Saturday, December 21, 2024
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Difference Between Perfect and Imperfect Market

Difference Between Perfect and Imperfect Market

प्रश्न 11-पूर्ण प्रतियोगिता क्या है? पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य किस प्रकार निर्धारित किया जाता है? What is Perfect Competition ? How is the Price determined under Perfect Competition ?

अथवा ‘पूर्ण प्रतियोगिता’ और ‘अपूर्ण प्रतियोगिता’ में अन्तर स्पष्ट कीजिए। पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य किस प्रकार निर्धारित होता है? विस्तार से व्याख्या कीजिए। Differentiate between “Perfect Competition’ and ‘Imperfect Competition’. How price is determined under Perfect Competition ? Discuss fully.

पूर्ण तथा अपूर्ण प्रतियोगिता में अन्तर

(Distinctions between Perfect and Imperfect Competition)

व्यावहारिक जीवन में अपूर्ण प्रतियोगिता ही पायी जाती है, पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार की स्थिति नहीं। यदि हम पूर्ण तथा अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थितियों पर दृष्टि डालें, तो हम दोनों में निम्नलिखित अन्तर पाते हैं-

(1) पूर्ण प्रतियोगिता एक काल्पनिक स्थिति है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता एक व्यावहारिक तथा वास्तविक स्थिति है।

(2) पूर्ण प्रतियोगिता में क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होती है कि क्रेता तथा विक्रेता व्यक्तिगत रूप से मूल्य को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होते। इसके विपरीत, नी अपूर्ण प्रतियोगिता में क्रेता तथा विक्रेता अधिक संख्या में नहीं होते, अत:  वे मूल्य को प्रभावित ए करने की सामर्थ्य रखते हैं। Difference Between Perfect and Imperfect Market

(3) पूर्ण प्रतियोगिता एक प्रतिनिधि स्थिति है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में हैं प्रतिनिधि स्थिति नहीं है वरन् उसमें कई स्थितियाँ पायी जाती हैं जैसे जब अर्थव्यवस्था में काफी उत्पादक होते हैं तथा प्रत्येक उत्पादक एक सीमा तक एकाधिकारी तत्त्व प्राप्त कर लेता है और साथ-ही ऐसी वस्तु का उत्पादन करता है जिससे बाजार में प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता हो (साथ-ही बाजार में -विभेद की स्थिति भी पायी जाती हो) तो उस दशा को वस्तुए एकाधिकृत प्रतियोगिता कहा जाता है। जब अर्थव्यवस्था में केवल कुछ ही उत्पादक अथवा र विक्रेता होते हैं तो उसे अल्पाधिकार की संज्ञा दी जाती है। इसके अलावा जब बाजार में वस्तु ) के केवल दो ही विक्रेता हों तो उसे द्वयाधिकार कहा जाता है। यह तो विक्रेताओं की दृष्टि से अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थितियाँ हुईं। क्रेताओं की दृष्टि से भी इसी प्रकार की स्थितियाँ हो मो सकती हैं।

(4) पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु एकरूप (Homogeneous Product) होती है, जबकि अपूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु विभेद (Product differentiation) की स्थिति पायी जाती है। Difference Between Perfect and Imperfect Market

पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ एवं परिभाषाएँ  (Meaning and Definitions of Perfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति है जिसमें कोई भी क्रेता अथवा विक्रेता वस्तु-विशेष की कीमत अपने क्रय-विक्रय द्वारा प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होता। तकनीकी रूप में, पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में, प्रत्येक क्रेता पूर्णतया लोचदार पूर्ति की स्थिति d का और प्रत्येक विक्रेता पूर्णतया लोचदार माँग की स्थिति का सामना करता है।

श्रीमती जोन रोबिन्सन के शब्दों में, “पूर्ण प्रतियोगिता वह स्थिति होती है जबकि प्रत्येक उत्पादक के उत्पादन की माँग पूर्णतया लोचदार होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रथम तो विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है, जिससे किसी एक विक्रेता का उत्पादन वस्तु के et कुल उत्पादन का एक बहुत ही थोड़ा भाग होता है तथा दूसरे सभी ग्राहक प्रतियोगी विक्रेताओं ? के बीच चयन की दृष्टि से समान होते हैं, जिससे बाजार पूर्ण हो जाता है।”

बाई एण्ड ही वेट के शब्दों में, “शुद्ध प्रतियोगिता तब पायी जाती है जब समरूप उपज वाले बहुत-से विक्रेता उपस्थित हों और कोई भी अकेला विक्रेता कुल उत्पादन के एक बड़े भाग को नियन्त्रित न करता हो जिससे कि वह वस्तु की कीमत को प्रभावित न कर सके।” प्रो० फर्गुसन के शब्दों में, “एक उद्योग पूर्ण प्रतियोगिता वाला तब होता है जब समस्त बाजार की तुलना में प्रत्येक क्रेता तथा विक्रेता इतना छोटा होता है कि वह अपनी खरीद अथवा उत्पादन में परिवर्तन करके बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता।” Difference Between Perfect and Imperfect Market

पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाएँ

(Essential Conditions for Perfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता की आवश्यक दशाएँ निम्नलिखित हैं-

1. क्रेता और विक्रेताओं की बड़ी संख्या (A Large Number of Buyers and Sellers)– पूर्ण प्रतियोगिता के लिए बाजार में क्रेता और विक्रेताओं की संख्या इतनी अधिक होनी चाहिए कि कोई भी क्रेता अथवा विक्रेता अकेले वस्तु की कीमत को प्रभावित न कर सके। दूसरे शब्दों में, विक्रेता चाहे बिक्री की मात्रा को बढ़ाए, कम करे अथवा माल को बिल्कुल ही न बेचे और क्रेता अपने क्रय में वृद्धि करे अथवा कमी, उसका व्यक्तिगत रूप से बाजार की स्थिति पर इतना कम प्रभाव हो कि वस्तु की कीमत अपरिवर्तित रहे।

2. समरूप वस्तु (Homogeneous Commodity)—पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में बिक्री की जाने वाली वस्तु की सभी इकाइयाँ समान होनी चाहिए। उनके आकार, रंग, रूप, गुण आदि में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत वस्तु का प्रमापीकरण होता है तथा वस्तु की इकाइयाँ, चाहे वे किसी भी फर्म द्वारा उत्पादित हों, एक-दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न होती हैं। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत विक्रेता प्रचलित बाजार कीमत को ही स्वीकार करता है। Difference Between Perfect and Imperfect Market

3. कीमत विभेद की पूर्ण अनुपस्थिति (Absence of Price Discrimination)-चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत फर्म प्रमाणित वस्तु का ही उत्पादन करती है, इसलिए गैर-कीमत प्रतियोगिता (Non-price Competition) के लिए कोई जगह नहीं होती अर्थात् पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत विक्रय लागतों (Selling Costs) का पूर्णतया अभाव होता है।

4. फर्मों का स्वतन्त्र प्रवेश तथा बहिर्गमन (Free Entry and Exit of Firms)—पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों की संख्या बहुत अधिक होती है, अत: इसके अन्तर्गत फर्मों को इसके उद्योग में प्रवेश करने अथवा उद्योग से बाहर जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। वास्तव में, इस दशा में प्रत्येक फर्म कुल उत्पादन का एक बहुत थोड़ा-सा भाग उत्पादित करती है, अत: एक फर्म के उद्योग में प्रवेश करने अथवा उद्योग को छोड़ने के परिणामस्वरूप उद्योग के आकार तथा वस्तु की कीमत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अल्पकाल में फर्मों को लाभ, सामान्य लाभ अथवा हानि हो सकती है, परन्तु दीर्घकाल में फर्मों को न लाभ होगा और न हानि बल्कि केवल सामान्य लाभ प्राप्त होगा।

5. बाजार का पूर्ण ज्ञान (Perfect Knowledge of the Market)-पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार की स्थिति के सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान होता है। बोल्डिंग के शब्दों में, “पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में क्रेता व विक्रेताओं में निकट का सम्पर्क होता है। यदि ऐसा नहीं है तो विभिन्न विक्रेता एक ही किस्म की वस्तुओं के लिए विभिन्न कीमतें वसूल कर पाने में समर्थ होंगे। Difference Between Perfect and Imperfect Market

6. उत्पादक साधनों की गतिशीलता (Mobility of Factors of Production)-पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत उत्पादन के साधन पूर्णतया गतिशील होते हैं। दूसरे शब्दों में, उत्पत्ति के साधन एक उत्पादक को छोड़कर दूसरे उत्पादक के पास कार्य कर सकते हैं।

7. प्रतिबन्धों का अभाव (Absence of Restraints)—पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किसी भी प्रकार के संस्थागत प्रतिबन्ध नहीं होते। दूसरे शब्दों में, बाजार में क्रेता और विक्रेता दोनों में किसी भी वस्तु के क्रय-विक्रय से सम्बन्धित कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। Difference Between Perfect and Imperfect Market

इसी प्रकार सरकार द्वारा भी किसी वस्तु की कीमत में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। पूर्ण प्रतियोगिता की उपर्युक्त विशेषताओं से पूर्ण प्रतियोगिता के कुछ महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का पता चलता है, जो इस प्रकार हैं-

(1) पूर्ण प्रतियोगिता अन्तर्गत दीर्घकाल में वस्तु की बाजार में कीमत केवल एक ही होती है।

(2) पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत माँग रेखा, OX-अक्ष रेखा के समान्तर होती है। दूसरे शब्दों में, माँग पूर्णतया लोचदार होती है, जो यह प्रकट करती है कि एक दी हुई कीमत पर विक्रेता कितनी ही वस्तुएँ बेच सकता है।

(3) औसत आय (AR) तथा सीमान्त आय (MR) बराबर होती हैं। Difference Between Perfect and Imperfect Market इसका कारण यह है कि विक्रेता वस्तु की प्रत्येक इकाई को एक ही कीमत पर बेचता है।

(4) पूर्ण प्रतियोगिता में उपज तथा उसकी कीमत के विज्ञापन की कोई आवश्यकता नहीं होती।

(5) चूँकि पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधनों में पूर्ण गतिशीलता होती है, इसलिए सभी उद्योगों और स्थानों में उत्पत्ति के साधनों की सीमान्त उत्पादकता समान ही होती है।

पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण (Price Determination Under Perfect Competition)

पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है, इस प्रश्न को लेकर अर्थशास्त्रियों में विवाद रहा है। इस सम्बन्ध में मुख्यत: दो विचारधाराएँ थीं। पहली विचारधारा के समर्थक वे अर्थशास्त्री थे, जो उत्पादन व्यय (Cost of Production) को मूल्य निर्धारण का एकमात्र घटक समझते थे। इन अर्थशास्त्रियों में प्रो० एडम स्मिथ एवं रिकार्डो आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। दूसरी विचारधारा के समर्थक वे अर्थशास्त्री थे, जो मूल्य के निर्धारण में उत्पादन लागत को महत्त्वपूर्ण न मानकर सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility) को मूल्य निर्धारण का प्रमुख आधार मानते थे। इस विचारधारा के प्रतिपादकों में प्रो० जेवन्स, वालरस, मेन्जर, वीजर आदि प्रमुख अर्थशास्त्री थे। Difference Between Perfect and Imperfect Market

प्रो० मार्शल ने दोनों विचारधाराओं को परखा और उनमें समन्वय किया। उन्होंने बताया कि वस्तु का मूल्य न तो केवल उत्पादन लागत (पूर्ति पक्ष) द्वारा निर्धारित होता है और न केवल सीमान्त उपयोगिता (माँग पक्ष) द्वारा ही, अपितु दोनों शक्तियाँ (माँग व पूर्ति) संयुक्त रूप से मूल्य का निर्धारण करती हैं। स्वयं प्रो० मार्शल के शब्दों में—“जिस प्रकार कागज को काटने के सम्बन्ध में हम यह विवाद कर सकते हैं कि कैंची का ऊपर या नीचे का फलक कागज को काटता है, उसी प्रकार मूल्य निर्धारण में कहा जा सकता है कि मूल्य उपयोगिता से अथवा उत्पादन लागत से निर्धारित होता है।” जबकि वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार कागज को काटने के लिए कैंची के दोनों फलक आवश्यक हैं, ठीक उसी प्रकार वस्तु के मूल्य निर्धारण में माँग (उपयोगिता) तथा पूर्ति (उत्पादन लागत) का सहयोग आवश्यक है। Difference Between Perfect and Imperfect Market

बाजार में किसी भी वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की माँग (Demand) और पूर्ति (Supply) एक-दूसरे के बराबर हो जाती हैं। यह बिन्दु साम्य बिन्दु (Equilibrium Point) तथा यह मूल्य साम्य मूल्य (Equilibrium Price) कहलाता है, अत: साम्य मूल्य का निर्धारण माँग व पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है जो क्रमशः उपयोगिता (Utility) तथा उत्पादन लागत (Cost of Production) का प्रतिनिधित्व करती हैं।

माँग शक्ति (Demand Force)-वस्तु की माँग क्रेता वर्ग के द्वारा की जाती है क्योंकि वस्तु में उपयोगिता (Utility) होती है। प्रत्येक क्रेता के लिए मूल्य की एक अधिकतम सीमा होती है, जो वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है। अन्य शब्दों में, कोई भी क्रेता वस्तु के लिए जो मूल्य देने के लिए तैयार होता है वह वस्तु का माँग मूल्य (Demand Price) कहलाता है।

वस्तु की माँग ‘माँग के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है अर्थात् ऊँची कीमत पर वस्तु की माँग कम तथा नीची कीमत पर वस्तु की माँग अधिक होती है। जिस कीमत पर वस्तु-विशेष की एक विशेष मात्रा क्रेता क्रय करने के लिए तत्पर होता है उसे माँग मूल्य कहा जाता है। प्रत्येक क्रेता की अपनी एक माँग सूची होती है, जो यह प्रदर्शित करती है कि विभिन्न मूल्यों पर क्रेता वस्तु की कितनी-कितनी मात्रा खरीदेगा। व्यक्तिगत माँग सूचियों के आधार पर बाजार माँग सूची का निर्माण किया जा सकता है।

पूर्ति शक्ति (Supply Force)-वस्तु की पूर्ति के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैंप्रथम, उत्पादक अथवा विक्रेता वस्तु का मूल्य क्यों लेता है। द्वितीय, उत्पादक अथवा विक्रेता वस्तु का कम-से-कम कितना मूल्य लेना चाहेगा। प्रथम कथन के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि चूँकि प्रत्येक वस्तु के उत्पादन में कुछ-न-कुछ लागत अवश्य आती है, अत: उत्पादक वस्तु का मूल्य लेता है। द्वितीय कथन के अनुसार उत्पादक वस्तु का मूल्य वस्तु की सीमान्त लागत के बराबर अवश्य लेगा। इस प्रकार मूल्य की निम्नतम सीमा वस्तु की सीमान्त लागत द्वारा निर्धारित होती है।

जहाँ तक पूर्ति का प्रश्न है, पूर्ति ‘पूर्ति के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है। अन्य शब्दों में, ऊँची कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा तथा नीची कीमत पर वस्तु की कम मात्रा बेचने के लिए प्रस्तुत की जाएगी। जिस कीमत पर विक्रेता वस्तु की एक निश्चित मात्रा बेचने को तैयार होता है उसे पूर्ति मूल्य कहकर पुकारा जाता है। प्रत्येक उत्पादक या विक्रेता की एक पूर्ति अनुसूची होती है जो यह स्पष्ट करती है कि एक विक्रेता विभिन्न मूल्यों पर वस्तु की कितनी मात्रा बेचने के लिए तैयार है। व्यक्तिगत पूर्ति अनुसूचियों की सहायता से बाजार पूर्ति अनुसूची का निर्माण किया जा सकता है।

मूल्य निर्धारण (Price Determination)-मूल्य के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, “वस्तु का मूल्य सीमान्त उपयोगिता तथा सीमान्त उत्पादन व्यय के मध्य माँग और पूर्ति की सापेक्षिक शक्तियों के द्वारा उस स्थान पर निर्धारित होता है, जहाँ वस्तु की पूर्ति उसकी माँग के बराबर होती है।” इस कथन का अभिप्राय यह है कि क्रेता की दृष्टि से मूल्य की अन्तिम सीमा वस्तु की सीमान्त उपयोगिता द्वारा निर्धारित होती है, जबकि विक्रेताओं की दृष्टि से सीमान्त लागत मूल्य की निम्नतम सीमा का निर्धारण करती है। प्रत्येक क्रेता वस्तु का कम-से-कम मूल्य देना चाहता है तथा विक्रेता वन्तु का अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त करना चाहता है, अत: दोनों पक्ष (क्रेता व विक्रेता) सौदेबाजी करते हैं और अन्त में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु (जिसे साम्य अथवा सन्तुलन बिन्दु कहते हैं) पर निर्धारित होता है जहाँ वस्तु की माँग वस्तु की पूर्ति के ठीक बराबर होती है। इसी बिन्दु को सन्तुलन मूल्य (Equilibrium Price) कहा जाता है।

उदाहरण तथा रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण

(Explanation by example and through Diagram)

बाजार में माँग व पूर्ति की स्थिति एवं साम्य मूल्य का निर्धारण—माना विभिन्न मूल्यों पर किसी बाजार में किसी समयावधि में माँग तथा पूर्ति की स्थिति निम्नांकित तालिकानुसार है-

Difference Between Perfect and Imperfect Market

माँग तथा पूर्ति वक्र रेखाओं को खींचने पर हम यह देखते हैं कि माँग व पूर्ति की रेखाएँ एक-दूसरे को साम्य बिन्दु पर काटती हैं और यह साम्य बिन्दु ₹ 2 प्रति किलोग्राम मूल्य निर्धारित करता है। यही वस्तु का सन्तुलन मूल्य है।

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संक्षेप में, कीमत माँग व पूर्ति द्वारा निश्चित होती है और मूल्य का यह निर्धारण उस साम्य बिन्दु पर होता है, जहाँ माँग व पूर्ति की मात्राएँ एक-दूसरे के पूर्णत: बराबर होती हैं।

मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में कुछ मुख्य बातें (Some Important Factors in Price Determination)

मूल्य निर्धारण के सम्बन्ध में कुछ मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-(1) किसी वस्तु का मूल्य माँग तथा पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है। बाजार में वस्तु का मूल्य उस बिन्दु पर निश्चित होगा जहाँ पर कि माँग और पूर्ति बराबर हो जाती हैं।

(2) माँग, पूर्ति तथा मूल्य तीनों परस्पर सम्बन्धित होते हैं, अर्थात् यद्यपि वस्तु का मूल्यं उसकी माँग तथा पूर्ति की दशाओं द्वारा निश्चित होता है, वस्तु का मूल्य भी वस्तु की माँग तथा पूर्ति को प्रभावित करता है।

(3) माँग तथा पूर्ति की दशाओं में परिवर्तन होने से ‘सन्तुलन मूल्य’ में परिवर्तन हो जाता है


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