Saturday, December 21, 2024
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Bcom 2nd Year Communication-Nature, Process, Network and Barris

Bcom 2nd Year Communication-Nature, Process, Network and Barris

Bcom 2nd Year Communication

संचार या सम्प्रेषण 

Commnication

आधुनिक युग में प्रभावी सम्प्रेषण ही किसी भी व्यवसाय की सफलता का मूलमन्त्र है। सम्प्रेषण के द्वारा ही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में, “यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग की सफलता सम्प्रेषण पर ही निर्भर करती है। 

Communication शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के common शब्द से हुयी है। जिसको लैटिन भाषा में communicate कहा जाता है । इसका अर्थ है ‘एक समान’ । सम्प्रेषण दो व्यक्तियों के मध्य तथ्यों, सूचनाओं, विचारों एवं विकल्पों आदि के आदान-प्रदान का एक माध्यम है। यह आदान-प्रदान लिखित, मौखिक तथा सांकेतिक भी हो सकता है। 

सम्प्रेषण को परिभाषाओं के रूप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है । 

डैल एस० बैच के शब्दों में—“सम्प्रेषण एक व्यक्ति के द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को सूचना अथवा विश्वास का हस्तान्तरण है।” 

न्यमैन तथा समर के शब्दों में–“सम्प्रेषण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य तथ्यों. विचारों, सम्मतियों या भावनाओं का विनिमय है।” 

लुईस ए० एलन के शब्दों में-“सन्देशवाहन उन सब बातों का योग है जिनको एक व्यक्ति अपने विचारों को किसी दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में पहुँचाने के लिये अपनाता है। यह एक अर्थ का पुल है जिसमें कहने, सुनने तथा समझने की प्रक्रिया चलती रहती है।” 

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्प्रेषण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत व्यक्तियों के विचारों, भावनाओं तथा तथ्यों का आदान-प्रदान निरन्तर होता रहता है। जिनके आदान-प्रदान के लिये पत्र, चिह्न तथा शब्द आदि माध्यम का कार्य करते हैं। 

संचार के आवश्यक तत्त्व (विशेषताएँ) 

(Essential Features of Communication)

सम्प्रेषण के आवश्यक तत्व सम्प्रेषण प्रक्रिया में प्रयुक्त होने वाले आवश्यक तत्वों को निम्न प्रकार समझाया जा सकता है- 

(1) लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया सम्प्रेषण एक ऐसी प्रक्रिया है जो वि . सं. के कर्मचारियों, ग्राहकों तथा सरकार के मध्य निरन्तर बनी रहती है। इस संस्था से जुड़े हुए सभी लोग अपने विचारों, कल्पनाओं, तथ्यों तथा शब्दों का आदान-प्रदान निरन्तर करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में निर्देश, सुझाव, चेतावनी, अभिप्रेरणा तथा मनोबल ऊंचा उठाने वाले संदेशों का आदान-प्रदान निरन्तर रूप से चलता रहता है। 

(2) विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम-यदि कोई व्यक्ति अपने विचारों, सुझावों या सलाह को किसी अन्य व्यक्ति तक पहुँचाना चाहता है तो इसके लिये उसे यह निश्चित करना होगा कि वह किस माध्यम का प्रयोग करे अर्थात् माध्यम दो व्यक्तियों के मध्य विचारों के आदान-प्रदान का एक मुख्य तत्व है। माध्यम निम्न हो सकते हैं-आमने-सामने, टेलीविजन, टेलीफोन, रेडियो, पत्र, तार, फैक्स, ई-मेल, समाचार-पत्र आदि । 

(3) सम्प्रेषण दोतरफा प्रक्रिया-इस प्रक्रिया में कम से कम दो व्यक्तियों का होना अति आवश्यक है, एक सन्देश भेजने वाला तथा दूसरा सन्देश प्राप्त करने वाला । जब एक व्यक्ति किसी भी माध्यम के द्वारा अपना सन्देश दूसरे व्यक्ति को भेजता है तो सन्देश प्राप्त करने वाला उस सन्देश को उसी उद्देश्य से समझकर जिस उद्देश्य से सन्देश भेजा गया है, उसकी प्रतिपुष्टि करता है। यदि सन्देश भेजा गया है लेकिन प्राप्त नहीं किया गया है तो सन्देश प्रक्रिया पूरी हुयी नहीं मानी जा सकती है अर्थात् कम से कम दो व्यक्तियों के होने पर सन्देश प्रक्रिया पूरी हो पाती है। 

(4) सम्प्रेषण एक सतत प्रक्रिया-यदि एक व्यक्ति द्वारा सन्देश भेजने पर दूसरा व्यक्ति उस सन्देश को प्राप्त कर लेता है तो सम्प्रेषण प्रक्रिया को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। इसके लिये यह आवश्यक है कि सन्देश प्राप्तकर्ता उसे उसी भाव से समझें जिस भाव से वह भेजा गया है। इसके लिये सन्देश वाहक को सन्देश भेजते समय बहुत ही सतर्क होना चाहिये अर्थात् सन्देश भेजते समय यदि उसमें कोई चिह्न भी गलत हो जाता है तो उसका अर्थ बदल जाता है

(5) सम्प्रेषण एक प्रबन्धकीय कार्य है-सम्प्रेषण का प्रबन्ध में एक महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी प्रबन्धकीय प्रक्रिया में नियोजन से लेकर नियन्त्रण तक सभी प्रक्रियाओं का आधार सम्प्रेषण ही है । सम्प्रेषण की अनुपस्थिति में प्रबन्ध एक बिना हवा वाले टायर जैसा होता है, जिसको आगे ले जाना बहुत ही कठिन कार्य होता है। 

सम्प्रेषण के महत्व 

(Importance of Communication)

आधुनिक युग में किसी भी व्यवसाय अथवा प्रबन्धक की सफलता सम्प्रेषण पर ही आधारित है ! सम्प्रेषण की अनुपस्थिति में किसी भी व्यवसाय अथवा प्रबन्ध का विकास सम्भव नहीं है। कीथ डेविस के शब्दों में, “सम्प्रेषण किसी भी व्यवसाय के लिये उतना ही आवश्यक है जितना कि मानव जीवन में रक्त का होना आवश्यक है।” – प्रबन्धकों के लिये सम्प्रेषण के महत्व की विवेचना इस प्रकार की जा सकती है-

(1) निर्देशन तथा नियन्त्रण का आधार-एक कुशल सम्प्रेषण ही किसी भी निर्देशन अथवा नियन्त्रण को पूर्ण रूप से सफल बना सकता है अर्थात किसी भी कार्य के कुशल निर्देशन हेतु सूचनाओं की आधुनिक प्रथा एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। एक कुशल सम्प्रेषण द्वारा ही विभाग के कर्मचारी सही समय पर सही निर्देश प्राप्त करते हैं तथा उस कार्य को शत-प्रतिशत सफलता प्राप्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

(2) सफल संचालन-किसी भी व्यवसाय में उसके उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये बासी व्यवस्थाओं से सम्पर्क बनाये रखना अति आवश्यक है । एक कुशल सम्प्रेषण द्वारा बाजार बाहरी अवस्थाओं का ज्ञान सही समय पर हो पाता है। जिससे व्यापार सफलता की और अग्रसर रहता है। यदि सम्प्रेषण में किसी भी प्रकार की बाधा आ जाती है तो प्रबन्धकों बाजार की सही स्थिति का ज्ञान नहीं हो पाता है। अत: उन्हें व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि व्यवसाय के सफल संचालन के लिये सम्प्रेषण अति आवश्यक है। 

(3) व्यक्तियों के समह में कार्य की एकरूपता के लिये आवश्यकता-कोई भी व्यवसाय विभिन्न प्रकार के समहों में विभाजित होता है। इन सभी समूहों के कार्य अलग-अलग होने पर भी सभी एक साथ जुड़े हुए होते हैं। इन सभी समूहों का एक-दूसरे से सीधा सम्पर्क होता हे । अत: व्यापार की सफलता हेतु इन सभी समूहों के मध्य समन्वय होना अति आवश्यक है। यदि इन सभी समूहों में सही समन्वयन होगा तो व्यावसायिक संगठन अपने उद्देश्यों को सही प्रकार से प्राप्त कर पायेगा। इन सभी समूहों में सपन्वय स्थापित करने के लिये सम्प्रेषण अति आवश्यक है । सम्प्रेषण के द्वारा ही यह समूह अपने विचारों का आदान-प्रदान सही प्रकार से कर सकते हैं।

(4) बाहरी जगत से सम्पर्क-वर्तमान युग में किसी भी व्यवसाय के सफल संचालन हेतु बाहरी जगत से सम्पर्क होना अति आवश्यक है। कुशल सम्प्रेषण द्वारा ही संस्था बाहरी जगत से सम्पर्क बनाये रख सकती है। बाहरी जगत में सरकार की नीतियों तथा ग्राहकों की रुचियों में निरन्तर बदलाव आते रहते हैं । कुशल सम्प्रेषण द्वारा ही हमें सही समय पर इनका ज्ञान हो पाता है जिसके द्वारा संस्था अपनी नीतियों में सही समय पर बदलाव कर पाती है। 

(5) प्रोत्साहन में सहायक-सम्प्रेषण द्वारा संस्था के कर्मचारियों को निर्देश देने के साथ-साथ प्रोत्साहित भी किया जाता है । कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है । सम्प्रेषण के द्वारा प्रबन्धक कर्मचारियों की परेशानियों को प्रबन्धक अथवा संचालक जान सकते हैं तथा उनकी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, जिसके फलस्वरूप कर्मचारियों का संस्था पर विश्वास बढ़ता है।

(6) नेतृत्व में सहायक-कुशल सम्प्रेषक द्वारा ही प्रबन्धक अपने कर्मचारियों का सही ढंग से नेतृत्व कर पाते हैं। आधुनिक व्यवसाय में निरन्तर नयी समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं जिनका समाधान प्रबन्धक तथा कर्मचारी आपसी विचारों के आदान-प्रदान द्वारा ही कर पाते हैं। इससे कर्मचारियों को यह अनुभव होता है कि व्यवसाय के प्रबन्ध में उनकी भी महत्वपर्ण भूमिका है। . 

उपरोक्त व्याख्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी व्यवसाय की सफलता के लिये सम्प्रेषण अति आवश्यक है। सर जान हार्वे जान्स के शब्दों में, “प्रबन्धकों के लिये सम्प्रेषण महत्वपूर्ण आवश्यक योग्यता है। पेशेवर तथा परिणाम वांछित संगठन हमेशा ऐसे सम्प्रेषण की तलाश में रहते हैं जो सम्प्रेषण क्षमता में निपुण हो।” 

सम्प्रेषण की अन्तर्सम्बन्धित विचारधारा 

(Interaction Theory of Communication)

सम्प्रेषण की अन्तर्सम्बन्धित विचारधारा में सन्देश का आदान-प्रदान होता है। प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्ता के बीच सन्देश, विचार, भावनाओं का परस्पर आदान-प्रदान होता है । इसी से प्रतिपुष्टि भी होती है, इसके प्रमुख कारक या घटक होते है- 

(1) सन्देश विचार या उत्प्रेरक,

(2) मार्ग

(3) माध्यम

(4) प्रापक

(5) निहित अर्थ को समझना,

(6) सन्देश अर्थ को निहित करना,

(7) प्रेषक, परिषणकर्ता या सम्प्रेषण,

(8) क्रियान्वयन,

(9) प्रतिपुष्टि । 

सम्प्रेषण की अन्तर्सम्बन्धित विचारधारा की विशेषताएँ 

(1) प्रेषक सन्देश को Encode करता है जबकि प्रापक उसको Decode करता है ।

(2) सम्प्रेषण में प्रति प्रेषक और प्रापक, दोनों सजग रहते हैं।

(3) सम्प्रेषण को सन्देश की प्रक्रिया की जानकारी हो जाती है ।

(4) यह द्विमार्गी प्रक्रिया है।

(5) सन्देश प्रापक प्रतिपुष्टि करता है इसलिए इसे (Interaction) कहा जाता है। 

अन्तर्सम्बन्धित विचारधारा का महत्व-यह एक प्रभावपूर्ण सम्प्रेषण प्रक्रिया है क्योंकि इसके द्वारा वांछित प्रतिपुष्टि होती है। जिससे सन्देश या विचारों की कमियों का संशोधन या पुनः निरीक्षण किया जा सकता है। 

सम्प्रेषण की व्यावहारिक (लेन-देन) विचारधारा 

(Transaction Theory of Communication)

सम्प्रेषण की इस विचारधारा में व्यापार के लेन-देन की तरह सम्प्रेषण निरन्तर चलता रहता है तथा सन्देशों का आपस में आदान-प्रदान होता ही रहता है और इस प्रकार सम्प्रेषण का कभी अन्त नहीं होता। यह निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है । इसमें सन्देश प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता समान रूप में प्राप्तकर्ता तथा प्रेषक बना रहता है। इस विचारधारा को प्रभावित करने वाले घटक है

(1) सन्देश,

(2) सम्प्रेषक,

(3) सन्देश अर्थ को निहित करना,

(4) मार्ग.

(5) माध्यम

(6) प्रापक,

(7) निहित अर्थ को समझना,

(8) व्यवहार परिवर्तन,

(9) प्रतिपुष्टि ।

व्यावहारिक विचारधारा की विशेषताएँ 

(1) सम्प्रेषण में दोनों पक्ष, प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता निरन्तर सम्प्रेषण करते हैं।

(2) जिस प्रकार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है उसी प्रकार सम्प्रेषण क्रिया-प्रातक्रिया 

(3) प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता दोनों कारण परिणाम से प्रभावित होते हैं।

(4) सन्देश व उसकी प्रतिपुष्टि निरन्तर चलती रहती है।

(5) इस सम्प्रेषण के घटक एवं पारस्परिक सम्बन्ध एक समान होते हैं। 

व्यावसायिक विचारधारा का महत्व–इस विचारधारा की सामूहिक निर्णयन में महत्वपूर्ण भूमिका है । क्योंकि व्यवसायिक संगठन संरचना विभिन्न स्तरों पर समूहों में विभाजित होती है ।

समप्रेषण की प्रमुख बाधाएँ 

(Main Barriers of Communication)

सम्प्रेषण प्रक्रिया के दौरान कई कारणों से सम्प्रेषण देने वाले तथा प्राप्त करने वाले के मध्य कई प्रकार की बाधाएँ तथा रुकावट आ जाती हैं । जिसका सीधा प्रभाव संस्था के कार्यो पर पड़ता है। जिसके कारण कार्य का सम्पादन उस प्रकार नहीं हो पाता जिस प्रकार संदेश प्रेषक चाहता है। इस प्रकार आने वाली बाधाएँ कई प्रकार की हो सकती हैं जिनकी व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है। 

(1) अधिक शब्दों का प्रयोग-कभी-कभी संदेश प्रेषक अपने द्वारा भेजे गये संदेश में जटिल एवं द्विअर्थी शब्दों का अधिक प्रयोग करता है । इसके कारण संदेश प्राप्तकर्ता को उसको समझने में कठिनाई होती है।

(2) सुनने सम्बन्धी बाधाएँ–कभी-कभी संदेश प्रेषक तथा प्राप्तकर्ता के मध्य इस प्रकार की बाधा आ जाती है, जब संदेश देने वाला संदेश तो ठीक प्रकार दे रहा हो लेकिन प्राप्तकर्ता उस संदेश को उतना नहीं सुन पा रहा हो । इसका कारण संदेश प्राप्तकर्ता के आस-पास अधिक शोर होना अथवा संदेश प्राप्तकर्ता को सुनने की शक्ति कम होना भी हो सकता है। यदि संदेश प्रेषक यह संदेश फोन पर दे रहा है तो उस दौरान फोन में किसी प्रकार की बाधा भी आ सकती है, जिसके कारण प्राप्तकर्ता को प्रेषक की आवाज स्पष्ट नहीं आती है। अतः संदेश व्यर्थ हो जाता है।

(3) अनुवाद में बाधाएँ—यदि सन्देश प्राप्तकर्ता को उस भाषा में संदेश नहीं मिलता है. 

जो उसकी बोलचाल की भाषा है तो उसे संदेश का अपनी भाषा में अनुवाद करना पड़ता है। जिसके कारण वह उसका उसी अर्थ में अनुवाद नहीं कर पाता, जिस अर्थ में संदेश भेजा गया है। इससे भी संदेश का अर्थ बदल जाता है । 

(4) अच्छे मानवीय सम्बन्ध न होना–कभी-कभी संस्था के कर्मचारियों के मध्य अच्छे मानवीय सम्बन्ध नहीं होते, जिसके कारण एक कर्मचारी से दूसरे कर्मचारी तक संदेश पहुँचने में अधिक समय लग जाता है । इससे सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हो जाती है। 

(5) संदेश पर ध्यान न देना–यदि संदेश प्राप्तकर्ता आलसी स्वभाव का है तो वह संदेश प्राप्त करते समय उस पर ध्यान नहीं देता। दूसरे शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है कि प्राप्तकर्ता संदेश सुनते समय शारीरिक रूप से उपस्थित रहता है, मानसिक रूप से नहीं। इससे सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न हो जाती है। 

(6) गलत समय पर सम्प्रेषण-यदि संदेश प्रेषक ऐसे समय पर संदेश देता है जब उसके पास समय का अभाव हो या वह किसी अन्य कार्य की जल्दी में हो, तो वह अपनी बात इस बात की परवाह किये बिना ही कि प्राप्तकर्ता उसकी बात समझ भी रहा है अथवा नहीं खत्म कर देता है। ऐसी स्थिति में सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा आना स्वाभाविक है। 

(7) संदेश की अधिकता–यदि कर्मचारियों द्वारा प्राप्त किये जाने वाले संदेश बहुत शिक मात्रा में होते हैं तो इससे कर्मचारियों के अन्दर आलस्य की भावना उत्पन्न हो जा है जिससे सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा आने का खतरा बना रहता है । 

(8) दरी सम्बन्धी बाधाएँ-यदि संदेश प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता के मध्य बहुत अधिक दूरा ह होकभी-कभी संदेश प्राप्तकर्ता संदेश को सही समय पर नहीं प्राप्त कर पाता, जिसके कारण सम्प्रेषण प्रक्रिया में बाधा आ जाती है। 

(9) शोर-शोर मौखिक सम्प्रेषण की सबसे बडी बाधा है। संस्था के कारखाने में मशाना की बहत अधिक आवाज के कारण कर्मचारियों, उनके सुपरवाइजर अथवा उच्च अधिकारिया द्वारा प्राप्त संदेश सही प्रकार से सुनाई नहीं पड़ता, जिसका सीधा प्रभाव उनके द्वारा किये गये . कार्यों पर पड़ता है। 

(10) भय-अधीनस्थ कर्मचारी अपने अफसरों को नीचे से ऊपर की ओर आने वाले सम्प्रेषण की स्थिति में बुरी सूचनाएँ भेजते हुए डरते हैं, अपने अफसरों से बुरी सूचना से पैदा होने वाले परिणामों के भय से वे जानबूझकर ऐसी सूचनाएँ न बताकर उल्टे गुमराह करते हैं । बहुत से कर्मचारी संस्था से सम्बन्धित अपनी सही भावनाओं को अफसरों को बताने में खतरनाक समझते हैं । कर्मचारियों की यह धारणा होती है कि जब अच्छे सुझावों को देने से कोई लाभ नहीं होगा तो वह कोई सुझाव क्यों दें?

(11) मार्ग में होने वाली हानि-यदि संरचना में अनेक स्तर हैं तो मौखिक सन्देश प्रत्येक स्तर पर घटता जाता है या उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य आ जाता है। एक अधिकृत अनुमान के अनुसार, मौखिक सम्प्रेषण में प्रत्येक स्तर पर लगभग 30 प्रतिशत सन्देश समाप्त हो जाते हैं । इसलिये यह मुश्किल हो जाता है कि विभिन्न स्तरों से होकर के प्राप्त सूचना पर भरोसा किया जाये। 

(12) लक्ष्यों का विवाद-संगठनात्मक संरचना में अनेक प्रकार के विभागों तथा उप-विभागों के अपने आन्तरिक लक्ष्य होते हैं जिनके कारण उद्देश्य विवादों का जन्म होता है। फिर भी सम्प्रेषण विवादों को कुछ कम करने वाला मुख्य प्रबन्धकीय तन्त्र है लेकिन विवाद सम्प्रेषण को घटाते हैं। अगर दो पक्षों के मध्य विवाद है तो सम्प्रेषण बहुत कम होगा। इसी तरह, शिकायतें, सन्देश, परिवेदनाएँ, अनावश्यक सूचनायें सम्प्रेषित होने लगते हैं जबकि अधीनस्थों को पर्याप्त समय दिया जाये। 

(13) अधीनस्थों पर विश्वास में कमी-उच्चाधिकारियों में सामान्य धारणा यह होती है कि अधीनस्थ कम कौशल एवं क्षमता वाले होते हैं। वे उच्चाधिकारियों को रचनात्मक सुझाव या वांछित जानकारी का सम्प्रेषण नहीं कर सकते हैं। 

(14) उचित प्रेरणा का अभाव-प्रेरणा का अभाव भी अधीनस्थों को सम्प्रेषण के प्रति • उदासीन बनाता है। संस्था की पुरस्कार एवं दण्ड नीति भी इसके लिये जिम्मेदार है । वे महसूस करते हैं कि उनकी शिकायत, सुझाव आदि से स्थितियाँ कोई परिवर्तित नहीं होंगी। 

बाधाएँ दूर करने के सुझाव 

(Suggestions to Remove Barriers)

सम्प्रेषण में आने वाली बाधायें ऐसी नहीं हैं जिन्हें दूर न किया जा सके । आज के मानव पास किये जाने पर ही इन्हें ने के लिये निम्नलिखित ही एवं उर्ध्वगामी दोनों ही योग करने वाली प्रतिक्रियाएँ जना में कहीं ज्यादा प्रभावी हो अत: मानव द्वारा थोड़े से प्रयास किये दूर किया जा सकता है। सम्प्रेषण में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये तत्वों को ध्यान में रखना चाहिये 

(1) सहयोगी प्रक्रियाएँ सहभागी प्रक्रियाओं का अधोगामी एवं उर्जा सम्प्रेषणों में अधिक से अधिक प्रयोग किया जा सकता है । सहयोग करने वाली अवैयक्तिक, एकपक्षीय तथा अधिसत्ता अभिप्रेरित सम्प्रेषण की तुलना में कहीं ज्यादा सकती हैं। 

(2) लोचपर्ण तन्त्र- सम्प्रेषण तन्त्र को कम से कम इतना लोचपूर्ण जरूर होना : कि वह सूचनाओं के अतिरिक्त भार को समा सके,सूचना प्रेषण की नवीन तकनीकों को भी कर सके तथा परिवर्तित हो रही संगठनात्मक आवश्यकताओं को लागू कर सके। 

(3) उद्देश्यों की स्पष्टता-सम्प्रेषण प्रक्रिया में प्रेषक को सूचना की विषय-वस्त. सन्ट तथा मन्तव्य एवं सन्देश प्राप्तकर्ता को भी सन्देश के उद्देश्यों को पूर्णतया स्पष्ट कर लेना चाहिये। 

(4) सम्पूर्णता-सम्प्रेषण प्रक्रिया में भेजा जाने वाला सन्देश या सूचनापूर्ण होनी जरूरी , है क्योंकि अपूर्ण सन्देश या सूचना प्राप्तकर्ता को आकर्षित नहीं कर पाती। 

(5) प्रभावी सुनना-गवेषणात्मक सुनने का चातुर्य सम्प्रेषण को प्रभावी बनाता है। इसमें सम्प्रेषक अपने विचारों को अपने दृष्टिकोण के प्रति प्राप्तकर्ता तक पहुँचाने में सफल हो जाता है।

(6) सरल भाषा-सम्प्रेषण में प्रयोग होने वाली भाषा, समझने योग्य तथा प्राप्तकर्ता के स्तर की होनी चाहिए। 

(7) शोर हटाना-सम्प्रेषण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिये शोर को कम तथा उसे वहाँ से हटाने के लिये कोशिश करनी चाहिये।

(8) मान्यताओं की स्पष्टता-सम्प्रेषण को प्रभावी बनाने के लिये यह आवश्यक है कि प्रेषक सन्देश से सम्बन्धित मान्यताओं को पहले ही स्पष्ट कर दे। 

(9) प्रतिउत्तर का प्रयोग-प्रतिउत्तर का प्रयोग प्रभावी सम्प्रेषण तन्त्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्षण है तथा इसकी व्यवस्था एक द्विचरणीय सम्प्रेषण तन्त्र के द्वारा की जाती है। 

(10) संक्षिप्तता-सन्दर्भ की विषय-वस्तु सम्पूर्णता के साथ-साथ संक्षिप्त भी होनी चाहिये। तभी सम्प्रेषण को प्रभावी बनाया जा सकता है । 

(11) शारीरिक भाषा का उचित प्रयोग-मौलिक सम्प्रेषण प्रक्रिया में यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि सकारात्मक शारीरिक भाषा.प्राप्तकर्ता के अन्दर छिपे हुए अच्छे विचारों को जन्म देती है।

(12) संगठनात्मक वातावरण-सम्प्रेषण प्रक्रिया में अनेक भागीदारों के मध्य संगठन में विश्वास, साख, सूझ-बूझ तथा पारदर्शिता का एक उचित आन्तरिक संगठनात्मक वातावरण . होना चाहिए। 

(13) प्राप्तकर्ता की आवश्यकता के अनुरूप-सन्देश अथवा सूचनाओं का सम्प्रेषण प्राप्तकर्ता की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये। 

(14) सम्प्रेषण श्रृंखलाएँ–सम्प्रेषण शृंखलाएँ सीधी तथा छोटी हों जिससे सूचनाओं में देरी एवं व्यवधानों को कम किया जा सके। मंगटन की सभी गतिविधियाँ इकाई शृंखलाओं से सम्बद्ध होनी चाहिये। 

(15) नियन्त्रित भावनाएँ—भावनाएँ सम्प्रेषण प्रक्रिया के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं तथा कभी-कभी सम्प्रेषण प्रक्रिया के उद्देश्यों को पूर्ण करने में बाधा पैदा करती है इसलिये सम्प्रेषण प्रक्रिया में भावनाओं पर सम्पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिये । 

सम्प्रेषण के उद्देश्य 

(Objectives of Communication)

सम्प्रेषण के उद्देश्यों की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की जा सकती है-

(1) सूचनाओं का हस्तान्तरण-किसी भी व्यवसाय में सूचनाओं का आदान-प्रदान अति आवश्यक है। अतः सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिये एक कुशल सम्प्रेषण अति आवश्यक है । किसी भी संस्था के कर्मचारी तब तक किसी कार्य का निष्पादन नहीं कर सकते, जब तक इसके लिये कोई सूचना प्राप्त न हो गयी हो। इसके लिये यह भी आवश्यक है कि कर्मचारी सूचना को उसी उद्देश्य के लिये प्राप्त करे जिस उद्देश्य के लिये वह सूचना भेजी गयी हो। 

(2) लक्ष्य की प्राप्ति-सम्प्रेषण के द्वारा ही संस्था के कर्मचारियों को सूचनाएँ अथवा निर्देश प्राप्त होते हैं। इसके द्वारा वह कार्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचाते हैं। अतः किसी भी कार्य की लक्ष्य प्राप्ति के लिये सम्प्रेषण का होना अति आवश्यक है। 

(3) बाहरी जगत से सम्पर्क-एक व्यावसायिक संस्था के लिये बाहरी जगत से सम्पर्क बनाये रखना अति आवश्यक है । बाहरी जगत से सम्पर्क बनाये रखने पर ही व्यवसाय आधुनिक गति से चल सकता है। इसके लिये बाहरी जगत की सूचनाएँ प्राप्त होना आवश्यक है जो कुशल सम्प्रेषण द्वारा ही सम्भव हो पाती है। 

(4) मधुर सम्बन्ध-सम्प्रेषण के द्वारा ही व्यवसाय में मधुर सम्बन्धों का जन्म होता है। सम्प्रेषण के द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की भावनाओं, विचारों, तथा व्यवहारों को समझ पाता है जिससे उनके अच्छे सम्बन्धों का विकास होता है । सम्प्रेषण के द्वारा ही दो पक्षों के आपसी मतभेदों को सुलझाया जा सकता है। 

(5) तुरन्त निर्णय लेने में सहायक-किसी भी निर्णय को लेने से पूर्व उससे सम्बन्धित समंकों का आकलन अति आवश्यक है। अतः शीघ्र निर्णय लेने में उक्त समंकों के आकलन के लिये सम्प्रेषण सबसे प्रभावी माध्यम है । दूसरे शब्दों में सम्प्रेषण के द्वारा ही जल्द से जल्द समंकों का आकलन किया जा सकता है। 

(6) नीतियों को सफल बनाने के लिये आवश्यक-कोई भी संस्था कम से कम लागत पर श्रेष्ठतम वस्तु का उत्पादन करना चाहती है जिसके लिये उसे कुछ नीतियों का निर्धारण करना अति आवश्यक है। यह नीतियाँ कुशल सम्प्रेषण द्वारा ही संस्था के कर्मचारियों तक पहुँचायी जा सकती हैं। 

Bcom 2nd year Concept, Process and Techniques of Managerial control

Bcom 2nd year leadership-Concept, styles and Theories

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