Hiuen Tsang Introduction and its India Description
ह्वेनसांग और उसका भारत विवरण
1- ह्वेनसांग का परिचय-ह्वेनसांग का जन्म चीन के एक नगर होनान्-फू के निकट 605 ई० में हुआ था। इस समय चीन क्रान्ति से ग्रस्त था, जिसके कारण उसके पिता को नौकरी छोड़नी पड़ी। ह्वेनसांग के पिता ने उसे अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से बौद्ध मठ में भेजा था। 13 वर्ष की आयु में वह बौद्ध भिक्षु बन गया था। 20 वर्ष की आयु में बौद्ध भिक्षु के रूप में वह काफी लोकप्रिय हो गया तथा एक महान् उपदेशक बन गया। अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए उसने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया, किन्तु कुछ धार्मिक शंकाओं के समाधान हेतु उसने बौद्ध धर्म की जन्मभूमि ‘भारत’ आने का निश्चय किया तथा उसने भारत की ओर प्रस्थान कर दिया। यद्यपि उसने अपनी इस यात्रा के लिए चीनी सरकार से सहायता माँगी थी, किन्तु उसे निराश होना पड़ा तथा अपनी योजना को कार्यान्वित करने के लिए मार्ग की अनेक कठिनाइयों को सहन करता हुआ वह काबुल के रास्ते से भारत आया। प्रारम्भ में हेनसांग भारत में उत्तरोत्तर धूमकर बौद्ध धर्म का अध्ययन करता रहा। उसने भारत में कश्मीर से लेकर दक्षिण में चोल प्रदेश तक भ्रमण किया। हेनसांग हर्ष के दरबार में भी गया, जहाँ पर उसका काफी सम्मान किया गया। इसके साथ-साथ वह प्रयाग की सभा में भी उपस्थित हुआ, यहाँ पर भी उसका आदर हुआ।
2 – ह्वेनसांग द्वारा तत्कालीन भारतीय दशा का वर्णन-अपने लगभग 14 वर्ष के भारत-प्रवास के दौरान ह्वेनसांग ने भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा को निकट से देखा तथा अपने लेखों में उस दशा का वर्णन किया। उसके लेखों को भारतीय इतिहास की जानकारी का महान स्रोत माना जाता है। भारत की तत्कालीन दशा का वर्णन ह्वेनसांग ने निम्न प्रकार से किया है
(i) राजनीतिक दशा-भारत की तत्कालीन राजनीतिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है— “तत्कालीन शासन व्यवस्था का संचालन उदार सिद्धान्तों पर आधारित था। व्यापारियों को सरकारी रजिस्टर में अपनी आय का लेखा-जोखा लिखने की आवश्यकता नहीं थी तथा जनता को बेगार करने के लिए बाध्य भी नहीं किया जाता था। साधारण अभियोग के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी, जिसके कारण नगरों व ग्रामों में शान्ति थी। किन्तु सड़कें सुरक्षित न थीं, उन पर सदैव डाकुओं का भय बना रहता था। सम्राट हर्ष दयालु व उदार था तथा वह प्रजा का सर्वोच्च हितैषी समझा जाता था। हर्ष के शासनकाल में प्रजा सुखी व सम्पन्न थी।
जनता पर करों का भार कम था। उपज का छठा भाग भूमि कर के रूप में लिया जाता था तथा राज्य को इससे जो आय प्राप्त होती थी उसे कर्मचारियों के वेतन, विद्या, कला आदि के विकास, राज-हितकारी कार्यों एवं विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों को दान स्वरूप व्यय किया जाता था। राजकोष धन-धान्य से पूर्ण था तथा शासन में सर्वत्र सुख व शान्ति थी।” ह्वेनसांग ने हर्ष की सेना के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है-“अराजकता को दूर करने के लिए हर्ष के पास एक विशाल सेना थी, जिसमें हाथी, अश्व व पैदल सैनिक होते थे।”
(ii) सामाजिक दशा- भारत की तत्कालीन सामाजिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है- “इस समय लोग ईमानदार, सत्यवादी व सरल प्रवृत्ति के थे तथा सादगी का जीवन व्यतीत करते थे। खान-पान सरल एवं स्वच्छ था। मांस भक्षण, शराब, प्याज आदि को छूना भी पाप तुल्य था। केवल शूद्र वर्ग ही इन वस्तुओं का प्रयोग किया करता था। जातिगत बन्धन अत्यन्त कठोर थे। समाज में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों का प्रचलन हो जाने के कारण मिश्रित जाति के एक वर्ग का जन्म हो गया था। इस समय भोजन से पूर्व स्नान करना आवश्यक समझा जाता था। लोगों का पहनावा अत्यन्त साधारण था। पुरुष धोती व कन्धे पर एक चादर डालते थे तथा स्त्रियाँ एक लम्बी-सी धोती से अपने शरीर को ढके रहती थीं। स्त्रियाँ तथा पुरुष दोनों ही आभूषण प्रिय थे। कंगन, माला, हार, अंगूठी आदि अनेक आभूषणों का प्रचलन था। स्त्रियों केशविन्यास कला में निपुण थी। पर्दा प्रथा का अभाव था। बाल विवाह प्रचलित था तथा सती प्रथा का भी प्रचलन था। विद्या और कला को अधिक प्रोत्साहन दिया जाता था। संस्कृत भाषा प्रचलित थी। समाज में संन्यासियों, भिक्षुओं तथा तपस्वियों को आदर एवं सम्मान दिया जाता था।” ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि तत्कालीन सामाजिक संगठन वर्ण व्यवस्था पर आधारित था एवं इस युग में जाति-प्रथा के बन्धन पहले की अपेक्षा अधिक कठोर हो गए थे।
(iii) आर्थिक दशा-ह्वेनसांग भारत में जहाँ पर भी गया, वह उस जगह के वैभवपूर्ण जीवन से अत्यन्त प्रभावित हुआ। उसने अपने लेखों में भारत की खनिज सम्पत्ति का उल्लेख किया है। उसने तत्कालीन भारतीय आर्थिक दशा का वर्णन करते हुए लिखा है, “उस समय देश धन-धान्य से सम्पन्न था तथा अधिकांश लोगों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। सिंचाई के अनेक साधनों की व्यवस्था थी वैश्य वर्ग व्यापार तथा कृषि कार्य शुद्र किया करते थे। जनता को राज्य की ओर से व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। चीन, ईरान, कश्मीर, मध्य एशिया व यूरोप के अन्य देशों से व्यापार किया जाता था। जल एवं थल दोनों मार्ग व्यापार के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। भवन निर्माण कला में विशेष उन्नति हो गई थी। मकानों की छतें प्राय: लकड़ी की बनी होती थीं, जिन पर चूने का प्लास्टर होता था, मकान का शेष भाग ईंटों से बना होता था। दीवारों पर चित्रकारी की जाती थी। बौद्ध विहारों का निर्माण कलात्मक ढंग से किया जाता था। इन विहारों के चारों कोनों पर बुर्ज बनाए जाते थे तथा विहार के उभरे हुए भागों पर विभिन्न मूर्तियाँ उत्कीर्ण की जाती थी।” हर्ष की राजधानी कन्नौज सभी प्रमुख मार्गों से जुड़ी हुई थी जिसके कारण आन्तरिक व्यापार उन्नत अवस्था में था। देश की समृद्धि में नानाविध समुदायों व व्यापारिक वर्ग की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी।
(iv) धार्मिक दशा-धार्मिक दशा का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है- “इस समय ब्राह्मण धर्म उन्नत अवस्था में था। समाज में ब्राह्मण को उच्च स्थान प्राप्त था तथा उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जाता था। अधिकांश लोग शैव व वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। प्रयाग तथा बनारस ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डों के मुख्य केन्द्र थे तथा ब्राह्मण धर्म अनेक मत-मतान्तरों से अस्त था। इस काल में ऐश्वर्य का अनुसरण करना सांसारिक जीवन का लक्ष्य माना जाता था तथा ज्ञान का अनुसरण धार्मिक जीवन का मुख्य लक्ष्य था। बौद्ध धर्म पतन की ओर अग्रसर था तथा इस समय तक यह धर्म 18 शाखाओं में विभक्त हो चुका था। महायान को अधिक लोकप्रियता प्राप्त थी। हर्ष स्वयं महायान सम्प्रदाय में विश्वास रखता था। बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा प्रारम्भ हो चुकी थी।” धार्मिक दृष्टिकोण से दान, तीर्थ आदि का भी महत्त्व था।
(v) शिक्षा-तत्कालीन शिक्षा के विषय में ह्वेनसांग लिखता है, “उस समय शिक्षा की व्यवस्था उन्नत थी तथा ब्राह्मणों द्वारा वैदिक यज्ञों, वेद-पाठ तथा अनुष्ठानों आदि की शिक्षा दी जाती थी। ब्राह्मणों के समान बौद्ध श्रमणों के लिए शिक्षा की उचित व्यवस्था थी। नालन्दा विश्वविद्यालय इस समय शिक्षा का मुख्य केन्द्र था, जहाँ पर अत्यन्त उच्च कोटि के विद्वान् बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। इस विद्यालय में एक हजार अध्यापक तथा 10 हजार विद्यार्थी पठन-पाठन का कार्य करते थे।” नालन्दा में विद्याध्ययन के लिए विदेशों से भी छात्र बड़ी संख्या में आते थे।
(vi) कन्नौज का धार्मिक सम्मेलन-हर्ष ने 643 ई० में कन्नौज में एक धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया था, इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य महायान सम्प्रदाय का प्रचार करना था। इस सम्मेलन में विश्वभर के विभिन्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधियों को आमन्त्रित किया गया था। इस सम्मेलन में ह्वेनसांग ने भी भाग लिया था। यह सम्मेलन 18 दिनों तक चलता रहा और अन्त में सम्राट हर्ष ने महायान सम्प्रदाय को सर्वश्रेष्ठ सम्प्रदाय घोषित किया तथा ह्वेनसांग को विशेष रूप से सम्मानित किया गया। हर्ष की बौद्ध धर्म के प्रति इतनी श्रद्धा देखकर ब्राह्मणों में ईर्ष्या भड़को तथा उन्होंने चैत्य घर में आग लगाकर सम्राट हर्ष की हत्या का असफल प्रयास किया। हर्ष ने ब्राह्मणों को दण्ड देने के उद्देश्य से बहुत से ब्राह्मणों को बन्दी बनाकर अपने साम्राज्य से निर्वासित कर दिया तथा शेष को क्षमा कर दिया।
(vii) प्रयाग का महादान-हर्ष के छठे दान महोत्सव में जिसका आयोजन प्रयाग में हुआ, ह्वेनसांग उपस्थित था। इस महोत्सव का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखता है-“हर्ष प्रति पाँचवे वर्ष प्रयाग में दान का आयोजन करता था, जिसमें लगभग 5 लाख स्त्री-पुरुष भाग लेते थे तथा यह आयोजन ढाई मास तक चलता था। पहले दिन बुद्ध की पूजा की जाती थी तथा बहुमूल्य वस्त्रों का दान किया जाता था। दूसरे व तीसरे दिन क्रमशः सूर्य व शिव की पूजा की जाती थी। चौथे दिन भिक्षुओं को सोने, चाँदी, रत्नों आदि का दान दिया जाता था। 10 दिन तक हर्ष अपने विरोधियों को दान देता था। ऐसा कहा जाता है कि अन्त में वह अपने वस्त्राभूषण आदि को भी दान कर दिया करता था।”