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पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अन्तर्नियम

(Memorandum of Association & Articles of Association) 

पार्षद सीमा नियम का अर्थ एवं परिभाषा 

Meaning and Definition of Memorandum of Association)

यह कमनी का वैधानिक एवं महत्वपूर्ण प्रलेख है जिसमें कम्पनी के उद्देश्य, कार्य क्षेत्र, अधिकारों व सीमाओं का उल्लेख होता है। इसे कम्पनी का संविधान या कम्पनी निर्माण की आधारशिला भी कहते हैं। यह कम्पनी का चार्टर होता है। प्रत्येक कम्पनी को इसे अनिवार्य रूप से तैयार तथा रजिस्ट्रार के पास फाइल करना पड़ता है। 

भारतीय कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (56) के अनुसार–“पार्षद सीमानियम से आशय किसी कम्पनी के ऐसे पार्षद सीमानियम से है जो कि किसी पूर्व कम्पनी सन्नियम या वर्तमान अधिनियम के अनुसार मूलतः बनाया गया है या समय-समय पर परिवर्तित किया गया हो। 

न्यायधीश चार्ल्सवर्थ के अनुसार, “पार्षद सीमानियम कम्पनी का चार्टर (अधिकार पत्र) है जो उसके अधिकारों की सीमाओं को परिभाषित करता है।” 

पार्षद सीमा नियम की प्रमुख विषय सामग्री

(Main Contents of Memorandum of Association)

भारतीय कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 4 के अनुसार पार्षद सीमानियम में निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया जाता है 

(1) नाम वाक्य (Name Clause)-इस वाक्य में कम्पनी का नाम होता है। नाम का चुनाव करते समय निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए नाम केन्द्रीय सरकार की दृष्टि में अवांछनीय नहीं होना चाहिये। कोई भी कम्पनी बिना केन्द्रीय सरकार की अनुमति के अपने नाम के साथ क्राउन (Crown), इम्पीरियल (Imperial), शाही (Roral), चार्टर्ड (Chartered) आदि शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकती । नाम किसी एता वर्तमान कम्पनी के नाम के समान या उससे मिलता-जुलता नहीं होना चाहिये जिसकी लिखना होता कम्पनी अधिनियम/28 पहले रजिस्ट्री हो चुकी है। प्रत्येक सार्वजनिक कम्पनी को अपने नाम के आगे ‘लिमिटेड निजी कम्पनी के नाम के आगे प्राइवेट लिमिटेड शब्दों का प्रयोग अनिवार्य रूप से का चाहिए। नाम कम्पनी के व्यवसाय की प्रकृति से सम्बन्धित होना चाहिए। 

(2) स्थान वाक्य अथवा रजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य (Domicile Clane Registered Office Clause)-इस वाक्य में कम्पनी को उस राज्य का नाम लिखना है जिस राज्य में कम्पनी का रजिस्टर्ड कार्यालय स्थित है या स्थापित किया जायेगा। कार्यालय की स्थिति के आधार पर ही कम्पनी का न्याय क्षेत्र निर्धारित होता है । कम्पनी प्रधान कार्यालय में ही सदस्यों का रजिस्टर एवं अन्य समस्त रिकार्ड रखे जाते हैं। 

(3) उद्देश्य वाक्य (Object Clause)–इस वाक्य में कम्पनी के मुख्य उद्देश्य के अन्य उद्देश्यों का पूर्ण विवरण अलग-अलग होता है जिससे उसके कार्य क्षेत्र की सीमा नितिन होती है। कम्पनी के उद्देश्य वाक्य पर ही कम्पनी के सदस्यों की जोखिम तथा बाह्य व्यकि की सुरक्षा निर्भर करती है। 

कम्पनी (संशोधित) अधिनियम, 2013 के अनुसार, समामेलित कम्पनियों के उद्देश्यों को तीन भागों में बांटा जाना चाहिए- 

मुख्य उद्देश्य इसमें कम्पनी के उन मुख्य उद्देश्यों और साफ उद्देश्यों जो मुख्य उद्देश्यों से निर्मित हो. शामिल किये जाते हैं। जिसके लिये कम्पनी की स्थापना की गई है।”

(ii) अन्य उद्देश्य इसमें उन उद्देश्यों को शामिल करते है जो कि मुख्य उद्देश्यों में तो शामिल नहीं है लेकिन कम्पनी उनकी प्राप्ति के लिये भविष्य में अपनी आवश्यकतानुसार काम शुरू करने की आशा करती हैं। 

(iii) गैर व्यापारिक कम्पनी का उद्देश्य वाक्य-गैर व्यापारिक कम्पनी के उद्देश्य वाक्य में उन राज्यों के नाम भी लिखने चाहिये जहाँ पर कम्पनी अपने उद्देश्य सम्बन्धी काम करना चाहती है। 

(4) दायित्व वाक्य (Liability Clause)–यह वाक्य कम्पनी के सदस्यों के दायित्व की सीमाओं का उल्लेख करता है। अंशों या गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनियों के पार्षद सीमा नियम में यह उल्लेख होता है कि अंशधारियों का दायित्व सीमित है। अंशों द्वारा सीमित कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा क्रय किये गये अंशों के मूल्य या उनके अंशों पर अदत्त राशि तक ही सीमित होता है । गारण्टो द्वारा सीमित कम्पनी के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा दी गई गारण्टी की सीमा तक (केवल कम्पनी के समापन की दशा में ही) सीमित होता 

(5) पूँजी वाक्य(Capital Clause)—इस वाक्य में कम्पनी की पूँजी सम्बन्धी विवरण होता है। अंश पूजी वाली कम्पनी की दशा में पार्षद सीमानियम में यह भी लिखा होना चाहिये कि कम्पनी की अधिकृत पूँजी कितनी होगी तथा वह किस प्रकार के अंशों में कितनी-कितनी विभाजित होगी ? 

(6) संघ वाक्य या हस्ताक्षर वाक्य या सदस्यों का विवरण वाक्य-यह पार्षद सीमानियम का अन्तिम वाक्य होता है। इस वाक्य को घोषणा वाक्य भी कहते हैं क्योंकि इस वाक्य में पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति यह घोषणा करते हैं कि वे एक कम्पनी के रूप में अपना संगठन बनाना चाहते हैं और अपने-अपने नाम के सामने उल्लिखित संख्या में अश लेना और उनका भुगतान करना स्वीकार करते हैं। इन व्यक्तियों के हस्ताक्षर साक्षी द्वारा पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अन्तर्नियम/ 299 प्रमाणित भी होने चाहिये। 

सार्वजनिक कम्पनी के सीमानियम पर कम से कम सात व्यक्तियों के तथा निजी कम्पनी के सीमानियम पर कम से कम दो व्यक्तियों के हस्ताक्षर होना आवश्यक हैं तथा प्रत्येक हस्ताक्षर कम से कम एक साक्षी द्वारा अवश्य प्रमाणित होना चाहिये।

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पार्षद सीमा नियम में परिवर्तन 

(Alteration in the Memorandum of Association)

पार्षद सीमानियम कम्पनी का महत्त्वपूर्ण प्रलेख होता है अतः इसे आसानी से बदला नहीं किया जा सकता। इनमें परिवर्तन करने के लिये कई औपचारिकताओं एवं नियमों का पालन करना पड़ता है। इसके विभिन्न वाक्यों में परिवर्तन की विधियाँ इस प्रकार हैं 

नाम वाक्य में परिवर्तन

(Alteration of Name Clause)

कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 13 (1) के अनुसार, कोई भी कम्पनी विशेष प्रस्ताव पारित करके तथा केन्द्रीय सरकार की अनुमति लेकर अपना नाम परिवर्तित कर सकती है। ऐसे परिवर्तन की सूचना विशेष प्रस्ताव की प्रतिलिपि के साथ कम्पनी रजिस्ट्रार को परिवर्तन के 15 दिन के अन्दर देनी चाहिये। रजिस्टार यह सूचना मिलने पर अपने रजिस्टर में कम्पनी का नया नाम अंकित कर लेता है व नये नाम से एक नया समामेलन प्रमाणपत्र जारी करेगा। उसके बाद ही कम्पनी का नया नाम प्रभावशाली होगा। यदि एक सार्वजनिक कम्पनी निजी कम्पनी में तथा निजी कम्पनी सार्वजनिक कम्पनी के रूप में परिवर्तित होने के कारण अपने नाम में ‘प्राइवेट’ शब्द जोड़ना या हटाना चाहती है तो ऐसी स्थिति में केन्द्रीय सरकार की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है । यदि कम्पनी किसी भूल से किसी विद्यमान कम्पनी के रजिस्टर्ड नाम से या उससे मिलते-जुलते नाम से रजिस्टर्ड हो जाती है तो केन्द्र सरकार की अनुमति के पश्चात केवल एक साधारण प्रस्ताव पारित करके ही अपने नाम को परिवर्तित कर सकती है। bcom 2nd year memorandum of association in hindiरजिस्टर्ड कार्यालय वाक्य में परिवर्तन (Alteration of Registered Office Clause)-

इस वाक्य में भी निम्न तीन प्रकार से परिवर्तन हो सकते हैं (i) एक ही शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर। (ii) एक ही राज्य के एक नगर से दूसरे नगर में। केवल सूचना देना ही विशेष प्रस्ताव पास और रजिस्ट्रार अपने राज्यों के रजिस्ट्रारों जायेगी और उस (iii) एक राज्य से दूसरे राज्य के किसी नगर में । प्रथम परिस्थिति में तो रजिस्ट्रार को परिवर्तन के 30 दिन के अन्दर केवल स. पर्याप्त होता है। दसरी परिस्थिति में, अंशधारियों की व्यापक सभा में एक विशेष । करके उसकी एक प्रतिलिपि रजिस्ट्रारों को 30 दिन के अन्दर भेजनी होगी और रजि यहाँ नया पता नोट कर लेगा। तीसरी परिस्थिति में, परिवर्तन की सूचना दोनों राज्यों के (जिस राज्य से कार्यालय को दूसरे राज्य में ले जाया जा रहा हो) को भेजा जाये राज्य का रजिस्ट्रार, जहाँ से कार्यालय स्थानान्तरित किया गया है, दूसरे राज्य के लिए उस कम्पनी से सम्बन्धित समस्त प्रपत्र भेज देगा। इस प्रकार के परिवर्तन के लिये की आज्ञा लेना भी आवश्यक है। 

उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन (Alteration of Object Clause)-एक काम अपने उद्देश्य वाक्य में केवल निम्नांकित उद्देश्यों से ही परिवर्तन कर सकती है … (i) व्यवसाय को अधिक मितव्ययिता तथा कार्यक्षमतापूर्वक चलाने हेतु।

नये या विकसित साधनों से अपने मूल उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु ।

व्यवसाय का स्थानीय क्षेत्र बढ़ाने या बदलने के लिये। 

किसी ऐसे व्यवसाय को चलाने के लिये जो वर्तमान परिस्थितियों में पार्षद सीमानियम में दिये हुए उद्देश्यों के साथ सुविधापूर्वक तथा लाभप्रद रूप में चलाया जा सके। 

पार्षद सीमानियम में निर्दिष्ट किसी उद्देश्य को प्रतिबन्धित या परित्याग करने के लिये। 

पूरे व्यवसाय या उसके किसी भाग को बेचने हेतु, किसी अन्य कम्पनी या समामेलित संस्था से एकीकरण करने हेतु । उद्देश्य वाक्य में परिवर्तन करने के लिये निम्न विधि अपनायी जायेगी

(1) सबसे पहले इस आशय का एक विशेष प्रस्ताव पास किया जाना चाहिये। 

(2) परिवर्तन द्वारा रजिस्ट्रार कम्पनी के ऋणदाताओं और अन्य सभी ऐसे व्यक्तियों जिनके हित इस परिवर्तन से प्रभावित हो सकते हों, के हितों की सुरक्षा के विषय में स्वयं को आश्वस्त कर लेना चाहिये। न्यायालय परिवर्तन की सम्पूर्णता या आंशिक रूप में या किन्हीं संशोधनों के साथ पुष्टि कर सकता है। पष्टिकरण की आज्ञा मिल जाने पर रजिस्ट्रार से उसकी रजिस्ट्री करायी जायेगी। रजिस्ट्री न्यायालय से पुष्टिकरण की आज्ञा मिल जाने के 3 माह के अन्दर हो जाये । यदि यह अवधि बीत जाती है समस्त कार्यवाही पुनः नये सिरे से करनी पड़ेगी। 

(4) दायित्व वाक्य में परिवर्तन (Alteration of Liabities Clause) के सदस्यों का दायित्व सीमित है तो वह कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत असीमित नहीं किया यदि कम्पनी जा सकता। परन्तु कम्पनी अधिनियम के अनुसार यदि अन्तर्नियमों में व्यवस्था हो तो विशेष प्रस्ताव पारित करके संचालकों या प्रबन्ध अभिकर्ताओं, सचिवों, कोषाध्यक्ष या मैनेजर का दायित्व असीमित किया जा सकता है।

एक असीमित दायित्व वाली कम्पनी, कम्पनी विधान के अन्तर्गत सीमित दायित्व में परिवर्तन करके अपना पंजीयन करा सकती है। 

(5) पूँजी वाक्य में परिवर्तन(Alteration of Capital Clause)….एक कम्पनी अपनी अंश पूँजी में परिवर्तन निम्न दशाओं में से किसी भी रूप में कर सकती है पार्षद सीमा नियम न पार्षद ही 131

(i) अंश पूंजी को बढ़ाकर 3 अंश यही मी पर अपनी व्यापक सभा में साधारण प्रानान याबाद नग र में वृद्धि कर सकती है। इसकी सचना प्रदान न देन है, 9 के बाद, पास भेज देनी चाहिये। 

(ii) अंश पूँजी को घटाकर अन्ननियों में जाना हान पाना भी काम एक विशेष प्रस्ताव पास करले, तथा कम्पनीला नोट, उमदीकादायी में कमी कर सकती है। 

(6 )अंश पूंजी का पुनर्गठन-डी का पनगटनविनकार किया जा सकता है (अ) पूर्णदत्त अंशों में बदलकर (ब) स्टॉक को पूर्णदन अंगों में बदलकर। (स) सीमानियम द्वारा निर्धारित पल्लो कम मल्ल के विमान कार। (द) सीमानियम द्वारा निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य के जीवन कारा। कम्पनी के अन्तनियमों में व्यवस्था होने पर पंजी कापताना परवरित करके किया जाता है। bcom 2nd year memorandum of association in hindi

Meaning of Articles of Association

पार्षद अन्तनियम से आशय कम्पनी के उदेयं के कार कलेव का नत्र प्रबन्ध व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये बनाये गये नियम व नियम है। कमानी की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रवन्ध वस्या पार्षद अनन्या के अनुसार हरे र अन्तनियम कमनी का दूसरा महत्वपूर्ण लेख है इसे करने के समय के समय दिया के पास प्रस्तुत किया जाता है। पार्षद अन्तर्नियम सीमानिया का सहायक प्रलेख हेत हे प्रत्येक करने के लिरको तैयार करना आवश्यक नहीं होता, लेकिन जो कानियां इसे नई कनक भय कम अधिनियम 1956 में दी गई अनुसूची (TableA) को अपना है। कम्पनी अधिनियम 2013, की धारा 2 (5) के अनुसार- उर्निया में अब ऐसे अन्तर्नियम से है, जो पिछले कम्पनी अधिनियम में इस अधिनियम के रूः से बनाया गया या समय-समय पर परिवर्तित किया गया है। डिपार्टमेंट ऑफ कम्पनी अफेयर्स पार्षद अन्तर्नियन करने और इसके सदस्य के र अनुबन्ध है जो अनुबन्ध के अन्तर्गत सदस्यों के आपसी अधिकारों को प्रकट करता है।’ 

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क्या प्रत्येक कम्पनी के लिये पार्षद अन्तर्नियम तैयार करना आवश्यक है?

(Is it necessary for every company to prepare Artides of Associatico) 

कम्पना समामलन के समय अन्तर्नियमों का बनाना व रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य है नियम में विभिन्न प्रावधान दिये नहीं, इसके लिए विभिन्न प्रकार की कम्पनियों के लिये अधिनियम में विभिन्न प्र गए हैं जो इस प्रकार हैं 

(1) अंशों द्वारा सीमित सार्वजनिक कम्पनी की दशा में-अंशों द्वारा सीमित सार्व कम्पनी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह समामेलन के समय अपना अन्तर्नियम और उसे रजिस्टार के पास भेजे । यदि वह अपने अन्तर्नियम का रजिस्ट्रेशन नहीं कराती ऐसी अवस्था में कम्पनी अधिनियम की प्रथम अनुसूची की सारणी ‘अ’ में दिये गये निया उसका अन्तर्नियम मान लिया जाता है ऐसी दशा में उसे अपने सीमा नियम के ऊपर ति अन्तर्नियमों के रजिस्टर्ड शब्द लिखना होता है। 

(2) अंशों द्वारा सीमित निजी कम्पनी की दशा में-अंशों द्वारा सीमित निजी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम के साथ अपने पार्षद अन्तर्नियमों का भी रजिस्ट्रेशन कराना होता और इस पर उन्हीं व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिएँ जिन्होंने पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर किए हो।

(3) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में-गारन्टी द्वारा सीमित कम्पनी को भी अपने पार्षद सीमानियम के साथ पार्षद अन्तर्नियम का रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक है।

(4) असीमित दायित्व वाली कम्पनी की दशा में-असीमित दायित्व वाली कम्पनी के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने पार्षद सीमानियम के साथ ही अपने पार्षद अन्तर्नियम का भी पंजीयन कराये और उस पर उन्हीं व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिये, जिन्होंने पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर किये थे।

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पार्षद अन्तर्नियम की प्रमुख विषय-सामग्री 

(Main Contents of Articles of Association)

एक पार्षद अन्तर्नियम में सामान्यतया वे ही सब बातें पायी जाती हैं जो कि सारणी ‘अ’ में दी हुई होती हैं। पार्षद अन्तर्नियम में प्रायः निम्नलिखित बातें लिखी जाती हैं 

(1) सारिणी ‘अ’ किस सीमा तक लागू होगी ?.

(2) अंश पूँजी की कुल राशि व उसका विभिन्न प्रकार के अंशों में विभाजन ।

(3) न्यूनतम अभिदान राशि (Minimum Subscription) (4) अंशों की याचना राशि व याचना विधि।

(5) अंशों के आवंटन की विधि।

(6) अंश प्रमाण-पत्र निर्गमन की विधि।

(7) अंशों के अपहरण एवं पुनर्निगमन की विधि।

(8) अंशों के हस्तान्तरण की विधि ।

(9) दो याचनाओं के मध्य कितना समय होना चाहिये।

(10) अंश पूँजी के पुनर्गठन की विधि।

(11)प्रारम्भिक अनुबन्धों के पुष्टिकरण की विधि ।

(12) ऋण लेने के अधिकार व ऋण लेने की विधि। (13) अभिगोपकों (Underwriters) के कमीशन के भुगतान की विधि ।

(14) सभाओं के आयोजन र सदस्यों को सूचना देने की विधि।

(15) प्रस्तावों से सम्बन्धित नियम।

(16) सदस्यों के मताधिकार। करते हैं तो कम्पनी ऐसे कार्यों का पुष्टिकरण कर सकती है। 

(ii) यदि संचालक ने अपने अधिकारों की सीमा में कम्पनी की ओर से कोई अनुबन्ध किया के तो उसके लिये कम्पनी नियोक्ता की तरह उत्तरदायी होती है।

(iii) यदि सचालक अपने नाम से कम्पनी के लिये कोई अनबन्ध करता है तो ऐसी स्थिति में तीसरा पक्षकार सचालक पर अथवा कम्पनी पर या दोनों पर मकदमा कर सकता है क्योंकि ऐसी स्थिति में कम्पनी की स्थिति एक प्रकार से प्रकट नियोक्ता जैसी होती है। 

(2) संचालक ट्रस्टी या प्रन्यासी के रूप में (Directors as Trustees)-संचालक एजेण्ट के साथ-साथ कम्पनी के प्रन्यासी भी होते हैं । प्रन्यासी होने के कारण संचालकों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे पूर्ण सद्भावना एवं ईमानदारी से कार्य करें और किसी व्यक्तिगत हित से प्रभावित न हो । इस प्रकार संचालकों का कम्पनी से विश्वासाश्रित सम्बन्ध है । वे कम्पनी के धन एवं सम्पत्ति का प्रन्यासी हैं किन्तु वह कम्पनी के अंशधारी, ऋणदाता, लेनदार व अन्य पक्षों के लिये प्रन्यासी नहीं हैं। 

(3) संचालक प्रबन्धकीय साझेदार के रूप में (Directors as Managing partners) संचालकों को कम्पनी का प्रबन्धकीय साझेदार भी कहा जाता है क्योंकि वे कम्पनी में प्रबन्ध और नियन्त्रण का कार्य करते हैं और दूसरी ओर कम्पनी के महत्त्वपूर्ण अंशधारी भी होते हैं इस प्रकार कम्पनी में उनकी स्थिति प्रबन्धक एवं साझेदार दोनों ही रूप में होती है। 

(4) संचालक अधिकारी के रूप में (Directors as Officers) कम्पनी अधिनियम की धारा 2 (30) के अनुसार संचालकों को कम्पनी का अधिकारी माना जाता है। 

(5) संचालक कम्पनी के एक कर्मचारी के रूप में (Director as an Employee of the Company)-संचालक और कम्पनी के बीच उनकी नियुक्ति के सम्बन्ध में एक अनुबन्ध होता है जिसके आधार पर संचालक एक निश्चित समय तक कम्पनी को अपनी सेवायें समर्पित करते हैं और बदले में वे कम्पनी से पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं । इस प्रकार संचालक को कम्पनी का कर्मचारी माना जा सकता है। bcom 2nd year memorandum of association in hindi

संचालकों के अधिकार 

(Powers of Directors)

संचालकों के अधिकारों को दो भागों में बाँटा जा सकता है—

(1) सामान्य अधिकार, (2) विशेष अधिकार । इनका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है 

(1) सामान्य अधिकार (General Powers)-कम्पनी अधिनियम की धारा 291 के अनुसार, कम्पनी के संचालक उन सब अधिकारों का प्रयोग कर सकते हैं तथा वे सब काम कर सकते हैं जो एक कम्पनी कर सकती है। संचालकों को अपने अधिकारों का प्रयोग करते समय इस सम्बन्ध में कम्पनी अधिनियम,पार्षद सीमानियम एवं अन्तर्नियमों द्वारा लगाए गए प्रतिवन्धों को ध्यान में रखना चाहिए। 

(2) विशेष अधिकार (Special Powers)-निम्नलिखित अधिकारों का प्रयोग संचालकों द्वारा संचालकों की सभाओं में प्रस्ताव पारित करने के बाद ही किया जा सकता है –

(i) अचानक रिक्त स्थानों की पूर्ति; (ii) अंशधारियों से याचनाएँ माँगने का अधिकार; (iii) ऋणपत्र निर्गमन करने का अधिकार; (iv) अन्य किसी रूप में ऋण लेने का अधिकार; (v) कम्पनी की राशियों को विनियोग करने का अधिकार: (vi) कुछ प्रसंविदे करने का अधिकार; (vii) प्रबन्ध संचालक नियुक्त करने का अधिकार तथा (viii) मैनेजर नियुक्त करने का अधिकार । (ix) कुछ व्यवस्थाओं के अधीन कम्पनी व्यवसाय करना।

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केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालकों की नियुक्ति 

(Appointment of Directors by Central Government)

केन्द्रीय सरकार कम्पनी विधान मण्डल के आदेश से किसी कम्पनी में संचालकों की नियुक्ति कर सकती है । इस सम्बन्ध में संशोधित प्रावधान निम्नलिखित हैं –

(1) कम्पनी अथवा अंशधारियों अथवा जनता के हितों की सुरक्षा के लिए केन्द्रीय सरकार कम्पनी अथवा अंशधारियों अथवा जनता के हितों की सुरक्षा के लिए कम्पनी विधान मण्डल के आदेश पर किसी भी कम्पनी में संचालक अथवा संचालकों की नियुक्ति कर सकती 

(2) कम्पनी विधानमण्डल के आदेश की दशाएँ–कम्पनी विधानमण्डल केन्द्रीय सरकार को किसी कम्पनी में संचालक अथवा संचालकों की नियुक्ति का आदेश तभी देगा, जबकि 

(i) केन्द्रीय सरकार ने इसे कोई अन्याय का मामला संदर्भित किया हो, अथवा 

(ii) कम्पनी के कम से कम 100 सदस्यों द्वारा प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया गया हो; 

(iii) कुल मताधिकार के 1/10 या इससे अधिक भाग पर अधिकार रखने वाले सदस्यों द्वारा प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है।  bcom 2nd year memorandum of association in hindi

(3) सन्तुष्टि पर आदेश कम्पनी विधानमण्डल ऐसा आदेश देने से पूर्व प्रार्थना-पत्र में दी गई बातों की जाँच-पड़ताल करेगा और जब सन्तुष्ट हो जायेगा कि कम्पनी में सदस्य या सदस्यों के साथ हो रहे अन्याय या जनहित के विरुद्ध हो रहे कार्यों को रोकने के लिए संचालकों की नियुक्ति आवश्यक है, तो वह नियुक्ति का आदेश निर्गमित कर देगा। 

(4) संचालकों की संख्या केन्द्रीय सरकार कम्पनी विधान मण्डल के आदेश द्वारा निर्धारित संख्या में संचालकों की नियुक्ति कर सकती है, अधिक नहीं। (5) अतिरिक्त संचालकों की नियुक्ति का आदेश जब तक कम्पनी विधानमण्डल के आदेश के अनुसार कम्पनी में निर्धारित संख्या में नवीन संचालकों की नियुक्ति नहीं की जाती है, तब तक के लिए कम्पनी अथवा उसके अंशधारियों अथवा जन-हित के प्रभावी ढंग से सरक्षा करने के लिए पनी विधान मण्डल के आदेश के अनुसार केन्द्रीय सरकार अतिरिक्त संचालकों की नियुक्ति कर सकती है।

(6) योग्यता अंश लेने अथवा पारी से अवकाश ग्रहण नहीं करना-केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त संचालकों पर योग्यता अंश लेने अथवा पारी से अवकाश ग्रहण करने वाले नियम लागू नहीं होंगे। 

(7) अधिकतम कार्यकाल 3 वर्ष कम्पनी विधान मण्डलों के आदेश के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त संचालकों का कार्यकाल तीन वर्ष से अधिक नहीं होगा। 180 संचालक मण्डल के गठन में परिवर्तन पर प्रतिबन्ध-इस धारा के अन्तर्गत संचालकों का अतिरिक्त संचालकों की नियुक्ति के पश्चात उनके कार्यकाल तक कम्पनी के संचालकल में कोई भी परिवर्तन तब तक प्रभावी नहीं होगा, जब तक कि उसका कम्पनी विधान मण्डल द्वारा अनुमोदन न कर दिया जाय। 

(9) केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्देश जारी करना जब तक कि प्रस्तुत अधिनियम अथवा किसी अन्य अधिनियम में इसके विरुद्ध कोई अन्य बात न हो,जब केन्द्रीय सरकार किसी कम्पनी में संचालकों अथवा अतिरिक्त संचालकों की नियुक्ति करती है, तो वह उन्हें कम्पनी के मामलों में कोई ऐसा निर्देश दे सकती है, जो कि उसकी दृष्टि से आवश्यक अथवा उपयुक्त हो । 

(10) केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त संचालकों की गणना केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त संचालकों की गणना कम्पनी द्वारा नियुक्त 2/3 संचालकों अथवा अन्य अनुपात द्वारा नियुक्त संचालकों की संख्या में नहीं की जायेगी। 

(11) संचालकों को हटाने एवं नियुक्त करने का अधिकार केन्द्रीय सरकार को अधिकार है कि वह अपने द्वारा नियुक्त संचालकों अथवा अतिरिक्त संचालकों को हटाकर उनके स्थान पर नवीन संचालकों की नियुक्त कर दे । किन्तु इनका कार्यकाल वही होगा जो कि पहले के संचालकों का था। 

(12) सामयिक प्रतिवेदन केन्द्रीय सरकार अपने द्वारा नियुक्त संचालकों में कम्पनी के कार्यकलापों के सम्बन्ध में समय- समय पर प्रतिवेदन की माँग कर सकती है। 

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संचालकों का पदत्याग या स्थान रिक्त होना 

(Vacation of Directors)

धारा 168 के अनुसार एक संचालक का पद उसकी नियुक्ति के बाद निम्नलिखित दशाओं में रिक्त हो जाता है- 

(1) योग्यता अंश न लेना-यदि एक संचालक नियुक्ति के बाद निर्धारित 2 माह की अवधि के भीतर योग्यता अंश नहीं ले या अन्य किसी भी समय योग्यता अंशों पर स्वामित्व को छोड़ दे या निर्धारित सीमा से कम योग्यता अंशों का वह स्वामी रह जाये

(2) अस्वस्थ मस्तिष्क का हो जाना-यदि उसे किसी सक्षम न्यायालय द्वारा अस्वस्थ मस्तिष्क का पाया जाये या पागल घोषित कर दिया जाये। 

(3) दिवालियेपन के लिए आवेदन-पत्र-यदि उसने दिवालिया होने के लिए न्यायालय में आवेदन-पत्र प्रस्तुत कर दिया हो।

(4) दिवालिया घोषित किया जाना—-यदि उसे न्यायालय द्वारा दिवालिया घोषित कर दिया गया हो। (5) नैतिक अपराध का दोषी-यदि वह किसी भारतीय या विदेशी न्यायालय द्वारा नैतिक अपराध का दोषी पाया गया हो और उसे कम से कम 6 माह की सजा मिली हो । 

(6) याचना राशि का भुगतान न करना -यदि वह भुगतान की अन्तिम तिथि के 6 माह में भी याचना राशि का भुगतान न कर पाये। यह नियम उस समय लागू नहीं होगा, यदि केन्द्रीय सरकार गजट द्वारा सूचना देकर इस त्रुटि से उत्पन्न अयोग्यता को हटा देती है। 

(7) लगातार तीन सभाओं में अनुपस्थित रहना-वह संचालक मण्डल की लगातार तीन सभाओं से या तीन माह में होने वाली सभाओं से,जो भी अवधि अधिक है,संचालक मण्डल से अनुमति लिये बिनाअनुपस्थित रहता है। 

(8) कम्पनी से ऋण लेना-यदि वह स्वयं उसके लाभ के लिए कोई अन्य व्यक्ति या कोई फर्म जिसमें वह साझेदार है या कोई निजी कम्पनी जिसमें वह संचालक है, केन्द्रीय सरकार की आज्ञा प्राप्त किये बिना कम्पनी से कोई ऋण या ऋण के लिए प्रतिभति स्वीकार करता है।

(9) अनुबन्ध में हित प्रकट न करना यदि वह कम्पनी द्वारा किये गये अथवा किये जाने . वाले किसी अनुबन्ध में अपना हित प्रकट नहीं करता। 

(10) न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित किया जाना—कपटपूर्ण कार्यों के लिए यदि न्यायालय उसे संचालक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दे। 

(11) पद समाप्त हो जाने पर-यदि संचालक के रूप में उसकी नियुक्ति कम्पनी में किसी पद या अन्य रोजगार के कारण हुई, तो बाद में उस पद या रोजगार की समाप्ति पर उसका संचालक पद भी रिक्त हो जाता है। ऊपर वर्णित संख्या 4, 5 व 10 की दशा में संचालक का पद तुरन्त रिक्त न होकर दिवालिया घोषित होने, सजा होने या न्यायालय के आदेश के 30 दिनों बाद में रिक्त माना जायेगा । अन्य शब्दों में इन तीन परिस्थितियों में संचालक के स्थान रिक्त होने की व्यवस्था 30 दिनों बाद प्रभावी होती है। 

(12) अन्य दशाएँ-कुछ अन्य दशाओं में भी संचालक का स्थान रिक्त माना जाता है। जैसे- (i) मल संचालक के लौट आने पर-एक वैकल्पिक संचालक का स्थान उस समय रिक्त हो जाता है,जब मूल संचालक उस राज्य में लौट आता है,जहाँ संचालक मण्डल की सभाएँ होती 

(ii) लाभ का पद ग्रहण करने पर एक संचालक का स्थान उस समय भी रिक्त माना जाता है,जब विशेष प्रस्ताव पारित कराके सहमति प्राप्त किये बिना वह उस कम्पनी या उसकी सहायक कम्पनी में कोई लाभ का पद ग्रहण कर लेता है। 

(ii) अतिरिक्त संचालक का पद रिक्त होना अतिरक्ति संचालकों की नियुक्ति आगामी व्यापक सभा तक के लिए ही होती है । इसके बाद उनका स्थान स्वतः ही रिक्त हो जाता है। 


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