Saturday, December 21, 2024
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Mahalwari System

महालवाड़ी प्रणाली

यह प्रणाली सर्वप्रथम 1833 ई० में रेगुलेशन एक्ट’ के अन्तर्गत आगरा तथा अवध के प्रान्तों में लागू की गई। तत्पश्चात् पंजाब तथा मध्य भारत में इसे शुरू कर दिया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत गाँव की समस्त भूमि पर गाँव के सभी किसानों का संयुक्त रूप से स्वामित्व होता है तथा मालगुजारी भी इसी भूमि को एक इकाई मानकर निर्धारित की जाती है। यद्यपि कृषक इस भूमि पर व्यक्तिगत रूप से खेती करता है, तथापि मालगुजारी का दायित्व संयुक्त रूप से होता है। गाँव का नम्बरदार मालगुजारी एकत्र करके उच्च अधिकारी के पास जमा कर देता है। इसके बदले उसे कमीशन मिलता है। गाँव में जो बंजर भूमि होती है, उस पर गाँववासियों का अधिकार होता है।

प्रणाली के लाभ

1. भूमि पर सामूहिक स्वामित्व-भूमि पर सामूहिक स्वामित्व से परस्पर भाईचारे एवं निकटता को बढ़ावा मिलता है।

2. मध्यस्थों का अभाव-मध्यस्थों के अभाव में कृषकों का शोषण नहीं हो पाता।

3. सरकार को लाभ-लगान का अस्थायी रूप से निर्धारण होने के कारण भूमि की उर्वरता का लाभ सरकार को भी प्राप्त हो जाता है।

4. कृषक का स्वाभिमान बना रहना-व्यक्तिगत रूप से स्वतन्त्र खेती करने से कृषक का स्वाभिमान बना रहता है।

प्रणाली के दोष

1. लगान निर्धारण में मनमानी-लगान का निर्धारण करने में सरकारी अधिकारी मनमानी कर सकते हैं।

2. जमींदारी प्रथा के दोषों का समावेश—यह व्यवस्था लगभग जमींदारी प्रथा की तरह अमल में लायी गई, अत: इस प्रथा में जमींदारी के दोष आ जाते हैं।

जमींदारी अथवा काश्तकारी प्रणाली

यह प्रथा भी ब्रिटिश शासन की देन है। इस प्रणाली के अन्तर्गत सरकार तथा कृषक के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि एक व्यक्ति को ही रियासत (Estate) पर लगाई गई मालगुजारी के भुगतान के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है। मालगुजारी वसूलने के बदले उस व्यक्ति को सरकार के द्वारा कमीशन के रूप में पुरस्कार मिलता था। जमींदार को किसानों से जो लगान मिलता था, उसका 10/11 भाग वे सरकारी खजाने में जमा करते थे तथा शेष 1/11 भाग निजी पुरस्कार के रूप में रख लेते थे। Mahalwari System

इस व्यवस्था के अन्तर्गत देश के कुछ भागों में मालगुजारी का भुगतान ‘स्थायी बन्दोबस्त’ (Permanent Settlement) व्यवस्था में किया गया। 1947-48 ई० में देश के कुल कृषि-क्षेत्र का 24% भाग स्थायी बन्दोबस्त वाली जमींदारी प्रणाली के अधीन था। स्थायी बन्दोबस्त के अन्तर्गत मालगुजारी की वसूली का एकाधिकार जमींदारों को दिया गया था। एक बार लगान निर्धारित होने से राज्य को लम्बे समय तक भू-राजस्व के रूप में अधिकार दे दिया जाता था। यह व्यवस्था बंगाल, उड़ीसा, मद्रास, बनारस तथा दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में लागू थी।

इसके अतिरिक्त ‘अस्थायी बन्दोबस्त’ व्यवस्था भी प्रचलित थी, जिसके अन्तर्गत जमींदार भू-राजस्व का निर्माण समय-समय पर करता था। यह व्यवस्था देश के लगभग 38 प्रतिशत कृषि-क्षेत्र पर लागू थी। यह प्रणाली मुख्यतया मध्य-भारत (वर्तमान में गुजरात एवं महाराष्ट्र) में प्रचलित थी। Mahalwari System

प्रणाली के लाभ

1. सरकार को निश्चित आय प्राप्त होना-इस प्रणाली से सरकार को निश्चित आय प्राप्त होती रहती थी तथा इस व्यवसाय पर सरकार को कोई व्यय नहीं करना पड़ता था।

2. ब्रिटिश शासक का मददगार वर्ग-इस प्रथा से सबसे अधिक लाभ ब्रिटिश शासन को हुआ, क्योंकि इस प्रथा से एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया जो उसका समर्थक था। इस प्रकार जमींदारी प्रथा का लाभ ब्रिटिश शासकों को हुआ, जिसके कारण देश में ब्रिटिश शासन की जड़ें गहरी होती गईं।

3. कृषि की उन्नति-ज्यादातर जमींदार लोग शिक्षित एवं साहसी होते थे। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे लोग कृषि विकास के लिए आवश्यक कदम उठाएँगे, किन्तु बाद में निराशा ही हाथ लगी। Mahalwari System

प्रणाली के दोष

1. कृषकों का शोषण-जमींदार लोग कृषकों का अधिक शोषण करते थे। जमींदार लोग कभी-कभी किसानों को भूमि से बेदखल भी कर देते थे।

2. कृषकों की हीन दशा के लिए उत्तरदायी-इस व्यवस्था में कृषकों की हीन दशा हो जाती थी, क्योंकि जमींदार लोग मनमाने ढंग से काम लेते थे तथा उन्हें किसी प्रकार का प्रतिफल नहीं देते थे।

3. वर्ग संघर्ष—इस प्रथा से वर्ग संघर्ष को बढ़ावा मिलता था, क्योंकि एक तरफ तो जमींदार किसानों की अधिकांश उपज का भाग लगान के रूप में वसूल कर लेता था तथा दूसरी तरफ कृषि विकास पर वह कोई ध्यान नहीं देता था।

4. सरकार द्वारा कृषकों की समस्याओं पर ध्यान न देना-इस प्रणाली में सरकार तथा कृषक के बीच कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहता था, अत: कृषकों की समस्याओं पर सरकार कोई ध्यान नहीं दे पाती थी।

5. भू-राजस्व में लोच का अभाव-इस प्रणाली में भू-राजस्व में लोच का अभाव पाया जाता था, क्योंकि जमींदार लोग कृषकों पर तो भू-राजस्व बढ़ाकर अपना लाभ बढ़ा लेते थे, किन्तु सरकार को केवल निश्चित राशि ही चुकाते थे, अतः सरकार के लिए आपातकाल में भी भू-राजस्व बढ़ाना मुश्किल था।

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