Bcom 3rd Year Management of Receivables
प्राप्यों का अर्थ
वर्ष के अन्त तक उधार विक्रय की न वसूल की गई राशि ‘प्राप्य’ कहलाती है जिसमें मुख्यतः देनदारों (Debtors) एवं प्राप्य बिलों (Bills Receivables) को सम्मिलित किया जाता है। इन प्राप्यों का व्यवसाय की चालू सम्पत्तियों में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। सामान्यतया कुल चालू सम्पत्तियों में प्राप्यों की रकम 15% से 25% तक होती है।
जॉन जे. हैम्पटन के अनुसार, “प्राप्य व्यवसाय के सामान्य संचालन के दौरान माल अथवा सेवाओं की बिक्री के कारण फर्म को देय राशि का प्रतिनिधित्व करने वाले सम्पत्ति खाते होते हैं।”
प्राप्यों के रख-रखाव के उद्देश्य-1. विक्रय में वृद्धि, 2. प्रतिस्पर्धा का सामना करना, 3. लाभों में वृद्धि।
प्राप्यों से सम्बन्धित लागतें-1. पूँजी लागते,2. प्रशासनिक लागते,3. संग्रहण/वसूली लागते, 4. वायदे पर भुगतान न करने की लागते/चूक लागतें एवं 5. उपचार की लागते (Delinquency Cost) |
प्राप्यों में विनियोग के आकार को प्रभावित करने वाले कारक-1. विक्रय की शर्ते,2. उधार विक्रय की मात्रा,3. साख नीतियाँ,4. मौसमी बाजार, 5. ग्राहकों की आदतें,6. संग्रहण नीति,7. प्रतिस्पर्धा की स्थिति।
प्राप्यों के प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा
प्राप्यों में विनियोग से होने वाली सम्भावित आय (उधार बिक्री के फलस्वरूप लाभों में होने वाली सम्भावित वृद्धि) तथा उत्पन्न होने वाली सम्भावित लागत (ब्याज) एवं हानियों (डूबत ऋण) के मध्यसामंजस्य स्थापित करना ही ‘प्राप्यों का प्रबन्ध’ है । इस प्रकार प्राप्यों के प्रबन्ध को इस सम्पत्ति अर्थात् प्राप्यों में कोषों के विनियोजन से सम्बन्धित निर्णयन प्रक्रिया जो कि संस्था के विनियोगों पर कुल प्रत्याय को अधिकतम कर सके, के रूप में परिभाषित किया जा सकता
एस० बोल्टन के अनुसार, “प्राप्यों के प्रबन्ध का आशय बिक्री एवं लाभों को उस बिन्दु तक बढ़ाने से है जहाँ प्राप्यों में अतिरिक्त कोषों के विनियोग पर प्रत्याय उस अतिरिक्त साख के लिए प्राप्य कोषों की लागत अर्थात् पूँजी लागत से कम है।”
प्रो० एस० सी० कुच्छल के अनुसार, “प्राप्यों के प्रबन्ध का अभिप्राय आन्तरिक अल्पकालीन परिचालन प्रक्रिया के एक भाग के रूप में इस सम्पत्ति में कोषों के विनियोजन से सम्बन्धित निर्णय लेने से है।”
प्राप्यों के प्रबन्ध का उद्देश्य
Objective of Receivables Management
संक्षेप में, प्राप्यों के प्रबन्ध के मुख्य उद्देश्य अग्र प्रकार हैं-
(i) अनुकूलतम उधार विक्रय मात्रा का निर्धारण,
(ii) प्राप्यों की लागतों पर प्रभावी नियन्त्रण,
(iii) उचित साख नीति द्वारा प्राप्यों में विनियोग को अनुकूलतम स्तर पर बनाये रखना।
प्राप्यों के प्रबन्ध का क्षेत्र अथवा कार्य
(Scope or Functions of Receivables Management)
प्राप्यों के प्रबन्ध के अन्तर्गत मुख्यतः निम्नलिखित पहलुओं को शामिल किया जाता हैं-
- साख नीति का निर्धारण एवं मूल्यांकन,
- 2. साख नीतियों का क्रियान्वयन,
- 3. संग्रहण प्रक्रिया का निर्धारण,
- 4. प्राप्यों का विश्लेषण एवं नियन्त्रण ।
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