कुतुबुद्दीन ऐबक (Qutub-ud-Din Aibak)
(24 जून, 1206-1210 ई०)
(1) ऐबक का प्रारम्भिक जीवन-ऐबक का जन्म तुर्किस्तान के एक उत्तम परिवार में हुआ था। उसके पिता तुर्क थे। बचपन में ही ऐबक दास के रूप में निशापुर के काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कौफी द्वारा खरीद लिया गया था। काजी ने ऐबक के गुणों से प्रभावित होकर उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार किया और उसकी शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबन्ध किया। काजी की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने कुतुबुद्दीन ऐबक को मुहम्मद गोरी के हाथ बेच दिया। गोरी उसकी स्वामिभक्ति और कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे अमीर-ए-आखूर के पद पर नियुक्त करके ऐबक की उपाधि प्रदान की। ) के बाद मुहम्मद गोरी ने उसे पंजाब तथा अपने तराइन के युद्ध (1192 ई० नव-निर्वाचित राज्य का हाकिम नियुक्त किया। ऐबक ने दिल्ली के निकट इन्द्रप्रस्थ को अपनी बनाकर शासन संचालन का भार ग्रहण कर लिया।
(2) सूबेदार के रूप में सफलताएँ–सन् 1192 से 1206 ई० तक ऐबक ने मुहम्मद गोरी के भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अनेक महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की और भारत में मुस्लिम सत्ता को दृढ़ बनाया। इस अवधि में ऐबक ने निम्नलिखित सैनिक सफलताएँ प्राप्त की-
(i) अजमेर, हाँसी, मेरठ तथा दिल्ली पर अधिकार (1193-1194 ई०) में तराइन विजय के बाद मुहम्मद गोरी ने गजनी लौटने से पूर्व अजमेर का शासन-प्रबन्ध अपने एक विश्वसनीय सरदार को सौंप दिया था। परन्तु कुछ समय के बाद ही पृथ्वीराज चौहान के पुत्र हेमराज और भाई हरिराम ने मुस्लिम सरदार को पराजित करके पुनः अजमेर पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। ऐबक इस परिवर्तन को सहन न कर सका और उसने तुरन्त ही अजमेर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार अजमेर तथा दिल्ली के मध्य का प्रदेश मुसलमानों के अधिकार में आ गया। इसके बाद ऐबक ने हाँसी के दुर्ग की और ध्यान दिया। हाँसी दुर्ग में मुस्लिम सेनापति को जाटों ने घेर रखा था। ऐबक ने जाटों को बुरी तरह पराजित करके हाँसी के दुर्ग की रक्षा की। वापसी में ऐबक ने मेरठ के प्राचीन दुर्ग के हिन्द सरदार को पराजित करके उस पर अधिकार कर लिया। इसके उपरान्त बरन के राजा चन्द्रसेन को पराजित किया और कोइल (अलीगढ़) को जीता। तत्पश्चात् उसने तोमर राजा को पराजित करके दिल्ली पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
(ii) कन्नौज पर आक्रमण (1194 ई०)–सन् 1194 ई० में जब गोरी ने कन्नौज के राजा जयचन्द पर आक्रमण किया तो ऐबक ने उसे भरपूर सहयोग दिया। कन्नौज के निकट ‘चन्द्रावर’ नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में एक भीषण युद्ध हुआ, जिसमें राजा जयचन्द मारा गया। गोरी ने बनारस की ओर कूच किया यह जयचन्द का प्रिय निवास-स्थान था। यहाँ एक बड़ा खजाना उसके हाथ लगा।
(iii) मेड़ों का दमन (1196-1197 ई०)–सन् 1196 ई० में अजमेर के मेड़ों ने गुजरात के राजा भीमदेव से मिलकर भारत से मुसलमानों को निकाल बाहर करने की योजना बनाई और एक भीषण विद्रोह कर दिया। ऐबक उस समय अजमेर में ही था, उसने विद्रोहियों का बड़ी वीरता के साथ सामना किया, किन्तु उनकी विशाल शक्ति को देखकर वह अजमेर के दुर्ग में आकर छिप गया। मेड़ों ने तुरन्त ही दुर्ग पर घेरा डाल दिया। कुछ समय तक मुसलमानों को भारी संकट का सामना करना पड़ा। इसी बीच यह अफवाह फैल गई कि मुहम्मद गोरी एक विशाल सेना लेकर गजनी से आ रहा है। इस पर मेड़ों ने भयभीत होकर घेरा उठा लिया।
(iv) गुजरात पर आक्रमण (1197-1198 ई०)—ऐबक ने अपनी पराजय का बदला लेने के लिए 9 फरवरी, 1197 ई० को गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण कर दिया और वहाँ के राजा भीमदेव को पराजित करके उसकी राजधानी को बुरी तरह लूट लिया। हसन निजामी ने लिखा है-“लगभग 50 हजार विद्यार्थियों को तलवार के द्वारा नरक भेज दिया गया तथा वध किए गए लोगों से पहाड़ और मैदान समतल हो गए।”
लेकिन इस समय ऐबक में गुजरात पर अपना प्रभुत्व जमाने की शक्ति नहीं थी। अत: वह एक मुस्लिम अधिकारी को नियुक्त करके दिल्ली लौट आया। फरिश्ता का कथन है कि ऐबक के मुस्लिम अधिकारी को कुछ समय के बाद चालुक्यों ने वहाँ से निकालकर अन्हिलवाड़ा पर पुन: अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
(v) कालिंजर पर आक्रमण (1202 ई०)-अन्हिलवाड़ा को लूटने के बाद ऐबक ने 1202 ई० में बुन्देलखण्ड के राजा परमर्द्रि चन्देल पर आक्रमण किया। तुर्क सेना ने कालिंजर के दुर्ग को घेर लिया। कुछ समय तक चन्देल राजा ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया, परन्तु दुर्ग में खाद्य-सामग्री का अभाव हो जाने के कारण उसने सन्धि-वार्ता करने का विचार किया। लेकिन इसी बीच चन्देल राजा की मृत्यु हो गई और उसके मन्त्री अजयदेव ने सन्धि का विचार छोड़कर युद्ध जारी रखा। लेकिन अन्त में उसको पराजित होकर कालिंजर दुर्ग तुर्कों के हाथों में देना पड़ा। तुर्को ने कालिंजर, महोबा तथा खजुराहो में भारी लूटमार की और लगभग 50 हजार नर-नारियों को बन्दी बना लिया। हसन निजामी ने लिखा है-“पचास हजार मनुष्यों के गले में दासत्व का फन्दा डाला गया और हिन्दुओं के शवों से धरती पट गई।”
(vi) अन्य विजयें-इसके उपरान्त ऐबक ने बालवी, बदायूँ, महोबा तथा उत्तरी भारत के अनेक महत्त्वपूर्ण प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इसी समय गोरी के एक अन्य महत्त्वपूर्ण । सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने बिहार तथा बंगाल को जीत लिया।
इस प्रकार ऐबक दिल्ली से कालिंजर और गुजरात तक तथा लखनौती से लाहौर तक भारतीय साम्राज्य का स्वामी बन गया।
(vii) खोखरों का विद्रोह तथा मुहम्मद गोरी की मृत्यु (1205-1206 ई०)-सन् 1205 ई० में खोखरों ने भीषण विद्रोह करके पंजाब और लाहौर पर अधिकार करने की योजना बनाई। स्थानीय तुर्क सरदार उनके विद्रोह को दबाने में असफल रहे। फलत: मुहम्मद गोरी स्वयं एक विशाल सेना के साथ भारत आया, झेलम के तट पर ऐबक ने उससे भेंट की। दोनों की संयुक्त सेना ने खोखरों के विद्रोह का कठोरतापूर्वक दमन कर दिया। हजारों की संख्या में खोखरों को जलाकर राख कर दिया गया और गोरी ने पंजाब में शान्ति स्थापित करके ऐबक को दिल्ली भेज दिया। गजनी लौटते समय सिन्धु नदी के तट पर दमयक नामक स्थान पर जब मुहम्मद गोरी नमाज पढ़ रहा था, कुछ खोखरों ने उसका वध कर दिया।
(3) ऐबक का राज्यारोहण और कठिनाइयाँ–अधिकांश इतिहासकारों का यह अनुमान है कि मुहम्मद गोरी ऐबक को ही अपने भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था, क्योंकि गोरी ने 1206 ई० में ही ऐबक को मलिक की उपाधि देकर उसे अपने भारतीय साम्राज्य का संरक्षक घोषित कर दिया था। याहिया बिन अहमद ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-मुबारकशाही में लिखा है- “मुहम्मद गोरी ने मरने से पूर्व कुतुबुद्दीन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। लेकिन मिनहाज-उस-सिराज का मत है कि गोरी ने इस सम्बन्ध में कोई निश्चित निर्णय नहीं लिया था। उसने अपनी तवारीख तबकात-ए-नासिरी’ में लिखा है— “मुहम्मद गोरी के कोई पुत्र न था। एक बार जब उसके एक बहुत प्रिय सभासद ने उसका कोई पुत्र उत्तराधिकारी न होने पर चिन्ता प्रकट की तो सुल्तान ने निरपेक्ष भाव से उत्तर दिया था कि दूसरे शासकों के तो एक या दो ही पुत्र होंगे, लेकिन मेरे तो तुर्की दासों के रूप में इतने सारे पुत्र हैं, जो मेरी मृत्यु के बाद मेरे अधिकृत प्रदेशों के शासनाधिकारी होंगे और उस समस्त देश के खुतबे में मेरा नाम मेरे बाद भी बनाए रखेंगे।”
ऐबक की स्थिति सुल्तान के रूप में बड़ी दुर्बल थी। फिर भी गोरी की मृत्यु का समाचार पाकर लाहौर के नागरिकों ने ऐबक को सुल्तान का पद ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया। ऐबक ने लाहौर पहुँचकर राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में लिया, परन्तु वह गोरी की मृत्यु के तीन माह बाद 24 जून, 1206 ई० को दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ।
कठिनाइयाँ-सुल्तान बनने के समय ऐबक के समक्ष अनेक जटिल समस्याएँ उपस्थित थीं, जिनका समाधान आवश्यक था-
(i) ऐबक के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उसे अपनी स्वतन्त्र सत्ता को स्थापित करने के लिए दासतामुक्ति का प्रमाणपत्र प्राप्त करना था क्योंकि इस्लामी कानून कोई दास सुल्तान नहीं बन सकता था। इसीलिए ऐबक ने गद्दी पर बैठते समय ‘मलिक’ तथा ‘सिपहसालार’ की उपाधियाँ धारण की थीं, सुल्तान की नहीं। मिनहाज-उस-सिराज ने तो यह उसका लिखा है कि उसी समय से ऐबक के नाम के सिक्के ढाले जाने लगे थे और खुतबे में नाम भी रख दिया गया था। परन्तु डॉ० हबीबउल्ला मिनहाज के मत का खण्डन करते कहते हैं कि उसने न तो सिक्कों में अपना नाम रखा था और न ही अपने नाम का खुतबा पढ़वाया था। डॉ० हबीबउल्ला के विचार से सिक्के और खुतबे की बात मिनहाज-उस-सिराज ने केवल परिपाटी के कारण लिख दी है।
(ii) दूसरी कठिनाई उत्तर-पश्चिमी सुरक्षा की समस्या थी। ख्वारिज्म के शाह ने गोरी वंश की शक्ति का अन्त करके मध्य एशिया में एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था, दक्षिण-पूर्वी सीमा भारतीय प्रदेशों में मिल गई थी। अतः ख्वारिज्म का शाह भी अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकता था। प्रदेश में रहने वाली खोखर जाति से इसके अतिरिक्त सिन्धु और झेलम के मध्यवर्ती भारत के मुस्लिम राज्य को भारी खतरा था, क्योंकि यह जाति निरन्तर विद्रोह करती थी।
(iii) तीसरी कठिनाई यह थी कि मुहम्मद गोरी के अनेक दास थे, जिनमें ताजुद्दीन एल्दौज गजनी का, नासिरुद्दीन कुबाचा मुल्तान का और अलीमर्दान खाँ बंगाल का (स्वतन्त्र शासक) शासक था। गोरी की मृत्यु के बाद एल्दौज तथा कुबाचा ने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की घोषणा करके दिल्ली की गद्दी पर अपने प्रभुत्व का दावा करना प्रारम्भ कर दिया था। गोरी का उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मुहम्मद भी अपने इन सरदारों पर नियन्त्रण रखने में असमर्थ था।
(iv) चौथी कठिनाई हिन्दू सरदारों को दबाकर भारत में मुस्लिम साम्राज्य को दृढ़ बनाना था।
(4) ऐबक की सफलताएँ–(i) विरोधियों का दमन-सर्वप्रथम, ऐबक ने अपने विरोधियों का दमन करने के लिए अपने समर्थकों का एक शक्तिशाली दल बनाया। उसने अपनी पुत्री का विवाह इल्तुतमिश, बहन का नासिरुद्दीन कुबाचा और स्वयं अपना ताजुद्दीन एल्दौज की पुत्री के साथ करके अपनी स्थिति काफी सुदृढ़ कर ली।
(ii) एल्दौज का दमन-गजनी का शासक एल्दौज गजनी में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके मुल्तान तथा उच्छ पर आक्रमण कर भारत का सुल्तान बनने का स्वप्न देखने लगा। एल्दौज की महत्त्वाकांक्षा को देखकर ऐबक ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे पराजित करके गजनी पर अधिकार कर लिया, लेकिन ऐबक गजनी में न रुक सका और दिल्ली लौट आया। लेकिन इस आक्रमण से एल्दौज ऐबक को भारत का सुल्तान मानने लगा और उसका विरोध करने का भविष्य में साहस न किया।
(iii) दासता-मुक्ति का प्रमाण-पत्र (1208 ई०)–याहिया बिन अहमद ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-मुबारकशाही में लिखा है कि ऐबक ने अपने गजनी प्रवास के समय गोरी के उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मुहम्मद को पत्र लिखा कि यदि वह उसे दासता-मुक्ति का प्रमाण-पत्र देकर भारत का स्वतन्त्र सुल्तान मान ले, तो वह उसकी ख्वारिज्म के शाह के विरुद्ध सहायता करेगा। ग्यासुद्दीन मुहम्मद ने यह सोचा कि ख्वारिज्म की शक्ति के कारण वह ऐबक की सत्ता पर नियन्त्रण तो न रख सकेगा, परन्तु ऐबक को स्वतन्त्र करने से उसे ख्वारिज्म के विरुद्ध सहायता अवश्य मिल जाएगी।
अतः 1208 ई० में उसने ऐबक के पास राजदण्ड, खिलअत तथा दासता-मुक्ति का प्रमाण-पत्र भेज दिया। दासता-मुक्ति प्रमाण-पत्र प्राप्त करके ऐबक भारत का वैधानिक दृष्टि से निरंकुश सुल्तान बन गया।
(iv) बंगाल के विद्रोह का दमन-बंगाल में बख्तियार खिलजी की मृत्यु के बाद अलीमर्दान खाँ ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी, परन्तु खिलजी सरदार उसकी सत्ता पो के प्रबल विरोधी थे, जिससे बंगाल में बड़ी अराजकता तथा अव्यवस्था फैली हुई थी। अतः ऐबक ने कैमाज रुमी को बंगाल के खिलजी सरदारों के विद्रोह का दमन करने का आदेश दिया। उसने खिलजी सरदारों का दमन करके बंगाल में शान्ति तथा सुव्यवस्था की स्थापना की। ऐबक ने अलीमर्दान खाँ को बंगाल का शासक बना रहने दिया तथा अलीमर्दान ने सुल्तान को वार्षिक कर देने का वचन दिया।
(v) हिन्दुओं के विद्रोह का दमन-मुहम्मद गोरी की मृत्यु का लाभ उठाकर अनेक हिन्दू सरदारों ने विद्रोह कर दिया। चन्देल शासक त्रिलोक्य वर्मा ने कालिंजर पर पुनः अपना प्रभुत्व जमा लिया। परिहारों ने तुर्कों को भगाकर ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। गहड़वालों और सेन वंश के लोगों ने भी विद्रोह आरम्भ कर दिए। जयचन्द के पुत्र हरिश्चन्द्र ने बदायूँ तथा फर्रुखाबाद के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। अत: एल्दौज का दमन करने के बाद ऐबक ने इन विद्रोहों का दमन करने का प्रयास किया। उसने बदायूँ को जीतकर इल्तुतमिश को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया, परन्तु वह कालिंजर तथा ग्वालियर को विजय करने में असफल न रहा।
डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार-“पोलो खेलते समय ऐबक घोड़े से गिरकर बुरी तरह घायल हो गया और 1210 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। उसे लाहौर में दफनाया ग गया।”
(5) ऐबक का चरित्र एवं मूल्यांकन-ऐबक के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ थीं-
(i) मानवीय गुण-ऐबक अनेक मानवीय सद्गुणों का स्वामी था। अपनी योग्यता, परिश्रमशीलता तथा कर्त्तव्यनिष्ठा के बल पर ही वह एक दास से सुल्तान बन गया था। उसकी स्वामिभक्ति अद्वितीय थी। उसने गोरी को भारत में बड़ा महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया था। वह एक सदाचारी, कुरान के नियमों का पालन करने वाला सच्चा मुसलमान था। उसने अपनी धर्मान्धता के कारण हिन्दू मन्दिरों को तुड़वाकर अनेक मस्जिदों का निर्माण करवाया था।
(ii) वीर सैनिक तथा कुशल सेनापति-ऐबक बड़ा योग्य सैनिक तथा सफल सेनापति था। डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- “कुतुबुद्दीन एक महान सेनानायक था। वह प्रतिभाशाली सैनिक था और हीन तथा दरिद्र अवस्था से उठकर शक्ति तथा यश के शिखर पर पहुँच गया था। उसमें उच्चकोटि का साहस और निर्भीकता थी और वह उन योग्य तथा शक्तिशाली गुलामों में से था, जिनके कारण मुहम्मद गोरी को भारत में इतनी सफलता प्राप्त हुई थी।”
(iii) न्यायप्रियता और दानशीलता-ऐबक बड़ा न्यायप्रिय था। इतिहासकारों ने उसकी न्यायप्रियता की बड़ी प्रशंसा की है। हसन निजामी ने ताजुल मासिर में लिखा है—“उसके शासन में सभी प्रसन्न थे और न्याय बड़ा सरल था। उसके समय में भेड़िया और बकरी एक घाट पर पानी पीते थे।” थी।
ऐबक इतना अधिक दानी था कि लोगों ने इसे ‘लाखबख्श’ की उपाधि दे दी मिनहाज-उस सिराज ने अपनी तवारीख तबकात-ए-नासिरी में लिखा है- “उसके उपहार सौ हजार से कम के नहीं होते थे। उसकी दानप्रियता से हिन्दुस्तान में उसकी सत्ता मित्रों से भरपूर और शत्रुओं से रिक्त हो गई थी।”
इसी प्रकार लेनपूल ने भी उसकी न्यायप्रियता की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “ऐबक के राज्य में मार्गों पर चोर, डाकुओं का नामोनिशान तक नहीं था और सब छोटे-बड़े हिन्दुओं के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था।”
(iv) साहित्य तथा कला का संरक्षक-ऐबक साहित्य और कला का भी प्रेमी था। उसने उस समय के प्रसिद्ध विद्वान फखमुदीर और इतिहासकार हसन निजामी को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। उसने हिन्दू मन्दिरों को तुड़वाकर अनेक मस्जिदों का निर्माण करवाया जिनमें कुव्वत-उल-इस्लाम (दिल्ली) और अढ़ाई दिन का झोंपड़ा (अजमेर) विशेष प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि ऐबक ने ही कुतुबमीनार का निर्माण प्रारम्भ करवाया था, जिसे बाद में इल्तुतमिश ने पूरा करवाया।
(v) धार्मिक नीति-मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐबक की धार्मिक उदारता की बड़ी प्रशंसा की है, किन्तु तथ्यों से ज्ञात होता है कि वह हत्याओं के लिए बड़ा बदनाम था और उसने हजारों व्यक्तियों का वध करवाया था। उसने हिन्दुओं के नगरों को लूटा और मन्दिरों को भी तोड़ा था। कहा जाता है कि उसने हिन्दुओं पर जजिया कर भी लगाया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें धार्मिक सहिष्णुता नहीं थी तथापि उसने दो बार पराजित हिन्दू राजाओं के लिए ग्यासुद्दीन मुहम्मद से सिफारिश अवश्य की थी।
(vi) प्रशासनिक प्रतिभा का अभाव-ऐबक में प्रशासनिक प्रतिभा का अभाव था। उसने न तो शासन सम्बन्धी संस्थाओं की स्थापना की और न कोई सुधार ही किए। डॉ० हबीबउल्ला ने लिखा है- “यद्यपि मुईजुद्दीन ने संचालन की प्रेरणा दी, परन्तु ऐबक ने ही दिल्ली राज्य को हर पहलू से एक योजना और व्यवस्था के अनुसार संगठित किया। मुईजुद्दीन की मृत्यु के बाद ऐबक ने दिल्ली राज्य को गोरी राज्य के अभारतीय भागों से अलग करके बड़ी दूरदर्शिता का परिचय दिया और दिल्ली की स्वतन्त्र सत्ता स्थापित की।”
क्या ऐबक दास-वंश का वास्तविक संस्थापक था?
(Was Aibak Real founder of the Slave Dynasty ?)
वूल्जले हेग तथा डॉ० स्मिथ ने कुतुबुद्दीन ऐबक को मुस्लिम साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना है। परन्तु डॉ० आर० पी० त्रिपाठी ने उनके मत का खण्डन करते हुए लिखा
“कुतुबुद्दीन ऐबक को मुस्लिम भारत का सर्वोच्च सत्तायुक्त शासक नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसके समय के सिक्के हमें उपलब्ध नहीं होते हैं और न इब्नबतूता द्वारा वर्णित सुल्तानों की सूची, जिसका निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने शुक्रवार के खुतबे के लिए करवाया था, में उसका नाम ही मिलता है।”
वास्तव में, ऐबक को दास-वंश का संस्थापक मानना न्यायोचित नहीं है। पहली बात तो यह है कि यह कथन ऐतिहासिक दृष्टि से ही असत्य है क्योंकि ऐबक, इल्तुतमिश और बलबन सभी ने सुल्तान बनने के पूर्व दासता-मुक्ति का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया था। ऐसी स्थिति में उन्हें दास या गुलाम कहना ही अनुचित है क्योंकि इस्लामी कानून के अनुसार कोई भी दास सुल्तान नहीं हो सकता। यह सम्भव है कि मुस्लिम इतिहासकारों ने पूर्व मुस्लिम विजेताओं द्वारा जीते गए राज्य के कारण, जिसका कि ऐबक ने दावा किया था, संस्थापक की उपाधि दे दी हो। तथ्यों से पता चलता है कि ऐबक के अनेक अधिकारी ऐसे थे, जो उसकी सम्प्रभुता को स्वीकार नहीं करते थे, उनमें बयाना का सेनापति बहाउद्दीन प्रमुख था। यही कारण है कि हमें ऐबक के सिक्के उपलब्ध नहीं होते हैं।