BCom 2nd Year Cost Accounting Fundamental Aspects Study Material Notes in Hindi
लागत लेखांकन की प्रकृति(Nature of Cost Accounting)
लागत लेखांकन की प्रकृति जानने के लिए इन्स्टीट्यूट ऑफ कॉस्ट एण्ड वक्र्स एकाउण्टेण्ट्स, इंग्लैण्ड द्वारा लागत लेखाशास्त्र (Cost Accountancy) को दी गई परिभाषा का अध्ययन करना होगा। इस संस्था ने लागत लेखाशास्त्र की परिभाषा देने के अतिरिक्त इसकी प्रकृति की व्याख्या करते हुए कहा है कि, “लागत लेखाशास्त्र, लागत लेखापाल का विज्ञान, कला एवं व्यवहार कहा जाता है।” लागत लेखापाल ही व्यवहार में लेखाशास्त्र की वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग अपनी कुशलता से करता है। |
ज्ञान के व्यवस्थित एवं संगठित समूह को ही विज्ञान कहा जाता है। लागत लेखाशास्त्र के भी अन्य विज्ञानों की भाँति कछ मूलभूत सिद्धान्त एवं नियम हैं और यह लागत लेखांकन, लागत निर्धारण तथा लागत नियन्त्रण आदि का संगठित ज्ञान है। इस आधार पर लागत लेखांकन को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है।
लागत लेखांकन कला भी है, क्योंकि इसमें विशिष्ट रीतियाँ (Methods) एवं प्रविधियाँ (Techniques) निहित हैं, जिनका उचित प्रयोग लेखापाल की कुशलता पर ही निर्भर करता है। अतः एक कुशल लागत लेखापाल को लागत के आधारभूत सिद्धान्तों का ज्ञान होने के अतिरिक्त उनका प्रयोग करने हेतु आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करना भी आवश्यक है।
लागत लेखांकन व्यवहार भी है, क्योंकि लागत लेखापाल अपने कर्तव्य पालन के सम्बन्ध में सतत् प्रयास करता रहेगा। इसके लिए उसे सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान, प्रशिक्षण एवं अभ्यास भी आवश्यक है, जिससे वह लागत निर्धारण, लागत लेखांकन एवं लागत नियन्त्रण सम्बन्धी जटिलताओं को सुलझा सकेगा।
विल्मट (Wilmot) ने लागत लेखांकन की प्रकृति का वर्णन करते हुए इसके कार्यों में निम्नांकित को सम्मिलित किया है-“लागत का विश्लेषण, प्रमाप निर्धारण, पूर्वानुमान लगाना, तुलना करना, मत अभिव्यक्ति तथा आवश्यक परामर्श देना आदि। लागत लेखापाल की भूमिका एक इतिहासकार, समाचारदाता एवं भविष्यवक्ता के तौर पर होती है। उसे इतिहासकार की तरह सतर्क, सही, परिश्रमी एवं निष्पक्ष होना चाहिए। उसको संवाददाता की भाँति सजग, चयनशील एवं सारगर्भित तथा भविष्य-वक्ता की तरह ज्ञान व अनुभव के साथ-साथ दूरदर्शी एवं साहसी होना आवश्यक है।”
लागत लेखांकन का क्षेत्र (Scope of Cost Accounting)
लागत लेखांकन का क्षेत्र काफी विस्तृत है। सामान्यतया लागत लेखांकन के क्षेत्र में निम्नलिखित पहलुओं को सम्मिलित किया जाता है|
1, लागत का वर्गीकरण (Classification of Cost)–लागत वर्गीकरण का आशय लागतों को उनकी प्रकृति एवं विशेषताओं के अनुसार अलग-अलग वर्गों में समूहबद्ध/वर्गीकृत करना है। यह वर्गीकरण लागत के तत्वों, कार्यों, प्रकृति, उत्पादन प्रक्रिया की प्रकृति एवं समय अवधि आदि के आधार पर किया जा सकता है।
2. लागत अभिलेखन (Cost Recording)–लागत वर्गीकरण के पश्चात् लागत व्यवहारों का संस्था की लेखापुस्तकों में अभिलेखन किया जाता है।
3. लागत आबंटन (Cost Allocation)–लागत अभिलेखन के पश्चात् पूर्व निर्धारित आधारों पर लागतों का विभिन्न विभागों/लागत केन्द्रों के बीच आबंटन किया जाता है।
4. लागत निर्धारण (Cost Determination)–लागत निर्धारण से आशय किसी उपक्रम में विभिन्न उत्पादों, सेवाओं अथवा विभागों की लागत ज्ञात करने से है जिसे लागत पत्र (Cost Sheet) या लागत विवरण (Statement of Cost) या उत्पादन खाता (Production Account) तैयार करके ज्ञात किया जा सकता है।
5. लागत विश्लेषण (Cost Analysis)–लागत विश्लेषण के अन्तर्गत लागत एवं उसके विभिन्न निर्धारक घटकों के | मध्य सम्बन्धों का मापन किया जाता है।
6 लागत की तुलना (Comparison of Cost) लागत की तुलना के अन्तर्गत वर्तमान लागतों की पूर्व अवधि की लागतों से अथवा सम्बन्धित उपक्रम जैसे ही अन्य उपक्रमों की लागतों से तुलना की जाती है।
7 लागत प्रतिवेदन (Cost Reporting)–लागत प्रतिवेदन के अन्तर्गत प्रबन्ध की आवश्यकतानुसार लागत सम्बन्धी १९ निरन्तर रूप से सही समय पर प्रबन्ध को प्रेषित की जाती हैं जिससे प्रबन्ध को महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में सुविधा रहती
8 लागत में कमी लाना (Cost Reduction)_इसके अन्तर्गत उत्पादित वस्तु या प्रदान की जाने वाली सेवाओं की वास्तविक एवं स्थायी कमी लाने का प्रयास किया जाता है जिससे संस्था अधिकतम लाभ अर्जित कर सके एवं प्रतिस्पर्धा का सामना कर सके।
9 लागत नियन्त्रण (Cost Control)–यह लागत लेखांकन का महत्त्वपूर्ण पहलू है। लागत नियन्त्रण हेतु प्रमाप लागत लेखांकन, बजटरी नियन्त्रण, स्कन्ध नियन्त्रण एवं किस्म नियन्त्रण आदि तकनीकों को अपनाया जाता है।
10. लागत अकेक्षण (Cost Audit)–लागत लेखों की जाँच को लागत अंकेक्षण कहते हैं। लागत अंकेक्षण से लागत लेखों की शुद्धता सत्यापित हो जाती है जिससे लागत प्रतिवेदन की विश्वसनीयता बढ़ती है।
लागत लेखांकन के मूल सिद्धान्त(Fundamental Principles of Cost Accounting)
लागत लेखांकन के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्त हैं|
1, लागत हमेशा इसके कारण से सम्बन्धित होती है (Cost is always Related to its Cause)-लागत का प्रत्येक मद का उसके कारण से निकटतम सम्बन्ध होता है। कारखाने का किराया एवं मशीनों पर हास व मरम्मत का व्यय कारखाने से सम्बन्धित होने के कारण कारखाना व्यय में ही सम्मिलित किया जाता है; डाक व्यय, स्टेशनरी व्यय, टेलीफोन व्यय आदि कार्यालय से सम्बन्धित होने के कारण कार्यालय व्यय में ही सम्मिलित किये जाते हैं, विज्ञापन, डूबत ऋण, विक्रय एजेन्टों का कमीशन आदि विक्रय से सम्बन्धित होने के कारण विक्रय व्यय में ही सम्मिलित किये जाते हैं। लागत आँकड़ों का संग्रहण एवं विश्लेषण उनकी प्रकृति के आधार पर किया जाता है तथा इनका अभिभाजन कारण सम्बन्ध के आधार पर किया जाता है।
2. व्यय होने के पश्चात् ही व्यय की गई राशि लागत का अंग बनती है (Cost is Charged after it is Incurred)-जब तक व्यय नहीं किया गया हो, उसे लागत नहीं माना जा सकता एवं लागत केन्द्र पर चार्ज नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए कारखाने में पड़ी हुई वस्तु पर विक्रय व्यय नहीं डाला जा सकता क्योंकि विक्रय व्यय उन वस्तुओं पर ही डाला जाता है जो वास्तव में विक्रय हो चुकी हैं। इसी प्रकार सामान्य क्षति एवं क्षय सम्बन्धित इकाई द्वारा तभी वहन किया जायेगा जब हानि उत्पन्न हो जायेगी। हानि उत्पन्न होने की सम्भावना के आधार पर इसे सम्बन्धित इकाई पर चार्ज नहीं किया जा सकता है।
3. असामान्य लागते लागत निर्धारण में सम्मिलित नहीं होती हैं (Abnormal Costs are Excluded from Costing)–आग द्वारा क्षति, चोरी द्वारा क्षति, हड़ताल एवं दुर्घटना आदि असामान्य कारणों से हुई क्षति/हानि की लागतों को उत्पादन लागत में शामिल नहीं किया जाता है क्योंकि उनका सम्बन्ध उत्पादन की सामान्य क्रिया से नहीं है। इस प्रकार की लागतों को लाभ-हानि खाते में प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार अन्य वित्तीय प्रकृति के व्ययों वो लागत निर्धारण में सम्मिलित नहीं किया जाता है।
4. भूतकाल की लागतें भविष्य की अवधि में चार्ज नहीं की जाती हैं (Post Costs are not Charged to Future Periods)–विगत (भूतकाल) अवधि के व्ययों/लागतों को यदि सम्बन्धित उसी विगत अवधि में चार्ज नहीं किया गया है तो उन व्ययों/लागतों को भावी अवधि में चार्ज नहीं किया जाता है क्योंकि ऐसा करने से भावी अवधि का ‘लागत विवरण-पत्र ठीक लागत नहीं ज्ञात कर पायेगा।
5. रूढ़िवादिता की अवधारणा का लागत लेखांकन में अनुसरण नहीं किया जाता है (The Concept of Conservatism is not followed in Cost Accounting)–वित्तीय लेखों में अन्तिम रहतिये का मूल्यांकन लागत मूल्य या बाजार मूल्य जो भी दोनों में कम हो, उस मूल्य पर किया जाता है। इसके विपरीत लागत लेखों में अन्तिम रहतिये को सदैव लागत मूल्य पर ही मूल्यांकित किया जाता है। वित्तीय लेखों में लाभों को कम प्रदर्शित करते हुए गुप्त संचय (Secret peserve) बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है, परन्तु लागत लेखों में ऐसा नहीं होता है। यदि लागत लेखांकन में इन प्रवृत्तियों को शामिल किया जाने लगे तो लागत लेखांकन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। ।
6. दोहरा लेखा प्रणाली पर ही आधारित है (Cost Accounting is Based on Double Entry System)-वित्तीय लेखांकन की भाँति लागत लेखे भी दोहरा लेखा प्रणाली के आधार पर ही तैयार किये जाते हैं।
लागत लेखांकन के उद्देश्य अथवा कार्य(Objects or Functions of Cost Accounting)
लागत लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य उत्पादों अथवा सेवाओं की लागत ज्ञात करना एवं लागत पर नियन्त्रण करना है।
जे० आर० बाटलीबॉय के अनुसार, “लागत लेखांकन का मुख्य उद्देश्य, चाहे उसका उपयोग उद्योग की किसी भी शाखा में किया जाए, हमेशा विश्वसनीय एवं सही पद्धति से ठीक लागत ज्ञात करना होना चाहिए।’
संक्षेप में, लागत लेखांकन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित है
(1) लागत निर्धारण (Cost Determination)–लागत लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य किसी संस्था द्वारा उत्पादित की जाने वाली वस्तुओं या सेवाओं अथवा कार्यो, ठेकों या प्रक्रियाओं की कुल तथा प्रति इकाई लागत ज्ञात करना है।
(2) लागत नियन्त्रण (Cost Control)-लागत लेखांकन का दूसरा प्रमुख उद्देश्य लागतों पर नियन्त्रण स्थापित करना है। ताकि न्यूनतम लागत पर अधिकतम एवं श्रेष्ठतम उत्पादन हो सके। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु बजटरी नियन्त्रण व प्रमाप लागत लेखांकन तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
(3) लागत में कमी (Cost Reduction) लागत नियन्त्रण के साथ-साथ लागत लेखांकन लागत में कमी करने के उद्देश्य से अपव्ययों को रोकने का प्रयास भी करता है।
(4) प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करना (Guidance to Management)–लागत लेखों द्वारा प्रदत्त सुचनाएँ प्रबन्धकों द्वारा। अनेक प्रकार के निर्णय लेने में मार्गदर्शन भी करती हैं। उदाहरणार्थ-किसी वस्तु का स्वयं निर्माण किया जाये या बाहर से क्रय करे, हानि पर विक्रय करे या उत्पादन बन्द कर दें, विभिन्न वैकल्पिक उत्पादनों में से कौन-सी वस्तुओं का उत्पादन किया जाये, आदि।
(5) विक्रय-मूल्य निर्धारित करना (Determination of Selling Price)–लागत लेखांकन का उद्देश्य उचित विक्रय-मूल्य निर्धारित करना भी है ताकि प्रतिस्पर्धा का सामना किया जा सके तथा साथ ही उचित लाभ भी अजित हो सके।
(6) वैधानिक अनिवार्यता की पूर्ति (Compliance of Statutory Requirement)—जैसा कि विदित ही है कि भारत सरकार द्वारा देश के प्रमुख उद्योगों में लगी हुई कम्पनियों के लिए लागत लेखे रखना अनिवार्य कर दिया गया है। अतः लागत लेखों को रखने का एक उद्देश्य वैधानिक दायित्व को पूरा करना भी है।
वित्तीय लेखे बनाम लागत लेखे(Financial Accounting Vs. Cost Accounting)
वित्तीय एवं लागत लेखे दोनों ही लेखांकन की दो अलग-अलग शाखाएँ हैं। इनके उद्देश्यों में भिन्नता होते हुए भी इनकी विधियाँ लगभग समान हैं एवं दोनों का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रायः एक ही संस्थान में दोनों प्रकार के लेखे रखे जाते हैं। दोनों की कार्यविधि समान है परन्तु लक्ष्यों एवं उद्देश्यों में भिन्नता है। वित्तीय लेखों का उद्देश्य संस्था की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालना है जबकि लागत लेखों का उद्देश्य लागत निर्धारण एवं लागत नियन्त्रण है। इसके बावजूद भी ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी न होकर पूरक ही हैं।
स्पष्ट है कि वित्तीय लेखों एवं लागत लेखों में घनिष्ठ सम्बन्ध तो है लेकिन दोनों में कुछ समानताएँ हैं एवं कुछ असमानताएँ हैं।
वित्तीय लेखांकन एवं लागत लेखांकन में समानताएँ(Similarities between Cost and Financial Accounting)
चूंकि दोनों ही लेखांकन पद्धतियाँ सामान्य लेखांकन का अंग हैं, अतः दोनों में समानताएँ होना स्वाभाविक ही है। दोनों लेखांकन में मुख्य समानताएँ निम्न प्रकार हैं
(1) दोनों ही लेखांकन पद्धतियाँ दोहरा लेखा प्रणाली पर आधारित हैं।
(2) दोनों लेखों के आधार-पत्रक (जैसे—बीजक, प्रमाणक, अन्य प्रपत्र आदि) एक ही होते हैं।
(3) दोनों ही लेखों में केवल मुद्रा में व्यक्त लेन-देनों का लेखा किया जाता है।
(4) दोनों ही लेखे व्यवसाय का लाभ-हानि प्रकट करते हैं।
(5) दोनों ही लेखों में विभिन्न अवधियों के व्ययों एवं लाभ-हानि का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है।
(6) दोनों ही लेखे विक्रय-मूल्य निर्धारण में सक्षम हैं।
(7) दोनों ही लेखांकन के आधार पर व्यवसाय की भावी नीति निर्धारित की जा सकती है। (8) दोनों लेखे परस्पर पूरक हैं।
लागत लेखांकन तथा वित्तीय लेखांकन में असमानताए(Dissimilarities in Cost and Financial Accounting)
लागत लेखांकन तथा व तथा वित्तीय लेखांकन में कछ समानताएँ होने के बावजूद भी दोनों प्रकार के लेखों में कुछ मूलभूत अन्तर भी हैं , जिसमें से मुख्यत ; इस प्रकार है —
(1) — उद्देश्य– वित्तीय लेखांकन का उद्देश्य संस्था की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालना हैं जबकि लागत लेखांकन का केवल उन्हीं संस्थाओँ में रखे जाते है करना एवं लागत पर नियन्त्रण करना है।
(2) क्षेत्र — वित्तीय लेखे सभी व्यवसायिक , औधोगिक तथा अन्य प्रकार की संस्थाओँ में रखे जाते हैं जबकि लागत लेखे केवल उन्हीं संस्थाओं में रखे जाते हैं जो उत्पादन कार्य में संग्लन है अथवा सेवा प्रदान करने का कार्य करती है अत वित्तीय लेखांकन का क्षेत्र विस्तृत है जबकि लागत लेखांकन का क्षेत्र संकुचित है ।
(3) लेखा किये जाने वाले व्यवहारों का स्वभाव — वित्तीय लेखों में सभी आर्थिक या वित्तीय व्यवहारों का लेखा किया जाता है चाहे वयवहार हो या गैर- व्यापारिक , जबकि लागत लेखांकन में केवल उन्हीं व्यवहारों का लेखा होता है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन से सम्बन्धित हैं अर्थात् आय – कर धर्मादा , ब्याज , लाभाशं तथा दान आदि वित्तीय प्रकृति के लेन देनों का लेखा लागत लेखों मे किया जाता है क्योंकि इनका उत्पादन कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता , परन्तु इनका लेखा वित्तित लेखांकन में किया जाता है ।
(4) — खातों की अनिवार्यता – वित्तीय लेखे प्राय; प्रत्येक संस्थान द्दार कर-निर्धारण हेतु रखना आवश्यक है जबकि लागत लेखे का अकेक्षण केवल केन्द्र सरकार द्धारा अधिसूचित उछोंगों मे लगी हुई कम्पनियों मे तथा सिर्फ उन्हीं वर्षा में अनिवार्य है जब केन्द्रीय सरकार इस आशय की घोषणा करे ।
(5) अंकेषण — वित्तीय लेखांकन में सभी कम्पनियों को अपने खातों का अंकेक्षण कराना अवश्यकता है जबकि लागत लेखों का अंकेक्षण केवल क्रेन्द सरकार द्धारा अधिसूचित उघोगों में लगी हुई कम्पनियों में तथा सिर्फ उन्हीं वर्षों में अनिवार्य है जब केन्द्रीय सरकार इस आशय की घोषणा करे ।
(6) वास्तविक तथ्य एवं पूर्वानुमान — वित्तीय लेखांकन के अन्तर्गत व्यवहार होने के बाद वास्तविक तथ्यों एवँ आँकडों को ही लिखा जाता है जबकि लागत लेखे वास्तविक तथ्यों एवँ आँकडों के अतिरिक्त काफी सीमा तक अनुमानों पर भी आश्रित होते हैं । इस प्रकार वित्तीय लेखांकन विशुद्ध रुप से ऐतिहासिक लेखांकन ही है जबकि लागत लेखों में अनुमानित लागत का पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है ।
(7) प्रदर्शित लाभ—हानि— वित्तीय लेखे सम्पूर्ण व्यवसाय का लाभ—हानि एक साथ प्रकट करते हैं जबकि लागत लेखे प्रत्येक कार्य , प्रक्रिया या उत्पादन क लाभ —हानि अलग-अलग प्रद्रशित करते हैं ।
(8) विक्रय- मूल्य निर्धारण — वित्तीय लेखों के आधार पर निर्धारित विक्य-मूल्य भ्रामक हो सकता है क्योंकि वित्तीय लेखे इस सम्बन्ध में कोई वैज्ञानिक आधार प्रदान नहीं करते जबकि लागत लेखे रखे जान पर विक्रय-मूल्य अधिक सही और वैज्ञानिक ढंग से निर्धारित किया जा सकता है क्योंकि लागत लेखे लागत सम्बन्धी विस्तृत सूचना प्रदान करते हैं ।
(9) अवधि — वित्तीय लेखे सामन्यत: एक वर्ष की अवधि के लिए तैयार किये जाते हैं जबकि लागत लेखे संस्था के आन्तरिक महत्व के होने के कारण आवश्यकतानुसार मासिक , त्रैमासिक या अन्य अवधि के लिए भी तैयार किये जाते हैं
(10) सामग्री लागत अभिलेखन — वित्तीय लेखन में केवल सामग्री के मूल्य की ही हिसाब रखा जाता है , मात्रा का नहीं। इसके साथ-साथ प्रतय्क्ष एवं अप्रत्यक्ष सामग्री के रुप में वग्रीकरण पर भी कोई ध्यान
नहीं दिया जाता और न ही सामग्री के क्षय पर नियन्त्रण हेतु ध्यान दिया जाता है । जबकि लागत लेखों में प्रत्यक्ष और अप्रत्क्ष सामग्री का अलग – अलग लेखा किया जाता है और मूल्य व मात्रा दोनों का हिसाब रखा जाता है । इतना ही नहीं , इसमे सामग्री सम्बन्धी क्षय , आदि को विशेष रुप से नियन्त्रित किया जाता है ।
(11) श्रम लागत अभीलेखन — लागत लेखों में प्रत्यक्ष एवं अप्तयक्ष श्रम का पृथक्-पृथक् लेखा किया जाता है और श्रमिकों का कार्यकुशलता का अध्ययन करके श्रमिकों का कार्यकुशलता बढांने के लिए विभिन्न प्ररणात्मक योंजनाओँ का अध्ययन करके उपयुक्त योजना लागू की जाती है , जबकि वित्तीय लेखों में इस प्रकार का श्रम लागत अभिलेखन नहीं किया जाता है ।
(12) महत्व— वित्तीय लेखे व्यवसाय के प्रधान या प्रमुख लेखे होते हैं जबकि लागत लेखे वित्तीय लेखों के सहायक लेखे होते हैं । अत; लागत लेखों का महत्व गौण होता है ।
(13) नियन्त्रण— वित्तीय लेखों में सामान्यता लेखांकन पक्ष पर ध्यान केन्द्रित रहता है तथा नियन्त्रण के महत्व को काफी हद तक भुला दिया जाता है जबकि लागत लेखांकन में लागत नियन्त्रण, बजटरी नियन्त्रण तथा प्रमाप लागत लेखा विधि के मध्यम से कार्यक्षमता एवं व्ययों पर समुचित नियन्त्रण रखा जाता है ।
(14) प्रस्तुतीकरण — वित्तीय लेखों को इस प्रकार रखा जाता है कि वे कम्पनी अधिनियम एवं आय-कर विधि के अनुरूप आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके जबकि लागत लेखे स्वैच्छिक रूप से सामान्यतः प्रबन्ध की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं।
वित्तीय लेखांकन की सूचनाओं को उपयोग में लाने की चाबी लागत लेखांकन है।
यह तो स्पष्ट ही है कि वित्तीय लेखांकन एवं लागत लेखांकन एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं परन्तु वित्तीय लेखों द्वारा किसी भी उद्योग एवं व्यवसाय के प्रबन्ध को उतनी सूचनाएँ नहीं मिल पातीं जितनी लागत लेखों द्वारा प्राप्त हो सकती हैं। उदाहरणार्थ, वित्तीय लेखों के अन्तर्गत तैयार किये गये व्यापार खाते से यह तो मालूम हो जायेगा कि किसी निश्चित अवधि में कुल कितने मूल्य की सामग्री का उपयोग हुआ है परन्तु यह ज्ञात नहीं हो सकता कि उत्पादित की गई विभिन्न वस्तुओं में से प्रत्येक वस्तु पर कुल कितने मूल्य की सामग्री उपभोग हुई, सामग्री का कितना क्षय हुआ और सामग्री के उपयोग में मितव्ययिता की कहाँ-कहाँ सम्भावनाएँ हैं। इसी प्रकार श्रम के सम्बन्ध में व्यापार खाते से यह तो पता चल जायेगा कि मजदूरी पर कुल कितना व्यय हुआ है परन्तु यह पता नहीं चल सकता कि विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में मजदूरी पर अलग-अलग कितना व्यय हुआ, मजदूरों का कितना समय व्यर्थ में नष्ट हुआ, उत्पादन क्षमता बढ़ाने के कौन-कौन से उपाय कितने कारगर सिद्ध हुए। उपरिव्ययों एवं सकल लाभ के सम्बन्ध में भी व्यापार खाता एकमुश्त जानकारी ही दे पाता है, विभिन्न वस्तुओं के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् विस्तृत जानकारी का वित्तीय लेखों में अभाव रहता है। वस्तुतः इन सभी के सम्बन्ध में विस्तृत सूचनाएँ लागत लेखा रूपी चाबी लगने से ही उपलब्ध हो सकती है। इसीलिए तो हॉकिन्स ने कहा है
“साधारण व्यापार खाता एक ऐसा ताला लगा हुआ भण्डार-गृह है जिसमें अत्यधिक मूल्यवान सूचनाएँ होती हैं। और जिसकी कुञ्जी लागत लेखा प्रणाली है।”
उपरोक्त कथन इसी बात पर जोर देता है कि वित्तीय लेखों में तैयार किये गये व्यापार खाते में सामूहिक रूप से अनेक सूचनाएँ छिपी होती हैं परन्तु उनकी जानकारी लागत लेखांकन रूपी चाबी लगाने पर ही होती है। लागत लेखांकन के प्रयोग से प्रकट होने वाली मुख्य सूचनाएँ निम्नलिखित प्रकार हैं
(i) उत्पादित की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं में सामग्री का पृथक्-पृथक् उपयोग;
(ii) सामग्री का सामान्य अथवा असामान्य क्षय;
(iii) अप्रचलन के कारण सम्भावित सामग्री की क्षति;
(iv) विभिन्न उत्पादों पर पृथक्-पृथक् मजदूरी व्यय;
(y) विभिन्न उत्पादों की बिक्री से प्राप्त पृथक्-पृथक् आय;
(vi) विभिन्न उत्पादों से प्राप्त पृथक्-पृथक् सकल लाभ;
(vii) प्रत्येक उत्पाद से प्राप्त होने वाले सकल लाभ का उसकी बिक्री से प्रतिशत।।