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Verification and Valuation of Assets and Liabilities

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सम्पत्तियों एवं दायित्वों का सत्यापन एवं मूल्यांकन (Verification and Valuation of Assets and Liabilities)

सत्यापन का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Verification)

‘सत्यापन’ का शाब्दिक अर्थ सत्यता को प्रमाणित करना है। ‘सत्यापन’ अंकेक्षण की एक ऐसी विधि है जिसके अन्तर्गत अंकेक्षक द्वारा स्थिति विवरण में प्रदर्शित समस्त सम्पत्तियों एवं दायित्वों की सत्यता प्रमाणित की जाती । अंकेक्षक सत्यापन द्वारा सभी सम्पत्तियों एवं दायित्वों की जाँच करके यह निश्चय करता है कि आर्थिक चिट्ठे में प्रदर्शित सभी सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मूल्यांकन ठीक प्रकार से किया गया है या नहीं एवं उक्त तिथि पर संस्था में विद्यमान हैं या नहीं।

सत्यापन की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-

स्पाइसर एवं पैगलर के अनुसार-“सम्पत्तियों के सत्यापन का अर्थ उनके मूल्य, स्वामित्व तथा स्वत्व, विद्यमानता तथा अधिग्रहण एवं सम्पत्तियों पर किसी प्रकार का प्रभार होने के बारे में पूछताछ करने से है।’

जॉसेफ लंकास्टर के अनुसार-“सम्पत्तियों का सत्यापन एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अंकेक्षक चिट्टे के दाहिने भाग को सत्यता को प्रमाणित करता है। इसके तीन विशिष्ट उद्देश्य समझे जाने चाहिये-(अ) सम्पत्तियों को विद्यमानता का सत्यापन करना, सम्पत्तियों का मूल्यांकन करना तथा (स) उन्हें प्राप्त करने के अधिकार की जाँच करना।” . .          

उपरोक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि अंकेक्षक सत्यापन तकनीक के अन्तर्गत, सम्पत्तियों की सत्यता एवं औचित्यता की जाँच करने के लिए, निम्नलिखित तथ्यों के बारे में जाँच करता है-

1. सम्पत्तियों को चिट्टे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है ।

2. सम्पत्तियाँ वास्तव में संस्था के पास विद्यमान हैं।

3. सम्पत्तियों पर संस्था का स्वामित्व है

4. सम्पत्तियाँ प्रभार मुक्त हैं अथवा उन पर किस प्रकार का प्रभार है ।

5. सम्पत्तियों को चिट्टे में उचित मूल्य पर लिखा गया है ।

सम्पत्तियों की भाँति ही अंकेक्षक चिट्टे में लिखे दायित्वों का सत्यापन करता है।

दायित्वों के सत्यापन के अन्तर्गत निम्नलिखित तथ्यों की जाँच की जाती है-

1. दायित्वों को चिट्ठे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है,

2. सभी दायित्व वास्तविक हैं तथा संस्था से सम्बन्धित हैं,

3. चिट्टे की तारीख तक के समस्त दायिल सम्मिलित कर लिये गए हैं,

4. दायित्व पूर्ण रूप से अधिकृत हैं, तथा

5. समस्त दायित्वों को चिट्ठे में उचित राशि पर लिखा गया है।

सत्यापन के उद्देश्य (Objects of Verification)

सत्यापन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. गणितीय शुद्धता का पता लगाना-सत्यापन का उद्देश्य यह जानकारी प्राप्त करना है कि चिट्ठे में प्रदर्शित सम्पत्तियाँ एवं दायित्व गणितीय रूप से शुद्ध हैं या नहीं।

2. संस्था से सम्बन्धित होने की जाँच-सत्यापन का उद्देश्य यह पता लगाना भी है कि चिट्ठे में प्रदर्शित समस्त सम्पत्तियाँ एवं दायित्व संस्था के हैं या नहीं।

3. चिट्ठे की सत्यता की जाँच-अंकेक्षण कार्य की समाप्ति पर अंकेक्षक को चिट्टे के ‘सत्य एवं उचित’ होने की रिपोर्ट देनी पड़ती है। सत्यापन के माध्यम से ही अंकेक्षक यह जानकारी प्राप्त करता है कि चिट्ठा संस्था की सही एवं उचित आर्थिक स्थिति को प्रदर्शित करता है। सत्यापन का उद्देश्य यह पता लगाना है कि संस्था की समस्त सम्पत्तियों एवं दायित्वों को चिट्ठे में स्पष्ट व सही रूप से अधिनियम के अनुसार लिखा गया है या नहीं।

4. विद्यमानता का पता लगाना-सत्यापन का एक उद्देश्य यह पता लगाना भी है कि चिट्ठ की तिथि पर प्रदर्शित सभी सम्पत्तियाँ एवं दायित्व संस्था में विद्यमान हैं या नहीं।

5. सही मूल्यांकन का पता लगाना-सत्यापन का उद्देश्य इस बात की जाँच करना भी होता है कि समस्त सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मूल्यांकन पुस्तपालन एवं लेखाकर्म के सिद्धान्तों के अनुसार ठीक-ठीक किया गया है या नहीं तथा मूल्यांकन गतवर्ष के अनुरूप है या नहीं।

6. स्वामित्व एवं स्वत्वाधिकार की जाँच-आर्थिक चिट्ठे में प्रदर्शित सम्पत्तियाँ वास्तव में संस्था की ही हैं और संस्था का इन सभी सम्पत्तियों पर पूर्ण स्वत्वाधिकार है या नहीं, यह जानने के लिए भी सत्यापन आवश्यक होता है।

7. कपट व अनियमितता की जाँच-सत्यापन के द्वारा यह भी पता लगाया जाता है कि चिट्ठे में प्रदर्शित किसी सम्पत्ति या दायित्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई कपट या अनियमितता तो नहीं हुई है ।।

8. दायित्वों के सही प्रदर्शन की जानकारी प्राप्त करना-चिट्टे में प्रदर्शित समस्त दायित्वों का सही मूल्यांकन किया गया है या नहीं, सभी दायित्वों को आर्थिक चिट्टे में शामिल किया गया है या नहीं, दायित्व संस्था से सम्बन्धित हैं या नहीं, आदि बातों की जानकारी सत्यापन से ही होती है।

सत्यापन के सम्बन्ध में अंकेक्षक के कर्त्तव्य

(Duty of Auditor in Relation to Verification)

सत्यापन के सम्बन्ध में अंकेक्षक के कर्तव्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(i) सम्पत्तियों के सत्यापन के सम्बन्ध में,

(ii) दायित्वों के सत्यापन के सम्बन्ध में ।

(i) सम्पत्तियों के सत्यापन के सम्बन्ध में-

1. विद्यमानता-अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि आर्थिक चिट्ठे में प्रदर्शित समस्त सम्पत्तियाँ उस समय वास्तव में विद्यमान थी, जबकि चिट्ठा बनाया गया था।

2. मूल्याँकन-स्थिति विवरण में इन सम्पत्तियों का मूल्य उचित रीति से तथा सही-सही दर्शाया गया है अथवा नहीं।

3. परिवर्तन किसी भी सम्पत्ति में ऐसा कोई परिवर्तन तो नहीं किया गया है, जो कि स्थिति विवरण में न दिखलाया गया हो।

4. प्रभार-इन सम्पत्तियों पर स्थिति विवरण में दिखलाये गये प्रभार के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का प्रभार (Charge) तो नहीं है। यदि किसी प्रकार का कोई प्रभार हैं, तो अंकेक्षक को उसका उल्लेख अपनी रिपोर्ट में करना चाहिए ।

5. संस्था का स्वामित्व -यह देखना चाहिए कि चिट्ठे में प्रदर्शित सम्पत्तियों पर संस्था/व्यवसायी का ही स्वामित्व है, किसी अन्य का नहीं।

6. कृत्रिम सम्पत्तियों के अपलेखन की उचित व्यवस्था-यदि संस्था में कुछ कृत्रिम सम्पत्तिया है तो संस्था के अंकेक्षक को देखना चाहिए कि इन सम्पत्तियों के अपलेखन की उचित व्यवस्था है या नहीं।

7. सम्पत्तियों का स्पष्ट उल्लेख-अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि संस्था/व्यवसाय की सभी सम्पत्तियाँ स्पष्ट रूप से चिट्ठे में लिखी हुई हों। कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई सम्पत्ति चिढे में लिखने से छूट गई हों।

(ii) दायित्वों के सत्यापन के सम्बन्ध में-

दायित्वों के सत्यापन के सम्बन्ध में अंकेक्षक के निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं-

1. चिट्टे में दिखाये गए दायित्व की वास्तविकता-अंकेक्षक को देखना चाहिए कि आर्थिक चिट्टे में दिखाए गए दायित्व वास्तविक हैं या नहीं। केवल वास्तविक दायित्व ही चिट्टे में दिखाए जाने चाहिए।

2. दायित्वों की राशि-अंकेक्षक को देखना चाहिए कि चिट्ठे में दिखाए गए सभी दायित्वों की रकम उचित है और वास्तव में देय हो चुकी है।

3. स्पष्ट उल्लेख–अंकेक्षक को देखना चाहिए कि संस्था से सम्बन्धित सभी दायित्वों का स्पष्ट रूप से चिट्टे में उल्लेख किया गया है और कोई भी दायित्व लिखने से नहीं छूटा है।

4. संस्था के ही दायित्व-अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि केवल संस्था से सम्बन्धित दायित्व हो चिट्ठ में दिखाए गए हैं । व्यक्तिगत दायित्वों का उल्लेख चिट्ठे में नहीं करना चाहिए।

5. संदिग्ध दायित्वों की स्थिति-अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि वास्तविक दायित्वों में संदिग्ध दायित्व न सम्मिलित किए जाएँ।

6. दायित्वों की समायोजित राशि–किसी भी दायित्व में कोई कमी या वृद्धि हुई हो तो उसे समायोजित करने के बाद दायित्व दिखाया गया है या नहीं।

अंकेक्षक यदि सत्यापन कार्य में लापरवाही करता है तथा चिट्ठे में प्रदर्शित सम्पत्तियों एवं दयित्वों को सत्य एवं उचित प्रमाणित कर देता है और इस कारण किसी तीसरे पक्ष को हानि उठानी पड़ती है तो ऐसी दशा में अंकेक्षक को क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है .

सत्यापन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णय निम्नलिखित हैं-

1. लंदन ऑयल स्टोरेज कं० बनाम सीर, हसलक एण्ड कं० (London Oil Storage Co. Ltd. vs. Seear, Husluck and Co. 1904)- इस मामले के अन्तर्गत कम्पनी अंकेक्षक पर आरोप लगाया था कि उसने फुटकर रोकड़ के सत्यापन में लापरवाही की जिससे कम्पनी की 4 766 की हानि हुई।

2. डिप्टी सेक्रेटरी, मिनिस्ट्री ऑफ फाइनेन्स बनाम एस० एन० दास गुप्ता (Deputy Secretary, Ministry of Finance, Govt. of India vs. S.N. Dass Gupta, 1955 Cal.)- इस मामले के अन्तर्गत आयन बैंक लिमिटेड के समापन पर यह पाया गया कि अंकेक्षक ने रोकड़ हस्ते (Cash in hand) का सत्यापन नहीं किया। जिससे बैंक के प्रबन्धकों द्वारा किए गए बड़े गबन का पता न लग सका। इस मामले में भी न्यायाधीश ने अंकेक्षक को रोकड़ हस्ते का सत्यापन न करने की लापरवाही पर क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी ठहराया।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अंकेक्षक को सत्यापन के सम्बन्ध में पूरी सावधानी व ईमानदारी से कार्य करना चाहिए अन्यथा वह अपनी लापरवाही के लिए दोषी ठहराया जाएगा।

सम्पत्तियों एवं दायित्वों का मूल्यांकन

(Valuation of Assets and Liabilities)

मूल्यांकन सत्यापन का ही एक अंग है। सामान्यतया मूल्यांकन को सत्यापन से अलग समझा जाता है, परन्तु यह सर्वथा गलत है। किसी भी संस्था का स्थिति विवरण तब तक सत्य, पूर्ण एवं नियमानुकूल नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसमें दिलखायी गयी सम्पत्तियाँ उचित मूल्य पर न लिखी गयी हों । मूल्यांकन सम्पत्तियों के मूल्य की जाँच करना है, जबकि सत्यापन सम्पत्तियों के अधिकार, प्रभार एवं मूल्य के सम्बन्ध में की गयी सूक्ष्म जाँच है।

जोसेफ लंकास्टर के अनुसार, “सम्पत्तियों का सत्यापन एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा अंकेक्षक चिट्ठे के दाहिने भाग की सत्यता को प्रमाणित करता है। इसके तीन विशिष्ट उद्देश्य समझे जाने चाहियें-(अ) सम्पत्तिका की विद्यमानता का सत्यापन करना, सम्पत्तियों का मूल्यांकन करना तथा (स) उन्हें प्राप्त करने के अधिकार की जाँच करना।” लंकास्टर के उक्त कथन से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि मूल्यांकन, सत्यापन का ही एक अंग मात्र है।

मूल्यांकन का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Valuation)

किसी संस्था में सम्पत्तियों का मूल्यांकन मुख्यतः व्यापार की प्रकृति तथा उन उद्देश्यों पर निर्भर करता है, जिनके लिए ये सम्पत्तियाँ रखी गयी हैं। स्थिति विवरण बनाये जाने वाली तिथि पर व्यापार के लिए सम्पत्तियों का क्या मूल्य है, यह बात ध्यान में रखते हुए सम्पत्तियों का मूल्य आंकना ही मूल्यांकन है। सामान्यतः यह कार्य विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है।

विभिन्न विद्वानों ने मूल्यांकन को निम्न प्रकार परिभाषित किया है-

1. लंकास्टर के अनुसार-“सम्पत्तियों के उपयोगिता काल में उनके प्रारम्भिक मूल्यों को समान रूप से बाँटने के प्रयल को मूल्यांकन कहते हैं।”

2. जे० आर० बाटलीबॉय के अनुसार-“कम्पनी का स्थिति-विवरण यह दिखाने के लिए नहीं बनाया जाता कि यदि सम्पत्तियों का मूल्य प्राप्त कर लिया जाए और दायित्वों का भुगतान कर दिया जाए तो पूँजी का क्या मूल्य होगा, वरन यह दिखाने के लिए बनाया जाता है कि पूंजी का विनियोग किस प्रकार किया गया है।”

सम्पत्तियों के मूल्यांकन के उद्देश्य

(Objects of Valuation of Assets)

सम्पत्तियों का मूल्यांकन प्रायः निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है

1. आर्थिक स्थिति का सही ज्ञान-सम्पत्तियों के मूल्यांकन से संस्था की आर्थिक स्थिति की सही जानकारी हो जाती है।

2. चिट्ठा तैयार करने के दिन सम्पत्तियों के मूल्य की जानकारी-सम्पत्तियों के मूल्यांकन का उद्देश्य यह जानकारी प्राप्त करना भी है कि चिट्ठा तैयार करने के दिन सम्पत्तियाँ अपने सही मूल्य पर ही रसमें दिखाई गई हैं या नहीं।

3. पूँजी के विनियोग का ज्ञान-मूल्यांकन द्वारा इस बात का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है कि पूँजी का विनियोग किस प्रकार किया गया है।

4. सम्पत्ति के मूल्य में अन्तर के कारणों की जानकारी-सम्पत्तियों के क्रय मूल्य तथा चिट्टे में प्रदर्शित मूल्य में कितना अन्तर आया है तथा इसके क्या कारण हैं, इसका ज्ञान भी मूल्यांकन के द्वारा हो जाता है।

5. संस्था की ख्याति का ज्ञान-मूल्यांकन से व्यवसाय की ख्याति का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

6. अंकेक्षक को सन्तुष्ट करना-मूल्यांकन का उद्देश्य अंकेक्षक को सन्तुष्ट करना भी है ताकि वह सही अंकेक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत कर सके ।

मूल्यांकन एवं अंकेक्षक (Valuation and Auditor) अथवा. ‘अंकेक्षक मूल्यांकन करने वाला नहीं है” (An Auditor is not a Valuer)

मूल्यांकन सम्पत्तियों का मूल्य अंकित करने की प्रक्रिया है (Valuation is the process of appraisal) | अतः यह कार्य वह व्यक्ति कर सकता है, जोकि मूल्यांकन की तकनीक से भली-भाँति परिचित हो। मूल्यांकन का उत्तरदायित्व प्रबन्धकों या विशेषज्ञों पर होता है। इस दृष्टि से अंकेक्षक एक लेखा विशेषज्ञ है, वह मूल्यांकक (Valuer) नहीं हो सकता। फिर भी वह मूल्यांकक न होते हुए भी उसका मूल्यांकन से गहरा सम्बन्ध है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि अंकेक्षक मूल्यांकक नहीं हैं, फिर भी सम्पत्तियों के मूल्यांकन से उसका गहरा सम्बन्ध है। लंकास्टर (Lancaster) के अनुसार, “अंकेक्षक मूल्यांकनकर्ता नहीं है, और उससे ऐसा करने की आशा भी नहीं की जा सकती है। वह केवल इतना ही कर सकता है कि असली लागत मूल्य का सत्यापन करे और जहाँ तक सम्भव है, यह भी ज्ञात करे कि चालू मूल्य उचित एवं न्यायसंगत है, तथा मान्य व्यापारिक रीतियों के अनुसार निकाला गया है। यह सक्षम व्यक्तियों जैसे मूल्यांकक एवं सर्वेक्षकों आदि विशेषज्ञों के प्रमाण-पत्रों के उपयोग का अधिकारी है।”

डी पॉला (De Paula) ने इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है “यह ध्यान रखना चाहिए कि वास्तविक मूल्यांकन व्यापार के स्वामी अथवा ऐसे व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जिन्हें उन सम्पत्तियों का व्यावहारिक ज्ञान होता है और अंकेक्षक । कर्तव्य, जहाँ तक उससे हो सके मूल्यांकन की जाँच करना और इस प्रकार अपने को कि, का

बात से संतुष्ट करना है कि स्थिति-विवरण द्वारा दिखाई गई आर्थिक स्थिति सही प्रतीत होती है। किन्तु वह किसी भी प्रकार मूल्यांकन की पूर्ण सत्यता की गारन्टी नहीं दे सकता है।”

अंकेक्षक सम्पत्तियों का सत्यापन करता है और सत्यापन की प्रक्रिया में मूल्यांकन स्वतः सम्मिलित होता है। इस प्रकार मूल्यांकन से अंकेक्षक का सीधा सम्बन्ध है । यदि अंकेक्षक अंकेक्षण करते समय मूल्यांकन के सम्बन्ध में सतर्क नहीं रहता, तो उसे कर्तव्यों का निर्वाह ठीक न करने के लिए दोषी ठहराया जा सकता है । मूल्यांकन के सम्बन्ध में अंकेक्षक को अत्यन्त सावधानी से कार्य करना चाहिए। उसे निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

1. मूल्यांकन के औचित्य की जाँच-अंकेक्षक को मूल्यांकन के औचित्य की जाँच करनी चाहिए, अर्थात् उसे यह देखना चाहिए कि मूल्यांकन ठीक और उचित है, और वह व्यापारिक सिद्धान्तों के अनुकूल है।

2. विशेषज्ञों से परामर्श-सम्पत्तियों के मूल्यांकन की जाँच करते समय यदि तकनीकी बात आ जाये, तो अंकेक्षक को विशेषज्ञों से परामर्श लेना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो अंकेक्षक इस आशय का एक प्रमाण-पत्र विशेषज्ञों से प्राप्त कर सकता है।

3. अन्तर्नियमों का पालन-सम्पत्तियों के सम्बन्ध में अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि अन्तर्नियमों में वर्णित प्रावधानों का पालन किया गया है या नहीं।

4. सम्पत्तियों के मूल्यांकन के नियमों का पालन-अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि सम्पत्तियों के मूल्यांकन के सम्बन्ध में जो नियम बनाये गये हैं, उनका पालन किया गया है या नहीं।

5. अधिकृत अधिकारियों से प्रमाण-पत्र प्राप्त करना मूल्यांकन के सम्बन्ध में संदेह होने की स्थिति में अंकेक्षक को अधिकृत अधिकारियों से प्रमाण-पत्र ले लेना चाहिए।

6. सुलभ साक्ष्य की सहायता लेना-अंकेक्षक को जो भी साक्ष्य सुलभ हों, उनकी सहायता से सम्पत्ति के मूल्यांकन की जाँच करनी चाहिए।

7. संदेह का उल्लेख रिपोर्ट में करना–यदि अधिकारियों द्वारा किये गये मूल्यांकन की सत्यता पर अंकेक्षक को सन्देह हो, और वह पूर्ण संतुष्ट न हो तो इसका उल्लेख उसे अपनी अंकेक्षण रिपोर्ट में करना चाहिए।

8. मूल्यांकन के सम्बन्ध में न्यायाधीशों के निर्णय-अंकेक्षक को मूल्यांकन की जाँच करते समय न्यायाधीशों द्वारा दिये गये निर्णयों को ध्यान में रखना चाहिए। उसे यह देखना चाहिए कि जिस सम्पत्ति के मूल्यांकन की वह जाँच कर रहा है, उसमें इन निर्णयों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा है।

व्यापारिक रहतिये का मूल्यांकन

(Valuation of Stock-in-Trade)

अंकेक्षक को स्टॉक के मूल्यांकन की जाँच बड़ी सतर्कता से करनी चाहिए क्योंकि व्यापार का लाभ स्टॉक के मूल्यांकन से काफी सीमा तक प्रभावित होता है। यदि स्टॉक का मूल्यांकन सावधानी से नहीं किया गया तो इससे संस्था का लाभ-हानि खाता एवं आर्थिक चिट्ठा दोनों प्रभावित होंगे। फलतः न तो सही लाभ या हानि ही पता चल पायेगा और न व्यापार की सही आर्थिक स्थिति का पता चल पायेगा। यदि रहतिये का मूल्यांकन वास्तविक मूल्य से कम पर किया जाता है तो इससे संस्था का लाभ घट जायेगा। इसके विपरीत मूल्यांकन होने पर लाभ बढ़ जायेगा। व्यापारिक रहतिया एक चल सम्पत्ति है । सामान्यतया चल सम्पत्तियों का मूल्यांकन लागत मूल्य तथा बाजार मूल्य दोनों में से जो कम है, किया जाता है। फलतः स्टॉक का मूल्यांकन इसी सिद्धान्त के आधार पर किया जाता है। रहतिये के लागत मूल्य तथा बाजार मूल्य के निर्धारण में अनेक विधियाँ प्रयुक्त होती हैं

रहतिया मूल्यांकन की विधियाँ

(Methods of Valuating Stock)

स्टॉक के मूल्यांकन का सामान्य नियम है ‘लागत’ या ‘बाजार’ मूल्य में से जो भी कम हो। इस आधार पर स्टॉक का मूल्यांकन निम्न विधियों के अनुसार किया जाता है

(i) इकाई या चयन विधि (Individual or Pick up and Choose Method)- प्रत्येक वस्तु का लागत मूल्य तथा बाजार मूल्य ज्ञात कर लिया जाता है दोनों मूल्यों में जो भी कम होता है वही मूल्यांकन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। यह प्रक्रिया प्रत्येक वस्तु के लिए अपनाई जाती है । तत्पश्चात् प्रत्येक वस्तु को जोड़कर स्टॉक का मूल्यांकन किया जाता है। | इन. के कम वाले मूल्य

(ii) सामूहिक या गोलाकार विधि (Global Method)- सभी वस्तुओं के लागत मूल्यों तथा बाजार मूल्यों को जोड़ लेते हैं। इन दोनों योगों में जो भी कम होता है, वही स्टॉक का मूल्यांकन होता है।

निम्नलिखित उदाहरण द्वारा इकाई विधि तथा सामूहिक विधि से स्टॉक के मूल्यांकन का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा-

रहतिया मूल्यांकन के सामान्य नियम के अपवाद

(Exceptions of General Rules of Valuation of Stock)

साधारणतः स्टॉक का मूल्यांकन बाजार मूल्य या लागत मूल्य में से जो भी कम होता है, उस पर किया जाता है। परन्तु स्टॉक मूल्यांकन का यह सामान्य नियम निम्नलिखित दशाओं में लागू नहीं होता

1. कच्चे माल का मूल्यांकन (Valuation of Raw Material)- कच्चे माल को सदैव लागत मूल्य पर दिखाना चाहिए। इसके बाजार-मूल्यों में परिवर्तन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, क्योंकि कच्चे माल को दोबारा बेचने के लिये प्राप्त नहीं किया जाता है। परन्तु यदि इनका बाजार मूल्य बहुत अधिक कम हो जाये तथा इस कमी के स्थायी रहने की सम्भावना हो, तो उचित समायोजन कर लेना चाहिए।

2. अर्द्ध-निर्मित माल का मूल्यांकन (Valuation of Semi-manufactured Goods)- ऐसा माल जिसका निर्माण होना तो प्रारम्भ हो चुका है परन्तु उसका पूरा निर्माण नहीं हुआ है, अर्द्ध-निर्मित माल कहलाता है। निर्माणी उद्योगों में चिट्ठे के दिन बहुत-सा माल अर्द्ध निर्मित अवस्था में पड़ा हुआ होता है। ऐसे माल का मूल्यांकन लागत मूल्य पर ही करना चाहिए । यहाँ लागत मूल्य से आशय निर्माण मूल्य से है। निर्माण मूल्य में कच्चे माल का मूल्य, प्रत्यक्ष व्यय, मजदूरी तथा अन्य उपरिव्यय (जो चिट्ठे के दिन तक व्यय किये जा चुके हों) सम्मिलित होते हैं।

3. निर्मित माल का मूल्यांकन (Valuation of Finished Goods)- जो माल पूर्णतया निर्मित हो चुका है तथा बिकने योग्य स्थिति में है, उसका मूल्यांकन लागत-मूल्य या बाजार-मूल्य, जो भी दोनों में कम हो, के आधार पर करना चाहिए। कुछ विशिष्ट दशाओं में निर्मित माल का मूल्यांकन निम्न विधि से करना चाहिए

(i) चालान पर भेजा हुआ माल (Goods sent on Consignment)-चिट्टे के दिन जो माल एजेंटों के पास पड़ा हुआ हो, उसे संस्था के स्टॉक में लागत मूल्य या बाजार मूल्य (जो भी दोनों में कम हो) पर दिखाया जाना चाहिए। परन्तु इसमें चालान पर भेजने के खर्चों का अनुपातिक भाग भी सम्मिलित करना चाहिए ।

(ii) बिक्री या वापसी आधार पर भेजा गया माल (Goods sent on Sale or Return Basis)- कभी-कभी ग्राहकों को इस आधार पर मला भेजा जाता है कि यदि उन्हें वह माल पसन्द आयेगा तो रख लेंगे अन्यथा वापिस कर देंगे। यदि चिट्ठा बनाने की तिथि तक ग्राहक द्वारा क्रय की सूचना प्राप्त नहीं हुई हो तो उसे अन्तिम रहतिये में शामिल करना पड़ता है । इसका मूल्यांकन लागत मूल्य में भेजने के खर्चे जोड़कर करना चाहिये ।

(iii) अनुबन्धित माल (Contracted Goods)-कुछ अनुबन्धों के अंतर्गत माल भविष्य में किसी तिथि पर देना है परन्तु माल चिढे की तारीख पर तैयार है, तो इसका मूल्यांकन अनुबन्धित मूल्य पर करना चाहिए ।

(iv) विशिष्ट व्यवसायों का माल (Goods of Special Businesses)–कुछ माल की प्रकृति ऐसी होती है कि समय बीतने के साथ-साथ उनकी उपयोगिता तथा मूल्य बढ़ता रहता है। जैसे-शराब तथा चावल । इनका मूल्यांकन लागत मूल्य में संग्रह करने के व्यय तथा इसमें लगी पूँजी पर ब्याज आदि जोड़कर करना चाहिए।

4. शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुएँ (Easily Perishable goods)- ऐसी वस्तुओं के अन्तर्गत सब्जी फल तथा मछली आदि आते हैं। इनके स्टॉक की कुछ मात्रा खराब हो जाती है। अतः इनका मूल्यांकन पूर्व-प्रचलित (Conservatively) आधार पर करना चाहिए ।

5. बागवानी उत्पत्तियों का स्टॉक (Stock of Plantation Products)- बागवानी उत्पत्तियों में चाय, रबर तथा कहवा जैसी वस्तुएँ आती हैं। इन वस्तुओं का मूल्यांकन उस मूल्य पर किया जाता है जिस मूल्य पर अभी तक उस किस्म की वस्तुएँ बेची गई हों।

स्टॉक का मूल्यांकन एवं अंकेक्षक

(Valuation of Stock and Auditor)

स्टॉक के मूल्यांकन के सम्बन्ध में अंकेक्षक की स्थिति को अग्रलिखित बिन्दुओं की सहायता से भली प्रकार समझा जा सकता है-

(1) स्टॉक का मूल्यांकन करना अंकेक्षक का कार्य नहीं है ।

(2) यदि सन्देह उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ न हों, तो स्टॉक के मूल्यांकन के सम्बन्ध में वह संस्था से प्राप्त रिपोर्ट तथा विवरणों पर विश्वास कर सकता है

(3) अंकेक्षक को अपने कार्य में आवश्यक सावधानी तथा दक्षता का प्रयोग करना चाहिए। आवश्यक सावधानी तथा दक्षता क्या होगी, यह परिस्थितियों के अनुसार अंकेक्षक स्वयं तय करता है।

स्टॉक के मूल्यांकन के आधार पर निर्णय लेना प्रबन्धक का काम है।

अंकेक्षक एक मूल्यांकक (Valuer) नहीं है, फिर भी उसे मूल्यांकन का निरीक्षण करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-

(1) अन्तिम स्टॉक सूची की जाँच करना

(2) अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उचित आधार पर स्टॉक का मूल्यांकन किया गया है।

(3) अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि मूल्यांकन करते समय प्रतिवर्ष एक ही आधार माना जाये। यदि मूल्यांकन के आधार में परिवर्तन की आवश्यकता हो तो इसके लिए आवश्यक प्रविष्टियाँ खातों में कर देनी चाहिए।

(4) अंकेक्षक को व्यापारिक स्टॉक की विद्यमानता, अधिकार, मूल्यांकन, तथा प्रभार आदि की अधिकृतता के लिए प्रबन्धकों से प्रमाण-पत्र ले लेना चाहिए ।

(5) अर्द्ध-निर्मित माल का मूल्यांकन लागत-लेखों की सहायता से जाँचना चाहिए।

(6) स्टॉक के मूल्य के सम्बन्ध में यदि अंकेक्षक को कोई सन्देह हो तो इसका वर्णन अंकेक्षक को अपनी रिपोर्ट में अवश्य करना चाहिए ।

ख्याति का मूल्यांकन

(Valuation of Goodwill)

ख्याति से अभिप्राय संस्था के यश या नाम से है। इसका सम्बन्ध संस्था के लाभ से होता है। दूसरे शब्दों में, किसी संस्था में अतिरिक्त लाभ कमाने की क्षमता को ही ख्याति कहते हैं। ख्याति का मूल्यांकन सामान्यतया प्रत्येक वर्ष नहीं किया जाता है। ख्याति का मूल्यांकन विशेष अवसर पर विशेष उद्देश्य से किया जाता है, जैसे-व्यवसाय क्रय करते समय, नये साझेदार के प्रवेश के समय अथवा अवकाश या मृत्यु के समय । ख्याति संस्था की अदृश्य सम्पत्ति होती है एवं जिसका विक्रय व्यापार के विक्रय के बिना नहीं किया जा सकता है।

लंकास्टर (Lancaster) के अनुसार, “ख्याति ,एक अदृश्य सम्पत्ति (intangible asset) है जिसका व्यापार के बाहर अपना कोई मूल्य नहीं है। इसमें तभी कुछ प्राप्ति सम्भव हैं, जब सम्पूर्ण व्यापार बेचा जाये।”

ख्याति के मूल्यांकन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं-

(i) औसत लाभ विधि (Average Profit Method)- इस विधि में व्यापार के पिछले कुछ वर्षों का औसत लाभ ज्ञात कर लिया जाता है एवं तदुपरान्त में एक निश्चित वर्षों की संख्या से गुणा करके ख्याति का मूल्य परिकलित कर लिया जाता है। उदाहरण के लिए, अनमोल लिमिटेड में पिछले पाँच वर्षों का लाभ क्रमशः 25,000 रुपये, 20,000 रुपये, 35,000 रुपये, 30,000 रुपये एवं 40,000 रुपये है। ख्याति का मूल्य औसत लाभ के दो वर्ष के क्रय के आधार पर परिकलित करना है ।

4. वार्षिक वृत्ति विधि (Annuity Method)- (i) इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम अधिलाभ विधि में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार ‘अधिलाभ’ को ज्ञात किया जाता है, (ii) एक निर्धारित अवधि के लिए निर्धारित दर पर वार्षिकी का वर्तमान मूल्य ज्ञात किया जाता है (iii) अधिलाभ की रकम में वार्षिकी की गुणा करके ख्याति का मूल्य ज्ञात कर लिया जाता है,

ख्याति के मूल्यांकन के सम्बन्ध में अंकेक्षक का कर्तव्य (Duties of an Auditor Regarding Valuation of Goodwill)

ख्याति एक ऐसी सम्पत्ति है जिस पर न तो ह्रास होता है और न ही अप्रचलन । अतः आर्थिक चिट्टे में इसे लागत मूल्य पर ही दिखाना चाहिए। अंकेक्षक को संस्था द्वारा बनाये गये नियमों के आधार पर ख्याति का मूल्यांकन करके स्वयं को सन्तुष्ट करना चाहिए तथा यह देखना चाहिए कि संस्था ने ख्याति को उचित मूल्य पर दर्शाया है या नहीं। जहाँ ख्याति को क्रय किया जाता है, वहाँ अंकेक्षक का कर्तव्य है कि वह विक्रेताओं के साथ हुए अनुबन्ध को देखें तथा ठीक राशि का पता लगाये। अंकेक्षक को ख्याति के मूल्यांकन के सम्बन्ध में न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों पर ध्यान देना चाहिए तथा उन निर्णयों को आधार मानकर मूल्यांकन की जाँच करनी चाहिए। पुनः मूल्यांकन करने में यदि ख्याति में वृद्धि हो गई हो, तो अंकेक्षक को इसके औचित्य के विषय में पूर्ण जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। ख्याति को अपलिखित करने के सम्बन्ध में अंकेक्षक को संचालकों द्वारा पास किये गये प्रस्ताव या कम्पनी अन्तर्नियम को देखना चाहिए।

अंशों का मूल्यांकन

(Valuation of Shares)

अंशों के मूल्यांकन का आशय इनके आन्तरिक मूल्य की गणना करने से है। इसके लिए मुख्य रूप से दो विधियाँ अपनायी जाती हैं-

1. आन्तरिक मूल्य विधि (Intrinsic Value Method)- इसके अन्तर्गत सम्पत्तियों का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है तथा सम्पत्तियों में काल्पनिक सम्पत्तियों को शामिल नहीं किया जाता है । सम्पत्ति के इस मूल्य में संस्था के चालू व दीर्घकालीन दायित्वों को घटाकर शुद्ध सम्पत्ति का मूल्य ज्ञात किया जाता है। इस शुद्ध मूल्य में समता अंशों की संख्या से भाग देकर प्रति अंश मूल्य की गणना की जाती है। यदि संस्था के पास पूर्वाधिकार लाभांश भी हैं तो उनकी पूँजी व लाभाँश का भुगतान शुद्ध सम्पत्ति में से कर देना चाहिए।

2. लाभोत्पादकता विधि (Yicld Method) — इस विधि के अन्तर्गत अंशों का मूल्यांकन विगत वर्षों के लाभ एवं अनुभव के आधार पर किया जाता है। इस सम्बन्ध में अंकेक्षक को यह ध्यान रखना चाहिए कि औसत लाभ में से सभी प्रावधान कर लिये गये हैं या नहीं। फिर औसत लाभ का पंजीकरण (Capitalisation) करके अंशों का मूल्यांकन किया जाता है।

सम्भाव्य दायित्व अथवा संदिग्ध दायित्व

(Contingent Liability)

सम्भाव्य या संदिग्ध दायित्व से आशय ऐसे दायित्वों से है जो चिट्ठे के दिन नहीं होते और जिनका होना न होना भविष्य में भी निश्चित नहीं होता। यदि भविष्य में कोई घटना घटित हो जाए, तो ऐसे दायित्व उत्पन्न हो सकते हैं और उनका भुगतान कम्पनी को करना पड़ सकता है। यदि घटना भविष्य में घटित नहीं हो तो दायित्व उत्पन्न नहीं होगा। इस प्रकार दायित्व के पैदा होने और न होने के बारे में संदिग्धता (Contingency) रहती है और इसलिए इन्हें संदिग्ध दायित्व (Contingent Liability) कहते हैं। ये संदिग्ध दायित्व चिट्ठे में नहीं दिखाए जाते हैं किन्तु चिट्ठे के नीचे फुटनोट में दिखाए जाते हैं।

सम्भाव्य दायित्वों के पाँच उदाहरण

(Five Examples of Contingent Liabilities)

1. भुनाये गये प्राप्य बिलों के लिए दायित्व

2. दूसरी कम्पनी में अंशों पर याचित रकम के लिए दायित्व

3. जमानत के लिए दायित्व

4. कम्पनी के ऋणों के सम्बन्ध में चल रहे झगड़ों के लिए दायित्व

5. वायदों के सौदों पर हानि के लिए दायित्व ।

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