ba 2nd year abul fazal life sketch notes
अबुल फजल का जीवन-वृत्त
(Life-sketch of Abul Fazal)
अबुल फजल का जन्म 24 जनवरी, 1551 ई० को आगरा में हुआ था। उसके पिता नागौर के शेख मुबारक अरबी और फारसी के एक अच्छे विद्वान् थे तथा उसके पूर्वज शेख मूसा सिबिस्तान के निवासी थे। अबुल फजल की शिक्षा-दीक्षा उसके पिता की देख-रेख में सम्पन्न हुई थी। अबुल फजल को पुस्तकें पढ़ने का बेहद शौक था। 20 वर्ष की अवस्था तक उसने अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था और वह एक विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था।
कुछ दिनों तक अध्यापन करने के बाद अबुल फजल राजदरबार गया, जहाँ उसके बड़े भाई फैजी ने उसकी मुलाकात सम्राट अकबर से करवाई। उसमें असाधारण योग्यता थी। अपनी प्रतिभा-बुद्धि, सम्राट के प्रति अनन्य समर्पण और स्वामिभक्ति के बल पर वह धीरे-धीरे प्रधानमन्त्री के पद पर पहुँच गया तथा मुगल प्रशासन में उसने 5000 का मनसब प्राप्त किया। वह अकबर का अत्यन्त विश्वासपात्र था तथा उसने एक सैनिक, प्रशासक और नागरिक के अपने कर्तव्यों को अपनी योग्यता से सफलतापूर्वक निभाया।
एक लेखक, प्रशासक, कूटनीतिज्ञ और सैनिक पदाधिकारी के रूप में अबुल फजल अत्यन्त सफल रहा। राजकुमार सलीम, अबुल फजल से घृणा करता था। उसे यह विश्वास था कि अबुल फजल उसका विरोधी है। इसी कारण 19 अगस्त, 1602 ई० को बुन्देला सरदार वीरसिंह देव ने सलीम के आदेश पर उसकी हत्या कर दी थी तथा उसके सिर को इलाहाबाद सलीम के पास भेज दिया था।
अबुल फजल की हत्या से अकबर को बहुत दुःख हुआ। गहरे शोक के कारण अकबर सात दिनों तक किसी से नहीं मिला। अकबर ने कहा- यदि सलीम को राज्य ही लेना था तो उसे मुझे मारना चाहिए था, अबुल फजल को नहीं। अबुल फजल को ग्वालियर के निकट अटारी में दफनाया गया।
अकबर ने अबुल फजल को अपने काल का इतिहास लिखने का आदेश दिया था, जिसका पालन करते हुए अबुल फजल ने ‘अकबरनामा’ नामक ग्रन्थ लिखा। अकबरनामा का अन्तिम खण्ड ‘आइन-ए-अकबरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। ये दोनों ग्रन्थ अबुल फजल को इतिहासकार के रूप में स्थापित करते हैं। इनसे उसके इतिहास दर्शन का ज्ञान होता है।
अबुल फजल की इतिहास लेखन विधि
(Historiography of Abul Fazal)
इतिहास की उपयोगिता सिद्ध करने के पश्चात अबल फजल इतिहास लेखन विधि पर प्रकाश डालता है। उसका विचार है कि इतिहास लिखते समय अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए. साक्ष्यों एवं तथ्यों के परीक्षण के पश्चात् ही उन पर आधारित इतिहास लिपिबद्ध करना चाहिए इतिहासकार को चाहिए कि वह सत्य को मिथ्या से अलग कर दे। यदि लेखन में सत्य असत्य से पृथक नहीं किया गया तो वह व्यर्थ है। जिस इतिहास में सत्य, कल्पना किंवदन्तियाँ एवं साक्ष्य एक-दूसरे से घुले-मिले होते हैं, उसे इतिहास स्वीकार नहा कि सकता। अपने इतिहास लेखन में उपर्युक्त विधि का अबुल फजल ने व्यावहारिक प्रयोग किया। अपने इतिहास की सामग्री संकलित करने के लिए उसने सरकारी फरमान, सूचनाएँ, राजकीय-पत्रों आदि को संकलित किया। संकलित प्रभूत सामग्री में से विषय के अपेक्षित तथ्यों का चयन किया। चयनित तथ्यों को अध्यायबद्धकर वर्गीकृत किया। वगीकृत सामग्री के परीक्षण के लिए कुछ विशेष सिद्धान्त निर्धारित किए। निर्धारित सिद्धान्त से परखे जाने के पश्चात् जो तथ्य इतिहास के लिए उपयुक्त पाए गए, उन्हें ही इतिहास के स्रोत की मान्यता प्राप्त हुई। इन्हीं मान्यता प्राप्त तथ्यों पर उसने अपनी कृति ‘अकबरनामा’ की रचना की। इस प्रकार अबुल फजल ने इतिहास लेखन, तथ्यों की व्याख्या आदि के लिए एक नवीन शब्दावली का गठन किया तथा इतिहास को व्यापक क्षेत्र प्रदान करने के लिए इतिहास में शोध के नवीन मानक एवं विधि-विधान स्थापित किए। इस प्रकार अबुल फजल अकबर के समकालीन जियाउद्दीन बरनी, अब्दुल कादिर बदायूँनी तथा निजामुद्दीन अहमद जैसे इस्लामिक व परम्परावादी प्रसिद्ध इतिहासकारों से अलग हो गया।
अकबरनामा
(Akbarnama)
इसमें अकबर के राज्यकाल का विस्तृत इतिहास मिलता है। समकालीन लोगों द्वारा दिए गए विवरणों पर यह पुस्तक आधारित है, जिनमें बहुत-से लोग उन दिनों जीवित थे। इस पुस्तक के प्रथम खण्ड में तैमूर परिवार से लेकर हुमायूँ की मृत्यु तक का इतिहास है, जिसमें बाबर एवं हुमायूँ के राज्यकाल तथा अकबर के जन्म का विस्तृत विवरण मिलता है; तथा दूसरे खण्ड में अकबर के राज्यकाल के इतिहास का वर्णन किया गया है।
डॉ० हरवंश मुखिया के अनुसार, ” ‘अकबरनामा’ का विभाजन राज्यकाल पर आधारित है और प्रत्येक शासक के राज्यकाल की घटनाओं को वह क्रमिक आधार पर लिखता है। परन्तु जब वह अकबर के शासनकाल की घटनाओं को लिखता है तो उसके शासनकाल को एकरूप न मानकर वह इसे वार्षिक वृत्तान्त का रूप दे देता है।” वह रचना की अनुक्रमता को बनाए रखने के लिए कई बार घटना की क्रमबद्धता को त्याग देता है और किसी नवीन घटना का विवरण देना प्रारम्भ कर देता है। पुन: यथायोग्य स्थान पर उस घटना का वर्णन वह दोबारा करना प्रारम्भ कर देता है; जैसे—महाराणा प्रताप एवं राजा मानसिंह के सम्बन्धों का विवरण देते-देते वह दूसरे प्रसंग पर चला जाता है और पुन: वह राजा मानसिंह के सम्बन्ध में विवरण देने लगता है। परन्तु फिर भी अबुल फजल के विवरण में एक स्थान पर घटनाओं की अनुक्रमता के टूटने पर दूसरे स्थान पर उसे सरलता से ढूँढा जा सकता है।
‘अकबरनामा’ में अकबर के शासनकाल के अनेकानेक राजनीतिक विषयों की विस्तृत जानकारी है। महत्त्वपूर्ण जानकारी देने से पहले वह उसकी पृष्ठभूमि को भी बताता है। इसमें मुख्य रूप से युद्धों से सम्बन्धित जानकारी की बहुलता है।
आइन-ए-अकबरी
(Ain-e-Akbari)
आइन-ए-अकबरी’ अबुल फजल की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। ‘अकबरनामा’ के तीसरे खण्ड के रूप में इसे उसका पूरक ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। इसमें अकबरकालीन मुगल साम्राज्य का सांख्यिकीय सर्वेक्षण किया गया है। अकबर की संस्थाओं का विवरण एवं उसके भारतीय साम्राज्य का ऐतिहासिक विवरण और भौगोलिक स्थितियों का विस्तृत विवरण इस पुस्तक में मिलता है। वास्तव में यह पुस्तक सूचनाओं (जानकारी) का स्रोत है। इसमें नियम, उपनियम, अधिनियम, भौगोलिक स्थिति, राजस्व व्यवस्था, लोगों की सामाजिक स्थिति. उनके रीति-रिवाज आदि की जानकारी मिलती है। ‘आइन-ए-अकबरी’ की विषय-” वही है जो आजकल प्रशासकीय रिपोर्टों, सांख्यिकीय सार एवं गजट आदि में होती है। ‘आइन-ए-अकबरी’ मुख्यतः पाँच भागों में विभाजित है। इसके प्रथम भाग में साम्राज्य के विभिन्न संसाधनों का विवरण है, जिसमें दरबार, शाही परिवार, टकसाल, खाद्यान्नों के मूल्य, शाही अस्तबल एवं शस्त्रागार से सम्बन्धित विवरण हैं;
दूसरे भाग में सैनिक व्यवस्था से सम्बन्धित विवरण है, जिसमें सेना के विभाजन सहित वेतन का भी वर्णन है। इसमें जागीर, विवाह तथा शिक्षा सम्बन्धी नियमों का भी वर्णन है। अन्त में 200 से 10,000 तक के मनसबदारों की सूची दी गई है। तृतीय भाग में कोतवाल, फौजदार, काजी आदि की नियुक्ति, राज्य में भूमि वर्गीकरण की जानकारी, विभिन्न प्रान्तों की राजस्व-दरों एवं ‘आइन-ए-दहसाला’ के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्र में लागू राजस्व दरों का विवरण है; तथा
चौथे एवं पाँचवें भाग में विविध सामाजिक एवं धार्मिक विषय सम्मिलित हैं।
अबुल फजल की आलोचना
(Criticism of Abul Fazal)
एल्फिन्स्टन कहता है, “अबुल फजल, अलंकारशास्त्र का प्रतिपादन करने वाला एक परिश्रमी दरबारी था, जो अपने स्वामी की प्रशंसा करने के लिए सदा उत्सुक रहता था, परन्तु फिर भी उसने इतिहास लेखन के क्षेत्र में आडम्बरपूर्ण शृंगारिक शैली को समाप्त कर एक नवीन शैली का सृजन किया।” परन्तु उसकी यह मान्यता सही नहीं है।
प्रो० हरवंश मुखिया के अनुसार, “अबुल फजल की शैली बहुत ही व्यक्तित्त्वहीन एवं रुचिहीन है।’ एच० बेवरिज जैसे पाश्चात्य लेखक उसकी शैली को घृणास्पद समझते हैं क्योंकि वह घुमा-फिरा कर बात करता है, उसमें वाक् चक्र है, शब्दाडम्बर है, अस्पष्टता है। अबुल प्रायः अधिक विस्तृत हो जाता है और कभी बेहद संक्षिप्त। उसके संकेत दुर्बोध्य हैं। उसमें केवल एक ही अच्छाई थी कि वह अत्यन्त परिश्रमशील था। जैरेट ने भी इसी प्रकार लिखा है कि अबुल फजल की शैली सारगर्भित नहीं है, जो दूसरों पर अपनी छाप छोड़ सके।
केवल अकबर के सन्दर्भो को छोड़कर उसकी भाषा में कोई उतार-चढ़ाव नहीं है। उसकी दार्शनिक चिन्तन शैली ने उसकी लेखन शैली को भी प्रभावित किया। प्रो० हरवंश. मुखिया के अनुसार, “उसकी लेखनी में कहीं पर भी धार्मिक असहिष्णुता अथवा साम्प्रदायिक विद्वेष की गन्ध नहीं आती है।”
यद्यपि उसकी लेखन शैली पर अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन का दोषारोपण किया गया है एवं उसे सम्राट अकबर का ‘निर्लज्ज चापलूस’ कहा गया है, तथापि जो इतिहास उसने लिखा, उसका स्वरूप सरकारी था। एक दरबारी और सरकारी इतिहासकार के लिए, जो अकबर के प्रति श्रद्धा की भावना रखता था, यह सम्भव ही नहीं था कि वह उसकी प्रशंसा न करे आर उनकी नीति एवं कार्यों का गुणगान न करे। काम अबुल फजल की आलोचना करते हुए कहा गया है कि उसका विवरण पक्षपातपूर्ण है। अपने प्रशंसनीय व्यक्ति को श्रेष्ठ व्यक्ति और आदर्श शासक दिखाने के जोश में वह प्रायः तक, बुद्धि एवं सन्तुलन खो बैठता है। उसने एक इतिहासकार के लिए विवेकपूर्ण दृष्टिकोण पर अधिक बल दिया है। परन्तु जब वह अकबर के असाधारण आध्यात्मिक गणों अथवा उसकी उपलब्धियों का विवरण
-विभिन्न उपागम पित देता है तो स्वयं के द्वारा निश्चित कसौटी पर तथ्यों को परखना भूल जाता है। वह ऐसी घटनाओं को पूरी तरह से नजरअन्दाज कर देता है जिनसे अकबर की बुद्धिमानी पर किसी प्रकार की आँच आए; जैसे-अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में ‘मदद-ए-माश’ की भूमि को खालसा तथा जागीर भूमि से पृथक करने वाले सुधारों का केवल सारांश ही दिया है। वह सद्र के विभाग में फैले हुए भ्रष्टाचार का पूर्ण विवरण दिए बिना ही उन कठोर सुधारों का विवरण देने लगता है जिनसे सद्र की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। एक विशेष मुस्लिम वर्ग पर हुए इन सुधारों के परिणाम को वह स्पष्ट नहीं करता है, जिसे बदायूँनी ने स्पष्ट किया है। इस प्रकार यद्यपि अबुल फजल ने अपने व्यक्तिगत एवं सैद्धान्तिक विरोधियों पर विजय प्राप्त की, तथापि उसने तथ्यों को पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं किया है। । माउलेमा वर्ग के प्रति उसका द्वेष उसकी रचनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि उलेमा वर्ग पर लिखते समय वह सहनशीलता तथा उदारता के सिद्धान्तों को त्याग देता है। इस प्रकार के कई उदाहरण इबादतखाने में हुए वाद-विवादों के विवरण में देखे जा सकते हैं। अबुल फजल शेरशाह को भी एक उत्तम प्रशासकीय गुणों से युक्त शासक स्वीकार नहीं करता जिसे कि अन्य इतिहासकारों ने मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है।
उसने अकबर के विजय-अभियान से सम्बन्धित अनेक तथ्यों को स्पष्ट नहीं लिखा है; उदाहरणस्वरूप-वह अकबर द्वारा दक्षिण भारत में खानदेश के दुर्ग असीरगढ़ को 1601 ई० में धोखे से जीतने की घटना का उल्लेख नहीं करता और केवल इतना ही कह देता है-“दुर्ग का द्वार सोने की कुंजियों से खोला गया।” इसमें दुर्गरक्षक याकूब को रिश्वत देने की घटना को भी वह नजरअन्दाज कर देता है एवं अकबर के चरित्र पर कोई भी लांछन नहीं लगने देता। परन्तु एक बौद्धिक इतिहासकार को तथ्यों को छुपाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। उसके बौद्धिक पूर्वाग्रह तथा विद्वत्ता ने उसे उसकी दृष्टि में अनुपयोगी विषयों के प्रति उदासीन बना दिया था। परिणामस्वरूप उसने उन्हीं तथ्यों में रुचि दिखाई जो महत्त्वपूर्ण थे, जो सम्राट अकबर के यश को उजागर करने वाले थे। … ‘आइन-ए-अकबरी’ आर्थिक आँकड़ों से भरपूर ग्रन्थ है, जिसमें साधारण लोगों की स्थिति, उनके जीवन के स्वरूप तथा उनकी वास्तविक स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ‘आइन-ए-अकबरी’ में उल्लिखित सांख्यिकीय विवरण का साधारण वर्ग की जीवन-शैली के साथ कोई सामंजस्य नहीं बैठ पाता।
एक इतिहासकार के रूप में अबुल फजल का मूल्यांकन
(Evaluation of Abul Fazal as a Historian)
ब्लोचमैन अबुल फजल की प्रशंसा करते हुए कहता है, “अधिकतर मुसलमान लेखकों द्वारा लिखे गए इतिहास में युद्धों का वर्णन एवं विभिन्न राजवंशों का उत्थान और पतन ही मिलता है। जनसाधारण के विषय में केवल उसी समय कोई उल्लेख किया जाता है जबकि अकाल हो या कोई दैवीय संकट पड़ा हो। किन्तु ‘आइन-ए-अकबरी’ में जनसाधारण को प्रथम पंक्ति में रखा गया है। जनवर्ग हमारी आँखों के सामने रहते हैं। विचार जो उस समय प्रचलित थे, सफलता तथा उपलब्धियाँ जो प्राप्त हुई, ये सब ही सच्चे रूप में हमारी आँखों के सामने रखे जाते हैं। यही कारण है कि ‘आइन-ए-अकबरी’ का स्थान भारत के मुस्लिम इतिहासों में अद्वितीय है।” … अबुल फजल की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसकी रचनाओं में कहीं पर भी धार्मिक असहिष्णुता या साम्प्रदायिक कट्टरपन देखने को नहीं मिलता है। ‘अकबरनामा‘ एवं ‘आडन-ए-अकबरी’ को लिखने में उसने जो परिश्रम किया, नवीन शोध किया, जिस पद्धति को अपनाया वह निश्चित रूप से प्रामाणिक इतिहास लिखने का विकसित प्रयास था।
उसकी रचनाएँ मध्ययुगीन इतिहास लेखन में एक नवीन आयाम स्थापित करती हैं। अबल फजल के सम्बन्ध में लॉरेन्स विनयान का विचार है, “अबुल फजल के रूप में अकबर को अपने मन का व्यक्ति मिल गया था। दरबारी शिष्टाचार में तो मानो वह जन्म से ही सिद्ध था। अकबर के सारे दरबारियों में अबुल फजल बौद्धिक गुणों में सबसे विशिष्ट था। अकबर को अबुल फजल के रूप में एक बहुमूल्य साथी और अपने धार्मिक अभियानों का समर्थक मिल गया था।”
निःसन्देह अबुल फजल एवं उनके बहुमूल्य ग्रन्थ उस युग का प्रतिनिधित्त्व करते हैं।