विदेशी बाजारों में प्रवेश विधि सम्बन्धी निर्णय (Foreign Market Entry Mode Decisions)
जब एक निर्माता विदेशी बाजारों में विक्रय करना चाहता है तो उसके समक्ष विकल्प होते हैं जिनके माध्यम से वह निर्यात कर लाभ कमा सकता है। मोटे पर निर्माता निम्नलिखित दो विधियों से विदेशी बाजार में प्रवेश कर सकता है
प्रत्यक्ष निर्यात (Direct Exporting)
प्रत्यक्ष निर्यात वह विधि है जिसके अंतर्गत निर्यातक मध्यस्थों की सहायता न लेकर सारा कार्य स्वयं करता है अर्थात् निर्यातक द्वारा स्वयं ही वस्तुओं का निर्यात किया जाता है। उसके द्वारा ही सभी कार्यों का निरीक्षण किया जाता जब एक उत्पादक द्वारा सारा कार्य स्वयं किया जाता है तो जोखिम की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और साथ ही लाभ बढ़ने की सम्भावना भी अधिक हो जाती है। बाजार सूचनाएँ प्रत्यक्ष रूप से मिलने के कारण ग्राहक की आशाओं के अनुरूप वस्तु का निर्यात होता है, जिसके फलस्वरूप उपभोक्ता संतुष्टि में वृद्धि होती है। प्रत्यक्ष निर्यात के लाभ-प्रत्यक्ष निर्यात से आयातकर्ता व निर्यातकर्ता दोनों को अनेक लाभ मिलते हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है-
(1) छोटी वितरण व्यवस्था प्रत्यक्ष निर्यात में मध्यस्थों का अभाव होने के कारण वितरण की कड़ी छोटी होती है जिसके फलस्वरूप अन्तिम उपभोक्ता को वस्तुओं का हस्तांतरण शीघ्र व उचित मूल्य पर हो जाता है।
(2) माँग का अनुमान-प्रत्यक्ष निर्यात की सहायता से माँग का सही अनुमान लगाया जा सकता है तथा उसी के अनुरूप माल का निर्यात किया जा सकता है।
(3) ग्राहकों का ज्ञान-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत निर्यातकर्ता का ग्राहकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क होने के कारण उनकी आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा वरीयताओं को समझने में आसानी होती है।
(4) पूर्ण नियन्त्रण-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत उत्पादक का सम्पूर्ण उत्पादन क्रियाओं व कीमतों पर नियंत्रण बना रहता है तथा वह साख शर्तों को आसानी से निर्धारित कर सकते हैं।
(5) ख्याति का निर्माण-प्रत्यक्ष निर्यात की सहायता से विपणनकर्ता विदेशी बाजारों में अपनी तथा अपने उत्पादों की ख्याति का निर्माण कर सकता है।
(6) विक्रय व लाभों में वृद्धि-प्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत निर्यातक का सम्पूर्ण बाजार पर नियंत्रण होने के कारण उसे अपनी वस्तुओं की बिक्री से पूर्ण प्रतिफल मिल जाता है जिससे उसके विक्रय व लाभों में वृद्धि होती है। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
प्रत्यक्ष निर्यात के दोष-(1) जोखिमपूर्ण-प्रत्यक्ष निर्यात के अंतर्गत निर्यातक द्वारा सभी कार्य स्वयं करने के कारण जोखिम की मात्रा में वृद्धि होती है।
(2) पूँजी की अधिक आवश्यकता-प्रत्यक्ष निर्यात के लिए फर्म को अत्यधिक पूँजी की आवश्यकता होती है जो एक सामान्य निर्यातक द्वारा एकत्रित करना सम्भव नहीं होता।
(3) प्रबन्धकीय योग्यता-प्रत्यक्ष निर्यात के लिए निर्यातकर्ता में प्रबन्धकीय क्षमता का होना अति आवश्यक है।
(4) एकाधिकारी मूल्य-प्रत्यक्ष निर्यात में एकाधिकारी प्रवृत्ति पाई जाती है। (5) वितरण लागतों में वृद्धि-प्रत्यक्ष निर्यात के अंतर्गत स्टॉक को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि विदेशी बाजारों में वितरण केन्द्रों की स्थापना की जाए ताकि स्टॉक में कमी न आए। यह काफी खर्चीली पद्धति है तथा इससे वितरण लागतों में भी वृद्धि होती है। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
अप्रत्यक्ष निर्यात Indirect Exporting
अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत वस्तुओं का निर्यात मध्यस्थों के माध्यम से किया जाता है। इस व्यवस्था में फर्म अपनी वस्तुएँ अपने ही देश में किसी अन्य संस्था या. व्यक्ति को बेचती है जो इन वस्तुओं को आगे विदेशों में विक्रय करती है। अप्रत्यक्ष निर्यात के लाभ-अप्रत्यक्ष निर्यात के मुख्य लाभ निम्नलिखित है।
(1) मितव्ययी –प्रत्यक्ष निर्यात की अपेक्षा अप्रत्यक्ष निर्यात विधि मितव्ययी है क्योंकि इसके अंतर्गत निर्यातकर्ता को बिक्री सम्बन्धी क्रियाएँ जैसे बाजार सर्वेक्षण व विज्ञापन इत्यादि नहीं करनी पड़ती।
(2) विदेशी शाखा की आवश्यकता न होना-अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत सम्पूर्ण कार्य मध्यस्थों की सहायता से किया जाता है जिसके कारण विदेश में न तो कोई शाखा खोलनी पड़ती है और न ही वितरण की कोई श्रृंखला बनानी पड़ती है।
(3) कार्यभार में कमी--मध्यस्थ ही निर्यात सम्बन्धी सभी कागजी तथा कानूनी कार्यवाही पूरी करते हैं जिससे निर्माता के कार्यभार में कमी आती है।
(4) मध्यस्थों की ख्याति का लाभ-ऐसे मध्यस्थ जिनकी साख अच्छी होती है तथा जो विभिन्न देशों से अधिक मात्रा में आदेश प्राप्त करते हैं उनकी ख्याति का लाभ उठाकर निर्यातक अपनी वस्तुओं की बिक्री में वृद्धि कर सकते हैं। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
(5) छोटी व नई फर्मों के लिए उपयुक्त-मध्यस्थों को विभिन्न बाजारों तथा विपणन सम्बन्धी स्थितियों का पूर्ण ज्ञान होता है। फलस्वरूप नवीन तथा छोटे उत्पादक/निर्माता इन मध्यस्थों की सहायता से विदेशी बाजार में प्रवेश कर सकते
(6) कम पूँजी की आवश्यकता–प्रत्यक्ष निर्यात की अपेक्षा अप्रत्यक्ष निर्यात में कम पूँजी की आवश्यकता होती है।
अप्रत्यक्ष निर्यात के दोष या सीमाएँ-(1) उपभोक्ताओं की सम्पूर्ण जानकारी का अभाव-निर्यात व्यापार सम्बन्धी सभी कार्य मध्यस्थों की सहायता से किए जाने के कारण निर्माता का आयातकर्ता से कोई सम्बन्ध नहीं होता जिसके कारण उसे उपभोक्ताओं की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती।
(2) अस्थिर व्यवसाय-अप्रत्यक्ष निर्यात को प्रायः अस्थिर व्यवसाय भी कहा जाता है क्योंकि इसमें मध्यस्थ उन्हीं निर्यातकर्ता के साथ कार्य करते हैं जो उन्हें अधिक कमीशन देते हैं। अत: नए उत्पादकों से अधिक कमीशन के लालच में मध्यस्थ पुराने उत्पादकों को छोड़ भी सकते हैं। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
(3) मध्यस्थों की उपलब्धता-अप्रत्यक्ष निर्यात व्यापार के लिए मध्यस्थों की आवश्यकता पड़ती है परन्तु सभी बाजारों में ये मध्यस्थ उपलब्ध नहीं होते जिससे वितरण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
(4) मध्यस्थों पर निर्भरता-मध्यस्थ प्राय: तभी माल क्रय करते हैं जब उन्हें बाहर से आदेश प्राप्त होते हैं। ऐसे में अप्रत्यक्ष निर्यात करने वाले विपणनकर्ताओं को मध्यस्थों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।
(5) छूटों का लाभ प्राप्त न होना-अप्रत्यक्ष निर्यात के अन्तर्गत विपणनकर्ता को निर्यातक की स्थिति प्राप्त नहीं हो पाती जिसके परिणामस्वरूप उसे सरकार द्वारा घोषित प्रोत्साहनों एवं छूटों का लाभ भी नहीं मिल पाता है।
प्रत्यक्ष निर्यात के रूप
प्रत्यक्ष निर्यात के विभिन्न रूप हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है।
(1) विदेशों में शाखाओं की स्थापना (Establishment of Branches in Abroad)—ये शाखाएँ निर्यातकर्ता द्वारा उन देशों में खोली जाती हैं जहाँ उसके उत्पादों की माँग अधिक होती है। इस प्रकार की विदेशी शाखाएँ उन देशों में विद्यमान प्रतियोगिता का मुकाबला प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकती हैं।
लाभ (Advantages)—इस प्रकार के संगठन का निर्यातक काफी लाभ उठा सकता है। वह स्वयं विदेशी बाजार के क्रेताओं से सीधा सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। उत्तम ग्राहक सेवाएँ प्रदान कर निर्यातक अपनी अच्छी छवि व प्रतिषङ्जा विदेशी उपभोक्ताओं के मन में बना सकता है। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
दोष (Diadvantages)-इस संगठन के जहाँ उपरोक्त लाभ हैं, वहीं इसकी हानियाँ भी कम नहीं हैं। इससे निर्यातक के उपरिव्ययों में काफी वृद्धि हो जाती है। विदेशी बाजारों के प्रबन्ध के लिए योग्य विक्रयकर्ताओं का चयन करना पड़ता है। गोदामों, विक्रय केन्द्रों, सेवा केन्द्रों आदि की व्यवस्था करने में जहाँ विशाल मात्रा में पूँजीगत साधनों की आवश्यकता होती है, वहीं व्ययों में भी वृद्धि होती है।
2. संयुक्त उपक्रम (Joint Ventures) संयुक्त उपक्रम वह होते हैं जिसमें दो या अधिक देश के व्यक्ति किसी काम को संयुक्त स्वामित्व व प्रबन्ध के अन्तर्गत करते है। प्रायः विकसित देशों की फर्जी टेक्नोलॉजी व वित्त का कुछ भाग प्रदान करती है तथा आयात करने वाले देश की फर्म का वित्त में योगदान रहता है।
उदाहरणत: भारत में कार बनाने का कारखाना मारूति उद्योग जापान की फर्म सुजुकी व भारतीय सरकार व अन्य निवेशकों का संयुक्त उपक्रम है। संयुक्त उपक्रम दूसरे नम्बर का विदेशी बाजार में प्रवेश का महत्त्वपूर्ण साधन है। यदि कोई फर्म विदेशी बाजार में माल निर्यात करने की स्थिति से आगे बढ़ती है तो संयुक्त उपक्रमों का सहारा लेती है।
संयुक्त उपक्रम दो देशों के व्यापारियों के बीच पूँजी व जोखिम बाँटने का अनुबन्ध होता है तथा एक देश का तकनीकी ज्ञान दूसरे देश में पहुँच जाता है।
संयुक्त उपक्रम के लाभ-संयुक्त उपक्रम के लाभ निम्नलिखित हैं-
(i) अधिक कमाई-इस व्यवस्था से निर्यातक देश रॉयल्टी के रूप में अपने विनियोजित धन पर काफी ऊँची दर से कमाई कर लेता है। यह विदेशी बाजार में प्रवेश का लाभदायक ढंग है, विशेषकर टैक्नोलॉजी बेचने के लिये।
(ii) कम जोखिम-बजाय इसके कि सारा जोखिम निर्यातक को उठाना पड़े, संयुक्त उपक्रम से कुछ जोखिम आयातक पर भी आ जाता है। स्थानीय व्यक्ति की साझेदारी होने के कारण उस देश की राष्ट्रीयकरण की नीतियों से भी बचा जा सकता है।
(iii) कम पूँजी निवेश-बिना बहुत अधिक पूँजी निवेश के एक निर्यातक विदेश में कारखाने लगाकर उस पर प्रभावी नियन्त्रण रख सकता है। Foreign Market Entry Mode Decisions in hindi
(iv) बाजार प्रवेश का विकल्प-यदि कोई देश विदेशियों को अपने देश में निर्यात व्यापार करने की आज्ञा न दे तो वहाँ घुसने का यह एक विकल्प हो सकता है।
संयुक्त उपक्रमों की सीमाएँ (Limitations of Joint Ventures)—संयुक्त उपक्रमों की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
(i) विवाद-संयुक्त उपक्रमों की आधारभूत समस्या प्रबन्ध में दो देशों के व्यक्तियों की भागीदारी के कारण उत्पन्न होती है। विवादों के कारण फर्म को चलाना कठिन हो जाता है।
(ii) अधिक वित्त व जोखिम-विदेश बाजार में प्रवेश करने के अन्य ढंगों, जैसे कि वितरक या एजेण्ट नियुक्त करने की तुलना में, इस प्रणाली में अधिक वित्त की आवश्यकता पड़ती है तथा इसमें जोखिम भी अधिक है।
3. अनुज्ञप्ति प्रदान करना (लाइसेन्सिंग) एवं फ्रेंचाइजिंग (Licensing and Franchising)-अनुज्ञप्तिकरण अथवा लाइसेन्सिंग के अन्तर्गत निर्यात करने वाली कम्पनी, दूसरे देश की कम्पनी से कुछ शुल्क (Royalty) वसूल करके उसे अपने नाम अथवा ट्रेडमार्क से माल निर्मित करने की आज्ञा दे देती है। व्यवहार में यह होता है कि निर्यातक देश की कम्पनी आयातक देश की कम्पनी को अपना ब्राण्ड नाम, पेटेण्ट अधिकार, व्यापार चिन्ह, कॉपीराइट प्रयोग करने की आज्ञा दे देती है तथा उसे माल बनाने की तकनीकी जानकारी प्रदान भी करती है। जिस क्षेत्र में इन अधिकारों का प्रयोग किया जा सकता है उसका उल्लेख अनुज्ञप्ति अनुबन्ध में कर दिया जाता है। यह अधिकार प्रदान करने के बदले में विदेशी कम्पनी को विक्रय के आधार पर शुल्क (Royalty) मिलता है।
फ्रेन्चाइजिंग (Franchising)- इसे विशेष विक्रय अधिकार भी कहते हैं। यह लाइसेन्सिंग का वह रूप है जिसमें मल कम्पनी (अनुज्ञप्तिदाता) किसी अन्य व्यक्ति को अपना माल बेचने या उत्पादन व विपणन करने या व्यापार की अपनी सामान्य पद्धति प्रयोग करने अधिकार प्रदान करती है। कभी-कभी फ्रेन्चाइजदाता, फ्रेन्चाइजी पाने वाले व्यक्ति को उत्पादन के लिये किसी आवश्यक वस्तु की पूर्ति भी करता है। उदाहरणत: अमरीकी कम्पनी कोका कोला कई भारतीय सोडावाटर कम्पनियों को कोका कोला का मूल मिश्रण (concentrate) प्रदान कर रही है तथा ये भारतीय उत्पादक कोका कोला के नाम से अपना शीतल पेय बेच रहे हैं।
लाइसेन्सिंग व फ्रेन्चाइजिंग के लाभ-लाइसेन्सिंग व फ्रेन्चाइजिंग के लाभ निम्नलिखित हैं-
1. इस व्यवस्था में निर्यात करने वाली कम्पनी को कोई निवेश भी नहीं करना पड़ता और न ही कोई जोखिम उठाना पड़ता है परन्तु लाभ काफी हो जाते हैं।
2. इस व्यवस्था से विदेशी बाजारों में शीघ्र तथा सरलता से प्रवेश किया जा सकता है। विकसित देशों के बाजारों में पहुँच का यह एकमात्र रास्ता है।
3. लाइसेन्सिंग विदेश में उत्पादन करने का श्रेष्ड्ड विकल्प है। विशेषकर उन देशों में जहाँ महँगाई ज्यादा है तथा बहुत से सरकारी नियम व हैं। प्रतिबन्ध लागू
4. लाइसेन्सिंग में रॉयल्टी मिलने की गारण्टी रहती है तथा वह समय पर भी मिल जाती है परन्तु प्रत्यक्ष निवेश से उत्पन्न आय अनिश्चित व जोखिमपूर्ण हो सकती है।
5. आयात करने वाली फर्म को बिना कोई अनुसन्धान किये विदेशी टैक्नोलॉजी व तकनीकी ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
6. लाइसेन्सिंग से यातायात की लागत घटती है। यदि सारा का सारा निर्मित माल एक देश से दूसरे देश में लाया जाये तो माल की ढुलाई पर काफी लागत आ सकती है. जिससे वह माल विदेश में प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हो सकता है।
लाइसेन्सिंग व फ्रेन्चाइजिंग की हानियाँ-लाइसेन्सिंग एवं फ्रेन्चाइजिंग से निम्नलिखित हानियाँ हैं-
1. अनुज्ञापी अर्थात् लाइसेन्सधारी द्वारा निर्मित माल की गुणवत्ता पर नियन्त्रण रखना कठिन होता है। माल की घटिया क्वालिटी के कारण निर्यात कम्पनी की प्रतिष्खा खराब हो सकती है।
2. यह भी हो सकता है कि लाइसेन्सधारी विदेशों या उस ही देश में निर्यातक के माल से प्रतिस्पर्धा करने लगे। लाइसेन्सधारी आसानी से क्षेत्रीय समझौतों की उल्लंघना कर सकता है।
3. लाइसेन्स प्रदान करने पर मिलने वाली रकम (Royalty) प्रत्यक्ष निवेश से उत्पन्न आय से बहुत कम होती है। प्रायः रॉयल्टी की दर कुल विक्रय की 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होती, इस पर सरकारी नियन्त्रण भी रहता है।
4. यदि लाइसेन्स देने वाला अपने उत्पादन की टैक्नोलॉजी में समयानुसार सुधार नहीं लाता है या उसमें नवीनता नहीं लाता है तो लाइसेन्सधारक इसेन्स के नवीकरण या उसे जारी रखने में रुचि खो सकता है।
4. विदेशी दलाल (Foreign Broker)-ये दलाल भी उसी प्रकार कार्य करते हैं, जिस प्रकार से अन्य दलाल कार्य करते हैं। दलाल वह व्यक्ति होता है, जो विक्रेता व क्रेता को मिला देता है; वह उन दोनों के बीच सेतु का कार्य करता है। उसी प्रकार से निर्यात विपणन में विदेशी दलालों की सेवाएँ भी काफी उपयोगी होती हैं। ये विदेशी दलाल मुख्य रूप से खाद्यान्नों आदि में व्यवहार करते हैं। वे निर्यातक के माल को निर्यात बाजारों में मान्यता प्राप्त स्कन्ध विपणियों के द्वारा या खुली नीलामी से बेचते हैं। जो विक्रय मूल्य निर्यातक ने तय कर रखा है, व विक्रय की जो शर्ते व दशाएँ निर्यातक ने तय की हैं, उसी के आधार पर विदेशी दलाल वस्तुओं का विक्रय निर्यातक बाजारों में करता है।
उसे अपनी सेवाओं के बदले में निश्चित प्रतिशत से कमीशन विक्रय मूल्य पर मिलता है कमीशन की दर बाजार की दशाओं व वस्तुओं की प्रकृति पर निर्भर करती है।
लाभ (Advantages)—इस विधि से अनेक लाभ उठाये जा सकते हैं। निर्यातक अपने द्वारा निर्धारित शर्तों व दशाओं पर विक्रय कार्य कर सकता है। इन दलालों को निर्यात बाजार की प्रकृति व विशेषताओं की बारीकी से जानकारी होती है, इसलिए इनको विक्रय करने में सहायता रहती है। प्रतिष्वित दलालों की सेवाओं का उपयोग किया जा सकता है। ग्राहक को पटाने व सौदा बनाने में यह माहिर होते हैं, इससे बिक्री शीघ्र हो जाती है।
हानियाँ (Disadvantages)—जहाँ इस विधि से उपरोक्त लाभ हैं, वहीं दोष भी हैं। दलाल निर्यातक से वह न्यूनतम मूल्य ले लेते हैं, जिस पर वह निर्यात करने को तैयार है। दलाल क्रेता को निर्यातक का मूल्य तो बताते नहीं हैं, इससे यदि कभी क्रेता निर्यातक द्वारा तय मूल्य से अधिक मूल्य भी दलाल को देते हैं तो उसे वे डकार जाते हैं। इसके साथ ही दलाल निर्यातक के साथ जोखिम में भी हिस्सा नहीं निभाता।
5. विदेश में स्थित वितरक व एजेण्ट-प्रत्यक्ष निर्यात, विदेश में स्थित वितरकों या अभिकर्ताओं अर्थात् एजेण्टों के माध्यम से भी किया जा सकता है। विदेशी वितरक जो उस कम्पनी के माल के एकमात्र आयातक होते हैं, निर्यातक से माल खरीदकर उस देश में बेचते हैं। वे एक नियोक्ता (Principal) के रूप में कार्य करते हैं अर्थात् अपने नाम से माल बेचते व खरीदते हैं। उनकी उस देश में थोक या परचून की दुकानें भी हो सकती हैं तथा वे विक्रय-पश्चात् सेवा भी प्रदान कर सकते हैं। वितरक माल को वहाँ के थोक व फुटकर व्यापारियों व उपभोक्ताओं को बेचते हैं।
एकमात्र प्रतिनिधि होता है। एजेण्ट निर्यातक व आयातकर्ता को जोड़ने वाली कड़ी का कार्य करते हैं तथा अपनी सेवाओं के लिये कमीशन वसूल करते हैं। वे अपने नाम से काम नहीं करते केवल निर्यातक का प्रतिनिधित्व करते हैं। एकमात्र एजेण्ट भी हर प्रकार से एजेण्ट ही होता है परन्तु वह माल आयात करने वाले देश में निर्यातक का
वितरकों व एजेण्टों के लाभ-वितरकों व एजेण्टों के लाभ निम्नलिखित हैं-
(i) बाजार की जानकारी-वितरक क्योंकि एक स्थानीय व्यक्ति होता है, उसे स्थानीय बाजार की प्रतिस्पर्धा व वहाँ के लोगों की पसन्द, प्राथमिकताओं इत्यादि की पूरी जानकारी होती है।
(ii) सम्पर्क-वितरकों व एजेण्टों के अपने देश की सरकारी एजेन्सियों के राजनीतिज्ञों व निर्णय लेने वालों से सम्पर्क होते हैं जो बड़े-बड़े अनुबन्ध प्राप्त करने के लिये सहायक सिद्ध होते हैं
(iii) कारोबारी ढाँचा-वितरकों या एजेण्टों का अपने देश में सुव्यवस्थित कारोबारी ढाँचा हो सकता है, जैसे उनके विभिन्न व्यापारिक केन्द्रों में शाखाएँ या प्रतिनिधि हो सकते हैं, उनके अपने भण्डार गृह हो सकते हैं जो निर्यातक का व्यापार फैलाने में सहायक हो सकते हैं।
(iv) विदेश में कार्यालय खोलने के खर्चे से बचत-एजेण्टों को उनके द्वारा प्राप्त ऑर्डरों के आधार पर कमीशन दी जाती है, अत: विदेश में शाखाएँ या कार्यालय रखने के स्थाई खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती।
(v) विक्रय-पश्चात् सेवा-वितरकों या एजेण्टों को विक्रय-पश्चात् सेवा प्रदान करने का कार्य भी सौंपा जा सकता है।
वितरकों व एजेण्टों के दोष (Drawbacks of Distributors and Agents)- इस व्यवस्था में निर्यातक को पूर्णत: वितरकों या एजेण्टों पर निर्भर रहना पड़ता है, हो सकता है वे उसके उत्पादों में विशेष रुचि न लें, क्योंकि वे उसी निर्यातक का नहीं, बल्कि अनेक निर्यातकों का माल बेच रहे होते हैं। (6) प्लान्ट की स्थापना (Establishment of Plant)-जिन कम्पनियों का विदेशों में काफी बड़ा बाजार होता है वे वहाँ पूर्ण स्वामित्व वाली निर्माण इकाइयाँ स्थापित कर लेती हैं। पीटर ड्रकर के अनुसार, “एक महत्वपूर्ण क्षेत्र में पर्याप्त विपणन स्थिति बनाये रखना, तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि वहाँ कम्पनी का निर्माता के रूप में अपनी कोई भौतिक उपस्थिति न हो।”
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विदेशी बाजारों में निर्माण या पुर्जे जोड़ने के कार्य में प्रत्यक्ष निवेश द्वारा ही अपने आपको वहाँ स्थापित कर पाई हैं।