Thursday, November 21, 2024
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Meaning of Articles of association meaning in hindi

Meaning of Articles of association meaning in hindi

पार्षद अन्तनियम

पार्षद अन्तनियम से आशय कम्पनी के उदेयं के कार कलेव का नत्र प्रबन्ध व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिये बनाये गये नियम व नियम है। कमानी की सम्पूर्ण आन्तरिक प्रवन्ध वस्या पार्षद अनन्या के अनुसार हरे र अन्तनियम कमनी का दूसरा महत्वपूर्ण लेख है इसे करने के समय के समय दिया के पास प्रस्तुत किया जाता है।

पार्षद अन्तर्नियम सीमानिया का सहायक प्रलेख हेत हे प्रत्येक करने के लिरको तैयार करना आवश्यक नहीं होता, लेकिन जो कानियां इसे नई कनक भय कम अधिनियम 1956 में दी गई अनुसूची (TableA) को अपना है। 

कम्पनी अधिनियम 2013, की धारा 2 (5) के अनुसार– उर्निया में अब ऐसे अन्तर्नियम से है, जो पिछले कम्पनी अधिनियम में इस अधिनियम के रूः से बनाया गया या समय-समय पर परिवर्तित किया गया है। डिपार्टमेंट ऑफ कम्पनी अफेयर्स पार्षद अन्तर्नियन करने और इसके सदस्य के र अनुबन्ध है जो अनुबन्ध के अन्तर्गत सदस्यों के आपसी अधिकारों को प्रकट करता है।’ 

Meaning of Articles of Association

क्या प्रत्येक कम्पनी के लिये पार्षद अन्तर्नियम तैयार करना आवश्यक है?

(Is it necessary for every company to prepare Artides of Association) 

कम्पना समामलन के समय अन्तर्नियमों का बनाना व रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य है नियम में विभिन्न प्रावधान दिये नहीं, इसके लिए विभिन्न प्रकार की कम्पनियों के लिये अधिनियम में विभिन्न प्र गए हैं जो इस प्रकार हैं i

(1) अंशों द्वारा सीमित सार्वजनिक कम्पनी की दशा में-अंशों द्वारा सीमित सार्व कम्पनी के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह समामेलन के समय अपना अन्तर्नियम और उसे रजिस्टार के पास भेजे । यदि वह अपने अन्तर्नियम का रजिस्ट्रेशन नहीं कराती ऐसी अवस्था में कम्पनी अधिनियम की प्रथम अनुसूची की सारणी ‘अ’ में दिये गये निया उसका अन्तर्नियम मान लिया जाता है ऐसी दशा में उसे अपने सीमा नियम के ऊपर ति अन्तर्नियमों के रजिस्टर्ड शब्द लिखना होता है। 

(2) अंशों द्वारा सीमित निजी कम्पनी की दशा में-अंशों द्वारा सीमित निजी कम्पनी अपने पार्षद सीमानियम के साथ अपने पार्षद अन्तर्नियमों का भी रजिस्ट्रेशन कराना होता और इस पर उन्हीं व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिएँ जिन्होंने पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर किए हो।

(3) गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी की दशा में-गारन्टी द्वारा सीमित कम्पनी को भी अपने पार्षद सीमानियम के साथ पार्षद अन्तर्नियम का रजिस्ट्रेशन कराना आवश्यक है।

(4) असीमित दायित्व वाली कम्पनी की दशा में-असीमित दायित्व वाली कम्पनी के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने पार्षद सीमानियम के साथ ही अपने पार्षद अन्तर्नियम का भी पंजीयन कराये और उस पर उन्हीं व्यक्तियों के हस्ताक्षर होने चाहिये, जिन्होंने पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर किये थे।

पार्षद अन्तर्नियम की प्रमुख विषय-सामग्री 

(Main Contents of Articles of Association)

एक पार्षद अन्तर्नियम में सामान्यतया वे ही सब बातें पायी जाती हैं जो कि सारणी ‘अ’ में दी हुई होती हैं। पार्षद अन्तर्नियम में प्रायः निम्नलिखित बातें लिखी जाती हैं –

(1) सारिणी ‘अ’ किस सीमा तक लागू होगी ?.

(2) अंश पूँजी की कुल राशि व उसका विभिन्न प्रकार के अंशों में विभाजन ।

(3) न्यूनतम अभिदान राशि (Minimum Subscription) (4) अंशों की याचना राशि व याचना विधि।

(5) अंशों के आवंटन की विधि।

(6) अंश प्रमाण-पत्र निर्गमन की विधि।

(7) अंशों के अपहरण एवं पुनर्निगमन की विधि।

(8) अंशों के हस्तान्तरण की विधि ।

(9) दो याचनाओं के मध्य कितना समय होना चाहिये।

(10) अंश पूँजी के पुनर्गठन की विधि।

(11)प्रारम्भिक अनुबन्धों के पुष्टिकरण की विधि ।

(12) ऋण लेने के अधिकार व ऋण लेने की विधि। (13) अभिगोपकों (Underwriters) के कमीशन के भुगतान की विधि ।

(14) सभाओं के आयोजन र सदस्यों को सूचना देने की विधि।

(15) प्रस्तावों से सम्बन्धित नियम।

(16) सदस्यों के मताधिकार। करते हैं तो कम्पनी ऐसे कार्यों का पुष्टिकरण कर सकती है। 

(ii) यदि संचालक ने अपने अधिकारों की सीमा में कम्पनी की ओर से कोई अनुबन्ध किया के तो उसके लिये कम्पनी नियोक्ता की तरह उत्तरदायी होती है।

(iii) यदि सचालक अपने नाम से कम्पनी के लिये कोई अनबन्ध करता है तो ऐसी स्थिति में तीसरा पक्षकार सचालक पर अथवा कम्पनी पर या दोनों पर मकदमा कर सकता है क्योंकि ऐसी स्थिति में कम्पनी की स्थिति एक प्रकार से प्रकट नियोक्ता जैसी होती है। 

(2) संचालक ट्रस्टी या प्रन्यासी के रूप में (Directors as Trustees)-संचालक एजेण्ट के साथ-साथ कम्पनी के प्रन्यासी भी होते हैं । प्रन्यासी होने के कारण संचालकों का यह कर्तव्य हो जाता है कि वे पूर्ण सद्भावना एवं ईमानदारी से कार्य करें और किसी व्यक्तिगत हित से प्रभावित न हो । इस प्रकार संचालकों का कम्पनी से विश्वासाश्रित सम्बन्ध है । वे कम्पनी के धन एवं सम्पत्ति का प्रन्यासी हैं किन्तु वह कम्पनी के अंशधारी, ऋणदाता, लेनदार व अन्य पक्षों के लिये प्रन्यासी नहीं हैं। 

(3) संचालक प्रबन्धकीय साझेदार के रूप में (Directors as Managing partners) संचालकों को कम्पनी का प्रबन्धकीय साझेदार भी कहा जाता है क्योंकि वे कम्पनी में प्रबन्ध और नियन्त्रण का कार्य करते हैं और दूसरी ओर कम्पनी के महत्त्वपूर्ण अंशधारी भी होते हैं इस प्रकार कम्पनी में उनकी स्थिति प्रबन्धक एवं साझेदार दोनों ही रूप में होती है। 

(4) संचालक अधिकारी के रूप में (Directors as Officers) कम्पनी अधिनियम की धारा 2 (30) के अनुसार संचालकों को कम्पनी का अधिकारी माना जाता है। 

(5) संचालक कम्पनी के एक कर्मचारी के रूप में (Director as an Employee of the Company)-संचालक और कम्पनी के बीच उनकी नियुक्ति के सम्बन्ध में एक अनुबन्ध होता है जिसके आधार पर संचालक एक निश्चित समय तक कम्पनी को अपनी सेवायें समर्पित करते हैं और बदले में वे कम्पनी से पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं । इस प्रकार संचालक को कम्पनी का कर्मचारी माना जा सकता है। bcom 2nd year memorandum of association in hindi

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