जलालुद्दीन खिलजी (सन् 1290-1296 ई०) (Jalaluddin Khilji, 1290-1296 A.D.)]
राज्यारोहण के समय जलालुद्दीन खिलजी की आयु सत्तर वर्ष थी। वह योग्य सैनिक और बलबन के शासनकाल में वह उत्तर-पश्चिम सीमा का मुख्य सेनापति था। मंगोलों के साथ हुए विभिन्न युद्धों में उसने शौर्य और साहस का प्रदर्शन किया था। जब निजामुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् सुल्तान कैकुबाद ने प्रशासन का पुनर्गठन किया था, उसने जलालुद्दीन को समाना से बुलाकर आरिज-ए-मुमालिक नियुक्त किया था, उसे बरन की सूबेदारी तथा ‘शाइस्ता खाँ’ की उपाधि प्रदान की थी। उसकी ख्याति एक योग्य सैनिक के रूप में थी और शक्तिशाली खिलजी दल का वह नेता था किन्तु कैकुबाद पुन: विलासिता में डूब गया, जिसके फलस्वरूप तुर्क अमीरों का षड्यन्त्र हुआ जिसमें जलालुद्दीन सफल हुआ।
जलालुद्दीन ने दिल्ली आकर बालक क्यूमर्स को सिंहासन पर बैठाया और जब मलिक छज्जू और कोतवाल फखरुद्दीन ने संरक्षक बनना अस्वीकार कर दिया तो वह स्वयं क्यूमर्स का संरक्षक बन गया। लेकिन वह व्यावहारिक व्यवस्था नहीं थी। अत: तीन माह पश्चात् कैकुबाद और क्यूमर्स दोनों का वध कर दिया गया और जलालुद्दीन किलोखरी महल में जिसे कैकुबाद ने दिल्ली से बाहर बनवाया था; सिंहासन पर बैठा।
जलालुद्दीन ने इस बात की विशेष सावधानी रखी कि महत्त्वपूर्ण पदों पर विश्वस्त अधिकारियों को नियुक्त किया जाए। इन पदों पर उसने अपने परिवार के लोगों को नियुक्त किया। उसके अपने ज्येष्ठ पुत्र इख्तियारुद्दीन को राजधानी के समीप के क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया और उसे खानखाना की उपाधि प्रदान की। दूसरे पुत्र को अर्कली खाँ की उपाधि दी गई और उसे मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया गया। तीसरे पुत्र को कद्र खाँ की उपाधि दी गई। उसने अपने छोटे भाई को आरिजे मुमालिक नियुक्त किया, अपने भतीजों अलमासबेग को अखूरबेग और अलाउद्दीन को अमीरे-तुजुक नियुक्त किया। उसने अपने एक अन्य सम्बन्धी अहमद चप को अमीर-ए-हाजिब के पद पर नियुक्त किया।
शान्ति और दया की नीति-जलालुद्दीन ने उदारतापूर्वक तुर्क अधिकारियों को अपने पदों पर बने रहने दिया। उसने शान्ति और दया की नीति को अपनाया और कम-से-कम हस्तक्षेप किया जिससे खून-खराबा न हो। उसका उद्देश्य स्पष्ट था, वह शान्ति और सौहार्द की नीति से दरबारियों और जनसामान्य का विश्वास प्राप्त करना चाहता था। उसने प्रारम्भ से ही इस बात का ध्यान रखा कि दिल्ली के नागरिकों या अधिकारियों से उसका किसी बात पर संघर्ष न हो। उसने अत्यधिक विनयशीलता की नीति अपनाई और तुर्क अधिकारियों को पदों तथा वेतन आदि का पहले की भाँति उपभोग करने दिया जिससे वे सन्तुष्ट रहें। इस नीति का आशानुकूल परिणाम सामने आया। दिल्ली के नागरिकों तथा अधिकारियों को सुल्तान की सुहृदयता पर विश्वास हो गया। कोतवाल फखरुद्दीन ने उसे दिल्ली आने का निमन्त्रण दिया। दिल्ली पहुंचकर उसने बलबन के सिंहासन के सामने अश्रुपूरित नेत्रो से घोषित किया कि वह सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं है। उसने कहा कि मलिक सुरखा और मलिक कच्छन ने उसे राजपद पाने के लिए विवश कर दिया है लेकिन सभी के आग्रह के बाद उसने सिंहासन पर बैठना स्वीकार किया। स्पष्ट है कि वह विभिन्न वर्गों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहा।
गृह-नीति-बलबन की ‘रक्त और लौह’ नीति के स्थान पर जलालुद्दीन ने उदार प्रशासन आरम्भ किया। आतंक और तलवार के स्थान पर उसने स्नेह और करुणा को प्रशासन का मुख्य आधार बनाया। वह अनेक युद्धों का विजेता था और उसका जीवन युद्धों में ही बीता था। लेकिन उसने शान्ति की नीति को स्वीकार किया और सल्तनत के विस्तार के लिए या सुल्तान की शक्ति में वृद्धि के लिए रक्तपात करना अस्वीकार कर दिया। अहमद चप ने कई बार उसे कठोर नीति अपनाने का परामर्श दिया लेकिन उसने उसे अस्वीकार कर दिया। अनेक खिलजी अधिकारी सुल्तान के विरोधी हो गए क्योंकि उनकी दृष्टि में सुल्तान की नीति किसी प्रकार भी यथार्थवादी नहीं थी। बलबन के उत्तराधिकारी की दुर्बलता से राजपद की प्रतिष्ठा कम हो गई थी जिसकी पुनर्स्थापना आवश्यक थी। पश्चिमी सीमा पर मंगोल आक्रमणों को रोकने के लिए भी कठोर नीति आवश्यक थी। इन समस्याओं के अतिरिक्त साम्राज्य का विस्तार भी महत्त्वपूर्ण कार्य था जो एक दृढ़-प्रतिज्ञ सुल्तान ही कर सकता था। अत: तत्कालीन राजनीतिक और सैनिक परिस्थितियों में उदारवादी प्रशासन अव्यावहारिक था। अनेक नवयुवक खिलजी, जो उच्च पदों की आकांक्षा रखते थे, सुल्तान की नीति से असन्तुष्ट थे। उनकी दृष्टि में सुल्तान की नीति दुर्बलता की प्रतीक थी। वे सुल्तान को उसकी अत्यधिक वृद्धावस्था के कारण सुल्तान पद के लिए अयोग्य समझते थे और उसे बुद्धिहीन मानते थे। वे उसे हटाकर ऐसा सुल्तान चाहते थे जो उनकी आकांक्षाओं को पूरा कर सके।
शासन की प्रमुख घटनाएँ-गृह-नीति के क्षेत्र में जलालुद्दीन खिलजी के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ निम्नलिखित थीं –
(1) मलिक छज्जू का विद्रोह-राज्यारोहण के दूसरे वर्ष में सुल्तान को मलिक छज्जू के विद्रोह का सामना करना पड़ा। मलिक छज्जू बलबन का भतीजा था और सुल्तान ने उसे कड़ा का सूबेदार नियुक्त किया था। सुल्तान ने विद्रोहियों का सामना करने के लिए सेना का नेतृत्व स्वयं किया। उसकी सेना का अग्रिम भाग उसके द्वितीय पुत्र अर्कली खाँ के नेतृत्व में था। बदायूँ के निकट अर्कली खाँ ने मलिक छज्जू को पूर्ण रूप से पराजित किया और साथियों सहित उसे बन्दी बना लिया। इन बन्दियों को उसने सुल्तान के सामने प्रस्तुत किया। सुल्तान ने विद्रोहियों को दण्ड नहीं दिया बल्कि उन्हें सम्मानित किया।
विद्रोहियों को प्राण दण्ड न देकर उन्हें सम्मानित करना, सुल्तान का अदूरदर्शितापूर्ण कार्य था। इसका खिलजी अधिकारियों ने विरोध किया। अहमद चप ने उसे सावधान किया कि सुल्तान ने उसका कार्य सुरक्षा के विरुद्ध है और इससे विद्रोहों को प्रोत्साहन मिलेगा। लेकिन स्पष्ट कर दिया कि इस क्षणभंगुर राज्य के लिए वह अपने साथी मुसलमानों का वध करके अपनी आत्मा को संकट में नहीं डालना चाहता। उसने मलिक छज्जू को अर्कली खाँ के साथ कड़ा मुल्तान भेजा जिसकी सूबेदारी उसने अर्कली खाँ को प्रदान की थी। अलाउद्दीन को मानिकपुर का सूबेदार नियुक्त किया गया।
(2) ठगों के प्रति उदारता-जलालुद्दीन ने ठगों और चोरों के बारे में भी इसी उदार नीति का पालन किया जिससे खिलजी अधिकारी वर्ग में असन्तोष की वृद्धि हुई। दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों में राजनीतिक अव्यवस्था के कारण चोरों और ठगों की कार्यवाहियाँ बढ़ गई थीं। सुल्तान ने आरम्भ में अनेक चोरों को क्षमादान देकर आशा की कि सुधार आएगा। लेकिन इसके विपरीत अपराधों में वृद्धि हो गई और लगभग एक हजार अपराधी पकड़े गए। सुल्तान ने उन्हें अपराधों के विरुद्ध चेतावनी भरा भाषण दिया और नावों में बिठाकर बंगाल में छुड़वा दिया। इससे बंगाल में अपराधों की बाढ़ आ गई। उदारता की नीति का यह गम्भीर परिणाम था।
(3) सुल्तान के विरुद्ध षड्यन्त्र-खिलजी अमीरों की दृष्टि में सुल्तान की उदार नीति कायरता, निर्बलता और अयोग्यता की प्रतीक थी। उनमें असन्तोष इतना अधिक बढ़ गया था कि वे भोज के अवसरों पर खुले आम सुल्तान को सिंहासन से उतारने की बातें करने लगे, को यह ज्ञात था, लेकिन उसने यह सब रोकने के लिए कोई कार्यवाही नहीं की। कुछ महत्त्वाकांक्षी अमीर स्वयं सुल्तान बनने की कल्पना करने लगे। एक खिलजी सरदार ताजुद्दीन कूची के भोज के अवसर पर अमीरों ने जलालुद्दीन को हटाकर अहमद चप को सुल्तान बनाने योजना बनाई। सुल्तान ने सूचना प्राप्त होने पर भरे दरबार में उन सरदारों की निन्दा की और में चेतावनी देकर क्षमा कर दिया। इस नीति का दुष्परिणाम यह हुआ सुल्तान भय कम हो गया और विद्रोहियों को प्रोत्साहन मिला।
(4) सिद्दी मौला का षड्यन्त्र-सुल्तान की उदार नीति का अपवाद सिद्दी मौला का वध है। सिद्दी फारस का एक दरवेश था। धीरे-धीरे उसके अनुयायियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। उसके अनुयायियों मे अनेक बलबनी और खिलजी सरदार थे। सिद्दी ने विशालकाय खानकाह का निर्माण कराया जहाँ सैकड़ों व्यक्तियों को प्रतिदिन भोजन कराया जाता था। इससे बेरोजगार और निर्धन व्यक्ति खानकाह में एकत्रित होने लगे। यह ज्ञात नहीं है कि सिद्दी की आय का स्रोत क्या था लेकिन उसकी लोकप्रियता में अत्यधिक वृद्धि हुई। अनेक बलबनी सरदारों ने उसे सुल्तान बनाने का षड्यन्त्र किया। षड्यन्त्रकारियों ने सिद्दी का राजवंश से सम्बन्ध जोड़ने के लिए सिद्दी का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन की पुत्री से करना निश्चित किया। लेकिन षड्यन्त्र खुल गया और सिद्दी तथा उसके अनुयायियों को बन्दी बना लिया गया। अर्कली खाँ ने सिद्दी को हाथी के पैर तले कुचलवा दिया।
सम्भवत: बरनी सिद्दी को धार्मिक व्यक्ति समझता था। वह लिखता है कि सिद्दी के वध के बाद दिल्ली में तूफान आया और उस क्षेत्र में सूखा पड़ गया। साधारण जनता का विश्वास था कि यह आपदाएँ सिद्दी के अभिशाप के कारण आईं।
(5) विदेश नीति–जलालुद्दीन के शासनकाल में चार सैनिक अभियान हुए थे जिनमें से दो अभियान स्वयं सुल्तान के नेतृत्व में हुए थे और दो उसके भतीजे अलाउद्दीन ने किए थे। सुल्तान ने सन् 1290 ई० में रणथम्भौर तथा सन् 1292 ई० में मण्डौर पर आक्रमण किया था। अलाउद्दीन के आक्रमण भिलसा तथा देवगिरि के विरुद्ध थे। सन् 1290 ई० में मंगोल आक्रमण हुआ ने सफलता से प्रतिरोध किया था।
शासनकाल के अन्य अभियान जिसका सुल्तान
(1) रणथम्भौर अभियान-सुल्तान ने रणथम्भौर को जीतकर सल्तनत के विस्तार का प्रयास भी किया। बलबन इस किले को जीतने में असफल रहा था। इससे चौहान शासक हम्मीर की शक्ति में निरन्तर वृद्धि हो रही थी। सुल्तान ने इस अभियान का नेतृत्व स्वयं किया था। वह दुर्ग पर अधिकार कराने में असफल रहा और उसने वापस लौटने का निर्णय किया। जब खिलजी सरदारों ने इसका विरोध किया तो उसने उत्तर दिया कि वह मुसलमानों का जीवन दुर्ग से अधिक मूल्यवान समझता है। वास्तविक कारण यह था कि सुल्तान को स्पष्ट हो गया था कि दुर्ग को जीतने में लम्बा समय लगेगा और वह अधिक समय तक दिल्ली से बाहर नहीं रहना चाहता था।
(2) मण्डौर अभियान-सन् 1292 ई० में सुल्तान ने मण्डौर पर आक्रमण किया। यह राजपूत राज्य बलबन के शासन काल में स्वतन्त्र हो गया था। इस अभियान में सुल्तान को सफलता मिली और मण्डौर दिल्ली सल्तनत में पुन: सम्मिलित कर लिया गया।
(3) मंगोल आक्रमण-सन् 1292 ई० में मंगोल हलाकू के पौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में डेढ़ लाख मंगोलों ने पंजाब पर आक्रमण किया और सूनम आदि प्रदेशों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। उनका सामना करने के लिए सुल्तान स्वयं पंजाब गया और एक भीषण युद्ध में मंगोलों को पराजित किया। अब्दुल्ला सुल्तान से सन्धि करके वापस चला गया। चंगेज खाँ का एक वंशज उलुग चार हजार मंगोलों के साथ दिल्ली में ही बस गया। उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और सुल्तान की नौकरी कर ली। सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उलुग के साथ कर दिया। ये मंगोल नवीन मुसलमान कहलाए।
(4) अलाउद्दीन का भिलसा अभियान-सन् 1293 ई० में अलाउद्दीन ने जो इस समय कड़ा मानिकपुर का सूबेदार था, भिलसा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के लिए उसने सुल्तान की अनुमति प्राप्त कर ली थी। मलिक छज्जू के असफल विद्रोह के पश्चात् कड़ा में अनके विद्रोही साथी एकत्रित थे जो अलाउद्दीन को सुल्तान पद प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। इनके अलावा दिल्ली दरबार के षड्यन्त्रों से भी अलाउद्दीन को प्रोत्साहन मिल रहा था। अनेक खिलजी सैनिक अधिकारी थे जो जलालुद्दीन की नीतियों से असन्तुष्ट थे जिन्होंने अलाउद्दीन को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें आशा थी कि अलाउद्दीन के सुल्तान बनने पर उन्हें उच्च पद प्राप्त होंगे। महत्त्वाकांक्षी अलाउद्दीन ने सावधानी से स्थिति का मूल्यांकन किया। उसे ज्ञात था कि दरबार के षड्यन्त्रों के कारण कोई अन्य व्यक्ति जैसे अर्कली खाँ और अहमद चप स्वयं वृद्ध और दुर्बल सुल्तान को हटाकर गद्दी पर अधिकार कर सकता था। अत: सिंहासन को प्राप्त करने के लिए उसने दृढ़ता तथा योजनाबद्ध तरीके से कार्य प्रारम्भ किया। दिल्ली में उसका भाई उलुग खाँ उसके हितों का संरक्षक था। यह आवश्यक था कि उसके पास पर्याप्त संख्या में सैनिक और धन हो। कड़ा में उसे मालवा के धनी क्षेत्रों के बारे में सूचनाएँ प्राप्त हुईं। अत: धन प्राप्त करने के लिए उसने मालवा पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उलुग खाँ ने चतुरतापूर्वक सुल्तान से अनुमति दिलवा दी।
अलाउद्दीन ने सन् 1293 ई० में भिलसा (विदिशा) पर आक्रमण किया और वहाँ के धनी मन्दिरों को लूटा। दिल्ली जाकर उसका अधिकांश भाग उसने सुल्तान को प्रस्तुत किया और धूर्ततापूर्वक अपनी स्वामिभक्ति प्रकट की। सुल्तान अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने अलाउद्दीन को कड़ा के अतिरिक्त अवध की सूबेदारी तथा आरिज-ए-मुमालिक का पद प्रदान किया। उलुग खाँ के निवेदन पर सुल्तान ने अलाउद्दीन को यह अधिकार भी दिया कि वह अपने प्रान्तों की फाजिल रकम से वह अतिरिक्त सैनिक भर्ती कर सकेगा। के
(5) अलाउद्दीन का देवगिरि अभियान-सन् 1295 ई० में अलाउद्दीन ने देवगिरि विरुद्ध अभियान किया। भिलसा अभियान के समय उसे देवगिरि की अपार सम्पत्ति का ज्ञान हुआ था। उसने दो वर्षों तक सैनिक तैयारी की और अभियान के बारे में सुल्तान को सूचित तक नहीं किया। उसका अभियान सफल हुआ और देवगिरि से अपार सम्पत्ति लूटकर कड़ा लाया। सुल्तान अलाउद्दीन की सफलता से प्रसन्न था और इस सम्पत्ति को प्राप्त करना चाहता था। अहमद चप ने उसे परामर्श दिया कि वह चन्देरी में अलाउद्दीन को रोके और उससे सम्पत्ति छीन ले। लेकिन सुल्तान अलाउद्दीन के समर्थकों के प्रभाव में था और उसने कुछ नहीं किया। में अलाउद्दीन सुरक्षित कड़ा पहुँच गया।
समझाया कि बीच जलालुद्दीन की हत्या–अलाउद्दीन की महत्त्वाकांक्षा सभी खिलजी सरदारों को ज्ञात थी जब सुल्तान ग्वालियर में था, उस समय अहमद चप ने उसे अलाउद्दीन को रोकने का परामर्श दिया जो देवगिरि से विशाल सम्पत्ति लेकर आ रहा था। लेकिन सुल्तान ने उसका परामर्श नहीं माना और दिल्ली लौट गया। उलुग खाँ ने उसे दिल्ली लौटने का परामर्श दिया था। सुल्तान ने उसका परामर्श स्वीकार किया। सुल्तान को आशा थी कि अलाउद्दीन दिल्ली आकर उसे दक्षिण खाँ ने सुल्तान को से लाई अतुल सम्पत्ति भेंट करेगा। दिल्ली पहुँचने पर उलुग अलाउद्दीन अत्यन्त भयभीत है और जब तक सुल्तान उसे क्षमादान नहीं देगा, वह दिल्ली नहीं आएगा। अलाउद्दीन ने भी ऐसा ही प्रार्थना-पत्र सुल्तान के पास भेजा। सुल्तान ने अपने हस्ताक्षरयुक्त-पत्र में अलाउद्दीन को क्षमा प्रदान की और दिल्ली आने का आदेश दिया। अन्त में उलुग खाँ के परामर्श पर सुल्तान ने स्वयं कड़ा जाकर अलाउद्दीन को क्षमा करने का निर्णय किया।
बरनी लिखता है, “इस प्रकार मृत्यु ने सुल्तान के सर के बालों को पकड़कर अपनी ओर घसीटा। सुल्तान नदी मार्ग से कड़ा पहुँचा। उलुग खाँ के परामर्श पर वह निःशस्त्र और बिना अंगरक्षक के नाव से उतरकर अलाउद्दीन से मिलने बढ़ा। तट पर अलाउद्दीन की सेना युद्ध की स्थिति में खड़ी थी। जब जलालुद्दीन अलाउद्दीन को गले लगा रहा था, अलाउद्दीन के संकेत पर एक सैनिक ने सुल्तान पर दो बार तलवार का वार करके उसका सर काट लिया। सारी सेना में सुल्तान का कटा सिर प्रदर्शित किया गया और अलाउद्दीन को सुल्तान घोषित किया गया।” बरनी ने इस हत्याकाण्ड की घोर निन्दा की है। अन्ततः भाग्य ने उसके (अलाउद्दीन) मार्ग में एक विश्वासघाती (काफूर) रख दिया जिसके द्वारा उसके परिवार का संहार हुआ।
जलालुद्दीन खिलजी का मूल्यांकन (Estimate of Jalaluddin Khilji)
जलालुद्दीन खिलजी ने उदारवादी शासन की स्थापना की थी जो प्रजातीय आधार पर नहीं थी बल्कि उसमें सभी वर्गों को सम्मिलित किया गया था। यह इण्डो-मुस्लिम राज्य था। उसने शान्तिपूर्ण नीति को अपनाया और अनावश्यक रक्तपात की नीति को त्याग दिया। उसकी शान्तिवादी नीति कायरता या निर्बलता का प्रतीक नहीं थी। वह स्वयं एक योग्य सेनानायक था और उसने मंगोलों के साथ युद्ध किए थे। अत: उस पर कायरता का आरोप नहीं लगाया जा सकता। उसने शान्ति की नीति को अपनाया क्योंकि सुल्तान बनने के बाद उसने शान्ति और व्यवस्था को आवश्यक समझा।
जलालुद्दीन ने प्रशासन में सभी वर्गों को स्थान दिया और उन्हें सन्तुष्ट रखने का प्रयास किया। बलबनी अमीरों तथा तुर्क पदाधिकारियों को पदों पर रखकर उसने समन्वय तथा सहयोग की नीति आरम्भ की। डॉ० ए० एल० श्रीवास्तव लिखते हैं, “उसका राज्यकाल किसी भी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं था, किन्तु यह मानना पड़ेगा कि दिल्ली सल्तनत के इतिहास में जलालुद्दीन ही पहला सुल्तान था जिसने जनमत को प्रसन्न करने तथा मुसलमानों में जो तुर्क, गैर-तुर्क तथा भारतीय वर्ग के थे, उनमें एकता तथा समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया लेकिन उसकी नीति का खिलजी और तुर्को दोनों ने विरोध किया।”
जलालुद्दीन की नीति नकारात्मक नहीं थी। कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वह भीरू और दुर्बल था और उसके वध से दिल्ली सल्तनत की रक्षा हुई। यह मत भ्रमपूर्ण है क्योकि जलालुद्दीन सर्वथा उदार नहीं था। उसकी उदार नीति बलबन की कठोर और आतंकवादी नीति के विरुद्ध एक उदारवादी प्रयोग था। दुर्भाग्य से बरनी ने केवल उन्हीं घटनाओं का उल्लेख किया है जो सुल्तान के विपरीत थीं। अगर बरनी ने उसके पूर्ण व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया होता, तब उनके आधार पर उसके बारे में निष्पक्ष निर्णय हो सकता था।
लेकिन उसकी उदारवादी नीति इस सीमा तक पहुँच गई कि वह दुर्बलता प्रतीत होने लगी। उसकी दयालुता को खिलजी अमीर उसकी अयोग्यता समझने लगे। उसने रणथम्भौर को अविजित छोड़ दिया, इससे उसकी योग्यता में सन्देह उत्पन्न हो गया। उसने हिन्दुओं के प्रति कोई उदारता प्रदर्शित नहीं की थी और उनके मन्दिरों और मूर्तियों को तोड़ा था। अत: स्पष्ट है कि उदारता उसके चरित्र का आवश्यक गुण नहीं था।
अलाद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji)
जिसने बाद में राज्यारोहण के साथ अलाउद्दीन की उपाधि धारण की, जलालुद्दीन के भाई शिहाबुद्दीन का पुत्र था। उसका जन्म सन् 1266-67 ई० में हुआ था। जलालुद्दीन ने राज्यारोहण के बाद उसे अमीर-ए-तुजुक के पद पर नियुक्त किया था। मलिक छज्जू के विद्रोह में उसने अपनी योग्यता तथा सैनिक प्रतिभा का परिचय दिया। इससे प्रभावित होकर सुल्तान जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मानिकपुर का सूबेदार नियुक्त किया। यहाँ के स्वतन्त्र और विद्रोहपूर्ण वातावरण में उसे अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने का अवसर प्राप्त हुआ। मलिक छज्जू के अनुयायी और असन्तुष्ट खिलजी सैनिक धन और पद की आशंका से प्रेरित होकर उसे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। अली गुरशप,
अलाउद्दीन खिलजी का राज्यारोहण (Accession of Alauddin Khilji)
अलाउद्दीन सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज का भतीजा और दामाद था। मलिक छज्जू के विद्रोह के बाद उसे कड़ा और मानिकपुर की सूबेदारी प्राप्त हुई। 1292 ई० में उसने भिलसा की लूट से अपार धन प्राप्त किया, जिससे प्रसन्न होकर सुल्तान ने उसे अवध की सूबेदारी भी प्रदान कर दी। 1294 ई० में सुल्तान ने उसे चन्देरी पर आक्रमण करने का आदेश दिया, परन्तु उसने आदेश की अवहेलना करके देवगिरि पर आक्रमण किया और वहाँ से अपार धन-सम्पत्ति लूटकर कड़ा लौटा, बाद में उसने एक षड्यन्त्र रचकर सुल्तान का सिर काट लिया और स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया। 90 की स्थिति बड़ी शोचनीय थी क्योंकि जलाली अमीर उसे राज्य का अपहरणकर्ता और चाचा का तत्पश्चात् अलादीन दिल्ली पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा। उस समय अलाउद्दीन हत्यारा समझते थे। अहमद चप अलाउद्दीन की सम्प्रभुता को मानने के लिए कदापि तैयार न था। दिल्ली में सुल्तान की विधवा रानी मलिका-ए-जहाँ ने अपने दूसरे पुत्र कद्र खाँ को रुकनुद्दीन इब्राहीम के नाम से गद्दी पर बिठा दिया था। सुल्तान का बड़ा पुत्र अर्कली खाँ मुल्तान का कुछ सूबेदार था। लेकिन अलाउद्दीन बड़ा साहसी, दूरदर्शी और कूटनीतिज्ञ था। उसने दृढ़तापूर्वक अपनी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। उसने बहुत-सा धन बाँटकर अनेक जलाली अमीरों और सैनिकों को अपनी ओर मिला लिया और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। बदायूँ के निकट इब्राहीम ने एक सेंना लेकर उसका सामना किया, परन्तु अलाउद्दीन ने बिना युद्ध किए ही उस पर विजय प्राप्त कर ली। इब्राहीम अपनी माता मलिका-ए-जहाँ और सहयोगियों के साथ मुल्तान भाग गया।
अलाउद्दीन ने 60 हजार घुड़सवार, 60 हजार पैदल सेना, एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में सोने के सिक्के लेकर दिल्ली में प्रवेश किया। अलाउद्दीन ने दिल्ली की जनता में धन की वर्षा करके अपने प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर दी और 3 अक्टूबर, 1294 ई० को वह दिल्ली के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हो गया।
दिल्ली की गद्दी पर अधिकार करके अलाउद्दीन ने उलुग खाँ और हिजाबुद्दीन को 40 हजार सेना के साथ मुल्तान भेजा। इस सेना ने मुल्तान पर अधिकार करके अर्कली खाँ इब्राहीम , मलिका-ए-जहाँ तथा अहमद चप आदि को बन्दी बना लिया। अलाउद्दीन ने इन बन्दियों को दिल्ली में अन्धा करवा दिया और मलिका-ए-जहाँ को जेल में डाल दिया। तत्पश्चात् उसने अपने समस्त शत्रुओं और विरोधियों का सफाया करके अपनी स्थिति को दृढ़ सुरक्षित बना लिया। और पूर्णतया
अलाउद्दीन खिलजी की महत्त्वाकांक्षाएँ (Ambitions of Alauddin Khilji)
सर्वत्र विजय और अपार धन की प्राप्ति ने अलाउद्दीन को अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी और दम्भी बना दिया था। बरनी लिखता है— “उसके मन में नई-नई भावनाओं का उदय हुआ। उसके हृदय में नए-नए महत्त्वपूर्ण विचार उत्पन्न होने लगे जो उससे पूर्व के शासकों में उत्पन्न नहीं हुए थे। अपनी अज्ञानता तथा मूर्खता के कारण वह उन वस्तुओं को प्राप्त करने लगा जो वास्तव में असाध्य थीं। वह बहुत हठी, कठोर तथा बुरे स्वभाव का व्यक्ति था किन्तु उसको चारों ओर सफलता प्राप्त हुई, जिसके कारण वह और भी हठी और अविचारवान बनता गया।” उसने अपने जीवन के दो उद्देश्य बनाए थे, यथा वह एक नए धर्म को प्रचलित करना चाहता था तथा सिकन्दर महान् के समान विश्व-विजय करना चाहता था।
अपने प्रथम उद्देश्य के विषय मे वह कहा करता था—“ईश्वर ने अपने प्रवर्तक को चार मित्र प्रदान किए थे, जिनकी सहायता के आधार पर वह एक नए धर्म को चलाने में तथा उसक विस्तार करने में सफल हुआ। ईश्वर ने मुझको भी चार मित्र उलुग खाँ, नुसरत तथा अल्प खाँ प्रदान किए हैं। यदि मैं चाहूँ तो मैं भी उनके द्वारा एक नया धर्म चला सकता हूँ और अपनी तलवार द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उस धर्म को मानने के लिए बाध्य कर सकता हूँ। खा, जफर खां द्वितीय उद्देश्य के विषय में वह कहा करता था— -“मेरे पास अतुल धन-सम्पत्ति है तथा एक सुसंगठित सेना है, जिसके द्वारा मैं विश्व-विजय कर सकता हूँ। मैं अपनी अनुपस्थिति में भारत साम्राज्य के लिए अपना प्रतिनिधि छोड़कर विश्व-विजय के लिए प्रस्थान करूंगा।
यह एक बार जब वह हवाई किले बना रहा था तो दिल्ली का कोतवाल अलाउल मुल्क उसके समक्ष उपस्थित हुआ। उसने उसके सामने अपनी सत्यता प्रकट की और उससे सय भी माँगी। कोतवाल ने उसे उत्तर देते हुए कहा कि “धर्म-प्रसार करना मानव का काम नहीं है, केवल ईश्वर की प्रेरणा से ही होता है और ये कार्य कुछ निश्चित व्यक्तियों के द्वारा ही सम्पन्न किए जाते हैं, जिनको केवल ईश्वर इस कार्य के लिए ही भेजता है।… किसी राजा का कार्य धर्म चलाना नहीं है, वरन् ऐसा तो सम्भव है कि भविष्य में आप इन शब्दों का उच्चारण न करें। आपको विदित है कि चंगेज खाँ ने खून की नदियाँ बहा दीं, किन्तु वह मंगोलों के धर्म तथा उनकी संस्थाओं को स्थापित करने में सफल न हो सका। इतिहास साक्षी है कि बहुत-से मंगोलों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया किन्तु किसी भी मुसलमान ने मंगोलों का धर्म स्वीकार नहीं किया।”
सुल्तान की दूसरी महत्त्वाकांक्षा के विषय में कोतवाल ने कहा कि “यह उद्देश्य उत्कृष्ट है और उच्चकोटि के शासकों में विजय की लालसा विद्यमान रहती है, किन्तु अब सिकन्दर का काल नहीं है और इसके अतिरिक्त अरस्तू जैसा प्रधानमन्त्री भी मिलना असम्भव है। इस समय आपको दो बातों का ध्यान देना चाहिए—भारत में उन विभिन्न प्रदेशों की विजय जिन्होंने अभी तक दिल्ली की अधीनता स्वीकार नहीं की है तथा मंगोलों से साम्राज्य की रक्षा के लिए सुल्तान की सुदृढ़ नीति की स्थापना।”
अन्त में कोतवाल ने कहा कि “ये समस्त बातें उस समय तक प्राप्त नहीं हो सकतीं जब तक सुल्तान शराब का सेवन बन्द नहीं करेंगे तथा आमोद-प्रमोद में अपना समय व्यर्थ नहीं व्यतीत करेंगे।” अलाउद्दीन कोतवाल के इन विचारों से बहुत प्रभावित हुआ और उसे भारी इनाम देकर अपनी विजय-योजनाएँ तैयार की।
अलाउद्दीन की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण भारत को अपने अधीन करना था।
डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार—“उसके अधिकतर युद्ध समस्त देश की विजय के पूरा करने के लिए लड़े गए थे। हिन्दू राजाओं ने उसके विरुद्ध कोई ऐसा कार्य न किया था, जिनसे उन पर आक्रमण करने का उसे कोई बहाना मिल सकता।” दृढ़ संकल्प को
भारत की विजयें (Conquests of Northern India)
भारत में अलाउद्दीन ने निम्नलिखित विजय प्राप्त की-
(1) गुजरात विजय ( 1297 ई०)-गुजरात प्रान्त देश का एक धनी और समृद्धशाली प्रान्त था और अरब तथा फारस से होने वाले भारतीय व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। भड़ौच . सोपारा तथा खम्भात आदि यहाँ के जगप्रसिद्ध बन्दरगाह थे। इस प्रान्त की राजधानी अन्हिलवाड़ा थी। 1178 ई० में मुहम्मद गोरी यहाँ के राजा भीमदेव से पराजित हो चुका था और ऐबक ने भी इस पर अधिकार करने का असफल प्रयत्न किया था। ऐबक के बाद किसी मुस्लिम सुल्तान ने गुजरात पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया था।
इसलिए सर्वप्रथम अलाउद्दीन ने गुजरात पर आक्रमण करने की योजना बनाई। सुल्तान के आदेश पर उलुग खाँ ने सिन्ध की दिशा से और नुसरत खाँ ने राजपूताना की ओर विशाल सेनाओं के साथ गुजरात पर आक्रमण कर दिया। उस समय गुजरात पर रायकर्ण बघेला शासन कर रहा था। वह मुसलमानों की शक्ति का सामना न कर सका और अपनी पुत्री देवलदेवी के साथ देवगिरि भाग गया। शाही सेना ने अन्हिलवाड़ा, खम्भात तथा सोमनाथ आदि नगरों को बुरी तरह लूटा और अपार धन प्राप्त किया। रायकर्ण की रानी कमलादेवी भी मुसलमानों के अधिकार में आ गई। खम्भात में मलिक काफूर नामक एक हिन्दू खोजा भी मुसलमानों के हाथ लगा, जो कालान्तर में सल्तनत का प्रधानमन्त्री बना। लूट के अपार धन व रानी कमलादेवी और मलिक काफूर को पाकर अलाउद्दीन बड़ा प्रसन्न हुआ।
(2) रणथम्भौर विजय (1299-1301 ई०)—गुजरात विजय के बाद सुल्तान ने रणथम्भौर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। यह पहले भी राजस्थान में मुसलमानों की चौकी रह चुका था और रणथम्भौर का दुर्ग भी अभेद्य था। इसके अतिरिक्त यहाँ के शासक राजा हम्मीरदेव ने कुछ विद्रोही नव-मुसलमानों को शरण दे दी थी।
सन् 1300 ई० में सुल्तान ने उलुग खाँ और नुसरत खाँ को रणथम्भौर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। शाही सेना ने दुर्ग पर घेरा डाल दिया। राजा हम्मीरदेव ने बड़ी वीरता से शत्रुओं का सामना किया। घेरा एक वर्ष तक चलता रहा, किन्तु मुसलमान विजय प्राप्त करने में असफल रहे और भीषण युद्ध में नुसरत खाँ भी मारा गया। राजपूतों के साहस और वीरता से हतोत्साहित होकर उलुग खाँ को सेना सहित भागकर झाई के दुर्ग में शरण लेनी पड़ी।
शाही सेना की पराजय की सूचना पाकर अलाउद्दीन स्वयं एक विशाल सेना के साथ रणथम्भौर पहुँच गया। एक वर्ष तक भीषण युद्ध चलता रहा और सुल्तान को अपनी विजय की कोई आशा न दिखाई पड़ी। अन्त में उसने छल-कपट की नीति अपनाई और राजा हम्मीरदेव के दो मन्त्रियों रनमल तथा रत्नपाल को अपनी ओर मिलाकर सुल्तान ने दुर्ग के फाटक खुलवा लिए। शाही सेना ने दुर्ग में प्रविष्ट होकर उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। राजा हम्मीरदेव लड़ता हुआ मारा गया।
डॉ० के० एस० लाल ने लिखा है—“राजा ने अपने वंश की परम्पराओं का पालन किया और अद्वितीय वीरता के साथ युद्ध लड़ा। उसने शरणागत मंगोलों को शत्रु के हवाले न किया। उसकी गणना राजस्थान के उन वीर सपूतों में की जा सकती है, जो अपनी मातृभूमि की स्वतन्त्रता को सुरक्षित करने के लिए मुसलमानों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।” यही
सुल्तान ने दुर्ग पर अधिकार करके विश्वासघाती मन्त्रियों का वध करवा दिया, उनके राजद्रोह का उचित पुरस्कार था।
राजपूत नीति–एक चतुर कूटनीतिज्ञ की भाँति अलाउद्दीन ने शत्रुओं को मित्र बनाने की नीति अपनाई हालाँकि अलाउद्दीन की राजपूत नीति स्पष्ट नहीं है। राजपूताना में साम्राज्य विलय की योजना धीरे-धीरे कार्यान्वित की गई और बाद में उसे अव्यावहारिक समझकर अलाउद्दीन ने त्याग दिया। रणथम्भौर के राज्य का सल्तनत में विलय कर लिया गया परन्तु राजपूताना के अन्य प्रदेशों को शाही विधि के अन्तर्गत लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। चित्तौड़ विजय राजपूत नीति का अंग थी यह नहीं माना जा सकता। फिर भी इसका वर्णन महत्त्वपूर्ण है-
चित्तौड़ विजय (1303 ई०)-चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी था और चित्तौड़ का दुर्ग बड़ा सुदृढ़ और सामरिक दृष्टि में बड़ा महत्त्वपूर्ण था। यहाँ का राजा रत्नसिंह था।
अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण क्यों किया? यह प्रश्न इतिहास का एक विवादास्पद विषय है और इस विषय पर विद्वानों के विभिन्न मत हैं।
रानी पद्मिनी की कथा-कुछ इतिहासकार पौराणिक कथाओं के आधार पर रानी पद्मिनी की कहानी पर विश्वास करते हैं कि “पद्मिनी या पद्मावती लंका के राजा गन्धर्व सेन की अति सुन्दर पुत्री थी। मेवाड़ के राजा रत्नसिंह ने अपने हीरामन नामक तोते से पद्मिनी के अलौकिक सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी और व्याकुल हो गया। वह योगी का वेश बनाकर लंका गया और बारह वर्ष तक अथक प्रयत्न करने के बाद उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल गई। वह पद्मिनी को लेकर मेवाड़ लौट आया। एक दिन राघव चेतन नामक साधु शाही महल में भिक्षा माँगने के लिए गया और वहीं पर उसने पद्मिनी के अलौकिक सौन्दर्य को देख लिया। उसी के द्वारा सुल्तान अलाउद्दीन को पद्मिनी के सौन्दर्य का ज्ञान हुआ और उसके हृदय में उसे प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न हो गई। अलाउद्दीन ने इसीलिए मेवाड़ पर आक्रमण किया और राणा रत्नसिंह को बन्दी बना लिया। सुल्तान ने रानी पद्मिनी को यह सन्देश भेजा की कि यदि वह सुल्तान की मलिका बनना स्वीकार कर लेगी तो राजा रत्नसिंह को रिहा कर दिया जाएगा। रानी जो ने सुल्तान के प्रस्ताव को स्वीकार करके एक चाल चली। वह आठ सौ सैनिकों के साथ, पालकियों में बैठे हुए थे, सुल्तान से मिलने के लिए गई। अलाउद्दीन बड़ी आतुरता के साथ रानी की प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु पालकियों के अन्दर बैठे राजपूतों ने एकाएक शाही सेना। आक्रमण करके राजा रत्नसिंह को छुड़ा लिया और दुर्ग में लौट आए। इसके बाद क्रोधित होकर सुल्तान ने दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। भीषण युद्ध के बाद सुल्तान को विजय प्राप्त हुई और राजपूत पराजित हुए। रानी पद्मिनी ने अपनी दासियों के साथ जौहर प्राप्त कर लिया।
1 आदि करते हैं, परन्तु डॉ० के एस० लाल तथा डॉ० गोरीशंकर ओझा जैसे आधुनिक इतिहासकार इस कहानी पर विश्वास नहीं करते हैं। इनके तर्क इस प्रकार हैं(1) अमीर खुसरो जो कि चित्तौड़ अभियान में सुल्तान के साथ था, इस घटना पर कोई
प्रकाश नहीं डालता है।
(2) अन्य समकालीन लेखक भी इस विषय पर मौन हैं।
(3) मलिक मुहम्मद जायसी एक कवि था और जिसने अपना ग्रन्थ पद्मवात 1540 ई० में लिखा था। उसका प्रेम-काव्य, जो कि कोरी कल्पना पर आधारित है और उसने कथानक खुसरो के ग्रन्थ खजान-उल-फुतूह से ग्रहण किया है।
डॉ० के० एस० लाल का मत है—“सोलहवीं शताब्दी के कवि जायसी ने एक काव्य पद्मावत 1540 ई० में लिखा। उसने उसमें बताया कि अलाउद्दीन ने चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण किया। फारसी इतिहासकारों ने, जो सत्य तथा कहानी में अन्तर की परवाह नहीं करते थे, इसी को सत्य समझा और जायसी के बाद यह ऐतिहासिक घटना ही मानी जाने लग फरिश्ता तथा हाजी-उद-दबीर ने भी ऐतिहासिक ग्रन्थों में इसका उल्लेख किया है। कर्नल टॉड ने भी अपनी पुस्तक ‘Annals and Antiquities or Rajasthan’ में इसी सत्य का उल्लेख किया है।