1857 की क्रान्ति (Revolution of 1857
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब शिक्षित भारतीयों को फ्रांस की क्रान्ति, यूनान के स्वाधीनता संग्राम, इटली तथा जर्मनी के एकीकरण आदि बातों की जानकारी मिली, तो उनमें भी अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने भावना उत्पन्न हो गई। अंग्रेजों की दमन व
शोषण-नीति से तो भारतीय जनता पहले से ही रुष्ट थी। जनता ने अनेक छोटी-छोटी क्रान्तियों द्वारा अपने असन्तोष का प्रदर्शन भी किया था। लेकिन अंग्रेज सरकार सैनिक बल से इन क्रान्तियों पर काबू पाने में सफल रही। परन्तु 1806 ई० को वेल्लौर (कर्नाटक) में हुई सैनिक क्रान्ति ब्रिटिश शासन के विरुद्ध की गई पहली गम्भीर क्रान्ति थी। 1796 ई० में अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों को आदेश दिया कि वे दाढ़ी न रखें, तिलक न लगाएँ, कानों में बालियाँ न पहनें और पगड़ी के स्थान पर टोप पहनें। इस आदेश से रुष्ट होकर भारतीय सैनिकों ने क्रान्ति कर दी। 10 जुलाई, 1806 ई० को हुई इस क्रान्ति का दमन करने में अंग्रेजों को सफलता अवश्य मिल गई, परन्तु यह क्रान्ति उस महाक्रान्ति की शुरुआत थी, जो 1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम के रूप में प्रकट हुई।
सन् 1857 ई० में अंग्रेजी शासकों की अत्याचारपूर्ण तथा दमनकारी नीति के विरुद्ध भारतीयों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए सशस्त्र क्रान्ति की, जिसे भारतीय इतिहास में 1857 ई० की महाक्रान्ति, 1857 ई० की क्रान्ति, प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा सैनिक क्रान्ति आदि नामों से पुकारा जाता है।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के कारण
सन् 1857 ई० के स्वाधीनता संग्राम में प्लासी के युद्ध के पश्चात् 100 वर्षों तक एकत्रित हुए कारणों का विस्फोट था। कुछ विद्वानों के मत में संग्राम के कोई दूरगामी कारण नहीं थे तथा केवल चर्बी वाले कारतूसों से असन्तुष्ट होकर सैनिकों ने क्रान्ति कर दी थी। लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार ने भारत में असन्तोष जाग्रत कर दिया था। यह असन्तोष बहुत दिनों से चला आ रहा था तथा कुछ राजनीतिक नेताओं के नेतृत्व में इस असन्तोष का प्रदर्शन भारतीयों ने क्रान्ति के रूप में किया। यह केवल सैनिक क्रान्ति नहीं थी। इस क्रान्ति के कारणों को छह प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) राजनीतिक कारण,
(2) सामाजिक कारण,
(3) धार्मिक कारण,
(4) आर्थिक कारण,
(5) सैनिक कारण,
(6) तात्कालिक कारण।
1. राजनीतिक कारण – (i) अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति-वारेन हेस्टिंग्ज, लॉर्ड वेलेजली तथा लॉर्ड डलहौजी जैसे गवर्नर जनरलों ने अनेक भारतीय राज्यों का अन्त कर डाला। लॉर्ड डलहौजी की उग्र नीति तो क्रान्ति का प्रमुख राजनीतिक कारण बनी क्योंकि उसने उचित तथा अनुचित प्रत्येक ढंग से अनेक राज्यों का अपहरण किया। उसने गोद-निषेध नीति के द्वारा अनेक राज्यों को अपने अधीन कर लिया। सतारा तथा नागपुर के अपहरण से मराठे उत्तेजित हो उठे। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई भी लॉर्ड डलहौजी के व्यवहार से अत्यन्त रुष्ट हुईं। नाना साहब की पेंशन जब्त करके लॉर्ड डलहौजी ने उन्हें अपना शत्रु बना लिया। अवध पर अधिकार तो लॉर्ड डलहौजी की खुली डकैती ही मानी जाती है, जिसका उसके पास कोई उत्तर न था। इतनी उग्र नीति से अन्य देशी राज्यों में भी सनसनी फैली तथा उन्होंने यह अनुमान लगाया कि कुछ समय पश्चात् किसी-न-किसी तरीके से उनके राज्यों का भी अपहरण किया जा सकता है। इस प्रकार लॉर्ड डलहौजी की नीति ने क्रान्ति के कारणों को अत्यधिक बढ़ा दिया। उसकी नीति के कारण क्रान्ति का शीघ्रतापूर्वक सम्पादन हुआ तथा असन्तुष्ट व्यक्तियों ने अपना विरोध प्रकट किया।
(ii) अपदस्थ सैनिक-जिन राज्यों का अपहरण किया गया था, उनके उच्चाधिकारियों को पदच्युत कर दिया गया क्योंकि अंग्रेजों की यह नीति थी कि उच्च पद भारतीयों को न दिए जाएँ। इससे बेकार सैनिकों में असन्तोष फैला। लगभग 60,000 सैनिक राज्यों का अपहरण होने के कारण बेकार हो गए थे जो अंग्रेजों के घोर शत्रु बन गए क्योंकि अंग्रेजों के कारण ही उनको पदों से वंचित किया गया था।
(iii) शासक एवं शासित वर्ग में भेद-यद्यपि मुस्लिम काल में भी शासक एवं शासित वर्ग में प्रारम्भ में भेद रहा था किन्तु यह भेद धीरे-धीरे कम होता गया तथा हिन्दू-मुस्लिम परस्पर सहयोग की भावना से कार्य करने लगे। मुगल शासक भारतीय भूमि को ही अपनी मातृभूमि मानते थे किन्तु अंग्रेजों की मातृभूमि इंग्लैण्ड थी तथा उन्हें भारत एवं भारतीयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। अंग्रेजों ने न तो कभी भारतीय भाषाओं को सीखने का प्रयास किया और न कभी भारतीयों से अपने सम्पर्क स्थापित किए। वह शासक वर्ग था, जिसका ध्यान हमेशा अपने राष्ट्र का कल्याण था और शासित वर्ग अब धीरे-धीरे निर्धन बनता जा रहा था। अंग्रेजों की इस नीति ने जमींदारों को अप्रसन्न कर दिया था तथा क्रान्ति के समय इन असन्तुष्ट जमींदारों ने क्रान्तिकारियों की धन से बहुत सहायता की।
2. सामाजिक कारण – (i) समाज का विभाजन-अंग्रेज भारतीयों से कोई सामाजिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। भारतवासियों के साथ पशुतुल्य व्यवहार किया जाता था। उनको अपमानित किया जाता था। उच्च वर्ग के भारतीयों से भी अंग्रेज सम्पर्क नहीं रखते थे तथा अपदस्थ हो जाने के कारण उनका सामाजिक सम्मान नष्ट हो गया था। अंग्रेजों ने भारत के रीति-रिवाजों की अवहेलना करके अपनी सभ्यता को जबरन भारतीयों पर लागू करने का प्रयास किया था।
(ii) अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रति भारतीयों का असन्तोष—भारत के लोग अंग्रेजों को सन्दिग्ध दृष्टि से देखते थे कि सम्भवतः उनको ईसाई बनाने का प्रयास किया जा रहा है। अंग्रेजों ने भारत में जिस प्रकार की शिक्षा-पद्धति लागू की, वह भारतीयों की परम्परा के प्रतिकूल थी। उन्होंने धार्मिक शिक्षा का बहिष्कार किया तथा जाति के नियमों का उल्लंघन किया। अंग्रेजी शिक्षा प्रसार द्वारा अंग्रेजों ने भारतवासियों का एक ऐसा वर्ग निर्मित कर दिया जो भारत तथा भारतीय संस्कृति से घृणा करने लगा। ऐसी शिक्षा पद्धति को सन्दिग्ध दृष्टि से देखना भारतीयों के लिए स्वाभाविक ही था।
(iii) सामाजिक सुधारों के प्रति असन्तोष-इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने भारतीय समाज को सुधारने के लिए समाज सुधार प्रारम्भ किया। सती-प्रथा, बाल-हत्या, बाल-विवाह आदि कुप्रथाओं के विरुद्ध नियम बनाए गए तथा विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहन दिया गया। इन सुधारों को भी भारतीय सन्दिग्ध दृष्टि से देखते थे। इन सामाजिक सुधारों से देश की जनता ने सोचा कि ब्रिटिश सरकार उसे धर्मभ्रष्ट कर ईसाई बनाना चाहती है। रूढ़िवादियों का विचार था कि इन कुप्रथाओं को हटाकर अंग्रेज भारतीय सभ्यता का विनाश करना चाहते हैं। यद्यपि अंग्रेजों ने इन कुप्रथाओं को हटाकर भारत का कल्याण किया किन्तु रूढ़िवादी भारतीय अंग्रेजों के प्रत्येक कार्य को सन्दिग्ध दृष्टि से देखते थे। जब लॉर्ड डलहौजी ने यात के साधनों को सुधारने के लिए रेल, तार एवं डाक व्यवस्था स्थापित की तो भारतीय अत्यन्त क्रुद्ध हुए। उन्हें भय था कि इन सब बातों के द्वारा अंग्रेज भारतीय धर्म पर प्रहार कर रहे हैं। अत: इन सुधारों ने भारतीयों के असन्तोष में अत्यधिक वृद्धि की।
3. धार्मिक कारण-अंग्रेज मुस्लिम शासकों के समान धर्मान्ध नहीं थे तथा धर्मप्रधान देश भारत में उन्होंने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कभी भी प्रयास नहीं किया। परन्तु जब अंग्रेज व्यापारियों के साथ धर्म-प्रचारक भी भारत में आ बसे और उन्होंने ईसाई मत का प्रसार प्रारम्भ कर दिया तो उन्हें सरकारी कोष से धन दिया जाता था तथा ईसाई बनने वाले व्यक्तियों को पद प्रदान करने में प्राथमिकता मिलती थी। अनेक बार धर्म-प्रचारक उद्दण्डता का व्यवहार करते थे। इसलिए भारतीयों को इन धर्म-प्रचारकों से घृणा होने लगी।
यद्यपि अंग्रेजों ने प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू धर्म अथवा इस्लाम धर्म के मामलों में कभी हस्तक्षेप नहीं किया किन्तु उनके कुछ कार्यों ने भारतीयों को क्रुद्ध कर दिया। सर्वप्रथम, लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने एक नियम पारित किया जिसके द्वारा ईसाई धर्म को अपनाने पर हिन्दू पिता की सम्पत्ति में पुत्र को भाग मिलता था। यद्यपि यह बात भी हिन्दू धर्म के विरुद्ध थी किन्तु इसका कोई ध्यान नहीं किया गया। इसके अतिरिक्त लॉर्ड डलहौजी की गोद-निषेध नीति ने भी हिन्दू धर्मावलम्बियों को असन्तुष्ट किया क्योंकि गोद लेने की प्रथा धार्मिक थी।
4. आर्थिक कारण-भारत प्रारम्भ से ही धन-सम्पन्न देश था; यद्यपि समय-समय पर यहाँ अनेक आक्रमणकारी आए और उन्होंने भारत की अपार म्पत्ति लूटी तब भी भारत में कभी धन का अभाव नहीं रहा। मुगलकाल के बादशाहों ने भारत का अपार धन अपने शौक एवं विलासिता पर व्यय किया किन्तु तब भी भारत एक धनी देश था क्योंकि इन लोगों ने आय के मुख्य स्रोत पर कभी प्रहार नहीं किया।
(i) भारतीय व्यापार का नष्ट होना-भारत की आय का प्रमुख साधन विदेशों से व्यापार था। भारत का बना हुआ कपड़ा तथा अन्य विलास की सामग्री यूरोप में अत्यधिक मात्रा में खरीदी जाती थी तथा उसके बदले में भारत में बहुमूल्य पत्थर एवं धातुएँ आती थीं जिनसे भारत धनी देश बना था। किन्तु अंग्रेज भारत में व्यापार के लिए आए थे, अतः उन्होंने सर्वप्रथम भारत के व्यापार का अन्त कर दिया। भारत में माल बनना बन्द हो गया तथा भारत छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए बाह्य देशों पर निर्भर हो गया।
(ii) बेकारी का जन्म-भूमि इतनी अधिक नहीं थी कि सम्पूर्ण देश की जनता का पेट भर सकती, अत: बेकारी की समस्या का जन्म हुआ। देशी राज्यों के अपहरण के कारण हजारों व्यक्ति बेकार हो गए तथा सरकार इनको कार्य दिलाना अपना कर्त्तव्य नहीं समझती थी। इन बेकार व्यक्तियों का असन्तोष एवं अंग्रेजों के प्रति घृणा की भावना क्रान्ति के समय स्पष्ट दृष्टिगोचर हुई। इस प्रकार भारतीय समाज एवं आर्थिक ढाँचे की व्यवस्था को अंग्नेजों ने अव्यवस्था में परिवर्तित कर दिया।
5. सैनिक कारण – (i) भारतीय सैनिकों के प्रति व्यवहार—भारतीय सैनिक लगभग ढाई लाख थे जबकि अंग्रेज सैनिक 50,000 से भी कम थे किन्तु समस्त उच्च पद अंग्रेज सैनिकों को ही मिलते थे। अंग्रेजों को वेतन, पदोन्नति एवं भत्तों आदि में भारतीयों की अपेक्षा अत्यधिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। भारतीय सैनिक अधिकतर निचले पदों पर रहते थे तथा उसी पद पर उम्र भर कार्य करते रहते थे। उन्हें कोई पदोन्नति नहीं मिलती थी। योग्य होने पर भी भारतीय सैनिकों पर अंग्रेजों को विश्वास नहीं था तथा उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता था।
(ii) धर्म-विरुद्ध नियम-भारतीय लोग समुद्री यात्रा को धर्म-विरुद्ध मानते थे तथा समुद्री यात्रा के लिए जाने को तत्पर नहीं थे। किन्तु 1856 ई० के General Service Enlistment Act के द्वारा यह निश्चित किया गया कि जो सैनिक समुद्र पार के स्थलों पर जाने के लिए तत्पर न होगा उसे सेना में स्थान नहीं मिलेगा। सैनिकों ने समझा कि इन कानूनों से सरकार उन्हें धर्मविहीन करना चाहती है।
(iii) अन्य प्रतिबन्ध-इसके अतिरिक्त अन्य कई नियम पारित किए गए जिससे भारतीय सैनिकों के हित पर कुठाराघात होता था। सेना में हिन्दू तिलक नहीं लगा सकते थे, टोपी नहीं पहन सकते थे तथा चोटी नहीं रख सकते थे और मुसलमानों के लिए मूंछ-दाढ़ी रखना निषिद्ध था। एक नियम द्वारा यह निश्चित किया गया कि जो सैनिक विदेशों में सेवा के लिए नहीं जाएगा, उसकी पेंशन जब्त कर ली जाएगी।
6. तात्कालिक कारण एवं क्रान्ति का विस्फोट-सैनिकों के असन्तोष का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूस थे। इस समय अनेक अफवाहें सेना में फैल रही थीं। एक अफवाह यह थी कि सैनिकों के आटे में हड्डियाँ पीसकर मिला दी जाती हैं। दूसरी अफवाह यह थी कि सेना में चर्बी लगे कारतूस प्रयोग किए जा रहे हैं। इन कारतूसों को दाँत से काटना पड़ता था तथा इनमें लगी हुई चर्बी के विषय में यह सन्देह था कि वह गाय और सूअर की है अर्थात् सरकार हिन्दू और मुसलमानों का धर्म भ्रष्ट करना चाहती है और उन्हें ईसाई बनाना चाहती है। इन कारतूसों ने क्रान्ति का तत्कालीन कारण प्रस्तुत कर दिया। वैसे तो क्रान्ति के अनेक कारण प्रस्तुत थे ही किन्तु बारूद के ढेर में चिंगारी लगाने का कार्य इन चर्बी वाले कारतूसों का ही था। इससे हिन्दू व मुस्लिम सैनिक भड़क उठे और उन्होंने क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। इस समय ब्रिटिश सरकार की भारतीय सेनाओं में भी असन्तोष व्याप्त था। बंगाल की सेना कम्पनी की सैन्य-शक्ति का प्रमुख अंग थी। इस सेना में अधिकांशत: अवध और राजपूताना के ब्राह्मण और क्षत्रिय भर्ती किए जाते थे। इन लोगों को अपनी जाति की श्रेष्ठता का बड़ा अभिमान था। ये सोचते थे कि यदि सरकार इन्हें देश के बाहर ब्रह्मा (वर्तमान में म्यानमार) या अफगानिस्तान भेजेगी तो इनका धर्म नष्ट हो जाएगा। अत: वे भी अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति करने के लिए तत्पर हो गए।
स्वाधीनता संग्राम की असफलता के कारण
1857 ई० के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में भारतीयों की असफलता के अनेक कारण बताए जा सकते हैं-
1. निश्चित उद्देश्य का अभाव-भारतीय क्रान्तिकारियों का कोई सुदृढ़ संगठन नहीं था और इसका कारण था, क्रान्तिकारियों के विभिन्न उद्देश्य। क्रान्ति के सेनानी अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे। बहादुरशाह द्वितीय दिल्ली पर अधिकार करना चाहता था, नाना साहब को अपनी पेंशन की चिन्ता थी तथा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का उद्देश्य झाँसी प्राप्त करने तक सीमित था। इस प्रकार निश्चित उद्देश्य के अभाव में क्रान्तिकारियों की असफलता निश्चित थी।
2. योग्य नेतृत्व का अभाव—क्रान्तिकारियों में योग्य नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध बहादुरशाह द्वितीय से यह आशा करना कि वह सेना का संचालन करेगा तथा युद्धभूमि में युद्ध करेगा, व्यर्थ था। रानी लक्ष्मीबाई यद्यपि वीरांगना थीं, किन्तु उन्हें युद्धों का विशेष अनुभव नहीं था और उन्होंने समस्त क्रान्तिकारियों का नेतृत्व नहीं किया था। उनका क्षेत्र मुख्यत: झाँसी था। क्रान्तिकारियों की कोई निश्चित योजना न होने के कारण वे लोग पृथक्-पृथक् स्थानों में युद्ध करते रहे तथा परस्पर सहयोग से कार्य नहीं कर सके। दिल्ली में ही नेतृत्व की एकता नहीं थी। मिर्जा मुगल और बख्त खाँ आपस में इसी बात पर लड़ते रहे कि सेना का संचालन कौन करे। विद्रोह के प्रारम्भिक चार महीनों में अंग्रेजी राज्य का अस्तित्व काफी संकटग्रस्त हो गया था। यदि उस समय क्रान्तिकारियों ने अपनी एक सुदृढ़ केन्द्रीय सरकार स्थापित करके अपनी सभी सेनाओं को संयुक्त कर लिया होता तो अंग्रेजों के लिए देश के भीतरी भागों में अपनी स्थिति सँभालना कठिन हो जाता।
3. अनुशासन तथा संगठन का अभाव-इसके अतिरिक्त, क्रान्तिकारी सैनिकों में अनुशासन का भी सर्वथा अभाव था। क्रान्तिकारी सेनाएँ अधिकतर भूतपूर्व राजाओं और नवाबों की थीं जिनका संगठन दोषपूर्ण था तथा जिनके पास आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का अभाव था। एक ओर तो क्रान्तिकारियों में योग्य सेनापति का अभाव था और दूसरी ओर ब्रिटिश सेना में नील, हैवलॉक, आउटरम, ह्यूरोज, निकलसन, एडवर्ड तथा सर जॉन लॉरेंस जैसे योग्य सेनापति थे, जिन्होंने बिगड़ी हुई स्थिति को अत्यन्त योग्यतापूर्वक सँभाला।
4. रचनात्मक कार्यक्रम का अभाव-जनता को एक सामान्य उद्देश्य से अनुप्राणित कर उन्हें एकता के सूत्र में आबद्ध करने के लिए यह आवश्यक होता है कि उनके सम्मुख कोई रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाए। वीर सावरकर ने अपने ग्रन्थ ‘भारतीय स्वातन्त्र्य समर’ में स्वीकार किया है—“क्रान्तिकारियों ने जनता के सामने कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं रखा था। यदि लोगों के सम्मुख सुस्पष्ट रूप से एक नया आदर्श रखा गया होता जो इतना मोहक होता कि उनके हृदयों को आकृष्ट कर सकता, तो क्रान्ति का विकास और अन्त भी उतना ही गौरवशाली और सफल होता, जितना कि उसका प्रारम्भ। जहाँ तक विध्वंसात्मक पक्ष का सम्बन्ध है, विद्रोह को सफल तरीके से चलाया गया किन्तु जब सृजन का समय आया तो उदासीनता, पारस्परिक भय एवं अविश्वास का माहौल हो गया।”
5. अंग्रेजों के भारतीय सहायक-दक्षिण भारत, पंजाब, राजपूताना, अफगानिस्तान, कश्मीर, नेपाल सभी प्रदेशों में शान्ति थी। उत्तर प्रदेश, बुन्देलखण्ड तथा मध्य भारत के कुछ भागों में क्रान्ति हुई जिसका दमन करना दुष्कर कार्य नहीं था। कुछ प्रदेशों ने तो क्रान्तिकारियों के दमन के लिए अंग्रेजों की सहायता भी की। सिखों तथा गोरखों की सहायता से ही अंग्रेज क्रान्ति का दमन करने में सफल रहे। देशी नरेशों ने भी क्रान्ति में सहयोग न देकर अपनी अंग्रेज भक्ति का प्रदर्शन किया। ग्वालियर का सिन्धिया वंश तत्कालीन समय में अंग्रेजों का भक्त था। हैदराबाद के निजाम ने भी क्रान्ति को रोकने का सफल प्रयास किया। इस प्रकार अंग्रेजों को अफगानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद, कश्मीर के राजा गुलाबसिंह, पटियाला, कपूरथला तथा जींद रियासतों के सिख शासकों, नेपाल के जंगबहादुर तथा गोरखा लोगों, राजस्थान के शासकों तथा जनता, सभी मराठा राजवंशों, शिन्दे, होल्कर तथा ग्वालियर के दिनकर राव और हैदराबाद के शासक सालारजंग से सक्रिय सहायता प्राप्त हुई। टीकमगढ़ और टिहरी के राजाओं ने विद्रोह के दमन में अंग्रेजों का पूरी तरह साथ दिया।
6. क्रान्ति का सामन्ती स्वरूप-वास्तव में 1857 ई० की सशस्त्र क्रान्ति का स्वरूप सामन्ती था और इसमें सन्देह नहीं कि सामन्तवाद के आदर्श तथा तरीके पुराने पड़ चुके थे। अतः जनता में कोई वास्तविक जागरण न हो सका। देश की जनता अठारहवीं शताब्दी की व्यापक अराजकता तथा अपने शासकों की कलहप्रियता के दुष्परिणाम देख चुकी थी और वह उन बीती हुई बातों को पुनर्जीवित नहीं करना चाहती थी, अत: क्रान्तिकारियों के साथ प्राणप्रण से सहयोग करने में वह हिचकती थी। वीर सावरकर ने इस सम्बन्ध में लिखा है—“यदि स्वतन्त्रता संग्राम का उद्देश्य केवल पहले वाले संघर्ष को फिर से स्थापित करना था, यदि फिर से पहले वाली परिस्थिति को ही लाना था, वे ही मुगल, वे ही मराठे और वे ही पुराने झगड़े, एक ऐसी परिस्थिति जिससे ऊबकर—पागलपन की घड़ी में राष्ट्र ने विदेशियों को देश में घुस आने दिया था—यदि इसका लक्ष्य केवल यही सब कुछ था, तो जनता ने इसके लिए अपना रक्त बहाना उचित न समझा।”
7. क्रान्ति का स्थानीय स्वभाव यद्यपि क्रान्तिकारियों ने संगठन करते समय यह योजना बनाई थी कि सम्पूर्ण देश में क्रान्ति की जाएगी, किन्तु क्रान्ति भारत के कुछ भागों में ही हो सकी तथा भारत के अधिकांश भागों में पूर्णतया शान्ति स्थापित रही। क्रान्ति के संगठनकर्ताओं ने गाँव-गाँव और शहर-शहर, सैन्य शिविरों तथा जनता के बीच स्वातन्त्र्य संग्राम के जिस उद्देश्य का प्रचार किया था, वह बहुत कुछ नकारात्मक अर्थात् अंग्रेजों को देश से बाहर निकाल देना भर था। जनता को इस बात का कोई आभास न था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् शासन का क्या स्वरूप होगा और स्वतन्त्र देश में उनकी क्या स्थिति होगी। यही कारण है कि इस नकारात्मक उद्देश्य से जनता में जिस जोश और उत्साह का संचार हुआ, उसका प्रभाव स्थायी सिद्ध नहीं हो सका।
8. समय से पूर्व क्रान्ति का प्रारम्भ-क्रान्ति का विस्फोट निश्चित कार्यक्रम तथा योजना के अनुसार नहीं हो सका। यदि 31 मई को एक साथ ही समस्त देश में क्रान्ति का प्रारम्भ होता तो क्रान्तिकारियों को सफलता मिलने की आशा थी क्योंकि उससे अंग्रेजी राज्य डाँवाडोल हो जाता। 100 वर्षों से स्थापित सुदृढ़ साम्राज्य को समूल नष्ट कर डालना कोई सहज कार्य नहीं था। उसके लिए समस्त देश प्रयास की आवश्यकता थी।
9. अंग्रेजों की अनुकूल परिस्थितियाँ-1857 ई० की क्रान्ति को दबाने के लिए परिस्थिति अंग्रेजों के अनुकूल थी। क्रीमिया के युद्ध में रूस को पराजित किया जा चुका था तथा ‘अफीम के युद्धों में चीन की पराजय हो चुकी थी। विशाल अंग्रेजी सेनाएँ इस समय भारतीय क्रान्ति के दमन के लिए सुलभ हो सकती थीं। इसके अतिरिक्त, लॉर्ड डलहौजी के रेल, तार एवं डाक की व्यवस्था कर देने से अंग्रेजों को यातायात में भी सुविधा हो गई थी। एक स्थान का समाचार शीघ्र ही दूसरे स्थान पर पहुँच सकता था तथा आवश्यक सहायता शीघ्र पहुँचाई जा सकती थी। समुद्री मार्गों पर तो अंग्रेजों का एकाधिकार था तथा वहाँ से हजारों की संख्या में सैनिक बुलाए जा सकते थे। अंग्रेजों के पास अस्त्र-शस्त्रों का बड़ा जखीरा था तथा उनका तोपखाना क्रान्तिकारियों का विनाश करने में सर्वथा सफल था।
तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने क्रान्तिकारियों के साथ उदार व्यवहार किया। यद्यपि क्रान्ति का दमन करने में सेनापतियों ने अनेक पाशविक अत्याचार किए किन्तु कैनिंग ने क्रान्तिकारियों के साथ मानवोचित व्यवहार करके उन्हें अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। उसकी क्षमाशील नीति ने क्रान्ति का अन्त करके शीघ्र ही सुव्यवस्था बहाल कर दी।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के परिणाम तथा महत्त्व
1. कम्पनी के शासन का अन्त–1857 ई० की क्रान्ति भारत के इतिहास में एक युगान्तरकारी घटना है। इस क्रान्ति के पश्चात् भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त हो गया तथा भारत पर इंग्लैण्ड की सम्राज्ञी विक्टोरिया एवं ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का प्रभुत्व हो गया। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप धनलोलुप और स्वार्थी शासकों के स्थान पर शासन का दायित्व पार्लियामेण्ट पर आ पड़ा, जिसने भारत में सुधार एवं परिवर्तनों का युग प्रारम्भ कर दिया।
2. महारानी विक्टोरिया की घोषणा (1858 ई०)—क्रान्ति का पूर्णतया दमन होने के पूर्व ही महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की थी कि इंग्लैण्ड की सरकार भारत के देशी राज्यों के साथ की गई सन्धियों का आदर करेगी। इस घोषणा में यह भी कहा गया कि भारत में पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की जाएगी तथा सरकार धर्म में हस्तक्षेप नहीं करेगी। पदों के लिए रंग, जाति तथा धर्म का भेदभाव न करके योग्यतानुसार सबको पद प्रदान किए जाएँगे तथा इंग्लैण्ड की सरकार भारतीयों के हित का सर्वदा ध्यान रखेगी। महारानी की इस घोषणा का पालन किया गया तथा देशी नरेशों को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार पुनः मिल गया।
3. द्वैध शासन का अन्त-क्रान्ति के पश्चात् 19वीं शताब्दी में पिट्स इण्डिया एक्ट के द्वारा स्थापित द्वैध शासन का अन्त कर दिया गया। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स समाप्त करके उनके अधिकार सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया (Secretary of State for India) को दे दिए गए।
4. भारतीय सैनिकों पर अविश्वास-भारतीय मूल के सैनिकों द्वारा क्रान्ति किए जाने से अंग्रेजों को भारतीय सैनिकों पर विश्वास न रहा तथा भारत में अंग्रेजों की एक विशाल सेना रखने का निश्चय किया गया जो भविष्य में होने वाली क्रान्ति का दमन कर सके। तोपखाना पूर्णतया यूरोपियन सैनिकों के हाथ में रखा गया। भारतीय सैनिकों की संख्या घटाकर आधी कर दी गई तथा प्रत्येक छावनी में अंग्रेजों की संख्या भारतीय सैनिकों की संख्या से दोगुनी कर दी गई। भारतीयों का तोपखाना समाप्त कर दिया गया। कम्पनी और सम्राट की सेना का विभेद समाप्त कर दिया गया। क्रान्ति के समय यातायात में काफी असुविधा अनुभव की गई थी, रेल और तारों द्वारा सम्पूर्ण देश के नगरों को परस्पर मिलाने की योजना बनाई गई, जिससे यदि भविष्य में इस प्रकार की क्रान्ति हो तो उसके समाचार तथा सहायता शीघ्र ही पहुँच सके। ई० की क्रान्ति के अनेक अत:
5. भारतीयों से अंग्रेजों के सम्बन्धों में कटुता-1857 दुष्परिणाम भी हुए। सर्वप्रथम अंग्रेजों तथा भारतीयों के सम्बन्ध अत्यन्त कटु हो गए। पारस्परिक घृणा इतनी बढ़ गई कि अंग्रेज तथा भारतीय कभी भी एक-दूसरे के सम्पर्क में नहीं आ सके तथा शासकों और शासितों के मध्य में हमेशा एक विशाल खाई बनी रही।
6. ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का जन्म- -इस क्रान्ति में हिन्दू तथा मुसलमानों ने सहयोग और संगठन की भावना के द्वारा कार्य किया था। उनके इस संगठन को अंग्रेजों ने भेद नीति के द्वारा समाप्त कर दिया। भारत में फूट डालो और राज करो (Divide and Rule) की नीति क्रान्ति के पश्चात् ही निश्चित रूप से प्रारम्भ होती है क्योंकि इस नीति से भारत की शक्ति फिर कभी संगठित नहीं हो सकी तथा अंग्रेजी नीति के परिणामस्वरूप इन दोनों वर्गों में घृणा के भाव उत्पन्न होने लगे।
7. आधुनिक युग का प्रारम्भ-वास्तव में इस क्रान्ति के द्वारा मध्य युग का पूर्णतया अन्त होकर भारत में आधुनिक युग का आरम्भ होता है। क्रान्ति के द्वारा प्राचीन भावनाओं पर नवीन भावनाओं की विजय हुई। ग्रिफिन ने लिखा है- “भारत में 1857 की क्रान्ति से अधिक सौभाग्यशाली घटना अन्य कोई नहीं घटी। इसने भारतीय गगनमण्डल को अनेक मेघों से विमुक्त कर दिया।” इस क्रान्ति के द्वारा दोषपूर्ण सैनिक व्यवस्था का अन्त हुआ, देशी नरेशों के विषय में सरकार की एक निश्चित नीति निर्धारित की गई, भारतीय धर्म तथा संस्कृति के लिए भारतीयों को आश्वासन मिला तथा उच्च पदों के द्वार भारतीयों के लिए खोलकर शासक एवं शासित वर्ग के विभेद को कुछ सीमा तक दूर करने का प्रयास किया गया। मौलवी अह गाह, मंगल
8. क्रान्ति का महत्त्व-1857 ई० की सशस्त्र क्रान्ति भारतीय इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। यह क्रान्ति लक्ष्य प्राप्ति की दृष्टि से विफल रही, किन्तु विदेशी शासन को नष्ट करके देश की खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने का जो लक्ष्य सामने रखा गया था, उससे आगे आने वाले दिनों में स्वतन्त्रताप्रेमियों ने उत्साह और प्रेरणा ग्रहण की। वृद्ध बादशाह बहादुरशाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, पाण्डे आदि वीरों को देश की जनता अपने स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी के रूप में सदैव स्मरण रखेगी। यह क्रान्ति भारतीयों का अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रथम सशस्त्र प्रयास था। इस क्रान्ति ने भारतीयों को यह विश्वास दिला दिया कि मात्र शस्त्र के द्वारा अंग्रेजों पर विजय प्राप्त करना असम्भव है। उसके लिए सम्पूर्ण भारत में जन-जागृति होना परमावश्यक है।
भारतीय रियासतों से ब्रिटिश सम्बन्ध
मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन के कारण भारत अनेक राज्यों में विभक्त हो गया। प्लासी के युद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का युग प्रारम्भ किया और अगली शताब्दी के मध्य तक अंग्रेजी प्रभुत्व के शिकंजे में सारी भारतीय रियासतें आ गईं। भारतीय रियासतों की स्थिति में परिवर्तन का कारण परिस्थितियों का दबाव और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों की नीति की प्रकृति तथा गवर्नर-जनरलों के विचार थे।
सर विलियम ली वार्नर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत की देशी रियासतें’ में सन् 1919 के माण्टफोर्ड सुधारों के प्रचलन तक तीन युगों का उल्लेख किया है। प्रथम युग में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ‘रिंग फेंस’ नीति का अनुसरण किया और यह युग सन् 1757 से 1813 तक रहा। दूसरा युग सन् 1813 से 1857 तक चला और उसका नाम ‘अधीन अलगाव की नीति’ रखा गया। तीसरा युग सन् 1858 से 1919 तक चला तथा उसका नाम ‘अधीन संघ’ रखा गया।
भारत में सर्वोच्च सत्ता होने के नाते ब्रिटिश सरकार ने कुप्रशासन के मामलों, कलहपूर्ण वंशक्रम, शासकों के विरुद्ध जनता के विद्रोह, सती और बाल हत्या जैसी बुरी प्रथाओं का दमन करने के लिए प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करना अपना कर्तव्य समझा। धीरे-धीरे अधिकारियों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने की प्रथा का जन्म हुआ। ब्रिटिश सरकार राज्यों के दीवानों को नियुक्त करने लगी। ब्रिटिश रेजीडेण्ट के बड़े नियन्त्रण के कारण भारतीय राज्यों के आन्तरिक मामलों में काफी हस्तक्षेप हुआ। रियासतों के महत्त्वपूर्ण अफसरों की नियुक्ति के लिए ब्रिटिश सरकार के पोलिटिकल डिपार्टमेण्ट की अनुमति लेनी पड़ती थी। जब किसी रियासत का शासक नाबालिग होता था तो ब्रिटिश सरकार एक रीजेण्ट नियुक्त करती थी और राज्य की सारी बागडोर उसके हाथ में होती थी। उस दौरान ब्रिटिश सरकार जो सुधार रियासत में करना चाहती थी, कर लेती थी।
ब्रिटिश सरकार कम आयु वाले राजकुमारों पर उनकी शिक्षा आदि करने के लिए अपने संरक्षण के अधिकार का पूरा प्रयोग करती थी। लॉर्ड कर्जन का विचार था कि भारत सरकार का कर्तव्य है कि वह देखे कि नवयुवक नरेश ठीक प्रकार की शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा है, जिससे वह शासन करने के योग्य बन सके।
रियासतों में किसी महत्त्वपूर्ण कानून को बनाने के लिए भारत सरकार से स्वीकृति लेनी पड़ती थी। रियासतों को अपने सिक्के चलाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार था कि वह भारतीय रियासतों के निवासियों से राज्य प्रशासन के विरुद्ध प्रार्थना-पत्र ले सके।
शासकों को किसी विदेशी राज्य अथवा प्रजाजन से सीधे सम्बन्ध रखने की आज्ञा न थी। वे विदेशी राजदूत, प्रतिनिधियों का स्वागत भी नहीं कर सकते थे। रियासत के सभी विदेशी हितों को भारत सरकार के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता था।
ब्रिटिश सरकार का दावा था कि उन्हें सभी उपाधियों, प्रतिष्ठा, तोपों की सलामी और अन्य प्राथमिकताओं की स्वीकृति तथा उपयोग के सम्बन्ध में नियन्त्रण करने का पूरा अधिकार था। कोई भी नरेश ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बिना विदेशी उपाधियों को स्वीकार नहीं कर सकता था। वह स्वयं भी किसी को उपाधि नहीं दे सकता था। किसी राजा के लिए तोपों की सलामी के सम्बन्ध में निश्चय करने का अधिकार केवल ब्रिटिश सरकार को था।
शासकों के लिए उत्तराधिकार-कर देना आवश्यक था। किसी विशेष कारण से ही वह कर माफ किया जाता था।
भारतीय रियासतों के लोगों को भारत से बाहर जाने के लिए भारत सरकार से अनुमति-पत्र देने की प्रार्थना करनी पड़ती थी। दोहरी आज्ञाकारिता के समय ब्रिटिश सम्राट के प्रति आज्ञाकारिता की भावना का अधिक महत्त्व था।
भारत सरकार का रियासतों में शस्त्रों और अन्य शस्त्र-सामग्री के लाइसेंसों के सम्बन्ध में पूरा नियन्त्रण था। सन् 1926 में पटियाला रियासत ने भारत सरकार से प्रार्थना की कि वह 25 और पिस्तौलों की स्वीकृति दे। भारत सरकार का उत्तर यह था कि पटियाला के पास पहले 48 पिस्तौलें थीं और 25 पिस्तौलों की कैसे आवश्यकता हुई?
बड़ौदा-ब्रिटिश सरकार राजाओं को गद्दी से उतारने और कुछ परिस्थितियों में गद्दी छोड़ने के लिए विवश करने का अधिकार रखती थी। ऐसे अधिकार का प्रयोग बड़ौदा और मणिपुर की रियासतों में किया गया। अपने भाई की मृत्यु के बाद मल्हारराव गायकवाड़ बड़ौदा रियासत का नरेश बना। उसके खिलाफ कुप्रशासन का अभियोग लगाया गया।
सन् 1874 में भारत सरकार ने एक कमीशन की नियुक्ति की। बड़ौदा के नरेश ने विरोध किया। कमीशन के निर्णयों के अनुसार भारत सरकार ने बड़ौदा नरेश को चेतावनी दी कि वह कुछ निश्चित सुधार 18 मास के अन्दर करे नहीं तो उसको गद्दी से उतार दिया जाएगा। उसी समय वायसराय को खबर मिली कि बड़ौदा के नरेश ने ब्रिटिश रेजीडेण्ट को जहर देने की कोशिश की है। इसका यह प्रभाव हुआ कि एक कमीशन की जाँच के आधार पर बड़ौदा के नरेश को गद्दी से उतार दिया गया और उसी के वंश के एक और सदस्य को बड़ौदा के सिंहासन पर बिठा दिया गया।
मणिपुर-मणिपुर रियासत में एक विद्रोह हुआ जिसका नेता मणिपुर के राजा का भाई सेनापति था। भारत सरकार मणिपुर के राजा को उसके सिंहासन पर फिर से इसलिए बैठाना नहीं चाहती थी क्योंकि वह प्रशासन करने के योग्य न था। भारत सरकार ने युवराज को मान्यता दे दी परन्तु वह चाहती थी कि सेनापति को मणिपुर रियासत से बाहर निकाल दिया जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आसाम का चीफ कमिश्नर मणिपुर गया परन्तु वह पकड़ा गया और मारा गया। भारत सरकार ने मणिपुर सेना भेजी। युवराज और सेनापति को बन्दी बना लिया गया।
उन पर कत्ल और विद्रोह का मुकदमा चलाया गया और बाद उनको फाँसी दे दी गई। मैसूर-अंग्रेजों ने 46 वर्ष तक मैसूर रियासत पर शासन किया और सन् 1881 में उस रियासत को वहाँ के हिन्दू राजा को सौंप दिया। परन्तु नए शासक पर अनेक प्रतिबन्ध लगाए गए जो भारत में अंग्रेजों की प्रभुसत्ता को स्पष्ट करते थे। नए शासक को स्पष्ट रूप से ब्रिटिश ताज (Crown) के प्रति स्वामिभक्त बने रहने और उसकी अधीनता स्वीकार करने और ब्रिटिश सरकार द्वारा कहे गए सभी कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए कहा गया। उसे यह स्पष्ट कर दिया गया कि इन शर्तों का पालन न करने पर उसका सिंहासन भी छीना जा सकता है।
पटियाला-सन् 1899 में पटियाला रियासत ने रेलवे के विस्तार के लिए ब्रिटिश सरकार के साथ समझौता करने में ऐतराज किया परन्तु भारत सरकार ने उसे रद्द कर दिया। भारत सरकार ने अपने प्रभुत्व के सम्बन्ध में कई अवसरों पर बहुत बल दिया। बहादुरशाह द्वितीय जो कि मुगलों का अन्तिम बादशाह था, सन् 1876 में मर गया और महारानी विक्टोरिया ने कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि धारण की। उस अवसर पर लॉर्ड लिटन ने दिल्ली में एक दरबार लगाया और भारत की सभी रियासतों के नरेशों को उसमें सम्मिलित होना पड़ा। बड़ी रियासतों के शासकों ने इस बात का विरोध किया कि उनका स्तर और प्रतिष्ठा गिराई गई है। परन्तु उन्हें विवश किया गया कि ब्रिटिश सम्राट् के प्रति आज्ञाकारिता की शपथ लें और यह अपना दावा छोड़ दें कि उनके साथ की गई सन्धियों और समझौतों के अनुसार व्यवहार किया जाए।
कर्जन-लॉर्ड कर्जन ने सन 190 में अपने बहावलपुर में दिए गए भाषण में यह घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार यासतों के प्रति नीति न संघीय थी और न सामन्ती। न ही वे सन्धि से सम्बन्धित स्पष्ट रूप से कहा, “यद्यपि यह स्थिति ब्रिटिश ताज तथा भारतीय शासकों के ब तिहासिक परिस्थितियों में विकसित हुई है लेकिन यह समय के साथ धीरे-धीरे कार की हो गई है। ब्रिटिश ताज की सर्वोच्चता को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा विशेष अधिकारों की सीमा बाँध ली है।” नई नीति के अनुसार वरिया भी जिसकी अनुमति ब्रिटिश ताज देगा।
हैदराबाद-हैदराबाद के निजाम हमेशा अपने लिए विशेष स्थिति का दावा करते थे। सन् 1926 में लॉर्ड रीडिंग ने इस कल्पित धारणा का इन शब्दों में खण्डन किया, “भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का प्रभुत्व सर्वोच्च है। इसलिए भारतीय रियासत का कोई भी शासक ब्रिटिश सरकार के साथ यथोचित रूप से समान स्तर पर बातचीत करने में समर्थ नहीं है। भारतीय रियासतों का महत्त्व न केवल सन्धियों तथा समझौतों पर आधारित है, अपितु उनकी सत्ता स्वतन्त्र रूप से विद्यमान है तथा विदेशी शक्ति तथा नीतियों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों में तो यह विशेष रूप से स्वतन्त्र है। यह ब्रिटिश सरकार का अधिकार था कर्त्तव्य है कि भारतीय रियासतों के सम्बन्ध में सब प्रकार की सन्धियों अथवा निश्चयों का सम्मान करते हुए शान्ति तथा सुव्यवस्था को बनाए रखे। मैं आपको पुनः स्मरण कराना चाहता हूँ कि अन्य शासकों के साथ ही हैदराबाद के शासक ने भी सन् 1868 में एक सनद प्राप्त की, जिसमें भारत सरकार की उस इच्छा की घोषणा की गई थी कि उसके घर तथा सरकार की पूर्ण रक्षा की जाए। इसकी एकमात्र शर्त यह है कि सम्राट् अथवा साम्राज्य के प्रति उसकी लगातार वफादारी की भावना बनी रहे तथा हैदराबाद के मसनद पर किसी प्रकार का उत्तराधिकार वैध नहीं जब तक कि सम्राट उसको स्वीकार न करे तथा यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि विवादग्रस्त उत्तराधिकार के विषय में ब्रिटिश सरकार ही एकमात्र सरपंच है। राजा विभिन्न अंशों में जिस प्रकार के भीतरी अधिकार का उपभोग करते हैं, यह सब ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारों पर निर्भर करता
भारतीय राष्ट्रीयता आन्दोलन का प्रभाव-भारतीय राष्ट्रीयता आन्दोलन का ब्रिटिश सरकार और भारतीय रियासतों पर प्रभाव पड़ा। राष्ट्रीयता के बढ़ते हुए तूफान ने ब्रिटिश सरकार को व्याकुल कर दिया। उन्हें ऐसा लगा कि भारतीय नरेश राष्ट्रीयता के संघर्ष में ब्रिटिश सरकार के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं जैसा कि सन् 1857 के विद्रोह के समय सिद्ध हुआ था। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए भी भारतीय रियासतों की सेनाओं का प्रयोग किया जा सकता था। रियासती सेनाएँ भली प्रकार से प्रशिक्षित तथा अनुशासित थीं। बिना खर्च किए ब्रिटिश सरकार उनका प्रयोग कर सकती थी। भारतीय राजाओं ने आतंकवादियों का दमन करने में ब्रिटिश सरकार की सहायता की। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भी उन्होंने उदारतापूर्वक सहायता की। लॉर्ड हार्डिंग ने भारतीय शासकों को ब्रिटिश साम्राज्य के महान कार्य सहायक और साथी’ कहा और उनकी प्रशंसा भी की।
प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ होने पर ब्रिटिश भारत और भारतीय राज्यों के रास्ते अलग-अलग होने लगे। अगस्त 1917 की घोषणा के अनुसार ब्रिटिश सरकार भारत में उत्तरदायी संस्थाओं के कास तथा अन्त में ब्रिटिश भारत को स्वशासन के अधिकार देने के लिए वचनबद्ध हो गई परन्तु नरेशों ने अपना आदर्श वैसे का वैसा ही रखा। वे राष्ट्रीय कांग्रेस से भय खाते थे क्योंकि कांग्रेस प्रजातन्त्र में विश्वास करती थी और राजा लोग अपनी निरंकुशता को बनाए रखना चाहते थे। रियासतों के नरेश अपने राज्यों में कांग्रेस के कार्यक्रमों को बढ़ावा नहीं देना चाहते थे। कांग्रेस भी रियासतों की शासन-प्रणाली की आलोचना करती थी। यही कारण था कि भारतीय राजा ब्रिटिश सत्ता की ओर झुकने लगे और सन्धियों में दिए गए अधिकारों पर जोर देने लगे।
रियासतों के नरेशों की कई प्रकार की शिकायतें थीं और मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने उन शिकायतों पर सहानुभूति से विचार किया और अपने सुझाव भी दिए। नरेशों की एक शिकायत यह थी कि बड़े और छोटे राज्यों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता था। इस व्यवहार से कुछ रियासती राजा बहुत नाराज थे। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने राज्यों के उचित वर्गीकरण का सुझाव दिया। उसमें कहा गया कि उन शासकों को अलग कर दिया जाए जिन्हें आन्तरिक प्रशासन में पूर्ण अधिकार प्राप्त थे। दूसरे वर्ग में वे होंगे जिन्हें विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे। दूसरी राजाओं की यह शिकायत थी कि भारतीय शासक यह चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार सन्धियों का दृढ़ता से पालन करे। यह माँग रद्द कर दी गई। रियासतों की एक और शिकायत थी कि भारतीय राज्यों के आपसी तथा ब्रिटिश सरकार के साथ झगड़ों में पक्षपातरहित न्याय सम्बन्धी छानबीन का कोई विधान नहीं था। यह सुझाव दिया गया कि प्रत्येक पक्ष अपना एक प्रतिनिधि नियुक्त करे और प्रेसीडेण्ट हाईकोर्ट का जज (न्यायाधीश) हो। यदि वायसराय कमीशन की सिफारिश को न माने तो ऐसे मामले में Secretary of State for India को सूचना दी जाए। रिपोर्ट ने यह भी सिफारिश की कि एक नरेशमण्डल की स्थापना की जाए। इस सिफारिश के अनुसार 8 फरवरी, 1921 को नरेशमण्डल की स्थापना की गई। उसका उद्घाटन ड्यूक ऑफ कनाट (Duke of Connaught) ने दिल्ली के लाल किले के दीवान-ए-आम में किया।
नरेशमण्डल-यह बात स्मरणीय है कि लॉर्ड लिटन ने यह सुझाव पेश किया था कि एक भारतीय प्रिवी कौंसिल स्थापित की जाए जिसमें सरकार को सहायता देने के लिए बड़े भारतीय नरेश हों। लॉर्ड कर्जन ने राज्य करने वाले रियासती नरेशों की एक परिषद् बनाने का प्रस्ताव रखा। लॉर्ड मिण्टो ने साम्राज्यवादी परामर्श देने वाली परिषद् बनाने का सुझाव रखा। लॉर्ड हार्डिंग ने रियासतों में उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में विचार करने के लिए नरेशों का एक सम्मेलन बुलाया। मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में स्थायी नरेश परिषद् स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया। सन् 1921 में नरेशमण्डल की स्थापना की गई।
नरेशमण्डल के कुल 120 सदस्य थे। उनमें से 12 सदस्य 127 रियासतों के प्रतिनिधि थे।
108 सदस्य अपने-अपने अधिकार के कारण सदस्य थे। 327 रियासतों को किसी प्रकार का प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। हैदराबाद और मैसूर की रियासतें नरेशमण्डल में शामिल नहीं हुईं। साधारणतया नरेशमण्डल का अधिवेशन वर्ष में एक बार होता था और वायसराय उसका सभापतित्व करता था। नरेशमण्डल अपने चांसलर का चुनाव करता था और वह वायसराय की अनुपस्थिति में सभा का सभापति होता था। चांसलर नरेशमण्डल की स्थायी समिति का प्रधान होता था। स्थायी समिति के अधिवेशन नई दिल्ली में एक वर्ष में दो अथवा तीन बार होते थे जिनमें भारतीय रियासतों के आवश्यक प्रश्नों (समस्याओं) पर विचार-विनिमय किया जाता था। प्रतिवर्ष स्थायी समिति नरेशमण्डल को अपनी रिपोर्ट पेश करती थी। नरेश लोग जब कभी नरेशमण्डल के अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए आते थे तब परस्पर भी अनौपचारिक रूप से विचार-विनिमय के लिए सम्मेलन करते थे। नरेशमण्डल केवल एक परामर्श देने वाली समिति थी।
बटलर कमेटी-16 दिसम्बर, 1927 को लॉर्ड बरकनहेड ने जो कि उस समय भारत का Secretary of State था, बटलर कमेटी की नियुक्ति की। उस कमेटी के तीन सदस्य थे और उसका चेयरमैन सर हरकोर्ट बटलर था। उस कमेटी का काम नरेशमण्डल की शिकायतों के प्रकाश में भारतीय राज्यों और ब्रिटिश सरकार के आपसी सम्बन्धों की समालोचना करना था। कमेटी का बहुत-सा काम इंग्लैण्ड में हुआ जहाँ भारतीय रियासतों के शासकों ने अपना दृष्टिकोण कमेटी के सामने रखा। रियासतों के साधारण लोगों के किसी भी प्रतिनिधि को नहीं सुना गया अथवा बुलाया गया।
बटलर कमेटी ने सिफारिश की कि वायसराय ही सम्राट की ओर से रियासतों के साथ कार्य-व्यवहार करने के लिए प्रतिनिधि हो, गवर्नर-जनरल नहीं। सम्राट् तथा राजाओं के सम्बन्धों को ब्रिटिश भारत में नई सरकार को जो विधान-मण्डल के प्रति उत्तरदायी हो, राजाओं की सहमति के बिना हस्तान्तरित न किया जाए। रियासतों की परिषद् बनाने के सम्बन्ध में योजना अस्वीकार कर दी जाए। किसी रियासत के प्रशासन में हस्तक्षेप करने का अधिकार वायसराय के निश्चय (निर्णय) पर छोड़ दिया जाए। रियासतों और ब्रिटिश भारत में उत्पन्न होने वाले झगड़ों के सम्बन्ध में जाँच करने के लिए विशेष समितियों की नियुक्ति की जाए। रियासतों और ब्रिटिश भारत के मध्य आर्थिक सम्बन्धों की जाँच करने के लिए एक समिति नियुक्त की जाए। बटलर कमेटी ने भारतीय रियासतों के साथ एक नया सम्बन्ध खोजा। कमेटी का कहना था कि वह सम्बन्ध ब्रिटिश ताज के साथ सीधा था और ब्रिटिश भारत के माध्यम से नहीं। यह विचार इसलिए रखा गया ताकि ब्रिटिश भारत और रियासतों के मध्य एक दीवार खड़ी कर दी जाए। बटलर कमेटी ने भारतीय शासकों की उस माँग को रद्द कर दिया कि उनके और ब्रिटिश सरकार के आपसी सम्बन्ध सन्धियों पर आधारित होने चाहिए, परम्पराओं पर नहीं।
बटलर कमेटी की रिपोर्ट (सन् 1929) ने भारतीय राजाओं को पूर्ण रूप से सन्तुष्ट न किया परन्तु उनकी बहुत-सी शिकायतें दूर हो गईं। भारत में बटलर रिपोर्ट की बहुत आलोचना हुई। सी० वाई० चिन्तामणि ने आलोचना करते हुए लिखा, “बटलर कमेटी का आविर्भाव ही निन्दनीय था। इसकी नियुक्ति का समय भी बुरा था, निर्देश की शर्तों एवं कर्मचारी-वर्ग (Personnel) में भी बुरी थी, छानबीन के कार्य में भी बुरी थी तथा तर्क और परिणामों में भी बुरी थी।”
सर एम० विश्वेश्वरैया का विचार था कि बटलर कमेटी के विवरण में भारतीय रियासतों के निवासियों के भविष्य के सम्बन्ध में कोई इशारा नहीं है। उनके सुझाव असहानुभूतियुक्त, अनैतिहासिक तथा कठिनता से वैधानिक अथवा कानूनी हैं ……. उनके दृष्टिकोण में कोई नवीन विचारधारा नहीं। निश्चित रूप से उसमें प्रेरणा, विश्वास तथा आशाप्रद कुछ नहीं।
नेहरू रिपोर्ट ने लिखा कि बटलर कमेटी ने भारत में रियासतों को आयरलैण्ड के अलस्टर (Ulster) के रूप में खड़ा करने की कोशिश की है। उस रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई कि रियासतों के लोग कभी भी वर्तमान स्थिति को नहीं मानेंगे और ब्रिटिश भारत के साथ मिलकर स्वतन्त्रता के लिए लड़ेंगे।
कालान्तर में ऐसा ही हुआ। भारतीय रियासतें अंग्रेजों के विरुद्ध खड़ी हो गईं। सन् 1947 में भारत जब स्वतन्त्र हुआ तो भारत संघ में रियासतों के विलीनीकरण का कार्य सरदार पटेल ने सम्पन्न किया।
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