Thursday, November 21, 2024
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Rise of Turks Notes

तुर्कों का उत्थान (Rise of Turks)

अलप्तगीन और सुबुक्तगीन के भारत अभियान

अरब लोग भारत के पहले मुसलमान आक्रमणकारी थे, फिर भी उनका आक्रमण भारत के इतिहास में एक प्रासंगिक घटना मात्र ही है। अरबों द्वारा आरम्भ किया गया कार्य तुर्कों ने पूर्ण किया। आठवीं और नवीं शताब्दी में तुर्कों ने बगदाद के खलीफाओं की शक्ति बलपूर्वक प्राप्त कर ली। तुर्कों और अरबों में असमानता थी। तुर्क अरबों से अधिक क्रूर थे। वे योद्धा थे और उनमें अत्यधिक साहस था। उनका दृष्टिकोण पूर्णत: भौतिक था। वे महत्त्वाकांक्षी भी थे। एक सैनिक साम्राज्य की स्थापना के लिए सभी गुण उनमें विद्यमान थे। डॉ० लेनपूल ने तुर्कों के प्रसार को “10वीं और 11वीं शताब्दी में मुसलमानों के साम्राज्य के लिए अद्वितीय आन्दोलन’ कहकर सम्बोधित किया है।

अलप्तगीन (Alaptgin)

अलप्तगीन पहला तुर्क आक्रमणकारी था जिसका सम्बन्ध मुसलमानों की भारत-विजय की कहानी से है। वह असाधारण योग्यता और साहस का स्वामी था। वह बुखारा के सामन्ती शासक अब्दुल मलिक का दास था। अपने परिश्रम से वह हजीब-उल-हज्जाब के पद पर नियुक्त हुआ। सन् 956 ई० में उसे खुरासान का प्रशासक बनाया गया। सन् 962 ई० में अब्दुल मलिक के देहान्त के पश्चात् उसके भाई और चाचा में सिंहासन के लिए युद्ध हुआ। अलप्तगीन ने चाचा की सहायता की, किन्तु अब्दुल मलिक का भाई मंसूर सिंहासन पाने में सफल रहा। इन परिस्थितियों में अलप्तगीन अपने 800 व्यक्तिगत सैनिकों के साथ अफगान प्रदेश के गजनी नगर में ठहर गया। मंसूर ने उसे गजनी से बाहर निकालने के अनेक प्रयास किए, किन्तु सभी प्रयास असफल रहे। उसने गजनी शहर और इसके निकटवर्ती भागों पर अपना अधिकार स्थापित रखा।

सुबुक्तगीन (Subuktgin)

सन् 977 ई० में अलप्तगीन के देहान्त के पश्चात् राज्य के लिए पुनः संघर्ष शुरू हो गया। सुबुक्तगीन गजनी का शासक बन गया। वह अलप्तगीन का एक दास था। नासिर-हाजी नामक व्यापारी उसे तुर्किस्तान से बुखारा लाया था, अलप्तगीन ने उसे खरीद लिया। होनहार देखकर अलप्तगीन ने उसे एक के बाद दूसरे उच्च पदों पर नियुक्त किया। सुबुक्तगीन को ‘अमीर-उल-उमरा’ की उपाधि भी दी गई। अलप्तगीन ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया।

सिंहासनारूढ़ होने के पश्चात् उसने आक्रमणों का सिलसिला आरम्भ किया, जिससे उसे विश्व में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। सीस्तान और लमगान को उसने जीत लिया। सन् 994 ई० में कई वर्षों के निरन्तर युद्ध के पश्चात् उसने खुरासान के प्रान्त को विजय कर लिया। सुबुक्तगीन महत्त्वाकांक्षी था इसलिए उसने अपना सारा ध्यान धन और मूर्ति-पूजकों से परिपूर्ण भारत की विजय की ओर लगाया। उसकी पहली भेट राजा जयपाल से हुई। जयपाल का राज्य सरहिन्द से लमगान (जलालाबाद) और कश्मीर से मुल्तान तक था। शाही शासकों की राजधानियाँ क्रमश: ओंड, लाहौर और भटिण्डा थीं। सन् 986-87 ई० में सुबुक्तगीन ने प्रथम बार भारत की सीमा में आक्रमण किया और उसने अनेक किलों और नगरों को विजय किया। इन किलों और नगरों में इससे पहले हिन्दुओं के अतिरिक्त और कोई नहीं रहता था और जिन्हें आक्रमणकारियों के घोड़ों और ऊँटों ने कभी भी पददलित नहीं किया था। जयपाल यह सहन नहीं कर सका। वह अपनी सेना लेकर लमगान की घाटी की ओर बढ़ा, जहाँ सुबुक्तगीन और उसके बेटे से उसका सामना हुआ। दोनों के बीच युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। जयपाल की सभी योजनाएँ बर्फ के तूफान के कारण असफल हो गईं। उसने सुबुक्तगीन से सन्धि के लिए प्रार्थना की। सुबुक्तगीन सन्धि की प्रार्थना स्वीकार करने के लिए तैयार था, किन्तु उसके बेटे महमूद ने “इस्लाम और मुसलमानों के सम्मान के लिए’ युद्ध बन्द न करने के लिए कहा। उसने अपने पिता को इन शब्दों में सम्बोधित किया— “सन्धि के लिए माँग और पुकार नहीं करनी चाहिए क्योंकि आप सर्वोच्च हैं और ईश्वर आपके साथ है, वह कभी आपके कार्यों को असफल नहीं होने देगा।” अपनी प्रारम्भिक पराजय के उपरान्त भी जयपाल ने सुबुक्तगीन को निम्नलिखित सन्देश भेजा

“हिन्दू किस प्रकार अपने प्राणों को हथेली पर रखकर युद्ध में कूद पड़ते हैं, यह तुम देख चुके हो। यदि तुम अब भी हमारे सन्धि के प्रस्ताव को लूट का सामान, भेंट, हाथी और बन्दी पाने की आशा में अस्वीकार करते हो तो हमारे लिए एकमात्र यही मार्ग शेष रह जाता है कि हम दृढ़ संकल्प करके अपनी सारी सम्पत्ति का नाश कर दें, हाथियों को अन्धे कर दें, अपने बच्चों को अग्नि में फेंक दें और खुद तलवार और भाले लेकर एक-दूसरे पर आक्रमण कर दें। इसके उपरान्त तुम्हारे लिए केवल पत्थर और कूड़ा-करकट, शव और बिखरी हुई अस्थियाँ शेष रह जाएँगी”

उक्त सन्देश पहुँचने पर सुबुक्तगीन ने सन्धि की प्रार्थना स्वीकार कर ली। जयपाल ने भेंट में 10 लाख दरहम, 50 हाथी और कुछ नगर और किले देना स्वीकार कर लिया।

ऐसा कहा जाता है कि जब जयपाल ने अपने आपको संकट से दूर पाया तो उसने सन्धि की शर्तों को भंग करने का निर्णय किया। सुबुक्तगीन ने क्रोधावेश में तुरन्त जयपाल की ओर उसकी मूर्खता और अभक्ति का दण्ड देने के लिए प्रस्थान किया। जयपाल के राज्य की सीमा में स्थित प्रदेशों को नष्ट कर दिया गया और लमगान के नगर पर अधिकार कर लिया गया। जब जयपाल ने देखा कि “उसके सरदार गिद्धों और बाघों का भोजन बन गए हैं और उसकी सैनिक शक्ति क्षीण होने लगी है तब उसने एक बार फिर मुसलमानों से युद्ध लड़ने का प्रण किया।” उसने सन् 991 ई० में अजमेर, कालिंजर और कन्नौज का संघ बनाया और एक लाख से भी अधिक सैनिकों को लेकर शत्रुओं का सामना करने के लिए गया। भयंकर युद्ध के पश्चात् अन्त में जयपाल ने अपने दूरवर्ती प्रदेशों की उत्तम वस्तुएँ इस शर्त पर भेंट करनी स्वीकार कर ली कि विजेता उनके सिर के मध्य के बाल न मुंडवाएँ।” सुबुक्तगीन को 200 युद्ध के हाथियों सहित बहुत-सी लूट की सामग्री हाथ लगी। जयपाल ने असंख्य भेटे दीं और सुबुक्तगीन की अधीनता स्वीकार कर ली। सुबुक्तगीन ने पेशावर में 10,000 घुड़सवारों सहित अपना एक अधिकारी नियुक्त कर दिया।

सन् 997 ई० में सुबुक्तगीन का देहान्त हो गया। वह अपने बेटे महमूद के लिए एक विशाल और सुसंगठित साम्राज्य छोड़ गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सुबुक्तगीन एक वीर और गुणवान् शासक था। उसने अपने राज्य का शासन 20 वर्ष तक विवेक, सुनीति और उदारता के किया।

महमूद गजनवी का परिचय (Introduction of MahmỤd Ghaznavi)

महमूद गजनवी गजनी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था। उसका पूरा नाम अबु कासिम महमूद था। उसका जन्म 2 नवम्बर, 971 ई० में हुआ था। उसकी माता गजनी के निकटवर्ती प्रान्त जबुलिस्तान के अमीर की पुत्री थी। इस्माइल, नसूर और युसुफ महमूद के भाई थे। वह तलवार के बल पर इस्माइल को पराजित कर 997 ई० में गजनी का स्वामी बना था। उसने खलीफा अल कादिर बिल्ला से शासक की मान्यता और यमीनउद्दौला (साम्राज्य की दक्षिण भुजा) तथा अमीन-अल-मिल्लत (धर्मरक्षक) की उपाधियाँ प्राप्त की। महमूदं पहला मुसलमान शासक था, जिसने सुल्तान (सशक्त या अधिपति) की पदवी धारण की। महमूद के व्यक्तित्व के सन्दर्भ में लेनपूल ने लिखा है, “महमूद एक महान् सैनिक, अदम्य साहसी, विलक्षण मानसिक तथा शारीरिक शक्ति का स्वामी था।”

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण के उद्देश्य (Aims of Mahmud Gaznavi’s Invasion on India)

महमूद गजनवी ने भारत पर बार-बार आक्रमण किए। डॉ० ईश्वरीप्रसाद का मत है, “उसका उद्देश्य भारत को जीतना नहीं था, अपितु वह यहाँ की अतुल सम्पत्ति को लूटना और अपने धर्म का प्रचार करना चाहता था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसने भारत पर 17 बार हमले किए।” अधिकांश विद्वानों ने तो उसे मात्र लुटेरा ही माना है। हैवेल ने तो यहाँ तक लिख दिया है, “वह बगदाद को भी निर्दयता से लूट सकता था, यदि उसे वहाँ धन मिलने की सम्भावना होती।” उसके द्वारा भारत पर किए गए आक्रमणों के सम्बन्ध में भी अधिकांशत: यही कहा जाता है—“महमूद मात्र एक लुटेरा था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।” अथवा “महमूद गजनवी के भारतीय आक्रमणों का उद्देश्य मात्र धनलोलुपता थी।”

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्यों के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं, तथापि उसके उद्देश्यों को अग्रलिखित प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-

(1) मूर्तिपूजा का अन्त-महमूद गजनवी एक कट्टर मुसलमान था। वह इस्लाम धर्म का झण्डा हर देश में फहराना अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझता था। भारत एक मूर्तिपूजक देश था। अत: भारत में मूर्तिपूजा को समाप्त करने तथा यहाँ पर इस्लाम धर्म का प्रचार करने के उद्देश्य से उसने भारत पर बार-बार आक्रमण किए।

(2) धन लूटना-महमूद बचपन में ही भारत की अपार धन-सम्पत्ति के विषय में सुन चुका था। अत: महमूद का भारत पर आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य भारत के विपुल धन को लूटकर गजनी ले जाना था। डॉ० ईश्वरीप्रसाद का कथन है, “जहाँ तक भारत का प्रश्न है, महमूद गजनवी एक लुटेरा मात्र ही था और भारत के धन को लूटना ही उसके आक्रमणों का प्रमुख लक्ष्य था।”

(3) राज्य-विस्तार की कामना-कुछ इतिहासकारों ने महमूद के आक्रमणों का उद्देश्य भारत में अपने राज्य का विस्तार करना बताया है, किन्तु यह सत्य प्रतीत नहीं होता। वह भारत में अपना शासन स्थापित नहीं करना चाहता था, क्योंकि उसके आक्रमणों का लक्ष्य राजधानियाँ और सुदृढ़ दुर्गों के स्थान पर समृद्ध नगर तथा सोने-चाँदी से भरपूर मन्दिर होते थे। वह दुर्गों पर आक्रमण तभी करता था, जब ऐसा करना अनिवार्य होता था। मन्दिरों पर आक्रमण करने से उसकी धन प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण होती थी। इसी कारण भारत में उसके अधिकांश आक्रमण उन्हीं नगरों पर हुए जहाँ कोई समृद्ध मन्दिर था अथवा जहाँ मन्दिरों की अधिकता थी।

(4) धर्म-प्रचार-कुछ इतिहासकारों ने महमूद के आक्रमणों का उद्देश्य इस्लाम धर्म का व्यापक प्रचार करना बताया है। यद्यपि यह बात पूर्णतः सत्य है कि उसने भारतीय आक्रमणों के समय जेहाद (धर्म-युद्ध) का नारा लगाया और मन्दिरों एवं मूर्तियों को तोड़कर स्वयं को ‘बुतशिकन’ (मूर्ति तोड़ने वाला) सिद्ध किया। महमूद गजनवी द्वारा हिन्दू धर्म को पहुँचाए गए आघात तथा हानि को स्पष्ट करते हुए डॉ० ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, “अपने समय के मुसलमानों के लिए वह गाजी था, जो काफिर प्रदेशों में अधार्मिकता मिटाने में संलग्न था। हिन्दुओं के लिए वह आज तक एक क्रूर हूण है, जिसने अनेक पवित्र मन्दिरों को नष्ट कर दिया था और उनकी आत्माओं को अत्यधिक कष्ट दिया था।”

वस्तुत: महमूद के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य भारत की अपार धन-सम्पदा को लूटना मात्र ही था। उसने धन प्राप्ति के लिए धर्म के नाम का अनुचित उपयोग किया था। डॉ० नाजिम का कथन है, “यद्यपि उसकी विजयों के पीछे-पीछे धर्म-प्रचारक भी गए और कुछ हिन्दुओं ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया, परन्तु उसका वास्तविक उद्देश्य धन-प्राप्ति ही था।” प्रो० जाफर ने लिखा है, “महमूद का उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रचार करना नहीं वरन् धन लूटना था। उसने हिन्दू मन्दिरों पर इसलिए आक्रमण किया, क्योंकि वहाँ विपुल धन संचित था।”

अत: भारतीयों की दृष्टि में महमूद एक लुटेरा ही था। “वह एक धार्मिक व्यक्ति की तुलना में योद्धा अधिक था। उसके लिए भारतवर्ष वह स्थान था, जहाँ से वह प्रचुर धन एवं रत्नाभूषण अपने घर ले जा सकता था।’ इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया था।

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण (Mahmud Gaznavi’s Invasions on India)

महमूद के प्रमुख आक्रमणों का विवरण अग्रवत् है-

(1) सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण-1000 ई० में महमूद ने भारत के सीमावर्ती प्रदेशों पर आक्रमण किया। उसने इन प्रदेशों के शासकों को पराजित कर वहाँ काफी धन लूटा तथा इन शासकों को अपने अधीन कर लिया।

(2) जयपाल पर आक्रमण-नवम्बर 1001 ई० में गजनवी ने पंजाब और पेशावर के राजा जयपाल पर आक्रमण किया। राजा जयपाल ने पेशावर के युद्ध में बड़ी वीरता एवं साहस के साथ महमूद का सामना किया, किन्तु दुर्भाग्यवश उसकी हार हुई और उसने निराशा के कारण आत्महत्या कर ली।

(3) भीरा पर आक्रमण (1004-1005 ई०)-झेलम नदी के किनारे स्थित भीरा2 राज्य का शासक विजयराज था। विजयराज महमूद की सेना के साथ चार दिन तक घमासान युद्ध करता रहा, लेकिन अन्त में वह पराजित हो गया और उसने आत्मग्लानि के कारण आत्महत्या कर ली।

(4) मुल्तान पर आक्रमण-महमूद ने 1006 ई० में अपना चौथा आक्रमण मुल्तान पर किया। इस समय करमत सम्प्रदाय का अनुयायी फतेह दाऊद यहाँ का शासक था। महमूद ने एक विशाल सेना के साथ मुल्तान पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया और वहाँ की जनता से 20,000 दिरहम दण्डस्वरूप वसूल किए।

(5) सेवकपाल पर आक्रमण-महमूद का पाँचवाँ आक्रमण सेवकपाल (नवासाशाह) पर हुआ। 1006 ई० में पराजित होने पर सेवकपाल ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया था परन्तु 1007 ई० में सेवकपाल पुनः स्वतन्त्र राजा बन गया था। अत: महमूद ने पुनः सेवकपाल पर आक्रमण किया। इस युद्ध में सेवकपाल पराजित हुआ और महमूद लाख दिरहम दण्डस्वरूप प्राप्त किए।

(6) आनन्दपाल पर आक्रमण (1008 ई०)-महमूद का छठा आक्रमण लाहौर के राजा आनन्दपाल पर 1008 ई० में हुआ। आनन्दपाल के इस आक्रमण के विरुद्ध दिल्ली, उज्जैन, ग्वालियर और कन्नौज आदि के राजाओं ने एक संघ निर्मित कर महमूद का सामना किया। प्रारम्भ में ऐसा प्रतीत होता था कि मुसलमान युद्ध में पराजित हो जाएँगे, किन्तु दुर्भाग्य से आनन्दपाल का हाथी युद्धभूमि में अनियन्त्रित हो गया और वह युद्धक्षेत्र से भागने लगा। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर महमूद ने हजारों व्यक्तियों की हत्या कर दी। इस स्थिति में हिन्दुओं की दुर्भाग्यपूर्ण पराजय हुई। महमूद को लूट में विशाल सम्पत्ति प्राप्त हुई जिसमें 200 युद्ध के हाथी भी शामिल थे।

(7) नगरकोट पर आक्रमण (1008-1009 ई०)-आनन्दपाल को नतमस्तक करने के बाद महमूद ने कांगड़ा के दुर्ग पर आक्रमण किया। यह दुर्ग पर्वत के शिखर पर बना था और यहाँ की मूर्तियों पर भेंट की गई अपार सम्पत्ति एकत्र थी। इस दुर्ग पर विजय प्राप्त करके महमूद ने 7 लाख स्वर्ण दीनारें, 700 मन स्वर्ण एवं चाँदी के बर्तन, 200 मन स्वर्ण मुद्राएँ, 2000 मन कच्ची चाँदी और 20 मन हीरा-मोती आदि प्राप्त किए।

(8) मुल्तान पर पुनः आक्रमण-महमूद का 8वाँ आक्रमण मुल्तान पर हुआ। यद्यपि मुल्तान पर महमूद ने पहले भी आक्रमण किया था, किन्तु उसकी यह विजय स्थायी न रह सकी और 1010 ई० में महमूद ने मुल्तान के शासक फतेह दाऊद को पराजित कर वहाँ पुन: अपनी सत्ता स्थापित की।

(9) थानेश्वर पर आक्रमण-महमूद का 9वाँ आक्रमण 1014 ई० में थानेश्वर के मन्दिरों पर हुआ। यहाँ का शासक नगर छोड़कर भाग गया, किन्तु हिन्दुओं ने वीरता से इस आक्रमण का सामना किया। महमूद ने विजय प्राप्त करने के उपरान्त इस नगर को लूटा और यहाँ की स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया।

 (10) लाहौर पर आक्रमण-महमूद ने 10वाँ आक्रमण पुन: लाहौर पर किया। इस समय यहाँ आनन्दपाल का पुत्र त्रिलोचनपाल शासन कर रहा था। इस बार त्रिलोचनपाल के पुत्र भीमपाल ने वीरता से महमूद का सामना किया। परन्तु वह युद्ध में पराजित होकर कश्मीर भाग महमूद ने पंजाब को गजनी साम्राज्य में मिला लिया।

(11) कश्मीर पर आक्रमण-1015 ई० में महमूद का 11वाँ आक्रमण कश्मीर पर हुआ। इस आक्रमण का मुख्य उद्देश्य भीमपाल को बन्दी बनाना था। उसने इसी उद्देश्य से लौहकोट के दुर्ग को घेर लिया, किन्तु मौसम की खराबी के कारण महमूद को निराश होकर वापस आना पड़ा।

(12) भारत के भीतरी प्रदेशों पर आक्रमण-महमूद का 12वाँ आक्रमण भारत के भीतरी प्रान्तों पर हुआ। सिन्ध तथा प्रमुख नदियों को पार करता हुआ महमूद बुलन्दशहर (बरन) पहुँचा। वहाँ पर नियुक्त हरिदत्त नामक गवर्नर अपने किले को छोड़कर ही भाग गया। यहाँ से महमूद को अतुल धनराशि और हाथी प्राप्त हुए। इसके बाद वह महाबन की ओर अग्रसर हुआ। यहाँ के गवर्नर कुलचन्द को पराजित करके उसने 185 हाथी तथा अन्य वस्तुएँ प्राप्त की। इसके बाद उसने मथुरा को लूटा और पुन: कन्नौज की ओर बढ़ा। यहाँ का प्रतिहार राजा राज्यपाल भाग गया। महमूद को कन्नौज के मन्दिरों से अपार धन प्राप्त हुआ।

(13) कालिंजर पर आक्रमण-महमूद का 13वाँ आक्रमण 1019 ई० में कालिंजर पर हुआ। इस समय यहाँ पर राजा गण्ड का शासन था। उसके पास एक संगठित सेना थी। इस सेना के सामने महमूद को युद्ध करने में कुछ संकोच हुआ, किन्तु दुर्भाग्य से गण्ड स्वयं भयभीत होकर भाग गया। कालिंजर विजय से भी महमूद को बहुत-सा धन प्राप्त हुआ।

(14) पंजाब पर आक्रमण-महमूद का 14वाँ आक्रमण 1020 ई० में पंजाब पर हुआ। उसने पंजाब के निवासियों को मुसलमान बनने के लिए बाध्य किया। तत्पश्चात् उसने पंजाब पर अपना शासन स्थापित किया और यहाँ प्रान्तपतियों को नियुक्त करके गजनी वापस लौट गया।

(15) ग्वालियर तथा कालिंजर पर पुनः आक्रमण-1022 ई० में महमूद ने ग्वालियर तथा कालिंजर प्रान्तों पर पुनः आक्रमण किया। यहाँ के शासकों ने उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया। यहाँ से बहुत-सा धन प्राप्त करने के पश्चात् वह वापस गजनी लौट गया।

(16) सोमनाथ पर आक्रमण (1025-1026 ई०)—महमूद का 16वाँ तथा प्रसिद्ध आक्रमण सोमनाथ के मन्दिर पर हुआ। यह मन्दिर काठियावाड़ (गुजरात) के पश्चिमी समुद्र तट पर बना हुआ था तथा अपनी कला एवं अतुल धन-सम्पदा के लिए प्रसिद्ध था। 1025 ई० में महमूद गजनवी ने एक विशाल सेना के साथ गजनी से प्रस्थान किया तथा जनवरी 1026 ई० में वह सोमनाथ के द्वार पर पहुँच गया। इस मन्दिर की रक्षा के लिए राजपूतों ने महमूद का वीरतापूर्वक सामना किया, किन्तु वे महमूद को मन्दिर में जाने से नहीं रोक सके। महमूद गजनवी ने मन्दिर की शिव मूर्ति के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और मन्दिर के स्थान पर एक मस्जिद की नींव डाली, मन्दिर की लूट से उसे अपार धन और सोने की प्राप्ति हुई।

(17) मुल्तान के जाटों पर आक्रमण-महमूद का अन्तिम (17वाँ ) आक्रमण 1027 ई० में मुल्तान के जाटों पर हुआ। इन जाटों ने महमूद की सेना को अत्यधिक परेशान किया था। अत: दण्ड देने के उद्देश्य से उसने जाटों पर आक्रमण कर दिया। अनेक जाटों को उसने नदी में डुबों दिया और उनके बच्चों को पकड़ लिया। यह महमूद का अन्तिम आक्रमण था। इस आक्रमण के तीन वर्ष बाद 1030 ई० में महमूद की मृत्यु की गई।

महमूद के आक्रमणों का भारत पर प्रभाव (Effects of Mahmud’s Invasions on India)

महमूद द्वारा किए गए 17 आक्रमणों का भारत पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव का विवरण निम्नलिखित हैं-

(1) भारत की विपुल सम्पदा लुट जाने के कारण भारत आर्थिक दृष्टि से बहुत दुर्बल हो गया।

(2) महमूद के आक्रमण से राजपूतों की सैनिक दुर्बलता स्पष्ट हो गई।

(3) भारतीय साहित्य एवं कला की अपार क्षति हुई, क्योंकि महमूद ने लूट के साथ-साथ मन्दिरों, मूर्तियों आदि को नष्ट कर दिया था और वह देश की दुर्लभ अनेक कलाकृतियों को अपने साथ गजनी ले गया था।

(4) पंजाब को गजनी राज्य में मिला लिए जाने से भविष्य के लिए मुसलमान आक्रमणकारियों का भारत में आने तथा अपना साम्राज्य स्थापित का मार्ग प्रशस्त हो गया।

इस प्रकार महमूद के आक्रमणों के फलस्वरूप भारत को आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत अधिक हानि उठानी पड़ी थी। इस सम्बन्ध में अलबरूनी ने लिखा है, “महमूद ने देश की समृद्धि को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया और आश्चर्यजनक कार्यों का सम्पादन किया जिससे हिन्दुओं को बालू के कणों की भाँति बिखरा दिया गया। उनके बिखरे अवशेष वास्तव में मुसलमानों से घोर घृणा करने लगे थे।”

मुहम्मद गोरी का परिचय (Introduction of Muhammad Ghori

मुहम्मद गोरी एक महत्त्वाकांक्षी एवं कट्टर मुसलमान शासक था। वह गजनी और हिरात के बीच स्थित गोर प्रदेश का निवासी था। उसका वास्तविक नाम मुईनुद्दीन मुहम्मद गोरी उर्फ शहाबुद्दीन गोरी था। महमूद की मृत्यु के बाद गोरी के भाई ग्यासुद्दीन ने 1173 ई० में गजनी पर अधिकार कर लिया और गजनी के शासन-प्रबन्ध का उत्तरदायित्व मुहम्मद गोरी को सौंप दिया। मुहम्मद गोरी जीवनपर्यन्त अपने भाई ग्यासुद्दीन के प्रति निष्ठावान रहा।

मुहम्मद गोरी के उद्देश्य (कारण)-मुहम्मद गोरी के भारत पर आक्रमण करने अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी और धर्मान्ध शासक था। भारत पर उसके आक्रमण के निम्नांकित उद्देश्य  थे-

(1) अपने साम्राज्य की सीमा बढ़ाना।

(2) भारत से अतुल धनराशि प्राप्त करना।

(3) मुल्तान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना।

(4) भारत में इस्लाम धर्म का प्रसार करना एवं मूर्तिपूजा का विनाश करना।

(5) महमूद गजनवी के अन्तिम उत्तराधिकारी मलिक खुसरो को समाप्त करना।

(6) मध्य एशिया में अपने शत्रु ख्वारिज्म के शासक का अन्त करने के लिए सुदृढ़ भारतीय साम्राज्य की स्थापना करना।

मुहम्मद गोरी के भारत पर आक्रमण ( (Muhammad Ghori’s Invasions on India)

मुहम्मद गोरी ने 1175 ई० से 1205 ई० तक भारत पर अनेक आक्रमण किए, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-

 (1) मुल्तान एवं उच्छ पर विजय-मुहम्मद गोरी ने 1175 ई० में मुल्तान पर आक्रमण किया। उसने भाग्य के बल पर बड़ी सरलता से मुल्तान पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् 1176 ई० में उसने उच्छ के दुर्ग पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि उसने उच्छ के भट्टी राजा की रानी के पास यह सन्देश भिजवाया कि यदि तुम दुर्ग के द्वार खुलवा दोगी तो मैं तुम्हें अपनी पटरानी बना लूँगा। वहाँ की रानी ने अपने पति के साथ विश्वासघात किया और मुहम्मद गोरी का साथ दिया, किन्तु मुहम्मद गोरी ने उसे धोखा देकर वहाँ के शासक की हत्या करवा दी और उच्छ के दुर्ग पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। ऐसा कहा जाता है कि बाद में मुहम्मद गोरी ने धोखबाज रानी को बन्दी बनाकर उसकी पुत्री से विवाह कर लिया।

(2) गुजरात के आबू पर्वत एवं अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण मुहम्मद गोरी ने 1178 ई० में गुजरात पर आक्रमण किया। गुजरात के राजा मूलराज ने आबू पर्वत के समीप गोरी को बुरी तरह पराजित किया। मूलराज से परास्त होकर गोरी ने अन्हिलवाड़ा पर आक्रमण किया। अन्हिलवाड़ा का शासक भीमदेव बड़ा वीर और साहसी था। अत: उसने मुहम्मद गोरी का वीरतापूर्वक सामना किया और उसे पराजित कर दिया। उसने गोरी अपने देश से बाहर खदेड़ दिया और उसके अनेक सैनिकों को बन्दी बना लिया।

 (3) पेशावर व पंजाब पर विजय-गुजरात में पराजित होने के पश्चात् 1180 ई० में मुहम्मद गोरी ने पेशावर पर आक्रमण करके उसे अपने अधिकार में ले लिया। 1185 ई० में मुहम्मद गोरी ने लाहौर पर आक्रमण करके लाहौर के शासक मलिक खुसरो को छलपूर्वक बन्दी बना लिया। इस प्रकार, उसने पंजाब पर भी अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर लिया।

(4) तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई०)-पंजाब पर पूर्ण अधिकार करने के पश्चात् गोरी ने दिल्ली-अजमेर राज्य पर आक्रमण करने का विचार किया। उस समय चौहान वंश का प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान यहाँ पर शासन कर रहा था। उसने मुहम्मद गोरी का सामना करने के लिए राजपूत शासकों का एक संघ बनाया। 1191 ई० में थानेश्वर से 14 मील दूर तराइन नामक स्थान पर गोरी एवं राजपूती सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। राजपूतों की वीरता देखकर गोरी के सैनिकों के छक्के छूट गए और गोरी को पराजित होकर भागना पड़ा।

(5) तराइन का द्वितीय युद्ध ( 1192 ई०)-मुहम्मद गोरी, दूसरी बार 1192 ई० में 1 लाख 20 हजार योद्धाओं के साथ पुन: तराइन के मैदान में उतरा। इस बार भी तराइन में राजपूतों और मुहम्मद गोरी के मध्य घमासान युद्ध हुआ। फरिश्ता के कथानुसार, “तराइन के पवित्र रणक्षेत्र में भारत के 150 राजाओं के नेतृत्व में पाँच लाख घुड़सवार, तीन हजार हाथी तथा एक विशाल पैदल सेना एकत्र थी।” तराइन के इस द्वितीय युद्ध में मुहम्मद गोरी की विजय हुई। कुछ विद्वानों के मतानुसार, पृथ्वीराज चौहान युद्धस्थल में ही स्वर्गवासी हो गया। इसके विपरीत कुछ विद्वानों के अनुसार पृथ्वीराज को ‘सुरसती’ नामक स्थान पर बन्दी बना लिया गया और बाद में अजमेर में उसका वध कर दिया गया। इस युद्ध के परिणामों ने भारत के भाग्य को बदल दिया था और भारत में एक नवीन विदेशी मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई थी। इस निर्णायक युद्ध के सन्दर्भ में विन्सेण्ट स्मिथ ने लिखा है, “1192 ई० के तराइन के युद्ध को निर्णायक युद्ध कहा जा सकता है, क्योंकि इससे हिन्दुस्तान में मुसलमानों की अन्तिम विजय सुनिश्चित हो गई। इसके बाद मुसलमानों को जो अनेक विजयें प्राप्त हुईं वे तो हिन्दुओं के संगठित मोर्चे की उस महान पराजय का परिणाम मात्र थीं, जो उन्हें दिल्ली के उत्तर में स्थित रणक्षेत्र में भुगतनी पड़ी थीं।”

(6) अन्य आक्रमण-1193 ई० में मुहम्मद गोरी ने मेरठ, दिल्ली तथा कोल (अलीगढ़) पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सन् 1194 ई० में गोरी ने अपने मित्र कन्नौज के राजा जयचन्द पर भी आक्रमण कर दिया और चन्दावर के युद्ध में जयचन्द को मौत के घाट उतारकर कन्नौज पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके पश्चात् मुहम्मद गोरी अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारतीय साम्राज्य का वाइसराय बनाकर गोर प्रदेश लौट गया।

गोरी की मृत्यु-15 मार्च, 1206 ई० को गोरी स्वदेश जाते समय मार्ग में विद्रोहियों और खोखरों द्वारा मारा गया। कुछ शिया

मुहम्मद गोरी व महमूद गजनवी की तुलना (Comparison between Mohammad Ghori and Mahmud Gaznavi)

मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की तुलना अग्रलिखित आधारों पर की जा सकती है-

(1) दोनों के भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य भिन्न थे। मुहम्मद गोरी कुशल रणनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी शासक था। अत: उसका उद्देश्य भारत में स्थायी राज्य स्थापित करना और अपने धर्म का प्रसार एवं प्रचार करना था। इसके विपरीत, महमूद गजनवी ने केवल धन लूटने के उद्देश्य से ही भारत पर आक्रमण किए थे।

(2) महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किए और कभी भी पराजित नहीं हुआ, जबकि मुहम्मद गोरी ने उसकी अपेक्षा भारत पर कम आक्रमण किए और उसे कई बार पराजय का मुँह देखना पड़ा।

(3) मुहम्मद गोरी, महमूद गजनवी के समान न तो महान् सेनापति था और न ही कुशल योद्धा, किन्तु फिर भी वह गजनवी की अपेक्षा अधिक भाग्यशाली अवश्य था।

(4) गोरी, महमूद की तुलना में अधिक दूरदर्शी एवं योग्य राजनीतिज्ञ था।

(5) गोरी की विजयें महमूद गजनवी की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण और स्थायी थीं।

(6) गोरी की तुलना में महमूद अधिक कुशल था। इसी कारण वह अपने पूर्वजों से मिले छोटे-से राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित करने में सफल रहा और भारत की विशाल धन-सम्पदा गजनी ले जा सका।

(7) विजय के दृष्टिकोण से महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी से अधिक महान् था। महमूद के साम्राज्य में ईरान, खुरासान तथा बुखारा आदि भारत से बाहर के क्षेत्र भी सम्मिलित थे, परन्तु भारतीय क्षेत्र में मुहम्मद गोरी की विजय अधिक विस्तृत थी।

(8) एलफिन्स्टन के अनुसार, “यद्यपि मुहम्मद गोरी एक साहसी सैनिक था, परन्तु न तो उसमें महमूद की सी बुद्धि थी और न ही प्रतिभा।”

(9) महमूद गजनवी में मुहम्मद गोरी से अधिक कार्यक्षमता थी। प्रो० हबीब का कथन है कि “महमूद ने जिस काम को उठाया वह असफल नहीं हुआ, क्योंकि उसने कभी असम्भव काम को हाथ में लिया ही नहीं। किन्तु मुहम्मद गोरी में यह बात नहीं थी, वह कभी-कभी ऐसे काम अपने ऊपर ले लेता था, जिनको पूरा करने की क्षमता उसमें नहीं थी।”

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि महमूद गजनवी के आक्रमणों का प्रमुख उद्देश्य भारत से धन लूटना था, जबकि मुहम्मद गोरी ने भारत में अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने के उद्देश्य से आक्रमण किया था। अत: महमूद के आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारत की आर्थिक दशा बहुत शोचनीय हो गई तथा मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के फलस्वरूप भारत में मुसलमानों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली। मुहम्मद गोरी के दास कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ई० में भारत में गुलाम वंश की स्थापना की।

भारत में मुस्लिम आक्रमणों का प्रभाव (Effects of Muslim Invasions on India)

भारत पर 712 ई० में प्रथम मुस्लिम आक्रमण हुआ था। इस आक्रमण के फलस्वरूप अरबों को सिन्ध पर विजय प्राप्त हुई। इसके उपरान्त महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी ने भारत पर अनेक आक्रमण किए। महमूद गजनवी के आक्रमण से मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिए भारत पर आक्रमण करने का एक नवीन मार्ग खुल गया और भारत पर निरन्तर अनेक मुस्लिम आक्रमण होते चले गए। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से इन आक्रमणों का भारत पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव का संक्षिप्त विवरण अग्रवत् है-

(1) राजनीतिक प्रभाव-मुस्लिम आक्रमणों के परिणामस्वरूप विदेशियों के लिए भारत पर आक्रमण करने का एक नवीन मार्ग खुल गया और भविष्य में उत्तर-पश्चिम दिशा से भारत पर जितने भी आक्रमण हुए, वे सभी इसी मार्ग से हुए। महमूद गजनवी के आक्रमण से ही विदेशियों को यह ज्ञात हो गया कि भारतीय सेनाओं की रणनीति एवं सैन्य संगठन अत्यन्त कमजोर है। उन्हें यह पता चल गया कि भारतीय सैनिकों की दुर्बलताओं के कारण उन्हें सुगमता से पराजित किया जा सकता है। पंजाब को गजनी में मिला लिए जाने से भविष्य में मुस्लिम आक्रमणकारियों का भारत में आने तथा भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

भारत में मुस्लिम आक्रमणों के परिणामस्वरूप राजपूतों द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढाँचा ध्वस्त होता चला गया। सामन्तों के अधिकार छीनकर मुस्लिमों ने अपने हाथों में ले लिए। सत्ता का केन्द्रीकरण होना प्रारम्भ हुआ और राजपूती राज्यों का अस्तित्व समाप्त होता चला गया।

(2) सामाजिक प्रभाव-मुस्लिम आक्रमण का भारतीयों के खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा आदि पर भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। मुसलमानों में दास-प्रथा प्रचलित थी; अत: भारतीय समाज में भी दासों के समान नौकर रखने की प्रथा का जन्म हुआ। मुस्लिम शासकों ने सैनिक अधिकारियों को जागीरें प्रदान की थीं, इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में जमींदारी प्रथा का प्रचलन हो गया। मुसलमान शासकों ने कई स्थानों पर छल-कपट का सहारा लेकर हिन्दुओं से उनके किले छीन लिए। इससे प्रभावित होकर हिन्दुओं में भी छल-कपट के व्यवहार का प्रचलन हो गया और भारतीय समाज का नैतिक पतन प्रारम्भ हो गया। मुसलमानों से अपने धर्म और अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हिन्दुओं ने बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा आदि को कठोरता से स्वीकार कर लिया।

मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करने पर भी विवश किया। साथ ही कुछ हिन्दू जजिया-कर से बचने के लिए स्वत: ही मुसलमान बन गए। भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव की भावना ने भी अनेक हिन्दुओं को मुस्लिम बनने के लिए प्रेरित किया। सम्भवतः इसी कारण भारतीय समाज में विकसित हो रहे जाति-प्रथा के बन्धनों में कुछ शिथिलता आने लगी। इसके अतिरिक्त, भारत में साम्प्रदायिकता की भावना का उदय और समाज में वर्गवाद पर आधारित भावना का प्रसार भी मुस्लिम शासन का ही परिणाम रहा।

(3) आर्थिक प्रभाव-मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत की विपुल सम्पदा लूटी। विशेषकर महमूद गजनवी और गोरी के आक्रमणों से भारत को महान आर्थिक क्षति उठानी पड़ी। गजनवी ने हिन्दू मन्दिरों तथा भारतीय शासकों से अथाह सम्पत्ति लूटी और उसे अपने साथ गजनी ले गया। भारत में मुस्लिम शासन प्रारम्भ हो जाने के उपरान्त मुस्लिम शासकों ने भारत की अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान दिया। उनके प्रयासों के फलस्वरूप भारत की आर्थिक स्थिति में अनेक नवीन परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों ने विशेष रूप से नगरीय जीवन को प्रभावित किया। विदेशों से अनेक कारीगर और शिल्पी भारत में आए और नगरों में बस गए। नगरीय समाज में कुछ कारीगरों को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा। जुलाहे, जिनको जातीय आधार पर निम्न दृष्टि से देखा जाता था, उनको ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ। राजपूतों द्वारा बसाए गए नगरों में विभिन्न जातियों के लोग जाकर बस गए और वहाँ एक मिश्रित संस्कृति का विकास प्रारम्भ हुआ।

(4) सांस्कृतिक प्रभाव-गजनवी, गोरी आदि कई मुस्लिम आक्रमणकारियों के आक्रमणों के फलस्वरूप भारतीय साहित्य एवं कला की अपार क्षति हुई। उन्होंने कितने ही मन्दिरों और मूर्तियों को नष्ट कर दिया और देश की अनेक दुर्लभ कलाकृतियों को अपने साथ ले गए। जहाँ एक ओर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारतीय संस्कृति को अपार क्षति पहुँचाई, वहीं दूसरी ओर उन्होंने भारत में वास्तुकला पर आधारित एक नवीन कला-शैली को जन्म दिया। गुम्बद, ऊँची मीनार, मेहराब आदि विभिन्न विशेषताओं से युक्त इस कला-शैली पर आधारित अनेक भव्य स्मारकों का भारत में निर्माण हुआ। दिल्ली नगर कला का सर्वप्रमुख केन्द्र बन गया और यहाँ कई विश्व-प्रसिद्ध इमारतों का निर्माण हुआ। भारत में इस्लाम के आगमन के फलस्वरूप ही मदरसों की स्थापना हुई और फारसी भाषा का विकास हुआ। बाद में फारसी और हिन्दी भाषा के सम्पर्क से ही उर्दू भाषा का भी जन्म हुआ। हिन्दी, फारसी एवं उर्दू भाषा पर = आधारित नवीन साहित्य की दिशा में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई।

इस प्रकार मुस्लिम आक्रमणों के फलस्वरूप जहाँ एक ओर भारत को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अपार हानि उठानी पड़ी, वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज में अनेक नवीन परिवर्तन भी हुए। हिन्दुओं में एकता की भावना बलवती हुई और वे जातिगत संकीर्णताओं के परिणामों पर चिन्तन करने लगे। उनमें धीरे-धीरे अपने धर्म एव संस्कृति के प्रति गौरव की भावना का विकास होने लगा। यही कारण है कि राजनीतिक दृष्टि से हिन्दुओं का दमन करने और आर्थिक दृष्टि से उनका भरपूर शोषण करने के उपरान्त भी मुस्लिम शासक हिन्दुओं की सांस्कृतिक विचारधारा एवं उनकी आत्मा को नतमस्तक करने में विफल रहे।

राजपूतों की पराजय के कारण (Causes of the Defeat of Rajputs)

ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों को भारत में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई और राजपूत राजा उनके आक्रमणों को रोकने में असफल रहे तथा उनकी पराजय हुई। डॉ० स्मिथ, लेनपूल तथा एलफिन्स्टन आदि इतिहासकारों का मत है, “राजपूतों की पराजय इसलिए हुई की उनकी तुलना में तुर्क कहीं अधिक अच्छे सैनिक थे क्योंकि वे शीत प्रदेशों के निवासी थे, मांस खाते थे और युद्धप्रिय थे।”

परन्तु उक्त मत सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में भारतीय सैनिकों की वीरता एवं श्रेष्ठता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। दासता और पतन के युग से भी भारतीय सैनिक विश्व के विभिन्न युद्धक्षेत्रों में अपनी यौद्धिक प्रतिभा का परिचय दे चुके हैं। इतिहासकारों का कहना है कि पारस्परिक फूट और हाथियों के उपयोग के कारण राजपूत मुसलमानों से हार गए। परन्तु यह मत भी असंगत लगता है क्योंकि महमूद गजनवी ने हाथियों की शक्ति पर ही मध्य एशिया पर विजय प्राप्त की थी और भारत की भाँति ही मध्य एशिया में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे, जिनमें पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष की भावना भी विद्यमान थी। फिर भी डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव तथा डॉ० अवधबिहारी लाल पाण्डेय ने राजपूतों की पराजय के कुछ मूल कारणों का उल्लेख किया, जिनका विवरण अग्रलिखित हैं-

(I)राजनीतिक कारण

(1) राजपूतों में एकता का अभाव-तुर्कों के विरुद्ध राजपूतों की पराजय का प्रमुख कारण उनमें एकता का अभाव था। सम्पूर्ण भारत उस समय अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में बँटा हुआ था। प्रत्येक राज्य एक-दूसरे के प्रति संघर्ष करने की भावना से ओत-प्रोत था। अत: तुर्कों ने एक-एक करके सभी राज्यों पर बड़ी सुगमता से अधिकार कर लिया और अनेक राजपूत वंशों का अन्त कर दिया।

(2) वंश परम्परागत शासक होना-राजपूतों में एक शासक की मृत्यु के उपरान्त सिंहासन के उत्तराधिकारी वंश परम्परागत होते थे। इससे अनेक बार जब राज्य अयोग्य शासक के हाथ में चला जाता था तब तुर्क आक्रमणकारी अवसर का लाभ उठाकर उस राज्य पर अपना अधिकार कर लेते थे।

(3) सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा की उपेक्षा-राजपूत काल में वर्तमान की भाँति सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा की व्यवस्था नहीं थी। अत: मुसलमानों को भारत में प्रवेश करने में किसी प्रकार की असुविधा नहीं होती थी।

(4) परस्पर ईर्ष्या एवं द्वेष-राजपूत शासकों में पारस्परिक द्वेष की भावना इतनी अधिक थी कि वे संकट के समय में भी एकजुट होकर बाहरी शत्रुओं से सामना न कर सके और साथ ही दूसरे राजा को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने तुर्कों का साथ भी दिया।

(5) राष्ट्रीय भावना का अभाव-उस समय प्रत्येक राजपूत शासक अपने राज्य की रक्षा करना ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझता था। वे राष्ट्रीय भावना के महत्त्व को नहीं समझ सके। यही कारण था कि वे तुर्कों से पराजित हो गए।

(II) सामाजिक कारण

(1) जाति-प्रथा—इस समय जाति-प्रथा बहुत ही जटिल एवं दोषपूर्ण हो गई थी। समाज की शक्ति विभिन्न जातियों में बँट गई थी और युद्ध करने का उत्तरदायित्व केवल क्षत्रियों पर ही रह गया था। दूसरी ओर राजपूत शासक समस्त वर्गों पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे। अन्य वर्गों के व्यक्तियों को महत्त्वहीन समझा जाता था। इस प्रकार, तीन-चौथाई जनता का युद्ध में सहयोग न देना भी राजपूतों की पराजय का प्रमुख कारण बना।

(2) राजपूतों का नैतिक पतन-उस समय राजपूत अपने कर्तव्यों से विमुख हो गए थे। उनका चारित्रिक पतन प्रारम्भ हो गया था। वे नाच-गाने तथा भोग-विलास में व्यस्त रहते थे और अपने राज्यों की सुरक्षा का ध्यान भी ठीक तरह से नहीं रखते थे। इस स्थिति का महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी जैसे चतुर आक्रमणकारियों ने लाभ उठाया और वे अपनी प्रभुता स्थापित करने में सफल हुए।

(3) अहंकार की अधिकता-राजपूत अहंकार की भावना से ओत-प्रोत थे। उन्हें अपनी वीरता, साहस एवं रण-कौशल पर बड़ा अभिमान था। वे सोचते थे कि उन्होंने स्वयं अपने बल पर अपने राज्य की स्थापना की है; अत: अन्य शासकों से सहायता लेना वे अपना अपमान समझते थे। ऐसी अहंकार की स्थिति में विदेशियों के आक्रमण करने पर, उनकी पराजय निश्चित थी।

(4) मुसलमानों में धार्मिक जोश तथा एकता की भावना-मुसलमान आक्रमणकारियों में धार्मिक जोश तथा एकता की प्रबल भावना थी। उनकी एकता की इस भावना ने ही राजपूतों को पराजित करने में विशेष योगदान दिया।

(III) सैनिक कारण

(1) राजपूतों की सेनाओं का दोषपूर्ण संगठन–राजपूतों की सेना में सैनिक संगठन की श्रेष्ठता का अभाव था। उनकी सेनाएँ अव्यवस्थित होती थीं। उनकी सेवाओं में या तो सैनिक हाथियों पर बैठकर युद्ध स्थल में आते थे या पैदल। दोनों ही मुसलमानों की अश्वारोही सेना के सामने टिक नहीं पाते थे, क्योंकि भारतीय हाथी प्राय: युद्ध स्थल पर जाकर बिगड़ जाते थे और कभी-कभी तो जिस हाथी पर सेनापति बैठा होता था वही बिगड़कर युद्ध स्थल से भाग जाता था जिसे देखकर शेष सेना में भी भगदड़ मच जाती थी। इस स्थिति में तुर्क सरलता से विजयी हो जाते थे। महमूद गजनवी ने तो अनेक युद्ध हाथियों की भगदड़ का लाभ उठाकर ही जीते थे। इसलिए यह कथन भी सही है कि राजपूत सेना में हाथियों का प्रयोग बहुत ही विनाशकारी सिद्ध हुआ था। तरह

(2) सुरक्षित (रिजर्व) सेना का अभाव-राजपूत सेना में आजकल की रक्षा-सेना की व्यवस्था नहीं थी। समस्त सेना एक साथ ही युद्ध क्षेत्र में पहुँच जाती थी, किन्तु तुर्क सेनाओं की व्यवस्था बहुत अच्छी थी। वे एक पृथक् सेना सुरक्षित सेना के रूप में भी रखते थे। जब राजपूत योद्धा थक जाते थे, तब तुर्क लोग अपनी सुरक्षित सेना को युद्ध स्थल में उतार देते थे जिसका सामना थके राजपूत सैनिक नहीं कर पाते थे और लड़खड़ा कर वहीं धराशायी हो जाते थे।

(3) सैनिकों की संख्या कम होना-राजपूतों की पराजय का एक प्रमुख कारण यह भी था कि उनके पास सैनिक शक्ति अर्थात् सैनिकों की संख्या तुर्कों एवं मुसलमानों की तुलना में बहुत ही कम थी। इसका कारण यह था कि वर्ण-व्यवस्था के अनुसार केवल राजपूत जाति को ही युद्ध करने का अधिकार प्राप्त था। इसके विपरीत, मुसलमानों में कोई भी जाति युद्ध में भाग ले सकती थी।

(4) आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का अभाव-मुसलमानों के पास युद्ध के अधिकतम एवं नवीनतम अस्त्र-शस्त्र होते थे। दूसरी ओर राजपूत अपने बाहुबल पर युद्ध करने में विश्वास रखते थे। वे ढोल और तलवार का प्रयोग करते थे, किन्तु मुसलमान तीर-कमानों का प्रयोग करते थे। तुर्क लोग दूर से ही निशाना साधकर तीर छोड़ देते थे, किन्तु राजपूतों को बिल्कुल निकट जाकर लड़ना पड़ता था। इससे वे शत्रुओं के तीरों से शीघ्र ही घायल हो जाते थे।

(IV) धार्मिक कारण

1. हिन्दुओं का ईश्वरीय शक्ति में अन्धविश्वास-राजपूत अनेक देवी-देवताओं की अराधना करते थे। संकट के समय उनके आराध्य देवता उनकी सहायता अवश्य करेंगे, इस विश्वास के कारण वे ईश्वरीय शक्ति पर अधिक विश्वास करते थे और अपनी सैन्य शक्ति की ओर अधिक ध्यान नहीं देते थे। इतना ही नहीं, अपनी असीम भक्ति-भावना के कारण वे मन्दिरों का निर्माण करवाते थे और वहाँ पर असीम धन एकत्र करके रखते थे। इसीलिए सोमनाथ के मन्दिर पर महमूद गजनवी ने आक्रमण करके उसे खूब लूटा था। सोमनाथ मन्दिर के पुजारियों का विश्वास था कि भगवान स्वयं ही आकर उनकी रक्षा करेंगे।

(2) युद्ध के सिद्धान्त की प्रमुखता-राजपूत धार्मिक युद्ध के पक्षपाती थे अर्थात् युद्ध के सिद्धान्तों को अत्यधिक मानते थे और वे शत्रु को धोखे से मारना या शरणागत ही हत्या करना अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। वे सत्य और दया के पक्षपाती थे, किन्तु तुर्क आक्रमणकारी अवसरवादी थे। उनका सिद्धान्त था कि युद्ध में किसी भी प्रकार विजय प्राप्त करनी ही है, विजय ही उनका एकमात्र धर्म है।

(3) मुसलमानों की जेहाद-भावना-मुसलमान सैनिक किसी भी युद्ध को इस्लाम धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। युद्ध में अपनी जान देकर वे समझते थे कि हमने धर्म, अल्लाह या खुदा की रक्षा की है। यह जेहाद की भावना ही मुसलमानों की विजय का प्रमुख कारण थी।

(v) तात्कालिक कारण

कुछ तात्कालिक कारणों ने भी राजपूतों की विजय को पराजय में बदल दिया। उदाहरण के लिए, जब पृथ्वीराज चौहान हाथी से उतरकर घोड़े पर चढ़ा तो सेना ने समझा कि वह मारा गया और वह भाग खड़ी हुई। राजा जयचन्द की आँख में अचानक तीर लग गया और राजपूत सेना में भगदड़ मच गई। इसी प्रकार के कुछ अन्य कारण भी राजपूतों की पराजय में सहायक हुए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1-महमूद गजनवी के किन्हीं चार प्रसिद्ध आक्रमणों का विवरण दीजिए।

उत्तर-महमूद गजनवी के चार प्रसिद्ध आक्रमणों का विवरण इस प्रकार है-

(1) जयपाल पर आक्रमण-1001 ई० में गजनवी ने पंजाब और पेशावर के राजा जयपाल पर आक्रमण कर उसे परास्त किया।

(2) आनन्दपाल पर आक्रमण-1008 ई० में महमूद गजनवी ने आनन्दपाल पर आक्रमण किया। आनन्दपाल बड़ी वीरता से लड़ा, परन्तु दुर्भाग्य से युद्धस्थल में आनन्दपाल का हाथी बिगड़ गया और उसकी पराजय हुई।

(3) नगरकोट का आक्रमण-1010 ई० में किए गए इस युद्ध में भी हिन्दुओं की घोर पराजय हुई।

(4) थानेश्वर पर आक्रमण-1012 ई० में किए गए इस आक्रमण में महमूद ने थानेश्वर के मन्दिरों को लूटा और वहाँ की स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार किया।

प्रश्न 2-महमूद गजनवी द्वारा आक्रमित किन्हीं चार राज्यों के नाम लिखिए।

उत्तर-महमूद गजनवी द्वारा आक्रमित चार राज्यों के नाम हैं-

(1) मुल्तान,

(2) मथुरा,

(3) पंजाब, और

(4) थानेश्वर।

प्रश्न 3–मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय उत्तरी भारत की राजनीतिक दशा किस प्रकार की थी?

उत्तर-मुहम्मद गोरी के आक्रमण के समय उत्तरी भारत के पाँच प्रसिद्ध राजपूत राज्य थे। ये राज्य थे—कन्नौज, बिहार, गुजरात, बंगाल तथा दिल्ली व अजमेर का राज्य। उत्तरी भारत के ये राज्य आपसी फूट के कारण मुसलमानों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाकर युद्ध करने को तैयार न थे। इसी कारण वे मुस्लिम आक्रमणों का सामना करने में विफल हुए।

प्रश्न 4- निम्नांकित ऐतिहासिक व्यक्तियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए

उत्तर-(1) अलबरूनी-अलबरूनी का वास्तविक नाम अबूरिहान था। उसका जन्म 973 ई० में खीवा प्रान्त (मध्य एशिया) में हुआ था। खीवा प्रदेश पर विजय प्राप्त करने के बाद महमूद गजनवी इसे अपने साथ पकड़कर ले गया था। इसके बाद अलबरूनी महमूद गजनवी के साथ भारत आया था। अलबरूनी ने अपनी पुस्तक ‘तहकीके-हिन्द’ में हिन्दुओं के जीवन, चरित्र, विज्ञान, कलाओं तथा रीति-रिवाजों के सम्बन्ध में अत्यन्त सजीव और मनोरंजक वर्णन किया है।

(2) मुहम्मद-बिन-कासिम-मुहम्मद-बिन-कासिम इराक के गवर्नर हज्जाज का दामाद था। सिन्ध के राजा दाहिर को दण्ड देने के लिए हज्जाज ने 712 ई० में मुहम्मद-बिन-कासिम को सिन्ध पर आक्रमण करने का आदेश दिया। मुहम्मद-बिन-कासिम ने सिन्ध में प्रवेश कर, सिन्ध प्रदेश के अनेक नगरों पर अधिकार कर लिया और राजा दाहिर को मार डाला। मुहम्मद-बिन-कासिम ने दाहिर की दो पुत्रियों को उपहारस्वरूप खलीफा के पास भेज दिया। मुल्तान की विजय करने के पश्चात् मुहम्मद-बिन-कासिम वापस लौटा तो दाहिर की पुत्रियों ने उस पर सतीत्व भंग करने का आरोप लगाया, जिससे क्रोधित होकर खलीफा ने मुहम्मद-बिन-कासिम को बैल की खाल में जिन्दा सिलवाकर मरवा दिया।

(3) फिरदौसी-महमूद गजनवी का समकालीन फिरदौसी फारसी भाषा का प्रकाण्ड विद्वान और विश्वविख्यात शायर था। उसका जन्म खुरासान के इस नगर में हुआ था। उसका वास्तविक नाम अबुल कासिम हसन था। फिरदौसी की अविस्मरणीय रचना ‘शाहनामा’ है। इस ग्रन्थ की रचना फिरदौसी ने महमूद गजनवी के आदेश पर की थी। इस ग्रन्थ में 60 हजार श्लोक (रुबाइयाँ) हैं। महमूद ने फिरदौसी को एक श्लोक पर एक स्वर्ण दीनार देने का वचन दिया था, लेकिन महमूद ने फिरदौसी के जीवन-काल में अपने वचन का पालन नहीं किया और फिरदौसी, दुःखद मृत्यु को प्राप्त हुआ। फिरदौसी का महाकाव्य ‘यूसुफ व जुलेखा’ भी, विश्व-साहित्य की एक अमूल्य निधि माना जाता है।

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