bcom 1st year business communication pdf notes in hindi
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Business Communication Notes pdf
- Introducing Business Communication
- Self-development and Communication
- Corporate Communication
- Principles of Effective Communication
- Writing Skills
- Report Writing
- Oral presentation
- Non-Verbs aspects of Communication
सम्प्रेषण सिद्धान्त
Communication Theory
सन्देश के माध्यम से सम्प्रेषण मनुष्यों को एक-दूसरे से जोड़ता है। सम्प्रेषण को किसी सीमा में बाँधना प्रायः असम्भव ही है, बल्कि इसे कुछ मापदण्डों के आधार पर पूरा किया जाता है। सर्वहित में सम्प्रेषण को जिन मान्यताओं, सीमाओं व परिवेश में सम्पन्न किया जाता है, उन्हें सम्प्रेषण सिद्धान्त कहते हैं, अर्थात् सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में आदर्श मूल्यों की रक्षा व स्थापना हेतु सार्वभौमिक समुदाय के लिए निर्धारित सीमा में किया गया सम्प्रेषण ही सम्प्रेषण सिद्धान्त है।
सम्प्रेषण के सिद्धान्त
(Theories of Communication)
विश्व में सम्प्रेषण के निम्नलिखित सात सिद्धान्त हैं
- वैदिक सम्प्रेषण सिद्धान्त (Vedic Theory of Communication)
- रूढ़िवादी सम्प्रेषण सिद्धान्त (Conservative Theory of Communication)
- इस्लामिक सम्प्रेषण सिद्धान्त (Islamic Theory of Communication)
- साम्यवादी सम्प्रेषण सिद्धान्त (Communist Theory of Communication)
- चीनी सम्प्रेषण सिद्धान्त (Chinese Theory of Communication)
- उदारवादी सम्प्रेषण सिद्धान्त (Liberal Theory of Communication)
- मसीही सम्प्रेषण सिद्धान्त (Christian Theory of Communication)
व्यावसायिक सम्प्रेषण का आशय एवं परिभाषा
(Meaning and Definitions of Business Communication)
जन्म के साथ ही मनुष्य की सम्प्रेषण या संचार क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। सामान्य बालचाल की भाषा में ‘सम्प्रेषण’ से आशय उस वार्तालाप से है, जो किन्हीं दो प्राणियों के मध्य किसी विशिष्ट बिन्दु, सूचना या जानकारी के लिए होता है। किसी भी भाप सम्प्रेषण ही होता है। ‘सम्प्रेषण’ का अंग्रेजी समानार्थी शब्द ‘Comm..- लैटिन शब्द ‘communication’ से बना है जिसका अर्थ होता है- ‘आपस वस्तु के सम्पूर्ण नियोजन में हिस्सा बाँटना’।
विश्व में निरन्तर प्रगतिशील आधुनिक व्यावसायिक परिवेश में सम्प्रेष द्वारा निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया गया है
कीथ डेविस के अनुसार, “सम्प्रेषण एक से दूसरे व्यक्ति के बीच सर समझने की प्रक्रिया है।”
किसी भी भाषा का अन्तिम लक्ष्य a Communication’ है। यह *_’आपस में बाँटना’ या ‘किसी परिवेश में सम्प्रेषण को कुछ विद्वानों दसरे व्यक्ति के बीच सूचना प्रदान करने व
जॉर्ज आर० टेरी के अनुसार, “सम्प्रेषण के अन्तर्गत एक या उससे अधिक मध्य तथ्यों, विचारों तथा भावनाओं का आदान-प्रदान होता है।” उपर्यस्त परिभाषाओं के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि सम्प्रेषण एक ऐसी प्रक्रिया दै जिसमें सम्प्रेषक और संग्राहक के बीच सामंजस्य स्थापित हो, उनमें जागरूकता सम्प्रेषण एक ऐसी कार्यवाही है जिसके द्वारा जनता के ज्ञान, विचार और अभिनव निर्माण किया जाता है या उन्हें परिवर्तित किया जाता है।
सम्प्रेषण की प्रकृति
(Nature of Communication)
सम्प्रेषण की प्रकृति के नाना रूप दृष्टिगत होते हैं। इनको प्रमुख बिन्दुओं के रूप में निम्नवत् उद्घाटित किया जा सकता है
उचित माध्यम का चयन
(Selection of Proper Media)-
सम्प्रेषण के लिए किसी माध्यम का होना अत्यन्त आवश्यक है। सम्बन्धित सन्देश हेतु प्रयुक्त उचित माध्यम, सन्देश की विषय-वस्त से भी मेल खा जाता है। सन्देश के प्रसारण के लिए उचित माध्यम हो, जिससे सन्देश को स्पष्ट रूप से सम्प्रेषित किया जा सके।
तथ्यों व अनुभवों से सम्बद्ध
(Related to Facts and Experience)
सम्प्रेषण की प्रकृति तथ्यपरक तथा अनुभवों के हस्तान्तरण के रूप में होती है। निश्चित का सम्प्रेषण किया जाता है।
सतत प्रक्रिया (Regular Process)-
सम्प्रेषण की क्रिया प्रारम्भ हा सतत रूप से तब तक चलती रहती है जब तक कि सम्बन्धित विषय पूण 7 बारम्बारता में विघ्न उत्पन्न नहीं होता है. अन्यथा सम्प्रेषण का उद्दश्य जा
कला का वितति सर्वोत्तम ढंग से प्रस्तत किया जाता है जो कला का मूल तत्त्व हा का मिश्रण से ही सम्प्रेषण को प्रभावशाली बनाया जाता है।
जन्मजात प्रकृति
सम्प्रेषण के कारण ही मानव अन्य प्राणियों से भिन्न ISS)-सम्प्रेषण की क्रिया प्रारम्भ होने के पश्चात्न्धित विषय पूर्ण न हो जाए। उसकी सम्प्रषण का उद्देश्य खण्डित हो जाएगा।
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Developed form of Art
सम्प्रेषण द्वारा कार्य का मूल तत्त्व है। कला व विज्ञान दोनों के सही तथा प्राकृतिक गुण है।
‘ (Nature by Birth) सम्प्रेषण एक जन्मजात प्रकात अन्य प्राणियों से भिन्न लेकिन श्रेष्ठ है।
सम्प्रेषण के प्रमुख तत्त्व
(Main Elements of Communication)
सम्प्रेषण के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं
(1) सम्प्रेषण मानवीय विचारों एवं तथ्यों के कारण विस्तृत क्षेत्र वाला होता है।
(2) सम्प्रेषण का अस्तित्व उसके प्रवाह, क्रम एवं अनुक्रम की शृंखला पर निर्भर करता है। सम्प्रेषण प्रक्रिया के अन्तर्गत विचारों को जन्म से लेकर उन्हें उचित माध्यम द्वारा उचित व्यक्ति तक पहुँचाने की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है ताकि सूचनाग्राही इस प्राप्त सूचना का अनुकूल एवं प्रभावी प्रयोग कर सके।
(3) सम्प्रेषण के अन्तर्गत सूचनाओं का संचरण एवं बोधगम्यता होती है। इसका अभिप्राय है कि प्रभावी सम्प्रेषण एक द्विमार्गी प्रक्रिया है।
(4) सम्प्रेषण में तीन आन्तरिक परिपथ-आरोही, अवरोही व पालवीय होते हैं, जिनमें आपस में अन्तर्सम्बद्धता व क्रॉस होते हैं।
(5) सम्प्रेषण का एक माध्यम होता है जिसके द्वारा विचारों एवं सूचनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाना होता है, चाहे वह मौखिक रूप से है या लिखित रूप से, चित्र द्वारा अथवा शारीरिक यात्रा द्वारा पहुँचाया जाए।
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सम्प्रेषण के उद्देश्य
(Objectives of Communication)
सही व्यक्ति को सही तरीके से, सही जगह पर, सही सूचना पहुँचाना ही सम्प्रेषण का प्रमुख उद्देश्य होता है। संक्षेप में सम्प्रेषण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
कार्यों में समन्वय (Coordination in Works)-
सम्प्रेषण का प्रमुख उद्देश्य संवेगों को निश्चित व्यक्ति तक सही रूप में पहँचाना होता है। इसमें सूचना, आदेश, तथ्य, सलाह आदि को प्रेषित किया जाता है। इसके लिए समस्त कार्य-कलापों में समन्वय होना आवश्यक होता है।
नीतियों का क्रियान्वयन (Application of Policies)-
क्रियान्वयन का को इस प्रकार से गठित किया जाता है कि सम्प्रेषण के उद्देश्य का क्षय न हो पाए। शीघ्र निर्णय लेने के लिए समंकों का संकलन आवश्यक क्रिया है। अतः सम्बन्धित सूचनाओं का उचित संकलन किया जाता है।
प्रबन्धन कौशल में वृद्धि (Increase in Management Skill)-
स 4 उद्दश्य मानव-व्यवहार को सही समय पर सही रूप में समझना भी है। सम्प्रेषण के द्वारा सीखने की क्रिया पर्णत्व को प्राप्त करती है।
सही सूचनाओं का प्रेषण (Communication of Correct. mation)-
सही सचना का प्रेपण करना ही सम्प्रेषण का प्रमुख उद्देश्य माना गया। व्यक्ति तक समुचित सन्देश पहुचाना इस
कि समुचित सन्देश पहुँचाना इसका परम लक्ष्य है। यदि सम्प्रेषण की सामग्री प्राप्तकत्ता ही खण्डित हो जाएगा। द्वारा निश्चयात्मकता तक उचित रूप में नहीं पहुँच पाती है तो सम्प्रेषण का मूल उद्देश्य ही खटिन अधिकारियों व कर्मचारियों के मध्य सुझावों का आदान-प्रदान सम्प्रेषण के द्वारा निक को प्राप्त करता है और लक्ष्य की ओर तीव्रता से बढ़ता जाता है।
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सम्प्रेषण का महत्त्व
(Importance of Communication)
वर्तमान समय में व्यावसायिक क्षेत्र में सम्प्रेषण का उपयोग बढ़ता ही जा रहा उपयोगिता के साथ-साथ इसके महत्त्व में भी आशातीत वृद्धि हो रही है। वर्तमान समय में सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाना एक अनिवार्यता बन चुकी है। इस क्रिया के द्वारा व्यक्ति अपनी हर प्रकार की भावनाओं तथा सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है। संगठनों के लगातार बढ़ते आकार के कारण वर्तमान समय में सम्प्रेषण का महत्त्व नित्यप्रति बढ़ता जा रहा है। सम्प्रेषण की कला में जो व्यक्ति दक्षता प्राप्त कर लेता है, वह विभिन्न क्षेत्रों में लाभदायक स्थिति को प्राप्त होता है।
मानव की विकास-यात्रा के साथ-साथ सम्प्रेषण का स्वरूप व आकार भी बदलता गया है और आज इसका अत्यन्त परिष्कृत रूप हमारे उपयोग के लिए उपलब्ध है। वास्तव में, व्यक्ति की आवश्यकताओं ने ही सम्प्रेषण की माँग को जन्म दिया है। प्राचीन सूचना-सम्प्रेषण के माध्यमों-लकड़ी व पत्तों के प्रयोग से लेकर भाषा, लिपि, प्रिण्टिग प्रेस, रेडियो, फिल्म, दूरभाष, टेलीविजन, सेटेलाइट या उपग्रह एवं मोबाइल की यात्रा आदि मनुष्य की सम्प्रेषण से सम्बन्धित असीमित आवश्यकताओं का ही परिणाम है, जिसमें जिजीविषा के उत्कर्ष का भी प्रकटन होता है।
सम्प्रेषण के तौर-तरीकों के अच्छे या बुरे होने का व्यक्ति की व्यावसायिक स्थिति पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सम्प्रेषण की क्रिया ही किसी व्यक्ति को उच्च आयामों का स्पर्श करा सकती है तथा यही व्यक्ति की प्रतिष्ठा को अवनति की ओर भी धकेल सकती है। . .
निम्नलिखित तथ्यों से सम्प्रेषण के महत्त्व का यथेष्ट ज्ञान हो जाता है –
क्रियाशीलता एवं समन्वय-क्षमता का विकास (Development of Effectiveness and Coordination Skill)-
सम्प्रेषण के बिना एकता व क्रियाशीलता का आना असम्भव है। सम्प्रेषण व्यक्तियों में सहयोग व समन्वय-क्षमता का विकास करता है। आपस में सूचनाओं व विचारों का आदान-प्रदान व्यक्तियों की एकता व क्रियाशीलता को बढ़ाता है।
नेतृत्व गुण के विकास हेतु आवश्यक (Necessary for Leadership Qualities)-
सम्प्रेषण-कुशलता नेतृत्व शक्ति की पूर्व अनिवार्य शर्त है। यह प्रभाव उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया है। सम्प्रेषण में दक्ष एक प्रबन्धक अपने कर्मचारियों का वास्तविक नेता होता है। एक अच्छे सम्प्रेषण निकाय में व्यक्ति एक-दूसरे के निकट आते हैं और उनके आपसी विरोधाभास दूर हो जाते हैं।
योजना-निर्माण में सहायक (Helpful in Planning)-
एक प्रभावशाली सम्प्रेषण सदैव संगठन की योजना के निर्माण व क्रियाशीलता में सहायक होता है। किसी योजना को क्रियाशील करने तथा योजना के निर्धारित लक्ष्यों व उद्देश्यों को प्राप्त करने में सम्प्रेषण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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सम्प्रेषण का प्रबन्धकों के लिए महत्त्व
(Importance of Communication for Managers)
आज व्यावसायिक पर्यावरण बदल चुका है। प्रबन्धन की अवधारणा भी बदलती जा रही है, इसमें नित नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। चूँकि सम्प्रेषण में किसी व्यक्ति या समूह के विचारों एवं भावनाओं को अन्य व्यक्तियों या समूहों में पहुँचाने की क्षमता होती है, अत: प्रबन्धक के लिए यह अनिवार्य है कि वह समय पर उचित सूचनाओं (जैसे-नए उत्पाद के बाजार में आने से पूर्व वर्तमान बाजार व आवश्यक पूँजी की जानकारी) को संगृहीत करे तथा अपन उद्देश्यों में सफल हो।
एक प्रबन्धक के लिए यह भी आवश्यक है कि वह नियन्त्रण के द्वारा अपने व्यवसाय को भली-भाँति संचालित करे। उत्पादन लक्ष्यों को प्राथमिकता के आधार पर निचले व्यावसायिक खण्डों में सम्प्रेषित किया जाए और उनके परिणामों को प्रबन्धक तक पहुचाया जाए। एक अच्छे प्रबन्धक का गुण होता है कि वह सम्प्रेषण के माध्यम से उचित और काधिक जनसम्पर्क बनाए क्योंकि उचित जनसम्पर्क एक उपक्रम के लिए अत्यन्त है। वास्तव में, एक प्रबन्धक द्वारा समस्त प्रबन्धकीय कार्य सम्प्रेषण के माध्यम से ही अधिकाधिक जनसम्पर्क बनाए र आवश्यक है। वास्तव में, एक प्रबन्धक सम्पन्न किए जाते हैं। धन के क्षेत्र में कार्यरत प्रबन्धक की निम्नलिखित पाँच मुख्य क्रियाएँ हो सकती है
1.प्रोत्साहन व सम्प्रेषण करना
2.संगठित करना।
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ई-कॉमर्स से आशय
(Meaning of e-commerce) –
आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में सूचना क्रान्ति की तीव्रता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। प्रशासनिक तन्त्र तथा व्यापारी जगत पर इसका प्रभाव विशेष रूप से परिलक्षित होता है। इस प्रौद्योगिकी ने व्यावसायिक, व्यापारिक, वाणिज्यिक गतिविधियों में दखल देकर अर्थव्यवस्था को . एक नया आयाम ‘ई-कॉमर्स’ के रूप में दिया है।
ई-कॉमर्स’ में ‘ई’ से अभिप्राय ‘इलेक्ट्रॉनिक’ और ‘कॉमर्स’ से अभिप्राय ‘व्यापारिक लेन-देन’ से है।
‘ई-कॉमर्स’ के प्रयोग ने सूचना प्रौद्योगिकी व उन्नत कम्प्यूटर नेटवर्क की सहायता से व्यापारिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों को अत्यन्त कार्यकुशल बनाया है। ‘ई-कॉमर्स’ ने कागजों पर आधारित पारस्परिक वाणिज्यिक पद्धतियों को अत्यन्त समर्थ व विश्वसनीय संचार माध्यमों से युक्त कम्प्यूटर नेटवर्क द्वारा विस्थापित करने का महत्त्वाकांक्षी प्रयास किया है।
ई-कॉमर्स की कार्य-पद्धति
(Mechanism of e-commerce)
ई-कॉमर्स प्रणाली का मुख्य आधार ‘इलेक्ट्रॉनिक डाटा-इण्टरचेंज’ है, जिसके अन्तर्गत आँकड़ों को परिवर्तित तथा स्थानान्तरित करने की सुविधा होती है। इस प्रणाली के अन्तर्गत ग्राहक जब वेबसाइट पर उपलब्ध सामान को पसन्द करके क्रय करता है तो उसे भूगतान के लिए कम्प्यूटर पर उपलब्ध एक फार्म भरना होता है। इस फार्म पर वह अपना क्रेडिट कार्ड नं०, देय राशि व पाने वाले व्यक्ति का नाम आदि सूचनाओं को अंकित करता है। इस फार्म के भरते ही व्यक्ति/ग्राहक के खाते में से उचित धनराशि विक्रेता के खाते में स्थानान्तरित हो जाती है। E.D.C. के अन्तर्गत ही वर्तमान समय में एक नई प्रणाली विकसित की गई है, जिसमें क्रेता कम्प्यूटर पर अपने डिजिटल हस्ताक्षर कर चैक काट सकने में भी सक्षम होता है। इसे ‘नेट चैक’ कहते हैं।
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ई-कॉमर्स के प्रकार
(Types of e-commerce)
ई-कॉमर्स के तीव्र प्रसार के कारण इसके प्रकारों को अनेक वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है, लेकिन प्रचार की तीव्रता के अनुसार इसके निम्नलिखित तीन प्रकारों को अधिक मान्यता प्राप्त हुई है
- बी-टू-बी (Business to Business),
- सी-टू-बी (Consumer to Business) तथा
- आन्तरिक खरीद (Internal Procurement)।
1. बी-टू-बी (Business to Business)-
‘बिजनेस-टू-बिजनेस’ ई-कॉमर्स व्यापार की विभिन्न गतिविधियों को सुचारु रूप से एवं तीव्रता से निष्पादित करने हेतु उचित वाटावरण तैयार करने में मददं करने के साथ-साथ खर्चों में भी कटौती हेतु काफी कारगर है। “रनेट के आविष्कार से पूर्व भी इस प्रकार की गतिविधियाँ व्यापारिक जगत में प्रचलित थीं “पि उनमें आज के जैसे विस्तृत आयामों का अभाव था। इण्टरनेट के आविष्कार के द्वारा व्यापारिक संस्थाओं ने तकनीक के क्षेत्र में उच्चता की अभिप्राप्ति की है तथा कार्य-व्यापार का निष्पादन भी निर्बाध रूप से सुधरा है।
सी-टू-बी (Consumer to Business)-
ई-कॉमर्स का यह प्रकार वेबसाइट व उन पर उपलब्ध सॉफ्टवेयर ‘क्रेता’ के नजरिए में विभिन्न प्रकार की भुगतान विधियाँ उपलब्ध करा देने में सक्षम होता है। ई-कॉमर्स का यह प्रकार मुख्यत: टेली शॉपिंग, मेल जाडर, टेलीफोन ऑर्डर इत्यादि का विस्तार–मात्र है। इस माध्यम से उपभोक्ता अपनी “वश्यकता को इण्टरनेट के द्वारा विक्रेता तक पहुँचाता है तथा तदनुरूप विक्रेता कार्यवाही कर क्रेता के अनगामी पग उठाता है। इस समस्त प्रक्रिया में इण्टरनेट तथा उससे सम्बनिभाः कम्प्यूटरों की विशेष भूमिका होती है। इस प्रकार अब यह क्रय-विक्रय का सर्वाधिक उपय साधन होता जा रहा है।
आन्तरिक खरीद (Internal Procurement)-
अधिकांश कम्पनियाँ अपने ‘एण्टरप्राइज रिसोर्स प्लानिंग’ को वेबसाइट से जोड़कर वाणिज्यिक गतिविधियाँ कर रही इन सभी कम्पनियों का प्रमुख उद्देश्य ई-कॉमर्स द्वारा व्यापारिक प्रतिष्ठानों की सीमाओं से पी आन्तरिक व्यापारिक गतिविधियों को स्वचालित बनाने का है। ये इण्टरनेट पर बिक्री ऑर्जी की प्रोसेसिंग/बिल्डिंग/धन का लेन-देन व अन्य सम्बन्धित कारोबार अपने खर्चों में कटौती करने के लिए करती हैं। इण्टरनेट की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि सूचना के इस अकूत और अनमोल खजाने की चाबी किसी एक आदमी या कम्पनी की मुट्ठी में कैद नहीं है। इस तक वह हर व्यक्ति पहुँच सकता है, जिसके पास एक कम्प्यूटर, एक मॉडम और एक टेलीफोन है।
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ई-कॉमर्स के लाभ
(Advantages of e-commerce)
ई-कॉमर्स से अनेक लाभ हैं। इन लाभों की एक विस्तृत श्रृंखला है। व्यवसाय के क्षेत्र से सम्बन्धित इसके लाभ दो प्रकार के हो सकते हैं—प्रथम, उपभोक्ताओं को होने वाला लाभ तथा द्वितीय, विक्रय संस्थाओं को होने वाला लाभ। बिन्दुवार इन लाभों को निम्नलिखित क्रम में रखा जा सकता है
(क) उपभोक्ताओं को लाभ (Advantages to consumers)
(1) वांछित वस्तुओं व सेवाओं के चयन में सुविधा।
(2) बिल का भुगतान स्वत: ही विक्रेता के पक्ष में हो जाना।
(3) उत्पादों की विशेषताओं व मूल्यों का तुलनात्मक अध्ययन
(4) बिचौलियों की क्रियाविधि की पूर्णतः परिसमाप्ति।
(5) किसी भी समय वस्तुओं को क्रय करने की सुविधा।
(6) क्रय-विक्रय हेतु बाजार में बारम्बार आवागमन से मुक्ति।
(7) किसी भी वस्तु की खरीद में प्राप्त छूटों की जानकारी का लाभ।
(ख) विक्रेताओं/कम्पनियों को लाभ (Advantages to Vender/Companies)
(1) उत्पादकों, वितरकों तथा व्यापारिक सहयोगियों में व्यापारिक सूचनाओं का आदान-प्रदान व व्यापारिक खर्चों में कटौती। ..
(2) नए बाजारों व ग्राहकों तक पहुँचने में आसानी।
(3) दस्तावेजों में समंकों की शुद्धता।
(4) व्यापार चक्र की गतिविधियों में तीव्रता।
(5) कागज की खपत में कमी।
(4) विक्रेताओं के लिए नए उत्पादों की जानकारी तथा आवाजाही की सुविधा।
(5) नए उत्पादों, वस्तुओं और सेवाओं को सम्मिलित करने में सुधार।समग्र गुणवत्ता के कारण गणितीय त्रुटि का लगभग पूर्ण अभाव।
(6) व्यापारिक आदान-प्रदान के निमित्त विक्रेता को अधिक समय मिलना।
भारत में ‘ई-कॉमर्स का भविष्य
(Future of e-commerce in India)
‘ई-कॉमर्स’ ने वाणिज्य एवं व्यापार को एक नए ढंग से करने के लिए वातावरण बनाया है, जिसमें बढ़ोतरी होने की शत-प्रतिशत सम्भावना है। व्यापारिक लेन-देन व व्यापारिक गतिविधियों को कुशलता से सम्पादित करने हेतु उचित वातावरण व तालमेल व्यावसायिक सफलता के लिए आवश्यक होगा।
आज भारत ई-कॉमर्स की अधिकांश सुविधाओं से सम्पन्न हो चुका है। इसकी सुचारुता बनी रहे, इसके लिए केन्द्रीय सरकार ने 2000 ई० में एक ‘सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम’ पारित कर दिया है। इस प्रकार के शासकीय अधिनियम अभी कुछ विकसित राष्ट्रों में ही पारित किए जा सके हैं। ई-कॉमर्स पर व्यापार सम्बन्धी अभिलेखों को न्यायालय में भी साक्ष्य अधिनियम के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त हो गई है। इन अभिलेखों को न्यायालय में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इन समस्त बिन्दुओं पर विचार करने पर सहज रूप से ही यह कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में ई-कॉमर्स का कार्य-क्षेत्र अधिक विस्तार ग्रहण करेगा तथा निश्चित रूप से भारत में इसका भविष्य सुरक्षित तथा उज्ज्वल है।
जीवनवृत्त सारांश का आशय
(Concept of Resume)
करीकुलम विटे (सी० वी०) अर्थात् जीवनवृत्त-सारांश एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है, यदि यह प्रभावशाली होगा तो आपको अवश्य ही साक्षात्कार के लिए बुलाया जाएगा, और यदि यह प्रभावशाली नहीं हुआ तो आपको बिना साक्षात्कार के लिए बुलाए नौकरी
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समूह चर्चा
(Group Discussion)
प्रबन्धन संस्थान, नौकरियों की तलाश कर रहे विद्यार्थियों की सम्प्रेषणशीलता या कम्युनिकेटिव जाँच करने के लिए सामूहिक परिचर्चा के सशक्त माध्यम हैं। आज के प्रतियोगितात्मक एवं प्रतिस्पर्धात्मक युग में विभिन्न सहयोगियों के बीच सम्प्रेषण के महत्त्व को समझते हुए विभिन्न प्रबन्धन संस्थान तथा प्रयत्नकर्ता लिखित परीक्षा और व्यक्तिगत साक्षात्कार के अलावा सामूहिक परिचर्चा परीक्षण का सहारा लेकर योग्य आवेदनकर्ताओं का चयन करते हैं। अतः स्पष्ट है कि समूह चर्चा में एक समस्या या नीतियों पर मौखिक चर्चा करके निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है।
समूह चर्चा के मूल उद्देश्य
(Fundamental Objectives of the Group Discussion)
नियो के मध्य जो वार्तालाप का संचार होता है, उसमें विशिष्ट कौशल के तत्त्वों ‘ का समावेश कर वात्तो का तकसगत रूप प्रदान किया जा सकता है। इसी को
कहा गया है। आदिकाल से ही मानव का दूसरे मानव के साथ यह वार्ता-कौशल जारी है।
वा के दौर में इस कौशल ने नए आयामों का स्पर्श किया है। मित्र-मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी. मालिक-नौकर के बीच विचार-विमर्श ही वार्तालाप है। यह साझे का सौदा है, वस्ता-श्रोता के बीच सहमति है। वक्ता सदैव श्रोता की मनःस्थिति, अभिरुचि और इच्छा के अनरूप ही अपनी बातें रखता है। श्रोता उठने लगे, कतराने लगे, अनायास चुटकी लेने लगे तो वक्ता असफल है। श्रोता से तालमेल बैठाकर ही विचार-विनिमय के मूल उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है। अध्ययन की दृष्टि से समूह चर्चा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं
(1) समूह चर्चा का लक्ष्य विचारों/आदर्शों की प्रस्तुति व इस सम्बन्ध में प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करना होता है जिससे आगे की जिज्ञासा प्रकट होती है, जो पुनः प्रश्न और प्रतिप्रश्न पूछने का निमित्त बनती है। 4
(2) समूह चर्चा में विभिन्न रचनात्मक विचारों के द्वारा समस्या का सम्यक् निदान ढूँढ़ा जाता है।
(3) निर्णय प्रक्रिया में विशिष्ट प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित होते हैं, अतः समूह चर्चा में इन विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा निर्णय दिए जाते हैं। इस प्रकार की समूह चर्चा के लिए स्पष्ट व रचनात्मक भाषा होती है।
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समूह चर्चा के समय अपनाया जाने वाला आचारशास्त्र
(Behaviour to be Adopted at the Time of Group Discussion)
समूह चर्चा श्रम की विशिष्टता को जन्म देती है क्योंकि इसमें एक अच्छे उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न विषयों में पारंगत व्यक्ति अपने अनुभवों, विचारों, आदर्शों के माध्यम से सहयोग देते हैं। समूह चर्चा में भाग लेने वाले व्यक्तियों का विशेष महत्त्व होता है, अत: इसके सहभागी सदस्यगणों की उपादेयता असंदिग्ध है। इनकी निश्चित सोच का अनुगामी होने से विश्वसनीयता को बढ़ाने में सफलता प्राप्त होती है। समूह चर्चा में प्राय: निम्नलिखित कार्य-व्यापार को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जाता है
- कृत्यक आचरण (Task Behaviour)
- अनुरक्षण आचरण (Maintenance Behaviour) ,
- आत्मनिर्देशित आचरण (Self-directed Behaviour)।
1. कृत्यक आचरण (Task Behaviour)-
इसमें उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण, ज्ञान-स्रोतों का विश्लेषण, समस्याओं को परिभाषित करना, प्रस्तावों का निर्माण, सफलता की कसौटियों की स्थापना, हल को परिभाषित करना, अच्छे हल के लिए स्वीकति मूल्यांकन व संक्षिप्तीकरण सम्मिलित होता है।
2. अनुरक्षण आचरण (Maintenance Behaviour)-
अनुरक्षण आचरण में भागी इस चर्चा में कैसा महसूस कर रहे हैं इस बात को जाना जाता है। इसमें बैठक को कर प्रबन्धित करना है, कौन किसको प्रभावित करता है, कौन किससे बात करता है, कौन हिस्सा है रहा है, कौन और क्यों, एक-दूसरे के प्रस्ताव का समर्थन, सुरक्षा, प्रोत्साहन, तनाव को कम करना व प्रतिपुष्टि (Feedback) देना समाहित होते हैं।
3. आत्मनिर्देशित आचरण (Self-directed Behaviour)-
चर्चा के दौरान उद्देश्यों की प्राप्ति के ढंग का इसके अन्तर्गत विवेचन किया जाता है जैसे वार/प्रतिवार, सुरक्षात्मक व्यवहार, एक-दूसरे के प्रस्तावों पर असहमति, प्रतियोगिता की पहचान या स्वीकृति सहभागिता की अस्वीकृति इत्यादि इसमें समाहित होते हैं।
एक सफल समूह चर्चा की अनिवार्य शर्ते
(Essential Conditions for a Success Group-discussion)
(1) समूह चर्चा में सम्मिलित व्यक्तियों को चर्चा के उद्देश्य/लक्ष्य के प्रति जागरूक रहकर उसके अनुकूल क्रियाशील रहना चाहिए।
(2) समूह चर्चा में इस प्रकार का वातावरण निर्मित होना चाहिए कि प्रत्येक विचार/ आदर्श को अनुकूल व रचनात्मक आलोचनाओं के साथ सुना जाए व प्रोत्साहित किया जाए।
(3) एक समूह चर्चा विभिन्न रुचि व कुशलता वाले व्यक्तियों के विचारों/आदर्शों के संयोजन द्वारा होनी चाहिए।
यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सामूहिक चर्चा का व्यावसायिक सम्प्रेषण के क्षेत्र में अति विशिष्ट स्थान निर्धारित हो चुका है। किसी भी व्यावसायिक संगठन की वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में इसकी उपादेयता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
संगोष्ठी (Seminar)
संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य ज्ञान का वितरण एवं समान ज्ञानी सदस्यों के मध्य अपने-अपने विचारों के प्रस्तुतीकरण से है। सामान्यतः वक्ता एक विशिष्ट विषय पर अपने ज्ञान को विस्तारित कर अपने विचार प्रस्तुत करता है। अन्य सहभागी सदस्य वक्ता के वक्तव्य पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त वाद-विवाद भी करते हैं।
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सम्प्रेषण के आधुनिक साधन
(Modern Means of Communication)
इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में सम्प्रेषण के साधन के रूप में विभिन्न यन्त्रों का आविष्कार हो चुका है। सम्प्रेषण के आधुनिक साधन निम्नलिखित हैं
- फैक्स,
- इलेक्ट्रॉनिक मेल अथवा ई-मेल,
- इण्टरनेट,
- सेल्युलर फोन्स।
सम्प्रेषण के प्रमुख अत्याधुनिक साधनों की विस्तृत विवेचना इस प्रकार है- .
1. फैक्स (Fax or Fasimile)
फैक्स सूचना प्रौद्योगिकी की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इसमें ग्राफ, चार्ट, हस्तलिखित/मुद्रित सामग्री को टेलीफोन नेटवर्क के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर मूल
की फोटो कॉपी के रूप में भेजा जाता है। इसके द्वारा कुछ ही सेकण्डों में टाइप किए हुए या लिखित सन्देश की अधिकाधिक मात्रा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना सम्भव होता हो अन्य शब्दों में, फैक्स के द्वारा मूल प्रति की छायाप्रति दूसरे छोर पर तत्काल उपलब्ध हो सकती है।
यह प्रणाली अन्य प्रणालियों की तुलना में त्वरित व सस्ती है। इसका प्रयोग उस स्थिति में अत्यन्त उपयोगी व लाभप्रद होता है, जब प्रेषक व प्राप्तकर्ता के बीच की दूरी काफी अधिक हो। फैक्स सेवा एक त्वरित व अत्यन्त सस्ती प्रणाली है। इस फैक्स सेवा के जरिए हम अपने लिखित/मुद्रित दस्तावेजों को फोटोकॉपी रूप में सम्बन्धित व्यक्ति तक अविलम्ब प्रेषित कर सकते हैं। आज फैक्स सेवा दैनिक कार्य-प्रणाली का एक प्रमुख अंग बन गई है, इसका प्रयोग स्वास्थ्य, चिकित्सा, व्यापार, कृषि, बैंकिंग, बीमा व शिक्षा इत्यादि क्षेत्रों में अधिकाधिक किया जा रहा है।
2. ई-मेल (e-Mail)
सूचना सम्प्रेषण के इस नवीनतम व उन्नत माध्यम से कम्प्यूटर के द्वारा हम घर बैठे विश्व के किसी भी हिस्से से सम्बद्ध व्यक्ति को सन्देश सम्प्रेषित कर सकते हैं। सन्देश प्राप्तकर्ता चाहे हमसे कितनी ही दूर क्यों न हो, हमारा सन्देश कुछ सेकण्डों/मिनटों में ही सम्बन्धित व्यक्ति तक पहुँच जाता है। ई-मेल के उपयोग से कागज व समय की भी बचत होती है। इसका एक स्थान से दूसरे स्थान के लिए सम्प्रेषण भी सुविधापूर्ण होता है। ई-मेल को सम्प्रेषित करने का माध्यम कम्प्यूटर – होता है। ई-मेल के द्वारा जिस सन्देश या पत्र को प्रेषित करना होता है,
उसकी सामग्री वर्ड प्रोसेसर द्वारा पहले ही तैयार कर ली जाती है, तत्पश्चात् जिस ई-मेल पते पर यह पत्र प्रेषित करना होता है, वहाँ तक इसे टेलीफोन/केबिल नेटवर्क द्वारा प्रेषित कर दिया जाता है। पत्र या सन्देश की समस्त जानकारी सम्बन्धित व्यक्ति की कम्प्यूटर स्क्रीन/टी०वी० स्क्रीन पर प्रदर्शित हो जाती है। आवश्यकता होने पर सन्देश/पत्र कम्प्यूटर की स्मृति में संचित हो जाता है। सम्बन्धित व्यक्ति के लौटते ही कम्प्यूटर से सम्बन्धित एक घण्टी सूचना देगी कि कोई पत्र उसकी प्रतीक्षा में है।
यदि दो व्यक्तियों के इण्टरनेट आपस में कम्प्यूटर के माध्यम से जुड़े हों तो ई-मेल द्वारा एक-दूसरे तक सन्देश का प्रसारण बड़ी सुगमता से किया जा सकता है।
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ई-मेल भेजने की विधि
(Method of Sending e-Mail)
किसी व्यक्ति को ई-मेल प्रेषित करने के लिए सर्वप्रथम विण्डो के Start’ को ‘Click’ करके ‘Programme’ पर ‘Click’ करें। अब आपको कम्प्यूटर में विद्यमान समस्त कार्यक्रमों की सूचना स्पष्ट दिखाई देगी। इस सूची में ‘Outlook Express’ भी द्रष्टव्य होगा। ‘Click’ करने पर ‘Outlook Express’ चालू हो जाएगा। इसके ‘Screen’ पर एक ‘New Mail’ बॉक्स दिखाई देगा। इसे ‘Click’ कीजिए। ‘Click’ करने पर इसमें ‘New Messages’ नामक बॉक्स खलेगा आप इसमें To’ के आगे के खण्ड में e-mail’ पता अंकित कर दें। To’ के नीचे सीसी वाला बॉक्स होता है।
यदि आप अपने सन्देश को एक-से-अधिक व्यक्तियों तक भेजना चाहते हैं तो उन सही व्यक्तियों का (e-mail’ का पता अल्पविराम (,) से अलग करके यहाँ लिख दीजिए। इसके ठीक नीचे ‘Subject’ नामक बॉक्स है, यहाँ पर आप अपने सन्देश का मुख्य हिस्सा लिख दीजिए. तत्पश्चात् पास में ही एक बड़ी खाली जगह दिखेगी, इस खाली जगह पर आप अपना सन्देश लिख दीजिए। पूर्ण सन्देश लिखने के बाद New Messages’ बॉक्स के बायीं ओर ऊपरी कोने में स्थित ‘Send’ नामक बॉक्स पर ‘Click’ कीजिए। यदि आप ‘Modem’ द्वारा इण्टरनेट से जुड़े हैं तो
आपका सन्देश अविलम्ब प्रेषित हो जाएगा, अन्यथा आपका सन्देश ‘Out-Box’ नामक स्थान पर संचित हो जाएगा और जब आप ‘Internet’ से जुड़ेंगे तो यह सन्देश प्रेषित हो जाएगा।
ई-मेल प्राप्त करने की विधि
(Method of Receiving e-Mail)
ई-मेल प्राप्त करना अत्यन्त आसान व सरल है। यदि आपके कम्प्यूटर में ‘Outlook Express’ या कोई ई-मेल सॉफ्टवेयर लगा हो तो आप जैसे ही इण्टरनेट से जुड़ेंगे, यह सॉफ्टवेयर स्वतः ही आपकी डाक या सन्देश की जाँच करेगा। कोई सन्देश या डाक होने पर “Computer Screen’ के निचले हिस्से पर “Take Bar’ में एक-एक सन्देश चमक कर आपको सूचित करेगा। आप ‘Outlook Express’ को ‘Open’ कर अपने ‘e-mail’ सन्देश को पढ़ सकते हैं।
3. इण्टरनेट (Internet) इण्टरनेट आधुनिक संचार-क्रान्ति का महत्त्वपूर्ण पायदान बन चुका है। दूरस्थ स्थानों पर स्थापित कम्प्यूटर नेटवर्क को टेलीफोन लाइन की सहायता से जोड़कर अन्तर्राष्ट्रीय सम्प्रेषण को मूर्त रूप प्रदान किया जा चुका है।
इण्टरनेट की कार्य-प्रणाली में निम्नलिखित भागों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है
- मुख्य सूचना सम्प्रेषक,
- दूरभाष व मॉडम,
- क्षेत्रीय नेटवर्क अथवा वृहत् क्षेत्रीय नेटवर्क,
- उपग्रह सम्प्रेषण,
(4) केबिल नेटवर्क।
वर्तमान समय में इण्टरनेट का नया स्वरूप ‘नेटऑनड केबिल’ के रूप में उजागर हुआ है। इसमें कम्पनियाँ ऑप्टिकल केविल का जाल बिछाकर घरों में टी०वी० पर इण्टरनेट पेश कर रही हैं। इण्टरनेट के उपयोग के लिए ‘इण्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर’ का सदस्य बनना होता है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में केन्द्र सरकार का संस्थान BSNL इस कार्य को अत्यन्त आवश्यक होता है मानहारिक रूप प्रदान कर रहा है।
व्यावसायिक पत्र का आशय
(Meaning of Business Letter)
व्यावसायिक कार्यों के लिए किया जाने वाला पत्रों का आदान-प्रदान व्यावसायिक पत्र व्यवहार’ कहलाता है और ऐसे पत्रों को ‘व्यावसायिक पत्र’ कहते हैं। आधुनिक युग में व्यावसायिक पत्र निश्चित रूप से एक अपरिहार्य आवश्यकता का रूप ग्रहण कर चुके हैं। किसी-न-किसी रूप में तथा कभी-न-कभी व्यावसायिक पत्रों के आदान-प्रदान की आवश्यकता प्रत्येक व्यवसायी तथा उद्यमी को पड़ती है। अपने नियमित कार्य को करने हेतु व्यवसायी को विभिन्न पक्षों से सूचनाओं का आदान-प्रदान करना पड़ता है।
पूछताछ करने के लिए, आदेश प्रेषित करने के लिए, आदेशों को पूरा करने के लिए, साख की अनुमति एवं स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, देनदारों को उनके खातों का विवरण भेजने के लिए, माल की पूर्ति में की गई कमी की शिकायत के लिए, ग्राहकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए तथा फर्म की ख्याति में वृद्धि करने के लिए प्रत्येक संस्था में सम्प्रेषण की आवश्यकता होती है। व्यावसायिक पत्रों के उचित माध्यम व सम्प्रेषण के द्वारा ही उद्योग जगत में फैले विशाल जनसमुदाय से सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। भौगोलिक दूरी की प्राकृतिक बाधा को व्यावसायिक पत्रों के द्वारा सहजरूपेण ही पार कर लिया जाता है।
• आधुनिक व्यापार की सफलता काफी सीमा तक व्यावसायिक पत्र-व्यवहार पर भी निर्भर करती है। हरबर्ट एन० केसन के अनुसार, “एक श्रेष्ठ पत्र उस मास्टर-चाबी के समान होता है जो ताला लगे दरवाजे को भी खोल देती है। यह बाजार का निर्माण करता है तथा वस्तुओं व सेवाओं के विक्रय हेतु मार्ग प्रशस्त करता है। ऐसा पत्र फर्म का चित्र प्रस्तुत करता है।”
व्यावसायिक पत्र अपने श्रेष्ठ रूप में व्यवसाय में अन्तर्निहित उद्देश्य को प्राप्तकर्ता तक पहुँचाने में कारगर सिद्ध होता है। सुदूर क्षेत्रों में स्थित लोगों तक इस पत्र के द्वारा ही प्रतिष्ठान को ख्याति पहुँचती है। अच्छे व्यावसायिक पत्रों के द्वारा फर्म की ख्याति स्थायित्व को प्राप्त करती है। वास्तव में एक व्यावसायिक पत्र इतना प्रभावी होना चाहिए कि जिस सीमा तक सम्भव हो, लेखक का भी स्थान ले सके।
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व्यावसायिक पत्र लिखने के कारण/आवश्यकता
(Reasons/Need to write a Business Letter)
एल० गार्टसाइड ने व्यावसायिक पत्रों को लिखने के चार मुख्य कारण बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं
- व्यक्तिगत सम्बन्ध के बिना सम्प्रेषण का सरल व आर्थिक साधन उपलब्ध कराना।
- सूचना प्रदान करना।
- व्यवहारों के प्रमाण प्रदान करना।
- भविष्य के सन्दर्भ हेतु रिकॉर्ड प्रदान करना।
व्यावसायिक पत्र के लाभ/कार्य
(Advantages/Functions of a Business Letter) –
एक व्यावसायिक पत्र के लिखे जाने के अनेक दूरगामी लाभ (कार्य) होते हैं
- रिकॉर्ड एवं सन्दर्भ (Record and Reference)-
सम्प्रेषण को भविष्य में रिकॉर्ड में रखने के लिए इसका लिखित में होना अनिवार्य है। इसके लिए व्यावसायिक पत्र एक उत्तम माध्यम है। लिखित सम्प्रेषण को सम्बन्धित व्यक्तियों व विभागों तक सरलता से पहुँचाया जा सकता है। इसका प्रभाव स्थायी होता है। दूसरी ओर यदि मौखिक सम्प्रेषण को अपनाया जाता है तो लिखित सम्प्रेषण की भाँति इसके मूल रूप को एक-दूसरे तक नहीं पहुंचाया जा सकता। इसमें अनावश्यक रूप से समय की बरबादी होगी एवं कार्य में देरी होगी। व्यावसायिक सम्प्रेषण में केवल चालू सन्दर्भो की ही नहीं वरन पिछले सन्दर्भो की भी आवश्यकता पड़ती है और इस हेतु व्यावसा लिखित पत्र होने से पत्र-व्यवहारों की व्यावसायिक पत्रों का आदान-प्रदान उद्यम का लाभकारी पक्ष प्रस्तुत करता है। होने से पिछले व्यवहारों, अनुबन्धों का ज्ञान, ग्राहकों व विक्रेताओं से किए गए बदारों की जानकारी सरलता, शीघ्रता व शुद्धता से हो जाती है। ,
2. भविष्य में की जाने वाली कार्यवाही हेतु ठोस आधार (An Authoritative For Future Reference)-
लिखित पत्र हमारे भविष्य एवं वर्तमान के लिए नीय प्रमाण होता है। यदि कोई व्यक्ति या संस्था किसी तथ्य के सम्बन्ध में यह कहे कि नहीं है तो पत्र निकालकर प्रमाण दिया जा सकता है और यही व्यावसायिक पत्र का शिक मखर लाभ है। कानूनी दाँव-पेंचों में भी व्यावसायिक पत्रों को प्राइमरी एवीडेन्स’ के रूप में मान्यता प्राप्त है।
3. विस्तृत फलकों पर प्रभाव का लाभकारी पक्ष (Widening the … Anmroach)-
किसी भी व्यवसाय के लिए यह बहुत कठिन होता है कि प्रत्येक स्थान पर वह अपने प्रतिनिधि भेजे। विभिन्न स्थानों की दूरी अधिक होने के कारण यह सम्भव नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में केवल पत्र ही एक ऐसा माध्यम है, जिसे जहाँ चाहे भेज सकते हैं। पत्रों के माध्यम से व्यवसाय के क्षेत्र का भी विस्तार होता है। इन पत्रों की पहुँच विश्व या समस्त भूमण्डल पर होने के कारण इनकी उपादेयता स्वयंसिद्ध है।
4. व्यावसायिक पत्र मधुर व्यावसायिक सम्बन्धों का प्रणेता (Business Letters being a Source of Good Relations)—
व्यावसायिक पत्र का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य अन्य संस्थाओं के साथ मित्रता बढ़ाना होता है। पत्र के माध्यम से हमेशा के लिए अच्छे सम्बन्ध बनाए जा सकते हैं। पत्राचार के मुख्य उद्देश्य हैं-कम्पनी व ग्राहकों के मध्य सम्बन्ध बनाना, विद्यमान ग्राहकों को बनाए रखना, नए ग्राहक बनाना तथा ग्राहकों को नए-नए उत्पाद अधिक मात्रा में खरीदने के लिए आमन्त्रित करना आदि। इसी से फर्म की ख्याति को बढ़ावा मिलता है। इनके सफल नियोजन से व्यवसायगत क्षेत्रों में नाना प्रकार के लाभों का आस्वादन किया जा सकता है। .
5. दीर्घकालीन प्रभाव (Making a Lasting Impression)-
सुस्पष्ट एवं मधुर कलेवर में लिखे गए पत्रों का प्राप्तकर्ता पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव निश्चित रूप से दीर्घकालीन प्रवृत्ति का होता है। किसी भी प्रसंग को पुन: ताजा करने के लिए पुराने पत्रों का अवलोकन कर विस्मृत स्मृति को सहज रूप में ही पुनर्जीवित किया जा सकता है।
श्रवणता से अभिप्राय
(Meaning of Listening)
श्रवणता, इतनी सरल क्रिया नहीं है जितनी कि समझी जाती है। अधिकांश व्यक्ति इस बारे में अक्षम होते हैं। वे सुनने व सोचने के बारे में सावधानी नहीं रखते, अत: वे जितना ___ सुनते हैं उससे कुछ कम ही याद कर पाते हैं। फ्लोड जे० जेम्स के शब्दों में—“श्रवण-क्षमता ___ की न्यूनता प्रत्येक स्तर पर हमारे कार्य से सम्बन्धित समस्याओं की उत्पत्ति का मुख्य स्रोत है।” मक क्षेत्रों में श्रवणता की महत्ता किसी भी रूप में सम्प्रेषण से कम नहीं ऑकी जा को सनने अर्थात् श्रवण की क्रिया को ध्यानपूर्वक सुव्यवस्थित ढंग से करने पर उसका प्रतिफल उच्च आयामों को प्राप्त होता है। . वास्तव में, “श्रवणता स्वीकार करने, ध्यान लगाने तथा कानों से सुने गए शब्दों का अर्थ निरूपण करने की एक क्रिया है।”
श्रवणता के प्रकार
(Types of Listening)
व्यावसायिक क्षेत्र में श्रवणता का महत्त्व अब सुस्थापित हो चुका है। परिस्थितियों के अनुसार इसके प्रकारों में भी कम या अधिक अन्तर आ जाता है। मुख्य रूप से श्रवणता के … विभिन्न प्रकार निम्नलिखित रूप में प्रकट होते हैं-..
एकाग्र श्रवणता (Focus Listening)—
इसमें एकाग्रता के तत्त्व का महत्त्व अपेक्षित रूप से सर्वाधिक होता है। इसकी ग्राह्यता अन्य प्रकारों से कई गुना अधिक होती है।
विषयगत श्रवणता (Subjective Listening)-
ग्राह्य व्यक्ति में सम्प्रेषित विषय की जितनी जानकारी होती है, उसी के अनुसार श्रवणता का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति की समझ से होता है।
अन्तःप्रज्ञात्मक श्रवणता (Inter Listening)-
जब सहज बोधगम्यतावश सन्देश को ग्रहण किया जाता है, तब इसके समानान्तर अन्य विचार मस्तिष्क में आते रहते हैं। यह स्थिति सन्देश को सम्पूर्ण अर्थ में समझने में सहायता करती है।
समीक्षात्मक श्रवणता (Analytical Listening)-
समीक्षात्मक श्रवणता में ग्राही व्यक्ति में तुरन्त ही समीक्षात्मक तत्त्वों का आविर्भाव होने लगता है। इस प्रकार विशिष्ट बिन्दुओं के मूल्यांकन का मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जाता है। –
तदनुभूतिक श्रवणता (Communicating Listening)-
इसमें सन्देश को … अन्य व्यक्तियों को बताने की सामर्थ्य होती है।
सक्रिय श्रवणता (Creative Listening)-
इसमें अन्य व्यक्तियों के विचार व विघटित मानसिक अन्तर्द्वन्द्व समाहित होते हैं।
दिखावटी या मिथ्या श्रवणता (Artificial Listening)-
इसमें श्रवण की ग्राह्यता अत्यन्त न्यून होती है। हाव-भाव से तो प्रकट किया जाता है कि ग्राह्यता शत-प्रतिशत है, लेकिन होता इसके विपरीत है। यहाँ सन्देश को सुना तो जाता है, लेकिन ग्रहण नहीं किया जाता।
चयनित श्रवणता (Selective Listening)—
इसमें श्रवणता के किस हिस्से का श्रवण किया जाना है, इसका निर्धारण स्वयं ग्राही पक्ष करता है और केवल आवश्यक तत्त्व को ही ग्रहण करता है।
श्रवण प्रक्रिया
(Listening Process)
श्रवणता एक ऐसी कला है, जिसे प्रक्रियाओं की सीमा में बाँधना अत्यन्त र भी इसे निम्नलिखित प्रक्रियाओं में विभक्त किया जा सकता है
- निर्वचन (Interpreting)
- अनुभूति (Sensing)
- मूल्यांकन (Evaluating).
- अनुक्रिया (Responding)
- स्मरण (Remembering)
1. निर्वचन (Interpreting)-
यदि बोलने वाले का सन्दर्भ कुछ अलग के उसका विश्लेषण कर यह जानना आवश्यक है कि सोचने वाले की बात का वास्तविक क्या है। इसके लिए हमें उसकी अभाषित गतिविधियों पर ध्यान देना होगा।
2.अनुभूति (Sensing)-
श्रवण करते समय सन्देश को लिख लेना चाहिए क्योंकि सन्देश की प्राप्ति में शोर, दुर्बल श्रवण शक्ति, असावधानी व उपेक्षा बाधा पहुँचाते हैं। इन अवरोधों को दूर करके हमें सन्देश को ग्रहण करने पर ध्यान लगाना चाहिए।
3.मूल्यांकन (Evaluating)-
इसका अभिप्राय सन्देश के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करने से है। वक्ता द्वारा दिए गए सन्देशों में जो आवश्यक है उस पर विचार करना. जो विचार अप्रभावी हैं उन्हें पृथक् करना। ये सब गतिविधियाँ मूल्यांकन के अन्तर्गत आती हैं।
4.अनुक्रिया (Responding)-
वक्ता द्वारा दिए गए सन्देश को ग्रहण कर उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना इसमें सम्मिलित है।
5.स्मरण (Remembering)—
इसमें सन्देशों को भविष्य के सन्दर्भ के लिए स्टॉक कर लिया जाता है। वक्ता द्वारा दिए गए मुख्य बिन्दुओं को अनिवार्य रूप से लिख लेना या उसको अपने मस्तिष्क में उतारना इसके अन्तर्गत आता है।
व्यावसायिक सम्प्रेषण में प्रभावी श्रवणता
(Effective Listening in Business Communication)
संगठन व व्यवसाय के श्रेष्ठ नीति-निर्धारण में श्रवणता सहायक होती है। प्रभावी श्रवणता एक असाधारण कला है। प्रभावी श्रवणता के लाभ व उद्देश्यों को समझना आवश्यक है। प्रभावा श्रवणता के निम्नलिखित उद्देश्य व लाभ होते हैं
(1) अच्छी श्रवणता का रूप बहआयामी होता है। अच्छी तथा सही श्रवणता द्वारा मानवीय कष्टों का सम्यक् निदान प्राप्त किया जाता है।
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