Rajia sultan
वास्तव में, इल्तुतमिश का कथन पूर्णतया सत्य था क्योंकि उसके सभी पुत्र बड़े अयोग्य और विलासी थे और रजिया ही एक शासक के सर्वगुणों से सम्पन्न थी। फिर भी इल्तुतमिश की मृत्यु होते ही तुर्की अमीरों ने अपने सुल्तान के निर्णय को पलट कर उसके अयोग्य पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह को दिल्ली की गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन शीघ्र ही अपनी अयोग्यता के कारण फिरोजशाह मृत्यु को प्राप्त हुआ और रजिया का सिंहासन पर अधिकार हो गया। नवम्बर 1236 ई० में रजिया दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुई।
रजिया सुल्ताना की कठिनाइयाँ (Difficulties of Razia Sultana)
रजिया ने बड़ी कूटनीति से राजगद्दी प्राप्त की थी, परन्तु उसकी स्थिति बड़ी शोचनीय थी और वह चारों ओर कठिनाइयों से घिरी हुई थी। उसे केवल दिल्ली की जनता और कुछ शम्सी अमीरों का ही समर्थन प्राप्त था। फिरोजशाह का प्रधानमन्त्री मुहम्मद जुनैदी, जो अपनी इच्छानुसार किसी को सुल्तान बनाना चाहता था, रजिया का विरोधी था। मुल्तान, लाहौर, हाँसी और बदायूँ के सूबेदार जो फिरोजशाह को हटाने के लिए दिल्ली की ओर चल पड़े थे, निश्चित रूप से रजिया की सत्ता के विरोधी थे। इल्तुतमिश के अन्य पुत्र भी गद्दी पर अपने अधिकार का दावा कर सकते थे। सल्तनत की दुर्दशा का लाभ उठाकर राजपूतों ने भी विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया था और रणथम्भौर के दुर्ग को घेर लिया था। सनातनी तुर्क सरदार रजिया की, एक स्त्री होने के कारण, सत्ता स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं थे। इन कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना बड़े साहस का काम था।
रजिया सुल्ताना की राज्य नीति (State Policy of Razia Sultana)
रजिया ने अपनी दूरदर्शिता, कूटनीति तथा योग्यता से अपनी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त की। सर्वप्रथम अपने प्रान्तीय सूबेदारों (मुल्तान, लाहौर, हाँसी तथा बदायूँ) की संयुक्त सेना, जिनके साथ प्रधानमन्त्री जुनैदी भी जा मिला था, सामना करने के लिए दिल्ली से प्रस्थान किया। सैनिक शक्ति के बल पर इन सूबेदारों की संयुक्त सेना को पराजित करना रजिया के लिए असम्भव था। अत: उसने कूटनीति से काम लेकर प्रान्तीय सूबेदारों में फूट डाल दी, जिससे उनमें आपसी संघर्ष प्रारम्भ हो गया। उनकी फूट का लाभ उठाकर रजिया ने उन पर आक्रमण कर दिया और उनमें से दो को बन्दी बनाकर कत्ल करवा दिया। जुनैदी जान बचाकर भाग निकला और सिरमूर की पहाड़ियों में उसकी मृत्यु हो गई। मिनहाज-उस-सिराज का कथन है- “रजिया निडरतापूर्वक आक्रमणकारियों की सेना में पहुँच गई और उसने मलिक इजाजुद्दीन सलारी तथा कबीर खाँ को फुसलाकर अपनी ओर मिला लिया तथा सेना में यह अफवाह उड़वा दी कि वजीर जुनैदी और मलिक जानी आदि को बन्दी बना लिया गया है। इस अफवाह के उड़ने से तुर्क अमीरों का आपसी विश्वास जाता रहा और जुनैदी तथा उसके मित्र वहाँ से भाग निकले।” अपनी स्थिति के अपने प्राणों की रक्षा के लिए इस विजय से रजिया की शक्ति और प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई। रजिया ने मजबूत बनाने के लिए ख्वाजा मुजाबुद्दीन को अपना वजीर नियुक्त किया और राज्य के सभ महत्त्वपूर्ण पद अपने समर्थकों को प्रदान कर दिए। धीरे-धीरे लखनौती से लेकर देवल तक सम्पूर्ण हिन्दुस्तान ने रजिया की सम्प्रभुता स्वीकार कर ली और बंगाल भी दिल्ली सल्तनत क अंग बन गया। कार्य भी किए रजिया ने अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि करने के लिए निम्नलिखित
(1) उसने मलिक सलारी और कबीर खाँ को बड़ी जागीरें देकर उन्हें अपना समर्थक बना लिया।
(2) ‘चालीस’ के तुर्कों की तानाशाही को नष्ट करने के लिए उसने अन्य मुसलमानों के भी उच्च पदों पर को प्रधानमन्त्री के पद पर नियुक्त किया और नियुक्त कर दिया और उन पर एकछत्र शासन करने लगी।
रजिया की असफलता या पतन के कारण (Causes of Downfall of Razia Sultana)
रजिया ने अपने शासनकाल (1236-1240 ई०) में कुछ ही दिनों में अपार सफल प्राप्त की थी। परन्तु अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में वह तीव्र गति से असफल सिद्ध हुई। उसः असफलता के कारण निम्नलिखित थे
(1) रजिया की निरंकुशता-तुर्की-अमीर कुतुबुद्दीन के शासनकाल से ही अपने शक्तिशाली मानते थे। इल्तुतमिश भी अमीरों का सम्मान करता था। इसके विपरीत, रजिया अ को एक निरंकुश शासिका मानती थी। अतएव वे रजिया की निरंकुशता को सहन नहीं कर २ और उहोंने रजिया के विरुद्ध षड्यन्त्र प्रारम्भ कर दिए।
(2) स्त्री लज्जा का परित्याग-रजिया के शासनकाल के समय स्त्रियों को घर लज्जा माना जाता था, किन्तु रजिया ने मुस्लिम समाज की तात्कालिक प्रचलित प्रथाओं परित्याग कर दिया था। वह पर्दा नहीं करती थी तथा पुरुषों के समान घोड़ों पर सवार होकर में पहुँचती थी। इस्लाम के कट्टर समर्थक अमीरों ने रजिया के इस प्रकार के व्यवहार का प्रबल विरोध किया।
(3) याकूत से अनुराग-रजिया के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि रजिया अपने स्तर के नीचे के लोगों को विशेष प्रेम करती थी। रजिया जमालुद्दीन याकूत नामक एक हब्शी अफसर पर, जो घुड़साल का अध्यक्ष था, विशेष रूप से आसक्त थी। याकूत वैसे भी दास था, जो रजिया की कृपा से ही अमीर-ए-आखुर के पद पर पहुंचा था। अमीरों व शम्सी मलिकों को रजिया का यह आचरण पसन्द नहीं आया; अत: उन्होंने ईर्ष्यावश रजिया का विरोध किया।
(4) भारतीयों से घृणा-हिन्दू और राजपूत रजिया या किसी भी अन्य मुसलमान को अपना शासक स्वीकार करने को तैयार न थे। इस कारण रजिया भी राजपूतों तथा भारतीय जनता से घृणा करती थी। अपने इस व्यवहार के कारण रजिया राजपूतों और जनता का सहयोग प्राप्त न कर सकी थी।
(5) सरदारों की महत्त्वाकांक्षाएँ-रजिया ने परम्परागत प्रथाओं का परित्याग कर दिया था। इससे राज्य के प्रभावी अमीर उससे खिन्न थे। अमीर यह समझते थे कि हम सर्वशक्तिशाली हैं और हमारे बिना किसी भी सुल्तान का कार्य नहीं चल सकता है। इसलिए सरदारों ने रजिया का लोहा नहीं माना, वे सदैव ही उसके विरुद्ध षड्यन्त्र करते रहे।
(6) इस्लामी प्रथाओं की उपेक्षा-रजिया पुरुषों जैसी पोशाक धारण करती थी और जनता के सामने बैठकर खुले दरबार में राज-काज करती थी। जब वह घोड़े पर सवार होती थी, तो उसका विश्वासपात्र जमालुद्दीन याकूत उसे सहारा देकर घोड़े पर बिठाता था। वह सैन्य संचालन स्वयं करती और युद्ध में भाग लेती थी। इस प्रकार, रजिया ने सभी इस्लामी प्रथाओं का परित्याग कर दिया था। उसके इन कार्यों से राज्य के अमीर और कट्टर मुसलमान उसके विरुद्ध संगठित हो गए।
रजिया की मृत्यु (Death of Razia)
इन कारणों से तुर्की अमीरों, प्रान्तीय सूबेदारों और मलिकों ने रजिया को अपदस्थ करने के लिए षड्यन्त्र रचना प्रारम्भ किया। षड्यन्त्रकारियों का नेतृत्व अमीर-ए-हाजिब इख्तियारुद्दीन एतगीन ने किया। इस षड्यन्त्र के प्रमुख नेता भटिण्डा का सूबेदार मलिक अल्तूनिया और लाहौर का सूबेदार कबीर खाँ थे। षड्यन्त्रकारियों ने पहले याकूत का वध कर दिया और फिर रजिया को बन्दी बना लिया। रजिया ने अल्तूनिया को प्रेमपाश में फँसाकर उसके साथ विवाह कर लिया। बाद में कैथल के निकट 13 अक्टूबर, 1240 ई० को रजिया और अल्तूनिया डाकुओं के हाथों मारे गए। दिल्ली की गद्दी पर इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र बहरामशाह बैठ गया। अमीर, और
इस प्रकार रजिया के विरुद्ध संगठित होने वाले राज्य के प्रभावी सरदार कट्टर मुस्लिम धर्मावलम्बी अन्तत: रजिया के विरुद्ध सफल हुए और उन्होंने रजिया के स्थान पर अपनी इच्छानुसार बहरामशाह को सिंहासन पर बैठाने में सफलता प्राप्त की। परन्तु फिर भी इतिहास में रजिया का सम्मानित स्थान है। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है, “उससे पहले और बाद में इल्तुतमिश वंश के अन्य सभी सदस्य व्यक्तिगत और चारित्रिक दृष्टि से उससे कहीं अधिक दुर्बल थे।’ प्रो० के० ए० निजामी ने उसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, “इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी में सबसे श्रेष्ठ थी।”
रजिया का मूल्यांकन (An Assessment of Razia)
इल्तुतमिश के निधन के बाद उसका पुत्र रुकनुद्दीन फिरोजशाह शासक हुआ, किन्तु भोग-विलासी होने के कारण वह सफल न हो सका। अन्त में सरदारों और अमीरों ने विवश होकर रजिया को ही सुल्तान बनाया। उसने 1236 ई० से 1240 ई० तक शासन किया। उसके चरित्र में निम्नलिखित गुण थे-
(1) योग्यतम शासिका-रजिया, सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री थी। बाल्यकाल से ही वह तीव्र बुद्धि वाली शाहजादी थी, अतएव इल्तुतमिश ने उसको अपने जीवनकाल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। रजिया को सिंहासन पर बैठते ही प्रशासन की आन्तरिक तथा बाह्य, दोनों ही प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। वह इन सब समस्याओं से हतोत्साहित नहीं हुई। उसने अपनी कूटनीति से विरोधियों में फूट डाल दी और उन पर विजय प्राप्त करके अपने को एक कुशल शासिका सिद्ध किया। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है— “रजिया इल्तुतमिश के वंश की प्रथम और अन्तिम शासिका थी, जिसने अपनी योग्यता व चरित्र के बल पर दिल्ली सल्तनत की राजनीति को प्रभावित किया था।”
(2) कुशल प्रशासिका-रजिया एक कुशल प्रशासिका भी थी। उसने अपनी योग्यता और कुशलता से दिल्ली के नागरिकों को प्रभावित किया था। रजिया में एक कुशल वक्ता के गुण भी विद्यमान थे। उसके भाषण में एक जादू था, जिसने दिल्ली के नागरिकों तथा सैनिक अधिकारियों को मन्त्रमुग्ध कर दिया था।
(3) सफल कूटनीतिज्ञ-रजिया में एक सफल कूटनीतिज्ञ के गुण भी विद्यमान थे। बदायूँ, मुल्तान तथा लाहौर के सूबेदार रजिया को सुल्तान मानने के लिए तैयार नहीं थे। उनकी संयुक्त शक्ति से लोहा लेना रजिया की क्षमता से बाहर था। उसने इन सरदारों में फूट डालकर बदायूँ और मुल्तान के सूबेदारों के साथ मिलकर इनको आपस में ही लड़ाया और फिर उनको एक-एक करके युद्ध मे पराजित किया। यह सब रजिया के कूटनीतिज्ञ होने का ही परिणाम था।
(4) कुशल सेनानायक-रजिया में एक सेनानायक के गुण भी विद्यमान थे। वह पर्दा उतारकर पुरुषों की भाँति युद्ध स्थल में सेनानायक बनकर पहुँचती थी। उसने अपने विरुद्ध षड्यन्त्र करने वाले अमीरों को युद्ध में परास्त किया था। अपनी सैनिक प्रतिभा के कारण ही वह अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार करने में सफल हो सकी थी। इस सम्बन्ध में मिनहाज-उस-सिराज ने लिखा है, “लखनौती से देवल तक सभी मलिकों तथा अमीरों न उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया था।”
(5) निरंकुशता प्रेमी-रजिया एक ऐसे युग की सुल्ताना थी, जिसमें स्त्री के प्रति लोगों में श्रद्धा और विश्वास नहीं था। उसके सिंहासनारूढ़ होते ही अमीरों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र किया, किन्तु उसने सभी अमीरों को नतमस्तक कर दिया। वास्तव में, वह प्रथम तुर्की-सुल्ताना थी, जिसने अमीरों तथा मलिकों पर राज्य की इच्छा को थोपा था।
(6) अनुशासनप्रिय-रजिया अनुशासनप्रिय थी। राज्य में अनुशासन बनाए रखने और अमीरों में फूट डालकर एकछत्र शासन स्थापित करने के लिए रजिया ने अपनी कूटनीति से काम लिया था। रजिया अनुशासन बनाए रखने के लिए सभी प्रकार के त्याग करने को तत्पर रहती थी। उसने अपने शासनकाल में अराजकतावादी तथा षड्यन्त्रकारी तत्त्वों का दमन करने में कभी भी संकोच नहीं किया था।
निष्कर्ष-रजिया के चरित्र का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि यद्यपि उसके चरित्र में कुछ दोष थे, परन्तु फिर भी वह एक महान् शासिका थी। उसने सम्पूर्ण शक्ति को अपने हाथ में केन्द्रित करके अपने को सर्वशक्तिमान बनाने का प्रयत्न किया। रजिया की महानता इसलिए भी उल्लेखनीय है कि उसने अपनी सफलताओं के बल पर अपने पिता इल्तुतमिश के समान प्रभावशाली सुल्तान के गुणों का परिचय दिया था। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है, “नि:सन्देह रजिया एक अत्यन्त सफल तथा असाधारण शासिका थी। वह वीर, कर्मठ, योग्य सैनिक तथा सेनानायक थी। राजनीतिक कुचक्रों और कूटनीति में वह दक्ष थी। उसने भारत में तुर्की सल्तनत की प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना की।”