Financial Management: An Introduction

(Financial Management: An Introduction)

वित्तीय प्रबन्ध-एक परिचय

वित्त व्यवसाय का मूल आधार है। कोई भी व्यवसाय बिना वित्त के न तो प्रारम्भ किया जा सकता है और न उसका सफलतापूर्वक संचालन किया जा सकता है। व्यवसाय की सफलता वित्त की पर्याप्त पूर्ति तथा वित्त के प्रभावपूर्ण प्रबन्ध पर निर्भर करती है ।

वित्त के विशिष्ट क्षेत्र (Specific Fields of Finance) -1. सार्वजनिक वित्त (Public Finance), 2. व्यावसायिक वित्त (Business Finance), 3. संस्थागत वित्त (Institutional Finance), 4. अन्तर्राष्ट्रीय वित्त (International Finance) एवं 5. वित्तीय. प्रबन्ध (Fina.cial Management) |

Financial Management: An Introduction
Financial Management: An Introduction

वित्त कार्य : अर्थ एवं परिभाषा- (Finance Function : Meaning and Definition)

सरल शब्दों में, किसी भी व्यावसायिक संस्था की वित्तीय व्यवस्था करना ही वित्त कार्य है। आर० सी० ओसबोर्न के अनुसार, “वित्त कार्य,व्यवसाय द्वारा कोषों की प्राप्ति तथा उनके उपयोग की प्रक्रिया है।”

वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach of Finance Function)-परम्परागत विचारधारा के अनुसार व्यवसाय के लिए आवश्यक पूँजी संग्रह करना ही वित्त का प्रमुख कार्य माना जाता था।

परम्परागत विचारधारा की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. व्यवसाय के लिए आवश्यक कोषों की व्यवस्था एवं उनका प्रशासन करना ही. वित्त का प्रमुख कार्य है।

2. वित्त का सम्बन्ध दैनिक व्यवसाय संचालन से न होकर यदा-कदा उत्पन्न होने वाली कतिपय समस्याओं (कम्पनी प्रवर्तन, प्रतिभूतियाँ, पूँजी बाजार, पुनर्संगठन, एकीकरण, संविलयन, आदि) के हल से है।

3. वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य आन्तरिक प्रबन्ध के लिए न होकर बाहरी व्यक्तियों के मार्गदर्शन के लिए अधिक है।

वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा (Modern Approach of Finance Function)-आधुनिक विचारधारा के अनुसार, वित्त कार्य का आशय केवल वित्त जुटाना ही नहीं है अपतुि उसका प्रभावशाली उपयोग करना भी है। कोषों का प्रभावशाली उपयोग करने हेतु एक वित्तीय प्रबन्धक को तीन महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने पड़ते हैं-विनियोग निर्णय लेना, वित्तीय निर्णय लेना तथा लाभांश सम्बन्धी निर्णय लेना । वस्तुतः वर्तमान समय में वित्त कार्य केवल वित्तीय आयोजन, वित्तीय पूर्वानुमान तथा सम्पत्ति प्रशासन तक ही सीमित नहीं है अपितु इसमें वित्तीय नियन्त्रण, वित्तीय विश्लेषण तथा मूल्यांकन, आदि कार्य भी सम्मिलित होते हैं।

वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and. Definition of Financial Management)

वित्तीय प्रबन्ध सामान्य प्रबन्ध का वह कार्यात्मक क्षेत्र होता है जो वितीय क्रियाओं के कुशल प्रबन्ध के लिए उत्तरदायी होता है। यह फर्म के विक्त तथा वित्त से सम्बन्धित पहलुओं पर निर्णयन तथा नीति निर्माण की वह क्रिया है जिससे कि व्यवसाय को उसके लक्ष्यों की दिशा में निर्देशित किया जा सके।

हावर्ड एवं उपटन के अनुसार, “नियोजन एवं नियन्त्रण कार्य को वित्तीय कार्यों पर लागू करना वित्तीय प्रबन्ध है।”

वैस्टन एवं बाइधम के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध वित्तीय निर्णय लेने की वह क्रिया है जो व्यक्तिगत उद्देश्यों और उपक्रम के उद्देश्यों में समन्वय स्थापित करती है।”

Financial Functions

आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार वित्तीय प्रबन्ध एक संस्था की वित्तीय क्रियाओं की तीन समस्याओं के समाधान से सम्बन्धित होता है जिन्हें विनियोग, वित्त, लाभांश निर्णय कहा जाता है। इन्हें ही वित्तीय कार्य कहा जाता है ।इनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-

1. वित्त-प्राप्ति निर्णय (Financing Decision) यह निर्णय मुख्यतः कोषों की प्राप्ति तथा उनके उपयोग से सम्बन्धित होता है । इसके अन्तर्गत यह निर्धारित किया जाता है कि किन-किन स्रोतों से पूँजी एकत्रित की जाएगी तथा कौन-कौन से वित्त पत्र निर्गमित किए जाएंगे जिनसे पूँजी संरचना को अनुकूलतम स्थापित किया जा सके तथा जोखिम (Risk) व लाभों (Profits) में उचित संतुलन बनाया जा सके। अन्य शब्दों में, इसके अन्तर्गत यह निर्धारित किया जाता है कि कुल पूँजी का कितना हिस्सा अंश-पूँजी से एकत्रित किया जाएगा और कितना ऋण-पूँजी से । ऋण-पूँजी और स्वामित्व पूँजी में उचित अनुपात होना चाहिए ताकि यदि संस्था का पूँजी ढाँचा परिवर्तित हो तो संस्था के कुल मूल्य पर भी अनुकूलतम प्रभाव पड़े।

2. विनियोग निर्णय (Investment Decision)-विनियोग निर्णय के अन्तर्गत यह निर्धारित किया जाता है कि कुल पूँजी का विभिन्न सम्पत्तियों में किस प्रकार विनियोजन किया जाए ताकि संस्था की लाभदायकता तथा शोधन क्षमता को अनुकूलतम बनाया जा सके। विनियोग निर्णय दो प्रकार के हो सकते हैं-(i) दीर्घकालीन विनियोग निर्णय, (i) अल्पकालीन विनियोग निर्णय । दीर्घकालीन विनियोग निर्णय को पूँजी बजटिंग (Capital Budgeting) कहा जाता है तथा अल्पकालीन विनियोग निर्णय को कार्यशील पूंजी प्रबन्ध TWorking Capital Management) कहा जाता है। संस्था के वित्त विनियोजन सम्बन्धी समस्त निर्णयों में उत्पादन, विपणन तथा संस्था में हित रखने वाले अन्य सभी विभागों के अधिकारियों से विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही विनियोग सम्बन्धी निर्णय लिए जाते हैं।

3. लाभांश निर्णय (Dividend Decision)-इसके अन्तर्गत यह निरित किया जाता है कि संस्था के कुल लाभों में से कितना हिस्सा अंशधारियों में लाभांश, के रूप में वितरित किया जाएगा तथा कितना हिस्सा व्यवसाय में ही प्रतिधारित या पुनर्विनियोजित किया जाएगा। सामान्यतया लाभांश निर्णय फर्म के विनियोग के विद्यमान अवसरों तथा अशधारियों की प्राथमिकता पर निर्भर करता है। अतः समुचित लाभांश नीति बनाना वित्तीय प्रबन्धकों के लिए बहुत आवश्यक होता है क्योंकि लाभांश नीति से ही अंशों का बाजार मूल्य व उपलब्ध वित्त की मात्रा प्रभावित होती है।

संक्षेप में, वित्तीय प्रबन्ध के आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार केवल कोषों का संग्रहण किया जाता बल्कि पूँजी का प्रभावपूर्ण एवं मितव्ययतापूर्ण उपयोग भी किया जाता है।

वित्तीय प्रबन्ध की विशेषताएँ/प्रकृति (Characteristics/Nature of Financial Management)

1. वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

2. वित्तीय प्रबन्ध निरन्तर चलने वाली प्रशासनिक है।

3. प्रबन्ध के समस्त क्षेत्रों में वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति केन्द्रीयकृत है. वित्त कार्य का केन्द्रीयकरण होने से ही वित्तीय नियन्त्रण एवं समन्वय सम्भव होता है।

4. वित्तीय प्रबन्ध वर्णनात्मक कम तथा विश्लेषणात्मक अधिक होता है।

5. वित्तीय प्रबन्ध में वित्तीय सिद्धान्तों एवं व्यवहार के मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है।

6. वित्तीय प्रबन्ध लेखांकन कार्य से भिन्न है। लेखांकन कार्य में वित्तीय समंकों का संग्रहण किया जाता है जबकि वित्तीय प्रबन्ध में इनका निर्णयों के लिए विश्लेषण और उपयोग किया जाता है।

7. व्यवसाय के कार्य निष्पादन का मूल्यांकन वित्तीय परिणामों के आधार पर किया जाता है।

8. वित्त का कार्य जोखिम एवं लाभदायकता में सन्तुलन स्थापित करना है।

9. वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र काफी व्यापक है। इसके कार्यक्षेत्र में उपक्रम की अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं के लिए साधनों को प्राप्त करना, उनका आबंटन करना तथा अनुकूलतम उपयोग करना है।

10. वित्तीय प्रबन्ध विज्ञान भी है और कला भी। इसे विज्ञान और कला का अनूठा संगम होने के कारण ‘वैज्ञानिक कला’ की संज्ञा दी जाती है। वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य (Objectives or Goals of Financial Management)

वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्यों पर दो दृष्टियों से रिचार किया जाता है : एक तो समष्टि स्तर पर (Macro level) और दूसरे व्यष्टि स्तर पर (Micro level) | समष्टि स्तर पर (At Macro Level) वित्तीय प्रबन्ध का एकमात्र उद्देश्य देश में उपलब्ध सीमित पूँजी का गहन, सर्वश्रेष्ठ और मितव्ययी उपयोग करना है ताकि देश को अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त हो सके । व्यष्टि स्तर पर वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य फर्म के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिकतम सहायता करते हुए वित्तीय क्रियाओं का प्रभावपूर्ण एवं कुशल संचालन करते हुए लाभदायक वित्त की व्यवस्था करना है।

सामान्यत: फर्म का वित्तीय उद्देश्य फर्म के स्वामियों के आर्थिक हितों को अधिकतम करना स्वीकार किया गया है, परन्तु इस बात पर असहमति है कि स्वामियों के आर्थिक हितों को किस प्रकार अधिकतम किया जाये। इसके लिए दो मापदण्ड (1) लाभको अधिकतम करना, तथा (2) सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करना है।

(I) अधिकतम लाभोपार्जन का उद्देश्य (Goal of Profit Maximisation)-प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का मूल उद्देश्य उसके स्वामियों का हित साधना माना जाता है, जिस अधिकतम लाभोपार्जन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अतः इस मापदण्ड के अनुसार उपक्रम के विनियोग, वित्तपूर्ति तथा लाभांश निर्णयों को लाभों को अधिकतम करने की ओर अभिमुख होना चाहिए अर्थात उन सम्पत्तियों, परियोजनाओं एवं निर्णयों का चयन किया जाये जो अधिक लाभप्रद हैं तथा जो लाभप्रद नहीं हैं, उन्हें अस्वीकार किया जाये।

लाभ अधिकतमीकरण के पक्ष में तर्क-1. लाभ आर्थिक कुशलता का मापदण्ड है। 2. उपलब्ध संसाधनों का कुशल आबंटन एवं उपयोग। 3. अधिकतम सामाजिक कल्याण । 4. व्यावसायिक निर्णयों

लाभ अधिकतमीकरण के विपक्ष में तर्क-1. लाभ को अधिकतम करने की अवधारणा अस्पष्ट एवं भ्रमात्मक है क्योंकि यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि लाभ के अनेक रूपों में से किस लाभ को अधिकतम करने की बात है। 2. मुद्रा के समय मूल्य की उपेक्षा । 3. जोखिम की अवहेलना । 4. व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की उपेक्षा । 5. लाभांश नीति पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में न रखना।

आधुनिक व्यावसायिक वातावरण में लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य अव्यावहारिक एवं अनैतिक प्रतीत होता है। यही कारण है कि व्यवसाय के सामाजिक दायित्व का निर्वाह करते हुए फर्म उतना लाभ अर्जित करे जो उस व्यवसाय विशेष में प्रचलित सामान्य लाभ से कम न हो एवं व्यवसाय के स्वामियों के हितों की पर्याप्त रक्षा हो जाए।

(II) सम्पदा (सम्पत्ति) के मूल्य को अधिकतम करना (Goal of Wealth Maximisation)-इस विचारधारा को शुद्ध वर्तमान मूल्य अधिकतम करना (Net Present Value Maximisation) अथवा मूल्य अधिकतम करना (Value Maximisation) के नाम से भी जाना जाता है । सोलोमन इजरा के अनुसार एक व्यवसाय के वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य उसका सम्पदा अधिकतमीकरण (Wealth Maximisation) होना चाहिए क्योंकि सम्पदा के मूल्य में वृद्धि एक ऐसा तत्त्व है जिस पर व्यवसाय के अन्य सभी उद्देश्य निर्भर करते हैं। इसका आशय फर्म की विशुद्ध सम्पत्तियों के मूल्यों में वृद्धि करना है। सम्पदा के अधिकतमीकरण से-अंशधारियों के अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि तथा फर्म के शुद्ध मूल्य (Net Worth) में वृद्धि होती है।

इस अवधारणा में किसी भी परियोजना के सम्बन्ध में सम्भावित रोकड अन्तर्वाहों (Cash inflows) की एक निश्चित कटौती दर से कटौती करके कुल वर्तमान मूल्य ज्ञात किया । कुल वर्तमान मूल्य की तुलना प्रारम्भिक विनियोग राशि से की जाती है। कुल वर्तमान मूल्य में से प्रारम्भिक विनियोग मूल्य घटाने पर अन्तर यदि धनात्मक आता है तो सम्पदा के मूल्य में वृद्धि होती है और यदि अन्तर ऋणात्मक आता है तो सम्पदा के मूल्य में कोई भी वृद्धि न होकर कमी होती है । यदि कुल वर्तमान मूल्य तथा प्रारम्भिक विनियोग बराबर हैं तो सम्पदा का मूल्य प्रभावित नहीं होता है।

सम्पत्ति अधिकतमीकरण उद्देश्य के अनुसार वित्तीय प्रबन्ध को फर्म के लिए ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे फर्म की सम्पत्तियों का शुद्ध वर्तमान मूल्य (Net Present Value) बढ़े तथा ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए जिससे सम्पत्तियों का शुद्ध वर्तमान मूल्य घटता हो । वह कार्य फर्म द्वारा अवश्य किया जाना चाहिए जिससे सम्पत्ति का निर्माण होता है और फर्म का शुद्ध मूल्य बढ़ता है । यह सिद्धान्त सम्भावित लाभों के समय मूल्य को मान्यता देता है तथा जोखिम एवं अनिश्चितता का भी विश्लेषण करता है।

अंशों का बाजार मूल्य कम्पनी की सम्पत्तियों के मूल्य को व्यक्त करता है। यदि अंशों का बाजार मूल्य बढ़ता है तो यह माना जाता है कि फर्म की सम्पदा/सम्पत्ति के शुद्ध मूल्य में वृद्धि हुई है। इसके विपरीत यदि अंशों के बाजार मूल्य में गिरावट आती है तो यह माना जायेगा कि फर्म की सम्पदा/सम्पत्ति के शुद्ध मूल्य में कमी हुई है। अंशधारियों की सम्पदा की गणना निम्न प्रकार से की जाती है

Shareholders’ Current Wealth in Firm = Number of shares owned Market x Price Per Share

Symbolically,       Wo=NPo

सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करने के लिए वित्तीय प्रबन्ध को निम्नलिखित कार्य करने होंगे (1) ऊँचे स्तर की जोखिमों से बचा जाए, (2) लाभांश का भुगतान फर्म तथा अंशधारियों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए, (3) फर्म को सदैव विकास एवं विस्तार के लिए कार्यशील रहना चाहिए (4) अंशों के बाजार मूल्य को ऊँचा बनाये रखें।

वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र अथवा वित्तीय प्रबन्ध के कार्य

जॉन जे० हम्पटन (John J. Hampton) ने अपनी पुस्तक ‘वित्तीय निर्णय लेने वालों के लिए पुस्तिका’ (Handbook for Financial Decision Makers) में वित्त के निम्नलिखित चार कार्य बताए हैं-1. कोषों का प्रबन्धन (Managing Funds),2. सम्पत्तियों का प्रबन्धन (Managing Assets), 3. तरलता कार्य (Liquidity Functions) तथा 4. लाभदायकता कार्य (Profitability Functions)।

विस्तृत आधार पर वित्तीय प्रबन्ध के कार्यों को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(I) प्रशासनिक अथवा निर्णयात्मक कार्य-1. वित्तीय नियोजन, 2. वित्त प्राप्ति की व्यवस्था करना, 3. विनियोग सम्बन्धी निर्णय लेना, 4. सम्पत्तियों का प्रबन्धन, 5. आय का प्रबन्ध करना, 6. वित्तीय निष्पादन का मूल्यांकन,7. उच्च प्रबन्धकों को परामर्श देना, 8. पूँजी की उत्पादकता में वृद्धि करना,9. लाभांश सम्बन्धी निर्णय लेना।

(II) नैत्यक या दैनिक कार्य (Routine Functions)-1. वित्तीय व्यवहारों का अभिलेख रखना, 2. विभिन्न वित्तीय विवरणों को तैयार करना, 3. रोकड़ शेष की व्यवस्था करना, 4. उधार/साख का प्रबन्ध करना, 5. महत्त्वपूर्ण विलेखों/वित्तीय प्रपत्रों को सुरक्षित रखना


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