Sunday, December 22, 2024
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Bcom 1st year business environment notes in Hindi

3. विचार-विमर्श के लिए उपयुक्त मंच (Common Plateform for Consultancy)-

वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार से सम्बन्धित मुद्दों पर विचार-विमर्श कर

उपयुक्त समाधान के लिए देश को एक अन्तर्राष्ट्रीय साझा मंच मिल सकता है, जहाँ वह आ. पक्ष प्रभावी ढंग से रख सकता है। 

4. अच्छी बाजार पहुँच (Better Market Access)-

विश्व व्यापार संगठन के कारण भारत को अपने माल को बेचने के लिए विकसित राष्ट्रों के बाजार भी मिल जाएंगे। इसके अलावा तटकरों में कमी, कृषि पदार्थों पर आर्थिक सहायता में कमी से भारत की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में सुधार सम्भव हो सकेगा। इन सबके फलस्वरूप भारत की विश्व बाजार में पहुँच पहले से अधिक अच्छी और विस्तृत हो सकेगी। 

5. (Availability of Cheaper Goods) उपभोक्ताओं को विदेशी सस्ती और अच्छी वस्तुओं के उपयोग का सुअवसर हाथ लगेगा, जिससे उनके जीवन-स्तर में सुधार होगा। 

6. विदेशी पूँजी निवेशों में वृद्धि (Increase in Foreign Capital Investment)

विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता के फलस्वरूप भारत में विदेशी पूँजी निवेश में भारी वृद्धि का मार्ग प्रशस्त होगा, जिससे अर्थव्यवस्था का त्वरित विकास हो सकेगा। संगठन की स्थापना के पश्चात् भारत में विदेशी पूँजी निवेश में लगातार वृद्धि की प्रवृत्ति परिलक्षित हुई। 

7. उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग सम्भव (Use of Better Technology Possible)-

मुक्त व्यापार व्यवस्था और व्यापारिक प्रतिबन्धों में कमी के फलस्वरूप विदेशी पूँजी निवेश के साथ-साथ देश में उन्नत प्रौद्योगिकी भी आएगी, जिससे उसके उपयोग के कारण देश के उत्पादन एवं उत्पादकता में सुधार होगा। 

8. विदेशी विनिमय कोषों में वृद्धि (Increase in Foreign Exchange Reserves)-विश्व व्यापार संगठन के कारण देश में वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात में वृद्धि होने के कारण निर्यात आय तथा विदेशी विनिमय कोषों में आशातीत वृद्धि हो सकेगी जिससे व्यापार असन्तुलन को कम अथवा समाप्त करने में मदद मिलेगी। 

भारत को विश्व व्यापार संगठन से सम्भावित हानियाँ/खतरे 

Possible Disadvantages/Dangers to India from WTO

भारत को विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता से अनेक लाभ प्राप्त होने की आशा है, लेकिन इससे देश को कुछ हानि होने की भी आशंका है। भारत को इस संगठन से निम्नलिखित हानियाँ हो सकती हैं 

1. कड़ी प्रतिस्पर्धा का भय (Fear of Stiff Competition)-

मुक्त व्यापार नीति तथा विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबन्ध के अभाव में भारतीय औद्योगिक जगत को विकसित राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। इससे भारतीय उद्योगों को या तो बाजार से हटना पड़ेगा अथवा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ संविलयन करना होगा। इससे स्वदेशी उद्यम और तकनीक के विकास को भारी धक्का लगेगा। 

2.  Set Back to the Concept of Swadeshi

 वेश्व व्यापार संगठन की निर्बन्ध व्यापार नीति और तटकरों में कमी के कारण भारतीय बाजारअच्छी और सस्ती विदेशी वस्तुओं से पट जाएगा जिससे स्वदेशी उद्यम और तकनीक के विकास को भारी धक्का लगेगा। 

3. गैर-व्यापार सामाजिक मुद्दों के नाम पर शोषण Exploitation in the Name of Non-Trade Social Issue)-

मानवाधिकार, श्रम मानक, बाल-श्रम तथा मजदूरी भुगतान जैसे सामाजिक मुद्दों की आड़ में भारत के निर्यातों को रोकने की विकसित देश निरन्तर साजिश करते रहते हैं। पर्यावरण के मुद्दों को आधार बनाकर ये राष्ट्र भारत को अपनी प्रौद्योगिकी ऊँचे दामों पर खरीदने के लिए विवश कर रहे हैं। 

4. आर्थिक सहायता में कमी करना (Reduction of Subsidies)

विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार भारत को कृषि एवं अन्य क्षेत्रों में सरकार द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता में कटौती करनी होगी जिससे एक तरफ देश में आन्तरिक मूल्य-स्तर बढ़ेगा और दूसरी तरफ देश की व्यापारिक प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति में कमी भी होगी। इससे भुगतान असन्तुलन और विदेशी विनिमय का संकट बढ़ सकता है। 

5. रॉयल्टी भुगतान का भार (Burden of Royalty Payment)-

व्यापार सम्बन्धी बौद्धिक सम्पदा अधिकारों (TRIPs) की योजना के क्रियान्वयन के कारण भारत को कॉपीराइट, ट्रेडमार्क, पेटेन्ट राइट आदि के उपयोग के लिए भारी रॉयल्टी का भुगतान करना पड़ेगा जिससे विदेशी विनिमय कोषों का बहिर्गमन होगा। 

6: खाद्यान्नों के आयात की अनिवार्यता (Compulsion of Food Grains Import)—

विश्व व्यापार संगठन समझौते के अनुरूप भारत को भी खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरती के बावजूद इनका अनिवार्य रूप से आयात करना पड़ेगा, जिससे भारत में अनेक मूल्यों में गिरावट आएगी और कृषि विकास के प्रयत्नों को धक्का लगेगा। 

7. विदेशी कम्पनियों के आधिपत्य का भय (Fear of Dominance of Foreign Companies)-

विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्थाओं के कारण भारत को सेवा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों को प्रवेश की अनुमति देनी होगी, जिससे बैंकिंग, बीमा, संचार, परामर्श सेवा, पर्यटन आदि क्षेत्रों में इन कम्पनियों का वर्चस्व कायम हो जाएगा। 

सामाजिक अन्याय से आशय 

Meaning of Social Injustice

किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास में सबसे बड़ी बाधा ‘सामाजिक अन्याय’ है। अब यह समस्या – अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की हो चुकी है। शायद ही कोई ऐसा राष्ट्र होगा जिसमें कुछ-न-कुछ मात्रा में सामाजिक अन्याय न होता हो। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय की समस्या अधिक गम्भीर है। अशिक्षा, रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, आर्थिक साधनों की कमी व ऐसे ही अनेक कारण विकासशील देशों में सामाजिक अन्याय को दूर करने में बाधक है। यदि कोई राष्ट्र अपने नागरिकों को सामाजिक न्याय दिलाने में असमर्थ होता है तो उस राष्ट्र के आर्थिक विकास के सभी आयाम अधूरे ही रहेगे। 

सामाजिक न्याय से जुड़ी समस्याएँ (Problems associated with Social Injustice)

सामाजिक अन्याय के अन्तर्गत निम्नलिखित समस्याओं को शामिल किया जाता है

  • अनूसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता;
  • अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय;
  • जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय;
  • कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार;
  • स्त्रियों के साथ अत्याचार। 

अनुसूचित जातियों की समस्या तथा अस्पृश्यता (Problem of Scheduled Castes and Untouchability)-

यद्यपि अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा में आरक्षण दिया गया है, तथापि ये जातियाँ अभी भी काफी पिछड़ी हुई हैं तथा देश की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए प्रयासरत हैं। वर्ष 1987-88 में इन जातियों का लगभग 44.7% भाग गरीबी रेखा से नीचे था, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों का भाग केवल 33.4% था। इन जातियों के अधिकतर लोगों पर कोई भू-स्वामित्व नहीं है। इन जातियों के लोगों में जहाँ एक ओर काफी आई०ए०एस० अधिकारी तथा अध्यापक आदि हैं तो दूसरा ओर भूमिहीन मजदूर एवं असंगठित श्रमिक भी हैं। साक्षरता में इनकी संख्या काफी कम है। 

ग्रामीण क्षेत्रों में ये अस्पृश्यता के शिकार हैं। अस्पृश्यता किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक-रूप में होती है। यह मानव अधिकारों का हनन है। यह अस्पृश्यता की भावना पूरे भारतवर्ष में फैली हुई है। 

2. अनुसूचित जनजातियों के साथ सामाजिक अन्याय (Social Injustice with Schedule Tribes)-

अनुसूचित जनजातियों के लोग मुख्य रूप से आदिवासी इलाकों, पहाड़ों, जंगलों में निवास करते हैं। उनके सामाजिक रीति-रिवाज भी सामान्य जातियों के रीति-रिवाजों से काफी अलग हैं। ये खेती, पशुपालन तथा आखेट करने में संलग्न रहते हैं। देश की कुल जनसंख्या में इनका हिस्सा लगभग 8% है। सबसे पहले इनका शोषण इनसे इनकी खेती की भूमि औने-पौने दामों में लेकर किया गया। जब इन लोगों के हाथों से भूमि निकल गई तो विवश होकर इन्हें मजदूरी करने के लिए बाध्य होना पड़ा। अत: भूस्वामी होने के बावजूद ज्यादातर अनुसूचित जनजाति के लोग भूमिहीन श्रमिक हो गए। इन जातियों में शिक्षा का भी काफी अभाव है। 1991 ई० में इनकी साक्षरता दर 29.69% थी जबकि उस समय शेष जनता की साक्षरता दर 52 . 21% रही। इस प्रकार अनुसूचित जनजातियों एवं सामान्य जातियों में साक्षरता के आधार पर करीब 23% का अन्तर था। वर्ष 1987-88 में जनजातियों के लगभग 52 . 6% लोग निर्धन थे, जबकि कुल जनसंख्या में निर्धनों की संख्या 33. 4% थी। निर्धनता, अज्ञानता, बेरोजगारी के कारण इनको बँधुआ मजदूर के रूप में भी रखा जाता है। वे लोग, जो इन्हें बँधुआ मजदूरों के रूप में रखते हैं, इनको बहुत प्रताड़ित करते हैं। इनकी महिलाओं से बर्तन-झाड़ का काम लिया जाता है तथा उनको मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के साथ-साथ इनका शारीरिक शोषण भी किया जाता है। असंगठित होने की वजह से युगों से इनका इसी प्रकार शोषण होता आ रहा है। 

3. जाति प्रथा तथा सामाजिक अन्याय (Caste System and Social – Injustice)-

भारतवर्ष में हिन्दू धर्म के अन्तर्गत अनेक जातियाँ हैं। जाति से आशय एक ऐसे समूह से है जिसकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। आज जाति प्रथा सामाजिक अन्याय का एक कारण बन गई है क्योंकि इसने समाज की एकरूपता या समरूपता को भंग कर दिया है। एक जाति के लोगों का खान-पान, शादी-विवाह, आना-जाना, मेल-मिलाप आदि सभी कार्य अपनी ही जाति के लोगों के साथ होते हैं। आज प्रत्येक जाति एक द्वीप बन गई है, जिसका दूसरी जाति के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं बन पाता है। शहरों की तुलना में गाँवों में जाति प्रथा की कठोरता ज्यादा भयंकर है। जाति प्रथा से संलग्न सामाजिक अन्याय तब अधिक उभरकर सामने आता है जब ‘ऊँची जाति के लोगों के सामने अथवा साथ में छोटी जाति के लोगों को उठने-बैठने भी नहीं दिया जाता तथा न ही उन्हें उच्च जाति में शादी-विवाह करने की इजाजत समाज द्वारा दी जाती है। शिक्षा प्राप्ति में भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। निम्न जातियों को उच्च जातियों द्वारा हीन दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें उच्च जातियों के कुएँ से पानी भरने की इजाजत न देना या मन्दिर में पूजा करने की इजाजत न देना भी सामाजिक अन्याय के ही प्रमाण परिणामस्वरूप सामाजिक गतिशीलता कम हो जाती है तथा देश के आर्थिक विकास में बाधा आती है। जाति प्रथा द्वारा सामाजिक अन्याय का एक जीता-जागता उदाहरण यहाँ की कल जातियो; खासकर ‘दलितों’ व ‘हरिजनों’ को घृणा की दृष्टि से देखा जाना है। यद्यपि आज हमें स्वतन्त्रता प्राप्त हुए लगभग 70 वर्ष हो गए, लेकिन इस ‘अस्पृश्यता’ रूपी दानव का खात्मा नहीं हो पाया है। अभी भी लोगों की मानसिकता में बदलाव आना बाकी है। यद्यपि अब अस्पृश्यता-प्रतिशत में काफी कमी आयी है तथा लोगों की मानसिकता में धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है। 

4.कमजोर वर्गों पर होने वाला अत्याचार (Atrocity on Weaker Sections)-

कमजोर वर्ग से आशय ऐसे वर्गों से है जिनमें लोग दाय-वंचित (Disinherited) हैं। इस वर्ग में अनुसूचित जनजाति के कृषि श्रमिक, बँधुआ मजदूर, वनवासी, मछुआरे, असंगठित मजदूर, सफाई कर्मचारी तथा इन्हीं वर्गों की महिलाओं, बच्चों इत्यादि को शामिल किया गया है। – इन वर्गों पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते रहे हैं। इन वर्गों को सामाजिक असमानता तथा अन्याय का सामना करना पड़ता है। इन्हें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से पीछे धकेल दिया जाता है। इतना ही नहीं, इन्हें राजनीतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से भी पीछे धकेला जाता रहा है। ये समाज के सबसे अधिक तिरस्कृत वर्ग माने जाते हैं। इस वर्ग में आने वाले व्यक्तियों का बहुत प्रताड़न एवं शोषण किया गया है। 

स्त्रियों के साथ अत्याचार (Atrocity on Womers)

यद्यपि अब पुरानी धारणाएँ बदल रही हैं तथा लोगों की मानसिकता में काफी परिवर्तन देखे जा सकते हैं, तथापि शहरों एवं गाँवों में लोगों के द्वारा महिलाओं पर फब्तियाँ कसना, बलात्कार की घटनाएँ, कामकाजी व घरेलू महिलाओं का यौन शोषण, नववधुओं की दहेज न मिलने के कारण हत्या आदि ऐसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में आ रही हैं, जो महिलाओं पर होने वाले अत्याचार को प्रतिविम्बित करती हैं। सदियों से स्त्रियों को भोग-विलास की वस्तु के रूप में देखा गया है। आज भी विज्ञापनों में महिलाओं को उत्तेजक व अश्लील ढंग से प्रस्तुत करके वास्तव में उनका दैहिक शोषण ही किया जा रहा है। लड़की का जब जन्म होता है तो दादा-दादी का चेहरा उदास हो जाता है। वे लड़की को एक भार के रूप में समझते हैं। कुछ दशाओं में; जैसे–अल्ट्रा साउण्ड विधि से यह ज्ञात होने पर कि गर्भ में लड़की है तो उसकी भ्रूणावस्था में ही हत्या कर दी जाती है। इसके अलावा परिवारों में लड़कियों के पोषण पर भी कम ध्यान दिया जाता है। स्त्रियों को घर में शो-पीस की तरह सजाकर तथा पर्दे में रखा जाता है। रोजगार के क्षेत्र में भी स्त्रियों के प्रति भेदभाव की नीति अपनायी जाती है। 

सामाजिक अन्याय को समाप्त करने हेतु उपाय 

(Measures to eradicate Social Injustice)

देश से सामाजिक अन्याय की समाप्ति हेतु अपनाए गए प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं

(अ) सरकारी तथा कानूनी उपाय 

(Governmental and Legal Measures)

1. अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का उत्थान-

इनके उत्थान एवं विकास के लिए सरकार ने अक्टूबर 1999 ई० में एक पृथक् ‘जनजातीय कार्य मन्त्रालय’ का गठन किया है। देश में अब 194 समन्वित जनजातीय विकास परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। 14 राज्यों में अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के 10 प्रतिशत से कम साक्षरता वाले 134 जिलों में यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसके अन्तर्गत पाँचवीं कक्षा तक की लड़कियों के लिए आवासीय विद्यालयों की स्थापना की गई है। 

जनजातियों के लोगों को व्यापारियों के शोषण से बचाने तथा उन्हें छिटपुट वन-उत्पादों और अपनी जरूरत से अधिक कृषि उपज के लाभप्रद मूल्य दिलाने के लिए सरकार द्वारा 1987 ई० में ‘भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास परिसंघ’ (ट्राइफेड) का गठन किया गया है। . वर्ष 2002-03 में आदिवासी महिला सशक्तिकरण योजना’ शुरू की गई थी। इसमें अनुसूचित जनजाति की अत्यन्त गरीब महिलाओं को कोई काम-धन्धा शुरू कराने के लिए 4% प्रतिवर्ष ब्याज की दर से ₹ 50,000 तक का ऋण दिया गया ताकि लाभ पाने वाली महिलाएँ अपनी आय बढ़ा सकें। इस योजना से बड़ी मात्रा में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले अनुसूचित जनजाति के परिवारों को लाभ हुआ। भारत सरकार द्वारा इन जातियों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य पेयजल एवं साफ-सफाई की सुविधाओं को उपलब्ध कराने तथा इनका विकास करने पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। 

राज्यों के जनजातीय विकास के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए विशेष केन्द्रीय सहायता दी जाती है। यह सहायता मुख्यतया परिवार आधारित आमदनी योजनाओं के लिए और कृषि, बागवानी, लघु सिंचाई, मृदा संरक्षण, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, सहकारी संगठन, मत्स्य-पालन, ग्रामीण वानिकी, कुटीर तथा लघु उद्योग जैसे क्षेत्रों में और न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के लिए दी जाती है। 

पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए योजनाएँ-पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं; जैसे 

(i) विभिन्न प्रतियोगी/प्रवेश परीक्षा में सफल होने के लिए परीक्षा-पूर्व कोचिंग सरकारी नौकरी में आरक्षण, 

(ii) पिछड़े वर्ग के लड़कों तथा लड़कियों के लिए छात्रावास की सुविधा,

(iii) शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति की सुविधा,

(iv) सरकारी नौकरी में आरक्षण की सुविधा, 

(v) राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग और विकास वित्त’ की स्थापना तथा गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले पिछड़े वर्गों के लोगों के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए रियायती दरों पर वित्तीय सहायता की व्यवस्था। 

2. अल्पसंख्यक वर्ग के लिए योजनाएँ—

मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि अल्पसंख्यकों को इस वर्ग में रखा गया है। नवीं पंचवर्षीय योजना (1997-98 से 2001-02) के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय के कमजोर वर्गों के उम्मीदवारों को प्रशिक्षण देने के लिए ₹ 11. 25 करोड़ की राशि जारी की गई। .सरकार ने पाँच अरब रुपये के निवेश से ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास एवं वित्त निगम’ की स्थापना की है, यह निगम अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आर्थिक और विकास सम्बन्धी गतिविधियों को बढ़ावा देता है। 

3. वृद्धों के कल्याण के लिए योजनाएँ–

वृद्धों के कल्याण के लिए ‘वृद्ध व्यक्तियों के लिए समन्वित कार्यक्रम’ शुरू किया गया है। इस योजना के तहत वृद्धाश्रमों में दिन में देखभाल करने वाले केन्द्रों, सचल अस्पतालों की स्थापना व रख-रखाव तथा वृद्ध लोगों को गैर-संस्थागत सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाती है। वृद्ध व्यक्तियों के लिए जनवरी 1999 ई० में ‘राष्ट्रीय नीति’ की घोषणा की गई है। . 

4. दिव्यांगों के कल्याण हेतु योजनाएँ—

दिव्यांग व्यक्तियों के स्वयंसेवी कार्य-कलापों को बढ़ावा देने के लिए सरकार के द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। 24 जनवरी, 1997 ई० को ‘राष्ट्रीय दिव्यांग वित्त निगम’ की स्थापना की गई है। इसका उद्देश्य दिव्यांग व्यक्तियों को स्वरोजगार के लिए धन उपलब्ध कराकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित करना है। 

व्यावसायिक पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा 

Meaning and Definition of Business Environment) .. 

किसी व्यवसाय का जीवन तथा अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि व्यवसाय अपने भौतिक साधनों, वित्तीय साधनों तथा अन्य क्षमताओं का उद्यम के अनुरूप किस प्रकार समायोजन करता है। किसी व्यावसायिक संस्था को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रभावित करने वाले वातावरण को व्यावसायिक पर्यावरण के रूप में जाना जाता है। व्यावसायिक पर्यावरण को प्रमुख विद्वानों ने निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है विलियम ग्लूक व जॉक के शब्दों में, “पर्यावरण में फर्म के बाहर के घटक शामिल – होते हैं जो फर्म के लिए अवसर एवं खतरे उत्पन्न करते हैं।’ व्हीलर के शब्दों में, “व्यावसायिक पर्यावरण व्यावसायिक फर्मों तथा उद्योगों के बाहर । की उन सभी बातों का योग है जो उनके संगठन एवं संचालन को प्रभावित करती हैं।” व्यावसायिक पर्यावरण का व्यवसाय पर आंशिक अथवा विस्तृत रूप में प्रभाव पड़ता है। . बाह्य कारकों को अपने अनुकूल करना सम्भव नहीं होता है, अत: उन कारकों के अनुगामी होकर हमें अपने कार्यों को दिशा देनी पड़ती है और उनके अनुकूल समायोजन करना पड़ता है। ऐसा न कर पाने की दशा में व्यवसाय में ह्रास का होना अवश्यम्भावी हो जाता है। .. 

व्यावसायिक पर्यावरण के विभिन्न घटक (Various Components of Business Environment)

व्यावसायिक पर्यावरण कई घटकों का योग है। इसकी मूल विशेषता यह है कि इसमें प्रतिपल परिवर्तन होता है। व्यावसायिक पर्यावरण के निम्नलिखित प्रमुख घटक हैं .

राजनीतिक एवं प्रशासकीय घटक (Political and Administrative Components)

व्यावसायिक पर्यावरण पर विभिन्न प्रकार की राजनीतिक विचारधाराओं का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है, इसीलिए इन्हें एक घटक के रूप में देखा जाता है। प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में शासन तन्त्र सार्वजनिक कल्याण के हित में कार्य करता है। इस परिवेश में लोग स्वेच्छा से आर्थिक विकास के कार्यों में भाग लेते हैं। इसके विपरीत, साम्यवादी एवं तानाशाही देशों में लोगों पर दबाव डाला जाता है, उन्हें बाध्य किया जाता है। बाध्यता की स्थिति में इन देशों में श्रम करने के प्रति वह रुचि नहीं रहती, जो प्रजातान्त्रिक देशों में रहती है। जब लोगों को यह जानकारी रहती है कि प्रशासन उनके हित में ही काम करेगा, तब ऐसे प्रशासन को लोगों का स्वमेव सहयोग मिलने लगता है। ऐसी क्रियाओं का उद्योग व व्यवसाय के क्षेत्र में 

– सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा उद्योग क्षेत्र उन्नति की ओर अग्रसर होता है। इसके वि स्थिति होने पर व्यावसायिक क्रियाएँ कुण्ठित हो जाती हैं, अतः यह एक महत्त्वपूर्ण घटक है। 

आर्थिक घटक (Economic Components)

व्यावसायिक पर्यावरण विभिन्न घटकों का प्रभाव पड़ता है जिनमें आर्थिक घटक अति महत्त्वपूर्ण है। इसके अला विभिन्न आर्थिक घटनाएँ तथा तत्सम्बन्धी क्रियाएँ आती हैं। इसमें आर्थिक नीतियाँ, विनियोग औद्योगिक प्रवृत्तियाँ, आर्थिक दबाव, आयात-निर्यात, मौद्रिक नीति आदि सम्मिलित होते हैं। 

अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश (International Components)

उद्योग में उदार व खुली नीति का प्रभाव होने के कारण अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश का कारक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। एक देश के दूसरे देश के साथ व्यापारिक, वाणिज्यिक एवं तकनीकी सम्बन्ध होते हैं। यदि अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति अनुकूल रहती है तो देश की घरेलू आर्थिक स्थिति के लिए व्यावसायिक वातावरण सहयोगपूर्ण होगा। आज पूरा विश्व एक वृहत्तर व्यापारिक मण्डी में बदल चुका है। भूमण्डलीकरण के दौर में निश्चय ही इस घटक का महत्त्व बढ़ गया है। ‘ 

सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटक (Social and Cultural Components)

व्यावसायिक पर्यावरण में विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटकों का भी प्रभाव परिलक्षित होता है। सामाजिक घटक के प्रभाव को उदाहरणस्वरूप यूरोप के प्रोटेस्टैण्ट धर्म में देखा जा सकता है, जिसने यूरोपीय महाद्वीप में उन्नति के द्वार खोल दिए थे। इसी सांस्कृतिक घटक के कारण इंग्लैण्ड ने चतुर्दिक उन्नति की थी। समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव देश के व्यावसायिक पर्यावरण पर पड़ता है। ऐसे मूल्यों का प्रभाव श्रमिकों के श्रम करने की इच्छा तथा क्षमता पर भी पड़ता है, जिससे अन्तत: व्यावसायिक पर्यावरण प्रभावित होता है। संस्कृति का क्षेत्र काफी विशाल है। इसके अन्तर्गत कला, साहित्य, जीवन-शैली, मानवीय आकांक्षा, ज्ञान, विश्वास, परम्परा, रीति-रिवाज, आदर्श, सामाजिक प्राथमिकताएँ आदि शामिल हैं। 

भौगोलिक घटक (Geographical Components)

इसके अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों जैसे खनिज, पर्यावरण, जलवायु, भूमि की संरचना, जंगल, पहाड़ आदि की विवेचना की जाती है। 

वैधानिक घटक (Legal Components)-

इस वर्ग के अन्तर्गत वैधानिक प्रवृत्ति के घटकों को शामिल किया जाता है। सम्पूर्ण वैधानिक प्रक्रिया, सम्पत्ति अधिकार कानून, विभिन्न श्रम कानून, फैक्ट्री कानून आदि इसमें समाहित हैं। यदि उपर्युक्त समस्त कारक व्यवसाय के अनुगामी होते हैं तो व्यवसाय के लिए विकासकारी होते हैं। 

निम्नलिखित घटक भी व्यावसायिक पर्यावरण कप्रभावित करते हैं—

  1. अनार्थिक पर्यावरण,

II. आर्थिक पर्यावरण। 

अनार्थिक पर्यावरण 

(Noneconomic Environment) 

अनार्थिक कारक एक ऐसा तत्त्व है जिसका व्यावसायिक पर्यावरण के बाह्य पक्ष पर विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। अनार्थिक पर्यावरण की विवेचना में निम्नलिखित तथ्य सम्मिलित होते हैं 

  1. सामाजिक पर्यावरण (Social Environment)-

व्यवसाय एक सामाजिक संस्था है, अत: इस पर सामाजिक पर्यावरण जैसे जनसंख्या, परिवार, जनता का दायित्व-बोध, कार्य के प्रति धारणा, प्रबन्धकीय दृष्टिकोण, समाज के लोगों की परम्परा के प्रति धारणा, सामाजिक मूल्यों आदि का प्रभाव पड़ता है। 

2. वैधानिक पर्यावरण (Legal Environment)-

देश में व्यावसायिक पर्यावरण के विकास के लिए वैधानिक पर्यावरण का स्वच्छ होना अति आवश्यक है। व्यवसाय से सम्बन्धित व्यक्तियों को सम्पत्ति अर्जित करने तथा रखने का वैधानिक अधिकार होना चाहिए। इसी तरह श्रमिकों के अधिकार की रक्षा के लिए भी कानून होना चाहिए। निजी सम्पत्ति का वैधानिक अधिकार होना आवश्यक है। विवाद के निपटारे के लिए निष्पक्ष एवं स्वतन्त्र न्याय व्यवस्था भी आवश्यक है। 

3. राजनीतिक पर्यावरण (Political Environment)-

इसके अन्तर्गत सरकार की राजनीतिक धारणा, राजनीतिक स्थिरता, विदेश नीति, शासन-व्यवस्था आदि की विवेचना जैसे कारकों का समावेश होता है। 

4. भौतिक पर्यावरण (Physical Environment)-

यह व्यवस्था के संचालन का प्रमुख आधार है। वस्तुत: व्यवसाय और प्रकृति के मध्य गहरा सम्बन्ध है। इसमें निम्नलिखित तत्त्व सम्मिलित हैं 

(i) प्राकृतिक संरचना; जैसे-विद्युत, सड़क मार्ग, रेल मार्ग, अन्य यातायात आदि।

(ii) प्राकृतिक साधन; जैसे- भूमि, खनिज, जल आदि।

(iii) जलवायु अर्थात् तापमान, वर्षा, ठण्डक, नमी आदि। 

5. अन्य (Others)-

अनार्थिक पर्यावरण का रूप इस प्रकार का होना चाहिए कि वह आर्थिक पर्यावरण का परिपोषक हो सके। इसके लिए तकनीकी विकास इस प्रकार हो जो प्रौद्योगिक पर्यावरण को गति प्रदान कर सके। इसके अन्तर्गत उचित शैक्षिक वातावरण तथा वैज्ञानिक मानसिकता के सृजन की आवश्यकता है। इनके लिए आवश्यक है कि सामाजिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक मूल्य, व्यवसाय की प्रगति के अनुकूल हों।

II. आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment

आर्थिक पर्यावरण में बैंकिंग तथा वित्तीय संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उत्पादन के निमित्त खेत, कारखाने, प्राकृतिक उपादान खनन क्षेत्र आदि का होना आवश्यक है। . इसी प्रकार इनके विनिमय हेतु सेल्समैन, वितरक, दुकानें, भण्डारगृह आदि होते हैं। अन्य अनेक संस्थाएँ (यथा-काश्तकार, श्रमिक, पूँजीपति, उपभोक्ता तथा विभिन्न कार्मिक) भी सहयोगी होती हैं। इन सबको समवेत रूप से आर्थिक संस्थाएँ कहा गया है, इनका सम्मिलित स्वरूप ही ‘आर्थिक पर्यावरण’ कहलाता है। आर्थिक पर्यावरण को प्रभावित करने वाले अनेक घटक हैं, जिनमें से प्रमुख तीन घटक निम्नलिखित हैं 

  1. आर्थिक विकास की अवस्था (State of Economic Development)

इसके द्वारा ही घरेलू बाजार के आकार का स्वरूप निर्धारित होता है। आर्थिक विकास की यह अवस्था व्यवसाय को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। यह व्यवसाय के विस्तार तथा उसकी प्रकृति को भी प्रभावित करती है। 

  • आर्थिक नीतियाँ (Economic Policies)—

इसके द्वारा राष्ट्र की सम्पूर्ण व्यावसायिक गतिविधियों का नियन्त्रण व नियमन किया जाता है। आर्थिक नीति का निर्धारण प्रायः सरकार की मशीनरी द्वारा किया जाता है। आर्थिक नीति एक विस्तृत शब्दावली है जिसके अन्तर्गत अनेक क्षेत्र समाविष्ट हैं; यथा-व्यापारिक, मौद्रिक, राजकोषीय, साख, कीमत, श्रम आदि क्षेत्र। 

  • आर्थिक प्रणाली (Economic System)-

व्यावसायिक क्षेत्र पर आर्थिक प्रणाली का विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। इसके प्रायः तीन स्वरूप दृष्टिगोचर होते हैं—पूँजीवादी अर्थव्यवस्था, समाजवादी अर्थव्यवस्था तथा मिश्रित अर्थव्यवस्था। भारत में प्रारम्भ में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अंगीकार किया गया तथा जो अब धीरे-धीरे पूँजीवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओर गतिशील है। आर्थिक प्रणाली भी व्यवसाय के स्वरूप पर प्रभाव डालकर प्रायः प्रगति का स्वरूप निर्धारित करने में सक्षम होती है। 

नवीन पंचवर्षीय विदेश व्यापार नीति

सरकार ने 1 अप्रैल, 2015 को विदेश व्यापार नीति (2015-20) की घोषणा की।  नई विदेश व्यापार नीति में निर्यातकों को मिलने वाले इन्सेंटिव में कई परिवर्तन किए गए हैं। वहीं ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम को प्रोत्साहित करने के लिए एक्सपोर्ट प्रमोशन कैपिटल गुड्स स्कीम (ईपीसीजी) के अन्तर्गत शुल्क में छूट पाने के लिए निर्यातकों को निर्यात की शर्त में राहत दी गई है। ई-कॉमर्स के माध्यम से ₹ 25,000 तक के मूल्य वाले हैंडलूम उत्पाद, लेदर फुटवियर, खिलौना व फैशन गारमेन्ट का निर्यात करने वाले निर्यातकों को अन्य निर्यातकों की तरह विभिन्न प्रकार के लाभ मिलेंगे। नई नीति के अन्तर्गत कालीकट एयरपोर्ट, केरल व अराकोनम के कन्टेनर डिपो से आयात-निर्यात किया जा सकेगा। विशाखापट्टनम व भीमावरम को टाउन ऑफ एक्सपोर्ट एक्सलेंस घोषित किया गया है। नई नीति के अन्तर्गत किए गए उपायों की सहायता से सरकार ने वर्ष 2020 तक देश के निर्यात को 900 अरब डॉलर वार्षिक तक पहुँचाने का लक्ष्य रखा है। इस नीति में निर्यातकों और विशेष निर्यात जोन (एसईजेड) के लिए कई प्रोत्साहनो को घोषणा की गई है। प्रावधानों की निरन्तरता बनाए रखने और निर्यातकों व भायातको को लम्बी अवधि की रणनीति बनाने में सहायता करने के लिए नीति की अवधि पाँच वर्ष तय की गई है। 

नई नीति में निर्यात प्रोत्साहन के लिए पहले से चल रही पाँच विभिन्न प्रकार की योजनामो-फोकस प्रोडक्ट योजना, मार्केट लिंक्ड फोकस प्रोडक्ट योजना, फोकस मार्केट योजना, एयो इंफ्रास्ट्रक्चर इन्सेटिव स्क्रिप्स व वीकेजीयूवाई के स्थान पर अब मचेंडाइज एक्सपोर्ट फ्रॉम इण्डिया योजना (एमईआईएस) की शुरुआत की गई। सेवा निर्यात के लिए सविस एक्सपोर्ट फॉम इण्डिया स्कीम (एसईआईएस) लायी गई है। इन दोनों योजनाओं के अन्तर्गत निर्यातकों को वस्तु और बाजार के आधार पर स्क्रिप्स के रूप में इन्सेटिव दिए जाएंगे। वस्तुओ के निर्यातकों को 2 से 5 प्रतिशत तक इन्सेंटिव दिए जाएँगे तो सेवा निर्यातकों को 3 से 5 प्रतिशत तक इन्सेटिव मिलेंगे। इन्सेटिव की दर निर्यात की जाने वाली वस्तु व बाजार के आधार पर तय होगी। रोजगारपरक क्षेत्र की वस्तु, कृषि व ग्रामीण उद्योग, पर्यावरण अनुकूलन के साथ अधिक मुल्य वाली वस्तुओं के निर्यात पर सबसे अधिक इन्सेंटिव दिए जाएंगे। ऐसे में कई ऐसी भी वस्तुएँ होंगी जिनके निर्यात पर कोई इन्सेंटिव नहीं मिलेगा। इन्सेंटिव के रूप में प्राप्त करने वाले स्क्रिप्स से निर्यातक किसी भी प्रकार के कर जैसे उत्पाद कर, सीमा शुल्क व सेवा कर को चुका सकते हैं। स्क्रिप्स को ट्रांसफर भी किया जा सकेगा। 

बाजारों का वर्गीकरण (Classification of Markets)-

निर्यात बाजार को भी तीन श्रेणी में बाँटा गया है-ए श्रेणी में अमेरिका, यूरोपीय संघ के देश व कनाडा को मिलाकर 30 देश हैं। बी श्रेणी में अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, सीआईएस देश, आसियान देशों को मिलाकर 139 देशों को शामिल किया गया है। अन्य 70 देशों को सी श्रेणी के देश माना गया है 

विदेश व्यापार (Foreign Trade)

कृषि उत्पादों के निर्यात पर जोर देते हुए इन उत्पादों को ज्यादा छूट देने का प्रावधान किया है। साथ ही सरकार ने नीति को ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘डिजीटल इण्डिया’ से जोड़ने का प्रयास किया है। देश से होने वाला वस्तु व सेवाओं का निर्यात अगले पाँच वर्ष में बढ़ाकर 900 अरब डॉलर तक पहुँच जाएगा। इससे विदेश व्यापार में भारत की हिस्सेदारी वर्तमान दो से बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो जाएगी। 

एसईजेड को प्रोत्साहन (Promotion for Special Economic Zone SEZ)

सरकार ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों अर्थात् एसईजेड की भूमिका और बढ़ाने के लिए नीति में एमईआईएस और एसईआईएस के अन्तर्गत निर्यात दायित्व में 25 प्रतिशत की कमी कर दी है। ऐसा होने के बाद निवेशकों की दृष्टि से एसईजेड और आकर्षक बनेंगे। साथ ही इससे घरेलू पूँजीगत समान उद्योग को भी प्रोत्साहन मिलेगा। इसके अतिरिक्त एसईजेड की इकाइयों को भी अब विदेश व्यापार नीति के चैप्टर तीन के अन्तर्गत मिलने वाली छूट भी मिलेगी। वर्ष 2012 में एसईजेड पर न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) लागू होने के बाद से निवेशक इससे दूर हो रहे थे। 

राज्यों के साथ सहयोग (Cooperation with States)-

केन्द्र निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए राज्यों का भी सक्रिय सहयोग लेगा। इसके लिए नीति में एक संगठनात्मक ढाँचे का प्रस्ताव भी किया गया है। राज्य सरकारों की भागीदारी के लिए एक्सपोर्ट प्रमोशन मिशन के गठन का प्रस्ताव किया गया है। 

सरकार के अभियानों को सहायता (Helpful for Government Plans)

मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र और रोजगार सृजन में छोटे व मझौले उद्यमों को महत्त्व दिया गया। सूक्ष्म, लग एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के 108 समूहों की पहचान की गई हैं। इसी तरह ‘स्कल इण्डिया’ के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए ‘निर्यात बन्धु’ योजना को मजबूत बनाया जा रहा है। नई विदेशी व्यापार नीति (एफटीपी) ई-कॉमर्स को भी बढ़ावा देगी। विशेष रूप से उन क्षेत्रों को नीति में ज्यादा प्रोत्साहन देने की व्यवस्था की गई है, जो ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा करते हैं। एफटीपी के अन्तर्गत ऐसी ई-कॉमर्स कम्पनियों को प्रोत्साहन मिलेगा, जो ऐसे क्षेत्रों के उत्पाद निर्यात करेंगी जिन पर सरकार रोजगार सृजन के लिए ध्यान दे रही है। इनमें चमड़ा और हस्तशिल्प क्षेत्र प्रमुख हैं। 

व्यापार-सन्तुलन का अर्थ एवं परिभाषा 

Meaning and Definition of Balance of Trade

सामान्य शब्दों में, व्यापार-सन्तुलन से आशय सम्बन्धित देशों के आयात और निर्यात के अन्तर से है। यदि एक देश में आयात अधिक तथा निर्यात कम हैं तो उसका व्यापार-सन्तुलन प्रतिकूल (Unfavourable) कहा जाता है। इसकी विपरीत स्थिति में व्यापार-सन्तुलन अनुकूल (Favourable) कहा जाता है। व्यापार-सन्तुलन की स्थिति जानने के लिए किसी देश के अन्य देशों से एक वर्ष में होने वाले कुल आयातों का योग ले लिया जाता है और इसी प्रकार अन्य देशों के होने वाले कुल निर्यातों को जोड़ दिया जाता है। इन दोनों राशियों का अन्तर ही व्यापार-सन्तुलंन कहलाता है। यह सम्भव है कि कुछ देशों से व्यापार-सन्तुलन अनुकूल हो तथा कुछ से प्रतिकूल अतः ऐसी स्थिति में जिन देशों से रकम प्राप्त करनी होती है, उनसे रकम लेकर लेनदार देशों को चुकता कर दी जाती है।इसप्रकार भुगतान करने के पश्चात् जो कुछ शुद्ध लेना या देना शेष रहता है, वह शुद्ध व्यापार-सन्तुलन (Net Trade Balance) कहलाता है।

बेनहम के अनुसार, “एक निश्चित अवधि में किसी देश के निर्यातों के मूल्य एवं आयातों के मूल्य के सम्बन्ध को ही व्यापर-सन्तुलन कहते हैं।’ 

डब्ल्यू०एम० स्केमैल के अनुसार, “व्यापार-सन्तुलन किसी देश के निवासियों द्वारा हसरे देश के निवासियों को बेची गई वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य तथा उस देश के निवासियों नारा अन्य देश के निवासियों से खरीदी गई वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य का अन्तर होता है।” इस प्रकार स्केमैल व्यापर-सन्तुलन में वस्तुओं के अतिरिक्त सेवाओं को भी शामिल करते हैं। 

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि “व्यापार-सन्तुलन एक निश्चित समय-अवधि (एक वर्ष) में एक देश के दृश्य एवं अदृश्य निर्यातों तथा दूसरे देश में दृश्य एवं अदृश्य निर्यातों के मूल्यों का अन्तर है।” 

भुगतान-सन्तुलन का अर्थ

Meaning of Balance of Payments

भुगतान-सन्तुलन से आशय किसी देश के अन्य देशों से सम्पूर्ण लेन-देन के विस्तृत विवरण से होता है। इस विवरण में प्राय: आयात और निर्यात सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं और इसमें भुगतान सम्बन्धी अन्य सभी लेन-देन सम्मिलित किए जाते हैं। हम जानते हैं कि भुगतान-सन्तुलन निश्चित रूप से सन्तुलित होता है क्योंकि जब किसी देश में भुगतान की असन्तुलित स्थिति रहती है तो उसे सन्तुलित करने के लिए स्वर्ण द्वारा भुगतान की व्यवस्था कर दी जाती है या दोनों देशों में ऋण सम्बन्धी समझौता हो जाता है जिसके फलस्वरूप भुगतान निश्चित रूप से सन्तुलित हो जाता है। भुगतान-सन्तुलन की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं –

बेनहम के शब्दों में, “एक देश का भुगतान-सन्तुलन एक निश्चित काल के भीतर उसके शेष विश्व के साथ मौद्रिक सौदों का लेखा होता है।” 

किण्डल बर्जर के शब्दों में, “एक देश के भुगतान-सन्तुलन से आशय एक दी हुई अवधि में उस देश के निवासियों और विदेशियों के मध्य हुए सभी आर्थिक व्यवहारों के क्रमबद्ध विवरण से है।” 

प्रो० स्नाइडर के अनुसार, “भुगतान-सन्तुलन को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह किसी देश और शेष संसार के निवासियों, व्यापारियों, सरकार तथा संस्थाओं के बीच एक विशेष समय में किए गए समस्त विनियोगों के मौद्रिक मूल्य और वस्तुओं के हस्तान्तरण एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य तथा ऋण अथवा स्वामित्व को उचित वर्गीकरण के साथ प्रदर्शित करता हुआ विवरण है।” निष्कर्षत: यह कह सकते हैं कि “भुगतान-सन्तुलन एक ऐसा विवरण है जिसमें किसी देश के एक निश्चित समय के समस्त विदेशी लेन-देनों का लेखा होता है।” इस विवरण में समस्त लेनदारियाँ और देनदारियाँ अलग-अलग दिखाई जाती हैं। भुगतान-सन्तुलन के विवरण में प्रायः समस्त विदेशी सौदों का सारांश अंकित किया जाता है। भुगतान-सन्तुलन में एक देश के निवासियों का सम्पूर्ण विदेशी विनियोग, विदेशों में किए गए विनियोगों का ब्याज व विदेशों में स्थापित उद्योग और व्यापार का लाभ, विदेशियों को भुगतान किए गए लाभांश, उपहार और सहायता आदि सम्मिलित किए जाते हैं। चकता कर दी जाती है। इस प्रकार भुगतान करने के पश्चात् जो कुछ शुद्ध लेना या देना शेष रहता है, वह शुद्ध व्यापार-सन्तुलन (Net Trade Balance) कहलाता है। इसे स्वर्ण लेकर या देकर चुकता करना होता है। 

गरीबी या निर्धनता से आशय 

Meaning of Poverty

निर्धनता का अर्थ उस सामाजिक प्रक्रिया से लगाया जाता है जिसमें समाज का एक बहुत बड़ा भाग अपन जावन का मूलभूत आवश्यकताओं को भी परा नहीं कर पाता। जब समाज का एक बहुत बड़ा भाग न्यूनतम जीवन-स्तर से वंचित रहता है और केवल निर्वाह-स्तर पर ही अपना जीवन निर्वाह करता है, तो यह समझा जाता है कि समाज में व्यापक निर्धनता विद्यमान है। तीसरी दुनिया के देशों में व्यापक निर्धनता पायी जाती है। यूरोप और अमेरिका के कुछ भागों में भी निर्धनता विद्यमान है। अधिकांश अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि वह व्यक्ति गरीब है जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहा है। सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन (F.A.O.) के प्रथम निदेशक लॉर्ड बायड ओर ने सन् 1945 ई० में गरीबी रेखा’ (Poverty Line) की संकल्पना प्रस्तुत की थी। इस रेखा के अनुसार जिन व्यक्तियों को 2,300 कैलोरी का भोजन नहीं मिल पाता है उनको गरीबी रेखा (Poverty line) के नीचे माना जाना चाहिए। निर्धन व्यक्तियों का कुल जनसंख्या से अनुपात ‘निर्धनता अनुपात’ (Poverty Ratio) कहलाता है। सूत्रानुसार, निर्धनता अनुपात (Poverty Ratio) 

गरीबों की कुल संख्या (Total Number of Poor People) देश की कुल जनसंख्या (Total Population of a Country) 

निर्धनता की परिभाषा 

(Definitions of Poverty).

जे०एल० हेन्सन के अनुसार, “न्यूनतम जीवन-स्तर को बनाए रखने के लिए जितनी आय की आवश्यकता होती है, उससे कम आय होने पर व्यक्ति को निर्धन माना जाएगा।’ 

‘विश्व बैंक’ के अनुसार, “यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन एक डॉलर की औसत की आजत करने में असमर्थ है तो यह माना जाएगा कि वह निर्धनता रेखा से नीचे जीवन बस रहा है।”

‘योजना आयोग’ के अनुसार, “उन व्यक्तियों को निर्धन माना जाता है जो ग्रामीण और में प्रतिदिन 2,400 कैलोरी तथा शहरी क्षेत्रों में 2,100 कैलोरी से कम उपभोग करते हैं।” गरीबी शब्द का प्रयोग तो प्राय: सभी करते हैं किन्तु इस शब्द का सही अर्थ दो रूपों में व्यक्त किया जा सकता है 

  1. सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty),
  2. निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty)। .
  3. सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty)-

सापेक्ष गरीबी से आशय आय की विषमताओं से है। जब हम दो देशों की प्रति व्यक्ति आय की तुलना करते हैं तो उनमें भारी अन्तर पाया जाता है। इस अन्तर के आधार पर हम कह सकते हैं कि एक देश दूसरे देश के सापेक्ष गरीब है। यह गरीबी सापेक्ष गरीबी कहलाती है। 

  • निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty)-

निरपेक्ष गरीबी का अर्थ उस न्यूनतम आय से है जिसकी एक परिवार के लिए आधारभूत न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यकता होती है, परन्तु जिसे वह परिवार जुटा पाने में सर्वथा असमर्थ होता है। दूसरे शब्दों में, किसी व्यक्ति की ‘निरपेक्ष गरीबी’ से आशय यह है कि उसकी आय या उपभोग इतना कम है कि वह न्यूनतम भरण-पोषण स्तर से भी निम्न-स्तर पर जीवनयापन कर रहा है। अन्य शब्दों में, मानव की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य तथा चिकित्सा सेवा आदि की पूर्ति का भली-भाँति न हो पाना ही निरपेक्ष गरीबी कहलाता है। 

भारत में निर्धनता के कारण 

Causes of Poverty in India

भारत में गरीबी के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं 

  1. निर्धनता का दुश्चक्र (Vicious Circle of Poverty)-

भारत में गरीबी का प्रमुख कारण ‘गरीबी’ ही है, अर्थात् ‘गरीबी’ ही गरीबी का कारण तथा परिणाम दोनों है। एक व्यक्ति गरीब है, इसलिए निश्चित रूप से उसकी आय, उपभोग स्तर, कार्यक्षमता एवं बचत कम होती है, अत: वह सदैव गरीब ही बना रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था गरीबी के कुचक्र में फंसी हुई है, इसलिए यहाँ गरीबी सदैव से ही विद्यमान है। इस गरीबी के दुश्चक्र को तोड़कर ही देश से गरीबी को दूर किया जा सकता है। 

2. उत्पादक सम्पत्ति (Productive Assets) तथा दक्षता (Skill) का न होना भारत में गरीबी का प्रमुख कारण व्यक्तियों पर उत्पादक सम्पत्तियों का अभाव है या फिर निसके पास कोई हुनर अथवा दक्षता नही है वह भी गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहा है। प्रायः पिनो के पास आय तथा सम्पत्ति की कमी होती है। गाँवों में व्यक्ति की सामाजिक प्रतिरा उसके पास उपलब्ध भूमि से ही आँको जाती है। यदि गाँव में किसी व्यक्ति के पास भूमि नहीं है तो वह व्यकिा निर्धन माना जाता है। भारत में निर्धनता का प्रमुख कारण खेती की भूमि का उपलल न होना है। यदि किसी निर्धन के पास कुछ भूमि होती भी है तो वह बहुत कम मात्रा में होने के कारण अनुत्पादक होती है तथा धन के अभाव के कारण उसके लिए भूमि में सुधार कर पाना भी कठिन होता है और उसे साख भी प्राप्त नहीं हो पाती। 

8. मजदूरी पर आश्रित होना (Depend upon Wages)-

भारत की जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसके पास भूमि का न तो स्वामित्व है और न ही उसे भूमि अध-बटाई पर प्राप्त होती है। इसलिए वह मजदूरी पर ही आश्रित रहता है, और मजदूरी भी उसे सदैव नहीं मिल पाती जिससे वह सदैव निर्धन ही बना रहता है। 

  • मौसमी कार्य का मिलना (Seasonal Work)-

कृषि से बाहर निर्धनों को कुटीर उद्योगों, सेवा तथा व्यापार में काम मिलता भी है तो वह कार्य मौसमी स्वभाव का होता है। कम पूंजी व कम दक्षता होने के कारण इन कार्यों में उत्पादकता भी कम होती है तथा इनसे कारीगरों को भी आय कम होती है। 

  • भूमि पर स्वामित्व न होना (No Ownership on Land)—

निर्धनता का एक . प्रमुख आर्थिक कारण अधिकांश निर्धनों के पास अपनी भूमि न होना है। उन्हें जो भूमि काश्तकारी (Tenaney) या अध-बँटाई (Half-sharing) के रूप में मिली होती है उससे उन्हें आधी या इससे कम फसल ही प्राप्त हो पाती है। कभी-कभी तो निर्धनों के पास मात्र वह जमीन ही होती है जो कि वास्तव में समाज की होती है, किन्तु जनसंख्या में वृद्धि के कारण यह सामाजिक व्यवस्था भी समाप्त होती जा रही है। 

  • दुर्बल आर्थिक संगठन (Weak Economic Organization)-

भारत में आर्थिक संगठन निर्बल स्थिति में है। यहाँ कृषि तथा उद्योगों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए ग्रामीण तथा पिछड़े क्षेत्रों में अभी भी बैंकरों से काफी महँगी दर पर ऋण लिया जाता है। इसी कारण निर्धनता बढ़ती चली जा रही है।

  • औद्योगिक विकास की निम्न दर (Low Rate of Industrial Development)-

योजनाकाल में यद्यपि औद्योगिक विकास की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है, लेकिन आज भी देश में औद्योगिक विकास की दर काफी नीची है। औद्योगिक क्षेत्र में उपभोक्ता एवं उत्पादक उद्योगों में असन्तुलन के साथ-साथ क्षेत्रीय विषमता विद्यमान है। उत्पादन का पैमाना छोटा होने के कारण श्रम विभाजन सम्भव नहीं है और पूँजी की कमी के कारण उद्योगों का आधुनिकीकरण तथा विकास भी सम्भव नहीं है। अत: निर्धनता की समस्या पूरी तरह से यथावत् बनी रहती है। 

  • अशिक्षा, अज्ञानता तथा रूढ़िवादिता (Illiteracy, Ignorance and Orthodoxy)-

अधिकांश भारतीय जन्म से लेकर मृत्यु तक अशिक्षा, अज्ञानता, रूढियाला एवं अन्धविश्वास के कारण अनेक संस्कारों पर अनुत्पादक व्यय करते हैं। निर्धन व्यक्ति को ही सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह आवश्यक रूप से करना पड़ता है। इसके लिए विवश होकर उसे ऋण लेना पड़ता है, जिससे वह कर्जदार हो जाता है तथा गरीबी के मकड़जाल में फं जाता है। इसका असर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पड़ता रहता है। 

  • अधिक बच्चों का होना (To have More Children)-

जल्दी-जल्दी व अधिक बच्चे होने के कारण माता (स्त्री) तथा बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं और वे अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाते हैं। अत: वे देश की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाते तथा गरीबी उन पर मँडराती रहती है। 

  • जाति प्रथा तथा संयुक्त परिवार प्रणाली (Castism and Joint Family System)-

भारत में बढ़ता हुआ जातिवाद, संयुक्त परिवार प्रणाली तथा उत्तराधिकार के नियम भी गरीबी कायम करने में अपना अंशदान कर रहे हैं। जाति प्रथा के चलते जिस जाति-विशेष को लाभ मिल पाता है, वह जाति-विशेष ही अपना विकास कर पाती है, जबकि अन्य जातियाँ पिछड़ जाती हैं जिससे उनकी निर्धनता बनी रहती है। संयुक्त परिवार प्रथा में कार्य करने वाले व्यक्ति कम होते हैं, जबकि आश्रित व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है। इससे प्रति व्यक्ति आय घट जाती है, फलस्वरूप निर्धनता की स्थिति आ जाती है। संयुक्त परिवार के कारण कुछ लोग काफी आलसी हो जाते हैं, जो अकर्मण्य रहकर गरीबी को आमन्त्रित करते हैं। 

  1. भ्रष्टाचार (Corruption)-

वर्तमान समय में भ्रष्टाचार देश की गम्भीर समस्या है। प्रशासनिक व्यवस्था में नीचे से ऊपर तक सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार दिखाई देता है। विकास योजनाएँ ठीक प्रकार से क्रियान्वित नहीं हो पा रही हैं। जो धन गरीबी के निराकरण में लगना चाहिए, वही धन गैर विकास के कार्यों में व्यय हो रहा है, परिणामस्वरूप गरीबों व अमीरों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है। इस प्रकार के हालात में देश की गरीबी हटाने की कल्पना, मात्र कल्पना ही बनी रहेगी। 

गरीबी निवारण हेतु सुझाव 

(Suggestions to Eliminate Poverty)

यदि गरीबी की समस्या का निराकरण नहीं किया गया तो गरीबों का रोष विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित होगा जो देश की अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख सकता है। इस विद्रोह का निशाना अमीर व्यक्ति ही होंगे। गरीबी से तंग आकर गरीब लोग हथियार उठा लेंगे और आतंकी गतिविधियों द्वारा खूनखराबा करके अमीर व्यक्तियों का जीना दूभर कर सकते हैं। अतः इस खतरनाक स्थिति के उत्पन्न होने से पहले ही गरीबी निवारण हेतु समुचित कदम उठाने की आवश्यकता है। भारत में गरीबी को दूर करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं 

जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण (Control on Population Growth)

भारत में भी अब चीन की जनसंख्या नीति को अपनाने का समय आ गया है, अर्थात् हमें एक बच्चा नीति 

1.One Child Norm को अपनाना होगा। जब तक यह नीति नहीं अपनायी जाएगी तब तक गरीबी का निराकरण सम्भव नहीं है, लेकिन यह कार्य तभी सम्भव है जब व्यक्ति अधिक शिक्षित होगा, अत: आम जनता में शिक्षा का प्रचार-प्रसार तथा विस्तार करने की महती आवश्यकता है। 

2. मजबूत इच्छा-शक्ति (Strong Will-power)-

अधिकतर राजनीतिक पार्टियाँ ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देती हैं, किन्तु यह नारा मात्र चुनावी नारा बनकर रह जाता है। वास्तव में देखा जाए तो सरकार, प्रशासन और सम्पन्न वर्ग ने गरीबी हटाने का सच्चे मन से प्रयास नहीं किया है। यदि सरकार दृढ़ इच्छा-शक्ति से गरीबी हटाने का प्रयास करे तो निश्चित रूप से गरीबी दूर हो सकती है। 

3. सदृढ सरकारी नीतियाँ एवं कुशल संचालन (Strong Government Policies and Efficient Implementation)—

गरीबी को दूर करने हेतु जो भी नीतियाँ बनाई जाएँ, वे व्यवस्थित तथा सुदृढ़ होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त उनका संचालन भी कुशलतापूर्वक होना चाहिए। साथ ही मध्यस्थों पर कड़ी नजर रखनी होगी तथा धन का दुरुपयोग रोकने लिए कड़े नियम लागू करने होंगे। 

4. सामाजिक चेतना (Social Awareness)-

अशिक्षा के कारण हमारे देश का आम नागरिक अपने अधिकार तथा दायित्वों के प्रति समुचित जानकारी नहीं रखता तथा वह पुराने ढर्रे पर ही जिन्दगी गुजारना चाहता है। उसे सरकार द्वारा चलाए जा रहे किसी भी कार्यक्रम की जानकारी तक नहीं हो पाती है। लेकिन सामाजिक चेतना के माध्यम से इस कमी को दूर किया जा सकता है। ऐसा होने से उसके अधिकारों का कोई हनन नहीं कर पाएगा। 

5. जनसहयोग (Public Co-operation)- 

हमारा यह सोचना कि गरीबी की समस्या केवल सरकार के प्रयासों द्वारा ही दूर होगी तो यह मात्र एक भ्रम ही होगा। गरीबी की समस्या के निराकरण के लिए आम जनता को भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेकर अपना अमूल्य सहयोग देना होगा, तभी गरीबी का निराकरण होना सम्भव है। 

6. प्रशासनिक सुधार (Administrative Reforms)-

भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था सुस्त, अकुशल, भ्रष्ट एवं निर्णय लेने में अक्षम है। वास्तविकता तो यह है कि हमारा प्रशासन जनता की रक्षा करने में सर्वथा अक्षम है, लेकिन गुण्डों एवं बदमाशों को संरक्षण देने में निपुण है। अत: आवश्यकता इस बात की है कि प्रशासनिक अधिकारियों को इस तरह की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए कि वे दिलोजान से गरीबों की मदद करें तथा भ्रष्ट मानसिकता से सर्वथा दूर रहें। ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों का मनोबल बढ़ाने के लिए उन्हें प्रशस्ति तथा पदोन्नति .. मिलनी चाहिए। 

7. शहरी विकास कार्यक्रम लागू करना (Implementation of the Programme for Urban Development)-

गरीबी दूर करने के लिए शहरों में विशेष कार्यक्रमों को बनाकर उन्हें क्रियान्वित किए जाने की महती आवश्यकता है। इससे रोजगार मिलने में शहरी गरीबों को सहायता प्राप्त होगी। 

8. कृषि विकास (Agricultural Development)-

यह सर्वविदित है कि भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश व्यक्ति कृषि पर आश्रित हैं। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात से किया जाए तो गरीबी 

करने के लिए भूमि शहर की अपेक्षा काफी अधिक है। यदि कृषि का विकास उचित ढंग से किया जा का उन्मूलन आसानी से किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में आय में वृद्धि करने के नि सधारों को प्रभावी ढंग से लाग करना चाहिए तथा किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले काम खाद को सस्ती दरों पर उपलब्ध कराना चाहिए। इसके अतिरिक्त फसल बीमा – व्यवस्था, संस्थागत वित्त व्यवस्था, भूमि सुधार, किसानों की सुरक्षा, आधुनिकीकरण तथा गुणवत्ता वाली छिड़काव की दवाएँ (Pesticides) उपलब्ध करानी होगी, तभी कृषि विकास सम्भव हो पाएगा और गरीबी का उन्मूलन होगा। 

9. ग्रामीण विकास की विशेष योजनाएँ (Special Schemes for RS Development)-

शहर की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का प्रतिशत अधिक है. अ. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विशेष योजनाओं को क्रियान्वित करने की महती आवश्यकता है. जिते मुख्यमंत्रियों द्वारा कार्य-स्थल पर जा-जाकर परखना होगा कि वास्तव में वे योजनाएँ लाग की भी जा रही हैं अथवा कागजी घोड़े ही दौड़ाए जा रहे हैं। 

10. गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि (Increase in Non-agricultural Employ. ment)-

भूमि के अभाव तथा जनसंख्या वृद्धि ने कृषि पर जनसंख्या का भार बढ़ा दिया है अतः इस भार को कम करने के लिए गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि करने की आवश्यकता है। इसके लिए ग्रामीण व कुटीर उद्योग, कताई-बुनाई, दस्तकारी, रँगाई-छपाई, खिलौने, मिट्टी के पात्र तथा मूर्तियाँ बनाने के कार्यों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। 

11. औद्योगिक विकास (Industrial Development)-

कृषि पर जनसंख्या का भार कम करने के लिए यह आवश्यक है कि उद्योगों के विकास पर पूर्ण ध्यान दिया जाए। इसके लिए निजीकरण, आधारभूत उद्योगों की स्थापना, पूँजी की उचित व्यवस्था, उदार औद्योगिक नीति तथा अनुसन्धान एवं विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। ऐसा होने से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी। 

लघु औद्योगिक इकाइयों की रुग्णता के लिए उत्तरदायी प्रमुख घटक

(Main factors Responsible for the Sickness of Small Scale Industries)

 31 मार्च, 2002 ई० तक देश में रुग्ण इकाइयों की संख्या ढाई लाख से भी ऊपर पहुँच चकी थी. जो एक चिन्ता का विषय है। भारत में लघु औद्योगिक इकाइयों (SSI) की रुग्णता पर गए विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इन इकाइयों की रुग्णता के लिए प्रमुखत: अग्रलिखित घटक उत्तरदायी होते हैं –

1. प्रबन्धकीय सिद्धान्तों की अवहेलना-लघु औद्योगिक इकाइयों के मालिक बहुत कम स्वामित्व पूँजी से अपना कारोबार शुरू करते हैं तथा वे अच्छी परिस्थितियों में भी आन्तरिक वित्तीय संसाधनों के निर्माण हेतु कोई प्रयास नहीं करते। इन इकाइयों में प्राय: उत्पादन एवं बिक्री की तुलना में स्कन्ध के निर्माण हेतु मात्रा बहुत अधिक रखी जाती है जिससे कार्यशील पूँजी की कमी हो जाती है तथा उत्पादन लागत में भी वृद्धि होती है। अनेक लघ औद्योगिक इकाइयाँ अल्पकालीन उधार को मध्यमकालीन अवधि में निवेश के लिए प्रयुक्त कर लेती हैं जिससे वित्तीय प्रबन्धन में कठिनाई उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, लघु औद्योगिक इकाइयाँ अक्सर प्रबन्धकीय सिद्धान्तों का पालन नहीं करती हैं, जिससे इनके प्रबन्धन में बाधा आती है तथा कालान्तर में ये इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं। 

2. क्षमता का अपूर्ण उपयोग-कई बार कार्यशील पूँजी के अभाव, माँग में कमी एवं कच्चे माल की कमी के कारण लघु औद्योगिक इकाइयों की उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है। इससे ये इकाइयाँ धीरे-धीरे रुग्णावस्था में पहुँच जाती हैं। 

3. सरकार का भारी उद्योगों की ओर झुकाव-सरकारी नीतियाँ भी लघु औद्योगिक इकाइयों की सफलता एवं साध्यता को प्रभावित करती हैं। कई बार सरकारी नीतियों में परिवर्तन का लघु औद्योगिक इकाइयों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, परिणामस्वरूप ये इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-भारत में लघु औद्योगिक इकाइयों के लिए आरक्षित उत्पादों की सूची में कटौती के कारण ये इकाइयाँ प्रतियोगिता में नहीं ठहर पा रही हैं तथा अधिकांश इकाइयाँ घाटे में चल रही हैं। इसके साथ ही सरकार का झुकाव भी भारी उद्योगों के विकास की ओर अधिक रहा है। भूमण्डलीकरण की नीति के कारण लघु औद्योगिक इकाइयों को वृहत् उद्योगों तथा बहुराष्ट्रीय निगमों (MNCs) से प्रतियोगिता करनी पड़ती है और लघु औद्योगिक इकाइयाँ इस प्रतियोगिता में नहीं ठहर पाती, फलस्वरूप ये या तो घाटे में चल रही हैं अथवा रुग्ण हो चुकी हैं। 

4. प्रबन्ध कार्य में अकुशलता-लघु स्तरीय औद्योगिक इकाइयों की स्थापना करने वाले अधिकांश साहसी प्रबन्ध का विशिष्ट ज्ञान नहीं रखते हैं। प्रबन्धकीय कुशलता के अभाव में इन इकाइयों की उपरिव्यय लागतें बहुत ऊँची होती हैं। इन इकाइयों की स्थापना में लगी पँजी पर ब्याज की दरें प्राय: ऊँची होती हैं तथा शुरुआत में साहसियों द्वारा मितव्ययिता भी नहीं अपनायी जाती। अतः प्रबन्धकीय अनुभव की कमी के कारण अनेक लघु औद्योगिक इकाइयाँ रुग्ण हो जाती हैं। 

लघु स्तरीय उद्योगों की रुग्णता को दूर करने हेतु उपाय (Measures to remove the Sickness of Small Scale Industries) 

भारी उद्योगों तथा लघु उद्योगों को एक ही पैमाने से नहीं मापा जाना चाहिए। लघु इकाइयों की समस्याएँ भारी उद्योगों से सर्वथा भिन्न हैं। लघु उद्योगों की रुग्णता को रोकने हेतु ठोस उपाय किए जाने की आवश्यकता है। लघु स्तर की इकाइयों की रुग्णता को रोकने के लिए कुछ उपाय निम्नलिखित हैं 

(1) लघु स्तरीय इकाइयों में स्कन्ध की मात्रा को अनुकूलतम स्तर पर रहना चाहिए ताकि लागतों में कमी की जा सके तथा उत्पादन एवं बिक्री पर भी विपरीत प्रभाव न पड़े। 

(2) अल्पकालीन वित्तीय स्रोतों से प्राप्त पूँजी को मध्यमकालीन/दीर्घ प्रयुक्त किया जाए। 

(3) लघु औद्योगिक इकाइयों के साहसियों को प्रशिक्षण देकर उनमें प्रव का विकास करना चाहिए। 

(4) लघु औद्योगिक इकाइयों को वित्तीय संसाधनों (आन्तरिक वित्तीय सृजन पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जिस वर्ष इकाई को अधिक लाभ हो, उसका पुनर्विनियोग अधिक किया जाना चाहिए। 

(5) लघु औद्योगिक इकाइयों में उपरिव्ययों में कटौती के प्रयास किए जा लागत में कमी लायी जाए तथा कोषों का अन्यत्र उपयोग न किया जाए। ‘ 

निजीकरण से आशय 

(Meaning of Privatization

संकुचित अर्थ में निजीकरण का आशय उस नीति से है जिसके अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों का निजी क्षेत्र को हस्तान्तरण कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को विराष्ट्रीयकरण (Denationalization) भी कहा जाता है। व्यापक अर्थ में निजीकरण की प्रक्रिया में केवल सार्वजनिक उपक्रमों के स्वामित्व को निजी क्षेत्र में ही नहीं हस्तांतरित किया जा रहा है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्रियाओं को भी निजी क्षेत्र को सौंपा जा रहा है तथा निजी क्षेत्र के कार्यकलापों के कार्यों को फैलाया अर्थात् विस्तृत किया जा रहा है। इसके अलावा नीतिगत परिवर्तन करके निजी क्षेत्र को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त किया जा रहा है। अब निजी क्षेत्र को विभिन्न प्रकार के उद्योग खोलने की छूट दी गयी है। . 1. अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के अर्थशास्त्री सुसान के० जोन्स के शब्दों में, “निजीकरण शब्द से तात्पर्य किसी भी कार्य-कलाप को सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करना है। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के कार्य-कलापों में केवल पूँजी अथवा प्रबन्ध विशेषज्ञों का प्रवेश भी हो सकता है किन्तु अधिकांश मामलों में, इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजी क्षेत्र में हस्तांतरण होता है।” 

2. जिबान के० मुखोपाध्याय के अनुसार, “निजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें किसी राष्ट्र के आर्थिक कार्य-कलापों में सरकारी प्रभुत्व को कम करना है।” संक्षेप में, ‘निजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों के . स्वामित्व तथा प्रबन्ध में निजी क्षेत्र को सहभागिता प्रदान की जाती है अथवा स्वामित्व एवं प्रबन्ध को निजी क्षेत्र को हस्तांतरित किया जाता है तथा आर्थिक क्रिया-कलापों पर सरकारी नियन्त्रण को घटाकर देश में आर्थिक प्रजातन्त्र स्थापित किया जाता है।” 

निजीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 

(1) यह एक नई विचारधारा है तथा नई व्यह-रचना (Strategy) है। 

(2) यह विचारधारा विश्व-स्तर पर लागू की जा रही है।

(3) यह व्यापक विचारधारा है। इसका उद्देश्य सरकारी प्रभुत्व को कम करके निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना है। 

(4) यह आर्थिक प्रजातन्त्र (Economic Democracy) की स्थापना करता है। 

(5) सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन (Social-Economic Changes) का उपकरण अथवा अस्त्र (tool) है। 

(6) इसका विस्तृत क्षेत्र (Wide scope) है। इसमें विराष्ट्रीयकरण (Denationali zation), विनियन्त्रण (Decontrol), विनियमन (Deregulation), आर्थिक उदारीकरण (Economic liberalization) आदि क्रियाएँ शामिल की जाती हैं। 

(7) निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में प्रबन्ध एवं नियन्त्रण की दृष्टि से अधिक कुशल होता है। 

(8) यह एक प्रक्रिया (Process) है। यह प्रक्रिया क्रमबद्ध तरीके से धीरे-धीरे निश्चित स्वरूप ग्रहण करती है। 

निजीकरण के उद्देश्य 

(Objectives of Privatization

निजीकरण के अनेक सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक उद्देश्य होते हैं, उनमें से कुछ . प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं 

(1) उद्योगों में प्रतियोगी क्षमता विकसित करने के लिए। 

(2) देश के उद्योगों का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने के लिए। 

(3) देश में विदेशी पूँजी को आमन्त्रित करने के लिए। 

(4) उद्योगों की निष्पादन क्षमता में सुधार लाने के लिए। 

(5) देश में निर्यातों को बढ़ावा देने तथा विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लिए। 

(6) औद्योगिक शान्ति को बनाए रखने के लिए। 

(7) सार्वजनिक उपक्रमों के घाटे को दूर करने के लिए। 

(8) देश में तीव्र औद्योगिक विकास का वातावरण तैयार करने के लिए। 

(9) सरकारी बजट के घाटे को दूर करने के लिए। 

(10) देश के संसाधनों को पूर्ण कुशलता के साथ विदोहन करने के लिए। ]

भारत में निजीकरण

(Privatization in India)

भारत में निजीकरण को प्रेरित करने वाले तत्त्व (Factors affecting Privatization in India)

भारत में आजादी के पश्चात् मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया जिसमें निजी तथा सावजनिक क्षेत्रों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण रही, किन्तु सन् 1975 ई० तक राष्ट्रीयकरण का  दौर रहा लेकिन सन् 1980 ई० में यह रुक गया। सन् 1985 ई० के बाद से ही उदारीकरा नीति प्रारम्भ हो गई। सन् 1985 ई० से सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित सार्वजनिक र को शनैः शनैः निजी क्षेत्र के लिए खोला जाने लगा। जो प्रतिबन्ध आजादी के पश्चात् चार में लगाए गए थे उन्हें अब धीरे-धीरे हटाया जा रहा है। सन् 1991 ई० की उदार औद्योगिक नीति ने इस प्रक्रिया को और अधिक तेज कर दिया। भारत में निम्नलिखित कदम निजीकरण दिशा में उठाए गए हैं 

1. पूँजी बाजार का विकास (Extention of Capital Market)-

देश के निजीकरण की प्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए सरकार ने पूँजी बाजार में भी परिजन किए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए SEBI (Security Exchange Board of India) की स्थापना की गई। इस संस्था की स्थापना का उद्देश्य स्कन्ध विनिमय केद्रों का नियमन तशा नियन्त्रण, प्रविवरणों की जाँच करना, मर्चेण्ट बैंकर, ब्रोकर, सब-ब्रोकर, लीड मैनेजर इत्यानि का पंजीयन करने, उनको नियन्त्रित करने एवं उनके कार्यों की समीक्षा करना है। यह संस्था स्थापना के तुरन्त बाद से काफी प्रभावी हो गई है तथा पूँजी बाजार के निजीकरण के वातावरण को ध्यान में रखकर व्यवस्थित विकास कर रही है। 

2. निजी क्षेत्रों में बैंकों की स्थापना की अनुमति मिलना (Permission Opening Banks in Private Sectors)-

अब देश की सरकार निजीकरण में गति प्रदान करने लिए देश के उद्योगपतियों को निजी क्षेत्र में बैंक खोलने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। इसके अलावा सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकों की 70% पूँजी को निजी क्षेत्र में देने की योजना तैयार की है। इससे भी निजीकरण को और अधिक प्रोत्साहन मिलेगा। 

3. अंश पूँजी का विनिवेश (Disinvestment of Share Capital)—

यह भी निजीकरण की दिशा में एक प्रयास है। सबसे पहले वर्ष 1991-92 में 30 सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश किया गया, जिससे लगभग ₹ 8,721 करोड़ प्राप्त किए गए। उसके बाद सन् 2001-02 ई० में विनिवेशों से ₹ 12,000 करोड़ की प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया। वर्तमान में केन्द्र सरकार ने अंश पूँजी के विनिवेश नियमों में परिवर्तन कर नई योजनाएं लागू की हैं। इसके अन्तर्गत विदेशों से विनिवेश को प्राथमिकता दी जा रही है। विनिवेश के लिए स्वयं प्रधानमन्त्री प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके लिए बड़े लक्ष्य रखे गए हैं और अनेक सुविधाएँ दी जा रही हैं। 

4. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योग वर्गों की संख्या में कमी (Lesser Share of Reserve Public Sector)-

सन् 1956 ई० में औद्योगिक नीति के अन्तर्गत 17 उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित (Reserved) किया था किन्तु बाद में सन 1991 ई० में उस संख्या को घटाकर 8 कर दिया गया। सन् 1993 में पुन: घटाकर इस संख्या को 6 कर दिया गया। किन्तु वर्तमान में यह संख्या मात्र 2 रह गई है। 

यह आँकड़े दर्शा रहे हैं कि सरकार तेजी से निजीकरण की तरफ बढ़ रही है। 

5. विदेशी वित्तीय संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन (Registration of Foreign Finance Companies)-

देश में अंशों, ऋणपत्रों तथा अन्य प्रकार की प्रतिभतियों में विनियोग करने वाली विदेशी वित्तीय संस्थाओं का रजिस्ट्रेशन किया जाने लगा है। इसका प्रमुख उद्देश्य देश में पूजी को उपलब्धता बनाए रखना तथा इसमें सधार किया जाना है। इससे भी है। में निजी क्षेत्रों को विकसित होने में सहायता प्राप्त हो रही है। 

6. लाइसेन्सिंग राज की समाप्ति की ओर प्रयास (Trying to Finish Licencing Raj)-

लाइसेन्स की अनिवार्यता को सरकार शनैः शनैः समाप्त कर रही है। सन् 1991 ई० की औद्योगिक नीति में 18 वर्ग ऐसे थे जिनमें उद्योग लगाने से पूर्व लाइसेन्स लेना आवश्यक होता था किन्तु इनकी संख्या घंटाकर मात्र 3 कर दी गयी है। वर्तमान में केवल आण्विक ऊर्जा तथा सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित उद्योगों की स्थापना के लिए ही लाइसेन्स प्राप्त करना अनिवार्य है। 

7. निजी सहयोग निधियों की स्थापना (Establishing Mutual Funds in Private Sector)-

पहले सार्वजनिक क्षेत्र में यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया ही एक मात्र संस्था थी जो Mutual Fund का कार्य करती थी। लेकिन अब भारत राष्ट्र में अनेकों संस्थाओं को निजी क्षेत्र में सहयोग निधियों की स्थापना के लिए खोला गया है। इनमें Morgan Stanley, Twentieth Century, Appex, टॉरस, एस०बी०आई० म्यूचुअल फण्ड, आई०सी०आई०सी०आई० इसमें SBI सरकारी क्षेत्र में है बाकी निजी क्षेत्र में हैं। ये कोष देश के निजी क्षेत्र के उद्योगों के लिए ‘पूँजी जुटाने का कार्य कर रहे हैं। 

8.अंश पूँजी का ऋणपत्रों में परिवर्तन नहीं (No Conversion of Share Capital in Debentures)-

पहले यह प्रावधान था कि यदि सार्वजनिक वित्तीय संस्था चाहेगी तो वह किसी कम्पनी को दिए गए ऋणों की राशि को उसकी अंश पूँजी में परिवर्तित कर सकेगी। किन्तु अब यह प्रावधान समाप्त कर दिया है। इससे भी निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। , 

9.विदेशों में प्रतिभूतियों को जारी करने की अनुमति (Permission of Issuing Securities in Foreign)-

देश की सरकार ने निजी क्षेत्र की कम्पनियों को अधिक एवं सस्ते वित्तीय साधन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से उन्हें विदेशी बाजारों में अपनी प्रतिभूतियाँ जारी करने की अनुमति भी प्रदान कर दी है। कम्पनियाँ अब स्वयं अपनी प्रतिभूतियाँ बेचकर विदेशी मुद्रा अर्जित कर रही हैं। इससे भी निजीकरण को और अधिक गति मिल रही है। 

10. विदेशी व्यक्तियों की प्रबन्धन में नियुक्ति (Appointing Foreign Individuals. in Management)-

अब विदेशी व्यक्तियों की प्रबन्धकीय पद पर नियुक्ति के प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया है। इसके लिए नियम यह है कि विदेशी व्यक्ति यदि भारत से प्राप्त आय को विदेशी मुद्रा में विदेशों में ले जाना चाहते हैं, तभी उनकी नियुक्ति के लिए RBI से अनुमति लेनी होगी, अन्यथा नहीं। विदेशी व्यक्तियों जिन्हें भारत में उद्योग में प्रबन्धक बनाया गया है उन्हें विशेष अनुलाभों को भी दिया जा सकता है। इससे भी निजीकरण को काफी बल मिल रहा है। .. 

11. कुछ क्षेत्रों में 100% विदेशी पूँजी निवेश की छूट (Permission of 100% Foreign Share in certain Sector)-

सरकार कुछ विशेष क्षेत्रों में शत-प्रतिशत विदेशी-पूँजी निवेश की अनुमति दे चुकी है। 

12. विदेशी कम्पनियों के पूँजी निवेश की सीमा में वृद्धि करना (Increasing the Share of Foreign Investments)-

सरकार ने देश की कम्पनियों के विदेशी सहयोगियों की पूँजी निवेश की सीमा बढ़ा दी है। पहले यह काफी कम थी। 

13. पूँजी निवेश के आधार पर नियन्त्रण हटाया जाना (Removing Control on ne basis of Investment)-

अब उद्योगों का नियन्त्रण पूँजी निवेश की मात्रा के आधार पर नहीं किया जाता है। पहले MRTP Act तथा Industrial Development (Regulation) Act के अन्तर्गत पूँजी निवेश के आधार पर उद्योगों पर बहुत अधिक नियन्त्रण लगाए गए थे। यह कदम भी निजीकरण को और अधिक बढ़ावा देता है।

14. अन्य कदम (Other Steps)-

(i) स्पीड पोस्ट तथा संचार सेवा के क्षेत्र ‘कूरियर सेवा’ तथा पी०सी०ओ०/एस०टी०डी० सेवाओं को निजी क्षेत्र में प्रवेश दिया जा चुका है। 

(ii) देश की निजी क्षेत्र की कम्पनियों को बिजली तथा टेलीकम्यूनीकेशन के क्षेत्र में भी काफी छुटे तथा सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। .. 

(iii) बीमा क्षेत्र में निजी कम्पनियों को व्यवसाय की अनुमति दे दी गई है। 

(iv) देश की प्रमुख संस्थाओं की पूँजी जनता को निर्गमित किया जाना (जैसे—IFCI. ___IDBI etc.) 

(v) देश की वायु परिवहन सेवाओं में भी निजी कम्पनियों को शामिल किया गया है। 

(vi) बारहवीं पंचवर्षीय योजना में विकास दर 9.2% रखी गयी थी। यह योजना अब समाप्त हो गई है। 

भारत में क्षेत्रीय असन्तुलन 

(Regional Imbalance in India

भारत के कुछ क्षेत्र-विशेष के राज्यों का त्वरित गति से विकास हुआ है। इसके विपरीत, कुछ राज्य विकास में अत्यधिक पिछड़े हुए हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पाँच दशक बीत जाने के बाद भी क्षेत्रीय असन्तुलन बना हुआ है। यदि किसी देश में तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित राज्यों/प्रदेशों एवं आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए राज्यों/प्रदेशों की तलना की जाए तो इस स्थिति को क्षेत्रीय असन्तुलन की संज्ञा दी जाती है। जब सरकार कुछ क्षेत्रों के विकास पर अधिक ध्यान देती है एवं अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा करती है, तो इससे भी क्षेत्रीय असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। 

भारत में सन्तुलित क्षेत्रीय विकास (Balanced Regional Development in India) 

भारत एक विशाल देश है। यहाँ पर सभी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। कुछ स्थानों पर ये समुचित मात्रा में पाए जाते हैं तथा कुछ स्थानों पर इनका अभाव होता है। इसी के साथ-साथ कुछ स्थानों पर तो ये संसाधन नगण्य ही हैं। अत: यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सभी क्षेत्रों में आर्थिक विकास समान रूप में नहीं पाया जाता है। उन क्षेत्रों में कृषि का विकास सम्भव हो पाता है जहाँ अनुकूल जलवायु, पर्याप्त जलापूर्ति, भूमि/मृदा की उच्च उर्वरता तथा उसके अनुकूल अन्य दशाएँ विद्यमान हों। गंगा, कष्णा तथा गोदावरी के डेल्टाई क्षेत्र कृषि की दृष्टि से अधिक सक्षम व समृद्ध हैं। वे क्षेत्र, जहाँ प्रतिकूल जलवायु व उर्वरा शक्ति कम पायी जाती हैं, कृषि के दृष्टिकोण से पिछड़े हुए हैं। ये सभी कारक व प्राकृतिक अन्तर वास्तव में आर्थिक रूप से क्षेत्रीय असन्तुलन को प्रोत्साहित करते हैं। हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में औद्योगीकरण के स्तर में विभिन्नता भी क्षेत्रीय असन्तुलन को प्रोत्साहित करती है। जूट उद्योग के लिए पश्चिम बंगाल विश्वविख्यात है। बिहार राज्य को लोहा व इस्पात उद्योग के कारण जाना जाता है तथा सूत्री वस्त्र उद्योग के लिए महाराष्ट्र का नाम लिया जाता है। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उद्योगों के विकास के लिए जल-शक्ति, परिवहन की सुविधाएँ तथा कच्चे माल की प्राप्ति आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वे क्षेत्र, जहाँ पर इन सुविधाओं का अभाव पाया जाता है, पिछड़ी हुई दशा में होते हैं। . इसका कारण केवल क्षेत्रीय विभिन्नताओं का पाया जाना और भौतिक सुविधाओं की उपलब्धि ही नहीं अपितु इन सुविधाओं का समुचित रूप से प्रयोग न होना भी है। कुछ क्षेत्रों में व्यक्तियों के अन्दर साहस, संगठन/प्रबन्ध की योग्यता तथा तकनीकी ज्ञान का अभाव भी पाया जाता है, . अत: वे पिछड़ी हुई दशा में ही रह जाते हैं। 

आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए क्षेत्रों में रोजगार, आय तथा उपभोग का स्तर अपेक्षाकृत निम्न पाया जाता है। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन-स्तर भी निम्न पाया जाता है। वे मानसिक रूप से पिछड़े हुए रह जाते हैं, जिसके फलस्वरूप वे विकास के लिए प्रयत्न करने में भी सक्षम नहीं रहते। 

क्षेत्रीय विभिन्नताएँ वांछनीय (Desirable) नहीं होतीं। हमारे देश में भी अनेक क्षेत्रीय आन्दोलन समय-समय पर सिर उठाते रहते हैं। गोरखालैण्ड आन्दोलन, असम आन्दोलन आदि क्षेत्रीय आन्दोलन, केवल क्षेत्रीय विभिन्नताओं, अल्प रोजगार, विषम आय तथा निम्न जीवन स्तर आदि के शिकंजे का ही परिणाम हैं। इस सम्बन्ध में सरकार का यह दायित्व हो जाता है कि कहीं राजनीतिक अशान्ति किसी राजनीतिक आन्दोलन का कारण न बन जाए, अतः सरकार इस सम्बन्ध में प्रयासरत रहती है कि सन्तुलित क्षेत्रीय विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय असमानताओं को किस प्रकार दूर किया जाए। 

क्षेत्रीय असन्तुलन के कारण तथा प्रभाव (Causesand Effects of Regional Imbalance

भारत की अर्थव्यवस्था में क्षेत्रीय असन्तुलन के प्रमुख कारण एवं प्रभाव निम्नलिखित हैं 

1. भौगोलिक परिस्थितियाँ (Geographical Conditions)-

भारत के कई क्षेत्रों के पिछड़े होने का कारण वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियाँ भी हैं; जैसे-जम्मू-कश्मीर,के कारण पिछडे देती है। गंगा-यमुना हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड प्रदेश पहाड़ी क्षेत्र होने के का रहे हैं। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहाँ यातायात की परेशानी रहती है, जिससे इन आवागमन काफी कठिन होता है। जलवायु भी क्षेत्रीय असन्तुलन को जन्म देती है। गंगा का मैदानी भाग जितना उपजाऊ है, उतना उपजाऊ अन्य कोई क्षेत्र नहीं है। इसी वजी क्षेत्र पानी की कमी न होने के कारण विकसित हो गए किन्तु शेष क्षेत्र, जहाँ पानी की थी, पिछड़ गए। 

2. ब्रिटिश शासन (British Rule)-

आजादी के पूर्व का इतिहास यदि उवा देखें तो यह विदित होता है कि क्षेत्रीय असन्तुलन के लिए ब्रिटिश शासन काफी हद जिम्मेदार रहा। उन्होंने भारत को एक व्यापारिक केन्द्र के रूप में ही प्रयोग किया। अंग्रेजों के यहाँ का कच्चा माल विदेशों में भेजा तथा वहाँ से आया हुआ पक्का माल यहाँ बेचा। परिणाम यह हुआ कि यहाँ व्यापार तथा उद्योग पिछड़ गए। उन्होंने केवल उन्हीं क्षेत्रों का विकास किया जिनसे उन्हें लाभ प्राप्त होता था। उन्होंने पश्चिम बंगाल तथा महाराष्ट्र का ही विकास किया। इसी तरह जमींदारी प्रथा ने कृषि को विकसित नहीं होने दिया। आय के बड़े हिस्से पर ५९ साहूकारों तथा जमींदारों का कब्जा होता था। ब्रिटिश शासन के दौरान जिन स्थानों से नहरें निकाली गईं वे ही क्षेत्र विकसित हो पाए। 

3. नए विनियोग (New Investments)-

नए विनियोगों का जहाँ तक प्रश्न है. * विशेषकर निजी क्षेत्र में, पहले से विकसित क्षेत्रों में ज्यादा नया विनियोग किया गया है, जिसका उद्देश्य ज्यादा लाभ कमानां भी होता है। दूसरे, विकसित क्षेत्रों में पानी, बिजली, सड़क, बैंक, बीमा कम्पनियाँ, श्रमिकों का आसानी से मिलना, बाजार का नजदीक होना इत्यादि का लाभ भी प्राप्त हो जाता है। इस वजह से भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है। 

4. कृषि में नवीन तकनीकी (New Technology in Agriculture)-

स्वतन्त्रता के पश्चात् कृषि की दशा सुधारने के लिए नए-नए यन्त्रों का भारत में निर्माण किया जाने लगा, किन्तु उन्नत यन्त्रों का प्रयोग केवल बड़े किसानों द्वारा ही किया गया। साथ ही जो विकसित क्षेत्र थे, उन्हीं क्षेत्रों में इनका अधिक प्रयोग किया गया। परिणाम यह हुआ जो विकसित क्षेत्र थे वे और ज्यादा विकसित हो गए तथा जो पिछड़े क्षेत्र थे वे और ज्यादा पिछड़ गए।

5. संसाधनों का असमान वितरण (Unequal Distribution of Resources)—

विभिन्न राज्यों के अन्तर्गत यह देखने में आता है कि प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में काफी असमानता है जैसे कहीं पेट्रोलियम उत्पाद ज्यादा मात्रा में हैं तो कहीं पत्थर की खानें, कहीं वन अधिक हैं तो कहीं बलुआ भूमि है तथा कहीं रेगिस्तान। इस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण भी क्षेत्रीय विषमताएँ अधिक प्रतीत होती हैं। 

6. आर्थिक संरचना का असमान वितरण (Unequal Distribution of Economic Infrastructure)-

बहुत-से राज्यों में औद्योगिक प्रगति के लिए जिस आर्थिक संरचना की आवश्यकता होती है, उसका वितरण सही प्रकार से नहीं हो सका है; जैसे-विद्युत शक्ति, विपणन तथा साख सुविधाएँ, सन्देशवाहन के साधन, परिवहन हेतु सड़कें इत्यादि। इन 

सविधाओं का पर्याप्त विकास न होने के कारण वे क्षेत्र आज भी पिछड़े हुए हैं। अत: क्षेत्रीय असन्तुलन का यह भी काफी महत्त्वपूर्ण कारण है। . 

  • सामाजिक व्यवस्था (Social System)-

जिन प्रदेशों में सामाजिक व्यवस्था ऐसी होती है कि वहाँ के लोग नई सोच, नए परिवर्तन को स्वीकार नहीं करते, वे विकास की दौड में पिछड़ जाते हैं। दूसरी ओर जिन प्रदेशों के लोग नई सोच, नया जोश तथा साहस रखते हैं. वे प्रदेश विकास के रास्ते तय करके अग्रणी बन जाते हैं। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था की वजह से भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है। 

  • राजनीतिक प्रभाव (Political Influence)-

जिन क्षेत्रों में नागरिक शिक्षित थे एवं उनमें राजनीतिक रूप से जागरूकता थी, उन्होंने राजनीतिक लोगों की मदद लेकर अपने क्षेत्र का विकास करा लिया, किन्तु जिन क्षेत्रों के नागरिकों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया, उन क्षेत्रों में विकास नहीं हो पाया। इस प्रकार भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है। 

  • निर्धनता (Poverty)-

भारत में कई प्रदेश गरीबी के कारण भी विकास में पिछड़ गए हैं। गरीबी के कारण वे राज्य गरीबी के दुष्चक्र में फँसकर रह जाते हैं तथा उससे बाहर निकलने का प्रयास करते हुए भी बाहर नहीं निकल पाते। किन्तु जो क्षेत्र गरीब नहीं हैं, वे क्षेत्र अपना विकास शीघ्रता से कर लेते हैं।

विदेशी सहायता तथा प्राविधिक ज्ञान (Foreign Assistance and Technical Knowledge)-

जो राज्य विदेशी सहायता, प्राविधिक ज्ञान तथा पूँजी प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं, वे अपना विकास कर लेते हैं। इसके विपरीत, वे राज्य, जो इस प्रकार की सहायता प्राप्त करने में असफल रहते हैं, विकास में पिछड़ जाते हैं। इससे भी क्षेत्रीय असन्तुलन हो जाता है। 

क्षेत्रीय सन्तुलित विकास के लिए किए गए विभिन्न उपाय (Various Measures adopted for Regional Balanced Development) 

पिछड़े क्षेत्रों का विकास करने तथा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए किए गए प्रयासों को निम्नलिखित तीन भागों में रखा जा सकता है 

(i). भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयास, 

(ii). राज्य सरकारों द्वारा किएगए प्रयास, _

(iii.) वित्तीय संस्थाओं द्वारा किए गए प्रयास।

भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयास (Efforts made by Government of India) 

भारत सरकार द्वारा क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने की दिशा में निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं 

  1. सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना (Establishment of Public Sector’ Undertakings)-

क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए सरकार ने पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की है। सार्वजनिक उपक्रम की स्थापना होने से वहाँ सहायक उद्योगों की छोटी-छोटी इकाइयाँ विकसित हो जाती हैं। 

  • लाइसेन्सिंग प्रणाली को शुरू करना (Introducing a System)-

‘औद्योगिक विकास एवं नियमन अधिनियम Development and Regulation Act), 1951 ई० में पारित किया गया। को बनाए जाने का प्रमख उद्देश्य औद्योगिक केन्द्रीकरण वाले क्षेत्रों में नए लाइसेन्स पर तथा नई औद्योगिक इकाइयों की स्थापना पर रोक लगाना था। इससे भी कुछ हद तक में नए संस्थानों के खुलने पर रोक लगी। 

  • औद्योगिक बस्तियों की स्थापना (Establishment. of India Estates)-

उद्योगों का विस्तार करने के लिए भारत सरकार ने देश के सभी राज्यों पिछड़े इलाकों में औद्योगिक बस्तियों की स्थापना की है। इन औद्योगिक बस्तियों में साह (Entrepreneures) को विकसित भूमि, भवन, विद्युत तथा आवश्यक चीजों एवं सेवाओं कम दर पर उपलब्ध कराया जाता है। इन बस्तियों को पिछड़े हुए क्षेत्रों में बसाया जाता है जिससे कि उन क्षेत्रों का विकास हो सके। . 

  • आयात सुविधाएँ (Import Facilities)-

देश के अनेक पिछड़े जिलों में औद्योगिक इकाइयाँ खोलने पर अनेक सुविधाएँ सरकार प्रदान कर रही है; जैसे—आयात के लिए प्राथमिकता के आधार पर आयात लाइसेन्स, विदेशी विनिमय की सुविधा, आवश्यक कच्चे माल, संयन्त्रों एवं कल-पुों को सस्ते दर पर उपलब्ध कराना इत्यादि। 

  • केन्द्रीय विनियोग उपदान योजना (Central Investment Subsidy Plan)—

यह उपदान योजना सन् 1970 ई० से लागू की गई है। इस योजना का उद्देश्य पिछड़े क्षेत्रों को विकास की पटरी पर लाना है। ये उपदान सम्बन्धी नियम निम्नलिखित हैं 

  1. यह उपदान निजी, सार्वजनिक, संयुक्त एवं सहकारी सभी क्षेत्रों के प्रतिष्ठानों को दिया जाता है। –

(ii) इस योजना के अन्तर्गत प्राप्त अनुदान आयकर से मुक्त होता है। 

(iii) यह उपदान देश के विशेष पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित किए गए उद्योगों को दिया जाता है। यह पूँजी विनियोग का 15% अथवा ₹ 15 लाख (जो दोनों में कम हो) के बराबर उपदान के रूप में दिया जाता है। यह उपदान केन्द्रीय सरकार द्वारा दिया जाता है। 

(iv) यह उपदान पहले तो अविकसित राज्य के एक अविकसित जिले को ही उपलब्ध था, किन्तु अब साहसी को स्थान का निर्धारण करने में स्वतन्त्रता प्रदान कर दी गई है तथा यह उपदान प्रत्येक अविकसित राज्य में 2 से 6 जिलों तक तथा प्रत्येक विकसित राज्य में 1 से 3 जिलों तक बढ़ा दिया गया है।. 

6. आयकर में छूट (Income Tax Exemption)—

‘आयकर अधिनियम, 1961’ के अन्तर्गत 31 मार्च, 1973 ई० के बाद पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित की गई औद्योगिक इकाई अथवा होटल के लाभों का 20%, आयकर से मुक्त कर दिया गया है। यह छूट पिछड़े क्षेत्रों में लगाई गई इकाई की स्थापना के 10 कर निर्धारण वर्षों तक दी जाएगी। यह छूट तभी दी जाएगी जब इन इकाइयों द्वारा विद्युत शक्ति का प्रयोग न करने पर कम-से-कम 20 व्यक्ति इनमें कार्यरत हों। दूसरे, नई इकाई की स्थापना किसी ऐसी मशीन एवं प्लाण्ट के हस्तान्तरण से न की गई हो, जो पहले किसी भी उद्देश्य से किसी पिछड़े इलाके में प्रयोग में लायी गई है।

॥. राज्य सरकारों द्वारा किए गए प्रयास (Efforts made by State Governments) 

राज्य सरकारों द्वारा भी क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करने के लिए समय-समय पर प्रयास किए जाते रहे हैं, जिनमें से प्रमुख प्रयास निम्नलिखित हैं 

  1. विक्रय कर में छूट (Exemption from Sales Tax)-

ज्यादातर राज्य सरकार द्वारा पिछड़े क्षेत्रों का औद्योगिक विकास करने के लिए औद्योगिक कारखानों को विक्रय कर में छूट तथा रियायतें दी जाती हैं। उदाहरणार्थ-राजस्थान में पाँच वर्ष तक ऐसी औद्योगिक इकाइयों को विक्रय कर में छूट दी जाती है। 

सस्ती दर पर भूमि तथा भवन का आवंटन (Allotment of Land of Building at Concessional Rate)-

ज्यादातर राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न जिलों में साहसियों को सस्ती दर पर भूमि तथा भवन का आवंटन किया जाता है जिससे कि पिछड़े क्षेत्रों में औद्योगिक विकास हो सके। ऐसे कई राज्य हैं जहाँ राज्य सरकारों द्वारा जमीन के मूल्य का 25% से 50% तक उपदान के रूप में दिया जाता है तथा शेष राशि का भुगतान किस्तों में लिए जाने की भी व्यवस्था है। .

  • ब्याज उपदान (Interest Subsidy)-

कुछ राज्य सरकारों द्वारा छोटे उद्योगों को अविकसित क्षेत्रों में स्थापित करने पर एवं इस हेतु बैंकों अथवा वित्तीय संस्थानों से ऋण लेने पर ब्याज की दर में 2% तक उपदान दिया जाता है। इस प्रकार के उपदान मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा इत्यादि राज्य सरकारों द्वारा प्रदान किए जाते हैं। 

  • विद्युत के लिए छूट (Rebate for Electricity)-

कुछ राज्य सरकारों के द्वारा पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक यूनिटों को सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध कराई जाती है। उदाहरणार्थ-उत्तर प्रदेश में पिछड़े क्षेत्रों में ₹ 85 लाख से अधिक पूँजी निवेश वाली इकाइयों को 5 वर्ष तक विद्युत कर (Electric Duty) की छूट दी जाती है। 

  • पूँजी विनियोग उपदान (Capital Investment Subsidy)—

यह योजना सभी राज्यों द्वारा उन क्षेत्रों में चलायी जाती है जहाँ ‘केन्द्रीय विनियोग उपदान योजना’ लागू नहीं है। इस योजना के तहत पूँजी विनियोग का 15% अथवा ₹ 15 लाख (जो दोनों में कम हो) तक का उपदान उपकर्मियों को दिया जाता है, किन्तु आदिवासी क्षेत्रों में यह उपदान 20% है।

III. वित्तीय संस्थाओं द्वारा किए गए प्रयास (Efforts made by Financial Institutions) 

क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने के लिए विभिन्न वित्तीय संस्थाओं द्वारा भी काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जाता है। इन संस्थाओं द्वारा निम्नलिखित प्रयास किए जा रहे हैं 

  1. ऋणों को सस्ती ब्याज दर पर उपलब्ध कराना (To Provide Loans on Cheap Rate of Interest)-

कई भारतीय वित्तीय संस्थान; जैसे—IFCI, IDBI, ICICI तथा IRCI, पिछड़े क्षेत्रों/जिलों में औद्योगिक इकाई खोलने के लिए सस्ती दरों पर दीर्घकालीन ऋण एवं कार्यशील पूँजी के लिए ऋण उपलब्ध कराते हैं। इन ऋणों को ब्याज दर उद्योगों तथा अनुसूचित दरें और भी कम होती हैं। lp in Preparing the योजना की रिपोर्ट बनाने में उनके द्वारा व्यवहार्यता रिपोर्ट गिक इकाई का निर्माण होने provide Facility of घीय लघु उद्योग निगम उपलब्ध करवाता है। इसके शि आसान किस्तों पर ली पिछड़े क्षेत्रों में सामान्यत: 1 से 21 % तक कम होती है। लघु एवं कुटीर उद्योगों न. जातियों या जनजातियों द्वारा प्रारम्भ किए गए उद्योगों की दशा में ये दरें और 

  • प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने में सहायता देना (Help in p. Project Report)-

यदि साहसियों द्वारा इन संस्थाओं से परियोजना मदद ली जाती है तो ये संस्थाएँ इसमें काफी मदद करती हैं। इनके द्वारा – (Feasibility Report) भी तैयार की जाती है जिससे कि औद्योगिक इकाई से पहले साहसियों को इस सन्दर्भ में पूर्ण जानकारी हो जाए। 

  • लघ तथा मध्यम उद्योगों को मशीनों की सुविधा (To provi Machines to Small and Medium Industries)–

‘राष्ट्रीय लघ की (National Small Industries Corporation) 3faafia 372 al fused स्थापित होने वाली इकाइयों को किराया-क्रय पद्धति पर मशीन उपलब्ध करवा अन्तर्गत अग्रिम भुगतान लगभग 10% लिया जाता है। शेष राशि आसान किर जाती है। ऐसी राशि पर पिछड़े क्षेत्रों की इकाइयों से लगभग 2-% कम ब्याज वसन जाता है।

  • तकनीकी आर्थिक सर्वेक्षण (Techno-Economic Survey)

आर्थिक विकास के लिए नियोजन करते समय पिछड़े हुए क्षेत्रों का आर्थिक-तकनीकी सर्वेक्षण उनी की क्षमता का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अवश्य करना चाहिए। अध्ययन तथा जाँच के पश्चात उन क्षेत्रों के विकास के लिए आवश्यक कार्यवाही की जाए। यदि शिक्षा, परिवहन तथा संचार के लिए योजनाएँ लागू की जाती हैं तो ये क्षेत्र आसानी से विकासकारी शक्तियाँ ग्रहण कर लेंगे तथा वहाँ पर विकास की सम्भावनाएँ भी विकसित हो जाएँगी। 

बेरोजगारी सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाएँ 

(Various Concepts Regarding Unemployment)

किसी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी क्यों उत्पन्न होती है, इस प्रश्न पर समय अनेक विचारकों ने अपना मत प्रकट किया है।

  1. प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का विचार

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह अवधारणा थी कि स्वतन्त्र प्रतिस्पर्धात्मक अर्थव्यः नियम की क्रियाशीलता (मल्य तन्त्र) के कारण साम्य की दशा में सदैव ही पूर्ण राजा दृष्टिकोण प्रमुख हैं म सदैव ही पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है। राज्य के हस्तक्षेप या अन्य कारणों से यदि कमी असन्तुलन की दशा उत्पन्न हो जाती है और फलस्वरूप बेरोजगारी उत्पन्न हो जाती है तो वह अल्पकालीन और अस्थायी होगी तथा उस बेरोजगारी से पारिश्रमिक में कमी करके सरलता से निपटा जा सकता है। 

  • क्रान्तिकारी विचारक कार्ल मार्क्स तथा समाजवादी विचारकों का विश्वास था कि बेरोजगारी पूँजीपरक क्रियाओं (Capitalistic-type Activities) के कारण जन्म लेती है। 

3. कीन्स ने बेरोजगारी के सम्बन्ध में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और कहा “प्रभावपूर्ण माँग की अपर्याप्तता ही रोजगार की मात्रा में होने वाली वृद्धि को पूर्ण रोजगार के स्तर तक पहुंचने से पहले रोक देती है।’ इस प्रकार बेरोजगारी के लिए उपभोग प्रवृत्ति का निम्न स्तर मूल रूप से उत्तरदायी है। वस्तुत: आर्थिक शक्तियाँ अत्यन्त प्रावैगिक (Dynamic) तथा बहुमुखी (Manifold) होती हैं और मुख्यतः उनकी क्रियाशीलता ही बेरोजगारी के लिए उत्तरदायी है। अत: यह कहना अनुचित होगा कि विश्व की समस्त अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी की अवस्था किसी एक कारण से ही उत्पन्न होती है, वरन् सत्य तो यह है कि बेरोजगारी असन्तुलित अवस्था की प्रतीक है और अर्थव्यवस्था में अनेक कारणों से असन्तुलन उत्पन्न हो’ सकता है। 

बेरोजगारी के प्रमुख कारण ! 

(Main Causes of Unemployment)

बेरोजगारी के लिए प्रायः निम्नलिखित कारक उत्तरदायी माने जाते हैं 

  1. व्यापार चक्र (Trade Cycles)-

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत कभी व्यापार में अभिवृद्धि होती है तो कभी अवसाद की स्थिति आती है। अवसाद के दिनों में बेकारी चारों ओर फैलने लगती है। .. 

2 मौसमी कार्य (Seasonal Work)-

अनेक उद्योग प्रकृति से मौसमी होते हैं। इन उद्योगों में संलग्न व्यक्ति वर्ष के कुछ महीनों के लिए बेरोजगार हो जाते हैं। 

  • श्रम बाजार की अपूर्णता (Imperfectness of Labour Market)-

जब श्रम बाजार में व्यवस्था तथा संगठक का अभाव पाया जाता है तो ऐसी दशा में श्रम की माँग और पूर्ति में सन्तुलन नहीं रह पाता, फलत: रोजगार के अवसरों के उपरान्त भी बेकारी पायी जाती है। 

  • प्राविधिक परिवर्तन (Technological Changes)-

विशेष रूप से श्रम की बचत करने वाले उपकरणों के प्रयोग के कारण बेकारी तीव्र गति से बढ़ती है। . 

  • ऊँचा पारिश्रमिक तथा औद्योगिक अशान्ति (Higher Wages. and Industrial Unrest)-

जब श्रमिक ऊँचे पारिश्रमिक की माँग को लेकर हड़ताल कर देते हैं अथवा नियमानुसार कार्य पद्धति (Work of Rule) को अपनाते हैं, तब सेवायोजक तालाबन्दी कर देते हैं। ऐसी दशा में बेरोजगारी फैलती है। 

  • अत्यधिक बचत (Too Much Savings)—

विकसित देशों के सन्दर्भ में प्रो० कीन्स ने अत्यधिक बचत को बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण माना है। उनका कथन है माँग (Effective)है, जिससे कि अत्यधिक बचत का उपभोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे समर्थ माँग (ne Demand) में कमी आ जाती है, फलतः उत्पादन के लिए की गई मांग कम परती उत्पादन घटाया जाने लगता है और सेवायोजक श्रमिकों को काम से हटा देते हैं। 

  • जनसंख्या में वृद्धि (Population Growth)-

जनसंख्या के अनकल सिद्धान्त (Optimum Theory of Population) के अनुसार बराजगारा उस समय उत्पा । हो जाती है जब जनसंख्या आर्थिक संसाधनों की तुलना में अधिक हो जाती है। 

  • अन्य कारक (Other Factors)-

व्यवस्था तथा संरचना सम्बन्धी परिक राजनीतिक तथा सामाजिक वातावरण, औद्योगीकरण की मन्द गति, उचित शिक्षा का अ आर्थिक संसाधनों का अपूर्ण एवं अपर्याप्त विकास, अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि, नगरीकरण बन व विनियोग की अल्प दर तथा उपयुक्त रोजगार नीति का अभाव आदि कारक भी बेरोजगारी लिए उत्तरदायी हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि बेरोजगारी एक बहुमुखी समस्या के जिसके कारणों को किसी दायरे में बाँधना कोई सरल कार्य नहीं है। 

 बेरोजगारी के प्रभाव 

(Effects of Unemployment)

बेरोजगारी के परिणाम सदैव ही बड़े घातक होते हैं। बेरोजगारी से ग्रस्त देशों में सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में संकट उत्पन्न हो जाता है। संक्षेप में, बेरोजगारी के विभिन्न प्रभावों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है 

1.आर्थिक प्रभाव (Economic Effects)-

बेकारी का लोगों के जीवन-स्तर, कार्य-क्षमता तथा स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। क्रय शक्ति का अभाव रहने से उनके उपभोग में गुणात्मक तथा परिमाणात्मक (Qualitative and Quantitative) दोनों ही रूपों में कमी आ जाती है। इससे न केवल उनकी कार्य-क्षमता में कमी होती है, अपितु जीवन-स्तर भी दयनीय दशा में पहुँच जाता है। कार्य-क्षमता में ह्रास होने से राष्ट्रीय आय (National Income) तथा रोजगार के स्तर (Level of Employment) में और कमी होती है, जिससे आय की विषमता बढ़ जाती है और सामाजिक न्याय मात्र एक स्वप्न बनकर रह जाता है। क्रय-शक्ति के अभाव में वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य गिर जाते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था में अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 

  • सामाजिक प्रभाव (Social Effects)-

बेकारी सामाजिक मूल्यों के प्रति अविश्वास उत्पन्न करती है जिससे सामाजिक नियन्त्रण कमजोर हो जाते हैं और सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है। बेरोजगारी के कारण लोगों की आसक्ति अनैतिक तथा असामाजिक कार्यों के प्रति हो जाती है, जिससे समाज में चोरी, डकैती, कालाबाजारी, तस्करी, शराबखोरी तथा जुए को प्रोत्साहन मिलता है। अन्ततः बेरोजगारी भुखमरी, दरिद्रता आर ऋणग्रस्तता को जन्म देकर समाज में निराशा और मानसिक वेदना के बीज बो देती है। 

  • राजनीतिक प्रभाव (Political Effects)-

राजनीतिक दष्टिकोण से बेरोजगारा क प्रभावों की तुलना ज्वालामुखी से की जा सकती है। जिस प्रकार ज्वालामुखी सक्रिय हान र 

अन्दर-ही-अन्दर धधकता रहता है और सक्रिय होकर सम्पूर्ण व्यवस्था को नष्ट कर है ठीक उसी प्रकार बेरोजगार व्यक्ति निर्माणात्मक कार्यों के स्थान पर विध्वंसात्मक में में रुचि लेते हैं और उनका दैनिक कार्य सरकार की आलोचना करना, श्रमिकों को उत्तेजित करना तथा तोड़-फोड़ करना हो जाता है। 

  • अन्य प्रभाव (Other Effects)-

बेरोजगारी के अन्य प्रभावों में हम इसके मैतिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रभावों की चर्चा कर सकते हैं। बेकारी के कारण व्यक्ति का नैतिक ” न की चरम सीमा पर पहुँच जाता है। वह नैतिक अपराध स्वाभाविक क्रियाओं की करने लगता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक बेरोजगार व्यक्ति का मनोबल इतना गिर जाता है कि उसे स्वयं पर भी विश्वास नहीं रहता। 

बेरोजगारी के प्रकार Types of Unemployment 

भारत में बेरोजगारी की समस्या जनसंख्या में वृद्धि की वजह से बढ़ रही है क्योंकि श्रम बढती जा रही है। इसके अलावा भारत में रोजगार संसाधनों जैसे भूमि, पूँजी, उद्यम, .. सीकी ज्ञान आदि की कमी तथा ऐसे कई और भी कारण हैं जिनकी वजह से भी बेरोजगारी की समस्या बढ़ती ही जा रही है। हमारे राष्ट्र में बेरोजगारी मुख्यत: संरचनात्मक है। देश में व्याप्त बेरोजगारी के विभिन्न स्वरूप निम्नलिखित हैं 

  1. खली बरोजगारी (Open Unemployment)-

जब बेरोजगारों को काम ढूँढने के बावजद भी काम नहीं मिल पाता तो इसे ‘खुली बेरोजगारी’ कहा जाता है। इसे हम ‘दृश्य बेरोजगारी’ (Visible Unemployment) भी कहते हैं। अल्पविकसित देशों में खुली बेरोजगारी कम मात्रा में पायी जाती है क्योंकि वहाँ श्रमिकों का उपयोग विस्तृत पैमाने पर होता है। प्राय: सभी विकासशील देशों में मानवीय संसाधनों का अल्प उपयोग होता है, अर्थात् जो लोग काम करना चाहते हैं उन्हें उतना काम नहीं मिलता जितना कि वे करना चाहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा स्वरूप अल्प रोजगार का होता है। इसे ‘मौसमी अल्प रोजगार’ भी कहा जाता है। 

खुली बेरोजगारी को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- .

(i)एक कार्य को स्वीकार न करना तथा दूसरे अच्छे कार्य की प्रतीक्षा करना।

(ii) श्रम की मात्रा तथा पूर्ति के सम्बन्ध पर; जैसे-माँग की तुलना में पूर्ति अधिक होने 

पर।

  • तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि के कारण भारत में खुली बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।

(iv) गाँवों से भी रोजगार की तलाश में लोग शहरों में आते हैं। इससे भी खुली बेरोजगारी बढ़ जाती है।

(v) खुली बेरोजगारी असफलताओं का परिणाम भी हो सकती है।

(vi) खुली बेरोजगारी गलत आकांक्षाओं की वजह से भी हो सकती है। .. 

प्रर्षणात्मक बेरोजगारी (Frictional Unemployment)-

नये-नये यन्त्रों के प्रयोग में लाए जाने के फलस्वरूप नित्य नए साधनों की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार विकासशील देशों में जब यान्त्रिक शक्ति से उत्पादन किया जाने लगता है, तब अकुशल एवं अप्रशिक्षित व्यक्तियों के स्थान पर कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता होती है) और अप्रशिक्षित व्यक्तियों को जब तक प्रशिक्षण न दिया जाए, उन्हें रोजगार नहीं दिया जा सकता है। इस प्रकार की बेरोजगारी को कभी-कभी तकनीकी या प्राविधिक (Technological) बेरोजगारी भी कहा जाता है। यह सदैव अल्पकालीन होती है। प्रो० लिप्से घर्षणात्मक बेरोजगारी का आर्थिक विकास से प्रत्यक्ष सम्बन्ध मानते हैं। वे इसे ‘नियमित बेरोजगारी (Permanent Unemployment) कहते हैं। उनका कथन है कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास की गति बढ़ती है, घर्षणात्मक बेरोजगारी भी बढ़ती जाती है। 

  • मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment)-

मौसमी बेरोजगारी की व्याख्या करते हुए प्रो० लिप्से ने लिखा है कि कुछ काम-धन्धे मौसमी होते हैं जो वर्ष के कुछ महीने तक ही चलते हैं, अतः इन धन्धों में लगे व्यक्ति कुछ समय तक नियमित रूप से बेरोजगार रहते हैं। इसे ही “मौसमी बेरोजगारी’ कहा जाता है। स्पष्ट है कि मौसमी बेरोजगारी का प्रमुख कारण उद्योग की विशिष्ट प्रकृति का होना है; जैसे—भारत में चीनी उद्योग तथा कृषि उद्योग। 

  • संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment)-

अर्थव्यवस्था की औद्योगिक संरचना में परिवर्तन आते रहते हैं। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप कभी-कभी असाम्य की स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं और पर्याप्त संख्या में लोगों को दीर्घकाल तक बेरोजगार रहना पड़ता है। ऐसी बेरोजगारी को ‘संरचनात्मक बेरोजगारी’ कहा जाता है। इसे ‘दीर्घकालीन बेरोजगारी’ तथा ‘माक्सियन बेरोजगारी’ के नाम से भी पुकारा जाता है। मार्क्स (Marx) का विश्वास था कि इस प्रकार की बेरोजगारी पूँजीवादी देशों मुख्य रूप से पायी जाती है। यह उल्लेखनीय है कि संरचनात्मक बेरोजगारी मौसम बेरोजगारी की भाँति आकस्मिक तथा अल्पकालीन नहीं होती, वरन् यह एक गम्भीर स्थिति की परिचायक है। इससे मुक्ति पाना केवल पर्याप्त आर्थिक विकास के द्वारा ही सम्भव है।। 

  • चक्रीय बेरोजगारी (Circular Unemployment)-
  • इस प्रकार की बेरोजगारी मुख्यत: पूजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पायी जाती है क्योंकि वहाँ व्यापार चक्र क्रियाशील रहते हैं। अभिवृद्धि काल में पूँजी विनियोग के कारण उत्पादन सम्बन्धी गतिविधियों में वृद्धि होती है, फलतः श्रम की माँग एवं कीमत बढ़ जाती है। परन्तु अवसाद की स्थिति में श्रम की माँग बहुत कम रह जाती है क्योंकि इस समय विनियोग और उत्पादन दोनों में कमी आ जाती है, जिससे बेरोजगारी तीव्रता से फैलती है। आर्थिक मन्दी के कारण इस बेरोजगारी को केन्सियन बेरोजगारी (Keynesian Unemployment) भी कहा जाता है। वर्तमान समय में इस प्रकार की बेरोजगारी केवल ऐतिहासिक घटना-मात्र बनकर रह गई है। 
  • अदृश्य बेरोजगारी (Disguised Unemployment)-

जन श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता शून्य (0) अथवा ऋणात्मक ( –ve) होती है तो ऐसी दशा अदृश्य बेरोजगारी की दशा कहलाती है; जैसे—यदि किसी कार्य को 10 व्यक्ति सफलतापूर्वक कर सकते हों, परन्त वहाँ 15 व्यक्ति काम में संलग्न हों तो स्पष्ट है कि वहाँ 5 व्यक्ति किसी प्रकार का योगदान नहीं दे रहे हैं। यदि इन्हें हटा भी दिया जाए तो कुल उत्पादन में कमी नहीं आएगी। अन्य शब्दों में, इन 5 व्यक्तियों की सीमान्त उत्पादकता शून्य है। यही अदृश्य या प्रच्छन्न बेरोजगारी है। इस प्रकार का अनुमान लगाना बहुत कठिन कार्य है। भारत का कृषि उद्योग इसी अदृश्य बेरोजगारी से पीड़ित है। 

  • दृश्य बेरोजगारी (Visible Unemployment)—

इस प्रकार की बेरोजगारी प्राय: विकसित देशों में पायी जाती है। जब अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण माँग के कम हो जाने या श्रम की पूर्ति में वृद्धि हो जाने अथवा आर्थिक उच्चावचनों (Fluctuations) के कारण लागा को वृत्तिहीन (बेकार) रहना पड़ता है, तो वह दृश्य बेरोजगारी कहलाती है। ) 

  • शिक्षित बेरोजगारी (Educated Unemployment)-

शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ विगत कुछ वर्षों से इस प्रकार की बेरोजगारी का प्रसार होने लगा है। इस प्रकार की बेरोजगारी मुख्यतः नगरों में पायी जाती है। 

  • तकनीकी बेरोजगारी (Technological Unemployment)-

इस प्रकार की बेरोजगारी का प्रमुख कारण ऐसी उत्पादन विधियों का प्रचलित होना है जिनमें अपेक्षाकृत कम जनशक्ति की आवश्यकता होती है। 

बेरोजगारी की समस्या के समाधान हेतु कुछ उपाय एवं सुझाव .

किसी भी देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय एवं सुझाव उपयोगी हो सकते हैं 

  1. पूँर्जी विनियोग को प्रोत्साहन (Promotion to Capital Investment)

रोजगार में वृद्धि करने का सबसे प्रभावशाली उपाय यह है कि पूँजी के विनियोग को यथासम्भव प्रोत्साहित किया जाए। निजी क्षेत्र के अतिरिक्त स्वयं सरकार सार्वजनिक क्षेत्र में कारखाने तथा उत्पादन इकाइयों का विकास एवं विस्तार करे। श्रम-बहुल देशों में सरकार द्वारा श्रमप्रधान उद्योगों (Labour Intensive Industries) के विकास पर विशेष बल दिया जाता है। कीन्स ने इस नीति का प्रबल समर्थन किया है। उनके शब्दों में, “लोक विनियोग देश की राष्ट्रीय आय तथा रोजगार को बढ़ाने में लाभदायक होते हैं।’ पूँजी के विनियोग में वृद्धि करने के लिए सरकार कई दिशाओं में कदम उठा सकती है; जैसे-देश की मौद्रिक, राजकोषीय, औद्योगिक तथा अन्य नीतियों में वांछनीय सुधार करना आदि। इन उपायों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है 

  • मौद्रिक नीति (Monetary Policy)-

रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि देश की मौद्रिक नीति में इस प्रकार परिवर्तन किए जाएँ कि, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से वांछनीय क्षेत्रों को आवश्यक धनराशि यथेष्ट मात्रा में प्राप्त हो सके, और यह तभी सम्भव है जबकि देश में बैंकिंग सुविधाओं का तीव्र गति से विस्तार हो तथा व्याज की ऊँची दरों पर उदार साख सुविधाएँ उपलब्ध हों। 

  • राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)-

पूँजी के विनियोग पर देश की राजन नीति का भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। अतः देश की समस्त राजकोषीय क्रियाओं is करारोपण, सार्वजनिक ऋण तथा सार्वजनिक व्यय आदि का मुख्य उद्देश्य बचत तथा विनियोग को प्रोत्साहन देना होना चाहिए। 

  • औद्योगिक नीति (Industrial Policy)-

जहाँ तक औद्योगिक नीति की प्रश्न है इसका देश की औद्योगिक संरचना पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। औद्योगिक नीति का अन्तिम ध्येय एक ऐसी औद्योगिक संरचना का निर्माण होना चाहिए जिसमें वृहत्, मध्यम की तथा कुटीर सभी प्रकार के उद्योगों का समुचित विकास हो सके औरअधिक-से-अधिक लोगों को लाभदायक रोजगार की सुविधाएँ मिल सकें।) 

श्रम-शक्ति पर नियन्त्रण (Control Over Labour Power)-

श्रम-शक्ति में निरन्तर अभिवृद्धि को रोकने के लिए यहआवश्यक है कि जनसंख्या की वृद्धि पर प्रभावपर्ण नियन्त्रण रखा जाए। इस ध्येय की पूर्ति परिवार नियोजन (Family Planning) कार्यक्रम के माध्यम से हो सकती है। ) 

जनशक्ति नियोजन (Planning for Man-Power)—

नियोजन के इस यग में जनशक्ति के सर्वोत्तम उपयोग की दृष्टि से इसका नियोजन करना एक अनिवार्यता है। 

कृषि का विकास (Development of Agriculture)-

भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला आज भी कृषि ही है, अतः हरित क्रान्ति (Green Revolution) को और अधिक सफल बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। 

उद्योगों का विकास (Development of Industries)-

वस्तुतः प्रत्येक औद्योगिक योजना का प्रधान लक्ष्य रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना होना चाहिए। अन्य शब्दों में, एक ऐसी रोजगारप्रधान योजना बनानी चाहिए, जिसमें आधारभूत उद्योगों के साथ-साथ लघु तथा कुटीर उद्योगों को भी उचित स्थान प्राप्त हो ग्रामों में लघु तथा कुटीर उद्योग ही सम्भावित रोजगार के केन्द्र-बिन्दु हैं। इनसे ही गाँवों का औद्योगीकरण सम्भव है। 

उत्पादन शक्ति का पूर्ण उपयोग (Complete Utilization of Production Capacity) –

उद्योगों की पूर्ण उत्पादन क्षमता के अनुसार उत्पादन करना चाहिए, तभी उत्पादन लागत में कमी हो सकेगी तथा अतिरिक्त रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होंगे। यह भी स्मरणीय है कि इस समय भारत में भी अनेक उत्पादन इकाइयाँ ऐसी हैं जिनकी उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं किया जा रहा है। 

  • शिक्षा प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन (Fundamental Changes in Education System)-

19वीं शताब्दी की कालातीत (outdated) शिक्षा प्रणाली को तुरन्त बदल देना चाहिए क्योंकि यह केवल नौकरशाही वर्ग (Bureaucratic Class) को जन्म देती है। 

  • प्रशिक्षण तथा मार्गदर्शन योजनाएँ (Training and Guidance Schemes)-

विकासशील देशों की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि यहाँ श्रम-शक्ति तो बहुलता में प्राप्त होती है, परन्तु कुशल श्रम-शक्ति का प्रायः अभाव पाया जाता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन देशों में प्रशिक्षण तथा मार्गदर्शन सुविधाओं का विस्तार किया जाए ताकि जनशक्ति की कुशलता में वृद्धि हो सके। 

  • सामाजिक सुधारों का विस्तार (Extension of Social Reforms)-

आर्थिक विकास का सामाजिक पहल अत्यन्त सबल है. अतः आवश्यकता इस बात की है कि भसामाजिक प्रजातियों को नियन्त्रित किया जाए तथा सामाजिक सुविधाओं को बढ़ाया जाए, जिससे आर्थिक विकास के लिए एक उपयुक्त वातावरण तैयार हो सके। 

  • रोजगार कार्यालयों का विस्तार (Expansion of Employment Plnchanges)-

Sम की मांग और पति में सम्पर्क स्थापित करने की दृष्टि से सेवायोजन कार्यालयों का विस्तार किया जाना चाहिए। 

  1. सेवा क्षेत्र को प्रोत्साहन (Instigation to Service Sector)-

विकासशाल देशों में विशेष रूप से सेवा क्षेत्र का यथासम्भव विकास किया जाना चाहिए क्योंकि यह क्षेत्र तकनीकी विशेषज्ञों को रोजगार के व्यापक अवसर प्रदान कर सकता है। 

  1. स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि (Growth of Selfemployment Opportunities)-

भारत जैसे विकासशील देशों में अभी भी यह सम्भव नहीं है कि सरकार सभी व्यक्तियों को रोजगार अथवा बेरोजगारी भत्ता (Unemployment Allowance) प्रदान कर सके, अत: तकनीको विशेषज्ञों को चाहिए कि वे अपना रोजगार खोलें और इसके लिए सरकार उन्हें वित्तीय सहायता (Financial Aid) प्रदान करे। 

औद्योगिक नीति का आशय 

Meaning of Industrial Policy

भारत की नई आर्थिक नीति की मुख्य विशेषता अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण करना रहा है। किसी भी देश का तीव्र गति से आर्थिक विकास करने के लिए उसका औद्योगीकरण आवश्यक है। औद्योगीकरण केवल उद्योग-धन्धों के विकास में ही सहायक नहीं होता है बल्कि उससे कृषि, व्यापार, यातायात, रोजगार, राष्ट्रीय आय इत्यादि के विकास को भी प्रोत्साहन मिलता है। औद्योगिक नीति देश के औद्योगिक विकास का ढाँचा तैयार कर, देश को स्वावलम्बी एवं समृद्ध बनाने में सहायक होती है। इसलिए सरकार की औद्योगिक नीति सुपरिभाषित, स्पष्ट एवं प्रगतिशील होनी चाहिए तथा उसका निष्ठापूर्वक पालन किया जाना चाहिए। साधारण अर्थ में औद्योगिक नीति का आशय देश की सरकार द्वारा औद्योगिक विकार के लिए बनाए गए दिशा-निर्देशों की औपचारिक घोषणाओं से है। औद्योगिक नीति में सामान्यतया दो बातों का समावेश होता है-

  • सरकार की प्राथमिकता के आधार पर औद्योगिक स्वरूप को तय किया जाना तथा उसी के अनसार दिशा-निर्देश तैयार करना तथा

(2) दिशा-निर्देशों के अनुसार औद्योगिक नीति को लागू करना तथा समय-समय पर औद्योगिक ढाँचे की स्थापना करने के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना। 

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत की औद्योगिक नीतियाँ 

(Industrial Policies of India after independence)

भारत की आजादी के पश्चात् यहाँ का औद्योगिक ढाँचा बहुत ही कमजोर था, जिसके प्रमुख कारण पूँजी की कमी, औद्योगिक अशान्ति, कच्चे माल की कमी, तकनीकी की कमी. मशीनों का अभाव, कुशल कारीगरों का अभाव, सामान्य सुविधाओं का अभाव इत्यादि थे। इस स्थिति से निपटने के लिए दिसम्बर 1947 ई० में औद्योगिक वातावरण की स्थापना करने हेत सरकार ने एक औद्योगिक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना का संकल्प लिया गया। भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त अब तक 6 औद्योगिक नीतियाँ बन चकी हैं—

  • औद्योगिक नीति, 1948,
  • औद्योगिक नीति, 1956. *
  • औद्योगिक नीति, 1977,
  • औद्योगिक नीति, 1980,

(5) औद्योगिक नीति, 1990 तथा 

(6) औद्योगिक नीति, 1991। 

सभी पूर्व औद्योगिक नीतियाँ देश के औद्योगिक विकास को गति नहीं दे सकीं। अत: उद्योगों पर लाइसेंसिंग व्यवस्था के अनावश्यक प्रतिबन्धों को समाप्त करने तथा उद्योगों की कुशलता, विकास और तकनीकी स्तर को ऊँचा करने और विश्व बाजार में उन्हें प्रतियोगी बनाने की दृष्टि से 24 जुलाई, 1991 को तत्कालीन उद्योग राज्य मंत्री पी०जे० कुरियन द्वारा लोकसभा में औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा की गई। 

औद्योगिक नीति, 1991 के उद्देश्य 

Objectives of Industrial Policy, 1991 

औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा में सरकार ने निम्नलिखित उद्देश्यों पर बल दिया 

(1) आत्मनिर्भरता प्राप्त करना तथा तकनीकी एवं निर्माणी क्षेत्र में घरेलू क्षमता का विकास एवं प्रयोग करना। 

(2) औद्योगिक विकास के लिए सुदृढ़ नीतियों के समूह को अपनाना, ताकि साहसी वर्ग का विकास हो सके, शोध एवं विकास में विनियोग से घरेलू तकनीक विकसित हो सके, नियमन व्यवस्था को हटाया जा सके, पूँजी बाजार का विकास हो सके तथा अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति को बढ़ाया जा सके। 

(3) लघु उद्योग के विकास पर बल देना, ताकि यह क्षेत्र अधिक कुशलता एवं तकनीकी सुधार के वातावरण में विकसित होता रहे। 

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