Audit Procedure: Vouching notes

अंकेक्षण कार्य विधि : प्रमाणन (Audit Procedure: Vouching)

प्रारम्भिक (Introductory)

अंकेक्षक के लिए हिसाब-किताब की पुस्तकों के लेखों को प्रमाणित करना सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य होता है। प्रश्न यह है कि प्रारम्भिक लेखों की पुस्तकों में प्रविष्टियों किस आधार पर की गई हैं एवं लेखापाल के पास प्रत्येक लेन देन से सम्बन्धित क्या प्रमाण है

यह सामान्य अनुभव का बात है कि बाजार में जब हम किसी वस्तु का क्रय करत ९, मूल्य-दर व कुल कीमत, दिनॉक आदि लिखी रहती है। अधिकाँश क्रेता इस ‘रसीद’ को अंकेक्षण महत्व नहीं देते तथा रद्दी की टोकरी में डाल देते हैं या फाड़कर फेंक देते हैं। परन्तु लेखाकर्म के दृष्टिकोण से सभी संस्थाओं में इन रसीदों को काफी महत्वपूर्ण प्रलेख माना जाता है।

Audit Procedure: Vouching notes

वास्तविकता तो यह है कि प्रारम्भिक बहियों में लेखें इन्हीं रसीदों के आधार पर किये जाते हैं अर्थात यह रसीदें ही लेखापुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की सच्चाई का प्रमाण एवं सबूत होती हैं। इन रसीदों/बीजक आदि को ही अंकेक्षण की भाषा में प्रमाणक (voucher) कहते हैं एवं इनकी सहायता से प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की जाँच करने को प्रमाणन (vouching) कहा जाता है

प्रमाणन का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Vouching)

प्रमाणन का अर्थ प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की, प्रमाणकों के साथ इस उद्देश्य से जाँच करना है कि वे प्रविष्टियाँ शुद्ध तथा सत्य हैं, अधिकृत हैं तथा व्यापार से सम्बन्धित हैं।

विभिन्न विद्वानों ने प्रमाणन को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-

1. रोनाल्ड ए० आइरिश (Ronald A. Irish) के अनुसार, “प्रमाणन एक तकनीकी शब्द है और इसका आशय उन प्रपत्रों की, जिनके आधार पर सौदे लिखे जाते हैं, जाँच करने से है।”

2. जे० आर० बाटलीबॉय (J. R. Batliboi) के अनुसार, “प्रारम्भिक लेखों की पुस्तकों में लिखे जाने वाले मदों की सत्यता को जाँचना ही प्रमाणन कहलाता है।”

3. डिक्सी के अनुसार, “प्रमाणन का आशय हिसाब-किताब की पुस्तकों में किये गये लेखों की जाँच उन प्रपत्रों से करना है, जिनके आधार पर इन्हें लिखा गया है।”

उपर्युक्त् परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त प्रमाणन की आदर्श परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है-

प्रमाणन से आशय हिसाब-किताब की बहियों में किये गये लेखों की प्रमाणकों के आधार पर जाँच करना तथा स्वयं प्रमाणकों की सत्यता की जाँच करना है। इसमें जाँच का मुख्य उद्देश्य यह है कि पुस्तकों में किये गये लेखे ठीक, उचित एवं अधिकृत हैं।

प्रमाणन तथा नैत्यक जाँच में अन्तर

(Difference between Vouching and Routine Checking)

सामान्य व्यक्ति नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन को एक-दूसरे का पर्यायवाची ही समझते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन एक-दूसरे से भिन्न हैं । नैत्यक जाँच के अन्तर्गत बहियों का जोड़ निकालना, अगले पृष्ठ पर ले जाना, खतौनी करना, खातों का शेष निकालना तथा इन शेषों को तलपट में ले जाना इत्यादि आते हैं। इसके लिए अंकेक्षकों द्वारा विशेष चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। नैत्यक जाँच से लेखों की शुद्धता की जानकारी हो सकती है; जैसे-प्रविष्टियाँ ठीक-ठीक की गयी हैं,खतौनी ठीक-ठीक किये गये हैं तथा जाँच के बाद खाता पुस्तकों में कोई परिवर्तन नहीं किये गये हैं आदि । दूसरी ओर, प्रमाणन के अन्तर्गत प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की प्रमाणकों से जाँच की जाती है। इस जाँच के अन्तर्गत वे सब क्रियायें भी सम्मिलित हैं जो नैत्यक जाँच के अन्तर्गत सम्मिलित हैं अर्थात् प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों के जोड़, अगले पृष्ठ पर ले जाए गए

जोड् (Carry forwards), गणनाएँ (Calculations), बाकी निकालना (Balances), खातों में खतौनी, खातों के शेष निकालना तथा इन्हें तलपट में लिखने से सम्बन्धित समस्त गणितीय जाँच करना। इस प्रकार प्रमाणन एक विस्तृत शब्द है, जिसमें नैत्यक जाँच भी सम्मिलित है। नैत्यक जाँच प्रमाणन का अंग है।

सामान्य तौर पर नैत्यक जाँच का कार्य कनिष्ठ लिपिकों के द्वारा किया जाता है, जबकि प्रमाणुन का कार्य वरिष्ठ लिपिकों द्वारा किया जाता है। हालांकि यह कोई वैधानिक नियम नहीं है। यह कर्मचारियों की उपलब्धता पर निर्भर करता है कि कार्य का निष्पादन किसके द्वारा कराया जाये। कर्मचारियों की कमी होने पर दोनों कार्य वरिष्ठ कर्मचारियों द्वारा ही सम्पादित किये जाते हैं। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि नैत्यक जाँच एवं प्रमाणन एक-दूसरे से भिन्न हैं। किन्तु नैत्यक जाँच प्रमाणन के लिए पूरक का कार्य करती हैं।

प्रमाणन के उद्देश्य

(Objects of Vouching)

प्रमाणन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

1. लेखों की सत्यता का ज्ञान-प्रमाणन का मुख्य उद्देश्य प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में किए गए लेखों की सत्यता एवं शुद्धता को प्रमाणित करना होता है । अंकेक्षक प्रमाणक की जाँच करके देखता है कि वह ठीक है। फिर उस प्रमाणक के आधार पर किए हुए लेखों का प्रमाणक के विवरण से मिलान करता है और यह जाँचता है कि लेखे प्रमाणकों के आधार पर सत्य एवं शुद्ध हैं।

2. लेखों का पूर्ण होना-प्रमाणन का उद्देश्य इस बात की सन्तुष्टि करना है कि प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में किये गये लेखे पूर्ण हैं। प्रमाणन के द्वारा अंकेक्षक यह देखता है कि संस्था की लेखा पुस्तकों में कोई भी ऐसी प्रविष्टि (entry) न हो जिसके लिए प्रमाणक (voucher) न हो और ऐसा कोई प्रमाणक (voucher) न हो जिसकी प्रविष्टि (entry) न की गई हो। (There should be no entry without a voucher and ng voucher without its entry.) अतः प्रमाणन से अंकेक्षक को यह विश्वास हो जाता कि सभी व्यवहारों का लेखा हो गया है एवं कोई भी व्यवहार लिखने से नहीं छूटा है।

3. लेखों का व्यापार से सम्बन्धित होना-प्रमाणन का उद्देश्य यह जानकारी प्राप्त करना भी है कि जिन व्यवहारों के लेखे लेखा पुस्तकों में किये गये हैं, वे समस्त व्यवहार संस्था/व्यापार से ही सम्बन्धित हैं। कहीं ऐसे लेन-देन तो लेखा-पुस्तकों में नहीं लिख दिये गये हैं जिनका संस्था/व्यापार से कोई सम्बन्ध ही न हो। कोई प्रमाणक ऐसा तो नहीं है जो व्यापारी/कर्मचारी के व्यक्तिगत खर्चे से सम्बन्धित हो, परन्तु उसका लेखा व्यापार/संस्था की लेखा पुस्तकों में कर लिया गया हो। अत: अंकेक्षक प्रमाणन करते समय यह बात ध्यान से देखता है कि उक्त प्रमाणक संस्था/व्यापारिक उपक्रम के नाम में ही बना हुआ है।

इस सम्बन्ध में स्पाइसर एवं पेगलर का यह कथन उल्लेखनीय है, “प्रमाणन का एक मुख्य उद्देश्य केवल यह जानना ही नहीं कि व्यापार से द्रव्य का भुगतान वास्तव में कर दिया गया है, वरन इसका एक मुख्य उद्देश्य यह जानना भी है कि ऐसा भुगतान व्यापार से सम्बन्धित सौदे के सम्बन्ध में ही हुआ है, असम्बन्धित सौदे के सम्बन्ध में नहीं।”

4. लेखों का अधिकृत होना प्रमाणन के अन्तर्गत अंकेक्षक यह भी जानना चाहता है कि जो लेन-देन पुस्तकों में लिखे गए हैं वे ठीक होने के साथ-साथ अधिकृत भी हैं या नहीं । अर्थात् जो भी लेन-देन पुस्तकों में लिखा जाए वह उत्तरदायी अधिकारी द्वारा अधिकत होना चाहिए। जैसे-किसी कर्मचारी को यात्रा-व्यय (T.A.) बिल की राशि के भुगतान का प्रमाणक अधिकृत अधिकारी द्वारा पास किया हुआ होना चाहिए ।

प्रमाणन का महत्त्व (Importance of Vouching) अथवा “प्रमाणन अंकेक्षण का सार है” (Vouching is the essence of Auditing) अथवा “प्रमाणन अंकेक्षण की रीढ़ की हड्डी है” (Vouching is Backbone of Auditing)

प्रमाणन सम्पूर्ण अंकेक्षण क्रियाओं का आधार माना जाता है। लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियों की जाँच केवल प्रमाणकों के आधार पर ही की जा सकती है अर्थात् कोई भी अंकेक्षक हिसाब-किताब के लेखों की सत्यता का प्रमाण-पत्र उनसे सम्बन्धित प्रमाणक को देखकर ही दे सकता है। यदि अंकेक्षक प्रमाणन का कार्य कुशलता से करता है तो प्रमाणन करते समय ही अशुद्धियों एवं अनियमितताओं का पता चल जाता है। प्रमाणन करने से खों की सत्यता, शुद्धता, अधिकृतता तथा पूर्णता का पता चल जाता है। इसके अतिरिक्त लेखों का व्यापार से सम्बन्धित होना भी निश्चित हो जाता है। वास्तविकता यह है कि प्रमाणन के पश्चात् ही अंकेक्षण कार्य आगे बढ़ता है।

प्रमाणन के महत्त्व को स्वीकार करते हुए डी० पॉला (De Paula) ने लिखा है, “प्रमाणन अंकेक्षण का सार है, और अंकेक्षक की पूर्ण सफलता इस बात पर निर्भर है कि प्रमाणन का कार्य कितनी चतुराई तथा पूर्णता के साथ किया गया है।”

प्रमाणन को अंकेक्षण कार्य की आत्मा कहा जाता है। मानव शरीर में आत्मा का जो महत्व है, वही महत्व और उपयोगिता अंकेक्षण में ‘प्रमाणन’ की है। आत्मा के अभाव में शरीर निष्प्राण है, उसी प्रकार प्रमाणन के अभाव में अंकेक्षण निष्प्राण एवं अर्थहीन होता है। अतः प्रमाणन को अंकेक्षण का सार कहना उपयुक्त ही होगा।

प्रो० आर० बी० बोस (Prof. R. B. Bose) के मतानुसार, “यह कहना सत्य है कि प्रमाणन अंकेक्षण का सार है, क्योंकि प्रमाणन के माध्यम से ही अंकेक्षक अपने को व्यवहारों के लेखों की पूर्णता एवं प्रमाणिकता के सम्बन्ध में आश्वस्त कर सकता है।”

प्रमाणन के महत्व के उपर्युक्त विवेचन के अलावा आर्मिटेज बनाम ब्रेवर एण्ड नॉट (Armitage Vs. Brewar and Knott, 1932) के मामले में न्यायाधीश श्री टेलबॉट द्वारा दिए गए निर्णय से भी यह स्पष्ट होता है कि अंकेक्षण की सम्पूर्ण क्रिया में प्रमाणन बहुत महत्वपूर्ण है।

लंकास्टर के अनुसार, “यह अनुभव करना चाहिए कि प्रमाणन की प्रकृति ही व्यवहार में इसे अंकेक्षण का एक अविच्छिन्न अंग बना देती है तथा इस बारे में जब कभी अंकेक्षक के कर्तव्यों को कम करने के लिए सोचा जाए, तो आने वाली जोखिम को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए।”

प्रमाणन के महत्व के में कुछ विद्वानों का यह मत है कि, “प्रमाणन अंकेक्षण की रीढ़ की हड्डी है।” इसका आशय यह है कि जिस प्रकार मानव शरीर में रीढ़ की हड्डी सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण है उसी प्रकार अंकेक्षण के कार्य में प्रमाणन का महत्व है। यदि रीढ़ की हड्डी कमजोर हो या टूट जाये तो अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य की दशा क्या होगी। रीढ़ की हड्डी के सहारे ही मानव शरीर का ढाँचा खड़ा रहता है। इस हड्डी के टूटने या कमजोर होने से मानव शरीर की सत्व क्रियाएँ प्रभावित होती हैं । हड्डी टूटने पर न तो मनुष्य ठीक प्रकार चल ही सकता है और न ही खड़ा हो सकता है, शरीर सुचारू रूप से कार्य नहीं कर सकता। इसी प्रकार प्रमाणन के कमजोर होने से या न होने से अंकेक्षक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता अर्थात् प्रमाणन के कमजोर होने से लेखों की सत्यता एवं नियमितता को जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती। जिस प्रकार रीढ़ की हड्डी बहुत सख्त होती है, इसी प्रकार प्रमाणन् कार्य भी ठोस होना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मानव शरीर से सुचारू रूप से कार्य लेने के लिए रीढ़ की हड्डी का सही तथा मजबूत होना आवश्यक है, उसी प्रकार अंकेक्षण कार्य से वांछित फल प्राप्त करने के लिए प्रमाणन का सही होना आवश्यक है। यदि प्रमाणन कार्य पूरी योग्यता, लगन तथा कुशलता से न किया जाये तो अंकेक्षण कार्य व्यर्थ सिद्ध हो सकता है। प्रमाणन के अन्तर्गत छोटे से छोटे तथा अमहत्त्वपूर्ण व्यवहार तक की प्रविष्टि की जाँच की जानी चाहिए ।

“भुगतान को प्रमाणित करते समय अंकेक्षक केवल यही नहीं प्रमाणित करता है कि रुपये का भुगतान कर दिया गया है” (“In Vouching Payments, the Auditor does not Merely Seek Proof that Money has been Paid away’).

रोकड़ बही के भुगतान पक्ष का प्रमाणन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि प्राप्ति पक्ष का। रोकड़ पुस्तक के भुगतान पक्ष का प्रमाणन करते समय अंकेक्षक को बड़ी सावधानी से काम लेना चाहिए। रोकड़ भुगतान के सम्बन्ध में भी छल-कपट व गबन की सम्भावना बनी रहती है। भुगतान पक्ष में अनेक प्रकार से छल-कपट व गबन किये जा सकते हैं-वास्तविक राशि से अधिक की राशि का भुगतान दिखाना, उचित व्यक्ति को भुगतान न दिया जाना, काल्पनिक भुगतान प्रदर्शित करना, अनाधिकृत भुगतान करना आदि । भुगतान पक्ष के प्रमाणन के सम्बन्ध में प्राय: यह प्रश्न किया जाता है कि “भुगतान का प्रमाणन करते समय अंकेक्षक केवल यही देखता है कि मुद्रा का भुगतान कर दिया गया है।

सामान्यतया यही समझा जाता है कि रोकड़ भुगतान के बदले जो रसीद प्राप्त हुई है, केवल उसकी जाँच करने से ही भुगतान का प्रमाणन हो जाता है। यह विचार सर्वथा गलत है। भुगतान के बदले प्राप्त रसीद तो केवल एक प्रमाणक है। वस्तुतः भुगतान को प्रमाणित करते समय अंकेक्षक केवल यही नहीं प्रमाणित करता है कि रुपये का भुगतान कर दिया गया है। अंकेक्षक को इस प्रमाणक के अलावा अन्य बहुत-सी बातें देखनी पड़ती है, जिससे उसको यह विश्वास हो जाये कि भुगतान उचित है, शुद्ध है, नियमानुकूल है तथा उसका सही लेखा किया गया है।

संक्षेप में, रोकड़ बही के भुगतान पक्ष का प्रमाणन करते समय अंकेक्षक को निम्नलिखित बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए

1. उचित प्रमाणक-प्रत्येक भुगतान के बदले संस्था के पास उचित प्रमाणक मौजूद होना चाहिये जैसे-रसीद, क्रय, बीजक आदि ।

2. भुगतान की वास्तविकता-भुगतान का प्रमाणन करते समय अंकेक्षक को इस बात का पता अवश्य लगाना चाहिए कि भुगतान वास्तव में किया गया है या नहीं।

3. सही व्यक्ति को भुगतान-प्रमाणन के समय अंकेक्षक को इस बात का भी पता लगाना चाहिए कि भुगतान जिस व्यक्ति को किया गया है वह वास्तव में भुगतान प्राप्त करने का अधिकारी था या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि रकम का भुगतान गलत व्यक्ति को कर दिया हो। भुगतान पाने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर प्रमाणक पर होने चाहियें ।

4. सही राशि का भुगतान-अंकेक्षक को भुगतानों का प्रमाणन करते समय यह भी देखना चाहिए कि उतनी ही रकम का भुगतान किया गया है जितनी प्राप्तकर्ता को प्राप्त करने का अधिकार था। दूसरे शब्दों में, लेखों या प्रपत्रों के अनुसार जितनी राशि का भुगतान किया जाना चाहिये था, उतनी ही राशि का भुगतान किया गया है या नहीं।

5. भुगतान का व्यापार से सम्बन्धित होना-यह भी देखना चाहिए कि भुगतान संस्था के व्यापार से सम्बन्धित है या नहीं। संस्था के मालिक अथवा कर्मचारी के निजी व्यय का भुगतान संस्था के व्यय के रूप में तो नहीं लिखा गया है। जैसे-निजी यात्रा व्यय को फर्म के यात्रा व्यय के रूप में लिखा जाना, व्यवसाय के प्रबन्धक ने निजी प्रयोग के लिए कूलर खरीदा हो और इस खर्च को व्यापार में लिख दिया गया हो। व्यवहार में इस प्रकार के गबन के अधिक उदाहरण देखने को मिलते हैं।

कभी-कभी प्रमाणक साझेदार, संचालक एवं मैनेजर के व्यक्तिगत नाम में बने रहते हैं। ऐसी परिस्थितियों में अंकेक्षक को विवेक से कार्य लेना चाहिये।

6. भुगतान का अधिकृत होना-प्रमाणन करते समय अंकेक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो भुगतान किए गए हैं वह उत्तरदायी व्यक्ति द्वारा अधिकृत हैं या नहीं। जो भुगतान उत्तरदायी व्यक्ति द्वारा अधिकृत न हों उन्हें पास नहीं करना चाहिए।

कुछ संस्थाओं में विभिन्न अधिकारियों को भुगतान के सम्बन्ध में सीमाएँ निश्चित कर दी जाती हैं। अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि उन सीमाओं का पालन किया गया है अथवा नहीं।

7. रसीदी टिकट-पाँच हजार रुपये से अधिक मूल्य की प्रत्येक रसीद पर एक रुपये का रसीदी टिकट लगा होना चाहिए।

8. भुगतान का देय होना-अंकेक्षक को प्रमाणन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो भी भुगतान किया गया है वह देय हो चुका है या नहीं अर्थात् भुगतान के दिन प्राप्तकर्ता को भुगतान प्राप्त करने का अधिकार था या नहीं।

अंकेक्षक को यह देखना चाहिए कि वह जिस वित्तीय वर्ष के लेखों का अंकेक्षण कर रहा है, भुगतान उसी वर्ष से सम्बन्धित है। यदि किसी अन्य वित्तीय वर्ष का व्यय इस वर्ष में डाल दिया गया हो, तो लाभ-हानि खाता सही एवं वास्तविक लाभ-हानि प्रदर्शित नहीं करेगा। सामान्यतया वर्ष के प्रारम्भिक अथवा अन्तिम दिनों में इस प्रकार की गड़बड़ की जाती है। अत: अंकेक्षक को वित्तीय वर्ष के पहले तथा अन्तिम महीने के भुगतानों की जाँच इस दृष्टि से विशेष रूप से करनी चाहिए।

9. भुगतान की वैधता प्रत्येक व्यावसायिक संस्था पर पृथक्-पृथक् विधान लागू होता है अतः अंकेक्षक को प्रमाणन करते समय यह देखना चाहिए कि भुगतान किसी विधान का उल्लंघन तो नहीं करता जैसे, कोई कम्पनी तब तक लाभांश नहीं बांट सकती जब तक कि सम्पत्तियों के ह्रास के लिए उचित प्रावधान न कर लिया जाए। अतः यदि इस नियम का उल्लंघन किया जाता है तो इस प्रकार किया गया भुगतान अवैध होगा। इसके अतिरिक्त अंकेक्षक को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी भुगतान पार्षद सीमा नियम और अन्तर्नियम तथा साझेदारी अनुबन्ध के विरुद्ध नहीं होना चाहिए।

10. बहियों में उचित लेखा-अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि रोकड़ बही में भुगतानों का सही लेखा किया गया है या नहीं तथा खाता बही में भी सही खतौनी की गई है या नहीं। साथ ही अंकेक्षक को यह भी देखना चाहिए कि लेखांकन के सिद्धान्तों का पूर्णतया पालन किया गया है या नहीं।

उदाहरणस्वरूप पूँजीगत व्यय तथा आयगत व्यय को सही तथा अलग-अलग लिखा गया है। पेशगी दी गयी खर्चे की रकमों को खर्च खाते में न लिखकर पेशगी खर्च खाते (Prepaid Expenses Account) में लिखा गया है। यदि भुगतान का लेखा करने में त्रुटि हो गई, तो लाभ-हानि खाते तथा चिट्ठे की वास्तविकता पर प्रभाव पड़ेगा।

प्रमाणक का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Voucher)

प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में जिन कागजी सबूतों के आधार पर लेखे किये जाते हैं, उन्हें प्रमाणक कहते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रमाणक से आशय उस प्रलेख से है जिसकी सहायता से प्रारम्भिक लेखा-पुस्तकों में किये गये लेखों की सत्यता, पूर्णता एवं अधिकृत होने की जानकारी प्राप्त की जाती है।

विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रमाणक’ को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-

1. जे० आर० बाटलीबॉय (J. R. Botliboi) के अनुसार, “लेखांकन की पुस्तकों में किये गये लेखों की सत्यता का प्रमाण देने वाले प्रपत्र ही प्रमाणक कहे जाते हैं।”

2. रोनाल्ड ए० आयरिश (Ronald A. Irish) के अनुसार, “प्रमाणक से आशय एक रसीद, एक बीजक, एक समझौता, एक माँग पत्र अथवा किसी भी उपयुक्त लिखित प्रमाण से है, जो लिखे हुए लेन-देनों की पुष्टि करें।”

प्रमाणकों के भेद

(Kinds of Vouchers)

प्रमाणक दो प्रकार के हो सकते हैं—

1. मूल प्रमाणक (Primary Voucher)- किसी प्रविष्टि से सम्बन्धित जो मौ लिखित प्रमाण होता है उसे मूल प्रमाणक कहते हैं। जैसे-नकद क्रय के सम्बन्ध में प्राप्त कैशमीमो ‘मूल प्रमाणक’ होता है

2. गौण प्रमाणक (Subsidiary Voucher)- जब किसी सौदे से सम्बन्धित मूल प्रमाणक उपलब्ध नहीं हो पाता, तो उस सौदे की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए या तो मूल प्रमाणक की प्रतिलिपि अंकेक्षक के समक्ष प्रस्तुत की जाती है अथवा अन्य कोई ऐसा प्रपत्र प्रस्तुत किया जाता है जिससे अमुक सौदे की सत्यता जाँची जा सके। ऐसी प्रतिलिपि तथा अन्य प्रपत्र को ‘गौण प्रमाणक’ कहते हैं। जैसे–किसी उधार क्रय के भुगतान का मूल प्रमाणक (अर्थात् रसीद) खो जाने पर इसके गौण प्रमाणक (अर्थात् बीजक) से प्रमाणन किया जा सकता है।

कभी-कभी मूल प्रमाणक संस्था के पास मौजूद होते हुए भी अंकेक्षक अपनी शंका के समाधान के लिए गौण-प्रमाणक माँग सकता है। जैसे पहले उधार खरीदे गए माल का अब भुगतान करने पर; इस समय प्राप्त रसीद (मूल प्रमाणक) के साथ-साथ अंकेक्षक छूट (Discount) आदि के सम्बन्ध में अपनी शंका का समाधान करने के लिए बीजक, पत्र-व्यवहार, आदेश की प्रतिलिपि, माल-भीतरी-पुस्तक आदि (गौण प्रमाणक) जाँच करने के लिए माँगता है।

प्रमाणकों की जाँच करते समय ध्यान देने योग्य बातें

(Points to be Considered by Auditor while Vouching)

1. नियोक्ता का नाम-प्रत्येक प्रमाणक नियोक्ता के नाम में होना चाहिए। यदि प्रमाणक नियोक्ता के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति के नाम में है तो ऐसे प्रमाणकों को स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रमाणक गापार/संस्था से सम्बन्धित होना चाहिए न कि व्यापारी/कर्मचारी के निजी उपयोग से सम्बन्धित हो।

2. प्रमाणक की तिथि-प्रत्येक प्रमाणक पर तिथि अवश्य होनी चाहिए और यह तिथि उसी वित्तीय वर्ष या अवधि की होनी चाहिए जिस अवधि की लेखा पुस्तकों का अंकेक्षण किया जा रहा है

3. छपा हुआ फार्म-जहाँ तक सम्भव हो प्रमाणक छपे हुए फार्म पर ही होना चाहिए ।

4. क्रम संख्या का होना-प्रमाणकों पर क्रम-संख्या छपी होनी चाहिए एवं क्रम संख्या के आधार पर ही उन्हें संलग्न करना चाहिए ।

5. प्रमाणक पर हस्ताक्षर-प्रमाणक पर भुगतान पाने वाले या उसके द्वारा किसी अधिकृत व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहिये।

6. रकम का लिखा होना-प्रमाणक पर लिखी गई रकम शब्दों तथा अंकों में एक समान होनी चाहिए। ऐसे प्रमाणकों को स्वीकार नहीं करना चाहिए जिन पर अंकों व शब्दों में अलग-अलग रकम लिखी हुई हो।

7. रसीदी टिकट-5,000 रुपये से अधिक मूल्य के प्रमाणकों पर रसीदी टिकट लगा होना चाहिए। कैश मीमो पः रसीदी टिकट का होना आवश्यक नहीं है ।

8. भुगतान की स्वीकृति-भुगतान किसी उत्तरदायी व्यक्ति द्वारा स्वीकृत होना चाहिए।

9. विवरण का मिलान-प्रमाणक का विवरण लेखा पुस्तकों में लिखे हुए व्यवहारों के विवरण से मेल खाना चाहिए ।

10. विशेष चिन्हों का प्रयोग-भिन्न-भिन्न मदों के प्रमाणकों की जाँच पर विशेष चिन्हों का प्रयोग करना चाहिए।

11. प्रमाक पर कोई परिवर्तन होने पर उचित अधिकारी के हस्ताक्षर होना–यदि किसी प्रमाणक कोई अंक या विवरण कटा हुआ है या उस पर कोई रका काटकर दुबारा लिखी गई है तो उस पर अधिकृत व्यक्ति के हस्ताक्षर होने चाहियें अन्यथा ऐसे प्रमाणक को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

12. जाँच किये हुए प्रमाणकों को रद्द करना-जिन प्रमाणकों की जाँच हो चुकी है उन्हें रबर स्टाम्प लगाकर रद्द कर देना चाहिए ताकि एक प्रमाणक दुबारा न दिखाया जा सके।

13. सम्बन्धित व्यक्ति से पत्र व्यवहार-यदि अंकेक्षक को किसी प्रमाणक के सम्बन्ध में कोई सन्देह हो तो उसे उस प्रमाणक से सम्बन्धित व्यक्ति से पत्र-व्यवहार करके । वास्तविकता का पता लगाना चाहिए। . .          

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