Incorporation of Company pdf Notes in hindi
कम्पनी का प्रवर्तन एवं समामेलन (पंजीयन)
Incorporation of Company and Promotion
कम्पनी का निर्माण ” (Formation of Company) . कम्पनी कानून द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति होती है। अत: इसके निर्माण हेतु अनेक कानूनी औपचारिकताओं का पूरा करना पड़ता है । कम्पनी की स्थापना के विचार से लेकर कम्पनी द्वारा व्यापार शुरू करने के बीच की जाने वाली क्रियाओं को निम्न चार, भागों, अवस्थाओं या चरणों में बांटा जा सकता है
(A) कम्पनी के प्रवर्तन की अवस्था
(B) समामेलन या पंजीयन की अवस्था
(C) समामेलन का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की अवस्था
(D) व्यापार शुरू करने का प्रमाण पत्र प्राप्त करने की अवस्था।
कम्पनी के प्रवर्तन की अवस्था
(Stage of Promotion of Company)
प्रवर्तन का अर्थ प्रारम्भ से है। यह कम्पनी के निर्माण की प्रथम अवस्था है । इस अवस्था से आशय व्यक्ति या व्यक्तियों के दिमाग में कम्पनी स्थापित करने की सोच से है । कम्पनी की खोज, जाँच, एकत्रीकरण तथा स्थापना के लिये प्रवर्तन पहली सीढ़ी है।
प्रो० ई० एस० मीड़ के अनुसार, “प्रवर्तन के चार तत्त्व हैं–खोज जाँच वित्त” गर्टनबर्ग के अनुसार-“प्रवर्तन में व्यापार सम्बन्धी सअवसर इसके बाद लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से पूजी, सम्पत्ति तथा प्रबन्ध कला प्रवर्तन में व्यापार सम्बन्धी सुअवसरों की खोज की जाती है और जाता है।”
प्रवर्तन के कार्य या श्रेणियाँ
Functions or Stages of Promotion
प्रवर्तन में मुख्य रूप से निम्न कार्य किये जाते हैं
(1) विचार की खोज व प्रारम्भिक अनुसन्धान, (व्यवसाय की खोज)
(2) विस्तृत रुप से जाँच पड़ताल करना।
(3) आवश्यक सामान इकट्ठा करना।
(4) पूँजी की व्यवस्था करना।
(5) पूँजी निर्गमन के लिये केन्द्रीय सरकार से अनुमति लेना।
(6) प्रारम्भिक अनुबन्ध करना।
(7) आवश्यक प्रलेख तैयार करना।
(8) कम्पनी का नाम निश्चित करना।
समामेलन या पंजीयन (रजिस्ट्रेशन) की अवस्था
Stage of Incorporation
समामेलन या रजिस्ट्रेशन कम्पनी के निर्माण की दूसरी अवस्था है। पंजीयन की तिथि ही कम्पनी का जन्म-दिन होती है। कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कराने के लिये रजिस्टार के पास निम्नलिखित प्रपत्र प्रस्तुत करने होते हैं
(1) पार्षद सीमानियम (Memorandum of Association)-यह सबसे महत्त्वपूर्ण प्रपत्र है। किसी भी कम्पनी का पंजीयन इसके बिना नहीं हो सकता। यह एक ऐसा प्रपत्र है, जिसमें कम्पनी का नाम, रजिस्टर्ड कार्यालय का पता, कम्पनी के उद्देश्य एवं कार्य, अंश पूँजी, सदस्यों के दायित्व की सीमा आदि का उल्लेख होता है । इस प्रपत्र पर सार्वजनिक कम्पनी की दशा में 7 व्यक्ति और निजी कम्पनी की दशा में 2 व्यक्तियों के हस्ताक्षर होना जरूरी है।।
(2) पार्षद अन्तर्नियम (Articles of Association)-पार्षद सीमानियम में दिये गये उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त करना है इसका वर्णन इस प्रपत्र में होता है। इस प्रपत्र पर भी उन व्यक्तियों के गवाह सहित हस्ताक्षर होते हैं जो पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करते हैं । इसे प्रत्येक कम्पनी निर्गमित नहीं करती। इसके अभाव में “तालिका-अ” के नियम लागू होते हैं। ऐसी दशा में पार्षद सीमानियम को रजिस्ट्रार के पास भेजते समय बिना अन्तर्नियमों के रजिस्टर्ड लिख देना चाहिये।
(3) प्रबन्धकीय कर्मचारियों की नियुक्ति सम्बन्धी अनुबन्ध कम्पनी (संशोधन) अधिनियम, 1988 के अनुसार यदि कम्पनी किसी व्यक्ति को प्रबन्ध संचालक, पूर्ण-कालिक संचालक या प्रबन्धक के रूप में नियुक्त करने का प्रस्ताव करती है तो उक्त नियुक्ति सम्बन्धी अनुबन्ध को रजिस्ट्रार के समक्ष प्रस्तुत करना होगा।
(4) संचालकों की सूची (List of Directors)-रजिस्ट्रार के पास भेजे जाने वाले प्रपत्रों में संचालकों की सूची भी एक है। इस सूची में उन व्यक्तियों के नाम, पते व उनसे सम्बन्धित अन्य विवरण होता है जो कम्पनी के संचालक बनने के लिए तैयार हैं। एक निजी कम्पनी के लिए ऐसी सूची भेजना आवश्यक नहीं है। सार्वजनिक कम्पनी की दशा में कम से कम तीन नाम होना आवश्यक है।
(5) संचालकों की लिखित सहमति (Written Consent of the Directors) —एक सार्वजनिक कम्पनी के लिये यह आवश्यक है कि ऐसे संचालकों की लिखित सहमति भी इन प्रपत्रों के साथ संलग्न करे जो कम्पनी के प्रस्तावित संचालक पद को ग्रहण करेंगे । यदि कोई कम्पनी पहले निजी थी और अब सार्वजनिक कम्पनी हो गयी है तो उसको यह कार्यवाही नहीं करनी पड़ती।
(6) संचालकों का योग्यता अंश लेने का लिखित आश्वासन-संचालक बनाने के लिये एक निश्चित संख्या में अंश, जिनको योग्यता अंश कहते हैं,खरीदना आवश्यक है। इसलिये प्रस्तावित संचालकों की ओर से यह लिखित आश्वासन दिया जाना चाहिये कि वे कितने योग्यता अंश लेंगे और उनका भुगतान करेंगे।
(7) कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय की सूचना-समामेलन के लिये जो प्रपत्र भेजे जाते हैं उनमें ये उल्लेख होता है कि कम्पनी का कार्यालय कहाँ रहेगा ? यदि ऐसा न हो समामेलन या कार्य आरम्भ करने की तारीख (जो भी पहले हो) से 30 दिन के अन्दर कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय की सूचना रजिस्ट्रार को दे देनी चाहिये।
(8) वैधानिक घोषणा (Statutory Declaration)-आवश्यक प्रपत्रों को संग्रहीत करने के पश्चात् किसी उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय के वकील या किसी ऐसे चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट जो कम्पनी के निर्माण से सम्बन्धित हो या अन्तर्नियमों में उल्लेखित कम्पनी के संचालक, सचिव या मैनेजर को इस आशय की एक घोषणा फाइल करनी पड़ती है कि कम्पनी ने रजिस्ट्रेशन से सम्बन्धित सभी वैधानिक कार्यवाहियों की पूर्ति कर ली है। .
(१) निश्चित शुल्क (Fees)-उपरोक्त प्रपत्रों को समामेलन हेतु रजिस्ट्रार के यहाँ फाइल करने के साथ एक निश्चित शुल्क भी भेजना पड़ता है । यह शुल्क और इसका भुगतान भारत के रिजर्व बैंक में भारत की सरकारों के खातों में जमा किया जाता है।
समामेलन के प्रमाण पत्र की अवस्था रजिस्ट्रार के कार्यालय में कम्पनी से सम्बन्धित जब सभी प्रपत्र निर्धारित शुल्क के साथ जमा हो जाते हैं तब रजिस्ट्रार उनकी जाँच करता है और जब वह इस बात से सन्तुष्ट हो जाता है कि कम्पनी के निर्माण से सम्बन्धित सभी वैधानिक कार्यवाहियाँ एवं औपचारिकतायें पूरी कर दी गयी है तो वह कम्पनी का नाम अपने रजिस्टर में लिख लेता है अर्थात् कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कर लेता है और इस आशय का प्रमण-पत्र दे देता है जिसे ‘समामेलन का प्रमाण-पत्र कहते हैं। अब कम्पनी अपने सदस्यों से पृथक् वैधानिक अस्तित्व रखने वाली एक समामेलित संस्था और एक कृत्रिम व्यक्ति बन जाती है।
व्यापार प्रारम्भ करने की अवस्था . (Stage of Commencement of Business) – एक निजी कम्पनी समामेलन के तुरन्त बाद अपना व्यापार शुरू कर सकती है। लेकिन सार्वजनिक कम्पनी उस समय तक अपना व्यापार शुरू नहीं कर सकती जब तक उसे व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र न मिल जाये । कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 11 के अनमा व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए एक पब्लिक कम्पनी को निम्नलिखित आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है।
(1) यदि प्रविवरण निर्गमित किया गया है जनता को प्रविवरण निर्गमित करने पर काम अपना व्यापार उस समय तक प्रारम्भ नहीं कर सकती जब तक (i) न्यूनतम अभिदान राशि के बराबर अंशों का आवंटन न हो जाये, (ii) संचालकगण अपने द्वारा लिये गये अंशों पर आवंटल तक मागी गयी राशि का भुगतान नहीं कर देते, (iii) प्रविवरण में दिये गये समय तक किसी स्टॉक एक्सचेन्ज में प्रार्थना-पत्र न देने अथवा आज्ञा न मिलने पर आवेदकों को कोई भी धन न तो दिया जायेगा तथा न उन पर देय होगा, तथा (iv) कम्पनी सचिव अथवा कोई संचालन यह घोषणा न करे कि उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति कर दी गयी है।
(2) यदि प्रविवरण निर्गमित नहीं किया गया है-यदि कम्पनी प्रविवरण निर्गमित नहीं करती है तो कम्पनी व्यापार प्रारम्भ करने की अधिकारी नहीं है जब तक कि (i) रजिस्ट्रार के पास स्थानापन्न प्रविवरण प्रस्तुत नं कर दिया जाये, (ii) संचालकगण अपने द्वारा लिये गये अंशों पर आवंटन तक माँगी गयी राशि का भुगतान न कर दें, तथा (iii) कम्पनी सचिव या संचालकगण यह घोषणा न कर दें कि उपर्युक्त आवश्यकताओं को पूरा कर लिया गया है।
व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र–उपरोक्त वर्णित आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने पर रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र निर्गमित करता है जो कि इस बात का एक निश्चयात्मक प्रमाण-पत्र है कि कम्पनी व्यापार प्रारम्भ करने की अधिकारी है।
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कम्पनी प्रवर्तक का अर्थ एवं परिभाषा
Meaning and Definition of Company Promotor
कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(69) के अनुसार, वह व्यक्ति जिसके मस्तिष्क में कम्पनी स्थापित करने का विचार उत्पन्न होता है और जो कम्पनी निर्माण से पूर्व उसकी समस्त क्रियाओं को अपनी जिम्मेदारी पर करता है, उसे प्रवर्तक कहते हैं । कम्पनी अधिनियम में प्रवर्तक शब्द की कोई परिभाषा नहीं दी गई हैं, किन्तु कम्पनी निर्माण में इसके द्वारा किये गये कार्य के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रवर्तक का आशय ऐसे व्यक्ति से है जो एक निश्चित योग्यतानुसार कार्य करके कम्पनी का निर्माण एवं संचालन करता है । विभिन्न विद्वानों ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है
कॉक बर्न-“प्रवर्तक वह है जो किसी निश्चित उद्देश्यों के लिये कम्पनी का निर्माण करता है और अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये आवश्यक कार्यवाही करता है।”
गुथमैन एण्ड डूगल-“प्रवर्तक वह व्यक्ति होता है जो पूँजी व सामग्री का एक चालू संस्था के रूप में एकत्रीकरण करता है।”
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि एक प्रवर्तक कम्पनी का जन्मदाता होता है। .
प्रवर्तकों की भूमिका एवं कार्य
(Role and Functions of Promoters)
किसी कम्पनी के.प्रवर्तन के सम्बन्ध में प्रवर्तकों की भूमिका (कार्य) निम्नलिखित हैं
(1) कम्पनी के निर्माण का विचार उत्पन्न करना।
(2) विक्रेता से सम्बन्ध स्थापित करना।
(3) विशेषज्ञों की रिपोर्ट तैयार करना।
(4) ऐसे व्यक्तियों की खोज करना जो पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करें तथा प्रथम संचालक बनने के लिये अपनी सहमति दें।
(5) कम्पनी के नाम, प्रधान कार्यालय का स्थान, कम्पनी के उद्देश्य, पूँजी की मात्रा एवं अभिगोपकों के साथ अनुबन्ध का निश्चय करना।
(6) बैंकर्स, अंकेक्षक, दलाल एवं कानूनी सलाहकार आदि का चयन करना।
(7) पार्षद सीमानियम एवं पार्षद अन्तर्नियमों को तैयार करना एवं रजिस्ट्रार के यहाँ भिजवाना।
(8) समामेलन का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना।
(9) प्रविवरण प्रकाशित करना।
(10) पूंजी के निर्गमन सम्बन्धी प्रबन्ध करना।
(11) यदि कोई चालू व्यवसाय क्रय करना है तो उसके लिये बातचीत करना।
(12) विक्रेता, अभिगोपकों तथा प्रबन्ध अभिकर्ता आदि के साथ कम्पनी के हित में अनुबन्ध करना।
(13) रजिस्ट्रार से व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त करना।
(14) प्रारम्भिक व्ययों का भुगतान करना। . .
(15) प्रविवरण प्रत्रिका के प्रकाशन एवं विज्ञापन का प्रबन्ध करना ।
(16) नयूनतम अभिदान (Minimum Subscription) का प्रबन्ध करना।
इस प्रकार कम्पनी के प्रारम्भ करने से व्यवसाय के आरम्भ करने तक जो भी कार्यवाही होनी है वह प्रायः प्रवर्तक ही सम्पन्न करते हैं।
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प्रर्वतकों के अधिकार
(Rights of Promoters)
(1) प्रारम्भिक व्यय लेने का अधिकार–कम्पनी के समामेलन तक समस्त कार्यों पर किया जाने वाला व्यय प्रवर्तकों द्वारा किया जाता है, जिसे प्रारम्भिक व्यय कहते हैं। प्रवर्तक को कम्पनी से इस प्रकार के व्यय प्राप्त करने का अधिकार है। किन्तु यदि कम्पनी इन प्रारम्भिक व्ययों का प्रवर्तक को भुगतान नहीं करती तो प्रवर्तक कम्पनी के ऊपर वाद प्रस्तुत नहीं कर सकता।
(2) सह-प्रवर्तकों से अनुपातिक राशि प्राप्त करने का अधिकार–यदि प्रविवरण में मिथ्या वर्णन के आधार पर सह-प्रवर्तकों में से किसी एक प्रवर्तक को क्षतिपूर्ति करनी पड़ती है तो वह प्रवर्तक सह-प्रवर्तकों से आनुपातिक राशि प्राप्त कर सकता है।
(3) पारिश्रमिक पाने का अधिकार–कम्पनी के प्रवर्तन से सम्बन्धित किये जाने वाले कार्यों के लियो – I mrane d तशी अधिकारी होते हैं जबकि प्रवर्तक ने पारिश्रमिक के सम्बन्ध में कम्पनी से समामेलन के बाद इस आशय का अनबन्ध कर लिया कम्पनी प्रवर्तक को देय पारिश्रमिक की धनराशि अंशों, ऋण-पत्रों, नकद, सम्पत्तियों के क्रय कमीशन तथा सम्पत्ति क्रय पर लाभ के रूप में दे सकती है। इसके लिये यह आवश्यक है कि प्रवर्तक को दिये जाने वाले पारिश्रमिक का उल्लेख प्रविवरण में अवश्य होना चाहिये।
प्रवर्तकों के कर्त्तव्य एवं दायित्व
(Duties and Liabilities of Promoters)
(1) गुप्त लाभ अर्जित न करना–प्रवर्तक का कम्पनी के साथ विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता. है अतः प्रवर्तक को कम्पनी से किसी भी प्रकार से कोई गुप्त लाभ नहीं कमाना चाहिये।
(2) सारे तथ्य प्रकट करना–कम्पनी निर्माण के दौरान किये गये कार्यों, अनबन्धों । व्यवहारों से यदि प्रवर्तक का कोई हित व लाभ है तो उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने हितों व लाभों से सम्बन्धित सभी तथ्य कम्पनी के सम्मुख प्रकट करे अन्यथा वह कपट का दोषी माना जायेगा। (3) लाभ समर्पित करना-यदि प्रवर्तक ने प्रवर्तन के दौरान, अपने हितों को प्रकट किये बिना, कम्पनी से सम्बन्धित किसी व्यवहार में कोई गुप्त लाभ कमाया है तो उसका यह कर्त्तव्य है। कि वह उस लाभ को कम्पनी को वापिस कर दे।
(4) निजी सम्पत्ति बेचकर लाभ न कमाना-प्रवर्तक का यह कर्त्तव्य है कि वह अपनी निजी सम्पत्तियों को कम्पनी को बेचकर अनुचित लाभ न कमाये।
(5) निजी हित व लाभों को प्रकट करना—कम्पनी के लिये कार्य करते समय यदि किसी अनुबन्ध में किसी सम्पत्ति के क्रय-विक्रय में या कम्पनी के किसी भी अन्य व्यवहार में प्रवर्तक का कोई निजी हित, रुचि या लाभ है तो उसका कर्तव्य है वह उसे प्रकट कर दे अन्यथा वह कर्त्तव्य भंग का दोषी माना जायेगा।
(6) प्रविवरण में कपट के लिये दायित्व प्रवर्तक,जो प्रविवरण के निर्गमन में भाग लेते हैं प्रविवरण में किये गये कपट के लिये अंशधारियों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
(7) दिवालिया होने पर दायित्व-प्रवर्तक के दिवालिया हो जाने पर भी उसकी सम्पत्ति में से उसके दायित्व की राशि वसूल की जा सकती है।
(8) आर्थिक दण्ड व सजा-यदि प्रवर्तक कम्पनी अधिनियम में प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं तो इसके लिये वह आर्थिक व दण्डनीय दोनों प्रकार का दायित्व होगा। जैसे–यदि प्रविवरण में कोई मिथ्यावर्णन है तो इसके लिये प्रत्येक प्रवर्तक पर 2 वर्ष की सजा या 5,000 रु. तंक या दोनों प्रकार का दण्ड हो सकता है।
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प्रवर्तक की वैधानिक स्थिति
(Legal Position of Promoter)
प्रवर्तक कम्पनी का एजेन्ट नहीं हो सकता क्योंकि उसके प्रवर्तक बने रहने तक कम्पनी अस्तित्व में नहीं होती जबकि बिना स्वामी के कोई एजेन्ट नहीं होता। अतः प्रवर्तक कम्पनी का कम्पनी का प्रवर्तन एवं समामेलन (पंजीयन)/ 23 एजेन्ट नहीं है। प्रवर्तक कम्पनी का ट्रस्टी नहीं हो सकता क्योंकि पहले से कम्पनी को कोई अस्तित्व ही नहीं होता। इसके फलस्वरूप भी प्रवर्तक का कम्पनी के साथ विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता है।
लार्ड लिण्डले (Lord Lindley) ने प्रवर्तकों की वैधानिक स्थिति के सम्बन्ध में निम्न पाँच बातें बतायी हैं
(1) विश्वासाश्रित सम्बन्ध-प्रवर्तक का कम्पनी के साथ और उन व्यक्तियों के साथ जिन्हें वह कम्पनी का अंशधारी बनाने के लिये प्रेरित करता है, विश्वासाश्रित सम्बन्ध होता है।
(2) अनुबन्ध के लिये बाध्य करना-कम्पनी का निर्माण हो जाने के बाद कम्पनी के संचालक प्रवर्तकों को किसी ऐसे अनुबन्ध से बाध्य कर सकते हैं जो प्रवर्तकों ने कम्पनी के प्रवर्तन की दशा में किये हों।
(3) संचालकों का व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी न होना-यदि संचालकों ने अपने अधिकारों के अन्तर्गत उचित सावधानी तथा ईमानदारी से कम्पनी के हित में कार्य किया है तो ये कम्पनी के प्रति उन हानियों के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होते जो कम्पनी ने प्रवर्तकों की गलतियों व भूलों के कारण उठाये हैं।
(4) मिथ्यावर्णन के आधार पर हए अनुबन्ध को समाप्त करना कम्पनी बनने पर संचालकों द्वारा प्रवर्तकों को अनेक प्रकार व्यय का भुगतान किया जा सकता है लेकिन भुगतान न मिलने की दशा में प्रवर्तक कम्पनी पर इन व्ययों को प्राप्त करने के लिये वाद प्रस्तुत नहीं कर सकते क्योंकि प्रवर्तक को तथ्यों के मिथ्यावर्णन के आधार पर अनुबन्ध में सम्मिलित होने के लिये प्रेरित किया है, समाप्त किया जा सकता है, यद्यपि ऐसा मिथ्यावर्णन कपटमय न हो।
(5) पक्षकारों की स्थिति के परिवर्तन के बाद व्यर्थनीय अनुबन्धों का समाप्त न होना-एक . व्यर्थनीय अनुबन्ध पक्षकारों की स्थिति में परिवर्तन होने के बाद समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि प्रवर्तक कम्पनी के साथ कोई अनुबन्ध करते हैं तो वे उस अनुबन्ध से कम्पनी को तब तक बाध्य नहीं कर सकते जब तक कि वे कम्पनी को उस अनुबन्ध के उन सब आवश्यक तथ्यों को न बता दें, जिन्हें कम्पनी को अवश्य जानना चाहिये।
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प्रवर्तकों के प्रकार
(Types of Promoters)
(1) व्यावसायिक प्रवर्तक (Professional Promoters)-ऐसे प्रवर्तकों का मुख्य व्यवसाय नई कम्पनियों का प्रवर्तन करना होता है। ये प्रवर्तन सम्बन्धी कार्यों में कुशल होते हैं
और पारिश्रमिक लेकर अपनी विशेषज्ञ सेवाओं द्वारा कम्पनी का निर्माण करते हैं।
(2) सामयिक प्रवर्तक (Occasional Promoters)-इनका मुख्य व्यवसाय कम्पनियों का प्रवर्तन न होकर कुछ और होता है । कभी-कभी किसी अवसर पर ये प्रवर्तन का काम करते हैं
और कम्पनी के निर्माण में रुचि लेते हैं।
(3) वित्तीय प्रवर्तक (Financial Promoters)-ऐसे प्रवर्तक जो वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए प्रवर्तन कार्य में वित्तीय सहायता देते हैं । वित्तीय प्रवर्तक कहलाते हैं।
(4) तकनीकी प्रवर्तक (Technical Promoters)-तकनीकी ज्ञान के कारण ऐसे व्यक्ति कम्पनी में प्रवर्तक हो जाते हैं।
(5) विशिष्ट संस्थाएँ (Specialised Institutions)-ऐसी विशिष्ट संस्थायें जो कम्पनियों के प्रवर्तक का काम करने के लिये स्थापित की जाती हैं, विशिष्ट संस्थाएँ कहलाती कम्पनी अधिनियम/24 हैं। जैसे-राष्ट्रीय औद्योगिक विकास निगम (National Industrial Development Corporation)
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कम्पनी के समामेलन का अर्थ
(Meaning of Incorporation of Company)
भारतीय कम्पनी अधिनियम के अनुसार, कम्पनी के समामेलन हेतु उस राज्य के रजिस्ट्रार (जहाँ पर कम्पनी का रजिस्टर्ड कार्यालय होगा) के पास (i) पार्षद सीमानियम, (ii) पार्षद अन्तर्नियम, (iii) संचालकों की संचालक बनाने की लिखित सहमति, (iv) संचालकों की योग्यता अंश लेने की लिखित सहमति, (v) कम्पनी के रजिस्टर्ड कार्यालय की सूचना, (vi) | वैधानिक घोषणा, तथा (vii) निश्चित शुल्क सहित सभी उपर्युक्त प्रपत्र जमा करने होते हैं। रजिस्ट्रार अपनी सन्तुष्टि के बाद उस कम्पनी का नाम अपने रजिस्टर में लिख लेता है और कम्पनी को इस आशय का एक प्रमाण-पत्र दे देता है कि कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कर लिया गया है। इस प्रकार से कम्पनी का समामेलन हो जाता है।
समामेलन के प्रभाव
(Consequences fo Incorporation)
(1) कम्पनी समामेलित संस्था बन जाती है।
(2) कम्पनी और सदस्यों के मध्य एक अनुबन्ध हो जाता है ।
(3) समामेलन के बाद कम्पनी दूसरे पक्षों पर और दूसरे पक्ष कम्पनी पर वाद प्रस्तुत कर सकते हैं।
(4) कम्पनी का स्थायी अस्तित्व होता है।
(5) कम्पनी का पृथक् अस्तित्व हो जाता है।
(6) सदस्यों द्वारा देय धन कम्पनी के ऋण की भाँति समझी जाती है। (7) समामेलन के बाद कम्पनी एक वैधानिक व्यक्ति बन जाती है। (8) समामेलन से पूर्व की अनियमितताएँ समामेलन को व्यर्थ नहीं करती।
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समामलन का प्रमाण-पत्र
(Certificate of Incorporation)
कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 9 के अनुसार “कम्पनी के रजिस्ट्रेशन के बाद रजिस्ट्रार अपने हस्ताक्षरों तथा कार्यालय की मोहर के अन्तर्गत एक प्रमाण-पत्र देता है, जिसे ‘समामेलन का प्रमाण-पत्र’ कहा जाता है । इसमें यह लिखा रहता है कि कम्पनी समामेलित हो गई है।
इस प्रमाण-पत्र में निम्नलिखित बातों का उल्लेख होता है (i) कम्पनी का पूरा नाम (ii) कम्पनी के सदस्यों का दायित्व (iii) कम्पनी के समामेलन का प्रमाण-पत्र जारी किये जाने की तारीख । (iv) मुद्रांक (स्टाम्प) की राशि। ‘ (v) रजिस्ट्रार के कार्यालय की मोहर (सील)। (vi) रजिस्ट्रार की सील के साथ उसके हस्ताक्षर।
समामेलन के प्रमाण-पत्र का नमूना
(Specimen Certificate of Incorporation)
संख्या …………. दिनांक ……………
मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि ………… कम्पनी लिमिटेड आज के दिन कम्पनी अधिनियम 2013 के अन्तर्गत समामेलित हो गयी है और यह सीमित दायित्व वाली कम्पनी है। ……… (तिथि व माह) को मेरे हाथ से यह प्रमाण-पत्र निर्गमित हुआ। कम्पनी रजिस्ट्रार की सोल हस्ताक्षर,
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समामेलन का प्रमाण-पत्र -एक निश्चयात्मक प्रमाण होना
(Certificate of Incorporation : A Conclusive Evidence)
कम्पनी अधिनियम के अनुसार, समामेलन का प्रमाण-पत्र इस बात का निश्चयात्मक प्रमाण होता है कि कम्पनी की समामेलन सम्बन्धी सभी वैधानिक कार्यवाही पूरी हो चुकी हैं और रजिस्ट्रार के यहाँ कम्पनी का पंजीयन हो गया है।
समामेलन का प्रमाण पत्र निम्नलिखित बातों के सम्बन्ध में निश्चयात्मक प्रमाण होता है
- पार्षद सीमानियम व अन्तर्नियम कम्पनी अधिनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत बनाये गये हैं।
- पार्षद सीमा नियम के प्रत्येक हस्ताक्षरकर्ता ने अपने नाम के आगे अंकित अंश ले लिये
- कम्पनी का समामेलन उचित ढंग से हुआ है।
(iv) कम्पनी एक निजी या सार्वजनिक कम्पनी है और इसके सदस्यों का दायित्व सीमित है। कम्पनी की रजिस्ट्री तथा इससे सम्बन्धित विषयों के सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम की सभी औपचारिकतायें पूरी कर दी गई हैं। यदि बाद में यह पता चलता है कि किसी प्रकार का कपटपूर्ण व्यवहार किया गया है तो भी समामेलन का प्रमाण-पत्र समामेलन का निश्चयात्मक प्रमाण होगा। उपर्युक्त के अतिरिक्त यदि निम्नलिखित त्रुटियाँ पायी जाये तो भी समामेलन का प्रमाण-पत्र निश्चयात्मकता का प्रमाण ही माना जाता है- .
(i) पार्षद सीमानियम में सदस्यों के हस्ताक्षर होने के बाद तथा रजिस्ट्रेशन से पहले परिवर्तन कर दिये गये हों।
(ii) सभी हस्ताक्षरकर्ता अव्यस्क हों।
- पार्षद सीमानियम पर किये गये सभी हस्ताक्षर कपटपूर्ण हों।
- कम्पनी का उद्देश्य अवैध हो। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि कम्पनी का समामेलन हो जाने के बाद से यह निश्चयात्मक प्रमाण समझा जाता है कि कम्पनी का समामेलन ठीक प्रकार से किया गया है, भले ही कोई अनियमितता रह गई हो। समामेलन का प्रमाण-पत्र जारी होने के पश्चात् कम्पनी के अस्तित्व को चुनौती नहीं दी जा सकती। इस प्रकार कम्पनी का समामेलन का प्रमाण-पत्र कम्पनी को निर्गमित करने का कम्पनी अधिनियम/26 के अस्तित्व का तो प्रमाण है, परन्तु समामेलन से पूर्व की अनियमितताओं को निर्गमित , प्रमाण नहीं है।
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प्रवर्तक का कम्पनी के साथ सम्बन्ध
(Relationship of Promoter with the Company)
एक प्रवर्तक का कम्पनी के साथ निम्न प्रकार का सम्बन्ध होता है
(1) विश्वासाश्रित सम्बन्ध (Fiduciary Relation) कम्पनी के साथ प्रवर्तक । विश्वासाश्रित सम्बन्ध होते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि कम्पनी के प्रवर्तकों कम्पनी के साथ तथा उन व्यक्तियों के साथ, जिन्हें अंशधारी बनाने के लिए आकर्षित किया है है, विश्वासाश्रित सम्बन्ध होते हैं । कम्पनी और प्रवर्तक के बीच यह सम्बन्ध तब तक रहता है तक कम्पनी का निर्माण न हो जाये।
(2) निर्माण बाद कार्यों के लिए उत्तरदायी न होना (Not to be Responsible for after Formation Functions)-प्रवर्तक कम्पनी के निर्माण, से सम्बन्धित समस्त कार्य सम्पन्न करता है और अनुबन्ध करता है लेकिन प्रवर्तक कम्पनी का निर्माण होने से पर्वत कार्यों के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है और निर्माण के बाद के कार्यों के लिए उत्तर नहीं होता है।
(3) व्यक्ति रूप से उत्तरदायी न होना (No to be Responsible as Individuals) यदि प्रवर्तक ने ईमानदारी तथा सावधानी से कम्पनी के हित में कार्य किया है तो वह कम्पनी के प्रति हानियों के लिए व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं होता है।
(4) समामेलन के बाद पद न होना (No Existence of Designation after Incorporation)-कम्पनी का समामेलन हो जाने के बाद प्रवर्तक पद समाप्त कर दिया जाता है क्योंकि कम्पनी की प्रबन्ध व्यवस्था अब संचालक करते हैं।
समामेलन के पूर्व के अनुबन्ध समानता
(Contracts of Pre-incoroporation)
समामेलन से पूर्व के अनुबन्ध से आशय ऐसे अनुबन्ध से लगाया जाता है जो समामेलन से पूर्व प्रवर्तकों एवं अन्य व्यक्तियों के बीच कम्पनी के लाभ के लिये किये जाते हैं। ऐसे अनुबन्धों से कम्पनी का कोई सम्बन्ध नहीं होता । इनके लिये प्रवर्तक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है। इस प्रकार के अनुबन्धों से निम्नलिखित तथ्य उजागर होते हैं
1. समामेलन के पूर्व के अनुबन्धों से कम्पनी बाध्य नहीं होती है।
2. समामेलन के बाद कम्पनी ऐसे अनुबन्धों की पुष्टि नहीं कर सकती है।
3. ऐसे अनुबन्धों के आधार पर कम्पनी को तृतीय पक्षकार के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं होता है।
4. यदि अनुबन्ध समामेल की शर्तों के अनुकूल है तो कम्पनी के द्वारा या कम्पनी के विरुद्ध विशिष्ट निष्पत्ति प्राप्त की जा सकती है। यदि कम्पनी ने ऐसे अनुबन्ध को स्वीकार कर लिया। और इसकी सूचना दूसरे पक्षकार को दे दी है।
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