कांग्रेस का प्रथम चरण : नरमपंथी युग (First phase of congress – Moderate era)
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रथम चरण कांग्रेस का शैशवकाल कहा जाता है। 1885 से 1905 ई० की अवधि में कांग्रेस का राष्ट्रीय संस्था के रूप में क्रमिक विकास हुआ तथा धीरे-धीरे उसकी नीतियों एवं कार्यक्रमों का विकास हुआ। इस अवधि में कांग्रेस ने सुधारवादी कार्यक्रमों को अपनाया, इसलिए इस युग को सुधार का युग कहा जाता है। नरमपंथियों की कार्य करने की पद्धति संवैधानिक साधनों में विश्वास-नरमपंथी संवैधानिक साधनों में विश्वास करते थे। वे हिंसा के विरोधी थे और किसी भी रूप में शासन के विरुद्ध संघर्ष करना नहीं चाहते थे। उनका क्रान्तिकारी साधनों में विश्वास नहीं था। वे राजभक्त थे तथा शासन के साथ सहयोग करना चाहते थे। उनके द्वारा अपनी मांगों का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रार्थना-पत्रों तथा प्रतिनिधिमण्डलों का मार्ग अपनाया गया, जिसे आलोचकों द्वारा ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ (Political Mendicancy) का नाम दिया गया, परन्तु समय और परिस्थितियों के अनुसार नरमपंथियों ने राजनीतिक खेल में समझौता (Negotiation) तथा लेन-देन (Bargaining) जैसी तकनीकों का भी प्रयोग किया। पं० मदनमोहन मालवीय ने कांग्रेस के तीसरे अधिवेशन में कहा था, “हमें सरकार से बार-बार निवेदन करना चाहिए कि वह हमारी मांगों पर शीघ्रता से विचार करे तथा फिर हम अपनी इन सुधार सम्बन्धी माँगों को स्वीकार कराने पर बल दें।”
नरमपंथियों की कार्य-पद्धति के सम्बन्ध में डॉ० इकबाल नारायण का कथन है, “नरमपंथी वस्तुत: क्रमबद्ध विकास की धारणा में विश्वास करते थे तथा तात्कालिक रूप से वे प्रशासन में आवश्यक सुधारों, विधायी परिषदों की स्थापना, स्थानीय स्वशासन जैसी बातों को ही उठाने के पक्षधर थे।” दादाभाई नौरोजी के अनुसार, “शान्तिप्रिय विधि ही इंग्लैण्ड की राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास का जीवन और आत्मा है। इसलिए हमें भी उस सभ्य, शान्तिमय, नैतिक शक्तिरूपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिए।”
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