Thursday, November 21, 2024

Iltutmish

इल्तुतमिश का राज्यारोहण-विवादग्रस्त प्रश्न – (The Coronation of Iltutmish : A Mooted Question)

सन् 1210 ई० में दास-वंश के प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई और कुतुबी अमीरों ने आरामशाह नामक एक व्यक्ति को ऐबक का पुत्र घोषित करके दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा दिया। सन् 1211 ई० में इल्तुतमिश ने जूद के मैदान में आरामशाह को पराजित कर दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया।

इल्तुतमिश के इस प्रकार के राज्यारोहण के सम्बन्ध में इतिहासकारों में भारी हो गया है। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इल्तुतमिश ने बलात् ही राज्य पर अधिकार कर लिया था और इसीलिए वह एक अपहरणकर्ता था। परन्तु कुछ इतिहासकार इल्तुतमिश के राज्य पर अधिकार करने को न्यायोचित बताते हैं और उसे ही दास-वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं।

इस विवादग्रस्त प्रश्न का निराकरण करने के लिए निम्नलिखित बातों पर विशेष देना आवश्यक है-

(1) ऐबक दास-वंश का प्रथम वैधानिक सुल्तान था अथवा

(2) ऐबक के कोई पुत्र आरामशाह नाम का था या नहीं?

(3) क्या इल्तुतमिश ही दास-वंश का प्रथम दास साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था? ग्रन्थों के आधार पर करेंगे।

इतिहासकारों के मत (Opinions of Historians)

 (1) कतिपय इतिहासकारों, विशेषकर डॉ० आरनोल्ड का मत है कि इल्तुतमिश ऐबक ही दास-वंश का संस्थापक था।

इन विद्वानों ने एक बड़ी भूल यह भी की है कि ऐबक, इल्तुतमिश तथा बलबन को न माना है, जबकि इन लोगों ने सुल्तान बनने से पूर्व ही दासता-मुक्ति के प्रमाण-पत्र प्राप्त है। लिए थे। इसके साथ ही इस्लामी कानून के अनुसार कोई भी दास किसी साम्राज्य का संस्थापक नहीं बन सकता है। अत: इन सुल्तानों को दास मानना ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक नहीं है।

(2) मिनहाज-उस-सिराज ने लिखा है कि ऐबक के नाम के सिक्के ढाले जाने लगे। और खुतबे में भी उसका नाम लिख दिया गया था।  मिनहाज के इस मत का खण्डन करते हुए डॉ० हबीबउल्ला लिखते हैं- “ऐबक सिक्के और खुतबे में अपना नाम नहीं रखा था क्योंकि उसके नाम के असंदिग्ध सिक्के उपलक नहीं होते हैं। मिनहाज ने सिक्के और खुतबे की बात केवल परिपाटी के कारण लिख दी है।”

यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि ऐबक ने अनेक प्रदेशों को जीतकर मुस्लिम राज्य क निर्माण किया था और उन पर अपने प्रभुत्व का दावा किया था, उसे देखकर ही शायर समकालीन इतिहासकारों ने उसकी सम्प्रभुता स्वीकार कर ली हो। यदि इस बात को मान में लिया जाए, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या सभी मुस्लिम पदाधिकारी उसकी सम्प्रभुता के स्वीकार करते थे?

(3) मिनहाज-उस-सिराज अपनी तवारीख में लिखता है कि दिल्ली के निकटवर्ती प्रदेश बयाना का मुस्लिम सेनापति बहाउद्दीन ही ऐबक की सम्प्रभुता को स्वीकार करने के लिए तत्पर न था। इस कथन से यह माना जा सकता है कि बहाउद्दीन के समान ही अन्य सेनापति भी ऐबक की सत्ता को स्वीकार न करते हों, और यदि यह सत्य हो तो ऐबक के सिक्कों का प्राप्त न होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।

(4) शम्सी सिराज अफीफ अपनी तवारीख में लिखता है कि फिरोज तुगलक ने ‘शुक्रवार के खुतबे’ (Friday Khutba) में दिल्ली सुल्तानों के नामों में ऐबक का नाम नहीं लिखवाया था। इसके साथ ही इब्नबतूता भी ऐबक को दिल्ली का प्रथम स्वतन्त्र सुल्तान नहीं बताता है।

उपर्युक्त तर्कों से यह स्पष्ट होता है कि ऐबक दास-वंश वास्तविक संस्थापक नहीं था और भारत में मुस्लिम सत्ता का श्रीगणेश इल्तुतमिश के राज्यारोहण से ही होता है। अब एक प्रश्न यह उठता है कि इल्तुतमिश ने आरामशाह नामक व्यक्ति को मैदान में पराजित करके गद्दी प्राप्त की थी और यह आरामशाह वास्तव में था कौन और अमीरों जूद के ने ऐबक की मृत्यु के बाद उसे दिल्ली की गद्दी पर क्यों बिठा दिया था? कुछ इतिहासकारों का मत है कि चूँकि आरामशाह ऐबक का पुत्र था, इसीलिए कुतबी अमीरों ने उसे दिल्ली की गद्दी पर आसीन कर दिया था। परन्तु अनेक इतिहासकार आरामशाह को ऐबक का पुत्र मानने के लिए तत्पर नहीं हैं।

(5) अब्दुल युसुफ का मत है कि ऐबक सर्वथा पुत्रहीन था और आरामशाह को उसका पुत्र बताने की कहानी मनगढन्त थी।

(6) मिनहाज-उस सिराज अपनी तवारीख में लिखता है-“जब सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु हो गई तो अमीरों और मलिकों ने हिन्दुस्तान के राज्य को आन्तरिक कठिनाइयों और बाह्य खतरों से सुरक्षित रखने के लिए तत्काल ही आरामशाह को सिंहासन पर बिठाने का निर्णय ले लिया।”

(7) लेकिन मिनहाज-उस-सिराज ने अपनी तवारीख में यह भी लिखा है कि सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की तीन पुत्रियाँ थीं, जिनमें एक का विवाह इल्तुतमिश के साथ हुआ था। इस प्रकार मिनहाज भी स्पष्ट रूप से आरामशाह को ऐबक का पुत्र स्वीकार नहीं करता है।

अत: यह बात स्पष्ट होनी बड़ी कठिन है कि अमीरों ने उसको गद्दी पर क्यों बिठाया था? अधिकांश विद्वानों का तो यही मत है कि कुतुबी अमीरों ने आरामशाह को ऐबक का पुत्र मानकर ही उसे दिल्ली की गद्दी पर आसीन कर दिया होगा। कुछ भी रहा हो, यह बात तो निर्विवाद है कि आरामशाह एक. योग्य व्यक्ति नहीं था और इसीलिए इल्तुतमिश ने उसे पराजित करके दिल्ली पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त कर ली थी।

निष्कर्ष-उपर्युक्त तर्कों से इल्तुतमिश को अपहरणकर्ता मानने का औचित्य सिद्ध नहीं होता है। यदि उस समय की परिस्थितियों पर विचार करें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि ऐबक की मृत्यु के बाद दिल्ली की राजगद्दी खाली थी और दिल्ली में कोई व्यक्ति ऐसा योग्य न था, जो सुल्तान बनकर नव-मुस्लिम राज्य की आन्तरिक और बाह्य खतरों से सुरक्षा कर पाता। इस स्थिति में इस्लामी कानून अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस (Might is right) या सत्ता सबसे शक्तिशाली व्यक्ति के हाथ में होनी चाहिए, का लाभ उठाकर इल्तुतमिश ने आरामशाह को पराजित करके दिल्ली पर अधिकार कर लिया। अत: इल्तुतमिश के राज्यारोहण की वैधानिकता को चुनौती देना असंगत है।

इब्नबतूता ने लिखा है- “इल्तुतमिश दिल्ली राज्य का प्रथम स्थायी और निरंकुश सुल्तान था। पहले वह कुतुबुद्दीन का दास, सेनापति तथा नायब था। जब कुतुबुद्दीन की मृत्यु हो गई तो वह राजगद्दी पर आरूढ़ हो गया और लोगों से अपनी वैयत करा ली। समस्त फकीह, काजी-उल-कुजात के साथ उसकी सेवा में उपस्थित हुए और उसके सम्मुख बैठ गए। काजी वजीहुद्दीन अलकाशानी पूर्व की भाँति उसके बराबर बैठा। सुल्तान समझ गया कि लोग उससे क्या चाहते हैं। उसने अपने फर्श की कालीन का कोना उठाकर एक कागज निकाला और प्रमुख काजी को दे दिया। उससे ज्ञात हुआ कि कुतुबुद्दीन ने उसको दासता से स्वतन्त्र कर दिया था। काजी तथा फकीहों ने उसे पढ़ा और सबने उसकी वैयत कर ली। इस प्रकार वह पूर्णत: निरंकुश सुल्तान हो गया और 20 वर्ष तक राज्य करता रहा। वह बड़ा ही न्यायी, योग्य तथा चरित्रवान था।”

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि इल्तुतमिश ने दिल्ली के राजसिंहासन पर बलात् अधिकार नहीं किया था। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है- “इल्तुतमिश एक अपहरणकर्ता नहीं था। इसका साधारण कारण यह है कि उसके समक्ष किसी भी साम्राज्य का अपहरण करने का प्रश्न ही नहीं था।”

इल्तुतमिश का प्रारम्भिक जी(Early Life of Iltutmish)

शमशुद्दीन इल्तुतमिश मध्य एशिया के इल्बरी कबीले का तुर्क था। बचपन में उसके विरोधी भाइयों ने उसे गजनी के जमालुद्दीन नामक व्यापारी के हाथ बेच दिया था। कुछ समय के बाद जमालुद्दीन ने उसे कुतुबुद्दीन के हाथ बेच दिया था। ऐबक के साथ वह दिल्ली आया। वह बचपन से ही बड़ा सुन्दर और प्रतिभाशाली था। ऐबक के संरक्षण में उसने लिखना-पढ़ना सीखा और सैनिक शिक्षा भी प्राप्त की। कहा जाता है कि मुहम्म्द गोरी ने उसकी योग्यता से प्रभावित होकर एक बार ऐबक से कहा था- -“इल्तुतमिश के साथ अच्छा व्यवहार करना। किसी दिन वह ख्याति प्राप्त करेगा।”

इल्तुतमिश ने अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण बड़ी तेजी के साथ उन्नति की और वह एक के बाद एक अनेक उच्च पद प्राप्त करके अन्त में ‘अमीर-ए-शिकार’ बन गया। ग्वालियर की विजय के बाद ऐबक ने उसे ग्वालियर दुर्ग का सूबेदार नियुक्त किया और तत्पश्चात् बरन (बुलन्दशहर) का अधिपति बनाया। ऐबक ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ करके उसे बदायूँ का सूबेदार बना दिया और ऐबक की मृत्यु के बाद आरामशाह को पराजित करके वह दिल्ली का सुल्तान बन गया।

इल्तुतमिश की आश्चर्यजनक प्रगति की प्रशंसा करते हुए डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है—“वह दास का दास था। उसने अपने सद्गुणों और योग्यता से स्वयं को सिंहासन का जन्मजात अधिकारी सिद्ध कर दिया।”

इसी प्रकार लेनपूल ने लिखा है- “मुहम्मद गोरी के लिए जैसा ऐबक था, वैसा ही इल्तुतमिश ऐबक के लिए था। ऐबक उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार करता था।”

इल्तुतमिश का राज्यारोहण(Accession of Iltutmish-1211)

ऐबक की मृत्यु के बाद मलिक और अमीरों ने आरामशाह नामक व्यक्ति को ऐबक का पुत्र घोषित करके दिल्ली की गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन मुल्तान के शासक कुबाचा और बंगाल के शासक अलीमर्दान ने उसकी सत्ता को मानने से इनकार कर दिया। फलत: दिल्ली के चारों ओर अराजकता व अव्यवस्था फैलनी आरम्भ हो गई। आरामशाह अपनी अयोग्यता के कारण स्थिति पर नियन्त्रण पाने में असफल रहा। इस परिस्थिति में दिल्ली राज्य को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से कुछ अमीरों ने बदायूँ से शमशुद्दीन इल्तुतमिश को राजगद्दी ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया। इल्तुतमिश ने अपनी सेना के साथ आकर जूद के मैदान में आरामशाह को पराजित करके दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया। सन् 1211 ई० में वह दिल्ली का सुल्तान बन गया।

कुछ विद्वानों ने इल्तुतमिश पर राज्य का अपहरणकर्ता होने का आरोप लगाया है, जो सर्वथा गलत है। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव का यह कहना है— “इल्तुतमिश दिल्ली के अफसरों तथा सामन्तों का उम्मीदवार था और दिल्ली उस समय हिन्दुस्तान का प्रमुख नगर माना जाता था। इसके विपरीत आरामशाह को केवल लाहौर के एक दल का समर्थन प्राप्त था, जो उतना महत्त्वपूर्ण नहीं था जितना कि दिल्ली का दल। इसके विपरीत इल्तुतमिश योग्य सेनानायक था और व्यवहार-कुशल शासक की हैसियत से अच्छी ख्याति प्राप्त कर चुका था। सिंहासन पर बैठने के समय वह गुलाम भी नहीं था, क्योंकि बहुत पहले कुतुबुद्दीन से वह मुक्तिपत्र प्राप्त कर चुका था। उसमें योग्यता और कर्मनिष्ठा थी और वह कुतुबुद्दीन से भी अधिक गम्भीर, धार्मिक तथा संन्यासी था। इस्लामी कानून के अनुसार आरामशाह दुर्बल तथा अयोग्य था; अतः इन परिस्थितियों में दिल्ली की गद्दी के लिए सबसे अधिक उपयुक्त वह ही था।”

इल्तुतमिश की कठिनाइयाँ या समस्याएँ (Difficulties or Problems of Iltutmish)

इल्तुतमिश गद्दी पर बैठने के समय चारों ओर शत्रुओं और विरोधियों से घिरा हुआ था तथा उसके समक्ष अनेक गम्भीर कठिनाइयाँ उपस्थित थीं, परन्तु बड़ी वीरता और साहस के साथ उसने अपनी कठिनाइयों का सामना किया। डॉ० आर० सी० मजूमदार ने लिखा है—“इल्तुतमिश ने स्वयं को बड़ी कठिन और विषम परिस्थितियों में घिरा हुआ पाया, किन्तु नए सुल्तान ने बड़े साहस के साथ उसका सामना किया।”

डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने भी कहा है—“इल्तुतमिश कठिनाइयों से भयभीत होने वाला व्यक्ति न था। उसने अपनी योग्यता और साहस के बल पर गम्भीर परिस्थिति से निपटने का निश्चय कर लिया।”

इल्तुतमिश की प्रमुख कठिनाइयाँ निम्नलिखित थीं-

(1) असंगठित मुस्लिम राज्य-ऐबक ने केवल चार वर्ष तक ही राज्य किया था और उसने मुस्लिम राज्य की शासन-व्यवस्था की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। फलत: सम्पूर्ण मुस्लिम राज्य में अराजकता और अव्यवस्था व्याप्त थी और सैनिक शक्ति का बोलबाला था। ऐसे असंगठित राज्य का अधिक समय तक स्थायी रहना असम्भव हो गया।

(2) कुतुबी तथा मुइज्जी अमीरों का विरोध-उस समय दिल्ली में सुल्तान मुहम्मद गोरी तथा ऐबक के बहुत-से तुर्की अमीर विद्यमान थे जो स्वयं को इल्तुतमिश से अधिक योग्य और शक्तिशाली समझते थे और एक गुलाम को अपना सुल्तान मानने के लिए तत्पर न थे। वे इल्तुतमिश के स्थान पर प्राचीन राजवंश के किसी सदस्य को गद्दी पर बिठाना चाहते थे। इन तुर्की अमीरों का घोर विरोध इल्तुतमिश के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण कठिनाई थी।

(3) नासिरुद्दीन कुबाचा-नासिरुद्दीन कुबाचा ऐबक का सगा बहनोई और मुल्तान, उच्छ तथा सिन्ध का सूबेदार था। ऐबक की मृत्यु की सूचना पाकर उसने अपनी स्वतन्त्र सत्ता घोषित करके भटिण्डा, कोहराम, सुरसुती तथा लाहौर पर अधिकार कर लिया। कुबाचा इल्तुतमिश का एक शक्तिशाली प्रतिद्वन्द्वी था क्योंकि वह ऐबक का सम्बन्धी होने की हैसियत से दिल्ली पर अपने अधिकार का दावा कर सकता था। वह एक अनुभवी सैनिक तथा कुशल सेनापति भी था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार—“कुबाचा मुहम्मद गोरी का एक महत्त्वाकांक्षी दास था। वह बुद्धिमान, उच्च निर्णय लेने वाला और सार्वजनिक तथा सैनिक दोनों ही उच्च पदों पर रहकर काफी अनुभव प्राप्त कर चुका था। उसने उच्छ का सूबेदार बनते ही,देवल अल्प समय में अपने प्रशासनिक प्रबन्ध को दृढ़ बनाकर स्वयं को मुल्तान, सविस्तान, तथा समुद्री तट तक का स्वामी बना लिया था।”

अत: इल्तुतमिश को कुबाचा जैसे शक्तिशाली शत्रु से भी निपटना पड़ा।

(4) ताजुद्दीन एल्दौज-ताजुद्दीन एल्दौज मुहम्मद गोरी का एक योग्य और शक्तिशाली सेनापति था। गोरी की मृत्यु के बाद ही उसने अपनी स्वतन्त्र सत्ता गजनी में स्थापित कर ली थी। ऐबक ने उसकी शक्ति का दमन कुछ समय के लिए करने में सफलता प्राप्त कर ली थी, परन्तु ऐबक की मृत्यु के बाद वह पुन: गजनी में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके हिन्दुस्तान पर अधिकार करने की योजना बनाने लगा। एल्दौज की महत्त्वाकांक्षा इल्तुतमिश के लिए भावी खतरे की घण्टी थी।

(5) बंगाल की समस्या-ऐबक के समय में बंगाल के खिलजी सरदारों में गृह-युद्ध छिड़ गया था, जिसका लाभ उठाकर ऐबक ने बंगाल में हस्तक्षेप करके अलीमर्दान खाँ को वहाँ का सूबेदार बना दिया था। अलीमर्दान ने ऐबक को वार्षिक कर देने का वचन दे दिया था। परन्तु ऐबक की मृत्यु के बाद अलीमर्दान ने बंगाल में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और दिल्ली को वार्षिक कर भेजना भी बन्द कर दिया। लेकिन अलीमर्दान के अत्याचारी शासन से क्षुब्ध होकर खिलजी सरदारों ने उसका वध कर दिया और हिसामुद्दीन एवाज को बंगाल की गद्दी पर बिठा दिया। एवाज ने ग्यासुद्दीन की उपाधि धारण करके जाजनगर और तिरहुत को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। अत: इल्तुतमिश को बंगाल की समस्या का निराकरण करना भी आवश्यक हो गया था।

(6) राजपूत सरदारों का विद्रोह–ऐबक की मृत्यु का समाचार पाकर अनेक राजपूत सरदारों ने विद्रोह करके पुन: अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। रणथम्भौर और जालौर पर चौहानों, कालिंजर तथा आजमगढ़ पर चन्देलों तथा ग्वालियर पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया। अन्य राजपूत राजाओं ने भी अपनी स्वतन्त्रता घोषित करके अपने यहाँ के तुर्की सरदारों को भाग दिया था। अत: इल्तुतमिश के समक्ष इन राजपूत सरदारों के विद्रोह का दमन करने की भी समस्या थी।

(7) उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की समस्या-इल्तुतमिश के समक्ष उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा करने की एक जटिल समस्या थी। सीमान्त प्रदेशों में मंगोलों की आतंकवादी कार्यवाहियाँ निरन्तर बढ़ती जा रही थीं। मध्य एशिया के अनेक देशों को चंगेज खाँ के नेतृत्व में मंगोलों ने जलाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। ख्वारिज्म का शाह जलालुद्दीन मगबर्नी मंगोलों के भय से सिन्धु नदी के तट पर जा छिपा था। डॉ० परमात्मा सरन के अनुसार, “जलालुद्दीन ने खोखरों की सहायता से लाहौर तक के प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।” इसके अतिरिक्त मंगोलों के अमानुषिक एवं बर्बर अत्याचारों से बचने के लिए बहुत-से लोग भारत की ओर आ रहे थे। इन लोगों से भी इल्तुतमिश को भारी खतरा पहुँच सकता था।

(8) खोखर जाति की समस्या झेलम और सन्धि के मध्यवर्ती प्रदेश में रहने वाली खोखर जाति बड़ी लड़ाकू, अभिमानी और स्वतन्त्रताप्रिय थी। उसने अनेक बार तुर्कों के विरुद्ध भीषण विद्रोह किया था। मुहम्मद गोरी का वध भी खोखर विद्रोहियों ने ही किया था। अत: खोखर जाति की विद्रोही प्रवृत्ति किसी भी समय इल्तुतमिश के लिए भारी खतरा उत्पन्न कर सकती थी।

(9) दुर्बल राजत्व-इल्तुतमिश के समक्ष एक गम्भीर समस्या यह भी थी कि कट्टर मुस्लिम वर्ग उसकी सत्ता को मानने के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि वह किसी राजवंश का सदस्य नहीं था। वह एक दास था, जबकि इस्लामी कानून के अनुसार कोई दास सुल्तान नहीं बन सकता था। अत: मुस्लिम उलेमा वर्ग इल्तुतमिश के पक्ष में नहीं था। इसके अतिरिक्त ऐबक के समर्थक अमीर भी उसके प्रबल विरोधी थे। इल्तुतमिश को इन सबके विरोध को दबाकर अपने राज्याधिकार का औचित्य भी सिद्ध करना था।

इल्तुतमिश की सफलताएँ (Achivevements of Iltutmish)

जिस समय इल्तुतमिश दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ, दिल्ली सल्तनत की दशा बड़ी शोचनीय थी। इल्तुतमिश चारों ओर से कठिनाइयों से घिरा हुआ था, तथापि उसने बड़े साहस एवं उत्साह के साथ अपनी कठिनाइयों का निराकरण करने का दृढ़ निश्चय किया। उसने निम्नलिखित सफलताएँ प्राप्त करके दिल्ली सल्तनत को एक सुदृढ़ राज्य बना दिया-

(1) विरोधियों का दमन-सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने कुतुबी तथा मुइज्जी अमीरों के विरोध के दमन का निश्चय किया। इन अमीरों ने जहाँदार शाह के नेतृत्व में दिल्ली के निकट इल्तुतमिश की सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। इल्तुतमिश ने इन अमीरों को बुरी तरह पराजित करके अधिकांश अमीरों का वध कराया, जिससे भयभीत होकर शेष अमीरों ने इल्तुतमिश की सम्प्रभुता स्वीकार कर ली। इल्तुतमिश ने इन अमीरों को उच्च पद देकर सुदूर प्रान्तों में भेज दिया, ताकि वे दिल्ली में रहकर पुनः उसके विरुद्ध षड्यन्त्र न रच सकें। इसके बाद इल्तुतमिश ने बदायूँ, बनारस तथा अवध पर भी अधिकार कर लिया।

(2) ताजुद्दीन एल्दौज का दमन (1215 ई०)-इल्तुतमिश ने अपने राज्यारोहण के समय कूटनीति से काम लिया। ऐबक की मृत्यु के बाद एल्दौज ने गजनी में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी और दिल्ली के सुल्तान को भी अपने अधीन समझने लगा था। अपनी स्थिति की दुर्बलता को समझकर इल्तुतमिश ने एल्दौज की सम्प्रभुता को स्वीकार करने का बहाना किया और उसके भेजे हुए छत्र, दण्ड आदि राजचिह्न भी स्वीकार कर लिए। लेकिन अपनी आन्तरिक कठिनाइयों का निराकरण करने के बाद इल्तुतमिश ने एल्दौज की ओर ध्यान दिया। इसी समय ख्वारिज्म के शाह के भय से एल्दौज गजनी छोड़कर भारत की ओर बढ़ा और उसने सिन्ध के सूबेदार कुबाचा को पराजित करके पंजाब तक अपनी प्रभुता स्थापित कर ली। इल्तुतमिश को यह भय उत्पन्न हो गया कि कहीं ख्वारिज्म का शाह दिल्ली सल्तनत को गजनी का अधीनस्थ राज्य मानकर उस पर अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न न करने लगे। अतः इल्तुतमिश ने शीघ्र ही एल्दौज के विरुद्ध अभियान किया और 1215 ई० में लाहौर में उसे बुरी तरह पराजित करके बन्दी बना लिया। एल्दौज को बदायूँ भेज दिया गया, जहाँ पर कुछ समय पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एल्दौज जैसे शक्तिशाली शत्रु का अन्त करने में इल्तुतमिश पूर्ण रूप से सफल हो गया।

(3) कुबाचा का अन्त (1217-1227 ई०)-एल्दौज के पतन के बाद कुछ समय के लिए पुन: कुबाचा लाहौर का स्वामी बन गया। वह भी इल्तुतमिश की सम्प्रभुता को स्वीकार करने के लिए तत्पर न था। अत: 1217 ई० में इल्तुतमिश ने उस पर आक्रमण करके उसे अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर या। कुबाचा ने इल्तुतमिश को दिल्ली का स्वतन्त्र सुल्तान स्वीकार कर लिया और उसे वार्षिक कर भी देने का वचन दिया। परन्तु 1219 ई० में मंगोलों के भय से जलालुद्दीन मगबर्नी पंजाब आ गया, जिससे कुबाचा की शक्ति क्षीण हो गई। भटिंडा, कोहराम, सुरसती पर इल्तुतमिश ने अधिकार करके 1220 ई० में दिल्ली से उच्छ तथा लाहौर से मुल्तान पर दो दिशाओं से कुबाचा पर आक्रमण कर दिया। इल्तुतमिश की शक्ति से भयभीत होकर कुबाचा भाग गया और तीन माह के अन्दर ही मुल्तान तथा उच्छ पर इल्तुतमिश का अधिकार हो गया। इसके बाद इल्तुतमिश ने जुनैदी को भक्कर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। कुबाचा ने सुल्तान से सन्धि की याचना की, किन्तु इल्तुतमिश ने उसे स्वीकार नहीं किया। फलत: कुबाचा अपने प्राणों की रक्षा के लिए नदी के मार्ग से भागा, परन्तु वह नदी में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

(4) मंगोल पर आक्रमण (1221 ई०)—सन् 1221 ई० में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा से एक भयानक आँधी उठ खड़ी हुई। यह आँधी मंगोलों का भयानक आक्रमण थी। मंगोलों ने अपने नेता चंगेज खाँ (तैमूजिन) के नेतृत्व में ख्वारिज्म के शाह के साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। ख्वारिज्म का शाह अपनी जान बचाकर कैस्पियन सागर की ओर भाग गया और उसका पुत्र जलालुद्दीन मगबर्नी हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा। मंगोल बौद्ध धर्म के अनुयायी होते हुए भी बड़े ही दुर्दान्त और बर्बर थे। उन्होंने तत्काल ही बड़े वेग से मगबर्नी का पीछा किया। मगबर्नी ने भागकर पंजाब में शरण ली और एक शक्तिशाली खोखर जाति के सरदार की पुत्री से विवाह करके उत्तर-पश्चिमी पंजाब और सिन्ध सागर दोआब पर अधिकार करके कुबाचा को वहाँ से भगा दिया। तत्पश्चात् मगबर्नी ने रावी तथा चिनाब नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र पर आक्रमण किया और स्यालकोट स्थित पस्तूर को जीतकर लाहौर की ओर बढ़ा। मगबर्नी ने अपना दूत इल्तुतमिश के पास भेजकर उससे शरण देने की प्रार्थना की। इस स्थिति में इल्तुतमिश बड़े धर्मसंकट में पड़ गया क्योंकि एक शरणार्थी राजा को आश्रय न देना नैतिकता के विरुद्ध था, किन्तु चंगेज खाँ जैसे दुर्दान्त आक्रमणकारी का सामना करना भी जान-बूझकर मौत का आलिंगन करना था। मंगोल मगबर्नी का पीछा करते हुए 1220 ई० में सिन्ध तक आ भी पहुंचे थे। इस गम्भीर परिस्थिति में इल्तुतमिश ने बड़ी दूरदर्शिता और कूटनीति से काम लिया। उसने मगबर्नी के दूत को मरवा दिया और उसके पास यह सन्देश भेज दिया कि हिन्दुस्तान की जलवायु आपके लिए उपयुक्त नहीं है और आप कृपा करके पंजाब को छोड़ने का कष्ट करें। इस उत्तर को सुनकर मगबर्नी बड़ा रुष्ट हुआ और उसने पंजाब पर आक्रमण करने की तैयारी करनी शुरू कर दी। इस पर इल्तुतमिश भी उसका सामना करने के लिए तैयार हो गया, किन्तु अन्त में मगबर्नी ने इल्तुतमिश से युद्ध करने का विचार छोड़कर मुल्तान की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया। उधर चंगेज खाँ भी हिन्दुस्तान की गर्मी को देखकर सिन्धु नदी के तट से ही वापस लौट गया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी दूरदर्शिता से दिल्ली सल्तनत को मंगोलों के प्रकोप से बचा लिया। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है—“इस प्रकार दिल्ली राज्य एक भयकर संकट से बच गया। यदि इल्तुतमिश ने इससे भिन्न नीति अपनाई होती तो दिल्ली सल्तनत आरम्भ में ही नष्ट हो गई होती।”

(5) बंगाल पर अधिकार (1225 ई०)-मंगोलों के संकट से छुटकारा पाकर इल्तुतमिश ने बंगाल की समस्या की ओर ध्यान दिया और हुसामुद्दीन एवाज की स्वतन्त्र सत्ता को खत्म करने के लिए एक सेना भेजी। सन् 1225 ई० में इल्तुतमिश स्वयं एक विशाल सेना के साथ बंगाल आ पहुँचा, परन्तु एवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे युद्ध का हर्जाना तथा वार्षिक कर देने का वचन दिया। इल्तुतमिश मलिक जानी को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके बंगाल से वापस लौट आया। परन्तु कुछ समय के बाद ही एवाज ने पुनः अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी और मलिक जानी को भगाकर बंगाल पर अधिकार कर लिया। अत: इल्तुतमिश ने अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद (अवध का सूबेदार) को एवाज पर आक्रमण करने का आदेश दिया। नासिरुद्दीन महमूद ने 1226 ई० में लखनौती पर अधिकार करके एवाज का वध करवा दिया। इस प्रकार बंगाल पर सुल्तान का अधिकार हो गया, किन्तु महमूद की आकस्मिक मृत्यु के कारण बंगाल के खिलजी सरदारों ने पुन: विद्रोह कर दिया और बल्का खिलजी बंगाल का स्वतन्त्र शासक बन गया। विवश होकर 1230 ई० में इल्तुतमिश ने पुन: एक सेना बंगाल भेजी। इस सेना ने अलाउद्दीन जानी के नेतृत्व में बल्का खिलजी को पराजित करके मार डाला। इल्तुतमिश ने मलिक अलाउद्दीन जानी को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

(6) राजपूतों से संघर्ष (1226-1234 ई०)-ऐबक की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत के अनेक राजपूत सरदारों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। वे तुर्कों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए कृतसंकल्प हो गए थे। चन्देलों ने कालिंजर और आजमगढ़, प्रतिहारों ने ग्वालियर, नरवर तथा झाँसी, चौहानों ने रणथम्भौर और जोधपुर तथा जालौर के राजपूतों ने नाडोल, मन्दौर, रत्नपुर, सांचौर, खेरा, रायसीन आदि पर अधिकार करके तुर्कों को बुरी तरह पराजित कर दिया था। उत्तरी अलवर, अजमेर तथा बयाना आदि भी तुर्कों के हाथ से निकल गए थे और इन पर राजपूतों ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी।

अत: मंगोल समस्या को हल करने के बाद इल्तुतमिश ने राजपूतों से संघर्ष करने की योजना बनाई। सन् 1226 ई० में उसने रणथम्भौर दुर्ग जीत लिया और तत्पश्चात् 1227 ई० में मन्दौर पर आक्रमण किया तथा उस पर अधिकार कर लिया। 1228-29 ई० में उसने जालौर पर आक्रमण किया। चौहान राजा उदयसिंह ने उसका वीरतापूर्वक सामना किया, किन्तु बाद में उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य हुआ। इसके बाद सुल्तान ने बयाना और रणथम्भौर जीता और राजपूतों के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद भी अजमेर, सांभर और नागौर पर उसका अधिकार हो गया। 1231 ई० में सुल्तान ने ग्वालियर पर आक्रमण किया। वहाँ के प्रतिहार राजा मलयवर्मन देव ने लगभग एक वर्ष तक तुर्कों से जमकर टक्कर ली, किन्तु अन्त में उसे भी आत्मसमर्पण करने के लिए विवश होना पड़ा।

सुल्तान के आदेश पर ग्वालियर के सूबेदार मलिक तमसाई ने कालिंजर पर आक्रमण किया। चन्देल राजा त्रिलोक्यवर्मन तुर्कों से पराजित होकर भाग गया और कालिंजर पर सुल्तान का अधिकार हो गया। तुर्कों ने यहाँ भयंकर लूटमार की। इसके बाद इल्तुतमिश ने नागदा पर आक्रमण किया, परन्तु वहाँ के राजा क्षेत्रसिंह ने तुर्कों को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस अभियान में इल्तुतमिश को भारी क्षति उठानी पड़ी। इसी प्रकार गुजरात के चालुक्यों को पराजित करके मार भगाया। सन् 1234 ई० में सुल्तान ने मालवा पर आक्रमण किया और उज्जैन तथा भिलसा को बुरी तरह लूटकर वहाँ के महाकाल मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। वूल्जले हेग का मत है कि इल्तुतमिश ने मालवा जीत लिया था, परन्तु डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि सुल्तान का मालवा अभियान केवल लूटमार तक ही सीमित रहा था।

(7) दोआब पर अधिकार-इल्तुतमिश की दुर्बलता का लाभ उठाकर दोआब प्रदेश के हिन्दुओं ने अपनी तन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी। बदायूँ, कन्नौज, बनारस, कटेहर (आधुनिक रुहेलखण्ड) तुर्कों की अधीनता से मुक्त हो गए थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी शक को सुदृढ़ करके दोआब के हिन्दुओं के विरुद्ध सैनिक अभियान प्रारम्भ कर दिया। शीघ्र ही बदायूँ, कन्नौज तथा बनारस पर तुर्कों का पुन: अधिकार हो गया। कटेहर भी तुर्कों ने जीत लिया और कुछ समय के बाद बहराइच भी सुल्तान की अधीनता में आ गया। तुर्कों को अवध जीतने में भारी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अवध के लोगों ने अपने नेता पिर्दू (बर्तृ) के नेतृत्व में अनेक बार तुर्को को बुरी तरह पराजित किया। पिy बड़ा वीर और साहसी योद्धा था। उसकी असाधारण वीरता के कारण लगभग एक लाख बीस हजार शत्रु सैनिक मौत के मुँह में चल गए। अन्त में पियूँ की मृत्यु के बाद ही अवध पर तुर्कों का अधिकार हो सका। सुल्तान ने चन्द्रावर तथा तिरहुत पर भी असफल आक्रमण किया। अप्रैल 1236 ई० में इल्तुतमिश की मृत्यु हो गई।

इल्तुतमिश का चरित्र एवं मूल्यांकन (Character and Estimate of Iltutmish)

डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने इल्तुतमिश के चरित्र की प्रशंसा करते हुए लिखा — “इल्तुतमिश वीर किन्तु सावधान सैनिक था। उसमें साहस, बुद्धिमत्ता, संयम तथा दूरदर्शिता आदि महत्त्वपूर्ण गुण थे। वह योग्य तथा कुशल शासक भी था।”

वास्तव में, इल्तुतमिश मध्यकालीन भारत का एक प्रसिद्ध सुल्तान था। उसके चरित्र में अनेक गुण थे, जिनके बल पर वह अपनी समस्त कठिनाइयों का निराकरण करके भारत में एक सुदृढ़ तथा शक्तिशाली मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करने में सफल हुआ था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं— “यदि 1211 ई० में दिल्ली में सिंहासन पर शमशुद्दीन इल्तुतमिश विद्यमान न होता तो सम्भव था कि ऐबक द्वारा छोड़े गए असंगठित प्रदेश पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो जाते और दास वंश के अधीन एक कुशल केन्द्रीय सरकार की व्यवस्था भी न होती।”

इल्तुतमिश के चरित्र पर प्रकाश डालते हुए डॉ० आई० एच० कुरैशी लिखते हैं- “इल्तुतमिश की सफलता का सबसे बड़ा कारण उसकी चारित्रिक विशेषताएँ थीं, जिन्होंने उसे विपत्तियों के भँवर में भी पूर्णतया अडिग रखा ओर अन्त में उसे सफलता प्रदान की।” डॉ० कुरैशी आगे लिखते हैं—“इल्तुतमिश ने टूटे-फूटे और बिखरे हुए साम्राज्य का एक अच्छा और ठोस प्रशासन देकर स्वयं लोकप्रियता प्राप्त की।”

इल्तुतमिश एक वीर, योग्य तथा साहसी सैनिक ही न था, वरन् वह एक दूरदर्शी सेनापति, सफल प्रशासक, कुशल राजनीतिज्ञ तथा दक्ष कूटनीतिज्ञ भी था।

वह एक सच्चा मुसलमान, उदार, दानी तथा न्यायप्रिय शासक था। उसने अपनी बुद्धिमत्ता एवं योग्यता से नवनिर्मित तुर्की साम्राज्य की न केवल रक्षा ही की, अपितु उसे एक स्थायी और ठोस आधार भी प्रदान किया। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- “यदि इल्तुतमिश अपनी दूरदर्शिता से दिल्ली साम्राज्य को चंगेज खाँ के आक्रमण से न बचाता तो वह अपनी शैशव अवस्था में ही छिन्न-भिन्न हो जाता।”

इल्तुतमिश की संगठन शक्ति और सफलताओं को देखकर ही डॉ० आर० पी० त्रिपाठी ने यह मत प्रस्तुत किया है कि “भारत में मुस्लिम सम्प्रभुता का आरम्भ वास्तविक रूप इल्तुतमिश के राज्य से ही होता है।” में

उत्तराधिकारी (The Scucessors)

रुकनुद्दीन फिरोजशाह (सन् 1236 ई०) (Ruknuddin Firozshah, 1236 A.D.)

उत्तराधिकारी की समस्या-इल्तुतमिश ने अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार की जटिल समस्या का समाधान करने का प्रयास किया। उसकी आशाओं का केन्द्र उसका योग्य ज्येष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन था। सन् 1229 ई० में उसकी मृत्यु से उत्तराधिकार की समस्या सामने आई। इल्तुतमिश का द्वितीय पुत्र फिरोज अयोग्य और आलसी था और अन्य पुत्र अल्पवयस्क थे। ऐसी अवस्था में उसका ध्यान उसकी ज्येष्ठ पुत्र रजिया की ओर गया जो कि चतुर, साहसी और योग्य स्त्री थी। इल्तुतमिश ने उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने का निश्चय किया। किन्तु यह शरियत के विरुद्ध था, इसलिए उसके तुर्क सरदारों से शपथपूर्वक स्वीकृति ली। ये सरदार उसके गुलाम थे; अत: उसे उनकी निष्ठा पर पूर्ण विश्वास था। उसने ग्वालियर अभियान पर जाते समय (सन् 1231 ई०) रजिया को दिल्ली का संरक्षक प्रशासक नियुक्त किया और लौटने पर टंका (मुद्रा) में उसका नाम अंकित कराया। इस प्रकार रजिया को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया।

फिरोज का राज्यारोहण-इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी की समस्या ने गम्भीर रूप लिया और तुर्क अमीरों ने इल्तुतमिश की इच्छा की उपेक्षा करके रजिया के स्थान पर फिरोज को गद्दी पर बैठा दिया। इस परिवर्तन के तीन कारण थे-

(1) फिरोज आकर्षक व्यक्तित्व का तथा मृदु-भाषी था और अमीरों को प्रभावित करने में पूर्णतया सफल रहा।

(2) फिरोज की माँ शाह तुर्कान, जो महल में पहले बाँदी थी, एक चतुर और कुचक्र रचने में सफल महिला थी। उसने अपने पुत्र के पक्ष में अमीरों का समर्थन प्राप्त कर लिया।

(3) एक स्त्री को सिंहासन पर बैठाना नया विचार था। अत: अमीरों ने वयस्क पुत्र के अधिकार को मान्यता देना श्रेयष्कर समझा।

फिरोज की असफलता और मृत्यु-इल्तुतमिश की आशंका सत्य सिद्ध हुई। राज्यारोहण के पश्चात् फिरोज आमोद-प्रमोद, विलासिता में डूब गया। राजकोष का अपव्यय होने लगा तथा सर्वत्र अव्यवस्था फैल गई। फिरोज की माँ शाह तुर्कान ने सारी सत्ता अपने हाथों में ले ली। इस महत्त्वाकांक्षी स्त्री ने इल्तुतमिश की बेगमों तथा अन्य पुत्रों पर अत्याचार किए। इस अव्यवस्था से अनेक संकट उत्पन्न हो गए। सैफुद्दीन करलूध ने सन्धि पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान के भाई ग्यासुद्दीन ने, जो अवध का सूबेदार था, बंगाल के आने वाले शाही खजाने को लूट लिया। झाँसी, लाहौर, मुल्तान और बदायूँ ने आपस में समझौता करके फिरोज को अपदस्थ करने का निर्णय किया। वजीर जुनैदी उनसे मिल गया। ऐसी स्थिति में सुल्तान फिरोज विद्रोही अमीरों का सामना करने के लिए दिल्ली से चला। उसकी अनुपस्थिति में रजिया ने, जिसे शाह तुर्कान ने बन्दीगृह में डाल दिया था, दिल्ली के निवासियों के समर्थन से सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

इल्तुतमिश की शासन नीति (Administrative Policy of lltutmish)

शमशुद्दीन इल्तुतमिश मध्यकालीन भारत का एक प्रमुख सुल्तान था। वह अपनी योग्यता से दास के पद से उठकर सुल्तान के उच्च पद पर पहुँच गया था। उसकी सफलता उसके शासन प्रबन्ध पर आधारित थी। उसकी शासन नीति की प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं-

(1) चालीस का शासन-इल्तुतमिश ने अपने विरोधी अमीरों का दमन करने और अपनी सत्ता को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से अपने विश्वसनीय सरदारों को एक दल के रूप में संगठित किया। इस दल में 40 प्रमुख शम्सी सरदार थे। यह दल ‘चहलगान’ (Forty) के नाम से प्रसिद्ध था। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी ने लिखा है- “इल्तुतमिश के तुर्की गुलामों ने भी सफलता प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण योग दिया। दिल्ली पर अधिकार करने के उपरान्त, इल्तुतमिश ने अपने विश्वसनीय सरदारों को, जिनकी संख्या लगभग चालीस थी, राज्य के भिन्न-भिन्न पर्दा पर नियुक्त किया। वे उसके प्रति स्वामिभक्त बने रहे और उन्होंने संकटकाल में भी उसे धोखा नहीं दिया। एल्दौज, कुबाचा तथा अन्य शत्रुओं से युद्ध लड़ते समय उन्होंने देश में शान्ति व्यवस्था बनाए रखी और इस प्रकार सुल्तान की बहुमूल्य सेवा की।” दिल्ली का प्रधान काजी मिनहाज-उस-सिराज और सद्र-ए-जहाँ फखरुद्दीन चहलगान के प्रमुख सदस्य थे।

(2) खलीफा से प्रमाण-पत्र (फरवरी 1229 ई०)-इल्तुतमिश एक दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसने अपनी सत्ता और स्थिति को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुस्तसीर बिल्लाह से एक प्रमाण-पत्र देने की प्रार्थना की, जिससे वह उसे दिल्ली का स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दे। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के मतानुसार, “फरवरी 1229 ई० में खलीफा ने स्वयं ही इस्लामी शासक की खिलअत (पोशाक) भेजकर उसकी सत्ता को धार्मिक तथा राजनीतिक मान्यता प्रदान कर दी। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार खलीफा ने इल्तुतमिश को नासिर अमीर उल मोमनीन की उपाधि प्रदान की और अपने विशेष दूत द्वारा उसे एक खिलअत और भारत में प्रथम इस्लामी शासक होने का प्रमाण-पत्र भी भेजा। खलीफा द्वारा इस विशेष सम्मान ने इल्तुतमिश की स्थिति को बहुत अधिक सुदृढ़ बना दिया, क्योंकि खलीफा मुस्लिम विश्व का सर्वश्रेष्ठ अधिकारी था और उसके निर्णय अकाट्य थे। इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर खलीफा का नाम भी अंकित करा दिया और अब उसे मुस्लिम उलेमाओं के भय से मुक्ति मिल गई।

(3) न्याय-व्यवस्था-इल्तुतमिश ने अपने समाज में न्याय-व्यवस्था का समुचित प्रबन्ध किया। उसकी न्यायप्रियता की प्रशंसा करते हुए इब्नबतूता ने लिखा है— “सुल्तान के महल के द्वार के दोनों किनारों पर संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ बनी हुई थीं, जिनके गलों में एक जंजीर थी, जिससे एक बड़ा घण्टा लटकाया गया था। अन्याय से ग्रस्त लोग रात में आकर घण्टा बजाते थे। सुल्तान आकर उनकी प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुनता था और उनके कष्टों का निवारण करता था।”

इब्नबतूता के इस कथन में सत्यता चाहे कितनी ही हो, यह निर्विवाद है कि इल्तुतमिश एक न्यायप्रिय शासक था। वह दीन-दुखियों, विद्वानों, सन्तों तथा गरीबों सबकी उदारतापूर्वक सहायता किया करता था। उसने न्याय-व्यवस्था को संचालित करने के लिए प्रमुख काजी और अन्य काजियों को नियुक्त कर रखा था।

(4) मुद्रा-प्रबन्ध-इल्तुतमिश प्रथम तुर्क सुल्तान था जिसने विशुद्ध अरबी सिक्कों के प्रचलन किया। इन सिक्कों को टंका (Tanka) कहा जाता था और ये सोने तथा चाँदी के हो थे। चाँदी के सिक्के का वजन 175 ग्रेन था और इन पर अरबी भाषा में सुल्तान का नाम अंकि होता था। इल्तुतमिश की नवीन मुद्रा-प्रणाली उसके शासन के स्थायित्व का प्रतीक था।

(5) धार्मिक नीति–इल्तुतमिश की धार्मिक नीति उदार नहीं थी, उसने एक कट्टर सुन के रूप में सदैव उलेमा वर्ग का समर्थन किया और उलेमाओं की इच्छानुसार कार्य भी किया शिया सम्प्रदाय के प्रति भी उसका व्यवहार सहिष्णुतापूर्ण नहीं था। दिल्ली के इस्माइली शियाओं ने उसके धार्मिक अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह तक कर दिया था और उसकी हत्या करने का भी षड्यन्त्र रचा था। हिन्दुओं के प्रति भी उसने उदारता की नीति नहीं अपनाई थी और बहुत-से हिन्दू मन्दिरों को तुड़वाकर उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण करवा दिया था।

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