Bcom 2nd Year Corporate Planning

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नियोजन का आशय 

(Meaning of Planning)

नियोजन’ का शाब्दिक अर्थ है किसी वांछित उद्देश्य की पूर्ति के लिए पहले से ही कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना। नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है। सामान्य, अ५ मा का ह, कस करना है, किसे करना, कब करना है ? इन सब बातों का पूर्व निर्धारण ही नियोजन कहलाता है। 

प्रबन्ध के सभी प्रमुख विचारकों ने नियोजन की निम्न परिभाषाएँ दी हैं . मेरी के० नाइल्स के अनुसार, “एक उद्देश्य की पर्ति के लिए कार्यपथ के चयन एवं विकास करने का सचेतन प्रयास ही नियोजन है। यह वह आधार है, जिससे प्रबन्ध के भावी कार्य निकलते हैं।

कूण्टज ओ डोनेल के अनुसार, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है; कार्य करने के मार्ग का सचेत निर्धारण है तथा निर्णयों को उद्देश्यों, तथ्यों तथा पूर्वनिर्धारित अनुमानों पर आधारित करना है।” . 

नियोजन की विशेषताएँ 

(Characteristics of Planning)

नियोजन की प्रमुख विशेषताओं से उसकी प्रकृति को समझने में बड़ी सहयता मिलती है।

(1) सतत प्रक्रिया-

केवल एक बार योजना तैयार करने से नियोजन कार्य समाप्त नहीं होता । बदलती परिस्थितियों के अनुसार उसमें आवश्यक परिवर्तन और समायोजन किये जाने चाहियें। एक योजना की समाप्ति के पूर्व ही आगामी योजना तैयार हो जानी चाहिए। इस प्रकार नियोजन एक सतत रूप से गतिशील प्रक्रिया है। 

(2) भविष्य के बारे में-

नियोजन सदैव भावी समय के सम्बन्ध में ही किया जाता चाहे भविष्य बहुत निकट का हो या सुदूर भविष्य हो । भूतकाल के बारे में कोई नियोजन सम्भव नहीं है। 

(3) पूर्वानुमानों पर आधारित-

बिना पूर्वानुमानों के नियोजन असम्भव है। भूत और वर्तमान तथ्यों के आकलन के आधार पर भविष्य साबन्धी प्रवृत्तियों का पहले से अनुमान आवश्यक है. ताकि जोखिमों को कम से कम किया जा सके और सम्भावनाओं का अधिकतम लाभ उठाया जा सके। 

(4) प्राथमिकता-

नियोजन अन्य सभी प्रबन्ध कार्यों की आधारशिला है। सर्वप्रथम नियोजन प्रक्रिया ही आरम्भ होती है और फिर प्रबन्ध के अन्य कार्य किये जाते हैं। 

(5) सर्व-व्यापकता-

नियोजन समस्त व्यवसायों एवं छोटे-बड़े संगठनों में सभी प्रकार के प्रबन्धकों द्वारा प्रत्येक स्तर पर सम्पादित किया जाने वाला कार्य है। केवल उच्च प्रबन्धक ही नहीं, पर्यवेक्षक भी नियोजन कार्य करते हैं । जहाँ नियोजन नहीं, वहाँ प्रबन्ध नहीं हो सकता है ।

(6) बौद्धिक प्रक्रिया-

नियोजन कोई शारीरिक कार्य नहीं है, बल्कि बौद्धिक क्रियाओं का कार्य है। यह सही सोच-विचार का कार्य है।

(7) चयनात्मक स्वरूप-

यदि किसी कार्य को करने का केवल एक ही रास्ता हो, तो नियोजन की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी, क्योंकि अपरिहार्य को अपनाना ही है । वस्तुतः अनेक विकल्पों की विद्यमानता ही नियोजन की आवश्यकता को जन्म देती है । सम्भव विकल्पों में से श्रेष्ठतम का चयन किया जाता है । इस प्रकार नियोजन की प्रकृति चयनात्मक होती है।

(8) लोचपूर्ण-

नियोजन लोचपूर्ण होना चाहिए, ताकि उसमें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जा सके। 

नियोजन के उद्देश्य 

(Object of Planning)

नियोजन के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं –
(1) साम्य एवं समन्वय की स्थापना-नियोजन द्वारा उपक्रम की विभिन्न गतिविधियों में साम्य एवं समन्वय स्थापित किया जाता है।
(2) विशिष्ट दिशा प्रदान करना-नियोजन द्वारा किसी कार्य की भावी रूपरेखा बनाकर उसे एक ऐसी विशेष दिशा प्रदान करने का प्रयत्न किया जाता है, जो कि इसके अभाव में लगभग असम्भव प्रतीत होती है।

(3) भावी कार्यों में निश्चितता-नियोजन के माध्यम से संस्था की भावी गतिविधियों में अनिश्चितता के स्थान पर निश्चितता लाने का प्रयास किया जाता है। 

(4) निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति करना-नियोजन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहना है। 

(5) कुशलता में वृद्धि करना-नियोजन का एक मूलभूत उद्देश्य उपक्रम की कुशलता में वृद्धि करना है। 

(6) भावी जोखिम में कमी-नियोजन उपक्रम की भावी जोखिम एवं सम्भावनाओं को परखता है एवं भावी जोखिमों में कमी लाता है।

(7) स्वस्थ मोर्चाबन्दी-नियोजन का अन्तिम उद्देश्य स्वस्थ मोर्चाबन्दी को विकसित करना है।

(8) पूर्वानुमान लगाना– पर्वानमान नियोजन का सार है। नियोजन का उद्देश्य भावव का सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाना है। 

(9) प्रबन्ध में मितव्ययिता-उपक्रम की भावी गतिविधियों की योजना के बन जाने से प्रबन्ध का ध्यान उसे कार्यान्वित करने की ओर केन्द्रित हो जाता है, फलस्वरूप क्रियाओं के अपव्यय के स्थान पर मितव्ययिता आती है। 

(10) प्रतिस्पर्धा पर विजय पाना-दाँव-पेंच पर्ण नियोजन प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में विजय पाने में सहायक सिद्ध होता है। 

(11) जानकारी देना- नियोजन एक सुविचारित कार्यक्रम होता है, जिससे उपक्रम के आन्तरिक एवं बाहरी व्यक्तियों को उपक्रम के सम्बन्ध में समुचित सूचना एवं जानकारी प्राप्त होती है। 

नियोजन का महत्व 

(Importance of Planning)

कूण्ट्ज एवं ओ डोनेल के शब्दों में, “नियोजन के बिना प्रबन्ध अटकलबाजी बन जाता हैं तथा निर्णय सारहीन तात्कालिक इच्छाएँ मात्र रह जाते हैं।” नियोजन बगैर प्रबन्ध करना, बिना नक्शे के मकान बनाने तथा बिना लक्ष्य के यात्रा करने के सामान है।” व्यवसाय प्रबन्ध में तो नियोजन का महत्व सर्वोपरि है। नियोजन के महत्व का वर्णन निम्नानुसार संक्षेप में किया जा रहा है 

(1) उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की ओर ध्यान का केन्द्रण-

नियोजन के कारणों, प्रबन्धकों, अधिकारियों तथा पर्यवेक्षकों का ध्यान उपक्रम के उद्देश्यों और लक्ष्यों की ओर केन्द्रित रहता है । इनकी कार्यक्षमता की जाँच भी लक्ष्यों की पूर्ति के मूल्यांकन द्वारा होती हे । नियोजन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के माध्यम से कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना भी सरल हो जाता 

(2) साधनों का सदुपयोग-

योजनाओं के माध्यम से संस्था के भौतिक तथा मानवीय साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग किया जा सकता है। 

(3) लागत में कमी-नियोजन के द्वारा समय, शक्ति, साधनों की बर्बादी तथा अनावश्यक दोहराव को खत्म किया जाता है, जिससे लागतें न्यूनतम होती हैं । नियोजन प्रक्रिया अनुत्पादक एवं व्यर्थ की गतिविधियों पर रोक लगाने में सहायता करती है। 

(4) एकता एवं समन्वय की स्थापना-

संस्था के विभिन्न विभागों, अधिकारियों तथा कर्मचारियों के मध्य एकता तथा समन्वय की स्थापना के लिए नियोजन अनिवार्य है। वस्तुतः नियोजन के निर्माण में इन सभी की सलाह भी ली जाती है नियोजन द्वारा टकराव के बिन्दुओं का पता लग जाता है और उनका निवारण पहले से ही हो जाता है। 

(5) भावी अनिश्चिताओं तथा परिवर्तनों का सामना करना-

भविष्य के गर्भ में असंख्य संकट, अनिश्चितताएँ, परिवर्तन और सम्भावनाएँ छिपी रहती हैं। योजनाओं के माध्यम से सम्भावनाओं का पूरा-पूरा फायदा उठाया जाता है।

(6) समस्त प्रबन्ध कार्यों में सहायता-

किसी भी प्रकार का नियोजन हो, वह संगठन को प्रभावपूर्ण बनाता है और नियन्त्रण का आधार होता है। केवल इतना ही नहीं वह सभी प्रबन्ध सम्बन्धी कार्यों के निष्पादन का अनिवार्य अंग है। 

(7) प्रतिस्पर्द्धा शक्ति में सुधार-

सुयोग्य नियोजन अपनाकर कोई भी उपक्रम लागतों में कमी, किस्म नियन्त्रण एवं नवीनीकरण के माध्यम से उपक्रम की प्रतिस्पर्धी शक्ति में सुधार एवं वृद्धि करता है। 

(8) नवीन एवं सृजनशील विचारों का समावेश-

विज्ञान एवं तकनीकी कारण से प्रबन्ध कला में नये तत्व जुड़ते जा रहे हैं। सुविचारित योजनाओं के माध्यम से उपक्रम के प्रबन्ध में नये एवं सृजनशील विचारों से लाभ उठाया जा सकता है।


(9) प्रभावपूर्ण संगठन-

नियोजन के कारण संगठन ढाँचा अधिक प्रभावपूर्ण बनता है तथा अनावश्यक देरी, लालफीताशाही एवं दोहराव की स्थितियाँ खत्म होती हैं। समस्त उपक्रम के कार्य सुचारु एवं सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न किये जा सकते हैं।

(10) दीर्घकालीन प्रगति सम्भव-

यदि उपक्रम के संयोजन में नियोजन का सहारा न लिया जाये, तो तात्कालिक लाभ तो कमा सकते हैं, लेकिन भविष्य की रणनीति न बनाकर दीर्घकालीन प्रगति केवल नियोजन के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।


(11) मितव्ययिता उत्पन्न करना-

नियोजन के द्वारा प्रबन्ध तथा संचालन क्रियाओं में आर्थिक मितव्ययिता उत्पन्न की जा सकती है। नियोजन से प्रबन्ध कार्यों में स्पष्टता आती है, जिससे विभिन्न प्रकार की मितव्ययिताएँ उत्पन्न होती हैं। 

(12) कुशलता में वृद्धि-

नियोजन का एक मूलभूत उद्देश्य संस्था की कुशलता में वृद्धि करना होता है। नियोजन प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने में सहायक होता है। साथ ही पूरे संगठन में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का वातावरण बनाया जाता है।

(13) नियन्त्रण का आधार-

नियोजन के बिना नियन्त्रण अत्यन्त जटिल हो जाता है,क्योंकि जब तक कार्यों के प्रारूपों और प्रमापों का निर्धारण नहीं होता तब तक इस बात की जाँच ही कैसे की जाएगी कि किस सीमा तक उनकी पूर्ति हो सकी है। 

(14) जानकारी प्रदान करना-

नियोजन एक सुविचारित कार्यक्रम होता है ।इससे संस्था के आन्तरिक एवं बाहरी व्यक्तियों को संस्था के सम्बन्ध में समुचित सूचना एवं जानकारी प्राप्त होती है। 

निगम नियोजन 

(Corporate Planning)

निगम नियोजन, नियोजन का ही एक अंग है। यह स्वयं उद्योगपतियों अथवा उच्च प्रबन्ध द्वारा दीर्घकालीन रणनीति के अन्तर्गत तैयार किया जाता है। इसका मूलभूत उद्देश्य कम्पनी का विकास एवं विस्तार करता है। विभिन्न प्रबन्धशास्त्रियों ने निगम नियोजन को इस प्रकार परिभाषित किया है- 

इ० एफ० एल० बेच के अनुसार, “निगम नियोजन एक व्यापक योजना है, जिसमें उस पर्यावरण की नियमित समीक्षा सम्मिलित है, जिसके अन्तर्गत संगठन कार्यरत है तथा इसमें यह निश्चित किया जाता है कि कम्पनी का मख्य उद्देश्य क्या है तथा इसे प्राप्त करने का उसम कितनी क्षमता है।” 

स्टानयर के अनुसार, “निगम नियोजन संगठन के मुख्य उद्देश्य निर्धारित करने तथा इन उद्दश्या की प्राप्ति के लिए नीतियाँ एवं रणनीतियाँ बनाने की प्रक्रिया है ताकि संसाधनों की प्राप्ति, प्रयोग तथा बँटवारे को नियन्त्रित किया जा सके। 

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निगम नियोजन कम्पनी के विस्तार एवं विकास के लिए स्वयं उद्योगपतियों तथा उच्च प्रबन्ध द्वारा दीर्घकालीन नियोजन है, जिसका निर्धारण दीर्घकालीन रणनीति के अन्तर्गत किया जाता है। 

निगम नियोजन की विशेषताएँ 

(Characteristics of Coraporate Planning)

निगम नियोजन की प्रमुख विशेषताएँ अथवा लक्षण निम्नलिखित हैं- 

(1) भारी विनियोजन-

निगम नियोजन क्योंकि दीर्घकालीन होता है अतः इसमें भारी विनियोजन की आवश्यकता होती है जिसमें प्रत्याय भी लम्बी अवधि के पश्चात् मिलने की सम्भावना रहती है। जितनी अधिक लम्बी अवधि होगी, विनियोजन की जोखिम उतनी ही अधिक होगी। 

(2) योजना निर्माण के लाभ-

निगम नियोजन भावी लोगों का ध्यान में रखकर किया जाता है । सम्भावित लाभ जितने अधिक होंगे, निगम नियोजन उतना ही अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होगा।


(3) दीर्घकालीन नियोजन-

निगम नियोजन दीर्घकालीन नियोजन होता है । वारेन के शब्दों में, “दीर्घकालीन नियोजन वह प्रक्रिया है जो भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान निर्णयों का मार्गदर्शन करती है तथा यह भावी निर्णयों को शीघ्रता, मितव्ययिता तथा न्यूनतम अवरोधों से लेने का साधन है।” 

(4) नीतियों, उद्देश्य एवं लक्ष्यों पर आधारित-

निगम नियोजन उपक्रम के उद्देश्यों या लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उपक्रम की मूल नीतियों के अन्तर्गत एक विस्तृत कार्य योजना बनायी जाती है। 

(5) जोखिमयुक्त-

निगम नियोजन दीर्घकालीन होता है अतः इसमें जोखिम की मात्रा भी अधिक होती है । कम्पनी में जिस वस्तु के उत्पादन की योजना बनाती है कुछ समय बाद वह वस्तु ग्राहकों में अरूचिपूर्ण हो जाती है जैसे कुछ साल पहले V.C.R. व V.C.p की बहन मांग थी आज उसका स्थान C.D. ने ले लिया है V.C.R. व V.C.P को कोई पलने वाला नहीं अत: निगम नियोजन में जोखिम बहुत है। 

अलग संगठन-निगम नियोजन लम्बी अवधि का होने के कारण इसके लिए अलग से संगठन का आवश्यकता पड़ती है। यह संगठन किसी बड़े अधिकारी के अडी जो निगम नियोजन के विभाग की प्रगति एवं प्रसार के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं

निगम नियोजन के लाभ 

(Merits of Corporate Planning)

निगम नियोजन के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं- 

1. इससे कम्पनी के भविष्य के बारे में क्रमबद्ध दृष्टिकोण अपनाना सम्भव होता है। 

2. इससे कम्पनी के अल्पकालीन, मध्यकालीन तथा दीर्घकालीन उद्देश्यों में सामंजस्य स्थापित करना सम्भव होता है। 

3. इससे संस्था में स्थायित्व आता है और प्रतिस्पर्धा का सामना करने की क्षमता में वृद्धि होती है। 

4. निगम नियोजन द्वारा उपलब्ध सीमित साधनों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। 

5. उत्पादन का श्रेष्ठ प्रमाप निश्चित करके उसे प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ।

6. इससे भविष्य की चुनौतियों के अनुरूप संस्था को तैयार किया जाता है । 

7. इससे कम्पनी के प्रबन्धकों व कर्मचारियों को सही दिशा-निर्देश मिलता है जिससे उनके मनोबल में वृद्धि होती है। 

8. पूर्व निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्रभावी ढंग से प्राप्त किया जा सकता है। 

9. निराशा एवं अनिश्चितता की भावना का उन्मूलन होता है तथा आर्थिक विकास की गति में तीव्रता आती है। 

10. प्रभावी व्यूह रचना अथवा मोर्चाबन्दी करने में सहायता मिलती है। 

11. इससे कम्पनी की नीतियाँ अधिक अर्थपूर्ण बन जाती हैं तथा उचित प्रबन्धकीय नियन्त्रण सुनिश्चित हो जाता है। 

निगम नियोजन के दोष 

निगम नियोजन के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं 

1. वर्तमान परिवर्तनशील अर्थव्यवस्था में जहाँ नित्य नये आविष्कार हो रहे हैं और ग्राहक की रूचियों में परिवर्तन हो रहे हैं वहाँ निगम नियोजन सार्थक नहीं हैं। 

2. परिवर्तनों की गति तथा तीव्रता में अन्तर आने पर निगम नियोजन असफल हो जाता हैं।

3. यह नियोजन दीर्घकालीन होने के कारण जोखिम से परिपूर्ण है। 4. निगम नियोजन को अनेक तत्व का विश्लेषण करना कठिन होता है। 

5. निगम नियोजन की सफलता के लिए पर्याप्त मात्रा में साधनों की आवश्यकता पड़ती है यदि साधन सीमित है तो योजना का औचित्य निरर्थक हो जाता है। 

पर्यावरण का अर्थ 

(Meaning of Environment)

साधारण शब्दों में पर्यावरण से आशय कार्य स्थल की निकटवर्ती दशाओं से है । आस-पास आर० एफ० डॉवन मायर के अनुसार, ” पर्यावरण से आशय निकटवर्ती दशाओं से है ।” 

वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार, “पर्यावरण से आशय उन घेरे रहने वाली समस्त परिस्थितियों, प्रभावों एवं शक्तियों से है, जो जीवित प्राणियों एवं पौधों के समूहों के विकास को प्रभावित करती है।” 

पर्यावरण की विशेषताएँ 

(Characteristics of Environment)

पर्यावरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं- 

(1) जटिलता-

पर्यावरण में जटिलता पायी जाती है, क्योंकि यह घटकों के मिश्रण से बनता है । इस कारण इसके प्रभावों का स्वतन्त्र रूप से अध्ययन करना कठिन है।

(2) वाष्पशीलता-

समकालीन संगठनों में पर्यावरण तीव्रता से परिवर्तित हो रहा है, जैसे-ग्राहकों की प्राथमिकताओं में तेजी से परिवर्तन, अर्थव्यवस्था में हो रहे परिवर्तन, अस्थिर सरकारें तेजी से बदलती हुई तकनीकी आदि । 

(3) अन्तर्सम्बद्धता-

बाहरी पर्यावरण के विभिन्न घटकों में अन्तर्सम्बद्धता होती है, अर्थात एक घटक में परिवर्तन आने से दूसरे घटक में भी परिवर्तन आ जाता है, जैसे-बिजली की दरों में वृद्धि होने से औद्योगिक उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। आर्थिक पर्यावरण सामाजिक, राजनीतिक तथा तकनीकी पर्यावरण को प्रभावित करता है जो कि अन्तत: आर्थिक पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। 

(4) निर्भरता-

निर्भरता से आशय है कि किस सीमा तक एक संगठन पर्यावरण पर निर्भर है। निर्भरता की मात्रा इस तथ्य पर निर्भर करती है कि संगठन को आवश्यक संसाधनों के बाहरी घटकों पर किस सीमा तक निर्भर रहता पड़ता है। 

(5) अनिश्चितता-

अनिश्चितता पर्यावरण को प्रभावित करने वाली सूचनाओं की उपलब्धता पर निर्भर करती है। यदि पर्यावरण के सम्बन्ध में अपर्याप्त सूचनाएँ उपलब्ध हैं तो इसमें अनिश्चितता बनी रहेगी। 

(6) गतिशीलता-

पर्यावरण में गतिशीलता पायी जाती है, क्योंकि इसकी रचना विभिन्न घटकों के मिश्रण से होती है। इन घटकों में से किसी-न-किसी में परिवर्तन होता रहता है. फलस्वरूप पर्यावरण गतिशील रहता है। 

(7) दीर्घकालीन प्रभाव-

पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन का दीर्घकालीन प्रभाव पडता है । इसका कारण यह है कि पर्यावरण में परिवर्तन संस्था की लाभदेयता उत्पादकता एवं विकास को प्रभावित करते हैं। पर्यावरण स्वयं प्रभावित होता है- पर्यावरण जहाँ एक ओर दूसरों को प्रभावित करता है वहाँ दसरी ओर स्वयं दूसरों से प्रभावित भी होता है, जैसे- कोई एकाकी संगठन पर्यावरण को प्रभावित करने की स्थिति में न हो, परन्तु जब कई संगठन आपस में मिलकर पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तो पर्यावरण स्वयं भी अप्रभावित होता है

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