अंग्रेज-मराठा युद्ध
पानीपत के तृतीय युद्ध (1761 ई०) में मराठों की सत्ता को जो आघात लगा था उससे ऐसा लगता था कि मराठे अपनी खोई हुई सत्ता को पुन: प्राप्त नहीं कर पाएँगे, परन्तु नए पेशवा माधवराव के नेतृत्व में मराठों ने न केवल शीघ्र ही अपनी खोई हुई सत्ता पुन: प्राप्त कर ली वरन् उसी गौरवपूर्ण स्थिति में भी आ गए जिसमें वे 1761 ई० से पूर्व थे। धीरे-धीरे अंग्रेजी कम्पनी को भी मराठों से घबराहट होने लगी और वह मराठों की सत्ता पर प्रहार करने का बहाना तलाश करने लगी।
1. मराठों में आन्तरिक संघर्ष-अंग्रेजों को मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर शीघ्र ही मिल गया। 1772 ई० में अचानक पेशवा माधवराव की मृत्यु हो गई जिससे मराठा सत्ता को आघात तो लगा ही, परन्तु साथ ही मराठों में गृह-कलह का सूत्रपात भी हो गया। इसका कारण था माधवराव के चाचा रघुनाथराव अथवा राघोबा की महत्त्वाकांक्षाएँ और माधवराव के भाई एवं उत्तराधिकारी नारायणराव की ओछी आदतें और अनुभवशून्यता। रघुनाथराव की आकांक्षाओं पर नियन्त्रण रख पाना नारायणराव के वश की बात नहीं थी। परिणामस्वरूप रघुनाथराव ने षड्यन्त्र रचकर 1773 ई० में उसकी हत्या करवा दी और स्वयं पेशवा बन बैठा।
रघुनाथराव को यद्यपि पेशवा तो मान लिया गया, परन्तु अगले ही वर्ष पेशवा नारायणराव की पत्नी गंगाबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। नाना फड़नवीस ने रघुनाथराव के विरुद्ध इस. बच्चे का पक्ष लिया और उसे पेशवा मानकर एक संरक्षक समिति की स्थापना कर दी। इस समिति ने नारायणराव के पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा मान लिया तथा प्रशासन नाना फड़नवीस एवं संरक्षण समिति के सुपुर्द कर दिया। अपने प्रयत्नों में असफल होकर रघुनाथराव को भागना पड़ा तथा अपने हितों की रक्षा के लिए उसने बम्बई में अंग्रेजों से सहायता की याचना की। अंग्रेज तो ऐसे अवसर की तलाश में थे ही; अत: उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर, कर्नाटक के ही समान, मराठों की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप करने का निश्चय किया।
2. सूरत की सन्धि (1775 ई०)-बम्बई स्थित अंग्रेज इस समय यद्यपि पूना की मराठा सरकार से सम्पर्क बनाए हुए थे, परन्तु कलहपूर्ण मराठा राजनीति के कारण उन्होंने अपनी नीति में परिवर्तन करने का निश्चय किया। इसी कारण राघोबा द्वारा सहायता की प्रार्थना करने पर अंग्रेजों ने उसके साथ 7 मार्च, 1775 ई० को सूरत की सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार अंग्रेजों ने 2,500 सैनिकों के बल से राघोबा की पूना दरबार के विरुद्ध मदद करना स्वीकार किया, जिसका खर्चा राघोबा ने ही देना स्वीकारा। इसके बदले में रघुनाथराव ने अंग्रेजों को सालसेट और बेसीन के प्रदेश, जिनसे उनकी स्थिति बहुत सुरक्षित हो सकती थी एवं भड़ौच तथा सूरत जिलों के राजस्व का एक हिस्सा देना स्वीकार किया। उसने कम्पनी के शत्रुओं के विरुद्ध कोई सन्धि न करने का भी वादा किया।
18 मई को कर्नल कीटिंग और रघुनाथराव की सम्मिलित सेनाओं ने माही नदी और आनन्दनगर के बीच स्थित अरास के मैदान में पूना के सिपाहियों का मुकाबला किया और उन्हें परास्त किया। परन्तु यहाँ पर यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि यह सन्धि गवर्नर जनरल की जानकारी के बिना की गई थी यद्यपि वारेन हेस्टिंग्ज स्वयं तो सन्धि को मान्यता देने के लिए तैयार था, तथापि कलकत्ता कौन्सिल के बहुमत के समक्ष वह कुछ नहीं कर पाया। परिणामस्वरूप कलकत्ता कौन्सिल ने बम्बई कौन्सिल द्वारा की गई समस्त कार्यवाही की ‘अनधिकृत और अन्यायसंगत’ कहकर निन्दा की और कम्पनी के सैनिकों को तुरन्त वापस बुला लेने की आज्ञा दी।
3. पुरन्दर की सन्धि ( 1776 ई०)-कुछ समय पश्चात् कलकत्ता कौन्सिल ने कर्नल उपटन को ‘पूना संरक्षक समिति’ से सन्धि की बातचीत करने के लिए पूना भेजा। पूना अधिकारियों से बातचीत करने के बाद कर्नल उपटन ने 1 मार्च, 1776 ई० को एक सन्धि की, जो पुरन्दर की सन्धि के नाम से जानी जाती है। पुरन्दर की सन्धि ने सूरत की सन्धि को रद्द कर दिया और राघोबा का पक्ष छोड़ दिया गया। सालसिट पर अंग्रेजों का अधिकार मान लिया गया और युद्ध क्षति-पूर्ति के रूप में पूना संरक्षक समिति ने अंग्रेजों को 12 लाख रुपये देना स्वीकार किया। पेशवा की सरकार ने राघोबा को 25,000 रुपये प्रतिमाह पेंशन देना स्वीकार किया और राघोबा का कोपरगाँव (वर्तमान महाराष्ट्र) नामक स्थान पर रहना तय हुआ।
4. पुनः युद्ध एवं बड़गाँव की सन्धि–पुरन्दर की सन्धि कार्यान्वित न हो पायी क्योंकि दोनों ही पक्षों ने इसका उल्लंघन किया। एक ओर तो पूना दरबार ने इसकी शर्तों को पूरा नहीं किया और फ्रांसीसियों से साँठ-गाँठ की तथा दूसरी ओर वारेन हेस्टिंग्ज ने भी इस सन्धि की शर्तों का खुला उल्लंघन करते हुए राघोबा को शरण दे दी। ऐसे में दोनों को एक-दूसरे के इरादों के प्रति सन्देह होना स्वाभाविक ही था। बम्बई सरकार ने पुन: युद्ध छेड़ दिया और कर्नल इगर्टन के नेतृत्व में नवम्बर 1778 ई० में पूना के विरुद्ध सेना भेजी। प्रारम्भ में तो अंग्रेजी सेना मराठा सेना का मुकाबला करने में सफल हुई, परन्तु बाद में कई जगह बुरी तरह हारी। परिणामस्वरूप अंग्रेज बड़गाँव की अपमानजनक सन्धि स्वीकार करने के लिए बाध्य हुए। इस सन्धि के अनुसार बम्बई सरकार को वे समस्त प्रदेश लौटाने थे जो उसने 1773 ई० में जीते थे।
गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज को बड़गाँव की सन्धि अपमानजनक लगी और वह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए उसने बंगाल से कर्नल गोडार्ड के अधीन एक शक्तिशाली सेना भेजी जिसने दिसम्बर 1780 ई० में बेसिन पर अधिकार कर लिया। नाना फड़नवीस ने परिस्थिति की गम्भीरता को समझते हुए न केवल समस्त मराठा सरदारों को ही अपने नेतृत्व में संगठित किया, वरन् निजाम एवं हैदरअली आदि दक्षिण भारत के उन शासकों को भी अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया जो अंग्रेजों के कारनामों से क्षुब्ध थे।
5. प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध-वारेन हेस्टिंग्ज के लिए यह संकटमय घड़ी थी। उसने भी अपने सेनापतियों के माध्यम से स्थिति को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। कैप्टन पौफम और जनरल कैमेक की सफलताओं ने अंग्रेजों की प्रतिष्ठा में पर्याप्त वृद्धि की। महादजी सिन्धिया ने मराठा संघ का नेतृत्व स्वयं सँभालने की अभिलाषा से अंग्रेजों के साथ सन्धि स्थापित करने की चेष्टा की।
6.सालबाई की सन्धि (1782 ई०)-सिन्धिया के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप 17 मई. 1782 ई० को पूना सरकार एवं अंग्रेजों के बीच सालबाई की सन्धि पर हस्ताक्षर हुए। इस सन्धि के अनुसार, माधवराव नारायण को पेशवा स्वीकार कर लिया गया और राघोबा को पेंशन दे दी गई। सालसिट पर अंग्रेजों के अधिकार की पुष्टि कर दी गई। नाना फड़नवीस ने 26 फरवरी, 1783 ई० को इस सन्धि को मान्यता दे दी। इस सन्धि के द्वारा मैसूर को छोड़कर सम्पूर्ण दक्षिण में अंग्रेजों की सत्ता को सर्वोपरि स्वीकार कर लिया गया।
7. सालबाई की सन्धि का महत्त्व-सालबाई की सन्धि ने अंग्रेजों की सत्ता में अत्या वृद्धि की। इस सन्धि ने इतिहास में एक नए युग का प्रारम्भ किया। इस सन्धि के द्वारा अंग्रेजों की मराठों के साथ बीस वर्ष तक सन्धि रही। इस सन्धि द्वारा यद्यपि अंग्रेजों की सीमाओं में वास्तविक रूप से कोई वृद्धि नहीं हुई, तथापि दक्षिण भारत में अंग्रेजों की सत्ता सर्वोपरि हो गई और मैसूर को छोड़कर समस्त राज्यों ने अंग्रेजों की सत्ता को स्वीकार कर लिया। इस सन्धि के दूरगामी परिणाम हुए तथा इस बात के बावजूद भी कि मराठों के विरुद्ध शक्ति-परीक्षण में अंग्रेज इस बार तो असफल हुए लेकिन इस सन्धि ने भविष्य में भारत में अंग्रेजों की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इतिहासकारों की यह मान्यता है कि 1818 ई० में मराठों की सत्ता के पतन की भूमिका इस सन्धि के द्वारा ही पड़ी। आर्थिक दृष्टिकोण से तो यद्यपि इस युद्ध ने कम्पनी की स्थिति को बहुत अधिक खराब किया, तथापि इस सन्धि का महत्त्व इस दृष्टिकोण से अधिक है कि इसके माध्यम से अंग्रेजों को मराठा आक्रमणों से कुछ समय के लिए छुटकारा मिल गया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपने दूसरे शत्रुओं (जैसे टीपू सुल्तान एवं फ्रांसीसियों) से लड़ने तथा निजाम एवं अवध के नवाब पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए एक अच्छा अवसर मिल गया।
अंग्रेज-मैसूर सम्बन्ध एवं कर्नाटक युद्ध
लॉर्ड कार्नवालिस 1786 ई० में बंगाल का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। उसने आन्तरिक क्षेत्र में अनेक सुधार किए और वैदेशिक क्षेत्र में मैसूर के राज्य पर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित करने के लिए तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध में सफलता प्राप्त की।
मैसूर का तृतीय युद्ध
लॉर्ड कार्नवालिस एक शान्तिप्रिय व्यक्ति था, जो देशी राज्यों के प्रति हस्तक्षेप न करने की नीति को अपनाना चाहता था। ‘पिट्स इण्डिया एक्ट’ में भी कुछ इसी प्रकार कहा गया था— “भारत में विजय तथा औपनिवेशिक सीमा विस्तार की योजनाओं का अनुकरण करना अंग्रेज जाति की इच्छा, कीर्ति तथा नीति के प्रतिकूल है।” इस नीति पर चलते हुए लॉर्ड कार्नवालिस ने न तो मराठों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का प्रयत्न किया और न शाहआलम के पुत्र को कोई सहायता देने का वचन दिया, जो दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में अंग्रेजों की सहायता चाहता था। इतना ही नहीं, उसने अन्य शक्तियों को भी दूसरों के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। इसीलिए उसने महादजी सिन्धिया को अवध के मामलों में हस्तक्षेप करने के विरुद्ध चेतावनी दी। परन्तु इतना होने पर भी वह मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के विरुद्ध युद्ध को न रोक सका क्योंकि उसे ऐसा विश्वास हो गया था कि मैसूर के साथ युद्ध आवश्यक एवं अनिवार्य है।
तृतीय मैसूर युद्ध के कारण
मैसूर का तृतीय युद्ध अंग्रेजों और टीपू सुल्तान के मध्य 1790 ई० से लेकर 1792 ई० तक हुआ। इस युद्ध के अनेक कारण थे, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
1. पारस्परिक सन्देह-1784 ई० में ‘मंगलौर की सन्धि’ के अनुसार अंग्रेजों और टीपू सुल्तान में सहमति हो गई थी, परन्तु यह सहमति स्थायी सिद्ध न हुई। वास्तव में, न अंग्रेजों और न ही टीपू सुल्तान को एक-दूसरे पर विश्वास था। इसलिए दोनों अन्दर-ही-अन्दर एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध की तैयारी में व्यस्त थे। दोनों के बीच अविश्वास के कारण ही मंगलौर की सन्धि को एक खोखली विराम सन्धि’ कहा गया। ऐसी अवस्था में युद्ध को कहाँ (क रोका जा सकता था?
2. टीपू की फ्रांसीसियों से मैत्री-1789 ई० में फ्रांस की क्रान्ति प्रारम्भ हो चुकी थी। इसलिए अंग्रेजों को यह भय था कि किसी भी समय उनका फ्रांस से संघर्ष प्रारम्भ हो सकता है। टीपू अंग्रेजों पर दबाव डालने के उद्देश्य से ऐसी स्थिति का लाभ उठाना चाहता था। उसने 1787 ई० में फ्रांस से सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से वहाँ अपने राजदूत भी भेजे। इससे टीपू को कोई लाभ हुआ या नहीं, परन्तु अंग्रेजों के मन में उसके प्रति विरोधी भावनाएँ अवश्य पनपने लगीं।
3. लॉर्ड कार्नवालिस का प्रयास-जब लॉर्ड कार्नवालिस ने टीपू सुल्तान को फ्रांसीसियों से मैत्री सम्बन्ध बनाते देखा तो उसने भी टीपू को अलग-थलग करने का प्रयत्न किया। उसने हैदराबाद के निजाम और मराठों को लालच देकर अपनी ओर कर लिया तथा उनसे पृथक्-पृथक् सन्धियाँ भी कर ली।
4. गुण्टूर का प्रश्न–गुण्टूर के विषय पर अंग्रेजों और टीपू सुल्तान के मध्य मतभेद और बढ़ गए। गुण्टूर का प्रदेश अपना विशेष महत्त्व रखता था। अंग्रेजों के लिए मद्रास और उत्तरी सरकार को मिलाने के उद्देश्य से इसे प्राप्त करना आवश्यक था। हैदराबाद के नवाब और टीपू सुल्तान दोनों के लिए यह समुद्र तक पहुँचने का एकमात्र साधन था। मैसूर के द्वितीय युद्ध की समाप्ति के समय वारेन हेस्टिग्ज ने इस प्रदेश को हैदराबाद के निजाम को वापस लौटा दिया था, परन्तु अब लॉर्ड कार्नवालिस ने इस प्रदेश के महत्त्व को समझते हुए हैदराबाद के नवाब पर दबाव डालकर उसे अंग्रेजों के लिए प्राप्त कर लिया। इसके बदले में हैदराबाद के नवाब को यह विश्वास दिलाया गया कि अंग्रेज टीपू सुल्तान द्वारा उसके जीते हुए प्रदेशों को वापस दिलाने का प्रयत्न करेंगे। यहाँ स्मरण रहे कि 1769 ई० की मद्रास और 1784 ई० की मंगलौर सन्धियों द्वारा अंग्रेज स्वयं इन प्रदेशों पर हैदरअली तथा उसके पश्चात् टीपू सुल्तान का अधिकार स्वीकार कर चुके थे। इस प्रकार बिना युद्ध के अंग्रेज निजाम की कोई सहायता नहीं कर सकते थे।
5. टीपू का ट्रावनकोर पर आक्रमण-टीपू सुल्तान समुद्र तक पहुँचना अपने लिए बहुत आवश्यक समझता था क्योंकि तभी वह फ्रांसीसियों से सहायता प्राप्त कर सकता था। अब जबकि गुण्टूर उसके हाथ से निकल गया तो उसने 1789 ई० में समुद्र तक पहुँचने के उद्देश्य से ट्रावनकोर की हिन्दू रियासत पर आक्रमण कर दिया। परन्तु यहाँ का शासक, अंग्रेजों के संरक्षण में था, इसलिए अंग्रेजों ने उसकी सहायता की। लॉर्ड कार्नवालिस निजाम और मराठों के साथ पहले ही ‘त्रिगुट सन्धि’ कर चुका था, इसलिए युद्ध के लिए तैयार भी था। इस प्रकार 1790 ई० में मैसूर का तृतीय युद्ध हुआ जो 1792 ई० तक चलता रहा।
युद्ध की घटनाएं
हैदराबाद के निजाम और मराठों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया, परन्तु फिर भी आरम्भ में अंग्रेजों को कोई विशेष सफलता न मिली। जनरल मीडोज ने टीपू के विरुद्ध एक वर्ष व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया, परन्तु फिर भी वह कुछ प्राप्त नहीं कर सका। ऐसी दशा में लॉर्ड कार्नवालिस का चिन्तित होना आवश्यक था। टीपू की सैन्य-कुशलता के विषय में इससे बढ़कर और क्या कहा जा सकता है कि विवश होकर अगले वर्ष लॉर्ड कार्नवालिस को सेना का संचालन स्वयं करना पड़ा। उसने मार्च 1791 ई० में बंगलौर पर अधिकार कर लिया तथा निरन्तर अग्रसर होता हुआ टीपू की राजधानी श्रीरंगपट्टनम के बिल्कुल निकट तक जा पहुँचा। वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो जाने तथा रसद के समाप्त हो जाने के कारण गवर्नर जनरल को कुछ समय के लिए युद्ध बन्द करना पड़ा और पीछे हटना पड़ा। बरसात के पश्चात् जब दिसम्बर 1791 ई० में युद्ध पुनः आरम्भ हुआ तो टीपू ने आगे बढ़कर कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया। परन्तु उसका साहस और वीरता प्रतिकूल परिस्थितियों, संगठित शत्रुओं और समाप्त हो रहे साधनों के विरुद्ध बहुत समय तक प्रतिरोध न कर सकी। एक-एक करके उसके दुर्ग शत्रुओं के अधिकार में जाने लगे और अन्त में वह अपनी ही राजधानी श्रीरंगपट्टनम में घिर गया। अधिक प्रतिरोध सम्भव न जानकर विवश होकर टीपू सुल्तान को मार्च 1792 ई० में अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी।
श्रीरंगपट्टनम की सन्धि
मार्च 1792 ई० में होने वाली श्रीरंगपट्टनम की सन्धि के साथ ही मैसूर के तृतीय युद्ध की समाप्ति हुई। इस सन्धि के अनुसार-
(1) टीपू को अपने लगभग आधे राज्य से हाथ धोना पड़ा, जिसे अंग्रेजों, मराठों और निजाम ने परस्पर विभाजित कर लिया। अंग्रेजों को पश्चिम में मालाबार, दक्षिण में डिण्डीगुल और पूर्व में बारामहल आदि के प्रदेश मिले। इन भागों की प्राप्ति से अंग्रेजों ने मैसूर को तीन तरफ से घेर लिया। निजाम को कृष्णा नदी से लेकर मन्नार तक का मैसूर का प्रदेश मिला और मराठों को तुंगभद्रा नदी तक के मैसूर के प्रदेश प्राप्त हुए।
(2) टीपू को कुर्ग के शासक की भी स्वतन्त्रता स्वीकार करनी पड़ी। बाद में कुर्ग के शासक ने अंग्रेजों की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।
(3) टीपू को लगभग 30,00,000 पौण्ड युद्ध की क्षति-पूर्ति के रूप में देने पड़े।
(4) उसके दो पुत्र बन्धक के रूप में अंग्रेजों ने अपने पास रख लिए।
युद्ध के परिणाम
यह युद्ध अंग्रेजों के दृष्टिकोण से लाभदायक था क्योंकि मैसूर से हुए पहले दो संघर्ष अनिर्णीत रहे थे। इस युद्ध ने टीपू की शक्ति को आघात पहुँचाया तथा दक्षिण भारत में उसकी प्रभुसत्ता समाप्त कर दी। एक बार फिर भारतीय शक्तियों के आपसी वैमनस्य का लाभ उठाकर अंग्रेज एक अन्य शक्ति को परास्त करने में सफल हुए। इस युद्ध ने टीपू के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
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