Sunday, December 1, 2024
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Bcom 2nd Year Development of Management

Bcom 2nd Year Development of Management

प्रबन्धकीय विचारधाराओं का विकास एवं संयोगिक दृष्टिकोण

(Development of Management Thought and Contigency Approach) 

प्रबन्ध के क्षेत्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रतिपादकों में फ्रांस के प्रसिद्ध उद्योगपति श्री हेनरी फेयोल का नाम अत्यन्त सम्मान के साथ लिया जाता है क्योंकि उनके जीवन का अधिकांश समय कुशल प्रबंधक के रूप में व्यतीत हुआ। इनकी गाथा ही प्रबंध प्रेरणा का कार्य करती है। 19 वर्ष की आयु में खदान अभियन्ता की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् फ्रांस की एक प्रसिद्ध कोयला खान कम्पनी में उनकी जूनियर इन्जीनियर के पद पर नियुक्त हुई। इसी संस्था में वह 6 वर्ष के पश्चात् कोयला खानों के प्रबंधक नियुक्त हो गये और 20 वर्ष तक इसी : ? र कार्य किया। किन्तु इसके उपरान्त संस्था को हानि होने लगी तथा उसकी आर्थिक स्थिति कम हो गयी तो पुनः 47 वर्ष की आयु में इन्हें संस्था का जनरल मैनेजर बना दिया गया। अपनी लगन व निष्ठा से इन्होंने संस्था के विकास को चरम सीमा तक पहुँचा दिया। सन् 1918 में इस कम्पनी को सेवा से निवृत्त हो गये परन्तु अपनी मृत्यु (1925) तक संस्था के संधा, बने रहे। इस अवधि में ही इन्होंने अपना अधिकांश समय प्रबन्ध के सिद्धान्तों ‘ को खोजने में लगाया। 

हेनरी फेयोल का योगदान 

(Contribution of Henry Fayol)

हेनरी फेयोल लगभग 30 वर्ष तक जनरल मैनेजर पद पर रहे और इस अवधि में अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर एक पुस्तक ‘General and Industrial Administration लिखी जिसका प्रकाशन 1916 में फ्रेंच भाषा में तथा 1929 में अंग्रेजी भाषा में हुआ। इनकी यह पुस्तक आज भी प्रबन्ध के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है-

औद्योगिक क्रियाएँ-फेयोल ने औद्योगिक संस्थाओं से सम्बन्धित सभी क्रियाओं को निम्न 6 वर्गों में विभक्त किया है– 

(1) वित्तीय क्रियाएँ-

इसमें पूंजी की प्राप्ति के साधन तथा इसका सर्वोत्तम उपयोग सम्बन्धी विधि को सम्मिलित किया जाता है। 

(2) तकनीकी क्रिया-

इसमें उत्पादन व निर्माण की विशिष्ट तकनीक को

सम्मिलित किया जाता है।

(3) लेखांकन क्रियाएँ-

इसमें स्टाक मूल्याँकन, चिट्ठा बनाना, लागत नियंत्रण तथा सांख्यिकी सम्बन्धी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। 

(4) वाणिज्य क्रियाएँ-

इसमें क्रय, विक्रय तथा विनिमय सम्बन्धी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। 

(5) सुरक्षात्मक क्रियाएँ-

इसमें मानव मशीन व माल की सुरक्षा सम्बन्धी क्रियाओं को । सम्मिलित किया जाता है। 

(6) प्रबन्ध क्रियाएँ-

इसमें नियोजन, संगठन, निर्देशन, नियंत्रण व समन्वय आदि क्रियाओं को सम्मिलित किया है। 

फेयोल ने व्यवहारिक क्षेत्र में यह अनुभव किया कि संस्थाओं के प्रबंधक प्रथम पाँच  क्रियाओं पर तो ध्यान देते हैं परन्तु प्रबंधकीय क्रियाएँ उपेक्षित रह जाती है जबकि फेयोल का मत है कि श्रमिक या कारीगर के लिये सबसे अधिक आवश्यकता तकनीकी योग्यता की होती है चूँकि जैसे-जैसे कोई व्यक्ति प्रबंध के स्तर में ऊपर की ओर बढ़ता जाता है उसे तकनीकी योग्यता की अधिक आवश्यकता होती है। हेनरी फेयोल का प्रबन्ध दर्शन-फेयोल ने अपने प्रबन्ध दर्शन को मुख्य रूप से पाँच भागों में विभक्त किया है –

(1)प्रबन्ध के तत्व-

फेयोल ने प्रबंध के स्थान पर प्रशासन शब्द का उपयोग किया है अतएव उन्होंने प्रशासन के कार्यों को निम्न पाँच भागों में विभक्त किया है-

(i) भविष्यवाणी एवं नियोजन,

(ii) संगठन,

(iii) समन्वय,

(iv) आदेश तथा

(v) नियंत्रण । 

(2) प्रबन्ध योग्यता एवं प्रशिक्षण-

फेयोल ने प्रबंधकों की योग्यता व प्रशिक्षण पर अधिक बल दिया। उनके अनुसार प्रबंधक में निम्न योग्यताएँ होना आवश्यक है-

(i) शारीरिक स्वास्थ्य तथा स्फूर्ति ,

(ii) विवेक शक्ति व सतर्कता,

(iii) उत्तरदायित्व स्वीकार करने की क्षमता तथा स्वामिभक्ति,

(iv) सामान्य ज्ञान,

(v) विशिष्ट ज्ञान,

(vi) अनुभव।

फेयोल के अनुसार प्रबन्धकीय योग्यता प्रबन्धकों में जन्मजात नहीं होती वरन् शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा विकसित की जाती है। 

(3) प्रबन्ध के सिद्धान्त-फेयोल द्वारा अपनी पुस्तक

General and Industrial Administration में प्रबन्ध के 14 सिद्धान्त प्रतिपादित किये जो आज भी उतने व्यावहारिक और तर्कपूर्ण हैं । हेनरी फेयोल के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं 

(i) कार्य का विभाजन (Division of Work)-

प्रबन्धक की सफलता विशिष्टीकरण के सिद्धान्त में निहित है । इसमें कार्य का विभाजन कर्मचारियों की योग्यता के अनुसार विभाजित कर दिया जाता है जिससे न केवल श्रेष्ठ वस्तुओं का उत्पादन होता है बल्कि कर्मचारियों की कार्य-क्षमता में वृद्धि होती है। कार्य विभाजन का यह सिद्धान्त सभी क्रियाओं में चाहे वे प्रबन्धकीय हो अथवा तकनीकी, समान रूप में लागू किया जाना चाहिये। 

(ii) अनुशासन (Discipline)-

प्रबन्ध में अनुशासन के बिना कार्य सम्भव नहीं होता जव अनुशासन व नियमों का पालन होता है तभी लोग पूरे परिश्रम से कार्य करते हैं। एक स्थान पर फेयोल ने लिखा है कि, “बुरा अनुशासन एक बुराई है जो प्राय: बुरे नेतृत्व से आती है जबकि अच्छा अनुशासन श्रेष्ठ प्रबन्ध की कुन्जी है।” अनुशासन के लिये आवश्यक है कि निरीक्षण प्रणाली उचित हो, कर्मचारियों के साथ उचित समझौता हो तथा नियमों के उल्लंघन की दिशा में दण्ड की व्यवस्था हो । 

(iii) सम्पर्क श्रृंखला (Scalar Chain)-

संस्था के समस्त पदाधिकारियों के मध्य सीधा सम्पर्क होना चाहिये। आदेश देने व लेने के मार्ग स्पष्ट होने चाहिये। किसी भी अधिकारी को अपनी सत्ता श्रेणी का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । फेयोल के अनुसार, “सम्पर्क श्रृंखला :: अधिकारों की श्रृंखला है जो उच्चतम अधिकारों से निम्नतम स्तर के अधीनस्थ तक जाती हैं।” 

(iv) आदेश की एकता (Unity of Command)-

इसका आशय यह है कि कर्मचारी को केवल एक ही अधिकारी से आदेश प्राप्त होने चाहिये और कर्मचारी उसी अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होना चाहिये। आदेश की एकता के अभाव में कर्मचारी न केवल कार्य को ही भली प्रकार से निष्पादित कर सकेगा अपितु उसके मन में असन्तोष की भावना जागृत होगी अतः प्रबन्ध को सदैव आदेश की एकता का ध्यान रखना चाहिये । फेयोल के शब्दों में, एक कर्मचारी को केवल एक ही अधिकार से आदेश प्राप्त होना चाहिए।” 

(v) (Stability of tenurest Personnely)-

प्रशासन की दृष्टि से कर्मचारियों का नित्य प्रति बदला जाना सदैव हानिकारक रहता है । संस्था के कर्मचारी स्थायित्व के अभाव में मन लगाकर कार्य नहीं करते, परिणामस्वरूप उद्योग की समस्त भावी योजनायें बर्फ में पानी की तरह शीघ्र बह जाती हैं। अत: कर्मचारियों में स्थायित्व का होना नितान्त आवश्यक है। फेयोल के अनुसार, “कर्मचारियों में स्थायित्व का अभाव प्रबन्ध की अकुशलता का प्रतीक है। कुशल तथा प्रगतिशील संस्था में सभी कर्मचारी स्थायी होते हैं।” 

(vi) अधिकार एवं उत्तरदायित्व (Authority and Responsibility)-

अधिकार एवं उत्तरदायित्व एक-दूसरे के सहगामी हैं। एक के बिना दूसरे की सफलता सम्भव नहीं। अतएव एक अधिकारी अपने उत्तरदायित्व को भली प्रकार से निभा सके, इसके लिये उसके पास अधिकार होना परम आवश्यक है तभी वह अपने अधीन कर्मचारियों से काम ले सकेगा एवं उन पर नियन्त्रण रख सकेगा।

(vii) निर्देश की समानता (Unity of Direction)-

कार्य की कुशलता व शीघ्र करने के लिये यह आवश्यक है कि कर्मचारियों को दिये जाने वाले निर्देश में समानता हो। दूसरे शब्दों में किसी एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाने वाली क्रियाओं के समूह का संचालन . केवल एक व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिये तथा उसकी एक ही योजना होनी चाहिये।

(viii) व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा सामान्य हित की भावना (Subordination of Individual Interests to General Interest)-

कुशल प्रबन्ध को सदैव सामान्य हितों व व्यक्तिगत हितों को समन्वित रखना चाहिये । यदि कभी इन दोनों में टकराव हो तो सामान्य . हितों को भी प्राथमिकता देनी चाहिये । फेयोल के अनुसार, “ यद्यपि वैयक्तिक और सामहिक हितों में समन्वय रखना प्रबन्धक का प्रमुख दायित्व है फिर भी अगर इनमें अवरोध उत्पन्न हो । जाये तो सामूहिक हितों की रक्षार्थ वैयक्तिक हितों को समर्पित कर देना चाहिये।” 

(ix) प्रेरणा (Initiative)-

प्रेरणा कार्य को नई दिशाओं को जन्म देती है अतः कर्मचारियों को उचित प्रेरणा देने की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि वे अपने अनुभव के आधार पर नई-नई योजनाएँ प्रस्तुत कर सकें तथा उन्हें सफल बनाने में अपनी पूरी शक्ति लगा सके। फेयोल ने प्रबन्धकों को यह परामर्श दिया है कि वे झूठे आत्मसम्मान को त्यागकर अपने अधीनस्थों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें।

(x) कर्मचारियों को पुरस्कार (Remuneration of Personnel)-

वर्तमान औद्योगिक जगत में यह स्वीकार कर लिया था है कि श्रम उत्पादन का सबसे सक्रिय अंग है अतः उसे सन्तुष्ट रखना परम आवश्यक है। इसके लिये उसे वेतन के साथ-साथ अच्छे कार्य पर पुरस्कार देने की व्यवस्था होनी चाहिए ।यह पुरस्कार कर्मचारी को श्रेष्ठ कार्य के प्रति समर्पित कर देता है।

(xi) केन्द्रीयकरण (Centralisation)-

यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें सभी प्रमुख अधिकार एक व्यक्ति अथवा विशिष्ट पद के पास सुरक्षित रहते हैं अर्थात् अधिकारों का अधीनस्थों में भारार्पण नहीं किया जाता । अधिकारों का केन्द्रीयकरण बहुत कुछ उपक्रम की निजी परिस्थितियों पर निर्भर करता है परन्तु अधिकारों का केन्द्रीयकरण उसी सीमा तक किया जाना चाहिये जिससे श्रमिकों की योग्यताओं का अधिकतम लाभ मिले।

(xii) न्याय अथवा समता (Equity)-

इसके अन्तर्गत प्रबन्धकों को कर्मचारियों के साथ न्याय एवं समता का व्यवहार करना चाहिये तथा उनके प्रति उदारता की भावना रखनी चाहिये। फेयोल के अनुसार न्याय से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होते हैं तथा कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा उठता हैं । कून्टज तथा ओ० डोनेल के अनुसार, “प्रबन्धक न्याय एवं दया द्वारा कर्मचारियों के साथ व्यवहार करके उनकी वफादारी तथा स्नेह प्राप्त कर सकता है।” 

(xiii) प्रबन्ध की एकता (Unity of Management)-

प्रबन्ध में एकता लाने के लिये यह आवश्यक है कि एक ही उद्योग की समान लक्ष्य वाली विभिन्न क्रियाओं को जहाँ तक सम्भव हो, एक ही प्रबन्धक के अन्त रखा जाना चाहिए ताकि उनके कार्यों में समन्वय स्थापित किया जा सके। 

(xiv) सहयोग-

उपक्रम के निर्धारित लक्ष्यों को सुगमता से तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उपक्रम के सभी घटकों में सहयोग और सद्भावना हो। 

(4) नियन्त्रण का विस्तार–

फेयोल के मतानुसार एक अधिकारी के नियन्त्रण में कितने अधीनस्थ हैं, इस बात का निर्णय करने से पूर्व संस्था में विद्यमान परिस्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए। सामान्यतः एक उच्च अधिकारी के नियन्त्रण में चार या पाँच अधीनस्थ होने चाहिए। 

(5) मूल्यांकन-

फेयोल ने प्रबन्धकीय समाज की महान सेवा की है। उनके विचारों के महत्व को निम्नलिखित निष्कर्षों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है 

(i) फेयोल ने वित्तीय प्रेरणाओं की तुलना में अवित्तीय प्रेरणाओं पर अधिक बल दिया। 

(ii) फेयोल ने प्रबन्धक के विस्तृत दृष्टिकोण के साथ भविष्य के अनुसंधानकर्ताओं को प्रबन्धकीय विचारों के विकास के आधार पर प्रस्तुत किया है। 

(iii) प्रबन्धकीय शिक्षा के महत्व को स्पष्ट कर फेयोल ने सिद्ध कर दिया कि प्रबन्धक पैदा नहीं होते वरन् बनाये जाते हैं। 

(iv) प्रबन्ध प्रक्रिया के विधिवत् विश्लेषण का श्रेय भी फेयोल को है। 

(v) फेयोल का दृष्टिकोण मानववादी था।

(6) प्रबन्ध की सार्वभौमिकता पर बल-फेयोल ने अपने लेखों तथा पुस्तकों में बार-बार इस बात पर बल दिया है कि प्रबन्ध सार्वभौमिक है । वाणिज्य, व्यापार, उद्योग, धर्म, राजनीति आदि सभी क्रियाओं में प्रबन्ध तथा उसके सिद्धान्त सर्वव्यापक हैं। कोई भी वर्ग, समुदाय यः देश इससे अपने आप को अछूता नहीं रख सकता। 

IMPORTANT QUESTIONS-

प्रश्न 1. कार्य के आधार पर प्रबन्ध का श्रेणी दिमाजन कीजिए और प्रत्येक प्रबन्ध के कार्यात्मक क्षेत्र का वर्णन कीजिए। 

उत्तर- प्रबन्ध की विशिष्ट प्रक्रियाओं का सम्पादन विभिन्न व्यावसायिक निया संदर्भ में किया जाता है। जब किसी विशिष्ट व्यावसायिक लिया। प्रकाशिया विशिष्टीकरण किया जाता है, तब प्रबन्ध का नाम ही विशिष्ट क्रिया के साथ लिया जान लगता है। वित्त के क्षेत्र में प्रबन्ध की क्रियाओं को वितीय प्रब व उत्पादन के प्रचना की क्रियाओं को उत्पादन प्रवन्ध आदि नामों से जाना जाना है। ब्रिटेन के शिक्षा मन्त्रालय न अपनी प्रबन्ध के लिए शिक्षा’ पर रिपोर्ट में प्रबन्ध के कार्यात्मक क्षेत्रों को निम्न का विभक्त किया है –

(1) वित्तीय प्रबन्ध (Financial Managementy-

वित व्यवमाय का जीवन है। अतएव प्रत्येक संस्था में वित्तीय प्रबन्ध की भमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है, जो वित्त सम्बन्धी आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना वउनको प्राप्त करना वित्तीय प्रबन्ध क्रियाओं को तथा अन्य प्रबन्ध क्रियाएं जा टपावत आय के प्रबन्ध से सम्बन्धित है करता है । 

(2) विकास का प्रबन्ध (Development of Management)-

यह प्रवन्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसमें उत्पादन में आने वाले कच्चे माल, मशीन और विधियों के सम्बन्ध में खोज और अनुसन्धान करना तथा उपभोक्ताओं की रुचि और मात्रा के अनुसार उत्पादन, किस्म और डिजाइन में समायोजन करना सम्मिलित किया जाता है । 

(3) उत्पादन प्रबन्ध (Production Management)-

उत्पादन प्रवन्ध के अन्तर्गत उत्पादन मात्रा का निर्धारण, कार्य विश्लेषण, कार्य सूचीयन, गुण नियंत्रण एवं निरीक्षण, समय एवं विधि अध्ययन तथा सामग्री का प्रबन्ध आदि को सम्मिलित किया जाता है। अन्य शब्दों में उत्पादन प्रबन्ध में प्रवन्ध की वे समस्त क्रियाएँ सम्मिलित की जाती हैं जिनके द्वारा कच्चा माल तैयार माल के रूप में परिवर्तित होता है। 

(4) सेविवर्गीय प्रबन्ध (Personnel Management)-

सेविवर्गीय प्रवन्ध के अन्तर्गत श्रम शक्ति का पूर्वानुमान, चयन भर्ती, नियुक्ति, कार्य भार सौंपा जाना, प्रशिक्षण, पदोन्नति. सेवानिवृत्ति, पद अवनयन, हस्तान्तरण, औद्योगिक सुरक्षा, पारिश्रमिक, श्रम कल्याण, चिकित्सा, औद्योगिक सम्बन्धों में सुधार से सम्बन्धित क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। यही कारण है कि यह विभाग प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय है।

(5) वितरण प्रबन्ध (Distribution Management)-

इस प्रवन्ध में उन सभी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है, जिनके माध्यम उत्पादित वस्तु-उत्पादक से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचती है । इसमें उपभोक्ता शोध, विज्ञापन नीतियों का निर्धारण, वितरण श्रृंखला का चयन, बाजार विश्लेषण इत्यादि व्यवस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है।


(6) क्रय प्रबन्ध (Purchasing Management)-

क्रय प्रबन्ध में क्रय की जाने वाली वस्तुओं के सम्बन्ध में निविदा माँगना, क्रय अनुबन्ध करना, स्टोर तथा नियन्त्रण इत्यादि से सम्बन्धित कार्यों को सम्मिलित किया जाता है । 

(7) कार्यालय प्रबन्ध (Office Management)-

कार्यालय प्रबन्ध उचित वातावरण में साधनों के उपयोग के क्षेत्र में कार्यालय के कर्मचारियों के मार्ग निर्देशन की कला है. जिससे निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। इस प्रबन्ध में सन्देशवाहन, अभिलेख व्यवस्था तथा सभी कार्यालयों के नियोजन एवं नियंत्रण को सम्मिलित करते हैं।

(8) संस्थापन प्रबन्ध (Maintenance Management)-

इसके अन्तर्गत भवन संयन्त्र, मशीनों, सामग्रियों आदि का रखरखाव तथा उनकी उचित देखभाल को शामिल किया जाता हैं।

(9) परिवहन प्रबन्ध (Transport Management)-

परिवहन प्रबन्ध के अन्तर्गत सड़क रेल, जल एवं वाय यातायात के साधनों से माल मांगना एवं भेजना, माल की पैकिंग तथा भण्डारण आदि कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। उपरोक्त के अतिरिक्त संस्था की आवश्यकता के अनसार प्रबन्ध के अन्य क्रियात्मक क्षेत्रों की भी स्थापना की जा सकती है। जैसे-जन सम्पर्क प्रबन्ध, जाति प्रबन्ध; १ सयष प्रबन्ध; कमी प्रबन्ध : अनसन्धान प्रबन्ध; आयात-निर्यात प्रबन्ध; सामग्री प्रबन्ध; अनुरक्षण प्रबन्ध ; पर्यावरण प्रबन्ध; तकनीकी प्रबन्ध आदि । 

प्रश्न 2. वैज्ञानिक प्रबन्ध से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताएँ (लक्षण) बताइये। 

उत्तर-वैज्ञानिक प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत प्रबन्धकीय समस्याओं के माधान क लिए रूढ़िवादी एवं परम्परागत विधियों के स्थान पर वैज्ञानिक अन्वेषण की पद्धति का अनुसरण किया जाता है।

एफ० डब्ल्य० टेलर के अनुसार, “ प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप व्यक्तियों से क्या कराना चाहते हैं तथा यह देखना है कि वे उसको सबसे अच्छे एवं मितव्ययी ढंग से करते है।

एफ सी० हूपर के अनुसार, “ वैज्ञानिक प्रबन्ध, प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं एवं उससे उदय होने वाली समस्याओं के लिए वैज्ञानिक ज्ञान व वैज्ञानिक विधि के प्रयोग का परिणाम के उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषात्मक अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत व्यावसायिक समस्याओं के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है उनके सम्बन्ध में जानकारी एकत्रित की जाती हैं और उनका विश्लेषण तथा तर्कपूर्ण मूल्यांकन करके कार्य करने का उचित ढंग निर्धारित किया जाता है । वैज्ञानिक प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य संस्था में उपलब्ध साधनों का कुशल एवं मितव्ययी उपयोग करना है । 

वैज्ञानिक प्रबन्ध की विशेषताएँ 

(Characteristics of Scientific Management)

वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा के स्पष्टीकरण के अन्तर्गत ही उसकी विशेषताओं का अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है लेकिन वैज्ञानिक प्रबन्ध की विशेषताओं के सम्बन्ध में टेलर का निम्नलिखित कथन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है-

“वैज्ञानिक प्रबन्ध अपने सार के रूप में एक ऐसा दर्शन है, जिसमें प्रबन्ध के चार महत्वपूर्ण सिद्धान्त अन्तर्निहित हैं: प्रथम यथार्थ विज्ञान का विकास, द्वितीय कर्मचारी का वैज्ञानिक रीति से चुनाव, तृतीय उसकी वैज्ञानिक शिक्षा एवं विकास, चतुर्थ प्रबन्धक और उनके कर्मचारियों के बीच निकटतम मैत्रीपूर्ण सहयोग।” इस कथन से जिन चार सिद्धान्तों के बारे में पता चलता है, उन्हें हम वैज्ञानिक प्रबन्ध की महत्वपूर्ण विशेषताएँ या लक्षण भी कह सकते हैं। 

(1) प्रबन्ध का यथार्थ विज्ञान के रूप में विकास (Development of Management as a True Science)-

टेलर का अभिप्राय था कि प्रबन्ध को एक यथार्थ विज्ञान के रूप में माना जाए और सभी कार्य वैधानिक ढंग से किए जाए जिससे कम से कम समय में अधिक से अधिक कुशलता एवं मितव्ययिता के साथ कार्यों को सम्पन्न किया जा सके। इसके लिए उन्होंने समय एवं गति अध्ययन का सुझाव दिया और यन्त्रों का प्रमापीकरण, निश्चित योजना बनाने तथा उसे लागू करने के लिए विशेषज्ञों की नियुक्ति करने का सुझाव दिया।

(2) कर्मचारियों को वैज्ञानिक रीति से चुनाव (Scientific Selection of workmen)

उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने कर्मचारियों का वैज्ञानिक विधि से चुनाव करने का सुझाव दिया। कारखाने में कर्मचारियों की सीमित उत्पादन, आवश्यकता न कि व्यक्तिवाद, सही व्यक्ति को सही काम पारिश्रमिक की उचित विधियाँ, क्रियाताक संगठन, कर्मचारियों की कार्थदशाओं में सुधार आदि महत्वपूर्ण है। 

संयोगिक दृष्टिकोण 

(Contingency Approach)

संयोगिक दृष्टिकोण प्रबन्ध एवं संगठन की नवीन विधि है। इस विचारधारा का विकास टॉम बर्नस जी डब्ल्यू स्टेलकर तथा जॉन बडवर्ड ने किया है। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि “प्रबन्ध करने की कोई श्रेष्ठ विधि नहीं है” वरन् सब कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है।” इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध कार्यों पर अलग-अलग परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। हम यह भी कह सकते हैं कि जो सिद्धान्त अमेरिका के सन्दर्भ में हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध के प्रतिपादित किये थे वह भारतीय परिस्थितियों में भी खरे उतरे यह जरूरी नहीं है। यह विचारधारा यह कहती है कि भारतीय प्रबन्धकों को भारत की परिस्थितियों के सन्दर्भ में प्रबन्ध के नये सिद्धान्तों का विकास करना चाहिये। सैकड़ों वर्षों से जो सिद्धान्त चले आ रहे हैं, उन्हीं को ध्यान में रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिये, बल्कि वहाँ की परिस्थितियों पर भी विचार करना चाहिये। प्रबन्ध का संयोगिक दृष्टिकोण यह कहता है कि प्रबन्धकों को वातावरण तथा परिस्थितियों को देखकर समस्याओं का निदान करना चाहिये। इस तरह के प्रबन्ध में पुराने नियमों को अलग रखते हुए परिस्थितियों को देखकर निर्णय लिये जाते हैं। यह प्रबन्ध का आधुनिक तरीका है और इसमें वातावरण तथा परिस्थितियों को देखकर समस्या का निदान किया जाता हैं।संयोगिक दृष्टिकोण की विचारधारा के अनुसार हम सभी संस्थाओं में सभी कर्मचारियों के साथ अभिप्रेरणा की एक समान नीति का उपयोग नहीं कर सकते हैं। हम व्यावहारिक जीवन में यह देखते हैं कि अलग-अलग कर्मचारियों की अलग-अलग आवश्यकताएँ होती हैं और ऐसी स्थिति में उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अभिप्रेरणा की योजना बनाना चाहिये। 

विशेषताएँ-

इस विचारधारा के निम्न लक्षण हैं –

(1) वातावरण-

यह विचारधारा प्रबन्ध विधि एवं निर्णयों को वातावरण से जोड़ने पर बल देती है।

(2) सांयोगिक-

यह विचारधारा प्रबन्ध कार्य को परिस्थितिजन्य या सांयोगिक मानती है अर्थात् प्रबन्धकों का प्रत्येक निर्णय एवं कार्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

(3) परिणामों पर ध्यान-

यह विचारधारा निर्णयों व कार्यों को करने से पूर्व उनके प्रभावों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर ध्यान देती है। 

(4) दशाओं का अनुभव-

यह प्रबन्धकीय ज्ञान का उपयोग करने से पूर्व वास्तविक दशाओं तथा भावी परिणामों का अनुभव करने पर बल देती है। 

(5) समायोजन-

यह विचारधारा प्रबन्धकीय निर्णयों व तकनीकों की परिस्थितियों के सन्दर्भ में समायोजित करने पर जोर देती है 

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