पर उनकी आलोचना की गयी है।
1. मो० मिन्ट्जबर्ग ने केवल पाँच कार्यकारी प्रबन्धकों पर शोध किया जो किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त नहीं है।
2. प्रबन्धकों के सभी कार्य प्रबन्धकीय नहीं होते उनके कुछ कार्य उससे अलग भी होते है जैसे– अंशधारियों से सम्बन्ध, जन सामान्य से सम्बन्ध, विपणन एवं पूँजी प्राप्त करना आदि।
3. मिन्ट्जबर्ग द्वारा प्रतिपादित प्रबन्धकीय भूमिकाएँ अभी भी समस्त प्रबन्धकीय कार्यों को सम्मिलित नहीं करती, अतः वे अधूरी ही मानी जायेगी।
4. मिन्जबर्ग ने कुछ कार्यो का नया नाम देकर उसे प्रबन्ध के परम्परागत कार्यों को सम्मिलित नहीं किया है जो सही नहीं है। जैसे-संसाधनों का आवंटन नियोजन का ही भाग है, जबकि नये विचार में उसे अन्तर व्यक्तिगत भूमिकाओं में शामिल किया गया है।
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