Explain the important models of communication – Pdf Notes
सम्प्रेषण के महत्त्वपूर्ण प्रतिमानों को समझाइए।
प्रत्येक व्यावसायिक संस्था या व्यक्ति किसी न किसी रूप में सूचनाएँ भेजता या प्राप्त करता है। छोटे व्यवसायों में आमने-सामने सन्देश का आदान-प्रदान होता है, किन्तु जैसे-जैसे संस्था उन्नति करती है, वैसे-वैसे सम्प्रेषण का विस्तार भी बढ़ता जाता है अतः स्पष्ट है कि जब कोई सन्देश किसी भी माध्यम द्वारा कहीं प्रेषित किया जाता है तो सम्प्रेषक को स्वतः सम्प्रेषण के मार्ग, भूमिका, खतरे, सुविधाएँ, प्रभाव व प्रामाणिकता की जानकारी प्राप्त हो जाती है, तत्पश्चात् सम्प्रेषक अन्य सन्देश प्रेषण के लिए भी वही मार्ग चयनित करता है। यदि इस कार्य में उसे सफलता प्राप्त होती है तो वह उसी मार्ग का चयन अन्य सन्देशों को प्रेषित करने हेतु भी करता है। यही स्थिति किसी मॉडल या प्रतिरूप को जन्म देती है।
सम्प्रेषण के भारतीय प्रतिरूप
(Indian Models of Communication)
किसी भी व्यावसायिक संगठन में अनेक प्रकार के सन्देशों का आदान-प्रदान आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों में किया जाता है, जिनका स्पष्ट विभाजन एक जटिल कार्य है, किन्तु यह विभाजन किया जा सकता है कि सन्देश को किस माध्यम से प्रेषित किया गया है, सन्देश किसके द्वारा किसको सम्प्रेषित है। प्राचीन वैदिक काल में भी सम्प्रेषण की प्रक्रिया विद्यमान थी। यह’वसुधैव कुटुम्बकम्’ के विस्तृत सिद्धान्त पर आधारित थी। इसी प्रणाली को प्राचीन भारतीय सम्प्रेषण प्रणाली के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके बाद के काल खण्ड में भी यही प्रणाली सम्प्रेषण का माध्यम बनी रही। वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में तथा रामायण व महाभारत के महाकाव्यकाल में भी भारतीय सम्प्रेषण की यही विधा समाज में सम्प्रेषण का आधार बनी रही। भारतीय शासन पद्धति में यदि सम्प्रेषण की प्रक्रिया व उसके प्रबन्धन पर ध्यान दिया जाए तो निम्नांकित रूप सामने आता है —
‘मनुस्मृति’ में विस्तार के साथ सम्प्रेषण कला पर प्रकाश डाला गया है। महर्षि मनु ने सामाजिक परिवेश के अनुगामी संचार तन्त्र को विकसित रूप प्रदान किया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मनु द्वारा प्रतिस्थापित सम्प्रेषण के मॉडल लम्बे काल-खण्ड तक भारतीय भू-भाग में अपनी विशिष्टता बनाए रहे। भारतीय मनीषियों ने संचार के विकसित स्वरूपों का प्रतिपादन किया। इनमें संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा कर्मकाण्ड का निरूपण करने वाले आख्यानों का विशेष महत्त्व रहा। इस क्षेत्र में ‘चाणक्य नीति’ का सर्वोपरि स्थान माना जा सकता है।
सम्प्रेषण के स्वतन्त्रता पूर्व के भारतीय प्रतिरूप (Indian Models of Communication before Freedom)
भारत के पारतन्त्र्य काल में 1857 ई० से 1947 ई० के बीच सम्प्रेषण के कई प्रतिरूप थे। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में सम्प्रेषण व्यवस्था की उपयोगिता मालूम हुई। ब्रिटिश सम्प्रेषण-व्यवस्था व उसके सफल प्रतिरूप के कारण ही हमारे क्रान्तिकारी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहे और उन्हें मृत्यु का आलिंगन भी करना पड़ा। उस काल में उग्रपन्थी एवं नरमपन्थी नामक दो मुख्य विचारधाराएँ समान रूप से गतिशील थीं। इनके उद्देश्य तो समान थे, लेकिन सम्प्रेषण प्रणाली में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है; यथा
प्रथम – गरम दल प्रतिरूप – द्वितीय नरम दल प्रतिरूप = उद्देश्य एक परन्तु रास्ते अलग-अलग
‘नरम दल’ प्रतिरूप में सन्देश की प्राप्ति के पश्चात् सन्देश का अध्ययन किया जाता था। सन्देश का अध्ययन करते समय प्रत्येक बिन्दु पर गहराई से विचार-विमर्श कर एकरूपता की स्थापना की जाती थी, तब उचित होने पर आगे की कार्यवाही सुनिश्चित की जाती थी—
सूचना > विचार-विमर्श > निर्णय > क्रियान्वयन
प्रथम प्रतिरूप में डर, भय, कष्ट स्वयं उठाने पड़ते थे, जबकि द्वितीय प्रतिरूप में कष्ट लक्ष्य को उठाना पड़ता था क्योंकि इस प्रतिरूप का आधार आपसी विचार-विमर्श था।