Monday, December 2, 2024
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शेरशाह का प्रारम्भिक जीवन 

शेरशाह अत्यन्त साधारण स्थिति से ऊपर उठा था। अब्बास सरवानी ने अपनी पुस्तक ‘तारीखे-शेरशाही’ में शेरशाह के बचपन का वर्णन किया है। शेरशाह के बचपन का नाम फरीद था। वह इब्राहीम सूर का पोता था। उसके पिता का नाम हसन था। उसका जन्म 1472 ई० में पंजाब प्रान्त में हुआ था, जबकि डॉ० कालिकारंजन कानूनगो उसका जन्म 1486 ई० में मानते हैं। हसन सूर के चार स्त्रियाँ थीं तथा वह अपनी सबसे छोटी बेगम को अधिक प्यार करता था, जिसके कारण फरीद तथा उसकी माता को कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ा तथा पिता से मतभेद के कारण उसने अपना घर छोड़ दिया। फरीद जौनपुर के शासक जमाल खाँ के यहाँ नौकरी करने लगा। जमाल खाँ ने हसन को अपनी जागीरें सहसराम, खवासपुर और टांडा । शासन प्रबन्ध करने के लिए दे रखी थीं। कुशाग्र बुद्धि के कारण वह शीघ्र ही जमाल खाँ का विश्वासपात्र बन गया। जमाल खाँ ने हसन तथा फरीद के मध्य मित्रता करा दी और फरीद फिर अपने पिता के पास सहसराम आ गया। अब उसके पिता ने उसे सहसराम की जागीर का प्रबन्ध सौंप दिया। उसका सिद्धान्त था कि किसी भी स्थान के शासक को प्रजा के हित का ध्यान रखना चाहिए, सरकारी कर्मचारी तथा जमींदारों पर कठोर नियन्त्रण रखना चाहिए एवं राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिए कठोर दण्ड विधान बनाना चाहिए। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर फरीद ने अपनी रियासत का प्रबन्ध प्रारम्भ किया। उसने जागीर की सारी भूमि को नपवाया व नाप के आधार पर भूमि का लगान निर्धारित किया। जागीर में शान्ति स्थापित करने हेतु उसने अपनी सेना में कुछ घुड़सवार भी रखे। उसके इन कार्यों से जागीर की प्रजा ने उसकी प्रशंसा की, जिससे उसकी सौतेली माता की ईर्ष्या और बढ़ गई तथा 1518 ई० में उसे एक बार पुनः अपन पिता हसन से मनमुटाव होने के कारण घर छोड़ना पड़ा। 

फरीद का इत्कर्ष-हसन की मृत्यु के बाद फरीद का जागीर के लिए अपने सातल मार सुलपान से संघर्ष हो गया। इस बार वह बिहार गया, जहाँ के शासक बहारखा लोहाना कसा उसने नोकरी कर ली। वह लोहानी का इतना प्रिय बन गया कि उसने उसे एक शर मारत उपलक्ष्य में ‘शेरखाँ’ की उपाधि प्रदान की। किन्तु यहाँ लोहानी के सरदारों को शरखा स.२० होने लगी, इस कारण उसने जौनपुर के सूबेदार की सहायता से आगरा में बाबर के यहा । जागीर कीसद्धान्तों के राज्य में शानि वार भी रोकारत किया। 

शेरशाह सूरी कर ली। यहाँ उसने मुगलों की सैनिक-व्यवस्था, शासन-प्रणाली आदि की पूर्ण जानकारी प्राप्त की। अब वह अपने आपको इतना शक्तिशाली समझने लगा था कि उसने एक बार अफगान अमीरों के सामने विचार प्रकट करते हुए कहा-“यदि ईश्वर ने मेरी सहायता की और भाग्य ने मेरा साथ दिया तो मैं सरलता से मुगलों को भारत से निकाल दूंगा।” बाबर के दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद बहारखाँ लोहानी मुहम्मद शाह के नाम से बिहार का स्वतन्त्र शासक बन गया था। शेरखाँ ने अवसर पाते ही मुगलों का साथ छोड़ दिया तथा बिहार के शासक मुहम्मदशाह के पुत्र जलाल खाँ का नायब बन गया। नायब बनकर वह बिहार व उसके अधीन प्रदेशों पर शासन करने लगा। कुछ समय के बाद शेरखाँ ‘हजरत-ए-आला’ की उपाधि धारण कर दक्षिण बिहार का शासक बन गया और 1530 ई० में उसने चुनार के किले पर भी अधिकार कर लिया। 

शेरखाँ के कार्य (1530-1540 ई०)

(The Achievements of Sher Khan-1530–1540 AD) 

(1) चुनारगढ़ विजय-चुनार का किला इस समय ताजखाँ नामक सेनापति के अधिकार में था, किन्तु कुछ कारणवश उसका अपने पुत्रों से संघर्ष हो गया और उसे अपना घर छोड़ना पड़ा, जिसका लाभ शेरखाँ ने उठाया। उसने ताजखाँ की बेगम लाइमलिका से विवाह कर लिया। इस प्रकार चुनार के किले पर उसका अधिकार हो गया तथा यहाँ से उसे बहुत-सा सोना, बहुमूल्य रत्न, मोती आदि प्राप्त हुए।

(2) हुमायूँ से सन्धि-चुनार के दुर्ग को शेरखाँ से छीनने के लिए हुमायूँ ने उसके विरुद्ध शाही सेना भेज दी। इसी समय गुजरात के शासक बहादुरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनाई। बहादुरशाह की शक्ति को रोकने में व्यस्त होने के कारण हुमायूँ शेरखाँ के विरुद्ध अधिक ध्यान न दे सका। शेरखाँ ने भी अपनी सीमित शक्ति को देखकर चालाकी से काम लिया तथा उसने विनतीपूर्ण शब्दों में हुमायूँ से कहा- “मैं आपका स्वामिभक्त नौकर हूँ। दुर्ग तो आप किसी-न-किसी को देंगे ही, अतएव इसे मेरे अधिकार में रहने दीजिए। अपनी स्वामिभक्ति के प्रमाण के लिए मैं अपने पुत्र कुतुब खाँ को आपकी सेवा में भेज रहा हूँ।” हुमायूँ शेरखाँ के इस व्यवहार से प्रसन्न हुआ तथा उसने चुनारगढ़ से अपनी सेनाओं को हटा लिया। हुमायूँ ने हिन्दूबेग को शेरखाँ के कार्यों पर दृष्टि रखने के लिए नियुक्त किया तथा शेरखाँ के कार्यों की रिपोर्ट भेजने का आदेश दिया। शेरखाँ ने अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए हिन्दूबेग को बहुमूल्य उपहार देकर हुमायूँ को यह संदेश भिजवा दिया कि वह शेरखाँ की ओर से कोई चिन्ता न करे।

(3) गौड़ तथा रोहतासगढ़ विजय-अब शेरखाँ ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए बंगाल विजय का निश्चय किया तथा बंगाल के शासक महमूद पर आक्रमण कर दिया। सुल्तान महमूद ने गौड़ के दुर्ग में शरण ली। शेरखाँ ने गौड़ का घेरा डाल दिया। इधर हुमायूँ ने तुरन्त बंगाल की ओर एक सेना भेज दी, किन्तु यह निश्चय नहीं कर पाया कि पहले चुनार पर विजय की जाए या गौड़ का घेरा डाला जाए। हुमायूँ ने चुनार के किले पर अधिकार कर लिया। इसी बीच शेरखाँ ने रोहतास के किले पर भी अपना अधिकार जमा लिया। 

(4) बिहार तथा बंगाल पर अधिकार-शेरखाँ ने अपनी शक्ति के बल पर सम्पूर्ण बिहार पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। उसने अफगानों की सुरक्षा हेतु एक सेना बनाई तथा घोषणा की— “मैं प्रत्येक अफगान को, जो सैनिक बनने से इनकार करेगा, मार डालँगा।” 

इस समय बंगाल के शासक नुसरतशाह को मृत्यु हो गई थी। उसके उत्तराधिकारी ने बिहार विजय की सोची, किन्तु उसे शेरखा के हाथों सूरजगढ़ के युद्ध में परास्त – 

(5) सूरजगढ़ का युद्ध-शेरखा ने बंगाल के शासक को पर्ण का विचार करते हुए बंगाल पर आक्रमण कर दिया। 1534 ई० में सरजगढ ना पक्षा म भयकर युद्ध हुआ तथा बगाल का सना का पूर्ण पराजय हुई। इस पर बहुत-सी युद्ध सामग्री हाथ लगी। अब बिहार के राज्य तथा कछ अन्य। अधिकार हो गया। महमूदशाह ने शेरखा को तेरह लाख सोने के सिक्के भी निरी ने इस युद्ध का महत्त्व बताते हुए लिखा है, “मध्ययुगीन भारत के इतिहास अत्यधिक निर्णायक परिणाम हुआ। इसने शेरखां के जीवन को एक नई दिशा इस सफलता से उसकी स्थिति मजबूत हो गई और उसकी महत्त्वाकांक्षाएँ बहत र अब शेरखा ने अपने राज्य का विस्तार शुरू कर दिया तथा 1537 ई० में बंगाल महमूदशाह पर पुनः एक बार आक्रमण कर उसे हुमायूं की शरण में जाने के लिए 

(6) हुमायूँ तथा शेरखाँ का संघर्ष-शेरखाँ की सफलता से हमायँ चिनि उसने बंगाल की ओर कूच कर दिया। चौसा नामक स्थान पर हुमायूँ व शेरखाँ के म युद्ध हुआ। इस युद्ध में हुमायूँ नै नदी में कूदकर अपनी रक्षा की और एक भिश्ती ने ” जान बचाई। तत्पश्चात् हुमायू कन्नौज के युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ। इस यद्ध के ही शेरखाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की। वह हुमायू का पीछा करते हुए आगरा तक आ गया। उसने अपने विश्वसनीय सरदारों को एक विशाल सेना के साथ हुमायूँ का पीछा करने के लिए भेजा तथा आदेश दिया कि हुमायूँ को सिर्फ राज्य की सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया जाए उससे युद्ध न किया जाए। इस प्रकार शेरशाह दिल्ली व आगरा के सिंहासन का स्वामी बन गया। 

सम्राट शेरशाह सूरी की उपलब्धियाँ (1540-1545 ई०)

(The Achievements of Emperor Shershah Suri : 1540–1545 AD.) 

हुमायूँ के भारत से चले जाने के बाद शेरखाँ भारत का सम्राट तो बन गया था, किन्तु उसके सामने अनेक समस्याएँ थीं। उसका पहला विचार पश्चिमोत्तर सीमा को सुव्यवस्थित करना था, जिससे भविष्य में मुगलों के आक्रमण की कोई समस्या न रहे। उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने बलूची सरदारों से सन्धि की। सन्धि का प्रबन्ध इस्माइल खाँ बलूची सरदार को सौंप दिया तथा अन्य बलूची सरदारों को अपनी ओर मिला लिया। उसने गक्खर प्रान्त पर अधिकार करने तथा गक्खर जाति के उपद्रवों को रोकने के लिए एक विशाल दुर्ग का निमाण कराया। इससे गक्खर जातियों के उपद्रव काफी सीमा तक शान्त हो गए। अब उसन अपने साम्राज्य विस्तार हेतु निम्नलिखित कार्य किए 

(1) बंगाल विजय-इस समय बंगाल के सूबेदार खिज्र खाँ ने महमूदशाह । लडका से विवाह कर और राजा की उपाधि धारण कर स्वतन्त्र शासन की स्थापना कर . अत: शेरशाह ने बंगाल की ओर कूच किया तथा यहाँ की शासन व्यवस्था को सुधारन बंगाल को विभिन्न सरकारों (छोटे सूबों) में बाँट दिया तथा प्रत्येक सरकार के लिए एक शिकदार का नियक्ति की। प्रत्येक शिकदार को एक छोटी-सी सेना रखने का हा आपका जिससे अब बंगाल में कोई एक बड़ा शक्तिशाली सेना रखने वाला सूबेदार नहा रहा, ” कर सका 

 (2) मालवा विजय-इस समय मालवा का शासक सरदार मल्लू खाँ था, उसने उज्जैन, मांडू व सारंगपुर आदि जिलों पर अधिकार कर लिया था। इसलिए शेरशाह ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। विद्वानों ने इस आक्रमण का एक कारण यह भी बताया है कि शेरशाह के पुत्र कुतुब खाँ को मालवा अधिपतियों ने मुगलों के विरुद्ध कोई सहायता नहीं दी थी। जबकि मगलों ने कुतुबखों का वध कर दिया था। अत: शेरशाह ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। जिस समय शेरशाह सारंगपुर पहुंचा, तो मल्लू खाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा शेरशाह ने मांडू का शुजात खाँ को सौंप दिया व स्वयं आगरा आ गया। मालवा में सफल होने के बाद शेरशाह ने दरिया खाँ को उज्जैन में, आलम खाँ को सारंगपुर में व पूरनमल को रायसीन, भिलसा व चन्देरी का शासक नियुक्त कर दिया तथा हाजी खाँ को इन सबके ऊपर फौजदार बनाकर धार में रहने का आदेश दिया। कुछ समय बाद मालवा के शासक कादिरशाह (मल्लू खा) ने मालवा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया किन्तु उसे शेरशाह के सरदारों के हाथों परास्त होना पड़ा। 

(3) रणथम्भौर विजय-मालवा विजय से लौटते समय उसने रणथम्भौर दुर्ग को अपने अधिकार में कर लिया तथा वहाँ पर आदिलशाह को सरदार नियुक्त कर दिया। 

(4) रायसीन विजय-मालवा विजय के समय यहाँ के शासक पूरनमल ने शेरशाह को अनेक उपहार दिए थे तथा उसकी सेवा में स्वयं को अर्पित किया। इधर शेरशाह रायसीन किले पर अधिकार करना चाहता था, क्योकि उसे यह समाचार प्राप्त हुआ था कि पूरनमल मुसलमानों पर अत्याचार कर रहा है और पूरनमल ने अपने दबाव से सम्मानित मुस्लिम परिवार की नारियों को नाचने-गाने का पेशा करने के लिए विवश किया था। डॉ० कानूनगो ने लिखा है—“शेरशाह ने रायसीन पर धार्मिक नहीं, वरन् राजनीतिक कारण से आक्रमण किया था। वह यह जानता था कि उसके साम्राज्य के लिए एक अकेले किले का स्वतन्त्र रहना भी बहुत बड़ी विपत्ति बन सकता है।” अतः शेरशाह ने मांडू होकर रायसीन को घेर लिया तथा किले पर अधिकार कर लिया। शेरशाह ने पहले राजा पूरनमल को सपरिवार दण्ड न देने का वादा किया था, परन्तु जब चंदेरी की मुस्लिम विधवाओं ने रो-रोकर पूरनमल के अत्याचार बताए तो उसने अपना वादा तोड़कर पूरनमल को दण्डित किया। शेरशाह ने शाहबाज खाँ मखानी को रायसीन का दुर्ग सौंप दिया तथा स्वयं आगरा आ गया। 

(5) सिन्ध व मुल्तान पर अधिकार-शेरशाह ने अपने सेनापति हैबत खाँ की सहायता से सिन्ध तथा मुल्तान पर भी विजय प्राप्त की। 

(6) राजपूताना विजय-इस समय मालदेव राजपूताना का शासक था। उसकी शक्ति से भयभीत अनेक राजपूत सामन्त उससे ईर्ष्या करने लगे थे। अतः उन्होंने शेरशाह से अपनी सहायता हेतु प्रार्थना की। इस पर शेरशाह ने विशाल सेना की सहायता और कूटनीति से राजा मालदेव और उसके सरदारों में षड्यन्त्र और फूट फैलाकर मारवाड़ की राजधानी जोधपुर पर अधिकार कर लिया। इस विजय से शेरशाह को अधिक लाभ नहीं हुआ, जबकि हजारों अफगानों की जान खपानी पड़ी। जैसा कि शेरशाह ने कहा भी था- “मैंने मुट्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली का साम्राज्य करीब-करीब खो दिया था।” खवास खाँ और ईसा खान नियाजी, कल्याणमल और बीरमदेव को राजपूताने का राज्य सौंपकर शेरशाह आगरा आ गया। मालदेव ने कुछ ही समय के अन्दर वहाँ से अफगान गवर्नर को मार भगाया और अपने राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया। 

(7) चित्तौड़ विजय-इस समय चित्तौड़ पर बनवीर का शासन था तथा चित्तौड़ग गृह-युद्ध में झुलस रहा था। थोड़े समय बाद ही राजकुमार उदयसिंह मेवाड़ का शासक नियुक्त कर दिया गया। इसी समय शेरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया डॉ० कानूनगो ने इस विजय के सम्बन्ध में लिखा है—“राजस्थान में शेरशाह ने स्थानीय सरदारों को उखाड़ने या उनको पूर्णतया अधीन करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जैसा कि उसने हिन्दुस्तान के अन्य भागों में किया था। उसने इस कार्य को भयप्रद और निरर्थक पाया।” उसका ध्येय उनकी स्वतन्त्रता का सम्पूर्ण विनाश नहीं, परन्तु उनको राजनैतिक तथा भौगोलिक रूप से एक-दूसरे से अलग रखना था ताकि साम्राज्य के विरुद्ध किसी व्यापक विद्रोह का होना असम्भव हो जाए। 

(8) कालिंजर विजय-1545 ई० में शेरशाह ने कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के दो मुख्य कारण थे। कीर्तिसिंह ने शेरशाह के शत्रु रीवाँ के राजा वीरभान बघेला को शरण दी थी। साथ ही शेरशाह राजा कीर्तिसिंह की एक सुन्दर नर्तकी को हथियाना चाहता था। कालिंजर का किला अभेद्य था। अतः उसने किले की दीवारों को बारूद से उड़वा दिया तथा किले पर विजय प्राप्त की। 

शेरशाह की मृत्यु-जब कालिंजर दुर्ग की दीवार पर बारूद के गोले दागे जा रहे थे दुर्भाग्यवश बारूद का एक गोला फटने से शेरशाह घायल हो गए, अत: जिस समय शेरशाह को कालिंजर विजय की सूचना मिली, तभी उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार 22 मई 1545 ई० को इतिहास का यह चमकता सितारा अल्पायु में ही सदैव के लिए लुप्त हो गया। 

शेरशाह की सफलता के कारण 

(Causes of the Success of Shershah)

शेरशाह की सफलता के मुख्य कारणों में उसका चरित्र तथा तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ निहित थीं। संक्षेप में इनका वर्णन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है शेरशाह के चारित्रिक गुण –

(1) न्यायप्रियता-शेरशाह एक न्यायप्रिय सम्राट था। उसने अपनी जागीर का प्रबन्ध करते समय ही कई स्थानों पर अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया था, जिससे जनता में उसका सम्मान काफी बढ़ गया था। इस विषय पर कीन (Keene) ने लिखा है- “इस पठान जैसी बुद्धिमत्ता का परिचय किसी अन्य सरकार ने तो क्या अंग्रेजों ने भी नहीं दिया।’ 

(2) धार्मिक सहिष्णुता-शेरशाह एक धार्मिक सहिष्णु शासक था, उसने हिन्दू व मुसलमानों को समान समझा। यही कारण था कि उससे रायसीन के दुर्ग पर हिन्दू सरदार पूरनमल को नियुक्त किया था। अपने धार्मिक सहिष्णुता के गुण के कारण उसने एक विशाल साम्राज्य को स्थापित किया था। डॉ० ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है- “बिहार के छोटे-से जागीरदार के पुत्र की अवस्था से वह सम्राट के पद पर उन्नति कर गया और बड़े विशाल व विस्तृत प्रदेश को अपने आधिपत्य में ले आया। उसने मुगलों को भारत से बाहर खदेड़ दिया तथा सशक्त मुगलों का अभिमान चूर-चूर कर दिया।” 

(3) कुशल सेनानायक-शेरशाह एक महान सेनानायक था। अपने इस गुण के कारण ही शेरशाह ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। डॉ० स्मिथ ने लिखा है-“याद शेरशाह जीवित रहता तो मुगल साम्राज्य की इतिहास में दुबारा स्थापना सम्भव न होती।” 

(4) कूटनीतिज्ञ-शेरशाह एक कुशल कूटनीतिज्ञ भी था। इसी कूटनीति के माध्यम से उसने हमायूँ से बार-बार सन्धि की तथा साथ-साथ अपने साम्राज्य का विस्तार किया। हुमायूँ के सरदारों को अपनी ओर मिलाया तथा चुनारगढ़ के दुर्ग पर विजय प्राप्त करते समय उसने चालाकी से ताज खाँ की पत्नी लाड़मलिका से विवाह किया। रायसीन विजय में पूरनमल को रक्षा का विश्वास दिलाकर शेरशाह ने अपनी कूटनीति का परिचय दिया। उसकी इस नीति के विषय में अरिस्कन ने लिखा है-“अकबर से पूर्व किसी भी अन्य राजा में शेरशाह जैसी विधायक भावना व प्रजा-संरक्षकता नहीं देखी गई थी।” 

(2) प्रजाप्रिय-शेरशाह अपनी प्रजा को पुत्रवत समझता था, जिससे उसको प्रजा का भरपुर सहयोग मिला। एक विद्वान के अनुसार लोकहित का संरक्षक और लोकन्यायी सम्राट होने के कारण शेरशाह की तुलना रूस के सम्राट जार सिकन्दर द्वितीय से की जा सकती है।

शेरशाह की राजनीतिक परिस्थितियाँ 

(1) बहादुरशाह का योगदान-उस समय गुजरात का शासक बहादुरशाह भी हुमायूँ के विरुद्ध था, जिसके कारण शेरखाँ ने पूर्व में तथा बहादुरशाह ने पश्चिम में मिलकर हुमायूँ की शक्ति का अन्त कर दिया। 

(2) हुमायूँ की परिवार में दुर्बल स्थिति-हुमायूँ को उसके सम्बन्धियों एवं भाइयों ने सहयोग नहीं दिया, जिसके कारण उसका साम्राज्य अराजकता से ग्रस्त रहा। इससे शेरशाह के दुःसाहस को बल मिला। 

(3) हुमायूँ की उदारता-शेरशाह को हुमायूँ ने अपनी उदारता के कारण अनेक बार क्षमा किया, जिसके कारण शेरशाह को अपनी शक्ति बढ़ाने का समय मिलता रहा। 

(4) अफगानों का सहयोग–अफगानों का विचार बन गया था कि शेरखाँ के नेतृत्व में ही मुगलों को हराकर वे अपने सम्राट इब्राहीम लोदी की हत्या का बदला ले सकते हैं तथा भारत में अफगान सत्ता की पुनर्स्थापना कर सकते हैं। अत: वह अफगानों का संरक्षक बन गया था। 

निष्कर्ष-अतः हुमायूँ की चारित्रिक दुर्बलताओं एवं तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुकूल होने के कारण शेरशाह ने अपने चारित्रिक गुणों के बल पर भारत में पुन: अफगान साम्राज्य की स्थापना की थी। 

शेरशाह के सत्ता ग्रहण करते समय भारत की शासन प्रणाली

(The Administrative System of India on the Eve of Shershah’s Advent to Power)

(1) इस समय सल्तनतकालीन शासन-प्रणाली के स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन नही हुआ था। उत्तराधिकार के नियमों का अभाव थ। यद्यपि राजा स्वेच्छाचारी थे, किन्तु सम्राट की निरंकुशता कम हो चली थी। 

(2) शेरशाह ने हुमायूँ से साम्राज्य को छीना था। हुमायूँ को निरन्तर युद्धों में लगा रहना पड़ा था तथा उसे इतना अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ कि वह अपने साम्राज्य को सुदृढ़ तथा संगठित राज्य का स्वरूप प्रदान कर सके। अत: जिस समय शेरशाह सिंहासन पर बैठा, उस समय भारत की प्रचलित शासन-व्यवस्था में कोई विशेष सुधार नहीं किए गए थे। 

(3) इस समय सामन्तवाद की जड़ें अत्यन्त गहरी थीं। हुमायूँ ने अपने शासन कार्यों में सदैव अपने दरबार के ज्योतिषियों के साथ सलाह-मशविरा किया, जिससे उसको सदैव असफलता हाथ लगी तथा राज्य में अराजकता का बोलबाला बढ़ गया था। हैवेल ने लिखा है—“हुमायूँ ललित-कला का एक निर्बल प्रेमी था, क्योंकि वह सदैव राज्य सम्बन्धों में दरबार के ज्योतिषियों की सम्मति से कार्य करता था, किन्तु इन सब सोच-विचारों के बाद भी ग्रह एवं नक्षत्र सदैव ही उसके विरोध में रहे।” 

अत: जिस समय शेरशाह सत्ता में आया, उस समय देश के सूबेदार स्वतन्त्र होने की सोच रहे थे, चारों ओर सामन्तवाद का जोर था। ऐसी समस्या के सामने शेरशाह ने एक नवीन 

शक्तिशाली केन्द्रीय शासन-प्रणाली का गठन करने का प्रयास किया। 

शेरशाह का राजत्व सिद्धान्त 

(Shershah’s Theory of Kingship)

शेरशाह की शासन-प्रबन्ध सम्बन्धी सफलता के लिए उसके चारित्रिक गुणों को श्रेय दिया जा सकता है, जैसा कि प्रो० आर० एस० शर्मा का कथन है— “यदि हम उसकी तुलना सामन्तों के प्रति व्यवहार में हेनरी अष्टम से, सैनिक संगठन तथा प्रशासन की ओर अधिक ध्यान देने में प्रशा (जर्मनी) के महान शासक फ्रेडरिक विलियम प्रथम से, व्यावहारिक ज्ञान तथा राजनीतिक सिद्धान्तों में कौटिल्य व मैकियावली से तथा उदार विचार एवं प्रजा के सभी वर्गों के हितचिंतन में अशोक से करें तो उसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी।’ शेरशाह द्वारा निर्मित राजत्व सिद्धान्तों का विस्तृत अध्ययन निम्न प्रकार किया जा सकता है 

(1) उदारता-शेरशाह का विश्वास था कि एक कुशल शासक के लिए आवश्यक है कि उसमें उदारता का गुण हो। सरकारी लगान निश्चित करते समय शासक को उदार तथा वसूल करते समय कठोर बने रहना चाहिए। 

(2) शासक द्वारा कठोर नियन्त्रण-शेरशाह का विश्वास था कि शासक का कर्मचारियों पर तथा जमींदारों पर नियन्त्रण होना चाहिए, जिससे उनके कार्यों में शिथिलता न  आने पाए। 

(3) सहिष्णुता का व्यवहार-शेरशाह का विश्वास था कि प्रत्येक शासक के लिए यह आवश्यक है कि उसे प्रजा के साथ सहिष्णुता से काम लेना चाहिए। प्रजा का उसे पुत्रवत पालन करना चाहिए, चाहे वह किसी जाति, धर्म, रूप-रंग आदि से सम्बन्धित हो। वास्तव में शेरशाह इस मामले में कौटिल्य के सिद्धान्तों का समर्थक था। 

(4) कृषि को प्रधानता-शेरशाह का विश्वास था कि राज्य और प्रजा की आय का मुख्य स्रोत कृषि है और कृषक वर्ग इस समृद्धि का मेरुदण्ड है। अत: शासक को चाहिए कि वह कृषकों तथा कृषि के विकास का पूर्ण ध्यान रखे। 

(5) अधिकारियों का उच्च चरित्र-शेरशाह का विश्वास था कि शासक को दुश्चरित्र तथा आचरणभ्रष्ट अधिकारियों, वजीरों आदि से बचना चाहिए। घूस लेने वाला घूस देने वालों पर आश्रित रहता है। उसमें राज्य-भक्ति का अभाव होता है तथा वह न्याय व ईमानदारी के साथ शासन करने में असमर्थ रहता है। 

(6) कर्त्तव्यपरायणता-शेरशाह का कथन था— “शासक को परिश्रमशील एवं कर्तव्यपरायण होना चाहिए, तभी उन्नति हो सकती है।” महान पुरुषों के लिए यह आवश्यक है कि “वे निरन्तर क्रियाशील रहें व अपनी प्रतिष्ठा की महत्ता तथा पद की उच्चता के कारण राज्य के कार्यों को तुच्छ न समझें।” इस विषय पर एक विद्वान ने लिखा है-“शेरशाह हर समय शासन-प्रबन्ध में लीन रहता था। सारी रात वह अथक परिश्रम करता था।” 

(7) संगठित राज्य-शेरशाह का विचार था कि एक अच्छे शासक का यह गुण होना चाहिए कि वह एक केन्द्रित तथा सुव्यवस्थित शासन की स्थापना करे और इस बात का ध्यान रखे कि राज्य की आय का अधिकांश भाग प्रजा के हित के कार्यों में व्यय हो और अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए प्रजा के धन का अपव्यय न हो। अपने पूर्व-शासकों के विपरीत वह एक प्रजावत्सल शासक था, जो शासनाधिकारियों को प्रजा की भलाई में प्रयोग करना शासक का कर्तव्य मानता था। उस युग के लिए यह एक नई बात थी। 

शेरशाह का शासनप्रबन्ध

(Shershah’s Administrative System) 

शेरशाह के शासन-सम्बन्धी कुछ उद्देश्य थे, जिनमें जनसाधारण की सुरक्षा, शान्ति-व्यवस्था बनाए रखना तथा अफगानों का संगठन आदि प्रमुख थे। इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही उसने शासन सम्बन्धी कुछ व्यवस्थाएँ कीं। इन व्यवस्थाओं का वर्णन निम्नवत् है 

(1) स्वेच्छाचारी केन्द्रीय शासन की स्थापना-शेरशाह का केन्द्रीय शासन लोकतन्त्र प्रणाली पर आधारित था, परन्तु उसका स्वरूप एकतन्त्रात्मक था। शेरशाह महत्त्वपूर्ण विषयों पर स्वयं ही निर्णय लिया करता था; अत: उसके शासन में राज्य पदाधिकारी सम्राट की आज्ञा के बिना प्रजा-कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते थे। शेरशाह निरंकुश था, प्रशासकीय तथा सैनिक शक्तियाँ उसके हाथों में थीं, किन्तु इन शक्तियों का प्रयोग उसने प्रजाहित के लिए किया, न कि अपने हित के लिए। 

अत: उसका केन्द्रीय प्रशासन स्वेच्छाचारी था। राज्य-कार्यों में उसे परामर्श देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद् थी, परन्तु ये मन्त्री केवल राजकाज के दैनिक कार्यों को ही सम्पादित कर सकते थे, शासन-नीति निर्धारित करने अथवा शासन-तन्त्र में परिवर्तन करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था। मन्त्रिपरिषद में भी केवल चार ही मन्त्री थे–(i) दीवाने-वजारत-अर्थव्यवस्था और लगान का अधिकारी, (ii) दीवाने-आरिज-सैन्य 

विभाग का अधिकारी, (iii) दीवाने-रसालत-वैदेशिक विभाग का अधिकारी दीवाने-इंशा-पत्र-व्यवहार और आदेशों को भेजने का अधिकारी। 

(2) गुप्तचर विभाग की स्थापना-शासन को सुदृढ़ बनाने तथा नियमों का ठीक प्रका 

क्रियान्वयन कराने की दृष्टि से उसने गुप्तचर विभाग की व्यवस्था की थी, जिनके माध्यम से व प्रान्तीय अधिकारियों, अमीरों, सैनिकों, जनता की वास्तविक स्थिति आदि का पूर्ण एवं समयानुसार विवरण स्वयं रखता था। अत: इस विभाग के माध्यम से शेरशाह ने निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी राज्य की स्थापना की थी। 

(3) चरित्रवान अधिकारियों की नियुक्ति-चरित्रवान पदाधिकारियों को शेरशाह अधिक महत्त्व देता था। इस विषय पर उसका कथन था—“मैं सांसारिक राज्य इसलिए प्राप्त कर सका कि तत्कालीन राजाओं के मन्त्री भ्रष्ट थे। राजा को भ्रष्ट सलाहकार एवं मन्त्री नहीं रखने चाहिए, क्योंकि घूस लेने वाला घूस देने वाले पर निर्भर है। जो दूसरों पर निर्भर रहता है, वह वजीर बनने योग्य नहीं है, क्योंकि वह स्वार्थी होता है और स्वार्थी व्यक्ति राज्य के सम्बन्ध में सच्चा अथवा स्वामिभक्त नहीं हो सकता।” 

(4) महत्त्वपूर्ण कार्यों को प्राथमिकता-उसका कहना था कि राजा को अपनी प्रतिष्ठा की महत्ता व पद की उच्चता के कारण राज्य के कार्यों को तुच्छ नहीं समझना चाहिए। महान पुरुषों को सदैव कार्यशील रहना चाहिए। अतः वह सदैव उन कार्यों को प्राथमिकता देता था, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते थे। 

(5) अधिकारियों के स्थानान्तरण की व्यवस्था केन्द्र शासन को सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से उसने पदाधिकारियों के स्थानान्तरण की व्यवस्था की थी। इस विषय पर उसने स्वयं कहा था- “मैंने बहुत जाँच की और सही पता भी लगा लिया है कि जितनी आय तथा लाभ जिले के अधिकारी को है, उतनी किसी अन्य नौकरी में नहीं। इसलिए मैं जिलों का कार्यभार संभालने के लिए अपने अच्छे बूढ़े तथा स्वामिभक्त नौकरों को भेजता हूँ, जिससे दूसरों की अपेक्षा उन्हें अच्छा वेतन मिले और दो वर्ष बाद ही मैं उन्हें बदल देता हूँ तथा उन्हीं की तरह अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति करता हूँ, जिससे वे समृद्ध हो सकें व मेरे शासन काल में ही मेरे सभी पुराने नौकर इन लाभों का उपयोग कर सकें।” शेरशाह की इस नीति ने शासन में भ्रष्टाचार को अधिक नहीं बढ़ने दिया। 

(6) राजकोष की सुरक्षा-शेरशाह अपने साम्राज्य के सम्पूर्ण राजकोष की देखभाल 

स्वय किया करता था। इसका मुख्य उद्देश्य प्रजा के धन का सदुपयोग करना था। 

प्रान्तीय एवं स्थानीय शासन-प्रबन्ध 

(Provincial and Local Administration)

शासन को सुविधापूर्वक चलाने के लिए शेरशाह ने अपने साम्राज्य को 40 विभागों म बाट दिया था, जिन्हें प्रान्त कहा जाता था। डॉ० काननगो का विचार है कि प्रान्तों का साष्ट अकबर ने की थी तथा शेरशाह के समय में ‘सरकारों से ऊंचे विभाजन नहीं थे। शेरशाह क साम्राज्य के प्रान्ता की समता हम आधनिक मण्डलों (Divisions) से कर सकत हा १ अनेक ‘सरकारों’ अथवा ‘जिलों में विभक्त थे। सरकारों को परगनों’ में व परगना क ‘गावा’ मविभक्त कर दिया गया था।

(1) प्रान्त का शासन-प्रान्त के शासक को सूबेदार या हाकिम, अमीन अथवा फौजदार कहते थे, जो अपने समस्त कार्यो के लिए केन्द्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी रहता था। बडे प्रान्तों में इन फौजदारों को तीस हजार तक व छोटे प्रान्तों में फोजदारों को पाँच हजार तक सैनिक रखने की आज्ञा थी। समय-समय पर इन फौजदारों को शेरशाह के आदेशों का पालन करना पड़ता था। 

(2) सरकार का शासन-प्रान्त की सबसे बड़ी इकाई सरकार कहलाती थी, जिसके दो अधिकारी ‘शिकदार-ए-शिकदारान’ और ‘मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान’ मुख्य अधिकारी थे। शिकदार-ए-शिकदारान का मुख्य कार्य सरकार भर में शान्ति स्थापित करना व लगान न देने वालों को कठोर दण्ड देना था। मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान न्याय विभाग का अधिकारी था, जो कि दीवानी के मुकदमों का फैसला किया करता था। इन दोनों अधिकारियों के अधीन क्रमश: अनेक शिकदार एवं मुन्सिफ होते थे। 

(3) परगने का शासन-प्रत्येक सरकार अनेक परगनों में विभक्त की जाती थी। एक शिकदार, एक फौजदार, एक मुन्सिफ, दो फारसी लेखक कारकून (लिपिक) की नियुक्ति परगने के शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए की जाती थी। शिकदार का कार्य परगने में शान्ति बनाए रखना व अपराधियों का दमन करना था, फौजदारी मामलों का निर्णय भी शिकदार किया करता था। मुन्सिफ दीवानी मुकदमों का फैसला करता था और लगान की व्यवस्था देखता था। फौजदार कोष का अध्यक्ष था, फौजदार (खजांची) के पास समस्त कर-वसूली करके रख दिया जाता था। कारकून परगने में घटित होने वाली मुख्य घटनाओं का हिन्दी व फारसी में अनुवाद करते थे। 

(4) गाँव का शासन-ग्रामों में ग्रामीण जनता के आत्मनिर्णय को मान्यता प्रदान की गई थी। सरकार की ओर से कोई नियुक्ति नहीं की जाती थी। ग्रामों में एक ग्राम पंचायत होती थी, जिसके सदस्य गाँव के अनुभवी और बुजुर्ग व्यक्ति होते थे। परम्परागत चले आ रहे पटवारी, प्रधान, चौकीदार को सरकार स्वीकार करती थी। इन अधिकारियों का कार्य अपने क्षेत्र में हुई चोरी, डकैती तथा हत्या का पता लगाकर अपराधी को पकड़ना था। यदि वे इस कार्य में असफल होते थे, तो उसका दण्ड उन्हें स्वयं भोगना पड़ता था। गाँव में स्वास्थ्य, सफाई, सिंचाई, प्रारम्भिक शिक्षा आदि का प्रबन्ध पंचायत के दायित्व थे। 

शेरशाह का राजस्व प्रबन्ध 

(Revenue System of Shershah)

शेरशाह सदैव ही भूमि प्रबन्ध की ओर अधिक ध्यान देता थे। भूमि प्रबन्ध को सुचारु रूप देने की दृष्टि से उसने चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। प्रथम सिद्धान्त के अनुसार वह प्रजा की सुविधाओं का ध्यान रखना चाहता था। द्वितीय सिद्धान्त के विषय में उसका विचार था कि भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि के लिए भिन्न-भिन्न कर निर्धारित किए जाएँ। तृतीय सिद्धान्त के अनुसार कर तथा उपज में कुछ-न-कुछ अनुपात अवश्य हो, जिससे कृषकों और राज्य दोनों को ही कुछ लाभ हो। चतुर्थ सिद्धान्त के अनुसार वह भूमि पर किसानों का स्थायी अधिकार स्थापित करना चाहता था, जिससे वे अधिक-से-अधिक फसलें उगाएँ। अपने इन सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने हेत उसने निम्नलिखित कार्य किए 

(1) भूमि की पैमाइश-शेरशाह ने अपने साम्राज्य की समस्त भूमि की पैमाइश कराई। एकसमान पद्धति द्वारा समस्त जमीन की नाप रस्सी के द्वारा कराई गई तथा सम्पूर्ण भूमि को बीघों में विभाजित किया गया। एक बीघा 3,600 वर्ग गज का निश्चित किया गया तथा को श्रेणी को आँककर ही उस पर कर निर्धारित किया गया। प्राय: भूमि की उपज का 111″ कर के रूप में लिया जाता था। भूमि पर लगने वाले कर लगान, जरीबाना तथा महासीला और सुरक्षा कर थे। 

(2) कर वसूली नकद रूप में सरकार द्वारा कृषकों को यह आदेश था कि कर ही वसूली नकद रूप में की जाए, किन्तु विशेष परिस्थितियों में यदि किसान ऐसा न कर सकें तो उनसे अनाज के रूप में कर लिया जा सकता था। 

(3) पट्टे की व्यवस्था—प्रत्येक कृषक अपनी समस्त जमीन का विवरण लिखकर सरकार को देता था। इस विवरण को ‘कबूलियत’ कहते थे। इस कबूलियत के आधार पर ही जमीन का पट्टा उस किसान के नाम सरकार द्वारा लिख दिया जाता था। पट्टे पर मालगुजारी की दर अंकित होती थी। डॉ० कानूनगो ने लिखा है—“यदि शेरशाह दस या बीस वर्ष और जीवित रहता तो जमींदार वर्ग ही समाप्त हो जाता।” 

(4) प्रजा के साथ सहानुभूति-शेरशाह प्रजा के हितों को ही अपना हित समझता था। इस विषय पर उसने स्वयं भी कहा है—“यदि रैयत के साथ थोड़ा-सा भी अनुग्रह किया जाता है, तो उससे शासक को भी लाभ होता है।” 

(5) नाप व उपज के आधार पर राजस्व व्यवस्था-शेरशाह की सूबेदारों को यह सामान्य आज्ञा थी कि प्रत्येक भूमि में उत्पन्न फसल की भी नाप कराई जाए। राजस्व नाप के अनुसार तथा उपज के अनुपात में वसूल किया जाए। राजस्व का निर्धारण अन्न की किस्म तथा अनाज के प्रचलित भाव के आधार पर किया जाना चाहिए, जिससे मुकद्दम, चौधरी तथा आमिल आदि कृषको का शोषण न कर सकें। 

(6) भूमि-रक्षा के उपाय-सरकार द्वारा यह निर्देश भी पारित किया गया था कि यदि सरकारी कर्मचारियों तथा सेना द्वारा खेती को कोई क्षति होगी, तो उसकी पूर्ति सरकारी कोष के द्वारा की जाएगी। कृषकों को सताने वाले लोगों को दण्ड देने से शेरशाह कभी नहीं चूकता था। । 

इस प्रकार शेरशाह ने एक उचित भूमि प्रबन्ध की व्यवस्था की थी, किन्तु उसने राजस्व वसूल करने में कठोरता का पालन किया था। इस प्रबन्ध की विशेषता का वर्णन करते हुए मोरलैंड ने लिखा है- “शेरशाह के प्रयोगों का ऐतिहासिक महत्त्व इस दृष्टिकोण से है कि वे प्रशासन में किए जाने वाले उन सुधारों की श्रृंखला की प्रारम्भिक कड़ी थे जो अकबर के शासन के पूर्वार्द्ध में हुए।” इस कारण शेरशाह को अकबर का अग्रगामी कहा जाता है। 

शेरशाह का सैन्य प्रबन्ध 

(Military System of Shershah)

शेरशाह का विचार था कि एक विशाल तथा संगठित सेना के बल पर ही एक सुदृढ़ तथा निरंकुश केन्द्रीय सता का निर्माण किया जा सकता है। अत: इस उद्देश्य से उसने एक विशाल सेना का निर्माण किया था, जिसके दो अंग थे 

(1) फौज-जो सेना युद्ध हेतु साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों और सरकारों में नियुक्त की जाती थी। 

(2) शाही सेनाशाही सेना सम्राट के अधीन रहती थी। शेरशाह के सैन्य सुधार 

शेरशाह के प्रशासन की अन्य व्यवस्थाएँ 

(Other Managements of Administration of Shershah)

(1) पुलिस व्यवस्था-शेरशाह के समय में पुलिस का कोई अलग विभाग नहीं था। राज्य में शान्ति व्यवस्था बनाए रखने का कार्य सेना ही करती थी। पुलिस विभाग मुख्य शिकदार के नियन्त्रण में होता था। चोर, डाकुओं आदि पर कठोर-नियन्त्रण रखना इस अधिकारी का मुख्य कर्त्तव्य था। चूँकि शेरशाह ने प्रशासन में स्थानीय उत्तरदायित्व की प्रथा को प्रचलित किया था; अत: विभिन्न क्षेत्रों के अधिकारियों का यह मुख्य कर्त्तव्य था कि वे प्रत्येक घटना में अपराधियों का पता लगाएँ। यदि किन्हीं अपराधियों का पता नहीं लगता था तो मुख्य शिकदार या अन्य पुलिस विभाग के कर्मचारी को इसका दण्ड भुगतना पड़ता था। शेरशाह की पुलिस व्यवस्था के विषय में अब्बास सरवानी ने ‘तारीख-ए-शेरशाही’ में लिखा है-“शेरशाह के राज्यकाल में यात्रियों व अन्य मुसाफिरों को पहरा रखने की कोई आवश्यकता न थी और न ही उन्हें रेगिस्तान के बीच लुटने का भय था। वे रात्रि में चाहे रेगिस्तान में हों अथवा बस्ती में, प्रत्येक स्थान पर निर्भय होकर पड़ाव डाल देते थे। वे मैदान में अपना सामान व बहुमूल्य वस्तुएँ रखकर अपने खच्चरों को चरने के लिए छोड़ देते थे और नि:संकोच शान्तिपूर्वक इस प्रकार सो जाते थे जैसे कि अपने घर पर सोते थे।” जमींदार दण्ड के भय से यात्रियों की चौकसी करते थे। 

(2) न्याय व्यवस्था-शेरशाह की न्याय व्यवस्था अत्यन्त प्रशंसनीय थी। वह न्याय को सभा शासकों के लिए सर्वश्रेष्ठ धार्मिक कर्त्तव्य समझता था। वह अपनी लोकप्रिय न्याय व्यवस्था के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध था। राज्य में दीवानी मुकदमों का निर्णय काजी एवं मुन्सिफों द्वारा किया जाता था। हिन्दुओं के मुकदमों का निर्णय पंचायतों द्वारा भी होता था।

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