सम्प्रेषण के स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication after Freedom)
अथवा
सम्प्रेषण के पाश्चात्य प्रतिरूप (Western Models of Communication)
स्वतन्त्रता के पश्चात् सम्प्रेषण के विकसित स्वरूप को अंगीकार करने की आवश्यकता को महसूस किया गया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए केन्द्रीय सरकार के अन्तर्गत सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय का गठन किया गया तथा एक केबिनेट मन्त्री को इसका प्रभार सौंपा गया। ऐसे सम्प्रेषण तन्त्र के विकास की आवश्यकता पर बल दिया गया जो भारतीय पृष्ठभूमि के सर्वथा अनुकूल हो तथा उसकी सुलभता में कोई गतिरोध न हो। लेकिन प्राचीन भारतीय सम्प्रेषण प्रणाली का अपेक्षानुकूल विकास नहीं हो पाया। यही कारण है कि हमें विकास की दौड़ में अन्य राष्ट्रों की बराबरी करने के लिए पाश्चात्य सम्प्रेषण प्रतिरूपों को ही भारतीय मॉडल के रूप में स्वीकार करने के लिए जब-तब बाध्य होना पड़ता रहा है।
विश्व के अनेक सम्प्रेषण विशेषज्ञों ने अपने-अपने मॉडल दिए हैं, जो निम्नवत् हैं-
1. लॉसवैल मॉडल (Losswell Model)
इसे ‘लॉसवैल का मौखिक मॉडल’ भी कहा जाता है। इसे 1948 ई० में अमेरिकी वैज्ञानिक हेरोल्ड लॉसवैल ने प्रस्तुत किया था। इस मॉडल में चार प्रमुख प्रश्नों को प्रदर्शित किया गया है— कौन, क्या, किसको, किसलिए । सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्प्रेषक के व्यावहारिक पहलुओं का लॉसवैल ने गहन विश्लेषण किया था। इस मॉडल के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-
कौन? Who ?
क्या कहता है ? Says what किस माध्यम से ? Through which channel?
किसको ? To whom ?
कितने प्रभावशाली ढंग से ? With what effect ?
इसमें संचार प्रक्रिया के अनुरूप अनेक तत्त्वों का सम्मिलन रहता है। इनको एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। यदि किसी एक तत्त्व को भी विलग कर दिया जाए तो सम्प्रेषण का मूल उद्देश्य ही धराशायी हो जाता है। इसमें पुन: लौटते हुए सन्देश के द्वारा सन्देश-प्राप्ति की प्रक्रिया का समावेश रहता है ।
2. शैनन – वीवर मॉडल (Shannon and Weaver’s Model)
1949 ई० में क्लोडी शैनन व वारेन वीवर ने गणित पर आधारित एक मॉडल प्रस्तुत किया। इस मॉडल के अनुसार सूचना भेजने की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही सम्प्रेषण है। सम्प्रेषण-जगत में यह मॉडल अधिक स्वीकृति प्राप्त कर चुका है।
यह मॉडल वैज्ञानिक है। यदि सन्देश का स्रोत प्रमाणित व ज्ञात है, तभी इसे आगे बढ़ाया जाता है तथा सन्देश के चिह्नों में परिवर्तित होने से गोपनीयता बनी रहती है और यह एक सिस्टम प्रणाली के अधीन क्रियाशील रहता है ।
इसको ग्राफ के द्वारा इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-
3. गार्बनर मॉडल (Garbner’s Model)
गार्बनर मॉडल; मानव के अंगों की सम्प्रेषण प्रणाली को विशिष्टता प्रदान करता है। इस मॉडल का प्रस्तुतीकरण जॉर्ज गार्बनर ने किया था। इनका मानना है कि मानवीय सम्प्रेषण की कुछ विशिष्टताएँ सदैव परिलक्षित होती रहती हैं। इन लक्षणगत विशेषताओं में सन्देश की परिकल्पना तथा व्यक्ति की ग्राह्य शक्ति विशिष्ट बोध की परिचायक होती है। इस मॉडल के अनुसार सन्देश की विषयवस्तु का स्पष्ट निर्धारण भी हो जाता है। सामान्यतः सन्देश प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी सन्देश में अन्तर्निहित सार से, कम या अधिक, पहले से ही परिचित होता है। इस मॉडल का एक दोष यह है कि कभी-कभी सन्देश गन्तव्य स्थल पर पहुँचकर ग्राह्य व्यक्ति को उस रूप में प्राप्त नहीं हो पाता है जोकि उसका मूल रूप था।
4. जोसफ मॉडल (Joseph’s Model)
अन्य सम्प्रेषण प्रतिरूपों के साथ ही जोसफ मॉडल ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति दर्ज की है। स्रोत, प्रारूप, साधन, उपयोगिता तथा प्रतिक्रिया जैसे तत्त्वों का समायोजन कर जोसफ ने अपने मॉडल की प्रतिस्थापना की। इस प्रतिस्थापना में वे ‘शैनन-वीवर मॉडल’ से विशेष रूप से प्रभावित रहे हैं। समस्त तत्त्वों के मध्य सामंजस्य को निम्नांकित ग्राफ द्वारा समझ जा सकता है—
5. एरिस्टोटिल मॉडल (Aristotle’s Model)
इनके अनुसार सम्प्रेषण प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन संघट्ट महत्त्वपूर्ण होते हैं—
सम्प्रेषक (Speaker) — वह व्यक्ति जो सम्प्रेषण करता है।
सन्देश (Speech) — सन्देश, जो व्यक्ति के द्वारा उत्पादित किया जाता है ।
श्रोता (Audience) – व्यक्तियों का समूह या व्यक्ति, जो सुनते हैं। लेकिन अब वैज्ञानिक युग में इसकी उपादेयता पर प्रश्न चिह्न लग चुका है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि इसमें केवल मौखिक सम्प्रेषण को ही स्थान दिया गया है। संश्लिष्ट
10. विल्बर एल० स्क्रेम का मॉडल (Wilbur L. Schramm’s Model)
यह मॉडल जनसंचार की दृष्टि से उपयोगी है। प्रेषक तथा प्राप्तकर्त्ता दोनों से संकेतों एवं सम्प्रेषण प्रवाह को इस मॉडल में प्रस्तुत किया गया है। यह प्रतिरूप मुख्य रूप से चार्ल्स ऑसगुड के कार्यों पर आधारित है। इनके अनुसार जब तक किसी सन्देश की कोडिंग व डिकोडिंग नहीं की जाती, तब तक सन्देश निरर्थक है। इस धारणा के आधार पर इन्होंने सम्प्रेषण के आधारभूत तत्त्वों की व्याख्या की । इनके अनुसार, सम्प्रेषण का अभिप्राय उस समतुल्य व रचनात्मक सम्प्रेषण से है, जिसमें एक तरफ व्यक्ति व दूसरी तरफ उस व्यक्ति के चारों ओर स्थापित वातावरण है, जिसमें वह सन्देश को स्वीकारता है।
Source→Encoder→Signal→Decoder→Destination
11. वेस्टले और मेक्लीन का विकसित मॉडल (Developed Model of Vastle and Macleen)
वेस्टले तथा मेक्लीन नामक दो वैज्ञानिकों ने इस मॉडल का विकास किया। इसको उन्होंने 1957 ई० में पूर्णता प्रदान की। इसमें सम्प्रेषण के आदान व प्रदान के तत्त्व लगातार गतिशील रहते हैं। इसमें इच्छित सूचना शीघ्रता से प्राप्तकर्ता तक पहुँच जाती है—
सन्देश देने वाला > सन्देश > सन्देश प्राप्तकर्ता
सन्देश देने वाला < प्रतिक्रिया < सन्देश प्राप्तकर्ता
उपर्युक्त मॉडल से सुस्पष्ट है कि संचार में सम्प्रेषण, स्रोत, सन्देश- सारणी तथा संग्राहक की सक्रियता होती है। प्रोफेसर हेरोल्ड-डी-लॉसवैल ने ठीक ही लिखा है- “Who says that in which channel to whom with what effect ?” Who, What, Which, Whom के पारस्परिक विचार-विनिमय से सम्प्रेषण – क्रिया सफलता प्राप्त करती है। सन्देश का स्रोत, सन्देश की विषय-वस्तु, उद्दिष्ट श्रोता दर्शक – पाठक, सन्देश संचार का माध्यम और सन्देश का प्रभाव – ये छह सम्प्रेषण प्रक्रिया के मुख्य तत्त्व हैं जिनके समन्वय से संचार सफल होता है। संचार तो विकास का पर्याय है। विकास का अभियान समाज के मन को जीतने का अभियान है, उलझनों में रास्ता खोजने का अभियान है। “
12. ट्रान्सपर मॉडल (Transper Model)
इसकी अवधारणा दो मूल तत्त्वों पर आधारित है – बाह्य कारक तथा आन्तरिक कारक। सम्प्रेषण की घनीभूत प्रक्रिया के समय ये दोनों तत्त्व एक साथ मिले रहते हैं। इनके पृथक्करण की अवस्था में मूल उद्देश्य ही खण्डित हो जाता है।
13. इण्टर पर्सनल (Inter-personal : Two Persons)
मॉडल इस मॉडल में संचारगत दोनों व्यक्तियों के विचारों के भाव-जगत में एकरूपता का अभाव परिलक्षित होता है, तथापि न्यूनाधिक रूप में कुछ बिन्दुओं पर विचारों में समानता भी दृष्टिगोचर होती है। ग्राफ के रूप में इस कथन को निम्न प्रकार चिह्नित किया जा सकता है
व्यवसाय के अन्तर्गत कोई भी संचार साधन तभी सफल हो सकता है, जब वह प्रभावशाली हो तथा उद्देश्य की पूर्ति अक्षरशः करता हो । विषय-वस्तु की समान बोधगम्यता का होना भी आवश्यक है। आवश्यकतानुसार अन्य अनेक मॉडल भी अस्तित्व में आए हैं। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं
ओल्गा लोनीपेसिसोला जॉन फिल्टजीन का मॉडल (1912), इल्लू कार्ट्स व पॉल एफ० लेजार्स पील्स मॉडल (1955), जॉन व्हाइट रिले व मथलिया व्हाइट रिले मॉडल (1959), गैरहर्ड मैलेज्के मॉडल (1963), एवर्ड रोज से फ्लोइड रामेकर मॉडल (1977), जॉर्ज कोमरयव व तीव्री मॉडल (1978), एवर्ट रोजर्स व फ्लोइड शूमेकर मॉडल (1983) ।
अतः आवश्यक है कि संचार शृंखलाओं का निश्चित परिप्रेक्ष्य में सुनिश्चित ज्ञान् हो। समय की आवश्यकता के अनुसार हम अपने लिए सम्प्रेषण के किसी भी ऐसे मॉडल को अंगीकार कर सकते हैं जो व्यवसाय की उन्नति में उत्तरोत्तर सहायक सिद्ध हो ।