सुल्तान ग्यासुद्दीन बलबन (Sultan Ghiyasuddin Balban)
(1266-1287)
“बलबन एक महान योद्धा, राजा तथा राजनीतिज्ञ था, जिसने नवस्थापित मुस्लिम की रक्षा संकटकाल में उसके विनाश होने से की। बलबन भारत के मध्यकालीन इतिहास सदैव एक महान् चरित्र रहेगा।” -डॉ० ईश्वरी प्रसाद
बलबन का प्रारम्भिक जीवन (Early Career of Balban)
बलबन का वास्तविक नाम बहाउद्दीन था। उसका जन्म इल्बरी तुर्क के कबीले में हुआ था। उसका पिता दस हजार परिवारों का खान था। बलबन स्वयं को पौराणिक तुर्की और तूरान के अफ्रीसियाब वंश से सम्बन्धित बताता था। बचपन में ही मंगोलों ने बलबन को पकड़कर बसरा (गजनी) के एक ख्वाजा जमालुद्दीन नामक व्यापारी के हाथों में बेच दिया था। जमालुद्दीन ने उसे शिक्षित करके 1232 ई० में इल्तुतमिश के हाथ बेच दिया। इस प्रकार बलबन भारत आ गया। लेनपूल ने लिखा है-“ईश्वर इस्लाम धर्म को शक्ति प्रदान करना तथा उसके राज्य को भारत में स्थापित करना चाहता था, जिस कारण उसने नवयौवन अवस्था में ही बलबन को टर्किस्तान से पृथक कर दिया।”
इल्तुतमिश ने बलबन को सर्वप्रथम खासबरदार (Personal Attendant) के पद पर नियुक्त किया। बाद में उसकी योयता और प्रतिभा से प्रभावित होकर सुल्तान ने उसे चालीस गुलामों के दल (Forty) में सम्मिलित कर लिया। बलबन अपनी स्वामिभक्ति तथा गुणों के आधार पर निरन्तर प्रगति करता रहा और रजिया के शासनकाल में वह ‘अमीर-ए-शिकार’ (Lord of Hunting) के पद पर पहुँच गया। उसने रजिया के पतन में महत्त्वपूर्ण योग दिया। बहरामशाह ने उसकी स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसे रेवाड़ी (पंजाब-जिला गुड़गाँव) की जागीर प्रदान कर दी, जिसका उसने बड़ी कुशलता से प्रबन्ध किया और 1246 ई० में उसने मंगोलों को उच्छ का घेरा उठाने लिए बाध्य किया। सुल्तान मसूदशाह के काल में उसे ‘अमीर-ए-हाजिब’ का पद प्राप्त हुआ। सन् 1246 ई० में उसने मसूदशाह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचकर नासिरुद्दीन महमूद को दिल्ली की गद्दी पर बिठा दिया और अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान से करके अपने को सल्तनत का एक महत्त्वपूर्ण तथा शक्तिशाली व्यक्ति बना लिया।
बलबन का राज्यारोहण तथा कठिनाइयाँ (Accession of Balban and his Difficulties : 1265-1266)
नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद बलबन दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हुआ। कुछ परिवर्ती इतिहासकारों ‘विशेष रूप से इब्नबतूता तथा इसामी’ का मत है कि गद्दी के लोभ के कारण बलबन ने नासिरुद्दीन महमूद को जहर देकर मार डाला था, परन्तु उनके मत में सत्यता बहुत कम है।
बलबन के राज्यारोहण से दिल्ली सल्तनत को एक नई दिशा मिली। टॉमस के अनुसार, “राजकीय सिंहासन पर बलबन का आरूढ़ होना भारतवर्ष में मुसलमानों के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण काल है।”
राज्यारोहण के समय बलबन के समक्ष निम्नलिखित कठिनाइयाँ उपस्थित थीं-
(1) ताज की प्रतिष्ठा का अन्त-बलबन के पूर्व तुर्की अमीरों की महत्त्वाकांक्षाओं के कारण दिल्ली सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा का पूर्णतया अन्त हो चुका था। इतिहासकार बरनी लिखता है—“शमसुद्दीन के गुलामों के पुत्रों की अयोग्यता तथा शम्सी गुलामों के स्वाभिमान ने राज्य सिंहासन के लिए जनता में घृणा के भाव उत्पन्न कर दिए थे, जो किसी समय संसार का सबसे प्रतिष्ठित तथा महान सिंहासन था और जो महमूद या संजर के सिंहासन के समान विश्व-पूज्य था।”
अपने बीस वर्ष के शासनकाल में बलबन ने यह अनुभव कर लिया था कि तुर्की अमीरों ने ताज की प्रतिष्ठा को धूल में मिलाकर सुल्तान को नाममात्र का ही शासक बना रखा है। अतः बलबन को ताज की प्रतिष्ठा में पुन: स्थापित करना था।
(2) साम्राज्य की शिथिलता-बलबन के राज्यारोहण के समय में साम्राज्य बहुत शिथिल हो चुका था। सर्वत्र अशान्ति, अराजकता तथा विद्रोहों का बोलबाला था। लोग सरकार के भय को अपने हृदय से निकाल चुके थे। बरनी ने लिखा है- “नासिरुद्दीन के अन्तिम दिनों में सुल्तान की प्रतिष्ठा पूर्णतया नष्ट हो चुकी थी। प्रजा के हृदय में न उसका भय था, न उसके प्रति श्रद्धा। शासन शक्ति का भय, जो सुशासन का आधार और राज्य के यश तथा गौरव का स्रोत है, लोगों के हृदय से जाता रहा था और देश की दशा शोचनीय हो गई थी।”
(3) आर्थिक संकट-इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में सर्वत्र अराजकता, अशान्ति तथा विद्रोहों का बोलबाला रहा। साम्राज्य के विभिन्न भागों में होने वाले विद्रोहों का दमन करने और मंगोलों का सामना करने के लिए राज्य को अपार धन व्यय करना पड़ा, जिससे दिल्ली सल्तनत की आर्थिक दशा बड़ी शोचनीय हो गई थी और राजकोष धन से रिक्त हो चुका था।
(4) चालीस गुलामों के दल का प्रभाव-इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में चालीस गुलामों के दल ने सल्तनत की राजनीति में हस्तक्षेप किया, जिससे सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा क्षीण हो गई थी। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी के अनुसार-,“इल्तुतमिश अयोग्य उत्तराधिकारियों के शासनकाल में राज्य के गौरव तथा प्रतिष्ठा का पूर्ण अन्त हो चुका था।’ ऐसी स्थिति में लेनपूल के शब्दों में— “बलबन के राज्याधिकार या प्रभुता को न स्वीकार करने का अर्थ अराजकता ही था।”
(5) राजपूतों की समस्या -राजपूताना, बुन्देलखण्ड तथा रुहेलखण्ड के राजपूत राज्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके मुसलमानों को भारत से निकाल देने के लिए प्रयत्नशील थे। इनका दमन करना बलबन के लिए अत्यन्त आवश्यक था।
(6) विद्रोहों की समस्या-मेवात तथा कटेहर के हिन्दू विद्रोहियों ने दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेशों में अपनी लूटमार से भयानक आतंक स्थापित कर रखा था। इन विद्रोहियों को कुचलना भी बलबन के लिए एक समस्या थी।
(7) मंगोल समस्या-बलबन की सबसे बड़ी समस्या मंगोल आक्रमणों से दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखने की थी। इल्तुतमिश के समय से ही मंगोलों ने सिन्ध पर अधिकार करके भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिए थे और दिन-प्रतिदिन उनके आक्रमण भयावह होते जा रहे थे।
राजत्व सिद्धान्त (Theory of Kingship)
राजपद के विषय में बलबन का विचार भी दैवी सिद्धान्त के समान था। उसने राजपद के चारों ओर, उत्तमता का तेज उत्पन्न कर दिया था। उसने ‘जिल्ले-इल्लाह’ या ‘ईश्वर का प्रतिबिम्ब, की उपाधि ग्रहण की। यद्यपि बगदाद के खलीफा की मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी वह अपने सिक्कों पर मृतक खलीफा का नाम खुदवाता रहा। उसके विचार में इसी प्रकार सम्मान प्राप्त किया जा सकता था और वह इसी डर के कारण अपनी राजसी उपाधि को मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों के अनुकूल रखना चाहता था। बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ के समक्ष राजपद के विषय में अपने विचारों की इस प्रकार व्याख्या की कि “राजा का हृदय ईश्वर की कृपा का विशेष कोष है और इस सम्बन्ध में मानव जाति में कोई भी उसके समान नहीं है।’ बलबन निरंकुश शासन में विश्वास रखता था। उसका मत था कि एक निरंकुश शासक ही अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवा सकता है और वही राज्य में सुरक्षा की गारण्टी कर सकता है।
प्रधानमन्त्री के रूप में बलबन की सफलताएँ
(Achievements of Balban as a Prime Minister : 1246-1266)
नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल (1246-1266) में लगभग बीस वर्ष तक, 1253 ई० से 1254 ई० का समय छोड़कर, बलबन ने दिल्ली सल्तनत के प्रधानमन्त्री के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। नासिरुद्दीन महमूद ने उसे ‘उलूग खाँ’ की उपाधि और नायब-ए-मुमालिकात का पद देकर सल्तनत का सर्वेसर्वा बना दिया। इस अवधि में बलबन ने निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त की-
(1) सर्वप्रथम बलबन ने झेलम तथा चिनाब नदी के मध्य के प्रदेश की खोखर जाति के विद्रोह को कठोरतापूर्वक कुचला।
(2) बलबन ने दोआब के हिन्दुओं पर बर्बर अत्याचार किए और मेवात, रणथम्भौर के विद्रोहियों का निर्दयतापूर्वक दमन किया।
डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है— “मेवातियों की उद्दण्डता और साहस इतना अधिक बढ़ गया था कि महानगर के पश्चिमी द्वारों को अजान की प्रार्थना के बाद बन्द कर देना पड़ता था और कोई साधु के वेश में भी उनकी क्रूरता से नहीं बच सकता था। बलबन ने इन लुटेरों का सफाया कर दिया और मेवातियों को पराजित करके कुचल दिया।’
समकालीन इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज ने लिखा है-“उलूग खान-ए-आजम दरों और सँकरे मार्गों की ओर से सिरमूर की ओर बढ़ा, पर्वतीय मार्ग को विध्वंस किया तथा धर्म के अनुसार धार्मिक जेहाद छेड़ दिया। उसने तलवार के बल से उस पर्वतीय मार्ग को उल्टा कर दिया, जिस मार्ग पर कोई शासक अधिकार न कर सका था और जहाँ इससे पहले कोई मुस्लिम सेना न पहुँच सकी थी। उसने इतनी बड़ी संख्या में दुष्ट हिन्दू विद्रोहियों का वध कराया कि उनकी गणना की जानी असम्भव है। इसकी घटना को न लिपिबद्ध किया जा सकता है और न ही उनका वर्णन किया जा सकता है।”
(3) सन् 1253 ई० में इमामुद्दीन रेहान के षड्यन्त्र के कारण सुल्तान ने बलबन को अपदस्थ करके हाँसी जाने का आदेश दिया। लेकिन 1254 ई० में आन्तरिक दुर्व्यवस्था के कारण सुल्तान ने बलबन को पुनः प्रधानमन्त्री नियुक्त कर दिया। मिनहाज-उस-सिराज ने लिखा है—“बलबन के लौट आने से सभी के हृदय खिल उठे और ईश्वर की कृपा के भव्य फाटक खुल गए, धरती पर भरपूर वर्षा हुई और सभी लोगों ने उसके आगमन को मनुष्य के हित के लिए उपयोगी माना। बलबन ने फिर से प्रशासन को शक्ति और योग्यता प्रदान की।” (4) 1255 ई० में बलबन ने अवध के सूबेदार कुतलुग खाँ और सिन्ध के सूबेदार किशलू खाँ के विद्रोह का दमन किया।
(5) 1257 ई० के अन्त में बलबन ने मंगोल आक्रमण से दिल्ली सल्तनत की रक्षा की। (6) इस अवधि में बलबन ने बड़ी योग्यता और साहस से दिल्ली सल्तनत की आन्तरिक और बाह्य खतरों से सुरक्षा की। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार-“यदि इन वर्षों में बलबन अपनी वीरता और शक्ति का परिचय न देता तो दिल्ली का राज्य आन्तरिक विद्रोहों तथा बाहरी आक्रमणों के थपेड़ों से न बच पाता।”
बलबन की सफलताएँ (Achievements of Balban)
बलबन की प्रमुख सफलताओं का विवरण निम्न प्रकार से दिया जा सकता है(1) ताज की प्रतिष्ठा की स्थापना-बलबन ने सर्वप्रथम लोगों के हृदय में ताज की प्रतिष्ठा एवं गौरव की पुनर्स्थापना की। उसने अपने राजत्व सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए यह घोषणा कर दी कि “राज हृदय ईश्वरीय कृपा का विशेष भण्डार है और इस दृष्टि से कोई भी राजा की समानता करने का अधिकारी नहीं है।”
बलबन ने एक अन्य स्थान पर राजा के व्यक्तित्व की पवित्रता और निरंकुशता पर बल देते हुए कहा है- “जो सुल्तान साम्राज्य के नियमों तथा रीतियों के अनुसार व्यवहार नहीं करता और उनको स्थापित नहीं करता, अपने दरबार की व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं देता है, समारोह में शान-शौकत का प्रदर्शन नहीं करता है तथा जिसका व्यवहार और कथन राजकीय महानता का प्रतीक नहीं है, उसका भय जनता नहीं मानती और उसके शत्रु उसका विरोध करना प्रारम्भ कर देते हैं।” अनेक कार्य
अत: ताज के पद की प्रतिष्ठा और गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए उसने किए। सर्वप्रथम उसने स्वयं को तूरान के विख्यात वंश अफ्रीसियाब का सदस्य घोषित किया और ‘जिल्ले-इल्लाह’ (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की। उसने राजा की निरंकुशता को वैध बताकर उच्च वंश की प्रधानता पर विशेष बल दिया। उसने निम्न स्तर के लोगों से मिलना-जुलना और उन्हें उच्च पद देना बिल्कुल बन्द कर दिया। कहा जाता है कि जब कमाल यहिया का नाम अमरोहा के प्रशासकीय पद के लिए प्रस्तावित किया गया तो बलबन ने जोर करने पर उसे नव-मुस्लिम पाया और उसे उस पद के लिए तत्काल अयोग्य घोषित कर दिया। इसी प्रकार जब दिल्ली के फखरू नामक एक धनी व्यापारी ने अपनी समस्त सम्पत्ति देकर भी उससे मिलने की इच्छा प्रकट की तो भी बलबन ने उससे मिलने से स्पष्ट इनकार कर दिया।
बावजूद बलबन ने अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए एकान्त जीवन व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया। उसने साधारण वस्त्रों को पहनकर नौकरों के समक्ष आना बन्द कर दिया। उसने मद्य-सेवन और भोग-विलास का जीवन त्यागकर कठोरता तथा गम्भीरता धारण कर ली। उसने अपने दरबार में हँसी-मजाक करना त्याग दिया और किसी को भी हँसी-मजाक करने की अनुमति नहीं दी। यहाँ तक कि शहजादा मुहम्मद की मृत्यु, जो उसे विशेष प्रिय था, का समाचार सुनकर भी बलबन ने अपना शासन सम्बन्धी दैनिक कार्य पूर्ववत् किया, परन्तु महल के एकान्त में वह फूट-फूट कर रोया। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- “इस प्रकार कठोर नियमों तथा रस्मों द्वारा बलबन ने सिंहासन की प्रतिष्ठा की पुन:स्थापना की। उस युग में दिल्ली सल्तनत ही प्रथम श्रेणी का मुस्लिम राज्य था जो मंगोलों के सत्यानाशी क्रोध के अक्षुण्ण बना रहा। इससे बलबन की प्रतिष्ठा में और भी अधिक वृद्धि हुई।”
इसी प्रकार लेनपूल ने लिखा है- “उसने शान-शौकत-पसन्द जनता में सम्पूर्ण और समारोहपूर्ण राज्य बनाए रखा। उसने निजी सेवकों को भी बिना वर्दी पहने उससे नहीं मिलने दिया जाता था। उसके सामने कोई व्यक्ति जोर से हँस नहीं सकता था। ऐसा कहा जाता है कि वह उच्च वंश का पूर्वी सज्जन पुरुष था, जिसे खोखले मस्तिष्कों से घृणा थी, लेकिन वह न तो किसी को हँसने की अनुमति देता था और न ही स्वयं किसी से हँसी-मजाक या तनिक भी जान-पहचान प्रकट करता था। वह अपने सामने ओछेपन की बात तक न होने देता था। अपने शासनकाल के 40 वर्षों के दौरान उसने कभी ग्रामीण लोगों से कोई बात नहीं की और न ही उसने उच्च वंश के व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को पद प्रदान किया।”
(2) आतंकपूर्ण दरबार-बलबन ने जनता पर सुल्तान का भय तथा आतंक स्थापित करने के लिए बड़े भव्य एवं आतंकपूर्ण दरबार की स्थापना की। बरनी लिखता है— “सुल्तान ने अपना गौरव बढ़ाने और जनता को अपनी शान-शौकत से विस्मित, आतंकित और भयभीत करने के लिए शाही दरबार को ईरानी ढंग पर सुसज्जित करवाया। उसने दरबार में मध्य एशिया के साल्जुक तथा ख्वारिज्म सुल्तानों के ढंग का शिष्टाचार प्रचलित किया। उसने लम्बे तथा भयानक आकृति वाले अपने अंगरक्षक नियुक्त किए, जो दरबार में सुल्तान के दाएँ व बाएँ हाथों में नंगी तलवारें लिए खड़े रहते थे। उसने दरबार में सुल्तान का अभिवादन करने के लिए सिजदा और पैबोस का नियम जारी किया। दरबार में खलीफा के दो वंशजों के अतिरिक्त अन्य किसी को बैठने की अनुमति नहीं थी। सुल्तान बड़े की भव्य, मूल्यवान तथा तड़क-भड़क वाले ही वस्त्र पहनकर दरबार में आता था। दरबार में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की सूचना विशिष्ट राजकर्मचारी बुलन्द आवाज में दिया करते थे। दरबार में किसी को हँसने या अनर्गल शब्द बोलने की आज्ञा न होने से भीषण सन्नाटा छाया रहता था-सुल्तान के दरबार के वैभव और चमक-दमक को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे और दरबारी शान-शौकत को देखकर गश खा जाते थे।”
इस प्रकार बलबन ने अपने वैभवयुक्त दरबार से जनता के हृदय में अपना भय तथा आतंक स्थापित कर दिया और विरोधियों के दिल दहला दिए।
(3) चालीस गुलामों के दल का विनाश-बलबन ने अपने दीर्घकालीन राजनीतिक जीवन में यह अनुभव कर लिया था कि चालीस गुलामों ने दिल्ली सल्तनत में भारी उथल-पुथल मचा रखी थी और इन्होंने दिल्ली सुल्तान की निरंकुशता को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया था। अत: बलबन ने अपनी सत्ता को सुदृढ़ और सुरक्षित रखने के लिए चालीस के दल को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। सर्वप्रथम उसने अपने व्यक्तिगत अनुचरों को राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करके चालीस के सदस्यों के महत्त्व को गिरा दिया और बाद में छोटे-छोटे अपराधों के लिए उन्हें बड़े कठोर दण्ड प्रदान किए। दल का एकसर्वप्रथम बलबन ने बदायूँ के सूबेदार मलिक बकबक, जो चालीस के प्रमुख सदस्य था, को अपने नौकर को कोड़ों से पीटकर हत्या कर देने के अपराध में जनता के समक्ष खुले आम कोड़ों से पिटवाया और उसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया।
जिसने चालीस मण्डल के एक अन्य अमीर हैवात खाँ, जो अवध का सूबेदार था और शराब के नशे में एक व्यक्ति को मार डाला था, को बलबन ने पाँच सौ कोड़े लगवाए और मृतक की विधवा को उसे सौंपते हुए कहा— “यह हत्यारा मेरा गुलाम था, मैं इसे और एक चाकू को तुम्हारे हाथों में देता हूँ, जिससे तुम इसका वध कर सकती हो।” मुक्ति हजार टंके देकर किसी प्रकार उस विधवा से कहा जाता है कि हैवात खाँ ने 20 प्राप्त की और वह इतना अधिक शर्मिन्दा हुआ कि जीवनपर्यन्त अपने घर से बाहर नहीं निकला।
बलबन के क्रोध का तीसरा शिकार अवध का शासक अमीर खाँ हुआ जो बंगाल सूबेदार तुगरिल से पराजित होकर भाग आया था, उसको सुल्तान ने अयोध्या के फाटक पर लटकवा दिया। इसी प्रकार बलबन ने अपने चचेरे भाई शेर खाँ; जो चालीस मण्डल का एक योग्य और शक्तिशाली सदस्य था और भटिण्डा, भटनेर, समाना आदि प्रदेशों का सूबेदार था; को भी व्यक्तिगत ईर्ष्या एवं द्वेष के कारण जहर देकर मरवा डाला।
इस प्रकार बलबन ने कपटपूर्ण और बर्बर उपायों से चालीस के दल का विनाश कर दिया और उसके जो सदस्य मरने और अपदस्थ होने से बच गए, उनका उसने निर्दयतापूर्वक दमन कर दिया
(4) गुप्तचर विभाग का संगठन-बलबन ने अपनी निरंकुश नीति को क्रियान्वित करने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की स्थापना की। उसके गुप्तचर राज्य भर में होने वाली घटनाओं की सूचना सुल्तान को भेजते रहते थे। बलबन की निरंकुश नीति का मुख्य कारण उसका संगठित गुप्तचर विभाग ही था जिस पर उसने भारी धन और काफी समय व्यय किया था। उसने प्रत्येक प्रान्त, सरकारी विभाग और यहाँ तक कि अपने पुत्रों की गतिविधियों की जाँच करने हेतु गुप्तचर रख छोड़े थे। इन गुप्तचरों को काफी अच्छा वेतन मिलता था और वे सीधे सुल्तान के प्रति ही उत्तरदायी होते थे। अयोग्य और कर्त्तव्यविमुख गुप्तचरों को सुल्तान कठोर दण्ड दिया करता था। कहा जाता कि बदायूँ के एक गुप्तचर को, जिसने ठीक समय पर मलिक बकबक की गतिविधियों की सूचना नहीं भेजी थी, बलबन ने नगर के फाटक पर लटकवा दिया था। इस प्रकार अपनी गुप्तचर व्यवस्था के कारण ही बलबन अपना निरंकुश राज्य कायम करने में सफल हुआ। -सुधार शक्ति थी।
(5) सेना का संगठन-बलबन की निरंकुश सत्ता का आधार सैनिक इसलिए उसने अपनी सेना में अनेक सुधार करके उसका पुनर्गठन किया। ऐबक और इल्तुतमिश के काल में सैनिकों को उनकी सेवाओं के बदले नकद वेतन के स्थान पर जागीरें दे दी जाती थीं। धीरे-धीरे ये जागीरें पैतृक बन गईं और इनके उत्तराधिकारी बिना सैनिक-सेवा किए ही अपनी-अपनी जागीरों की आय का उपयोग करने लगे। बलबन ने इस बात का अनुभव करके ऐसी जागीरों के सम्बन्ध में जाँच करवाई और यह पाया कि राज्य की अधिकांश भूमि बूढे सैनिकों के पास है, जो सैनिक सेवा करने में सर्वथा असमर्थ हैं। अत: सुल्तान ने एक आदेश जारी करके वृद्धों, अनाथों और विधवाओं की भूमि को जब्त करने और उसके बदले में नकल पेंशन देने की आज्ञा दी। जो लोग स्वस्थ और सैनिक-सेवा के योग्य थे, उनके पास जागीरें रहने दी गईं। परन्तु उनकी भूमि का कर वसूल करने का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और जागीरदारों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की गई। बरनी ने लिखा है- “सुल्तान के इस आदेश से वृद्ध सैनिकों को गहरा आघात पहुँचा और वे रोते-पीटते दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन; जो बलबन का मित्र था, के पास पहुंचे। उनकी हालत पर तरस खाकर कोतवाल ने सुल्तान के पास जाकर उनकी सिफारिश की। फलत: सुल्तान ने वृद्ध सैनिकों को उनकी जागीरें वापस करवा दीं।”
बलबन ने अपने विश्वासपात्र और योग्य तथा दूरदर्शी व्यक्ति इमाद-उल-मुल्क (Imad-ul-Mulk) को सेनापति या दीवान-ए-आरिज का पद प्रदान किया और उसे वजीर के नियन्त्रण से मुक्त करके सेना सम्बन्धी समस्त अधिकार प्रदान कर दिए। इमाद-उल-मुल्क ने नए सैनिकों की भर्ती की, सैनिकों के वेतन में वृद्धि की और सेना को शस्त्रों से सुसंगठित तथा सुसज्जित करके सैनिकों में कठोर अनुशासन की स्थापना की। उसने सैनिकों को शिक्षित करने की व्यवस्था की। उसके प्रयासों से तुर्की सेना इतनी शक्तिशाली बन गई कि बलबन सेना के कारण ही अपने आन्तरिक विद्रोहों को दबाने और बाह्य आक्रमणों से दिल्ली साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल हो सका।
(6) विद्रोहों का दमन-बलबन ने मेवातियों, दोआब तथा कटेहर के विद्रोहियों तथा तुगरिल बेग (बंगाल का शासक) के विद्रोह को बड़ी कठोरतापूर्वक दबाया और साम्राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित की।
(i) मेवातियों का दमन–दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेशों में मेवातियों ने बड़ा उपद्रव मचा रखा था और वे दिन-दहाड़े लोगों को लूटमार कर जंगलों में छिप जाया करते थे। बरनी के अनुसार—“दिल्ली के निकट मेवातियों का उपद्रव और साहस यहाँ तक बढ़ गया था कि नगरवासियों की जान व माल खतरे में पड़ गए थे। मेवाती लुटेरे दिन-दहाड़े नगर के लोगों को लूट लिया करते थे और कुओं से पानी भरने वाली स्त्रियों के साथ बड़ा अभद्र व्यवहार किया करते थे। उनका भय और आतंक इतना अधिक हो गया था कि दोपहर की अजान के बाद नगर के पश्चिमी दरवाजे को बन्द कर दिया जाता है।”
अत: बलबन ने सर्वप्रथम मेवातियों का दमन करने का निश्चय किया। बरनी लिखता है— “सुल्तान ने मेवातियों का दमन करने के लिए एक विशाल सेना के साथ राजधानी से प्रस्थान किया। शाही सेना ने उस जंगल को चारों ओर से घेर लिया जिसमें मेवाती लोग लूटमार करके छिप जाया करते थे। लगभग एक हजार सैनिकों ने जंगल को काटकर साफ कर दिया और समस्त मेवातियों का निर्दयतापूर्वक वध कर दिया गया। वयस्क आयु के सभी पुरुषों को कत्ल करवाकर सुल्तान ने उनके बच्चों और स्त्रियों को दास बनाकर बेच दिया। इस बर्बर उपाय से लगभग एक लाख मेवाती ढूँढ-ढूँढकर मार डाले गए और उनकी शक्ति को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। सुल्तान ने उनके भावी विद्रोहों को रोकने के लिए स्थान-स्थान पर सैनिक चौकियाँ स्थापित करवाईं और गोपाल गिरि में एक दुर्ग बनवाकर वहाँ पर अफगान सैनिक नियुक्त किए।”
(ii) दोआब के विद्रोहियों का दमन-मेवातियों का सफाया करने के बाद बलबन ने दोआब के विद्रोहियों और डाकुओं को कुचलने के लिए अवध की ओर कूच किया। कम्पिल, पटियाली, भोजपुर तथा जलाली आदि स्थानों पर, जो डाकुओं के गढ़ थे, बलबन ने भीषण आक्रमण कर दिया। शाही सेना ने हजारों डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया और सैकड़ों ने भागकर अपने प्राणों की रक्षा की। सुल्तान ने इन स्थानों पर सैनिक चौकियाँ स्थापित की, जिनमें अर्द्ध-बर्बर अफगान सैनिक नियुक्त किए गए। बरनी के अनुसार-“इन सैनिकों की कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप दोआब में अराजकता का अन्त हुआ और दिल्ली से बंगाल जाने वाला मार्ग डाकुओं से सुरक्षित हो गया।”
(iii) कटेहर के विद्रोह का दमन-इस समय कटेहर में भी एक भीषण विद्रोह हो गया और अमरोहा तथा बदायूँ के सूबेदार इस विद्रोह को दबाने में असफल रहे। अत: शीघ्र ही बलबन ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए राजधानी से प्रस्थान किया। शाही सेना ने कटेहर के हिन्दू विद्रोहियों पर बड़े अमानुषिक अत्याचार किए और हजारों व्यक्तियों को मार डाला तथा उनके घरों को जलाकर राख कर दिया गया। बड़ी संख्या में विद्रोहियों के स्त्री-बच्चों को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाकर बेच दिया गया। इस विद्रोह के बर्बर दमन का उल्लेख करते हुए बरनी ने लिखा है—“विद्रोहियों का रक्त नाले के रूप में बह निकला। गाँवों तथा जंगलों में लाशों का ढेर लग गया और लाशों की दुर्गन्ध गंगा नदी तक पहुंच गई। लोग इतने भयभीत हो गए कि तीन वर्ष तक बदायूँ से अमरोहा और सम्भल तक के व्यक्तियों ने सिर उठाने का साहस नहीं किया।”
डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने भी लिखा है— “इन बर्बर उपायों से सुल्तान ने वहाँ के निवासियों में आतंक की स्थापना की और समस्त प्रदेश उजाड़ दिया गया। प्रत्येक जंगल तथा गाँवों में मनुष्यों की लाशों को सड़ता हुआ छोड़ दिया गया। थोड़े बहुत व्यक्ति जो यत्र-तत्र छिप गए थे, वे भी भय के कारण पूर्णतया दब गए।” इतिहासकार बरनी लिखता है—“इसके उपरान्त फिर कभी कटेहर निवासियों ने सिर नहीं उठाया और यह प्रदेश यात्रियों, किसानों तथा सरकारी पदाधिकारियों के लिए पूर्णतया सुरक्षित हो गया।”
इसी प्रकार लेनपूल ने लिखा है- “इस युग के समकालीन इतिहासकार बरनी ने इस घटना के आठ वर्ष के बाद लिखा कि चोर तथा डाकुओं से सड़कें पूर्णतया सुरक्षित हो गई थीं।”
(iv) तुगरिल के विद्रोह का दमन–तुगरिल बेग बंगाल का सूबेदार था। वह बलबन का दास था और सुल्तान ने ही उसे बंगाल का शासक बनाया था, परन्तु बंगाल सदैव से विद्रोही प्रान्त रहा था। बरनी ने लिखा है— “इस प्रदेश के निवासियों ने पर्याप्त समय से विद्रोह की भावना का प्रदर्शन किया तथा असन्तुष्ट तथा बुरे व्यक्तियों ने सूबेदारों की स्वामिभक्ति को कम करने में सफलता प्राप्त की।” का सामना
अत: जब 1279 ई० में बलबन बीमार पड़ा और उसका पुत्र मंगोल आक्रमण करने के लिए सीमान्त प्रदेश में चला गया तो सुअवसर पाकर तुगरिल ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित कर दी और मुगीसुद्दीन की उपाधि धारण करके अपना खुतबा पढ़वा लिया तथा सिक्के भी जारी कर दिए।
क्रोधित जब बलबन को तुगरिल के विद्रोह की सूचना मिली तो वह बहुत हुआ और उसने तत्काल ही अवध के सूबेदार अमीन खाँ को तुगरिल के विद्रोह का दमन करने का आदेश दिया, परन्तु सैनिकों के विश्वासघात के कारण अमीन खाँ को पराजित होकर लौटना पड़ा।
अमीन खाँ की पराजय को सुनकर बलबन आग-बबूला हो गया और उसने अमीन खाँ को बदायूँ के फाटक पर लटकवा दिया और तिरमिति तथा शहाबुद्दीन को एक सेना के साथ बंगाल भेजा। ये लोग भी असफल होकर लौटे। फलत: उनकी भी वही दशा हुई, जो उनके पूर्वाधिकारी अमीन खाँ की हुई थी।
इन पराजयों से बलबन का क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच गया और उसने स्वयं सेना तथा अपने पुत्र बुगरा खाँ के साथ तुगरिल को दण्ड देने के लिए बंगाल की ओर प्रस्थान किया। सुल्तान के आगमन का समाचार सुनकर तुगरिल अपने कुछ साथियों के साथ पूर्वी बंगाल के जंगलों में जाकर छिप गया। बलबन ने शीघ्र ही लखनौती पर अधिकार कर लिया और सेनापति हिसामुद्दीन को वहाँ छोड़कर शेष सेना सहित तुगरिल की खोज करने निकल पड़ा। सुल्तान की विभिन्न टुकड़ियाँ चारों ओर तुगरिल की खोज में जंगल छानने लगीं। ढाका के आगे सोनार गाँव से बहुत दूर घने जंगल में सुल्तान की एक टुकड़ी के नेता शेर-अन्दाज मलिक मुहम्मद ने दो बंजारों का वध करके तुगरिल को खोज निकाला और उस पर अचानक हमला बोल दिया। उस समय तुगरिल राग-रंग में लीन था, फिर भी उसने घोड़े की नंगी पीठ पर बैठकर भागने की कोशिश की, परन्तु शाही सैनिकों ने उसे पकड़कर उसका सिर काट लिया और धड़ नदी में फेंक दिया। इस घटना पर प्रकाश डालते हुए इतिहासकार बरनी लिखता है-“जिस समय तुगरिल सुल्तान के भय से बेखबर होकर अपने साथियों के साथ रंग-रेलियाँ मनाने में व्यस्त था, शाही सेना ने उसके पड़ाव पर अचानक छापा मारा। तुगरिल ने तुरन्त एक घोड़े पर सवार होकर भागने का प्रयत्न किया, लेकिन शाही सैनिकों के तीर से घायल होकर वह पृथ्वी पर आ गिरा। उसका सिर काट लिया गया और धड़ को नदी में फेंक दिया।’
शाही सैनिकों ने तुगरिल का कटा हुआ सिर बलबन के समक्ष लाकर उपस्थित किया, जिसे देखकर बलबन के क्रोध की ज्वाला कुछ शान्त हुई। तत्पश्चात् तुगरिल के साथियों को पकड़कर लखनौती लाया गया और उन्हें बड़ा ही कठेर दण्ड दिया गया। बरनी लिखता है— “लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों ओर एक-दो मील लम्बी सड़क पर एक खूटी की पाँती गाड़ी गई और उस पर तुगरिल के साथियों के शरीरों को ठोक दिया गया। देखने वालों ने ऐसा भयंकर दृश्य कभी न देखा था और बहुत-से लोग इस दृश्य को देखकर आतंक तथा घृणा से मूछित हो गए।”
लेनपूल ने लिखा है-“तुगरिल के सम्बन्धियों और मित्रों को भी पकड़कर मार डाला गया। उस भिखारी को भी न छोड़ा गया जिस पर उस विद्रोही ने कभी दया दिखाई थी। पचास वर्ष के बाद एक वृद्ध ने बरनी को बताया कि जो दण्ड लखनौती में दिया गया था, वैसा कभी दिल्ली में सुनने तक को भी न आया और न सम्पूर्ण भारत में किसी को ऐसी घटना याद थी।”
बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खाँ को लखनौती के दण्ड की ओर इंगित करते हुए यह चेतावनी दी— “देखा तुमने कि मैंने अपराधियों को बाजार में क्या दण्ड दिया? यदि कोई चालाक और दुष्ट व्यक्ति दिल्ली के प्रति स्वामिभक्ति में तुम्हें विचलित करे और तुम्हें विद्रोह के लिए प्रेरित करे तो इस प्रतिशोध को याद कर लेना जो मैंने खुले बाजार में विद्रोही को लेकर दिखाया है। मैं जो कहता हूँ, उसे समझो और इस बात को मत भूलो कि यदि सिन्ध, मालवा, गुजरात, लखनौती अथवा सोनार गाँव के सूबेदार दिल्ली के विरुद्ध तलवार उठाएँगे तो उन्हें, उनकी स्त्रियों, पुत्रों और अनुयायियों को भी वही दण्ड मिलेगा जो तुगरिल और उसके साथियों को मिला है।”
इस प्रकार बलबन ने तुगरिल के विद्रोह का अन्त करके अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया और दिल्ली लौट आया। उसने उन भगोड़े सैनिकों को भी, जो तुगरिल से जाकर मिल गए, कठोर दण्ड देने का निश्चय किया, किन्तु एक काजी की विशेष प्रार्थना पर उसने अपने निश्चय में आंशिक परिवर्तन कर दिया। कुछ सैनिकों को मामूली दण्ड देकर छोड़ दिया गया और कुछ को काला मुँह करके भैंसों पर बिठाकर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया। दमन ने सम्पूर्ण देश में आतंक और भय की लहर दौड़ा दी।