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Emperor Harshavardhana History and Reign (606-647 AD)

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Emperor Harshavardhana History and Reign (606-647 AD)

सम्राट हर्षवर्धन इतिहास और शासन काल (606-647 ई०)

हर्षवर्धन प्राचीन भारतीय इतिहास का अन्तिम हिन्दू सम्राट था। उसने गुप्तवंश के पतन के पश्चात् पुनः सम्पूर्ण भारत को संगठित कर राजनीतिक एकता स्थापित की। ‘वर्धन वंश’ का हर्ष तीसरा राजा था। उसके जीवन और शासनकाल से सम्बन्धित घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करने के अनेक स्त्रोत उपलब्ध हैं, किन्तु उनमें से दो प्रमुख साहित्यिक और अभिलेखीय स्रोत है-प्रथम वर्ग के अन्तर्गत महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित और चीनी यात्री ह्वेनसांग की यात्रा का विवरण सी-यू की है तथा द्वितीय वर्ग में मधुबन (मऊ, आजमगढ़. 631 ई०), बाँसखेड़ा (शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश, 628 ई०) तथा सोनीपत के अभिलेख हैं।

हर्ष का जीवन परिचय-हर्ष, वानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन का छोटा पुत्र था। उसका जन्म 591 ई० को हुआ था। हर्ष की माता का नाम यशोमती था। जिस समय प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हुई, हर्षवर्धन का बड़ा भाई राज्यवर्धन हूणी से लोहा ले रहा था। पिता की दुःखद मृत्यु का समाचार सुनकर राज्यवर्धन ने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय किया और हर्ष को गद्दी पर बैठने के लिए कहा। इसी समय उनको सूचना मिली कि मालवा के राजा देवगुप्त व बंगाल के गौड़ नरेश शशांक ने मिलकर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया है और उन्होंने गृहवर्मा की हत्या करके उसकी बहन रानी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया है। गृहवर्मा राज्यवर्धन का बहनोई था। अतः अपने बहनोई की हत्या और बहन राज्यश्री के बन्दी बनाए जाने की सूचना पाकर राज्यवर्धन तुरन्त एक विशाल सेना को साथ लेकर शत्रुओं का नाश करने के लिए कन्नौज की ओर चल दिया। युद्ध में मालवा नरेश बुरी तरह पराजित हुआ, किन्तु मालवराज ने बंगाल के राजा शशांक की सहायता से, धोखे से राज्यवर्धन की हत्या करवा दी। महाकवि बाणभट्ट ने लिखा है कि अपने भाई की हत्या का समाचार पाते ही हर्षवर्धन ने यह प्रण किया कि “मैं आर्य की चरणरज को स्पर्श करके यह शपथ खाता हूँ कि यदि गौड़ राज्य को उसके अभिभावकों सहित पृथ्वी से न मिटा दूँ तथा समस्त विरोधी राजाओं के पैरों में पड़ी जंजीरों की झंकार से पृथ्वी को झंकृत न कर दूँ, तो मैं स्वयं पतंगे की भाँति अग्नि में स्वाहा हो जाऊँगा।”

हर्ष की समस्याएँ

जिस समय हर्ष गद्दी पर आसीन हुआ उस समय वह चारों ओर से गहन समस्याओं का शिकार था, किन्तु निम्नलिखित दो समस्याएं ऐसी ज्वलन्त थी, जिनका समाधान अतिशीघ्र आवश्यक था –

1. शशांक को दण्ड देने की समस्या तथा राज्यश्री की मुक्ति-गौड़ के राजा शशांक ने हर्ष के भाई राज्यवर्धन की हत्या करके उसकी बहन राज्यश्री को बन्दी बना लिया था। अतः प्रतिशोध की भावना से पीड़ित हर्षवर्धन ने गद्दी पर आसीन होते ही यह शपथ ली, “मैं आर्य की चरण-रज को स्पर्श करके यह शपथ लेता हूँ कि यदि मैं गौड़ राज्य को उसके अभिभावकों सहित पृथ्वी से न मिटा दूं तथा समस्त विरोधी राजाओं के पैरों में पड़ी जंजीरों की झंकार से पृथ्वी को झंकृत न कर दूं, तो मैं स्वयं पतंगे की भाँति अग्नि में स्वाहा हो जाऊँगा।” अतः अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु हर्ष ने आसाम के राजा भास्करवर्मन से मित्रता की तथा शशांक पर आक्रमण कर दिया। हर्ष के सैनिक अभियान से भयभीत होकर शशांक ने राज्यश्री को मुक्त कर दिया। राज्यश्री विन्ध्य पर्वत की ओर चली गई तथा हर्ष ने अनेक कठिनाइयों के पश्चात् राज्यश्री को उस समय खोज निकाला, जब वह आत्महत्या का प्रयत्न कर रही थी। हर्ष उसे अत्यधिक समझाने-बुझाने के उपरान्त वापस घर ले आया।

2. कन्नौज की समस्या-हर्ष के बहनोई गृहवर्मन की मालवा के शासक देवगुप्त द्वारा हत्या कर दिए जाने के उपरान्त कन्नौज सिहासन रिक्त पड़ा हुआ था क्योंकि राज्यश्री का कोई पुत्र नहीं था। अतः ऐसी परिस्थितियों में हर्ष के मन्त्रियों ने उसे सुझाव दिया कि वह कन्नौज साम्राज्य का भार स्वयं संभाल ले, किन्तु हर्ष इस विचार से सहमत नहीं था। परन्तु राज्यश्री के आग्रह पर हर्ष ने कन्नौज का वर्धन साम्राज्य में विलय कर लिया।

हर्ष की दिग्विजयें

जिस समय हर्ष ने सिंहासन का भार संभाला था उस समय वर्धन साम्राज्य विपत्तियों से घिरा था; जैसा कि डॉ० आर० एस० त्रिपाठी ने लिखा है, “थानेश्वर राज्य की उत्तरी सीमा पंजाब में हुणों के क्षेत्रों द्वारा बाँध दी गई थी और कदाचित यह पहाड़ियों तक थी। पूर्व में इसका विस्तार कन्नौज के मौखरी साम्राज्य द्वारा रोक दिया गया था और पश्चिम एवं दक्षिण में इसका विस्तार कदाचित पंजाब व राजस्थान के रेगिस्तान से आगे नहीं हुआ था।” यद्यपि हर्ष से पूर्व समस्त भारत की राजनीतिक एकता खण्डित हो चुकी थी तथा छोटे-छोटे राज्यों के पारस्परिक संघर्ष बढ़ गए थे तथापि हर्ष की नीतियों एवं प्रयासों ने पुनः राजनीतिक एकता स्थापित करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस कार्य के लिए हमें उसकी दिग्विजयों पर प्रकाश डालना आवश्यक है-

  1. वल्लभी शासक से युद्ध-वल्लभी राज्य हर्ष तथा पुलकेशिन द्वितीय के मध्य एक राज्य था। इस दृष्टि से यह काफी महत्त्वपूर्ण था। इस समय वल्लभी पर ध्रुवसेन राज्य कर रहा था। हर्ष ने उस पर आक्रमण कर दिया। ध्रुवसेन हर्ष का सामना न कर सका तथा भागकर उसने गुर्जर शासक दद्दा द्वितीय के यहाँ शरण ली तथा कुछ समय के उपरान्त उसने अपने खोए हुए प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया। कालान्तर में उसने हर्ष से मित्रता कर ली तथा हर्ष ने उसे शक्तिसम्पन्न देखकर उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
  2. विद्रोहों का दमन-चीनी इतिहासकार मा त्वान लिन का विचार है कि 618 ई० से 627 ई० तक हर्ष को विपत्तियों का सामना करना पड़ा। इस समय में अनेक विद्रोह हुए तथा हर्ष ने इन विद्रोहों का सफलतापूर्वक दमन किया।
  3. पुलकेशिन द्वितीय से युद्ध-हर्ष और पुलकेशिन द्वितीय के इस युद्ध का वर्णन ऐहोल अभिलेख से मिलता है। इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि हर्ष का संघर्ष चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय से हुआ था। पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का महान शक्तिशाली सम्राट था। इस युद्ध में हर्ष को पराजय का मुंह देखना पड़ा। ऐसा समझा जाता है, नर्मदा नदी दोनों राज्यों की सीमा बनी रही।
  4. सिन्ध पर आक्रमण-बाणभट्ट के अनुसार, हर्ष ने सिन्ध के शासक को परास्त किया था तथा उसे युद्ध की क्षतिपूर्ति भी देनी पड़ी। किन्तु ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसके भारत आगमन के समय सिन्ध-शासक स्वतन्त्र था। अतः ह्वेनसांग के इस विवरण पर डॉ० मजूमदार ने अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए लिखा है, “हर्ष को सिन्ध के विरुद्ध विशेष सफलता नहीं मिली होगी।”
  5. हर्ष तथा शशांक-विद्वानों का इस विषय पर एक मत नहीं है कि हर्ष ने शशांक को पूर्ण रूप से पराजित किया अथवा नहीं। ह्वेनसांग के विवरण से केवल यही प्रतीत होता है कि शशांक बौद्ध धर्म का कट्टर शत्रु एवं शिव का परमभक्त था। उसने अनेक बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया तथा बोधिवृक्ष को कटवा दिया। गंजम जिले से प्राप्त अभिलेख से प्रतीत होता है कि शशांक 619 ई० तक सफलतापूर्वक शासन करता रहा, जिससे यह प्रतीत होता है कि शशांक ने दीर्घकाल तक स्वतन्त्रतापूर्वक शासन किया तथा हर्ष उसका कुछ भी न बिगाड़ सका। शशांक की मृत्यु के बाद ही कामरूप के शासक भास्करवर्मन की सहायता से हर्ष बंगाल पर विजय प्राप्त कर सका था।
  6. पूर्व विजय-हर्ष ने अपने शासनकाल के अन्तिम चरण में पूर्व की ओर सैनिक अभियान किया। इस समय तक शशांक की मृत्यु हो चुकी थी तथा उसका कोई भी उत्तराधिकारी

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