Bcom 3rd Year Internal Check meaning notes
आन्तरिक निरीक्षण
आन्तरिक निरीक्षण (आन्तरिक जाँच) से आशय
(Meaning of Internal Check)
आन्तरिक निरीक्षण से आशय एक ऐसी व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत संस्था के हिसाब-किताब का भार अर्थात् लेखांकन व्यवस्था को कार्यालय के कर्मचारियों में इस प्रकार विभाजित किया जाता है ताकि प्रत्येक कर्मचारी के कार्य की जाँच स्वतन्त्र रूप से दूसरे कर्मचारी द्वारा की जा सके। इसके अन्तर्गत किसी एक कर्मचारी को किसी एक व्यवहार की प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की जाने वाली समस्त प्रविष्टियों का अधिकार नहीं दिया जाता है। उदाहरण के लिए, शिक्षा संस्थाओं में एक क्लर्क केवल वाणिज्य के विद्यार्थियों की फीस ले और दूसरा केवल साइन्स के विद्यार्थियों की फीस ले, तीसरा केवल कला विद्यार्थियों की फीस ले और इन क्लर्कों द्वारा ली गई फीस की पोस्टिंग कोई अन्य क्लर्क करे तथा अन्य कोई क्लर्क इस पैसे को बैंक में जमा कराए। यदि किसी कर्मचारी के कार्य में अशुद्धि रह जाती है अथवा कोई कर्मचारी छल-कपट करता है तो जाँचने वाला कर्मचारी तुरन्त उसका पता लगा लेगा। इस प्रकार आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के अन्तर्गत समस्त व्यवहारों की जाँच भी साथ-साथ होती रहती है, जिसका लाभ यह है कि जब तक दो-तीन कर्मचारी आपस में मिल न जाएँ तब तक कपट की सम्भावना नहीं रहती।
यद्यपि इस प्रणाली द्वारा छल कपटों को पूर्णतया रोका तो नहीं जा सकता, परन्तु यह प्रणाली छल-कपटों की सम्भावना को कम अवश्य कर देती है। आन्त िक निरीक्षण प्रणाली को आन्तरिक जाँच भी कहा जाता है।
आन्तरिक निरीक्षण (आन्तरिक जाँच) की परिभाषायें
(Definitions of Internal Check)
प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई आन्तरिक निरीक्षण की परिभाषायें निम्नलिखित प्रकार है।
1. डी पॉला (De Paula) के अनुसार, “आन्तरिक निरीक्षण का अभिप्राय कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले लगातार आन्तरिक निरीक्षण से है जिसके द्वारा एक व्यक्ति का कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक स्टाफ के अन्य सदस्यों द्वारा जाँचा जाता है।”
2. डिक्सी (Dicksee) के अनुसार, “आन्तरिक निरीक्षण नैत्यक हिसाब-किताब की वह व्यवस्था है जिसमें त्रुटियाँ और कपट अपने आप रुक जाते है। या बुककीपिंग के संचालन से अपने आप पकड़े जाते हैं।”
एक कुशल आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के लक्षण
(Features of an Efficient System of Internal Check)
एक कुशल आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली में छल-कपट एवं त्रुटियों को रोकने के दृष्टिकोण से निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं-
1. कार्य का विभाजन-इस प्रणाली के अन्तर्गत समस्त कार्य को विभिन्न उपकार्यों में बाँट दिया जाता है तथा प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा कार्य के एक भाग का ही निष्पादन किया जाता है। कार्य का वितरण करते समय कर्मचारियों की कार्य करने की योग्यता तथा कार्य करने की इच्छा दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिये ।
2. अधिकार एवं दायित्वों का स्पष्टीकरण-इसके अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी को प्रदान किये गये कार्य के सम्बन्ध में अधिकार और उत्तरदायित्वों का निर्धारण एवं स्पष्टीकरण कर दिया जाता है जिससे वह अपने कार्य के प्रति जागरुक रहे । प्रत्येक कर्मचारी की कार्य सीमा निर्धारित होने के कारण उसके द्वारा हुई त्रुटियों के लिए वह सरलतापूर्वक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
3. कर्मचारियों के कार्यों में परिवर्तन-एक कर्मचारी को एक ही प्रकार का कार्य प्रतिवर्ष नहीं सौंपना चाहिए, बल्कि उनके कार्यों में परिवर्तन करते रहना चाहिये। कर्मचारियों के कार्य में समय-समय पर परिवर्तन करते रहने से छल-कपट की सम्भावनायें कम हो जाती
4. स्वकीय-सन्तुलन प्रणाली का उपयोग-लेखा पुस्तकों में स्वकीय-संतुलन प्रणाली (Self-Balancing System) का अधिकाधिक प्रयोग होना चाहिए एवं यह व्यवस्था किसी उत्तरदायी अधिकारी के हाथ में होनी चाहिए ।
5. लेखांकन हेतु यांत्रिक पद्धति को अपनाग-बड़ी व्यापारिक संस्थाओं में जहाँ लेन-देनों की संख्या बहुत अधिक होती है, लेखांकन हेतु यांत्रिक पद्धति को अपनाना चाहिए। यन्त्रों के प्रयोग से गलतियों और छल-कपट की सम्भावनाएँ अपने आप समाप्त हो जाती हैं। आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली को यांत्रिक पद्धतियों द्वारा अधिक उन्नत किया जा सकता है।
6. प्रत्येक लेन-देन का लेखा अनेक कर्म भरियों के हाथों से गुजरना-कार्य-विभाजन इस प्रकार करना चाहिए कि एक ही कर्मचारी किसी लेन-देन को शुरू से अन्त तक अकेला न लिख सके। सिद्धान्त यह है कि लेन-देन जितना महत्त्वपूर्ण हो उतना ही उसका विभाजन अधिक व्यक्तियों में करना चाहिए। बिक्री करने, रोकड़ प्राप्त करने और हिसाब लिखने के लिए भिन्न-भिन्न व्यक्ति होने चाहिए।
7. अनिवार्यत: कार्यावकाश प्रदान करना कभी-कभी कर्मचारी छुट्टियाँ बहुत कम लेते हैं या लेते ही नहीं। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि उन्होंने कोई ऐसा गबन कर रखा हो जिसके कारण वह अपनी सीट पर अन्य किसी व्यक्ति को बैठने ही न देना चाहते हों। प्रत्येक ऐसे कर्मचारी को जिसके पास रोकड़, बैंक, माल का हिसाब-किताब हो, बिना कोई पूर्व-सूचना दिये अनिवार्य रूप से अवकाश प्रदान करना चाहिए, ताकि उनके द्वारा की गयी अनियमितताएँ ज्ञात की जा सकें।
8. क्रय एवं विक्रय पर उचित नियन्त्रण--क्रय और विक्रय पर उचित नियन्त्रण रखा जाना चाहिए। विक्रय की जाने वाली वस्तु के मूल्य निर्धारित कर देने चाहिये, जिससे विक्रेता द्वारा उससे कम या अधिक मूल्य पर वस्तुओं का विक्रय न किया जा सके तथा क्रय करने वाले अधिकारियों के लिए भी अधिकतम मूल्य निर्धारित कर देना चाहिए जिससे वे अधिक मूल्य पर वस्तुओं का क्रय न करें।
9. देनदारों व लेनदारों से पत्र-व्यवहार –-संस्था के विभिन्न देनदारों एव लेनदारों से भी समय-समय पर पत्र व्यवहार करते रहना चाहिये तथा संदिग्ध स्थिति को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये।
10. खाताबही बनाने वाले व्यक्तियों का लेनदारों व देनदारों से कोई सम्बन्ध न होना-जिन कर्मचारियों को खाता बही बनाने का कार्य सौंपा गया है लेनदारों देनदारों से किसी किस्म का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए अन्यथा वे खातों में गड़बड़ी कर सकते हैं।
ll. छूट (Discount) आदि के नियम-छूट, वापसी (Return) तथा डूबत ऋण आदि के नियम सोच-समझ कर बनाने चाहिएँ और यह भी देखना चाहिए कि उनका पालन पूरी तरह हो रहा है या नहीं।
12. रोकड़ की प्राप्ति एवं भुगतान का कार्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा संस्था में रोकड़ की प्राप्ति एवं भुगतान का कार्य करने के लिये अलग-अलग व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिये । इस प्रकार रोकड़ गबन की सम्भावना कम हो जाती है। प्राप्त रोकड़ को उसी दिन बैंक में जमा कराया जाना चाहिए।
13. माल मँगाने, प्राप्त करने तथा विभिन्न विभागों को भेजने की व्यवस्था पर नियन्त्रण-वस्तएँ मंगाने के लिए ऑर्डर भेजने, प्राप्त करने तथा विभिन्न विभागों को माल भेजने की व्यवस्था या पर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए।
14. मजदूरो का लेखा-मजदूरी सम्बन्धी लेखे तथा इसकी भुगतान प्रणाली उचित एवं कुशल होनी चाहिए। मजदूरी का लेखा व इसका भुगतान पृथक्-पृथक् व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिए।
15. अधिसमय (Overtime) की जाँच-जिन व्यक्तियों ने अधिसमय लगाकर कार्य किया है उनके कार्य की पर्याप्त जाँच करनी चाहिए और देखना चाहिए कि उनके कार्य को उत्तरदायी व्यक्ति ने ही जाँचा है।
16. डाक खोलने पर नियन्त्रण-संस्था के अन्य विभागों अथवा बाहर की अन्य संस्थाओं से प्राप्त डाक को खोलने का अधिकार उच्च विश्वास-पात्र अधिकारी को होग चाहिये । ऐसा होने से आवश्यक महत्वपूर्ण प्रपत्रों, ड्राफ्ट, चैक आदि का गबन करना सम्भव नहीं होगा। मनीऑर्डर प्राप्ति पर हस्ताक्षर अधिकारी ही करे, कर्मचारी नहीं। सभी आवश्यक पत्र, रजिस्ट्री तथा मनीऑर्डर आदि रजिस्टर में सही प्रकार से चढ़ाने के पश्चात् सम्बन्धित व्यक्तियों को सौंपना चाहिए।
17. आवश्यकता से अधिक किसी कर्मचारी पर विश्वास न करना-किसी विशेष कर्मचारी या अधिकारी पर आवश्यकता से अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि अधिक विश्वास करने पर धोखाधड़ी की सम्भावना हो सकती है।
18. व्यवसाय के उपकरण सम्पत्ति को निजी उपयोग की अनुमति न देना-किसी भी कर्मचारी या अधिकारी को व्यवसाय के किसी उपकरण या सम्पत्ति को निजी उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए ।
19. नियन्त्रण खातों की पद्धति अपनाना-यथासम्भव नियन्त्रण खाता (Control Account) की पद्धति को अपनाना चाहिए।
20. योजना का मूल्यांकन (Appraisal of Plan) आन्तरिक निरीक्षण योजना का समय-समय पर मूल्यांकन होता रहना चाहिये जिससे आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली दोष मुक्त रहे । यदि कोई त्रुटि पाई जाती है तो उसका सुधार किया जाना चाहिये ।
आन्तरिक निरीक्षण के सम्बन्ध में अंकेक्षक की स्थिति
(Auditor’s Position in Relation to Internal Check)
यह बात पूर्णतया सत्य है कि आन्तरिक निरीक्षण की व्यवस्थित प्रणाली अंकेक्षक के कार्य को सरल एवं सुगम बना सकती है, परन्तु आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली अव्यवस्थित होने पर अंकेक्षक को धोखा हो सकता है। वस्तुतः आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली से अंकेक्षक का कार्य तो कम हो सकता है, परन्तु उसका उत्तरदायित्व किसी भी प्रकार कम नहीं हो सकता। अंकेक्षक की नियुक्ति लेखों की सत्यता एवं औचित्यता प्रमाणित करने के लिये की जाती है । यदि वह आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर विश्वास करते हुए अपना जाँच कार्य विस्तार से नहीं करता और हिसाब-किताब को सत्य प्रमाणित कर देता है, तो बाद में अशुद्धियों एवं छलकपट का पता चलने पर वह अपने बचाव में यह तर्क प्रस्तुत नहीं कर सकता कि उसने आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली का सहारा लिया था। अतः अंकेक्षक को आवश्यक उचित सावधानी, चतुराई, बुद्धिमत्ता तथा कुशलता से ही अंकेक्षण कार्य करना चाहिये। अंकेक्षक को सर्वप्रथम तो यह पता करना चाहिए कि उसे जिस संस्था की लेखा पुस्तकों का अंकेक्षण करना है उस संस्था में आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली अपनाई गई है या नहीं। यदि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली को अपनाया गया है तो अपने नियोक्ता से एक लिखित विवरण प्राप्त करना चाहिए जिसमें प्रचलित आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली का उल्लेख हो । उसके बाद संस्था के कार्य के स्वभाव एवं आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली का अध्ययन करना चाहिये। उसे देखना चाहिये कि विभिन्न प्रकार के व्यवहारों के सम्बन्ध में क्या-क्या प्रक्रियाएँ हैं ? उन प्रक्रियाओं के अनुसार कर्मचारियों के मध्य कार्यों का वितरण किस प्रकार किया गया है ? प्रत्येक कर्मचारी के कार्य की जाँच, कार्य-परिवर्तन, अनिवार्य छुट्टी आदि के बारे में गहन अध्ययन करना चाहिये।
अंकेक्षक, आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर किस सीमा तक निर्भर रह सकता है, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान रखने योग्य हैं-
1. यदि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पूर्णतः दोषयुक्त है तो उसे इस प्रणाली पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं करना चाहिए एवं लेखा पुस्तकों की विस्तृत जाँच करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध में नियोक्ता को भी सूचित कर देना चाहिए।
2. यदि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली सन्तोषजनक नहीं है तो उसकी दुर्बलताओं का पता लगाकर यह अनुमान लगाना चाहिए कि त्रुटियाँ एवं छल-कपट कहाँ हो सकते हैं।
3. आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के संतोषजनक होने पर वह लेखा पुस्तकों की विस्तृत जाँच न करके केवल परीक्षण जाँच करके समय की बचत कर सकता है। परीक्षण जाँच को किस सीमा तक अपनाया जाये यह संस्था में अपनायी गयी आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर निर्भर करता है।
डी० पॉला (De Paula) के अनुसार, “अंकेक्षक आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली तथा अंकेक्षण पर कहाँ तक सुरक्षापूर्वक निर्भर कर सकता है, यह विशिष्ट मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है, और इसका निश्चय प्रत्येक अंकेक्षक को स्वयं अपने लिए करना चाहिए। इस सम्बन्ध में उसे पर्याप्त बुद्धिमत्ता, अनुभव एवं निर्णय की आवश्यकता होती हैं।
आन्तरिक निरीक्षण के लाभ
(Advantages of Internal Check)
1. कार्य का उत्तरदायित्व के साथ किया जाना—कार्य का विभाजन हो जाने से कर्मचारियों के दायित्वों व अधिकारों का निर्धारण हो जाता है। प्रत्येक कर्मचारी को निश्चित कार्य सौंपा जाता है, अतः कर्मचारी-विशेष को उसके द्वारा की गयी त्रुटियों के लिए आसानी से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। इस कारण प्रत्येक कर्मचारी अपना कार्य लगन एवं उत्तरदायित्व के साथ करता है।
2. कार्यक्षमता में वृद्धि-इस विधि के अन्तर्गत श्रम-विभाजन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कार्य को अनेक कर्मचारियों में बाँट दिया जाता है तथा प्रत्येक व्यक्ति को वही कार्य दिया जाता है जिस कार्य में वह दक्ष होता है। अतः बार-बार एक ही प्रकार के कार्य को करने से उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होती है।
3. कार्य शीघ्र समाप्त होना-चूँकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी पर अपना-अपना कार्य समाप्त करने का उत्तरदायित्व होता है; अतः कार्य शीघ्र समाप्त हो जाता
4. कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव-इस पद्धति के अपनाने से कर्मचारियों पर नैतिक प्रभाव रहता है कि वे अपना कार्य ठीक करें क्योंकि उनके कार्य की जाँच अन्य व्यक्ति द्वारा की जाएगी।
5. त्रुटियों व छल-कपट का शीघ्र पकड़ा जाना-यद्यपि इस प्रणाली के कारण त्रुटि व कपट बहुत कम हो जाते हैं फिर भी यदि कोई त्रुटि या कपट हो जाता है तो वह शीघ्र ही पकड़ में आ जाता है क्योंकि प्रत्येक लेन-देन की जाँच कई व्यक्तियों द्वारा की जाती है।
6. अन्तिम खातों का शीघ्र तैयार होना-प्रत्येक कार्य अनेक भागों में विभक्त होने तथा दक्ष कर्मचारियों द्वारा किए जाने के कारण बड़ी शीघ्रता से समाप्त हो जाता है और अन्तिम खाते भी बहुत ही जल्दी तैयार कर लिए जाते हैं।
7. अंकेक्षण कार्य का सरल होना-यह प्रणाली अंकेक्षक के कार्य को काफी सीमा तक कम कर देती है। संतोषजनक व्यवस्था होने पर अंकेक्षक परीक्षण जाँच (Test checking) का प्रयोग आसानी से कर सकता है। महत्वपूर्ण तथ्यों पर अधिक समय देकर वह उनकी गहन जाँच कर सकता है। इस प्रकार अंकेक्षक अपना कार्य सरलता से एवं कम समय में समाप्त कर लेता है।
8. व्यापार के मालिक का चिन्तामुक्त होना एवं अन्य आवश्यक कार्यों में ध्यान देने हेतु पर्याप्त समय मिलना-संस्था में सुव्यवस्थित आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली के लागू होने से संस्था के मालिक को यह विश्वास हो जाता है कि उसके यहाँ लेखाकर्म का कार्य नियमानुकूल एवं व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। अतः वह अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर ध्यान देकर अपने व्यवसाय को उन्नत कर सकता है।
आन्तरिक निरीक्षण की हानियाँ
Disadvantages of Internal Check)
1. कार्य का नीरस होना-आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली में कार्य विभाजन से कर्मचारियों को एक ही प्रकार का कार्य करना पड़ता है, जिससे उनके लिए कार्य नीरस हो जाता है। कार्य नीरस होने से वे पूरी रुचि के साथ कार्य का निष्पादन नहीं कर पाते हैं और उनकी कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
2. छोटे व्यवसायों के लिए अनावश्यक-छोटे व्यवसायों में कम लेन-देन होने के कारण यह प्रणाली अनावश्यक एवं अनुपयोगी है।
3. अधिक खर्चीली-आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली में अधिक कर्मचारियों एवं स्टेशनरी की आवश्यकता पड़ती है, इस कारण यह प्रणाली महंगी सिद्ध होती है।
4. अंकेक्षक का लापरवाह होना-सामान्यतया अंकेक्षक आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली का अनुसरण करने वाली संस्थाओं की लेखा पुस्तकों पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करते हैं एवं अंकेक्षण कार्य में पर्याप्त सावधानी एवं सतर्कता नहीं बरतते । वह परीक्षण जाँच का सहारा लेकर खातों को सत्यापित कर देते हैं जिससे अशुद्धियाँ एवं छल-कपट प्रकाश में आने से छूट सकते हैं। स्पष्ट है कि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली को अपनाये जाने से अंकेक्षक लापरवाह हो जाते हैं।
5. मालिक का लापरवाह होना-प्राय: यह देखने में आता है कि आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली लागू किये जाने पर मालिक यह समझ बैठता है कि अब अशुद्धियाँ व छल-कपट सम्भव नहीं है तथा अपनी संस्था के लेखों की जाँच पर बिल्कुल ध्यान नहीं देता। यह विश्वास खतरे से खाली नहीं है। ऐसी बात मन में बैठने तथा कर्मचारियों को इसका आभास होने से त्रुटियों एवं छल-कपट होने की सम्भावना बढ़ जाती है ।
6. साँठ-गाँठ द्वारा छल-कपट सम्भव-जब कर्मचारियों को इस बात का पता चल जाता है कि संस्था का मालिक तथा अंकेक्षक आन्तरिक निरीक्षण प्रणाली पर भारी विश्वास रखते हैं तथा अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह हो चुके हैं, तो वे (कर्मचारी) आपस में साँठ-गाँठ करके छल-कपट करने लगते हैं, जिसकी पकड़े जाने की सम्भावनायें बहुत कम हो जाती है।
आन्तरिक अंकेक्षण एवं आन्तरिक निरीक्षण में अन्तर
(Difference Between Internal Audit and Internal Check)
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