Tuesday, November 5, 2024
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Ba 2nd year Akbar : Revenue Administration

Ba 2nd year Akbar : Revenue Administration 

अकबर की राजस्व प्रणाली 

(The Revenue System of Akbar)

हुमायूँ के शासन काल में सम्पूर्ण भूमि को दो भागों बाँट दिया गया था, जिसके अन्तर्गत एक भूमि को खालसा भूमि तथा दूसरी भूमि को जागीर भूमि कहा जाता था। खालसा भूमि की आय केन्द्रीय सरकार को दी जाती थी। चूंकि समस्त भूमि को जागीर के रूप में बाँटा गया था; अत: जागीरदार सम्राट को एक निश्चित रकम भेजा करता था। हुमायूँ के शासन काल तक यही व्यवस्था चलती रही। किन्तु अकबर के सिंहासनारोहण के बाद उसने अपनी राजस्व प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन किया। इसका मूल कारण यह था कि इस समय तक अकबर ने अपना साम्राज्य विस्तार काफी कर लिया था। डॉ० ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है—“अकबर के सिंहासन पर बैठने के उपरान्त प्रशासकीय सुधारों के इतिहास में एक नवीन अध्याय की शुरुआत हुई। 

अन्य क्षेत्रों की भांति राजस्व विभाग भी उसके अप्रत्याशित प्रभाव से अछूता न रह सका। राजस्व प्रणाली के स्वरूप अकबर ने अपने समय के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री टोडरमल को राजस्व प्रणाली का सुचार रूप से व्यवस्था करने तथा उसमें आवश्यक सुधार लाने के लिए नियुक्त किया। कुछ इतिहासकारों ने यह भी लिखा है कि अकबर के द्वारा राजस्व सधारों के सम्बन्ध में शीघ्रता कर का एक कारण यह भी था कि एक बार उसे जब थोड़े-से ही धन की आवश्यकता पड़ा राजकोष बिल्कुल खाली था। इसलिए राजस्व व्यवस्था में सुधार करना उसके लिए आवश्यक टोडरमल से पूर्व भी एतमाद खाँ, मुजफ्फर खाँ तरबती, शिहाबुद्दीन अहमद आप राजस्व व्यवस्था के सम्बन्ध में समय-समय पर विभिन्न प्रयोग किए गए थ, – अपर्याप्त थे। राजा टोडरमल ने अपनी योग्यता का परिचय देते हुए राजस्व प्रबन्ध को बड़े सुन्दर ढंग से चलाया, जैसा कि प्रो० एस० आर० शर्मा ने लिखा है- “इस प्रकार मुगल साम्राज्य का स्थापना के बाद प्रथम बार राज्य की माँग निर्धारित करने में पुराने पित्रागत राजस्व पदाधिकारियों की जानकारी का उपयोग किया गया।” टोडरमल द्वारा किए गए सुधार 1882 ई० में अकबर ने टोडरमल को दीवान-ए-अशरफ के पद पर नियुक्त किया। इससे पर्व प्रतिवर्ष राजस्व का अनुमान करने में बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। अतः इन कठिनाइयों की दूर करने के लिए दीवान-ए-अशरफ टोडरमल ने निम्नलिखित सुधार किए 

(1) समस्त भूमि की पैमाइश-यद्यपि अकबर से पूर्व जमीन की पैमाइश का कार्य शेरशाह द्वारा सम्पन्न कराया गया था, जिसमें उसने नापने के लिए एक रस्सी का उपयोग किया था. किन्त यह रस्सी पानी में भीगने से सिकुड़ती थी, जिसके कारण भूमि की पैमाइश में अन्तर आ जाता था। टोडरमल ने पैमाइश के लिए बाँसों में लोहे के छल्ले डलवाकर जरीबें तैयार कराई और इनसे समस्त भूमि की नाप कराई तथा उससे कृषि योग्य भूमि का पता लगाया गया। इस प्रकार भूमि की सम्पूर्ण नाप, श्रेणी, उपज कितनी देगी आदि का विवरण खा गया। इस प्रकार लिखित दस्तावेजों की प्रतिलिपि लेखपालों तथा माल विभाग को दे दी गई। 

(2) भूमि का वर्गीकरण-चूँकि राज्य की समस्त भूमि पैदावार योग्य नहीं थी, अत: टोडरमल ने भूमि को निम्नलिखित चार भागों में विभक्त कर दिया 

(i) पोलज-यह भूमि प्रथम श्रेणी की थी, जिसमें प्रतिवर्ष दो फसलें होती थीं और इसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता था। प्रतिवर्ष इस भूमि से राजस्व वसूल किया जाता था। 

(ii) पड़ौती-यह भूमि पोलज की भाँति अच्छी पैदावार नहीं देती थी। एक बार जोतने के बाद भूमि को एक वर्ष तक परती छोड़ दिया जाता था। 

(iii) छच्छर-इस प्रकार की भूमि तीन या चार वर्ष तक परती छोड़ दी जाती थी। 

(iv) बंजर-यह भूमि उपजाऊ बिल्कुल नहीं होती थी। खेती के योग्य बनाने के लिए काफी समय परती छोड़ना पड़ता था। 

(3) भू-राजस्व का निर्धारण-अनुमानित उपज का 1/3 भाग भू-राजस्व के रूप में लिया जाता था। परती या पड़ौती तथा छच्छर भूमि का औसत निकालते समय सिंचाई आदि की व्यवस्था का ध्यान रखा जाता था। 

(4) राजस्व वसूल करने की पद्धतियाँ-अकबर ने राजस्व वसूल करने की भी प्रणालियाँ या विधियाँ बतलाई थीं 

(i) जब्ती प्रथा-खेत में बोए गए गल्ले की किस्म के आधार पर ही किसान को लगान देना पड़ता था, जिसको ‘जब्ती प्रथा’ कहते थे। 

(ii) गल्लाबख्शी प्रथा-इस प्रथा में किसान ‘गल्ला’ कर के रूप में अदा करता था। 

(iii) नस्क प्रथा-इस प्रथा में किसान तथा सरकार के बीच में जमींदार का कोई भी कार्य नहीं था। किसान सीधे ही सरकारी कोष में रुपया जमा कर देता था। 

(5) राजस्व विभाग के कर्मचारी :

(i) आमिल—एक क्षेत्र के सम्बन्ध में सभी प्रकार की रिपोर्ट भेजने वाला अधिकारी ‘आमिल’ कहलाता था। 

(ii) वितिकची-माल विभाग का अधिकारी ‘वितिकची’ कहलाता था। वह वार्षिक ‘ का निमा केन्द्रीय सरकार को भेजता था। 

(iii) पोतदार–किसानों से लगान वसूल करना और उसको राजकोष में ‘पोतदार’ का काम था। 

(iv) अन्य पदाधिकारी-कानूनगो, पटवारी, मुकद्दम एवं चौधरी माल कि अन्य पदाधिकारी थे।

राजस्व प्रणाली का मूल्यांकन

अकबर के शासनकाल में राजस्व प्रणाली की व्यवस्था टोडरमल द्वारा की गई थी। नवीन सुधारों युक्त भूमि की राजस्व व्यवस्था करके सल्तनतकालीन कमियों को दर का था। यही व्यवस्था, कुछ छिट-पुट परिवर्तनों को छोड़कर, ब्रिटिश सत्ता की स्थापना तक भारत में प्रचलित रही। अकबर की इस व्यवस्था का श्रेय टोडरमल को जाता है, इसीलिए उसके भू-राजस्व प्रबन्ध को ‘टोडरमल की व्यवस्था’ के नाम से जाना जाता है। डॉ० ईश्वरीप्रसाद लिखा है-“अकबर की राजस्व प्रणाली किसानों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई। राज्य की कर सम्बन्धी माँग निर्धारित कर दी गई। प्रत्येक किसान यह जानता था कि उसको कर के रूप में क्या देना है।” 

अकबर का सैनिक प्रबन्ध 

(Military Organization of Akbar) सेना का विभाजन-अकबर ने अपनी सेना को चार भागों में विभाजित किया था। इन चार सैन्य भागों के नाम अहदी सेना, दखिली सेना, स्थायी सेना और मनसबदारी सेना था इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है 

(1) अहदी सेना-यह सेना सम्राट की अंगरक्षक सेना थी। इसके सैनिकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। इस सेना का अपना एक अलग विभाग था। प्रत्येक व्यक्ति, जा २० मैना का सदस्य था, अपना घोडा स्वयं लाता था और उसको सम्राट की ओर से नकद “‘ मिलता था। यह सेना किसी भी बाह्य विभाग से नियन्त्रित नहीं थी। 

(2) दखिली सेना-राज्य की ओर से कुछ सैनिक भर्ती किए जाते थे और उनका व राज्य ही देता था। यह सेना दखिली सेना कहलाती थी। 

(3) स्थायी सेना-अकबर के समय में साम्राज्य की रक्षा के लिए एक स्थाया सा व्यवस्था थी। इस सेना में पाँच विभाग थे 

(i) अश्वारोही-घोड़ों पर सवार होकर लड़ने वाले सैनिक।

(ii) गज सेना-हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने वाले सैनिक गज सेना में था

(iii) पैदल-पैदल ही बन्दूक, तलवार और तीर-कमान से लड़ने वाले सैनिक 

(iv) तोपखाना-पीर-आतिश नामक पदाधिकारी की देख-रेख में तोपों से ल वाली सेना। 

(4) जल सेना-अमीर-उल-बहर नामक अधिकारी की देख-रेख में जल में ला वाली जल सेना थी, परन्तु यह सही अर्थों में नौसेना नहीं थी। 

(5) मनसबदारी सेना और मनसब का अर्थ-मनसब का अर्थ दर्जा अथवा पद से लिया जाता है। सम्राट की सेना में भर्ती होने वाले व्यक्तियों को सम्राट की ओर से पद प्रदान किया जाता था। इस पद को प्राप्त करने वाले सैनिकों को ही मनसबदार कहा जाता था। इस प्रकार मनसब एक पद का नाम था, जो सम्राट द्वारा सैनिक को उसकी स्थिति के अनुसार दिया जाता था और इस पद का प्राप्तकर्ता सैनिक ‘मनसबदार’ कहलाता था। मुगल सेना का इतिहास प्रमखत: मनसबदारी प्रथा का ही इतिहास है। इरविन के अनुसार-मनसब शब्द का आशय इससे अधिक और कुछ नहीं था कि मनसब धारण करने वाला अर्थात मनसबदार राज्य का नौकर था।”

मनसबदारों का वर्गीकरण 

मनसबदारों का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जाता है, प्रथम वर्ग साधारण या सामान्य श्रेणी के आधार पर और द्वितीय वर्ग जात तथा सवार के आधार पर श्रेणियाँ। इन दोनों प्रकार की श्रेणियों का वर्णन निम्न प्रकार है 

(क) सामान्य श्रेणियाँ-मनसबदारों की सामान्य श्रेणियाँ उनके सैनिकों की संख्या के आधार पर निर्धारित की जाती थीं। निम्नतम सामान्य श्रेणी का मनसब दस सैनिकों का और उच्चतम मनसबदार 12 हजार सैनिकों तक था। सामान्य रूप से मनसबदारों की श्रेणियाँ निम्न प्रकार थी 

(1) उमराह मनसबदार-एक हजार अथवा उसके ऊपर सैनिक रखने वाला मनसबदार उमराह मनसबदार कहलाता था। 

(2) साधारण मनसबदार-एक हजार से कम सैनिक जिस मनसबदार के पास होते थे, उसको साधारण मनसबदार कहते थे। 

(3) हाजिरे-रिकाब-दरबार में हाजिर रहने वाले मनसबदार को हाजिरे-रिकाब कहते थे।  

(4) तैनातिया-सरकारी कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिन मनसबदारों की नियुक्ति की जाती थी, वे तैनातिया कहलाते थे। सामान्य रूप से ये मनसबदार प्रान्तीय सरकारों के साथ नियुक्त किए जाते थे। 

(ख) जात तथा सवार के आधार पर श्रेणियाँ-जात तथा सवार इन दोनों का अर्थ समझ लेना भी श्रेयस्कर होगा। विभिन्न विद्वानों ने इन शब्दों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है किन्तु इस सम्बन्ध में ए० के० राव की परिभाषा अत्यन्त ही स्पष्ट है। उनका मत है, “पैदल सेना को ‘जात’ और घुड़सवार सेना को ‘सवार’ कहते हैं अर्थात् ‘जात’ बिना घोड़े पैदल सैनिक और सवार का अर्थ है घोड़ा सवार सैनिका” जात तथा सवार के आधार पर पाँच हजार से ऊपर के मनसबदारों का वर्गीकरण निम्नलिखित तीन श्रेणियों में किया गया था 

(1) प्रथम श्रेणी-जिन मनसबदारों की सेना में जात या पैदल सैनिकों की संख्या सवार या घुड़सवारों की संख्या के बराबर या अधिक होती थी उनको प्रथम श्रेणी के मनसबदारों में गिना जाता था। 

(2) द्वितीय श्रेणी-यदि सवार (घुड़सवार) पद की संख्या जात (पैदल) पद से कम तो हो, परन्तु आधे से कम न हो तो उस मनसबदार की गणना द्वितीय श्रेणी में की जाती थी। 

(3) तृतीय श्रेणी-यदि किसी मनसबदार के पास सवारों (घुड़सवारों) की संख्या बिल्कुल न हो या जात (पैदल) के आधे से कम हो तो उसको तृतीय श्रेणी में गिना जाता था। 

मनसबदारी प्रथा की अन्य बातें-मनसबदारी प्रथा के सम्बन्ध में कल प्रकार थीं 

(1) मनसबदारी का अपना एक अलग विभाग था। यह विभाग समाट की मनसबदारों की नियुक्ति, पदोन्नति तथा पदच्युति कर सकता था। 

(2) मनसबदार आवश्यकता पड़ने पर सम्राट के दरबार में उपस्थित होता का 

(3) मनसबदार प्रथा में पद सोपान क्रम नहीं था, एकदम किसी व्यक्ति को मनसब का पद भी दिया जा सकता था। 

(4) मनसबदार की मृत्यु पर उसकी सारी सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार हो जाता इस नियम को अपहरण नियम कहते थे। 

(5) मनसबदारी का पद वंशानुगत नहीं था और उनकी नियुक्ति, पदोन्नति एवं पट हटाया जाना सभी कुछ बादशाह की इच्छा पर थे। 

मनसबदारी प्रथा के दोष-मनसबदार-सेनापति, घोड़ों की निश्चित संख्या नहीं रखते। थे। जब कभी सम्राट निरीक्षण करता था तो घटिया घोड़े दिखा दिए जाते थे। मनसबदार सम्राट के स्वामिभक्त भी नहीं थे। अपहरण नियम के कारण मनसबदार मनमाना खर्च करते थे। सेना में अनुशासनहीनता थी। चूँकि सैनिकों को वेतन उनके मनसबदार द्वारा दिया जाता था, इसलिए उनकी स्वामिभक्ति राज्य के प्रति न होकर अपने-अपने मनसबदारों के प्रति होती थी। इस प्रकार जो दोष जागीरदारी प्रथा में था, वही मनसबदारी प्रथा में भी रहा। मनसबदारों में पारस्परिक द्वेष था जिससे सेना के संगठन और शक्ति को आघात पहुँचता था। परन्तु इतने सब दोषों के बाद भी मनसबदारी प्रथा मुगल सेन्य-व्यवस्था की कमियों को दूर करने का एक अच्छा प्रयास था। 

अकबर की शासन व्यवस्था 

(The Administrative System of Akbar)

प्रशासकीय व्यवस्था की विशेषताएँ-अकबर एक उदार शासक था। इसीलिए उदारता, न्यायप्रियता, सांस्कृतिक समन्वय, शान्ति, धर्म-निरपेक्षता का उसका प्रशासकार व्यवस्था में समावेश था। उसके शासन में संगठित सैनिक व्यवस्था, लिखित आदेश, एकता शासन प्रणाली तथा राजा के दैविक अधिकारों को मान्यता दी गई थी। सभी व्यक्तिया काला के सम्मख समान माना जाता था। अकबर की शासन व्यवस्था के सम्बन्ध में जदुनाथ सर, का स्पष्ट मत है- सरकार का उद्देश्य अत्यन्त सीमित यथार्थवादी और प्रायः कृपणतापूर्ण था।” डॉ० ईश्वरीप्रसाद का कथन है-“सभी सुधारों का पथ-प्रदर्शक स्वय सुल्ता उसके बद्धिबल का परिणाम यह था कि राज्य के सभी मामलों का सुक्ष्म रूप से अध्ययन था और उसने ही राज्यों के कार्यों का संचालन सगम कर दिया था” एक विद्वान न अ प्रशासन की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “अकबर की शासन व्यवस्था की एक महत्व यह भी थी कि उसमें फारस तथा अरब की शासन व्यवस्था का भी मिश्रण था ।

(1) शाही परिवार का विभाग-सम्राट के परिवार तथा उसकी रसोई और अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध करने के लिए शाही-परिवार विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग का अधिकारी खान-ए-सामान कहलाता था। इस पद पर सम्राट का कोई विश्वासपात्र व्यक्ति ही नियुक्त किया जाता था। 

(2) वित्त तथा राजस्व विभाग-राज्य की आय-व्यय की जाँच करने तथा राजस्व विभाग की देखभाल करने के लिए राजस्व तथा वित्त विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग का अध्यक्ष दीवान-ए-अशरफ कहलाता था। इस विभाग में आमिल, वितिकची, पोतदार, कानूनगो तथा पटवारी आदि पदाधिकारी थे। 

(3) न्याय, व्यावहारिक तथा आपराधिक विभाग-न्याय करने तथा अपराधियों को दण्ड देने के लिए एक न्याय विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग के प्रधानाधिकारी को ‘काजी-उल-कुजात’ कहते थे। यह पदाधिकारी अन्य छोटे न्यायालयों के काजियों की नियुक्ति करता था। 

(4) जन-आचार निरीक्षण विभाग-जनता के आचरण का मिरीक्षण करने के लिए एक जन-आचार निरीक्षण विभाग की स्थापना भी की गई थी। इस विभाग के अधिकारी को मुहतसिब कहते थे। इसे सरकार की ओर से जनता का नैतिक स्तर बनाए रखने के सम्बन्ध में विभिन्न आदेश मिलते थे, जिनका वह जनता से पालन कराता था। को 

(5) गुप्तचर व डाक विभाग-अकबर ने गुप्तचर विभाग की स्थापना की थी, जिसके अधिकारी को दारोगा-ए-डाक कहते थे। दारोगा-ए-डाक गुप्त तरीके से सम्राट को आवश्यक सूचनाएँ भेजा करते थे। डाक वितरण की भी व्यवस्था करते थे। 

(6) धर्म तथा दान विभाग–सम्राट के आर्थिक मामलों तथा दान-पुण्य का हिसाब रखने के लिए एक धर्म तथा दान विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग का अधिकारी सद्र-उस-सुदूर कहलाता था। सम्राट रमजान आदि के अवसरों पर जो दान करता था, उसका हिसाब भी यही अधिकारी रखता था। इस्लामी विद्याओं को प्रोत्साहन देना और मुसलमान विद्वानों से सम्पर्क रखना भी इसी के कार्य थे। 

(7) तोपखाना-अकबर की सेना का एक तोपखाना था। उसका प्रबन्ध एक अलग विभाग के द्वारा होता था, जिसको तोपखाना विभाग कहते थे। इस विभाग के अध्यक्ष को मीर-आतिश या दारोगा-ए-तोपखाना के नाम से पुकारते थे। 

(8) लेखा विभाग-सेना का वेतन निश्चित करना, सेना को युद्ध के समय सुसज्जित करना, मनसबदारों की सूची रखना आदि कार्य लेखा विभाग को करने पड़ते थे। इस विभाग के अधिकारी को मीर-बख्शी कहते थे। __इस प्रकार अकबर के केन्द्रीय प्रशासन के मुख्य आठ मन्त्री थे-खान-ए-सामान, दीवान-ए-अशरफ, काजी-उल-कुजात, मुहतसिब, दारोगा-ए-डाक, मीर-बख्शी, दारोगा-ए-तोपखाना और सद्र-उस-सुदूर।

अकबर की प्रान्तीय शासन व्यवस्था 

(1) अकबर का पूरा साम्राज्य प्रान्तों में विभाजित था। डॉ० जे० एन० सरकार ने लिखा है, “मुगल साम्राज्य में प्रान्तीय शासन शत-प्रतिशत केन्द्रीय शासन का छोटा रूप था।” प्रान्तों को जिलों में और जिलों को परगनों में विभाजित किया गया था। इसके अतिरिक्त, नगर-प्रबन्ध तथा 

1926 से 1740 ई०) अलग-अलग रूप से (प्रान्तपति) सूबेदार-निरीक्षण करता था

ग्राम-प्रबन्ध की व्यवस्था अलग से भी थी। इनकी शासन व्यवस्था अलग-अलग प्रकार से थी 

(अ) प्रान्तीय व्यवस्था—

(1) प्रान्त का सबसे बड़ा हाकिम (प्रान्तपति सम्राट द्वारा नियुक्त किया जाता था। वह प्रान्त की सभी बातों का निरीक्षण करता था का सर्वोच्च अधिकारी था। 

(2) प्रान्त का दूसरा पदाधिकारी दीवान कहलाता था। इसकी नियुक्ति भी समान जाती थी। दीवान सूबेदार की और सूबेदार दीवान की गुप्त रिपोर्ट सम्राट के पास भेजा। दीवान राजकोष में मालगुजारी से प्राप्त धन भी जमा किया करता था। 

(3) सूबेदार को झरोखे में बैठने, युद्ध अथवा सन्धि करने का अधिकार नहीं सम्राट की अनुमति के बिना प्राणदण्ड नहीं दे सकता था। सम्राट की प्रत्येक आज्ञा का पार इसके लिए भी अनिवार्य था। 

(4) प्रान्त में शान्ति की स्थापना करने के लिए जिले के अधिकारी फौजदार भी रहते ही लगान वसूल करने वाले अधिकारियों की सुरक्षा का भार भी फौजदार पर ही था। 

(5) राजस्व वसूल करने के लिए आमिल, वितिकची, पोतदार तथा करोडी अदि अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। 

(6) जनता के आचरण की देखभाल करने के लिए सदर नामक अधिकारी की नियुक्ति प्रत्येक प्रान्त में की गई थी। 

(7) प्रान्त के नगरों में शान्ति की स्थापना रखने के लिए तथा चौरी-डकैती आदि को रोकने के लिए कोतवाल की व्यवस्था की गई थी। 

(8) प्रान्तों में डाक को लाने व ले जाने के लिए समाचार वाहको की नियुक्ति की गई थी। 

(9) प्रान्तों की सभी घटनाओं को लिखकर सम्राट के पास भेजने का कार्य वाक-ए-नवीस करता था। उसके नीचे खुफिया-नवीस तथा हरकारे आदि होते थे। 

(ब) जिले या सरकार का शासन प्रबन्ध—

(1) प्रत्येक प्रान्त सरकारी या जिला में विभाजित था। जिले का प्रमुख अधिकारी फौजदार कहलाता था। जिले में शान्ति स्थापना करना फौजदार का प्रमुख कार्य था। इसलिए इसके अधीन एक छोटा-सा सैनिक दल होता था। 

(2) जिले में मालगुजारी वसूल करने का कार्य अमलगुजार, वितिकची, खजानदार आदि अधिकारियों द्वारा किया जाता था। खजानदार का प्रमख कार्य सरकारी धनराशि का राजकोष में सुरक्षित रखना था। 

(स) परगने की शासन व्यवस्था प्रत्येक जिला या सरकार को परगनों में विभाग किया गया था। परगने का मुख्याधिकारी शिकदार कहलाता था, जो परगने के प्रबन्ध, सा प्रशासन एवं शान्ति-व्यवस्था की स्थापना सम्बन्धी कार्यों को देखता था। कर निधारित । तथा मालगुजारी एकत्र करने के लिए आमिल नियुक्त किए जाते थे। परगने का खत पोतदार कहलाता था। खजांची की सहायता के लिए कारकन होते थे, जा उप मालगुजारी का लेखा-जोखा रखते थे। परगनों में एक कानूनगो का पद था। इस का जमीन की पैदावार लगान आदि का हिसाब रखना पड़ता था। 

(द) ग्राम प्रबन्ध-अकबर ने ग्राम पंचायतों की व्यवस्था की थी। गांव क पटना चौकीदार का सम्बन्ध परगने की सरकार से कर दिया गया था। प्रत्येक गाँव की एक होती थी और प्रत्येक गाँव में आवश्यक वस्तुओं की पर्ति करने के लिए विभिन्न पर इस कानूनगो को गांव के पटवारी तथा 7 एक पंचायत विभिन्न पेशों के लोग निवास करते थे। समस्त ग्रामवासी पंचायत के सदस्य होते थे तथा सरपंच उसका प्रधान होता था। 

(य) नगरपालिका प्रबन्ध-नगरों का प्रबन्ध कोतवाल करते थे। नगरों के प्रबन्ध का पर्ण उत्तरदायित्व कोतवाल पर था। भ्रष्टाचार, गन्दगी, वेश्यावृत्ति, सती प्रथा आदि कुप्रथाओं को रोकना भी कोतवाल के ही कार्य थे। कोतवाल को आदेश था- “या तो चोरों का पता लगाकर चुराई गई चीजो को उपलब्ध करे या स्वयं इन वस्तुओ का मुआवजा भरे।” कोतवाल अन्य सहायक पदाधिकारी अपने नियन्त्रण में रखता था तथा सैनिक दस्ता भी इसके साथ शान्ति स्थापित रखने के लिए रहता था। 

प्रशासकीय व्यवस्था की समीक्षा-यद्यपि अकबर ने अपनी प्रशासकीय कुशलता का परिचय, प्रशासकीय विभागों का विभाजन करके दिया था। उसने साम्राज्य को शासन की दृष्टि से प्रान्तों, सरकारों, परगनों, नगरों व ग्रामों में विभाजित कर दिया था। शासन का कार्य अकबर अपने विभागीय मन्त्रियों और अन्य सहायक अधिकारियों की सहायता से करता था, किन्तु वह उनके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं था। स्मिथ ने लिखा है-“अकबर अपने मन्त्रियों का शिष्य होने की अपेक्षा कभी-कभी उनका अध्यापक अथवा शिक्षक भी था।’

अकबर का चरित्र एवं व्यक्तित्व 

(Character and Personality of Akbar)

(1) विशाल व्यक्तित्व-अकबर एक सुदृढ़ और विशाल व्यक्तित्व रखता था। तत्कालीन सभी लेखक इस विषय में एकमत हैं कि अकबर का व्यक्तित्व असाधारण था तथा कोई भी व्यक्ति उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। इस व्यक्तित्व के बल पर ही उसने एक विशाल साम्राज्य की गहरी नींव रखी और एक दृढ़ साम्राज्य के भवन का निर्माण किया, जिसका उपभोग उसके निर्वल अधिकारी भी स्वतन्त्रतापूर्वक कर सके। इस सम्बन्ध में कर्नल मैलीसन ने लिखा है-“अकबर ने सम्राज्य की नींव बहुत गहरी खोदकर स्थापित की थी। उसका पुत्र (जहाँगीर) उस साम्राज्य को, जिसे उसके पिता के सिद्धान्तों ने एक सूत्र में पिरोया था, कायम रख सका, यद्यपि वह अपने पिता से बहुत ही भिन्न था।” 

(2) संयमी सम्राट–सम्राट अकबर संयमी था। वह दिन में केवल एक बार भोजन करता था। उसके भोजन में मांस त्याज्य था और पेय में मदिरा का प्रयोग नहीं था। 

(3) समय का सदुपयोग-सम्राट अकबर समय का सदुपयोग करता था। वह अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था और विश्वास करता था कि सम्राट को भगवान के समक्ष उत्तरदायी होना पड़ेगा अतएव उसका प्रत्येक क्षण जनता के हित चिन्तन में ही लगना चाहिए और उसे झूठ नहीं बोलना चाहिए। डॉ. स्मिथ लिखते हैं कि उसका विचार था-“असत्य सभी मनुष्यों के लिए और विशेषकर सम्राट के लिए अहितकर है। यह आज्ञा ईश्वरीय साया है और यह ठीक रूप से ही पड़ना चाहिए।” 

(4) स्वभाव की कोमलता-अकबर दिन में कभी नहीं सोता था। व समय जनहित में लगाता था। मधुरता व उदारता उसके चरित्र के विशेष गुण थे। में उसका कहना था-“सुल्तानों के लिए विशेष रूप से जबकि प्रत्येक के लिए होना अवैध है क्योंकि वे संसार के संरक्षक होते हैं।” अकबर ने अपनी उदारताने अपने भाई हकीम मिर्जा तथा अपने पुत्र सलीम को क्षमा कर दिया था तथा अपनी प. वर्गों के प्रति उसने उदार नीति अपनाई थी। 

(5) पितृभक्ति-अकबर में पितृभक्ति भी असीम थी। अपने पिता हमाय नम उसने गहरा शोक व्यक्त किया था। –

अकबर का मूल्यांकन 

(Estimate of Akbar)

अपने कार्यो, विचारों और नीतियों के कारण अकबर की गणना भारत के महान शासकों में की जाती है। भारतीय और विदेशी दोनों ही विद्वानों ने विभिन्न आधारों पर उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। इतिहासकारों का तो यहाँ तक विचार है कि वह अपने समकालीन महान शासकों यथा-इंग्लैण्ड की रानी एलिजाबेथ, फ्रांस के हेनरी चतुर्थ और प्रशा के फ्रेडरिक महान से भी महान था। 

(1) डॉ० ईश्वरीप्रसाद-“अकबर अपने समसामयिक शासकों में सबसे ऊँचा था। उसकी नीति उनसे कहीं अधिक दयालुतापूर्ण थी। जो भी व्यक्ति निष्पक्ष होकर अनुसन्धान करेगा, उसको स्पष्ट हो जाएगा कि अकबर अपने यूरोपीय समसामयिकों से कहीं अधिक महान व्यक्ति था।” 

(2) कर्नल मैलीसन-“अकबर ने एक संगठित राज्य की स्थापना की थी, जिसका एकमात्र आधार धार्मिक सहिष्णुता था।” 

(3) लेनपूल-“हिन्दू सामन्तों को आत्मसात करना अकबर के शासन काल की मुख्य विशेषता थी।” 

(4) जहाँगीर-“यद्यपि मेरे पिता निरक्षर थे किन्तु विद्वानों तथा बुद्धिमानों के सम्पर्क में आने के कारण उन्हें इतना ज्ञान हो गया था कि कोई भी उन्हें निरक्षर नहीं समझता था।” 

(5) एडवईस और गैरेट-“वह एक बहादुर सैनिक, एक महान सेनापति, एक बुद्धिमान शासन-प्रबन्धक, एक लोकहितकारी शासक और मनुष्य चरित्र का पारखी था।” 

निष्कर्ष रूप में हम लेनपूल के शब्दों में कह सकते हैं, “अकबर साम्राज्य का सच्चा संस्थापक तथा संगठनकर्ता था। वह मुगल साम्राज्य के स्वर्ण युग का प्रतिनिधि था।” . 

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