ba 2nd year badauni life sketch notes
बदायूँनी का जीवन-वृत्तान्त
(Life-sketch of Badauni)
मुल्ला अब्दुल कादिर बिन मलूक शाह बिन हामिद बदायूँनी का जन्म 21 अगस्त, 1540 ई० को टोडा भीम (जयपुर) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय बाद उसका परिवार बसावन (भरतपुर) में आकर बस गया था। 12 वर्ष की आयु में बदायूँनी सम्भल में शेख हातिम से शिक्षा ग्रहण करने पहुंचा। उसके बाद वह आगरा आया और वहाँ कुछ समय तक उसने शेख मुबारक नागौरी से अबुल फजल तथा फैजी के साथ-साथ शिक्षा प्राप्त की।
सन् 1562 ई० में अपने पिता की मृत्यु के बाद वह बदायूँ चला गया। 1566 ई० में वह बदायूँ से पटियाला के जागीरदार हुसैन खाँ की सेवा में चला गया और नौ वर्ष तक उसकी सेवा में लगा रहा। 1574 ई० में बदायूँनी आगरा में सम्राट अकबर के दरबार में उपस्थित हुआ। अकबर ने उसे ‘इमाम’ के पद पर नियुक्त किया और उसे एक हजार बीघा जमीन बदायूँ में दे दी गई।
रचनाएँ-बदायूँनी जीवनपर्यन्त अकबर के दरबार के साहित्यिक कार्यों में भाग लेता रहा। उसने अकबर के आदेश पर अनेक ग्रन्थों का फारसी भाषा में अनुवाद किया, लेकिन उसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ है। इस ग्रन्थ के अतिरिक्त उसन निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की-
(1) किताबुल अहदीस-इसमें 40 हदीसें हैं, जिनमें जेहाद की विशेषता बताई गई है। इसकी रचना बदायूँनी ने 1570 ई० में की और यह 1578 ई० में अकबर को समर्पित का ग.
(2) नाम-ए-खिरद-अफजा-यह ‘सिंहासन बत्तीसी’ नामक संस्कृत ग्रन्थ का कारक में भाषान्तर है, जो बदायूँनी ने अकबर के आदेश पर 1574 ई० में किया था।
(3) रज्मनामा-यह ‘महाभरत’ का फारसी अनुवाद है। इसे बदायँनी ने नकाबखा सहायता से पूरा किया है। अनुवाद की प्रस्तावना अबुल फजल ने लिखी है।
(4) रामायण का अनुवाद-अकबर के आदेश पर बदायूँनी ने 1584 ई० में ‘रामायण’ का अनुवाद प्रारम्भ किया और 1589 ई० में अनुवाद पूरा करके अकबर को समर्पित किया।
(5) तारीख-ए-अलफी-इसकी रचना में भी बदायूँनी ने महत्त्वपूर्ण भाग लिया।
(6) वतातुर्रशीद-इसकी रचना बदायूँनी ने 1691 ई० में की थी। इसमें ऐतिहासिक कहानियाँ एवं सुन्नी धर्म से सम्बन्धित अन्य समस्याओं के ऊपर प्रकाश डाला गया है। या
(7) तरजुमा-ए-तारीख-ए-कश्मीर-1690 ई० में बदायूँनी ने मुल्ला शाह मुहम्मद शाहाबादी द्वारा अनूदित कश्मीर के इतिहास, सम्भवतः ‘राजतरंगिणी’ का संक्षिप्त अनुवाद तैयार किया।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य ग्रन्थों के अनुवाद में भी बदायूँनी ने सक्रिय सहयोग प्रदान किया था, लेकिन ये अनूदित ग्रन्थ अप्राप्य हैं।
बदायूँनी का सर्वाधिक प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ है, जिसे उसने तीन भाग में विभाजित किया है।
उसके पहले भाग में-सुबुक्तगीन से हुमायूँ की मृत्यु (1207-1556 ई०) तक का इतिहास; दूसरे भाग में-अकबर के राज्यकाल (1556-1605 ई०) तक का इतिहास; तथा
तीसरे भाग में समकालीन सूफियों, विद्वानों, हकीमों तथा कवियों की संक्षिप्त जीवनियाँ दी हैं।
इन तीनों भागों का क्रमश: रैंकिंग (Ranking), लो (Low) तथा हेग (Haig) आदि ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है।
बदायूँनी को अपने घनिष्ठ मित्र निजामुद्दीन अहमद से इतिहास लिखने की प्रेरणा मिली थी। यद्यपि उसने अपने इतिहास को तबकात-ए-अकबरी’ का संक्षिप्त संस्करण बताया है और प्राय: राजनीतिक घटनाएँ ‘तबकात-ए-अकबरी’ से ही उद्धृत भी हैं, तथापि उसके इतिहास को उसके धार्मिक दृष्टिकोण एवं उसकी साहित्य सम्बन्धी कुशलता के कारण बड़ा ही महत्त्व प्राप्त है। – उसने अपने इतिहास के एक भाग की प्रस्तावना में इतिहास के ज्ञान को बड़ा ही महत्त्वपूर्ण बताया है और अपनी रचना के सम्बन्ध में लिखा है-“उससे केवल उन लोगों को लाभ होगा, जो न्यायशील और बुद्धिमान हैं। उसके ग्रन्थ से उन लोगों को कोई भी लाभ नहीं होगा जो शरा (धर्म) का पालन नहीं करते और उसके नियमों की उपेक्षा किया करते हैं।”
अत: उसके इतिहास को पढ़ने से पूर्व उसके इतिहास से सम्बन्धित दृष्टिकोण एवं उसके जीवनकाल की विभिन्न परिस्थितियों का पूर्ण रूप से ध्यान रखना परमावश्यक है। दरबारी गुटबन्दी और अकबर की उदार नीति के कारण बदायूँनी को हताशा का मुंह देखना पड़ा। उसने बड़ी कठिनाइयों एवं निराशा के वातावरण में अपनी सामग्री का संकलन किया। इसीलिए उसने अकबर की कटु आलोचना की है और अबुल फजल को चापलूस तक कहा है। उसने अपने इतिहास के अन्तर्गत इस प्रकार लिखा है, जिससे पता चलता है कि अकबर ने इस्लाम के विरुद्ध अनेक आदेश दिए थे और वह इस्लाम विरोधी ही नहीं अपितु नास्तिक भी हो गया था।
इतिहास के प्रति बदायूँनी का दृष्टिकोण
(Badauni’s View Towards History)
बदायूँनी ने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ के प्रारम्भ में ही इतिहास के प्रति अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। उसने लिखा है कि तवारीख विज्ञान (The Science of History) ज्ञान की एक उच्च शाखा है क्योंकि यह अनभवी अनुभव का भण्डार एवं साधन है। परन्तु एक कट्टर सुन्नी होने के नाते वह आile फिर भी उसके अध्ययन को मुहम्मद के पथ (इस्लाम) से दूर भटकने का साह चाहिए। अपने इतिहास का उद्देश्य एवं कारण स्पष्ट करते हुए उसने लिखा कि हजार वर्ष पूरे हो जाने के कारण इस धर्म के अधिनियमों में बड़ी उथल-पथल जो कोई दो वाक्य लिखने की भी क्षमता रखता है, वह अपने समय के प्रभावशाली चापलूसी के कारण, उनके भय के कारण या धर्म (इस्लाम) की अज्ञानता के कार स्वार्थवश सत्य को छिपा रहा है। अत: उसने किसी सांसारिक लोभ पर ध्यान दिन इस्लाम के हित का ध्यान रखते हुए इस ग्रन्थ की रचना की है।
वह आगे लिखता है- “मैंने उन घटनाओं को, जिनका लिखना सावधानी बड़ा अनुचित था, केवल दीन के दर्द तथा इस्लाम के स्वर्गीय धर्म के प्रति जो गया है, के शोक के कारण लिखने की धृष्टता की है।” उसने आगे लिखा कि यह दलित इस्लाम की अवनति से दुःखी हो तथा अपने विधर्मियों से घृणा, द्वेष एवं ईर्ष्या के कारण के नाते वह आगाह करता है कि अटकने का साधन नहीं मानना लिखा कि इस्लाम के एक बडी उथल-पुथल हो रही है और समय के प्रभावशाली जनों की अमानता के कारण तथा अपने है पर ध्यान दिए बिना केवल रहा है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि बदायूँनी का इतिहास इस्लाम की सेवा के लिए है; अत उसके इतिहास का मूल्यांकन भी इसी दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए।
‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ के स्रोत
(Sources of Muntkhab-ut-Tawarikh)
बदायूँनी ने अपने इतिहास के लिए अपने पूर्व एवं कुछ सम-सामयिक लेखकों की पुस्तकों से सहायता ली थी। उदाहरणस्वरूप उसने मिनहाज की ‘तबकात-ए-नासिरी’ तथा बरनी की तारीख-ए-फिरोजशाही’ से दास वंश, खिलजी वंश तथा तुगलक वंश के बारे में सामग्री ली। अकबर के शासन के लिए निजामुद्दीन अहमद की ‘तबकात-ए-अकबरी’ तथा ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ से सूचना संकलित की। शेरशाह के सुधारों के लिए ‘तोहफा-ए-अकबरशाही’ (अब्बास सरवानी) को आधार बनाया। इसके अतिरिक्त अमीर खुसरो की ‘आशिक’, अलाउद्दौला की ‘नफा-ए-सुल-मासिर’ से भी तथ्य संकलित किए तथापि इसमें बहुत-से ऐसे मौलिक तथ्य हैं जो अन्य किसी समकालीन ग्रन्थ में नही हैं। मार्शल के अनुसार, बदायूँनी में अफगान इतिहास की जानकारी ‘तबकात-ए-नासिरी’ से विस्तत है। ‘अकबरनामा’ की झूठी अत्युक्तियों को वह काटकर सुधार देता है।
‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ की विषयवस्तु
(Contants of Muntkhab-ut-Tawarikh)
बदायँनी ने अपना श्रेष्ठ ग्रन्थ ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ अपने मित्रता निजामुद्दीन अहमद की मृत्यु के उपरान्त शुरू किया और फरवरी 1596 ई० में पाया इसमें अकबर की कटु आलोचना थी; अत: इसका प्रकाशन उसके काल में न होकर सम्राट बनने के बाद हुआ। यह तीन खण्डों में विभक्त है
प्रथम-सुबुक्तगीन से हुमायूँ की मृत्यु तक का भारतीय इतिहास इसमें है। राजनीतिक इतिहास शासनकालों में वंशों के साथ जोड़कर प्रबन्धित है।
द्वितीय-अकबर के प्रथम 40 वर्षों का इतिहास।
तृतीय-समकालीन 38 शेखों, 69 विद्वानों, 15 दार्शनिकों व चिकित्सकों, 167 कवियों की जीवनी है, जो अकबर के दरबार में थे।
‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ के प्रथम भाग में बदायूँनी ने केवल चुनी हुई घटनाओं को ही लिखा है। कभी-कभी तो वह किसी शासक के राज्यकाल को कुछ वाक्यों में ही समाप्त कर देता है। इन चुनी हुई घटनाओं का वर्णन तो वह तिथिक्रमानुसार देता है, पर कभी-कभी वह इस नियम को भंग भी कर देता है। हरवंश मुखिया के अनुसार, “बदायूँनी अलाउद्दीन खिलजी के समय में हुए मंगोल आक्रमणों को एक ही स्थान पर लिख देता है और फिर मध्य में घटित घटनाओं का वर्णन करने लगता है।”
मुहम्मद तुगलक के समय के बहाउद्दीन गुर्सस्प के विद्रोह को वह राजधानी परिवर्तन के बाद लिखता है. जो गलत है। वह प्रत्येक अध्याय को शासक के राज्याभिषेक से प्रारम्प करता है और उसकी मृत्यु होने या पदच्युत किए जाने पर समाप्त कर देता है। अन्त में शासनकाल की अवधि एवं तत्कालीन कवियों की सूची भी देता है। उसने न तो किसी सुल्तान एवं उसके वंश का मूल्यांकन ही किया है और न ही वह घटनाओं के महत्त्व को समझते हुए उसका सारगर्भित विवरण ही देता है। परन्तु कभी-कभी उसकी टिप्पणियाँ बड़ी ही स्पष्ट एवं सटीक होती हैं। सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मृत्यु पर वह कहता है-“सुल्तान को अपनी प्रजा से एवं प्रजा को उनके सुल्तान से मुक्ति मिल गई।”
सुल्तान बलबन के शासनकाल का विवरण वह अत्यन्त संक्षिप्त रूप में देता है जबकि कैकूबाद के समय की घटनाओं का विवरण वह विस्तार से बताता है। उसने शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पर लिखे गए शोकगीतों का विवरण; बलबन एवं कैकूबाद के विवरण से अधिक विस्तार से लिखा है, जो एकदम अप्रासंगिक है। अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों एवं बाजार नियन्त्रण की नीति का वह कोई उल्लेख नहीं करता है। इसी प्रकार उसने शेरशाह सूरी के प्रशासनिक सुधारों को भी महत्त्व नहीं दिया है, जबकि सुधारों की श्रृंखला में शेरशाह के सुधार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ का द्वितीय खण्ड विषय-
वस्तु एवं आकार व संयोजन की दृष्टि से अलग प्रकार का है। यह अकबर के शासनकाल के प्रथम 40 वर्षों का एक वार्षिक इतिवृत्त है। बदायूँनी ने घटनाओं की श्रेष्ठता के क्रम को बनाए रखा है। वह घटनाओं के साथ ही जीवनी-सम्बन्धी टिप्पणी भी लिखता है। हरवंश मुखिया के अनुसार, “बदायूँनी किसी-किसी घटना के विवरण को मध्य में ही त्याग कर उस घटना से सम्बन्धित व्यक्तियों के जीवनी-सम्बन्धी तथ्यों का विवरण देने लगता है, जिससे सम्पूर्ण विवरण की एकरूपता समाप्त हो जाती है।”
ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में अकबरकालीन सन्तों, कवियों, हकीमों आदि का वर्णन किया गया है, जो अकबर के शाही दरबार में सम्मिलित होते थे। उसने अकबरकालीन 38 शेख (धार्मिक नेता), 69 विद्वानों, 15 दार्शनिकों एवं चिकित्सकों एवं 167 कवियों के सम्बन्ध में उल्लेख किया है। बदायूँनी ने उनकी जीवनियों के साथ-साथ उनकी उपलब्धियों, ज्ञान एवं धर्मपरायणता के प्रति भी टिप्पणी की है। वह हकीम-उल-मुल्क-गिलानी एवं हकीम अहमद की योग्यता पर बहुत ही कम प्रकाश डालता है, जबकि उनके धार्मिक क्रिया-कलापों का उसने . विस्तार से वर्णन किया है। बदायूनी ने स्वयं धर्म को प्रधानता देने के कारण प्रत्येक वस्तु को धार्मिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया है। ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ में बदायूँनी ने अकबर के शासनकाल का एक सम्पूर्ण चित्र खड़ा कर दिया है। उसने अनुवाद एवं रचना में अकबर की आज्ञाओं का सुन्चरता और उत्तमता से पालन किया है।
उसके ग्रन्थ में राजनीतिक इतिहास की सुन्दर झलक मिलती है। युद्धों, विद्रोहों एवं राजनीतिक घटनाओं के साथ-ही-साथ उसने अन्य जानकारी भी दी है। प्रशासनिक संस्थाओं में उसने करोड़ी पद्धति की असफलता एवं घोड़ों को दागने की व्यवस्था का विस्तार से वर्णन किया है। उसने अकबर के शासनकाल में आए अकालों एवं राजपूतों के साथ हुए युद्ध की अच्छी जानकारी दी है। चूंकि बदायूँनी अकबर के शासन की आलोचना करता है, इस कारण ‘अकबरनामा’ में अबुल फजल ने चित्र का जो एक पहलू दिखाया है, वह स्पष्ट हो जाता है और इस रूप में बदायूँनी की आलोचना सहायक सिद्ध होती है।
बदायूँनी की लेखन शैली
(Writing Style of Badauni)
(1) बदायूँनी की ऐतिहासिक लेखन शैली कट्टरता और रूढ़िवादिता से ग्रस्त है। इसमें व्यंग्यात्मक शैली को प्रधानता दी गई है। उसकी शैली में रोचकता और सरलता का अभाव है। कट्टर सुन्नी होने के कारण अकबर के उदारतापूर्ण विश्वासों, धारणाओं और प्रगतिशील नीतियों पर कटाक्ष किया गया है। उसकी धारणा थी कि उसके ग्रन्थ का महत्त्व उसकी शैली के कारण नहीं अपितु विषय-वस्तु के संयोजन के कारण सिद्ध होगा। उसने स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त किया, उसे किसी शैली की सीमा में नहीं बाँधा। कभी-कभी निन्दात्मक शब्दों का वह अश्लीलता की हद के पार तक प्रयोग करता है। शेख शादी एवं फैजी के लिए वह ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करता है।
(2) पद, कविता तथा कसीदे का प्रयोग-बदायूँनी ने विवरण के बीच में पद, कविता एवं कसीदे का भी प्रयोग किया है। ये दोहे अधिकतर विवरण के धारा-प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते हैं। कभी-कभी वह किसी घटना का वर्णन करते-करते दूसरे विवरण पर चला जाता है और पुन: पूर्व की घटनाओं का उल्लेख करने लगता है।
(3) बदायूँनी की शैली की एक विशेषता उसकी सटीक व्यंग्यात्मक शैली है, जिसमें अल्प विवरण में ही वह विस्तृत बात बताने का प्रयास करता है। मुहम्मद-बिन-तुगलक के सम्बन्ध में उसकी टिप्पणी कितनी व्यंग्यात्मक है जबकि वह मरता है (सुल्तान की मृत्यु पर)-“प्रजा को सुल्तान से एवं सुल्तान को प्रजा से मुक्ति मिल गई।”
(4) स्वतन्त्र लेखन शैली-बदायूँनी ने अपने ग्रन्थ की रचना किसी एक व्यक्ति को सन्तुष्ट करने के लिए नहीं की थी। इस प्रकार की स्वतन्त्र लेखन शैली के परिणामस्वरूप उसके ग्रन्थ को जहाँगीर के शासनकाल में प्रकाश में लाया गया। इसमें उसने इतिहास लेखन की अपेक्षा संस्मरण लेखन का प्रयास किया है। उसने इस्लाम के सिद्धान्त एवं शरियत का सम्मान किया है परन्तु फिर भी जीवन के प्रत्येक पहलू को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
एक इतिहासकार के रूप में बदायूँनी का मूल्यांकन
(Evaluation of Badauni as a Historian)
मार्शल के अनुसार यह एक ऐसा समकालीन ग्रन्थ है, जिसमें उस युग का पूर्ण चित्रण किया गया है। अकबर के शासन के अनेक ऐसे तत्त्वों को यह सही तरीके से उजागर कर देता है. जिन पर ‘अकबरनामा’ में केवल प्रशंसा के तौर पर हँस दिए गए हैं। 1591 ई० में अकबर को विष देने की जहाँगीर पर शंका तथा मुराद पर नजर रखने का उल्लेख केवल वही करता है। यद्यपि बदायूँनी दावा करता है कि उसने जो लिखा है, सब सच लिखा है, परन्तु उसकी बहुत-सी बातों का, जिनका उल्लेख वह एक स्थान पर करता है, खण्डन वह स्वयं इसी ग्रन्थ में दूसरे स्थान पर कर देता है, जिससे एक विरोधाभास उत्पन्न हो जाता है। यदि उसने धार्मिक अधिनियमों को क्रमबद्ध कर दिया होता तो अकबर की धार्मिक नीति एवं धार्मिक विचारों का इतिहास क्रमबद्ध किया जा सकता था। वह कट्टर सुन्नी था तथा सुधारवादी व उदारवादी मुसलमानों तथा हिन्दुओं से द्वेष करता था। उसने राणा प्रताप के विरुद्ध लड़ने की इच्छा व्यक्त की थी तथा जेहाद में हिन्दुओं के रक्त से वह अपनी दाढ़ी लाल करना चाहता था। अत: उसका यह कट्टरपन्थी दृष्टिकोण उसके ग्रन्थ में परिलक्षित होना स्वाभाविक ही था।अकबर की बदायूँनी द्वारा आलोचना, अबुल फजल के प्रशस्तिमूलक वर्णन पर प्रतिक्रिया स्वरूप है।
ब्लोचमैन का कथन है, “उसके ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ का बहुत मूल्य है, क्योंकि उसे अकबर के एक शत्रु ने लिखा है। उसमें अकबर के चरित्र के गौरवपूर्ण पहलू तथा उसकी दुर्बलताओं का स्पष्ट वर्णन है जितना कि ‘अकबरनामा’ अथवा ‘तबकात-ए-अकबरी’ और ‘मआसिर-ए-रहीमी’ में भी नहीं मिलता। सम्राट के धार्मिक विचारों को जानने के लिए इसका विशेष महत्त्व है और उसमें अकबर के समय के प्रसिद्ध व्यक्तियों तथा कवियों के जीवन-चरित्र भी दिए हुए हैं।” का न जार विन्सेंट स्मिथ बदायूँनी को ‘सबसे अधिक मूल्यवान साक्षी’ मानते है।
वह लिखते हैं—“बदायूँनी के रोचक ग्रन्थ में अकबर की इतनी शत्रुतापूर्ण आलोचना थी कि उस सम्राट के जीवनकाल में उसे छिपाकर रखा गया और जहाँगीर के राज्यारोहण के बाद कहीं उसका प्रकाशन हो सका। पुस्तक कट्टर सुन्नी मुसलमानों के दृष्टिकोण से लिखी गई है, इसलिए उसका सर्वाधिक मूल्य है, क्योंकि अबुल फजल जैसे उदार विचारों के व्यक्ति द्वारा लिखी गई प्रशस्ति की समीक्षा करने में इससे सहायता मिलती है। इससे अकबर के धार्मिक विचारों के विकास के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है, जो अन्य फारसी इतिहासकारों के ग्रन्थो में उपलब्ध नहीं है, किन्तु जो सामान्यतया जैसुइट लेखकों के साक्ष्य से मेल खाती है।”
निष्कर्ष-एक विद्वान् के शब्दों में, बदायूँनी ने अपने ग्रन्थ में पर्याप्त मौलिक सामग्री का संयोजन किया है, जिसे हम दूसरे ग्रन्थों में नहीं पाते हैं। फिर भी हमें सावधान एवं सतर्क होकर इसका अध्ययन करना पड़ेगा। अबुल फजल के समान ही बदायूँनी भी अकबर के शासनकाल के एक विशेष पक्ष को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है जिसे अन्य इतिहासकारों ने नहीं किया है। अत: धार्मिक दृष्टिकोण से लिखे होने के बाद भी बदायूँनी का ‘मुन्तखाब-उत-तवारीख’ मुगलकाल का और विशेषकर अकबर के शासनकाल का एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है।