Para language in Business Communication

Para language in Business Communication भाषा प्रतिरूप ‘Para language’ में ‘Para’ शब्द का आशय ‘समान’ तथा language’ शब्द का आशय ‘भाषा’ से है। दोनों के संयुक्त अर्थ को हिन्दी में ‘पाश्र्व भाषा’ कहते हैं। मौखिक सम्प्रेषण में वक्ता का यदि गहन अवलोकन करें तो पता चलता है कि वह अपने सम्प्रेषण में अनेक संकेतों, स्वर का उतार-चढ़ाव, धाराप्रवाह अथवा अप्रवाह, जगह-जगह वाणी को अल्प विराम, ऊँची अथवा धीमी आवाज जाने-अनजाने में प्रयोग करता है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति को ही मिश्रित रूप में ‘पाश्र्व भाषा’ कहा जाता है। ‘Para language’ अभाषित सम्प्रेषण का ही एक प्रकार है, परन्तु अन्य अभाषित सम्प्रेषणों (Non-verbal Communications) की अपेक्षा यह शब्द – संकेतों के अत्यन्त निकट है क्योंकि इसमें एक वक्ता अपने शब्दों को किस प्रकार ‘स्वर – ध्वनि’ के साथ कैसे उद्घोषित करता है, इस बात का इशारा या संकेत प्राप्त होता है। आवाज या स्वरों में यह गुण या विशेषता होनी चाहिए कि उनके स्वराघात, लय, गति व मात्रा अथवा आयाम के द्वारा सन्देश के अर्थ को समझा जा सके। जैसे उच्च स्वराघात / लय वाली आवाज स्नेह, प्रेम, अनुराग, लगाव, चाह की परिचायक है। Para language Meaning/definition In ‘Para language’, the word ‘Para’ means ‘similar’ and the word ‘language’ means ‘language’. The combined … Read more

Language Barriers in Business Communication pdf

Language Barriers in Business Communication pdf भाषागत अवरोध इस प्रकार की बाधाएँ एवं रुकावटें उन कारणों से उत्पन्न होती हैं जिनका सम्बन्ध भाषा से होता है। संचार में प्रयुक्त शब्दों, चिह्नों तथा आँकड़ों की प्राप्तकर्ता द्वारा अपने अनुभव के आधार पर व्याख्या की जाती है, जिससे शंका की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। विभिन्न शब्दों और चिह्नों के विभिन्न अर्थ निकालने, खराब शब्दावली एवं व्याकरण के अधूरे ज्ञान के कारण इसप्रकार की बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। भाषा सम्बन्धी प्रमुख बाधाएँ निम्नलिखित है- 1. अनेकार्थी शब्दों का प्रयोग (Use of different context words ) – जब संचार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनके अनेक अर्थ हो सकते हैं तो यह हो सकता है कि प्रेषक ने जिस अर्थ में शब्द का प्रयोग किया है, प्राप्तकर्त्ता उसको उसी रूप में न समझकर कोई अन्य अर्थ में समझ ले । ऐसी स्थिति में संचार पूर्ण और सफल नहीं हो सकेगा। ‘मर्फी’ के अनुसार अंग्रेजी शब्द RUN के 110 अर्थ निकाले जा सकते हैं। अतः अनेकार्थी शब्दों के प्रयोग के कारण संचार के मार्ग में बाधा उत्पन्न हो जाती है। 2. तकनीकी भाषा का प्रयोग (Use of Technical Language) –कुछ तकनीकी व विशिष्ट समूह वर्ग के व्यक्ति; जैसे— डॉक्टर, इंजीनियर अपनी विशिष्ट भाषा-शैली का प्रयोग करते हैं। इस विशिष्ट भाषा का संचार इस शैली से अपरिचित सम्प्रेषणग्राही के लिए कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करता है क्योंकि इनका प्रसारण / संचारण व समझ प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता। अत: तकनीकी भाषा/ विशिष्ट भाषा-शैली, सम्प्रेषण में बाधा उत्पन्न करती है । 3. अस्पष्ट मान्यताएँ (Unclarified Assumptions) – प्रायः सम्प्रेषण इस मान्यता के आधार पर किया जाता है कि सम्प्रेषणग्राही सम्प्रेषण की आधारभूत पृष्ठभूमि से पूर्णत: परिचित है, परन्तु अधिकांश स्थितियों में यह मान्यता गलत सिद्ध हो जाती है। इसलिए सम्प्रेषणग्राही को सन्देश की विषय-वस्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में जानकारी का पूर्वानुमान अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् सम्प्रेषण क्रिया में सन्देश में निहित मान्यताओं की स्पष्टता सम्प्रेषणग्राही हेतु अत्यन्त अनिवार्य है। 4. अस्पष्ट पूर्व धारणाएँ (Uncleared Preconcepts) – प्रत्येक सन्देश प्राय: अस्पष्ट पूर्व धारणाओं से परिपूर्ण होता है जो कि सम्प्रेषण में बाधाएँ उत्पन्न करता है क्योंकि सम्प्रेषक सन्देश में समाहित समस्त बातों की विस्तृत जानकारी प्रेषकग्राही को नहीं देता बल्कि वह यह मानकर चलता है कि सन्देशग्राही इन बातों को स्वयं समझ पाने में सक्षम है।  5. त्रुटिपूर्ण शब्द में अभिव्यक्त सन्देश (Wrongly Expressed Message)अर्थहीन, निर्बल शब्दों में अभिव्यक्त सन्देश सदैव सम्प्रेषण का अर्थ बदल देता है। अतः ऐसी दशा में सदैव सन्देश की गलत व्याख्या की प्रबल सम्भावना रहती है। यह स्थिति तब अधिक जटिल हो जाती है, … Read more

Limitations of Formal Communication

औपचारिक सम्प्रेषण की सीमाएँ (Limitations of Formal Communication) औपचारिक सम्प्रेषण की प्रमुख सीमाएँ निम्नलिखित हैं- (1) लम्बवत् सम्प्रेषण भिन्न-भिन्न स्तरों से होता हुआ नीचे की ओर आता है, जिसमें किसी भी स्तर पर आवश्यक कारणों से सन्देश को संशोधित तथा परिवर्तित किया जा सकता है। लेकिन कई बार ऐसा करने से सन्देश का भाव तथा अर्थ बदल जाता है।  (2) लम्बवत् सम्प्रेषण के निर्णयन तथा नीतियों में अधीनस्थों की कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं होती। (2) इस सम्प्रेषण में आदेश तथा निर्देश विभिन्न स्तरों से होकर ऊपर से नीचे की ओर आते हैं, जिसके कारण सन्देश, आदेश तथा निर्देश के पहुँचने में देरी हो जाती है।  (4) इस सम्प्रेषण में गोपनीयता भंग होने तथा अनावश्यक विवरण के कारण सन्देश का वास्तविक स्वरूप ही बदल जाता है । (5) उच्चाधिकारी द्वारा पूर्ण आदेश अथवा सन्देश दिए जाने के कारण कार्यपरिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता। अनौपचारिक सम्प्रेषण के लाभ (Advantages of Informal Communication) अनौपचारिक सम्प्रेषण के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं-

What do you mean by Revison ?

What do you mean by Revision ? पुनरीक्षण से क्या अभिप्राय है? उत्तर प्रथम प्रारूप तैयार करने के बाद उसे दुबारा पढ़कर उसमें संशोधन किए जाते हैं अर्थात् अनावश्यक सूचना को काट दिया जाता है तथा जो तथ्य प्रथम प्रारूप में लिखने से गए हैं, उन्हें यथास्थान जोड़ा जाता है। सन्देश के उद्देश्य, विषय-वस्तु तथा लेखन शब्दों की समीक्षा की जाती है। व्याकरण, विराम चिह्नों तथा वाक्यों की बनावट पर भी ध्यान दिया जाता है। संशोधन की यह प्रक्रिया पुनर्लेखन भी कहलाती है। अत: प्रथम प्रारूप को लिखने के पश्चात् यह आवश्यक है कि उसकी समीक्षा की जाए तथा उसमें वांछित सुधार किया जाए। कुछ लेखकों के अनुसार प्रथम प्रारूप में संशोधन के लिए उसे तीन बार निम्नांकित प्रकार से पढ़ने की योजना बनानी चाहिए – प्रथम संशोधन (First Revision ) – पहला संशोधन करते समय विषय-वस्तु अर्थात् पत्र लिखने के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए (i) क्या पत्र संस्था तथा प्राप्त करने वाले की सभी आवश्यकताओं को पूरा करता है, (ii) क्या पत्र में आवश्यक सभी जानकारी दी गई हैं तथा दी गई जानकारी सत्य हैं, (iii) क्या सन्देश की भाषा स्पष्ट है, (iv) क्या पत्र में दी गई सूचना के समर्थन में पर्याप्त आँकड़े तथा तथ्य उपलब्ध है।  दूसरा संशोधन (Second Revision)-दूसरे संशोधन में यह देखना चाहिए कि पत्र का खाका (Layout) सही है तथा पत्र ठीक ढंग से व्यवस्थित है। अतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए (i) क्या पत्र का खाका वांछित उद्देश्यों को पूरा करने के साथ पाठक की स्थिति के अनुरूप है, (ii) पत्र में दिए गए विचारों में कोई बाधा तो नहीं है। विभिन्न पैराग्राफों के बीच भाषा का प्रवाह सही है, (ii) क्या सन्देश मैत्रीपूर्ण है तथा पक्षपातपूर्ण भाषा से मुक्त है, (iii) क्या पत्र, पढ़ने वाले को बताता है कि उसे क्या करना है । (iii) पत्र का खाका पढ़ने वाले को दी जाने वाली सभी सूचनाओं को उपलब्ध करा रहा है, (iv) पत्र के प्रारम्भिक एवं अन्तिम पैराग्राफ सही तथा प्रभावशाली हैं।  तीसरा संशोधन (Third Revision ) – इस अन्तिम संशोधन में पत्र की शैली एवं अभिव्यक्ति की जाँच करनी चाहिए। अतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए(i) क्या पत्र की भाषा एवं शैली स्पष्ट और आसान है,

Importance of Feedback

Importance of Feedback प्रतिपुष्टि का महत्त्व प्रतिपुष्टि सूचना के आदान-प्रदान तथा सन्देश – प्रेषक व सन्देशग्राही के मध्य समझ की पुष्टि करती है। जब सन्देश प्रेषक द्वारा सन्देशग्राही को सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है तो सन्देश-प्रेषक उस सन्देश की प्रतिपुष्टि चाहता है, भले ही वह सन्देश के अनुकूल हो या प्रतिकूल । केवल जे० कुमार के अनुसार – – “Feedback is the receiver’s reaction to the message whether favourable or hostile.” प्रतिपुष्टि एक ऐसा दिशा-निर्देश होती है, जिसके द्वारा सन्देश प्रेषक अपने सन्देश को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से सम्प्रेषित करने का प्रयास करता है। जब सन्देशग्राही गृहीत सन्देश का अनुकूल या प्रतिकूल उत्तर देता है, तब प्रतिपुष्टि की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। सम्प्रेषण-प्रक्रिया को सफल बनाने में प्रतिपुष्टि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सन्देश भेजने के बाद यह जानना आवश्यक हो जाता है कि संग्राहकों ने उसे ग्रहण किया या नहीं। वास्तव में प्रतिपुष्टि द्विमार्गी पद्धति है (1) सम्प्रेषक से संग्राहक तक, ( 2 ) संग्राहक से सम्प्रेषक तक। प्रतिपुष्टि दो प्रकार की होती है – पहली धनात्मक तथा दूसरी ऋणात्मक सम्प्रेषित सन्देश उपयोगी सिद्ध हो रहा है या नहीं, सम्प्रेषण प्रक्रिया में यदि कोई कमी रह गई है तो उसे कहाँ और कैसे सुधारा जा सकता है— इन सभी आशंकाओं का उत्तर प्रतिपुष्टि से प्राप्त होता है। सम्प्रेषण का एकमार्गी होना सम्प्रेषण की सबसे बड़ी बाधा है। प्रतिपुष्टि सन्देश को श्रोतावर्ग की आवश्यकतानुसार लयबद्ध बनाती है। सम्प्रेषण की साख के लिए प्रतिपुष्टि अपरिहार्य है।

Suggestions to Remove the Barriers of Communication pdf

Suggestions to Remove the Barriers of Communication सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के लिए सुझाव सम्प्रेषण की बाधाओं को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं— (1) सम्प्रेषक को सम्प्रेषण में सरल व स्पष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए।  (2) सम्प्रेषक द्वारा प्रसारित किए जाने वाले सम्प्रेषण का समय उचित रूप से निर्धारित होना चाहिए। (3) परिस्थितियों के अनुगामी सम्प्रेषण के दिशा-निर्देश तय कर लेने चाहिए।  (4) सम्प्रेषक व प्राप्तकर्त्ता के बीच सही अनुकूलन होना आवश्यक है। दोनों के मध्य एकरूपता का होना भी अति महत्त्वपूर्ण है । (5) यदि सम्प्रेषण की क्रिया आमने-सामने हो रही है तो आशंका का निवारण तत्काल किया जाना सम्प्रेषण की बाधा को विकसित होने से रोक देता है। (6) सम्प्रेषण की अभिव्यक्ति तथा भाषा सम्प्रेषणग्राही के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर अपनायी जानी चाहिए। (7) सन्देश के पश्चात् यदि आवश्यकतानुसार उसकी प्रतिपुष्टि की जा सके तो सम्प्रेषण की बाधा का सम्यक् निराकरण हो सकता है। (8) सम्प्रेषण की सम्पूर्ण क्रिया में श्रवणता का अति महत्त्वपूर्ण अवदान होता है, अतः सम्प्रेषण की बाधा से बचने के लिए श्रवणता के तत्त्व का उचित पालन किया जाना चाहिए। ( 9 ) प्रत्यक्ष सम्प्रेषण करते समय अन्य पक्ष के शारीरिक हाव-भाव का महत्त्व बढ़ जाता है। ऐसा करने से सम्प्रेषण में आने वाली बाधा को दूर किया जा सकता है अथवा बाधा के विकसित होने से पूर्व ही उसका निराकरण हो सकता है।